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तत्वार्थ लोकवार्तिके
विरुद्धसाधनाद्वायं विरुद्ध हेतुरागतः । समूहावास्तवे हेतुदोषो नैकोपि पूर्वकः ॥ १५२ ॥ सर्वथा भेदिनो नानार्थेषु शब्दप्रयोगतः । प्रकल्पितसमूहेष्वित्येवं हेत्वर्थनिश्वयात् ॥ १५३ ॥ तथा सति विरोधोयं तद्धेतोः संध्या स्थितः । संधाहानिस्तु सिद्धेयं हेतुना तत्प्रबाधनात् ॥ १५४ ॥
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अथवा यह वादी द्वारा कहा गया हेतु प्रतिज्ञासे विरुद्ध साध्यको साधनेवाला होनेसे विरुद्ध स्वाभास है, यह बात आयी । अतः प्रतिवादी करके वादीके ऊपर विरुद्ध हेत्वाभास उठाना चाहिये । बौद्धजन समुदायको वास्तविक नहीं मानते हैं । उनके यहां संतान, समुदाय, अवयवी ये सब कल्पित माने गये हैं । नैयायिक, जैन, मीमांसक, विद्वान् समुदायको वस्तुभूत मानते हैं । ऐसी दशा में हमारा प्रश्न है कि वादीकर के कहे गये हेतुमें पडा हुआ समुदाय क्या वास्तविक है ? अथवा कल्पित है ! बताओ । यदि समुदायको अवास्तविक कल्पित माना जायगा, तब तो पूर्ववर्त्ती एक भी हेतुका दोष वादीके ऊपर लागू नहीं होता है । क्योंकि सौत्रान्तिक बौद्धों के यहां सम्पूर्ण पदार्थ सर्वथा भेदसे सहित हो रहे हैं । उनके यहां मिथ्यावासनाओं द्वारा अच्छे ढंगसे कल्पना कर लिये गये समूहस्वरूप वास्तविक भिन्न मिन अनेक अर्थों में भावशब्दका प्रयोग हो रहा है । इस प्रकार हेतुके अर्थका निश्चय हो जानेसे कोई दोष नहीं जाता है। हां, यदि समुदाय वास्तविक पदार्थ है, तैसा होनेपर यह उस हेतुका प्रतिज्ञावाक्य करके विरोध हो जाना स्थित होगया। हां, यह प्रतिज्ञाहानि तो सिद्ध है । क्योंकि हेतुकरके उस प्रतिज्ञावाक्यकी अच्छे ढंगसे बाधा हो चुकी है । अतः हेतुविरोधको ही प्रतिज्ञाविरोध कहना ठीक नहीं है ।
यदप्यभिहितं तेन, एतेन प्रतिज्ञया दृष्टांतविरोधो वक्तव्यो हेतोश्च दृष्टांतादिभिर्विरोधः प्रमाणविरोधश्च प्रतिज्ञाहेत्वोर्यथा वक्तव्य इति, तदपि न परीक्षाक्षममित्याह ।
और भी जो उन उद्योतकर पण्डितजीने कहा था कि इस पूर्वोक्त विचारके द्वारा प्रतिज्ञा करके दृष्टान्तका विरोध भी कहना चाहिये । और हेतुका दृष्टान्त, उपनय, इत्यादि करके विरोध भी कह देना चाहिये । तथा अन्य प्रमाणोंसे बाधा प्राप्त हो जाना भी वक्तव्य है । जैसे कि प्रतिज्ञा और हेतुका विरोध कथन करने योग्य है, उसी प्रकार अन्य विरोध भी वक्तव्य हैं । सूत्रोक्त प्रमेय से जहां अधिक बात कहनी होती है, वहां वक्तव्यं, वाध्यं, इष्यते, या उपसंख्यानं, ऐसे प्रयोग
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