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________________ तत्वार्यश्लोकवार्तिके मनुष्योंमें अनीति बढती जाती है, इत्यादिक स्थलोंपर सामान्यशब्द अर्थविशेषोंको ही कहते हैं। क्योंकि केवल सामान्यमें अर्थक्रिया नहीं हो सकती है । प्रतिवादीको उचित था कि बादीके द्वारा प्रयुक्त किये गये सामान्यवाचक शब्दके अभीष्ट हो रहे विशेष अर्थका प्रबोध कर पुनः दोष उठाता । किन्तु कपटी प्रतिवादीने जानबूझकर अनुपपद्यमान अर्थान्तरकी कल्पना की। अतः छली प्रतिवादीको सम्योंके सन्मुख पराजित होना पड! ! काठ की हांडी एक बार भी नहीं चढती, धोखा सर्वत्र धोखा ही है । अस्योदाहरणमुपदर्शयति । नैयायिकोंके मन्तव्यका अनुवाद करते हुये श्री विद्यानन्द आचार्य इस वाक्छलके उदाहरण को बार्तिकोंद्वारा दिखलाते हैं। आब्यो वै देवदचोयं वर्तते नवकंबलः । इत्युक्ते प्रत्यवस्थानं कुतोस्य नवकंबलाः ॥ २८० ॥ यस्मादाब्यत्वसंसिद्धिर्भवेदिति यदा परः । प्रतिब्यात्तदा वाचि छलं तेनोपपादितम् ॥ २८१ ॥ यह देवदत्त अवश्य ही अधिक धनवान् वर्त रहा है । क्योंकि नवकंबलवाला है । इस प्रकार वादीद्वारा कथन कर चुकनेपर प्रतिवादीद्वारा प्रत्यबस्थान उठाया जाता है कि इसके पास नौ संख्या वाले कंबल कहां है जिससे कि हेतुके पक्षमें वर्तजानेसे धनीपनकी भळे प्रकार सिद्धि हो जाती । अर्थात्-वादी जब इसके पांच और चार नौ कंबल बता रहा है किन्तु इसके पास एक ही नेपाली कंबल है। इस प्रकार दूसरा प्रतिवादी जब प्रत्युत्तर कहेगा, तब उस प्रतिवादीके वचनोंमें छलकी उपपत्ति करायी । अतः प्रतिवादी छळ दोषप्ते ग्रसित हुआ विचारशीलोंकी दृष्टिमे गिर जाता है । नवकंबलशद्वे हि वृत्त्या प्रोक्ते विशेषतः। नवोऽस्य कंबलो जीणों नैवेत्याकूतमाजसम् ॥ २८२ ॥ वक्तुः संभाव्यते तस्मादन्यस्यार्थस्य कल्पना । नवास्यकंबला नाष्टावित्यस्यासंभवात्मनः ॥ २८३ ।। प्रत्यवस्थातुरन्यायवादितामानयेद्रुवं । संतस्तत्त्वपरीक्षायां कथं स्युश्छलवादिनः ॥ २८४ ॥
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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