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________________ तत्वायचिन्तामणिः ३५९ वश होकर प्रतिज्ञान्तरका कथन कर दिया है, उस ही के समान वादीने प्रतिज्ञाहानिके अवसर पर शव भी नित्य हो जाओ ऐसा कह दिया है । अतः प्रतिज्ञान्तरको प्रतिज्ञाहानि ही फिर क्यों नहीं मानलिया जाय ! तिसरी बात यह है कि शर्के अनित्यपनकी सिद्धि के लिये स्वस्थ ( विचारशील अपने होशमें विराज रहे ) वादीका जिस प्रकार शब्द नित्य हो जाओ, यह प्रतिज्ञाहानिके अवसर पर कथन करना व्याघात युक्त है, उसी प्रकार प्रतिज्ञान्तरके समय स्वस्थवादीका शब्दके असर्वगतपनेकी दूसरी प्रतिज्ञाका कथन करना मी व्याघातदोषसे युक्त है । अर्थात्-विचारशील विद्वान् वादी न प्रतिज्ञाहानि करता है, और न प्रतिज्ञान्तर करता है। स्थूलबुद्धिवाले अस्वस्थ वादियों की बात न्यारी है । सङ्गतिपूर्वक कहनेवाला पण्डित पूर्वापर विरुद्ध या असंगत बातोंको कह कर बदतोव्याघात दोषसे युक्त हो जाय यह अलीक है। ततः प्रतिज्ञाहानिरेव प्रतिज्ञांतरं निमित्तभेदात्तद्भेदे निग्रहस्थानांतराणां प्रसंगात् । तेषां तत्रांतर्भावे प्रतिज्ञांतरस्येति प्रतिज्ञाहानावन्तर्भावस्य निवारयितुमशक्तेः। आचार्य कहते हैं कि तिस कारणसे सिद्ध हुआ कि थोडेसे निमित्तके भेदसे प्रतिज्ञाहानि ही तो प्रतिज्ञान्तर निग्रहस्थान हुआ । प्रतिज्ञान्तरको न्यारा निग्रहस्थान नहीं मानना चाहिये । यदि उन निमित्तोंका स्वल्पभेद हो जानेपर न्यारे न्यारे निग्रहस्थान माने जावेंगे, तब तो बाईस या चौबीस निग्रहस्थानोंसे न्यारे अनेक अनिष्ट निग्रहस्थानोंके हो जानेका प्रसंग हो जावेगा । उन अतिरिक्त निग्रहस्थानोंका यदि उन परिसंख्यात निग्रहस्थानोंमें ही अन्तर्भाव किया जायगा, तब तो प्रतिवान्तर निग्रहस्थानका इस प्रकार प्रतिज्ञाहानिमें अन्तर्भाव हो जानेका निवारण नहीं किया जा सकता है। अतः नैयायिकोंकरके प्रतिज्ञान्तर निग्रहस्थानका स्वीकार करना हम समुचित नहीं समझते हैं। प्रतिज्ञाविरोधमन्द्य विचारयन्नाह । अब श्री विद्यानन्द आचार्य प्रतिज्ञाविरोध नामक तीसरे निग्रहस्थानका अनुवाद कर विचार चलाते हुये कहते हैं। प्रतिज्ञाया विरोधो यो हेतुना संप्रतीयते । स प्रतिज्ञाविरोधः स्यादित्येतच न युक्तिमत् ॥ १४२ ॥ प्रयुक्त किये गये हेतुके साथ प्रतिज्ञावाक्यका जो विरोध अच्छा प्रतीत हो रहा है, वह प्रतिज्ञाविरोध नामका तीसरा निग्रहस्थान होगा । किन्तु यह नैयायिकोंका कथन युक्तिसहित नहीं है। " प्रतिज्ञाहेत्वोर्विरोधः प्रतिज्ञाविरोध" इति सूत्रं । यत्र प्रतिज्ञा हेतुना विरुध्यते हेतुश्च प्रतिज्ञायाः स प्रतिज्ञाविरोधो नाम निग्रहस्थानं, यथा गुणव्यतिरिक्तं द्रव्यं भेदेनाग्रहणादिति न्यायवार्तिकं । तच्चन युक्तिमत् ।
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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