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तत्वार्थश्लोकवार्तिके
भास्मामें अकेली क्रिया ही तो मानी जाय, किन्तु अव्यापकपना नहीं माना जाय, इसमें विशेषताको करनेवाला कोई हेतु तुमको कहना चाहिये । विशेषक हेतुके नहीं कहनेपर आत्माका अव्यापकपन ढक नहीं सकेगा, जो कि अव्यापकपन सम्भवतः तुमको अभीष्ठ नहीं पड़ेगा।
तत्रैव क्रियावज्जीवसाधने प्रयुक्ते सति साध्यधर्मिणि धर्मस्याभावं इष्टांतात् समा. संजयन् यो पक्ति सोपकर्षसमानाति वदति । यथा लोष्ठः क्रियाश्रयोऽसर्वगतो दृष्टस्तदात्मा सदाप्यसर्वगतोस्तु विपर्यये वा विशेषकद्धतुर्वाच्य इति ।
पहा ही परार्थानुमानमें वादीद्वारा समीचीन या असमीचीन हेतुकरके क्रियावान् जीयके साधनेका प्रयोग प्राप्त होनेपर जो प्रतिवादी साध्य धीमें धर्मके अभावको दृष्टान्तसे भळे प्रकार प्रसंग करा रहा बक रहा है, वह अपकर्षसमाजातिको स्पष्टरूपसे यों कह रहा है । जैसे कि कोष्ठ क्रियावान् हो रहा अव्यापक देखा गया है, उसीके समान आत्मा भी सर्वदा असर्वगत हो आओ अपवा विपरीत मानमेपर कोई विशेषताको करनेवाला कारण बतलाना चाहिये । जिससे कि डेळका एक धर्म तो भारमामें मिलता रहे और डेलका दूसरा धर्म आत्मामें नहीं ठहर सके । यहातक अपकर्षक्षमा आति कह दी गयी।
वण्यांवयंसमौ प्रतिषेधौ कावित्याह ।
अब वर्ण्यसम और अवर्ण्यसग प्रतिषेध कौन है ! ऐसी जिज्ञासा होमेपर इन दो प्रतिषेधों ( जाति ) को श्री विद्यानन्द आचार्य स्वकीय वार्तिकोंद्वारा इस प्रकार कहते हैं, सो सुनिये ।
ख्यापनीयो मतो वर्यः स्यादवण्यों विपर्ययात् । तत्समा साध्यदृष्टान्तधर्मयोरत्र साधने ॥ ३४२ ॥ विपर्यासनतो जातिर्विज्ञेया तद्विलक्षणा । भिन्नलक्षणतायोगात्कथंचित्पूर्वजातिवत् ॥ ३४३ ॥
चतुरंगवादमें प्रसिद्ध कर कथन करने योग्य स्थापनीय तो यहां वर्ण्य माना गया है। और ख्यापनीयके विपर्ययसे जो अवर्णनीय धर्म है, वह अवर्ण्य माना जाता है। जैसे कि यहां अनुमानमें जीवका क्रियासहितपना साधनेपर साध्य और दृष्टान्तके धर्मोका विपर्यास कर देनेसे उस वर्ण्यकरके और अवयंकरके सम यानी प्रतिषेधको प्राप्त हो रही वर्ण्यसमा और अवर्ण्यसमा जाति समझनी चाहिये । ये दोनों जातियां उस उत्कर्षमा और अपकर्षसमासे विभिन्न हो रही विलक्षण है। क्योंकि कथंचित भिन्न भिन्न लक्षणोंका सम्बन्ध होजानेसे पूर्वकी साम्यसमा वेधर्म्यसमा जातियां इम उत्कर्षसमा, अपकर्षसमासे विभिन्न हैं।