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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः मुख्येन सर्वावधिपरिच्छे यत्वात् । तत्रर्जुमतेर्निबन्धो बोद्धव्यस्तस्य मनःपर्ययप्रथमव्यक्तिस्वात्सामर्थ्याहजुमतिविषयस्यानन्तभागे विषये विपुलमतेर्निबन्धोऽवसीयते तस्य परमनःपर्ययत्वात् । तत् शब्द करके पूर्वनिर्दिष्ट अर्थका विचार किया जाता है, इस सूत्रमें कहा गया तत् शब्द अवधिज्ञानके विषयका परामर्श कर लेता है। किन्तु फिर अवधिज्ञानका तो परामर्श नहीं करता है । क्योंकि विषयका प्रकरण होनेसे, विषयभूत पदार्थोका आकर्षण होगा, विषयी ज्ञानोंका नहीं । और वह विषय भी मुख्य हो रहे अवधिज्ञानका नियत हो चुका परामर्शित किया जाता है । अवधिज्ञानोंमें गौण हो रहे देशावधिक विषयका पूर्व परामर्श करनेमें प्रयोजनका अभाव है। देशावधि के सम्पूर्ण विषयोंसे सूक्ष्म हो रहा परमावधिका विषय है। उसके भी अनन्तभाग किये जाय उन सबमेंसे एक अनन्तवां भाग सर्वावधिज्ञानका विषय है । उस सूक्ष्मभागका सम्पूर्ण अवधियोंके मुख्य सर्वावधिज्ञान द्वारा परिच्छेद किया जाता है। उस सर्वावधिक विषयमें या उसके अनन्तवें भाग द्रव्यमें ऋजुमति मनःपर्ययज्ञानका नियम जघन्यरूपसे समझना चाहिये । क्योंकि मनःपर्ययज्ञानका वह अजुमति पहिला व्यक्तिरूप भेद है । आर्ष आगम अनुसार सूत्र व्याख्यानकी सामर्थ्यसे यह अर्थ भी यहां निर्णीत हो जाता है कि ऋजुमति द्वारा जाने गये विषयके अनन्तवें भागरूप विषयमें विपुलमतिका नियम हो रहा है । क्योंकि वह विपुलमति मनःपर्ययज्ञानका दूसरा भेद है। जो कि मनःपर्ययज्ञानोंमें उत्कृष्ट है। अर्थात्-देशावधिका उत्कृष्ट द्रव्य कार्मण वर्गणा है । उसमें असंख्यात बार अनन्त संख्यावाले ध्रुवहारों का भाग देनेपर परमावधिका द्रव्य निकल आता है । और परमावधि के द्रव्यमें अनेक वार अनन्तका भाग देनेपर सर्वावधिका सूक्ष्म द्रव्य प्राप्त होता है। ये सब कार्मणद्रव्यमें अनन्तानन्त भाग दिये जा रहे हैं। सर्वावधिसे जान लिये गये द्रव्यमें पुनः अनन्तका भाग देनेपर ऋजुमतिका द्रव्य निकलता है। ऋजुमतिके द्रव्यमें अनन्तका भाग देनेपर विपुलमतिका द्रव्य निकलता है। अभीतक स्कन्ध ही विषय किया गया है । परमाणुतक नहीं पहुंचे हैं। क्षेत्र काल और भावोंको आगम अनुसार लगा लेना । गोम्मटसार अनुसार कुछ अन्तर लिये हुये व्यवस्था है । उसका वहांसे परिज्ञान करो । कचिदाचार्यसम्प्रदायानां भेदोस्ति । असर्वपर्यायग्रहणानुवृत्तेर्नाऽनाद्यनन्तपर्यायाक्रान्ते द्रव्ये मनःपर्ययस्य प्रवृत्तिस्तद्ज्ञानावरणक्षयोपशमा सम्भवात् । अतीतानागतवर्तमानानन्तपर्यायात्मकवस्तुनः सकलज्ञानावरणक्षयविजृभितकेवलज्ञानपरिच्छेद्यत्वात् । "मतिश्रुतयोर्निबन्धो द्रव्येष्वसर्वपयायेषु " इस सूत्रमें से असर्वपर्याय शब्दके ग्रहणकी अनुवृत्ति कर लेनेसे अनादि अनन्तपर्यायोंकरके घिरे हुये द्रव्यमें मनःपर्ययज्ञानकी प्रवृत्ति नहीं है,
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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