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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः तब संशय होता है । अतः संशयके कारण मिल जानेपर मति और श्रुतमें तो संशय नामके मिथ्याज्ञानका भेद सम्भव हो जाता है । किन्तु अवधिज्ञानकी उत्पत्ति होनेमें ( किसी भी विषयमें ) इन्द्रियोंका व्यापार. अथवा मनका व्यापार नहीं देखा गया है, जिससे कि सामान्यका प्रत्यक्ष होता हुआ और विशेषका प्रत्यक्ष नहीं होता हुआ, किन्तु विशेषके स्मरण करके संशयवान होना वहां अवधि विषयमें बन बैठता । वस्तुतः अपनेको ढकनेवाले अवधिज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशमविशेष स्वरूप उस अवधिज्ञान करके अपने विषयभूत सामान्य विशेष धर्मआत्मक वस्तुका ग्रहण होता है। यानी अवधिज्ञान अपने विषयके विशेष अंशोंको भी साथ साथ अवश्य जान लेता है । तिस कारणसे अवधिज्ञान संशयखरूप नहीं माना गया है । अवधिज्ञान या विभङ्गज्ञान अतीव स्पष्ट है । अतः उसके विषयमें संशय होना असम्भव है। विपर्ययात्मा तु मिथ्यात्वोदयाद्विपरीतवस्तुस्वभावश्रद्धानसहभावात्सम्बोध्यते । किन्तु मिथ्यात्वकर्मके उदयसे बस्तुस्वभावके विपरीत श्रद्धान स्वरूप हुये मिथ्यादर्शनके साथ रहना हो जानेसे अवधिज्ञान विपर्ययस्वरूप तो सम्बोधा जाता है। अर्थात् लोकमें प्रसिद्ध है कि मद्यविक्रेताकी दूकानपर दूधको पीनेवाला भी पुरुष हीनदृष्टिसे देखा जाता है। जिस आत्मामें मिथ्यादर्शन हो रहा है उसमें हुआ अवधिज्ञान भी विभंग होकर विपरीत ज्ञान कहा जाता है। तथानध्यवसायात्माप्याशु उपयोगसंहरणाद्विज्ञानान्तरोपयोगाद्गच्छत्तृणस्पर्शवदुत्पाद्यते । दृढोपयोगावस्थायां तु नावधिरनध्यवसायात्मापि । तिसी प्रकार शीघ्र अपने उपयोगका संकोच करनेसे या दूसरे विज्ञानमें उपयोगके चले जानेसे चलते हुये पुरुषके तृण छ जानेपर हुये अनध्यवसाय ज्ञानके समान अवधिज्ञान मी अनध्यवसायस्वरूप उपजा लिया जाता है। हां, ज्ञेय विषयमें दृढरूपसे लगे हुये उपयोगकी अवस्थामें तो अवधिज्ञान अनध्यवसायस्वरूप भी नहीं होता है। उस दशामें केवल एक विपर्यय भेद ही घटेगा। कथमेवावस्थितोऽवधिरिति चेत्, कदाचिदनुगमनात्कदाचिदननुगमनात्कदाचिदर्धमानत्वात्कदाचिद्धीयमानत्वाचथा विशुद्धिविपरिवर्त्तमानादवस्थितोवधिरेकेन रूपेणावस्थानान्न पुनरढोपयोगत्वात्स्वभावपरावर्त्तनेऽपि, तस्य तथा तथा दृढोपयोगत्वाविरोधात् । ___ कोई पूछता है कि इस प्रकार अनध्यवसायदशामें दृढ उपयोग नहीं होनेके कारण मग अवधिज्ञान कैसे अवस्थित समझा जायगा ! यानी उक्त दशामें अवधिनानके छह मेदोंमेंसे पांचवां भेद अवस्थित तो नहीं अवस्थित हो पाता है । आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार पश्न होनेपर उत्तर यह समझना कि कभी कभी दूसरे देश या दूसरे भवमें अनुगमन करनेसे और कभी नहीं अनुगमन करनेसे और कदाचित् बर्धमान होनेसे, कमी कभी हीयमान हो जानेसे, लिख प्रकार
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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