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________________ २५४ तत्त्वार्थ चोकवार्तिके कहना । क्योंकि बहिरंग अर्थपनेकी कल्पनाको साध्यधर्म और साधनधर्मका आधारपना नहीं बन सकता है । तुम्हारे यहां कहीं भी तो वास्तविक रूपसे आधार, आधेय, भावकी सम्भावना नहीं मानी गयी है। कचित् मुख्यरूपसे सिद्ध हो रहे पदार्थका अन्यत्र उपचार कर लिया जा सकता है। सर्वथा कल्पितपदार्थ तो किसीका आधार नहीं हो सकता है । लोकमें पतनका प्रतिबन्ध करनेवाले वस्तुभूत पदार्थको किसीका आधार माना गया है । कल्पित थंभा सतखनी हवेली के बोझको नहीं डाट सकता है। अतः क्षणिक पक्षमें आधार आधेयभाव नहीं बना । किं च, संयोगविभागाभावो द्रव्याभावात् क्रियाविरहश्च ततोन कारकव्यवस्था यतः किचित्परमार्थतोऽर्थक्रियाकारि वस्तु स्यात् । सदृशेतरपरिणामाभावश्च परिणामिनो द्रव्यस्यापसवात् । ततः स्वपरसंतानव्यवस्थितिविरोधः सदृशेतरकार्यकारणानामत्यंतमसंभवात् । समुदायायोगश्च, समुदायिनो द्रव्यस्यानेकस्यासमुदायावस्थापरित्यागपूर्वकसमुदायावस्थामपाददानस्यापहवात् । तत एव न प्रेत्यभावः शुभाशुभानुष्ठानं तत्फलं च पुण्यं पापं बंधी वा व्यवतिष्ठते यतो संसारमोक्षव्यवस्था तत्र स्यात् सर्वथापीष्टस्यामसिद्धः। और भी यह बात है कि बौद्धोंके यहाँ द्रव्य नहीं माननेसे संयोग और विभागका अभाव हो जाता है तथा क्षणिक पक्षमें क्रियाका विरह है, तिस कारणसे क्रियाकी अपेक्षा होनेवाले कार - कोंकी व्यवस्था नहीं हो पाती है । जिससे कि कोई वस्तु वास्तविकरूपसे अर्थक्रियाको करनेवाली हो जाती। तथा बौद्धोंके यहां परिणामी द्रव्यका अपह्नव (छिपाना) करनेसे सदृश परिणाम (सादृश्य) और विसदृश परिणाम ( वैसादृश्य ) का अभाव हो जाता है और ऐसा हो जाने से अपने पूर्व अपर क्षणोंके संतानकी व्यवस्थाका और दूसरों के चित्तोंके सन्तानकी व्यवस्था कर देनेका विरोध आता है। क्योंकि सदृश कार्य कारणों और विसदृश कार्यकारणोंका तुम्हारे यहां अत्यन्त असम्भव है। ऐसी दशामें सन्तानोंका सांकर्य हो जानेसे तुम स्वयं अपने डीलमें स्थिर नहीं रह सकते हो । तथा क्षणिक पक्षमें समुदाय नहीं बन सकता है । क्योंकि अनेकमें स्थिर हो रहे और असमुदाय अवस्थाका परित्यागपूर्वक समुदाय अवस्थाको ग्रहण कर रहे एक समुदायी द्रव्यका जान बूझकर छिपाव किया गया है । तिस ही कारण यानी एक अन्वेता द्रव्यके नहीं स्वीकार करनेसे बौद्धोंके यहां मर कर जन्म लेना या शुभ, अशुभ, कर्मोका अनुष्ठान करना अथवा उन शुभाशुभ कर्मोका फल पुण्य, पाप, प्राप्त होना, तथैव उन पुण्य, पापका, आत्माके साथ बन्ध हो जाना आदिकी व्यवस्था नहीं हो पाती है, जिससे कि उस क्षणिक पक्षमें संसार और मोक्षकी व्यवस्था बन सके । सभी प्रकारोंसे इष्ट हो रहे पदार्थोकी प्रसिद्धि नहीं हो सकी है । अतः बौद्धोंके विचार कुनय हैं। ___ संवृत्या हि नेष्टस्य सिद्धिः संवृतेमषात्वात् । नापि परमार्थतः पारमार्थिकैकद्रव्यसि दिप्रसंगात् तदभावे तदनुपपत्तेरिति परीक्षितमसद्विद्यानंदिमहोदये ।
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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