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________________ तत्वार्थ लोकवार्तिके 1 एक प्रतिवादी कह बैठता है कि ब्राह्मणके सम्भव होते हुये विषा, चारित्र, सम्पत्ति है । इस प्रकार उस वादी प्रति इस वाक्यका विघात तो अर्थविकल्पकी उपपत्तिरूप असद्भूत अर्थकी कल्पमा करके यों किया जाता है जो कि छठका सामान्य लक्षण है कि ब्राह्मण होनेके कारण उस पुरुषमें विद्या आचरण सम्पत्ति सम्भव रही है । नवसंस्कारहीन कृषक ब्राह्मण ( बामन ) या बहुतसे पहाडी पंजाबी, बामन अथवा ब्राह्मण बालक भी तो ब्राह्मण हैं । वे भी विद्या, आचरण सम्पत्तिको धारने वाके हो जायेंगे । तिस कारण यह ब्राह्मणपना ( कर्त्ता ) विवक्षा प्राप्त हो रहे विद्या, चारित्र, सम्पति स्वरूप अर्थको किसी सपक्ष हो रहे ज्ञान चारित्रवाळे तिस प्रकार ब्राह्मणमें प्राप्त करा देता है। और किसी विपक्षरूप व्रात्यमे विद्या, आचरण सम्पत्तिको अतिक्रान्त कर जाता है। क्योंकि उस विद्या, आचरण सम्पत्ति विना भी वहां व्रात्य में ब्राह्मणत्वका सद्भाव है । यह अतिसामान्यका अर्थ है । उस अतिसामान्यके योग करके वक्ताको अभिप्रेत हो रहे सद्भूत अर्थसे अन्य असद्भूत अर्थकी कल्पना करना सामान्य छछ है । नैयायिक कहते हैं कि वह छल करना तो प्रतिवादीको उचित नहीं है । जिस कारणसे कि हेतुके विशेषोंकी नहीं विवक्षा कर वादीने ब्राह्मणरूप विषयके स्तुति परक अर्थका अनुवाद कर दिया है । क्योंकि अनेक वाक्य प्रशंसाके लिये प्रयुक्त किये जाते हैं । 1 जैसे कि विद्यार्थी विनयशाली होना चाहिये । पुत्र माता पिता गुरुओंका सेवक होता है । अनुचरी होती है । ये सब वाक्य प्रशंसा करनेमें तत्पर हो रहे अर्थवाद ( स्तुतिबाद ) हैं । किसी एक दुष्ट विद्यार्थी या कुपूत अथवा निकृष्ट स्त्रीके द्वारा अशिष्ट व्यवहार कर देनेपर अद्भूत अर्थकी कल्पना करना नहीं बनता है । जैसे कि इस खेतकी भूमिमें शालि चावल अच्छे चाहिये, यहां शाकि बीजके जन्मकी विवक्षा नहीं की गयी है । और उसका निराकरण भी नहीं कर दिया है । हां, उस शालिके प्रवृत्तिका विषय हो रहा क्षेत्र प्रशंसित किया जाता है । अतः यह यहां क्षेत्रकी प्रशंसाको करनेवाला बाक्य है। इतने ही से इस खेतमें शाली चावलों का विधान नहीं हो जाता है। हां, बीजके कह देनेसे तो शालियोंकी निवृत्ति होती संती इमको विवक्षित नहीं है । तिस ही प्रकार प्रकरण में ब्राह्मणकी संभावना होनेपर विद्या, आचरण, संपत्ति होगी, इस ढंग से संपत्तिका प्रशंसक ब्राह्मणपना तो संपत्तिका हेतु नहीं है । अयम् ( पक्ष ) विद्याचरणसम्पन्नः (साध्य) ब्राह्मणत्वात् ( हेतु ) श्रोत्रियशास्त्र जिनदत्तवत् ( दृष्टान्त ) इस वाक्यमें वह ब्राह्मणपना व्याप्य हेतु रूपसे विवक्षित नहीं है। हां, केवल उन ब्राह्मणोंके विषय में प्रशंसा करनेवाले अर्थका अनुवाद मात्र तो यह है । लोकमें अनेक वाक्य प्रशंसाके लिये हुआ करते हैं । ब्राह्मणपना होते संते विद्या, आचरण संपत्तिका समर्थहेतु संभव रहा है । इस प्रकार विषयकी प्रशंसा करनेवाले वाक्य करके जिस प्रकार हेतुसे साध्यरूप फळकी निवृत्ति नहीं खण्डित कर दी जाती है । अर्थात- संभावमीय हेतुओंसे संभावनीय साध्यको साधनेपर अद्भूत अर्थद्वारा व्यभिचार उठाना छछ है । कोकमें प्रसिद्ध है कि 'जगत् के कार्य विश्वास से होते हैं। यदि किसी भृत्य या मुनीमने धनपतिका माल चुरा कर विश्वास ४४६
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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