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तस्वार्थकोकवार्तिके
का पुनः स्वस्य पक्षो यत्सिद्धिर्जयः स्यादिति विचारयितुमुपक्रमते ।।
यहां कोई पुनः प्रश्न करता है कि बताओ ! अपना पक्ष क्या है ? जिस स्वपक्षकी सिद्धि हो जाना जय हो सके । इस तत्त्वका विचार करनेके लिये श्री विद्यानंद आचार्य प्रथम आरम्मरूप प्रक्रमको भविष्य अन्धद्वारा चलाते हैं।
जिज्ञासितविशेषोत्र धर्मी पक्षो न युज्यते । तस्यासंभवदोषेण बाधितत्वात्खपुष्पवत् ॥ ४९ ॥ कचित्साध्यविशेषं हि न वादी प्रतिपित्सते । स्वयं विनिश्चितार्थस्य परबोधाय वृत्तितः ॥५०॥ प्रतिवादी च तस्यैव प्रतिक्षेपाय वर्तनात् । जिज्ञासितो न सभ्याश्च सिद्धांतद्वयवेदिनः ॥५१॥
यहाँ प्रकरणमें जिसकी जिज्ञासा हो रही है, ऐसा कोई धर्माविशेष पक्ष हो जाय यह युक्त नहीं है । क्योंकि उस जिज्ञासित विशेषधर्मीकी असम्भव दोष करके बाधा प्राप्त हो जाती है, जैसे कि आकाशके पुष्पका असम्भव है । अर्थात्-शब्दके नित्यत्व अथवा अनित्यत्व या आत्माके व्यापकपन अथवा अव्यापकपन तथा बेदके पुरुषकृतत्व अथवा अपौरुषेयपन आदिका जब विचार चलाया जा रहा है, उस समय वादी, प्रतिवादी, या सभ्यजनों से किसीको किसी बातके जाननेकी इच्छा नहीं है। अतः जिस शब्दके नित्यत्व या अनित्यत्व की जिज्ञासा हो रही है, वह पक्ष है। यह पक्षका लक्षण असम्भव दोषसे युक्त है । देखिये, वादी तो अपने इष्ट पक्षको सिद्ध कर रहा है। वह किसी भी धीमें किसी साध्य विशेषकी प्रतिपत्ति करना नहीं चाहता है। क्योंकि जिस वादीने पहिले विशेषरूपसे अर्थका निश्चय कर लिया है, उस वादीकी दूसरोंके समझाने के लिये प्रवृत्ति हुषा करती है । अतः वादीकरके जिज्ञासित नहीं होने के कारण पक्षका लक्षण निज्ञासितपना असम्भवी हुमा । तथा सन्मुख बैठे हुये प्रतिवादीकी भी प्रवृत्ति उस वादीके प्रतिक्षेप (खण्डन ) करनेके लिये हो रही है । अतः प्रतिवादीकी अपेक्षासे भी जिज्ञासितपना पक्षका लक्षण असम्भव दोष प्रस्त है। सभ्योंकी अपेक्षासे भी पक्ष विचारा जिज्ञासा प्राप्त नहीं है। क्योंकि सभामें बैठे हुये प्राश्निक तो वादी, प्रतिवादी दोनोंके सिद्धान्तोंका परिज्ञान रखनेवाले हैं । अतः वैशेषिकोंने पक्षका लक्षण " सिषापयिषाविरहविशिष्टसिद्धेरभावः पक्षता " साधनेकी इच्छाके विरहसे विशिष्ट हो रही सिद्धिका अभाव पक्षता माना है । इसको व्यतिरेक मुखसे नहीं कहकर यदि अन्वय मुखसे कहा आय तो कुछ न्यून होता हुआ जिज्ञासित विशेष ही पक्ष पडता है। जानने की इच्छा नहीं होनेपर भी