Book Title: Savruttik Aagam Sootraani 1 Part 31 Aavashyak Mool evam Vrutti Part 4
Author(s): Anandsagarsuri, Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Vardhaman Jain Agam Mandir Samstha Palitana
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम यमनमो नमो निम्मलदसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर-गुरुभ्यो नमः आगर भाग सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि आगम ४० "आवश्यक” मूलं एवं वृत्ति: [४] मूल संशोधक :- पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब अभिनव-संकलनकर्ता :- आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि 3 पूज्य शासनप्रभावक आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से ''वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था' पालिताणा Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता श्री आगम मंदिर पालिताणा Sahitmanastaste ~ ~ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याज आजार आजम आवास नमो नमो निम्मलदसणस्स। सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि मूल संशोधक अभिनव संकलनकर्ता RIOROR S HIMIRMIREE पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महायज आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहषि] प्रत-प्राप्ति और पेज सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 9825598855/98253062751 ~3~ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुराणमयमा व्यायामशालमा सामाध्यममा पापा आगम । लाव ਸ ਸ ਸ ਸ 444 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [भाग-३१] श्री आवश्यक सूत्रम् (मूलसूत्रम्-१/४) नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नम: "आवश्यक" मूलं एवं वृत्ति: [मूलं + भद्रबाहुस्वामी कृत् नियुक्ति; + भाष्यं + हरिभद्रसूरि रचिता-वृत्ति:] भाग-३०, नियुक्ति:- (१२७३.अपूर्ण से १६२३) + (अध्ययन ४.अपूर्ण से ६ पूर्ण) [आद्य संपादकश्री] पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D. श्रुतमहर्षि) 28/07/2017, शुक्रवार, २०७३ श्रावण शुक्ल ५ 'सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग-३१ श्री आगमोद्धारक-वाचना-शताब्दी-वर्ष-निमित्त 'आगम-वृत्ति-मुद्रण-प्रोजेक्ट' ~5~ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाचारी-संरक्षक, ज्ञानधनी, आगम-संशोधक, तीव्र-मेधावी, समाधिमृत्यु-प्राप्त, बहुमुखीप्रतिभाधारक पज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसरीश्वरजी महाराज साहेब | .जिन्होने शुद्ध-श्रद्धा, सम्यक् श्रुत आराधना, यथाख्यातचारित्र के प्रति गति और अंत समय देह-ममत्व के त्याग के द्वारा कायोत्सर्ग नामक : | अभ्यंतर-तप कि मिशाल कायम कि है ऐसे बहुश्रुत आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी महाराज का परिचय कराना मेरे लिए नामुमकिन है, फ़िर भी । गरुभक्ति बद्धि से श्रद्धांजली स्वरुप एक मामली सी झलक पैस करने का यह प्रयास मात्र है। .चारित्र-ग्रहण के बाद अल्प कालमे जो अपने गुरुदेव की छत्रछाया से दूर हो गये, तो भी गुरुदेव के स्वर्ग-गमन को सिर्फ कर्मो का प्रभाव मानकर अपने संयम के लक्ष्य प्रति स्थिर रहते हुए अकेले ज्ञान-मार्ग कि साधना के पथ पर चले | पढाई के लिए ही कितने महिनो तक रोज एकासणा तप के साथ बारह किल्लोमिटर पैदल विहार भी किया | लेकिन अपने मंझिल पे डटे रहे, और परिणाम स्वरुप संस्कृत एवं प्राकृत भाषा का, । प्राचीन लिपिओ का, व्याकरण-न्याय-साहित्य आदि का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया | जैन आगमशास्त्रो के समुद्र को भी पार कर गए। .एक अकेला आदमी भी क्या नहीं कर शकता? इस प्रश्न का उत्तर हमें इस महापुरुष के जीवन और कवन से मिल गया, जब वे चल पड़े | देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण के स्थापित पथ पर. बिना किसी सहाय लिए हए सिर्फ अकेले ही "जैन-आगम-शास्त्रो" को दीर्घजीवी बनाने के लिए अनेक हस्तप्रतो से शुद्ध-पाठ तैयार किये | दो वैकल्पिक आगम, कल्पसूत्र और निर्यक्तिओ को जोड़कर ४५ आगम-शास्त्रो को संशोधित कर के संपादित किया : || फिर पालीताणामें आगम मंदिर बनवाकर आरस-पत्थर के ऊपर ये सभी आगम-साहित्य को कंडारा, सूरतमें तामपत्र पर भी अंकित करवाए और । : "आगम मंजूषा" नाम से मुद्रण भी करवा के बड़ी बड़ी पेटीमें रखवा के गाँव गाँव भेज दिए | वर्तमानकालमे सर्व प्रथमबार ऐसा कार्य हुआ | .सिर्फ मूल आगम के कार्य से ही उन के कदम रुके नही थे, उन्होंने आगमो की वृत्ति, चूर्णि, नियुक्ति, अवचूरी, संस्कृत-छाया आदि का | • भी संशोधन-सम्पादन किया | उपयोगी विषयो के लिए उन्होंने एक लाख श्लोक प्रमाण संस्कृत-प्राकृत नए ग्रंथो की रचना भी की | कितने ही ग्रंथो : की प्रस्तावना भी लिखी | ये सम्यक्-श्रुत मुद्रित करवाने के लिए आगमोदय समिति, देवचंद लालभाई इत्यादि विभिन्न संस्था की स्थापना भी की। | .ज्ञानमार्ग के अलावा सम्मेतशिखर, अंतरीक्षजी, केशरियाजी आदि तीर्थरक्षा कर के सम्यक-दर्शन-आराधना का परिचय भी दिया | राजाओं। को प्रतिबोध कर के और वाचनाओ द्वारा अपनी प्रवचन-प्रभावकता भी उजागर करवाई | बालदिक्षा, देवद्रव्य-संरक्षण, तिथि-प्रश्न इत्यादि विषयोमे | सत्य-पक्षमें अंत तक दृढ़ रहे | जैनशासन के लिए जब जरुरत पड़ी तब अदालती कारवाईओ का सामना भी बड़ी निडरता से किया था | . सागरानंदजी के नाम से मशहूर हो चुके पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजीने अपने परिवार स्वरुप ८७० साधू-साध्वीजी भी शासन को भेट किये | ...ये थे हमारे गुरुदेव "सागरजी"... ......मुनि दीपरत्नसागर... - .. - .. - .. - .. - .. - .. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयमैकलक्षी, उपधान-तप-प्रेरक, चारित्र मार्ग-रागी, प्रवचन- पटु, सुपरिवार युक्त पूज्य गच्छाधिपतिआचार्यदेव श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब ••• परमपूज्य आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी के पाट-परंपरामे हुए तिसरे गच्छाधिपति थे पूज्य आचार्य श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी, जो एक पून्यवान् आत्मा थे, दीक्षा ग्रहण के बाद अल्पकालमे ही एक शिष्य के गुरु बन गये । फ़िर क्या ! शिष्यो कि संख्या बढ़ती चली, बढ़ते हुए पुन्य के • साथ-साथ वे आखिर 'गच्छाधिपति' पद पे आरूढ़ हो गए | इस महात्मा का पुन्य सिर्फ शिष्यों तक सिमित नही था, वे जहा कहीं भी 'उपधान- तप' की प्रेरणा करते थे, तुरंत ही वहां 'उपधान' हो जाते थे | प्रवचनपटुता एवं पर्षदापुन्य के कारण उन के उपदेश प्राप्त बहोत आत्माओने संयम-मार्ग का स्वीकार किया | खुद भी संयमैकलक्षी होने के कारण चारित्रमार्ग के रागी तो थे ही, साथसाथ ज्ञानमार्ग का स्पर्श भी उन का निरंतर रहेता था | आप कभी भी दुपहर को चले जाइए, वे खुद अकेले या शिष्य परिवार के साथ कोई भी ग्रन्थ के अध्ययन-अध्यापनमें रत दिखाई देंगे | ••• ये तो हमने उनके जीवन के दो-तीन पहेलु दिखाए | एक और भी अनुसरणीय बात उन के जीवनमें देखने को मिली थी- 'आराधना-प्रेम'. कैसी भी शारीरिक स्थिति हो, मगर उन्होंने दोनों शाश्वती ओलीजी, [पोष}दशमी, शुक्ल पंचमी, त्रिकाल देववंदन, पर्व या पर्वतिथि के देववंदन आदि आराधना कभी नहीं छोड़ी | आखरी सालोमें जब उन को एहसास हो गया की अब 'अंतिम आराधना' का अवसर नजदीक है, तब उन के मुहमें एक ही | • रटण बारबार चालु हो गया- "अरिहंतनुं शरण, सिद्धनुं शरण, साधुनुं शरण, केवली भगवंते भाखेला धर्मनुं शरण" इसी चार शरणो के रटण के साथ ही वे : समाधि-मृत्यु-रूप सम्यक् निद्रा को प्राप्त हुए थे | ऐसे महान् सूरिवर को भावबरी वंदना | मुनि दीपरत्नसागर.... श्री वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था, पालिताणा ... पूज्यपाद आनंदसागर-सूरीश्वरजी की बौद्धिक प्रतिभा का मूर्तिमंत स्वरुप ऐसी इस संस्था की स्थापना विक्रम संवत १९९९ मे महा-वद ५ को हुई | पूज्य आचार्य हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से जिन की तरफ़ से इस सवृत्तिक- आगम-सुत्ताणि के लिए संपूर्ण द्रव्य सहाय की प्राप्ति हुई | शिल्प-स्थापत्य, शिलोत्कीर्ण आगम और समवसरण स्थित नयनरम्य ४५ चौमुख जिन प्रतिमाजी से सुशोभित ऐसा ये 'आगममंदिर है, जो शत्रुंजय-गिरिराज कि तलेटीमे स्थित है । वर्तमान २४ जिनवर, २० विहरमान जिनवर और १ शाश्वत मिलाकर ४५ चौमुखजी यहा बिराजमान है | जहां ४० समवसरण की रचना मेरु पर्वत के तिनो काण्ड के वर्णों के अनुसार चार अलग-अलग रंगो के आरस पत्थर से बना है, देवो द्वारा रचित समवसरण ं के शास्त्र वर्णन अनुसार आगम मंदिर कि समवसरण का स्थापत्य है । ऐसी अनेक विशेषता से युक्त ये आगममंदिर है | ~7~ *** मुनि दीपरत्नसागर .... Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - .. - .. - .. - .. - .. - .. - .. - .. - .. . ____ 'सागर-समुदाय-एकता-संरक्षक, तीर्थ-उद्धार-कार्य-प्रवृत्त, गुणानुरागी' इस “सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग १ से ४० के संपूर्ण अनुदान के प्रेरणादाता पूज्य शासनप्रभावक आचार्य श्री हर्षसागरसूरिजी महाराज साहेब पूज्यपाद स्व. गच्छाधिपति देवेन्द्रसागर-सूरीश्वरजी के विनयी शिष्य एवं दो गच्छाधिपतिओ के मुख्य सहायक के रुपमे 'सागर समुदाय' के सुचारु संचालक पूज्य हर्षसागरसूरिजी, जिन की प्रेरणा से ये "सवृत्तिक-आगम-सत्ताणि" के मुद्रण के लिए संपूर्ण द्रव्यराशि प्राप्त हुई, उनका अत्यल्प परिचय यहां करेंगे| समुदाय-एकता के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते हुए ये महात्मा समुदाय के साधु-साध्वीजी की आवश्यकताओकी पूर्ती के लिए भी प्रवृत्त रहेते है, प्राचीन-अर्वाचीन तीर्थो के जीर्णोद्धार एवं विकाश के लिए भी उत्साहित रहेते है, ज्ञान-क्षेत्र अछूता न रहे इसीलिए अनुमोदना, अनुदान एवं | समय मिलने पर शास्त्र-वांचनमें भी रूचि रखते है | समुदाय के जरूरतमंद साध्वीजी भगवंतो के आवास का विषय हो या साध्वीजी के विहारमें मजदूर का वेतन चुकाना हो, ऐसे छोटे-छोटे कार्यों के प्रति भी उन का लक्ष्य रहेता है | दर्शन-शुद्धि के लिए जब उन्होंने समग्र भारतवर्ष के १०० साल तक के | पुराने जिनालयो में १८ अभिषेक की प्रेरणा की, उस वक्त लगभग सभी अभिषेक-सामग्री की द्रव्य-शुद्धि का ख़याल रखते हुए अपनी मेधावी बुद्धि का : परिचय दिया था, साथमे अनुकंपा भाव से पुजारी या विधि करानेवाले को यत्किंचित् बहुमान प्रगट करते हुए कुछ धन-राशि प्रदान करवाई | ऐसे बहुगुण-संपन्न महात्मा पूज्य आचार्यश्री हर्षसागर-सूरिजी को हम भावभरी वंदना करते हुए इस श्रुतकार्य का प्रारंभ करने जा रहे है। - मुनि दीपरत्नसागर [कात्रजपूना, कपडवंज, प्रभासपाटण आदि स्थानोमे आगममंदिर के प्रेरक, कर्मग्रंथ अभ्यासु, निस्पृह महात्मा पूज्यपाद गच्छाधिपति आचार्य श्री दौलतसागर-सूरीश्वरजी महाराज साहेब (एवं) अजातशत्रु, स्वाध्याय-रसिक, प्रशांतमूर्ती और अपने गुरु के प्रीतिपात्र परम पूज्य आचार्य श्री नंदीवर्धनसागर-सूरिजी महाराज साहेब इस पवित्र श्रुत-कार्यमे दोनो सूरिवरो का स्मरण करते हुए कोटि कोटि वंदना के साथ :-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-.. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाङ्का: ५०+२१ मूलांक: ०१-०२ ११-३६ निर्युक्ति पीठिका / भाष्य अध्ययनं १- सामायिकं ४ - प्रतिक्रमणं ५८८ ६६६ ७५४ leve ७८९ ८१२ -- मंगलं ००१ -- ज्ञानस्य पञ्चप्रकाराः ०१३ -- उपक्रम आदि: ०८० | --उपोद्घात-निर्युक्तिः ०८१ -- वीर आदिजिनवक्तव्यता ३४३ -- भरतचक्री-कथानकं भा. ०३९ | --बलदेव वासुदेव कथानकं ५४३ --समवसरण वक्तव्यता --गणधर वक्तव्यता --दशधा सामाचारी -- निक्षेप, नय, प्रमाणादि -- निनव वक्तव्यता -- सामायिकस्वरुपम् --गति आदि द्वाराणि पृष्ठांक ००७ आवश्यक मूल-सूत्रस्य विषयानुक्र मूलांक: ०३-०९ ३७-६२ अध्ययनं २-विशतिस्तव ५- कायोत्सर्ग आवश्यक सटीकं (संक्षिप्त) विषयानुक्रम नि./भा. अध्ययनं -१ - सामायिकं ८९० ९१९ ९६० ९९३ अ०१, मू.१ सामायिक- व्याख्या, स्वरुपम् उद्देश वाचना- अनुज्ञा आदिः सूत्र स्पर्शे भङ्गाः सामायिक- उपसंहारः अ० २ मूलं - ३ नि०१०७६ मूलं ४-६ अ० ३ मूलं- १० नमस्कार व्याख्या अर्हत्, सिद्धादेः निर्युक्तिः सिद्धशिला वर्णनं आचार्य आदीनाम निक्षेपाः अध्ययनं - २ - चतुर्विंशतिस्तव: सूत्रपाठः, कीर्तनं, प्रतिज्ञा, -- अर्हत: विशेषणं, -- ऋषभादि नामानि प्रार्थनादि अध्ययनं - ३- वन्दनं पृष्ठांक: - गुरुवन्दन सूत्रपाठः -मितावग्रह प्रवेशयाचना --क्षमापना प्रतिक्रमण आदि: २१३ मूलांक: १०--- ६३-९२ ०१८ ०१९ ०२० ०३० ०३५ ०३७ ०४८ अध्ययनं मूलांक अध्ययनं ४- प्रतिक्रमणं ०११ ०१३ ०१४ ०१६ ०१७ ०६३ ०८२ ३- वंदनकं ६- प्रत्याख्यानं - अनुक्रमाः ९२ | नमस्कार व सामायिक-सूत्रं चत्वारः लोकोतम-मङ्गल एवं --शरणभूत पदार्थाः संक्षिप्त व ईर्यापथ प्रतिक्रमण शयन संबंधी प्रतिक्रमणं भिक्षाचर्यायाः प्रतिक्रमणं स्वाध्याय, उपकरणप्रतिलेखन असंयम आदि ३३ - आशातना सुरोच्चारणं मिथ्यादुष्कृतम् प्रवचनस्तुति, वंदना, क्षमापना अध्ययनं ५- कायोत्सर्गः सूत्रपाठः, कायोत्सर्गस्थापना श्रुतस्तव, सिद्धस्तवादि पाठ: अध्ययनं -५- प्रत्याख्यानं सम्यक्त्व व श्रावकव्रतप्रतिज्ञा विविध प्रत्याख्यानादिः पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र-[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः ~9~ पृष्ठांक: --- ०११ २०९ २१५ २१६ २४५ २६४ २९३ ३१० ३८७ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [आवश्यक- मूलं एवं वृत्तिः] इस प्रकाशन की विकास- गाथा यह प्रत सबसे पहले “आवश्यक सूत्र” के नामसे सन १९९६ (विक्रम संवत १९७२ ) में आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादक| महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी महाराज साहेब | इसी प्रत को फिर अपने नामसे 'जिनशासन आराधना ट्रस्ट' की तरफ से आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरिजीने छपवाई, जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया, मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के ऊपर अपना नाम एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. यह स्पष्ट रूपसे एक प्रकारसे अदत्तादान ही है, ऐसी अनेक प्रतो के अगले दो पेज पलटकर या नए डालकर उन्होंने अपने नामसे छपवाड़ है, इस तरह वो अपने आपको बड़ा आगम संरक्षक साबित करनेकी अनुचित चेष्टा कर चुके है। इसी आवश्यक सूत्र की प्रत को ऑफसेट की मदद से दुसरोने भी भी प्रकाशित करवाई है, किसीने पूज्यश्री सागरानंदसूरीश्वरजी महाराजश्री का नाम बड़ी इज्जत के साथ अपनी जगह पे ही रखा है, और खुदका नाम पुनः संपादक रूप से पेश किया है तो किसीने अपना नाम आगे कर दिया है। और पूज्य सागरानंदसूरीश्वरजीका नाम गौण कर दिया है या उड़ा दिया है । * हमारा ये प्रयास क्यों ? * आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५ आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्यश्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर अध्ययन--मूलसूत्र - निर्युक्ति-भाष्य आदि के नंबर लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा अध्ययन, सूत्र, निर्युक्ति, भाष्य आदि चल रहे है उसका सरलतासे ज्ञान हो शके । बार्थी तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस [-] दिए है और जहां गाथा है वहाँ || || ऐसी दो लाइन खींची या 'गाथा' शब्द लिखा है। हर पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट दी है । शासनप्रभावक पूज्य आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी म०सा० की प्रेरणासे और श्री वर्धमान जैन आगममंदिर, पालिताणा की संपूर्ण द्रव्य | सहाय से ये 'सवृत्तिक-आगम- सुत्ताणि भाग-३१ का मुद्रण हुआ है, हम उन के प्रति हमारा आभार व्यक्त करते है | ~10~ ..मुनि दीपरत्नसागर. -----.. Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...', प्रत सूत्रांक त्रिंशभिर्मोहनीयस्थानः, क्रिया पूर्ववत्, सामान्येनैकप्रकृतिकर्म मोहनीयमुच्यते, उक्त च-अहविहंपि य कम्म भणिय मोहोत्ति जं समासेण'मित्यादि, विशेषेण चतुर्थी प्रकृतिर्मोहनीयं तस्य स्थानानि-निमित्तानि भेदाः पर्याया मोहनीयस्थानानि, तान्यभिधित्सुराह सबहणिकार: बारिमाशेवगाहिता, तसे पाणे विदिसई । हाएर मुई इत्येणं, अंतोनार्य गलेवं ॥1॥सीसावेडेग वेवित्ता, संकिलेसेण मारए । सीसंमि जे व दिमाई, गुदमारेण हिंसई ॥३॥बहुजणस नेवार, दी ताणं च पाणिण । साहारणे मिलाणमि, पहू किन कुबई ॥३॥ साहू भसम्म पम्मान, भंसह पहिए। णेवाग्यस्स ममास, भवणारंमि वहई ॥४॥ जिणाणं गंतपाणीर्ण, अवणं जो मासई । भापरिवानग्याए, बिसई मंदची ॥५॥ तेसिमेवपणाणीण, संमं नो पडितप्पई। पुणो पुणो अहिगरण, उपाए विस्थभेयए ॥ ॥जाणं माइंमिए जोए, पजद पुणो पुणो"। कामे पमित्ता पत्थेद, अमविए इथ ॥ ७॥ भिक्पूर्ण बहुसुपऽईति, जो भासहबहुस्सुरे। तहा व सतपस्सी ब, जो तवस्सिपिई वएँ ॥८॥जायतेएण बहुजणं, तोपमेण सिं। अकिचामप्पणा कार्य, कयमेएण भासेई ॥१॥ निबद्धवहिपणिहीए, पलिये" साहजोगज" य । घेई सर्व मुसं वसि, मक्खीणझंझए। सयों ॥10॥ भवार्णमि पवेसित्ता जो, धर्ण हरा पागिण" । बीसभित्ता उपाएणं, पारे तस्सेव लुम्भई ॥1॥अभिक्रमकुमारवि, मारेझंति | पास। एवं अभयारीति, भवारिसिहं च ॥२॥जेणेविस्सरियं गोए, विचे तस्सेव लुम्बई । तपमाहिए पावि, अंतराय करेए से" m सेणावई पसत्थार, भत्तार वानि हिंसई । रहस्स बावि निगमस्स, नायगं सेडिमेव वो ॥४॥ अपस्खमाणो पस्सामि, महं देवेत्ति वा वए । अवष्णेच देवाणं, महामोहं पकुबह ॥१५॥ दीप अनुक्रम [२६] 4-% - अष्टविधमपि च कर्म भणितं मोद इति यत् समासेन । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: मोहनियस्थानानां ३० भेदानां सविस्तर वर्णनं ~11 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७३...] भाष्यं [२०६...], FER प्रत सूत्रांक 3% भावश्यक- गाथाः पञ्चदश, आसां व्याख्या-'वारिमझे' पाणियमज्झे 'अवगाहित्त'त्ति तिघेण मणसा पाएण अकमित्ता तसे प्रतिक्रमहारिभ- पाणे-इस्थिमाई विहिसइ, 'से' तस्स महामोहमुप्पाएमाणे संकिलिङ्कचित्तत्तणो य भवसयदुहवेयणिज: अप्पणो महा-IPाणाध्य द्रीया मोह पकुवा, एवं सर्वत्र क्रिया वाच्या १, तथा 'छाएज' दंकिउं मुहं 'हत्थेण'ति उवलक्षणमिदमन्नाणि य कमाईणि 'अंतोनदंति हिदए सदुक्खमारसंतं 'गलेरवं' गलएण अञ्चंत रडति हिंसति २, 'सीसावेदेण' अल्लचंमाइणा कएणाभि- नानि क्खणं वेढेत्ता 'संकिले सेण' तिवासुहपरिणामेण 'मारए' हिंसइ जीवंति ३, सीसंमि जे य आहेतु-मोग्गराइणा विभिं दिय सीसं 'दुहमारेण महामोहजणगेण हिंसइत्ति ४, बहुजणस्स नेयारंति-पहुं सामित्ति भणिय होइ, दीवं समुद्दमिव दाबुझमाणाणं संसारे आसासथाणभूयं तार्ण च-अण्णपाणाइणा ताणकारिणं 'पाणिणं' जीवाणं तं च हिंसइसे तं विह संते बहुजणसंमोहकारणेण महामोहं पकुछइ ५, साहारणे-सामण्णे गिलाणंमि पहू-समत्थो उपएसेण सइकरणेण वा तप्पिउं तहवि 'किञ्च' ओसहजायणाइ महाघोरपरिणामो न कुबइ सेऽवि महामोहं पकुबइ, सवसामण्णो य गिलाणो | भवइ, तथाजिनोपदेशाद्, उक्कं च-कि भंते ! जो गिलाणं पडियरह से धण्णे उदाहु जे तुम दसणेण पडिवाइ, गोयमा जे गिलाणं पडियरइ, से केणडेणं भंते ! एवं वुश्चइ, गोयमा! जे गिलाणं पडियरइ से में दसणेणं पडिवजइ ॥६६॥ किं भवन्त बोकानं प्रतिपरति स धन्य ताहो यो युष्मान दर्शनेन प्रतिपद्यते', गौतम ! यो मकानं प्रतिधरति, तर फेनान भवन्तैच मुच्यते , गौतम ! यो बलानं प्रतिचरति स मां दर्शनेन प्रतिपयते, यो मो दर्यानेन प्रतिपद्यते CE दीप अनुक्रम [२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~12 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...., प्रत सूत्रांक | मंदसणेण पडिवाइसे गिलाण पडियरइत्ति,आणाकरणसारं खु अरहताणं दसणं,से तेणड्डेणं गोयमा! एवं बुच्चइ-जे गिलाण पडियरइ से मै पडिवजाइ, जे में पडिवजह से गिलाणं पडिवजईत्यादि ६, तहा 'साहुं तवस्सिं अकम्म-बलात्कारेण धम्मा ओ-सुयचरित्तभेयाओ जे महामोहपरिणामे भंसेतित्ति-विनिवारेइ उवद्वियं-सामीप्येन स्थितं ७, नेयाज्यस्स-जयनशीलस्य । मग्गस्स-णाणादिलक्खणस्स दूसणपगारेण अप्पाणं परं च विपरिणामंतो अवगारंमि वट्टइ, णाणे-काया पया य तेचिय'। एवमाइणा, दंसणे ऐते जीवाणता कहमसंखेज्जपएसियंमि लोयंमि ठाएजा , एवमाइणा, चारित्ते 'जीवबहुत्ताउ कहम हिंसगत्तति चरणाभाव' इत्यादिना ८, तथा जिणाणं-तित्थगराणं अणतणाणीणं-केवलीणं अवनं-निंदं जो महाघोरपरिदणामो 'पभासई' भणति, कथं ?, ज्ञेयाऽनन्तत्वात्सर्वार्थज्ञानस्याभाव एव, तथा च-'अजेवि धावति णाणं अजवि लोओ अणंतओ होइ। अज्जविन तुहं कोई पावइ सवण्णुर्य जीवो ॥१॥ एवमाइ पभासइ, न पुणजाणति जहा-खीणावरणो जुगवं लोगमलोग जिणो पगासेइ । ववगयघणपडलो इव परिमिययं देसमाइश्चो ॥१॥९, आयरियउवज्झाए [सू.] दीप अनुक्रम [२६] सरकानं प्रतिवरतीति, माझाकरणसारमेवाईसा वर्शनं, तवेतेनार्थेन गौतमैवमुच्यते-पोग्लानं प्रतिवरति स मा प्रतिपद्यते पो मा प्रतिपयते स लानं प्रतिपयते (प्रतिचरति)। काया ब्रतानि च तान्येच । ३ एते जीवा भनन्ताः कथमसंस्वेयप्रवेशिके लोके तिछेयुः। जीचबहुवात् कथमहिसकावमिति चरणाभावः ५ भद्यापि धावति शानमद्यापि लोकोऽनन्तको भवति । अद्यापि न तव कोऽपि मानोति सर्वत्रता जीवा ॥१॥ क्षीणावरणो युगपद खोकमलोक जिनः प्रकाशयति । व्यपगतधनपटल इव परिमितं देशमादित्यः॥ १॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~13 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७३...] भाष्यं [२०६...], प्रत सूत्रांक [सू.] प्रतिक्रमणाध्यक त्रिंशन्मोहनीयस्था नानि आवश्यक- पसिद्धे 'खिंसई' निदइ जच्चाईहिं, अबहुस्सुया वा एए तहावि अम्हेवि एएसिं तु सगासे किंपि कहंचि अवहारियति 'मंदबुद्धीए हारिभ- बालेत्तिभणिय होइ १०, तेसिमेव'य आयरिओवज्झायाणं परमबंधूणं परमोचगारीण णाणीण'न्ति गुणोवलक्षणं गुणेहिं पभा- द्रीया विए पुणो तेसिव कजे समुपपणे 'समैन पडितपाई' आहारोवगरणाईहिं णोवजुजेइ ११, 'पुणो पुणो'त्ति असई 'अहिगरण' जो तिस्साइ 'उप्पाए' कहेइ निवजत्ताइ 'तित्थभेयए' गाणाइमग्गविराहणत्यति भणिय होइ १२, जाणं आहमिए जोए-वसी- ॥६६२॥ करणाइलक्खणे पउंजइ 'पुणो पुणों' असइत्ति१३, कामें इच्छामयणभेयभिण्णे 'वमेत्ता' चइऊण, पषजमन्भुवगम्म 'पत्थे | अभिलसइ इहभविए-माणुस्से चेव अण्णभविए-दिवे १४, 'अभिक्खणं' पुणो २ बहुस्सुएऽहंति जो भासए, बहुस्सुए। (बहुस्सुएण) अण्णेण वा पुट्ठोस तुम बहुस्सुओ?,आमंति भणइ तुहिको वा अच्छइ, साहवो चेव बहुस्सुएत्ति भणति १५ अतवस्सी तवस्सित्ति विभासा १६, 'जायतेएण' अग्गिणा बहुजणं घरे छोढुं 'अंतो धूमेण' अभितरे धूमं काऊण हिंसइ १७, 'अकिञ्च' पाणाइवायाइ अप्पणा कार्ड कयमेएण भासइ-अण्णस्स उत्योभं देइ १८,'नियडुवहिपणिहीए पलिउंचई' नियडीअण्णहाकरणलक्खणा माया उवहीतं करेइ जेण तं पच्छाइजइ अण्णहाकयं पणिही एवंभूत एव (च) रइ, अनेन प्रकारेण| 'पलिउंचई' बंचेइत्ति भणिय होइ १९, साइजोगजुत्ते य-अशुभमनोयोगयुक्तश्च २०, बेति' भणइ सब मुसं बयइ सभाए २१॥ 'अक्खीणझंझए सया' अक्षीणकलह इत्यर्थः, झंझा-कलहो २२, 'अद्धाणमि' पंथे 'पवेसेत्ता' नेऊण विसंभेण जो धर्ण-1 सुवण्णाई हरर पाणिण-अछिदइ २३, जीवाणं, विसंभेत्ता-उवाएण केणइ अतुल पीई काऊण पुणो दारे-कलते है'तरसेव' जेण समं पीई कया तत्थ लुब्भइ २४, 'अभिक्खणं' पुणो २ अकुमारे संते कुमारेऽहंति भासइ २५, एवमवं दीप अनुक्रम [२६] । ॥ २॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~14 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [२६] [भाग-३१] “आवश्यक” - मूलसूत्र - १ / ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], निर्युक्तिः [१२७३...] भाष्यं [ २०६...], भयारिंमि विभासा २६, जेणेविस्सरियं नीए-ऐश्वर्य प्रापित इत्यर्थः, 'वित्ते' घणे तस्सेव संतिए लुब्भइ २७, तप्पभावुट्ठिए वावि-लोगसंमयत्तणं पत्ते तस्सेव केणइ पगारेण अंतराय करेइ २८ सेणावई रायाणुन्नायं वा चाउरंतसामिं पसत्थारंलेहारियमाइ भत्तारं वा विहिंसइ रटुस्स वावि निगमस्स जहासंखं नायगं सेहिमेव वा, निगमो वणिसंघाओ २९, अप्पस्समाणो माइहाणेण पासामि अहं देवत्ति वा वए ३०, 'अवशेणं च देवाणं' जह किं तेहिं कामगद्दहेहिं जे अम्हं न जवकरेंति, महामोहं पकुबइ कलुसियचित्तत्तणओ ३१, अयमधिकृतगाथानामर्थः । एकत्रिंशद्भिः सिद्धादिगुणैः, क्रिया पूर्ववत्, सितं ध्मातमस्येति सिद्धः आदौ गुणा आदिगुणाः सिद्धस्यादिगुणाः सिद्धादिगुणाः, युगपद्भाविनो न क्रमभाविन इत्यर्थः, तानेवोपदर्शयन्नाह सङ्ग्रहणिकारः पढिसेद्देण संठाणवण्णगंधरसफासवेए व पणपणदुपणइतिहा इगती समकाय संगरुडा || १ अस्या व्याख्या-प्रतिषेधेन संस्थानवर्णगन्धरसस्पर्शवेदानां, कियद्भेदानां १-पञ्चपञ्चद्विपञ्चाष्टत्रिभेदानामिति, किम् ?एगत्रिंशत्सिद्धादिगुणा भवन्ति, 'अकाय संगरुह' त्ति अकाय: - अशरीरः असङ्गः सङ्गवर्जितः अरुहः-अजन्मा, एभिः सहैकत्रिंशद्भवन्ति, तथा चोतं-"से ण दीहे ण हस्से ण बट्टे न तंसे न चउरंसे न परिमंडले ५ न किण्हे न नीले न लोहिए न हालिदे न सुक्किले ५ न सुब्भिगंधे न दुब्भिगंधे २ न तित्ते न कडुए न कसाए न अंबिले न महुरे ५ न कक्खड़े न मडए १ स न दीर्घः न इस्त्रो न वृत्तो न यक्षो मचतुरखो न परिमण्डलो न कृष्णो न नीलो न लोहितो न हारिद्रो न शुद्धो न सुरभिर्न दुर्गन्धो न तिको न कटुको न कपायो नाम्लो न मधुरो न कर्कशो न मृदु पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः सिद्धादिनां ३१ भेदानां वर्णनं ~15~ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [२६] आवश्यक हारिभद्वीया 8 ॥६६॥ [भाग-३१] “आवश्यक” - मूलसूत्र - १ / ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], निर्युक्ति: [ १२७३...] भाष्यं [ २०६...], न गरुए न लहुए न सीए न उन्हे न निद्धे न लुक्खे न काए ण संगे न रुहे न इत्थी न पुरिसे न नपुंसए,” प्रकारान्तरेण सिद्धादिगुणान् प्रदर्शयन्नाह हवा मे णव दरिसमि चन्तारि आए पंच आइम अंते सेसे दोदो खीणभिलाषेण इगतीसं ॥ १ व्याख्या—'अथवे 'ति व्याख्यान्तरप्रदर्शनार्थः, 'कर्मणि' कर्मविषया क्षीणाभिलापेनैकत्रिंशद्गुणा भवन्ति, तत्र नव दर्शनावरणीये, नवभेदा इति-क्षीणचक्षुदर्शनावरणः ४ क्षीणनिद्रः ५, चत्वार आयुष्के क्षीणनरकायुष्कः ४ 'पंच आ इमेति आद्ये ज्ञानावरणीयाख्ये कर्मणि पच-क्षीणाभिनिबोधिकज्ञानावरणः ५ 'अंते'त्ति अन्त्ये- अन्तराये कर्मणि पश्चैव क्षीणदानान्तरायः ५ शेषकर्मणि - वेदनीयमोहनीयनामगोत्र लक्षणे द्वौ द्वौ भेदौ भवतः, क्षीणसातावेदनीयः क्षीणासातावेदनीयः क्षीणदर्शनमोहनीयः क्षीणचारित्रमोहनीयः क्षीणाशुभनाम क्षीणशुभनाम क्षीणनीचैगोत्रः क्षीणोच्चैर्गोत्र इति गाथार्थः ॥ द्वात्रिंशद्भिर्योगसङ्ग्रहैः, क्रिया पूर्ववत्, इह युज्यन्त इति योगाः - मनोवाक्कायव्यापाराः, ते चाशुभप्रतिक्रमणाधिकारात्प्रशस्ता एव गृह्यन्ते तेषां शिष्याचार्यगतानामालोचनानिरपलापादिना प्रकारेण सङ्ग्रहणानि योगसङ्ग्रहाः प्रशस्तयोगसङ्ग्रहनिमित्तत्वादालोचनादय एव तथोच्यन्ते, ते च द्वात्रिंशद्भवन्ति, तदुपदर्शनायाह नियुक्तिकार :आलोयणा निरवेलावे, आवईसु दृढधैम्मया । अणिस्सिओवहाणे में, सिक्खों णिप्पडिकम्मर्यां ॥ १२७४ ॥ १ गुरु लघु शीतो नोष्णो न खिग्धो न रूक्षो न कायवान् न हयान् न रहो न स्त्री न पुरुषो न नपुंसकं ४ प्रतिक्र मणाध्य० ३१ सिखादिगुणाः ~16~ ||६६३|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः योगसंग्रहानां ३२ भेदानां विस्तृत वर्णनं कथानक - सहितं Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७५] भाष्यं २०६...], प्रत सूत्रांक [सू.] SANSAR अण्णार्यया अलोहे य, तितिक्खा अजवे सुई। सैम्मदिही सैमाही य, आयारे विणओवए ॥ १२७५ ॥ "पिई मई य "संवेगे, पणिही सुविहि "संधेरै । अत्तदोसोवसंहारो, सव्वकामविरतिया ॥१२७६ ।। पचखाणों विजस्सग्गे, अप्पाए लबालवे । झाणसंवरजोगे य, उद्दए मारणंतिए ॥१२७७॥ ४|संगाणं च परिणा, पायच्छित्तकरणे इय । आराहणा य मैरणते, बसीसं जोगसंगहा ।।१२७८ ॥ आसां व्याख्या-'आलोयण'त्ति प्रशस्तमोक्षसाधकयोगसनहाय शिष्येणाऽऽचार्याय सम्बगालोचना दातव्या१, निरवलावे'त्ति आचार्योऽपि प्रशस्तमोक्षसाधकयोगसङ्ग्रहायैव दत्तायामालोचनायां निरपलापः स्यात् , नान्यस्मै कथयेदित्यर्थः, एकारान्तश्च प्राकृते प्रथमान्तो भवतीत्यसकृदावेदितं यथा-'कयरे आगच्छइ दित्तरूवे'इत्यादि २, आवतीसु दढधम्मत'त्ति तथा योगसनहायैव सर्वेण साधुनाऽऽपत्सु द्रव्यादिभेदासु दृढधर्मता कार्या, आपत्सु सुतरां दृढधर्मेण भवितव्यमित्यर्थः,३, 'अणिस्सिओवहाणे'त्ति प्रशस्तयोगसञ्चहायैवानिश्रितोपधानं च कार्यम्, अथवाऽनिश्रित उपधाने च यत्ला कार्य, उपद धातीत्युपधान-तपः न निश्रितमनिश्रितम्-ऐहिकामुष्मिकापेक्षाविकलमित्यर्थः, अनिश्रितं च तदुपधानं चेति समासः४, दू'सिक्ख'त्ति प्रशस्तयोगसञ्चहायैव शिक्षाऽऽसेवितव्या, सा च द्विप्रकारा भवति-ग्रहणशिक्षाऽऽसेवनाशिक्षा च ५, 'निष्पडिक म्मय'त्ति प्रशस्तयोगसङ्ग्रहायव निष्प्रतिकर्मशरीरता सेवनीया, न पुनर्नागदत्तवदन्यथा वर्तितव्यमिति ६ प्रथमगाथासमा-11 सार्थः॥ 'अन्नायय'त्ति तपस्यज्ञातता कार्या, यथाऽन्यो न जानाति तथा तपः कार्य, प्रशस्तयोगाः सगृहीता भवन्तीत्य-15 | तत् सर्वत्र योज्यं ७,'अलोहेत्ति अलोभश्च कार्यः, अथवाऽलोभे यत्नः कार्यः८, 'तितिक्पत्ति तितिक्षा कार्या, परीपहादि दीप अनुक्रम [२६] KASA पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~17~ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७८] भाष्यं २०६...], प्रत सूत्रांक आवश्यक जय इत्यर्थः९, अज्जवेत्ति ऋजुभावः-आर्जवं तच्च कर्तव्यं१०, सुइ'त्ति शुचिना भवितव्यं, संयमवतेत्यर्थः११, सम्महिहित्ति प्रतिक्रमहारिभ- सम्यग्-अविपरीता दृष्टिः कार्या, सम्यग्दर्शनशुद्धेरित्यर्थः १२, समाधिश्च कार्यः, समाधानं समाधिः-चेतसः स्वास्थ्य १३, मणाध्य. द्रीया |'आचारे विणओवपत्ति द्वारख्यम्, आचारोपगः स्यात्, न मायां कुर्यादित्यर्थः १४, तथा विनयोपगः स्यात्, न मानं कुर्यादि- दात्रिंशद्यो त्यर्थः१५, द्वितीयगाथासमासार्थः । घिई मई यति धृतिर्मतिश्च कार्या,ध्रतिप्रधाना मतिरित्यर्थः१५. संवेगे'त्ति संवेगः कार्यः1 गसंग्रहार ॥६६४॥ १७, 'पणिहित्ति प्रणिधिस्त्याज्या, माया न कार्येत्यर्थः१८, सुविहित्ति सुविधिः कार्यः१९, 'संवरे'त्ति संवरः कार्यः, न तु न कार्य इति व्यतिरेकोदाहरणमत्र भावि २०, अत्तदोसोवसंहारे ति आत्मदोषोपसंहारः कार्य:२१, 'सबकामविरत्तय'त्ति सर्वकामविरक्तता भावनीया २२, इति तृतीयगाथासमासाथैः ।। 'पञ्चक्खाणेत्ति मूलगुणउत्तरगुणविषयं प्रत्याख्यानं कार्यमिति | द्वारद्वयं२३-२४, बिउस्सग्गे'त्ति विविध उत्सर्गो व्युत्सर्गः स च कार्य इति द्रव्यभावभेदभिन्ना, २५ अप्पमाएत्ति न प्रमादोऽप्रमादः, अप्रमादः कार्यः २६, 'लवालवे'त्ति कालोपलक्षणं क्षणे २ सामाचार्यनुष्ठान कार्य २७, 'झाणसंवरजोगे'त्ति | ध्यानसंबरयोगश्च कार्यः, ध्यानमेव संवरयोगः, २८, उदये मारणंतिए'त्ति वेदनोदये मारणान्तिकेऽपि न क्षोभः कार्य इति २९ चतुर्थगाथासमासार्थः॥ 'संगाणं च परिणति सङ्गानां च ज्ञपरिज्ञाप्रत्याख्यानपरिज्ञाभावेन परिज्ञा कार्या ३०, पायच्छित्तकरणे इय' प्रायश्चित्तकरणं च कार्य ३१ 'आराहणा य मरणंति'त्ति आराधना च मरणान्ते कार्या, मरणकाल ॥६६॥ 18इत्यर्थः, ३२ एते द्वात्रिंशद् योगसङ्घहा इति पञ्चमगाथासमासार्थः॥ ॥आद्यद्वाराभिधित्सयाऽऽह उज्जेणि अढणे खलु सीहगिरिसोपारए य पुहइवई । मच्छियमल्ले दूरल्लकूविए फलिहमल्ले य ॥ १२७९ ॥ दीप अनुक्रम [२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~18~ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७९] भाष्यं [२०६...], प्रत सूत्रांक उजेणित्ति णयरी, तीए जियसत्तूरण्णो अट्टणो मलो अतीव बलवं, सोपारए पट्टणे पुहइबई राया सिंहगिरी नाम। मल्लबल्लहो, पतिवरिसमहणजओहाभिएण अणेण मच्छियमले कए जिएण अट्टणेण भरुगच्छाहरणीए दूरुलकूवियाए गामे फलिहमल्ले कएत्ति । एवमक्षरगमनिकाऽन्यासामपि स्वबुझ्या कार्या, कथानकान्येव कथयिष्यामः, अधिकृतगाथा प्रतिबद्धकथानकमपि विनेयजनहितायोच्यते-उजेणीणयरीए जियसत्तू राया, तस्स अट्टणो मल्लो सपरजेसु अजेओ, 8|इओ य समुद्दतीरे सोपारयं णयरं, तस्थ सीहगिरी राया, सो य मल्लाणं जो जिणइ तरस बहुं दवं देइ, सो य अट्टणो तत्थ गंतूण वरिसे २ पडायं गिण्हइ, राया चिंतेइ-एस अन्नाओ रजाओ आगंतूण पडायं हरइ, एस मम ओहावणत्ति पडिमलं मग्गइ, तेण एगो मच्छिओ दिठो वसं पिवंतो, बलं च से विनासियं, नाऊण पोसिओ, पुणरवि अट्टणो आगओ, ४ सो य किर महो होहितित्ति अणागयं चेव सयाओ जयराओ अप्पणो पत्थयणस्स अवल्लं भरिऊण अवाबाहेणं एइ, [सू.] दीप अनुक्रम [२६] मज्जयिनी नगरी, सस्था जिसपुरानोभाणो महोतीब बलवान्, सोपारके पत्तने पृथ्वीपती राजा सिंदगिरिम महासभा, प्रतिवर्षमनजयापभाजितेनानेन मारिस्यकम कृते जितेनाइनेन भृगुकच्छदारण्यां दूरीयकूपिकामामे कार्यासिकमकः कृत इति । उजधिनीनगयो जिता राजा, तवाहनो मलः सर्वराज्येषु अजेयः, सब समुद्रतीरे सोपारकं नगरं, तब सिंदगिरी राजा, स च महाना यो जयति ती बहुजव्यं ददाति, सचाहनस्तत्र गल्या वर्षे २ पताकां हरति (गृह्णाति), राजा चिन्तयत्ति-एषोऽन्यस्माद् राज्यादागास्य पताकां हरति, एषा ममापनाजनेति प्रतिमई मार्गपति, तेनैको मात्स्यिको दो सां पिचन् , बलं च तस्य परीक्षित, शास्वा पोषितः, पुनरबहन भागतः, सच किल मद्दो भविष्यतीति बनागत एव व स्मात् नगरात् बात्मनः पथ्यदनस्य गोणी भूत्वाऽन्यायाधेनावाति, पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~19 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७९] भाष्यं [२०६...], प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम [२६] आवश्यक- संपत्तो य सोपारय, जुद्धे पराजिओ मच्छियमल्लेणं, गओ य सयं आवासं चिंतेइ, एयरस बुही तरुणयस्स मम हाणी, ४प्रतिक्रहारिम- अण्णं मलं मग्गइ, सुणइ य-सुरद्वाए अस्थित्ति, एएण भरुयच्छाहरणीए गामे दूरुलकूवियाए करिसगो दिहो-एगेण, मणाध्य द्रीया हत्थेण हलं वाहेइ एगेण फलहिओ उप्पाडेइ, तं च दडूण ठिओ पेच्छामि से आहारंति, आवछा मुका, भज्जा य से भत्तं १ आलोचा गहाय आगया, पत्थिया, कूरस्स उज्झमजीए घडओ पेच्छइ, जिमिओ सण्णाभूमि गओ, तत्थवि पेच्छइ सर्व वत्तियं, योग अट्ट॥६६५॥ नमल्लोदा० वेगालिओ वसहिं तस्स य घरे मग्गइ, दिना, ठिओ, संकहाए पुच्छइ, का जीविया, तेण कहिए भणइ-अहं अट्टणो तुम ईसरं करेमित्ति, तीसे भजाए से कप्पासमोल्लं दिन्नं, अवल्ला य, सा सवलद्धा उणि गया, वमणविरेयणाणि कियाणि पोसिओ निजुद्धं च सिक्खाविओ, पुणरवि महिमाकाले तेणेव विहिणा आगओ, पढमदिवसे फलहियमल्लो मच्छियमल्लो य जुद्धे एगोवि न पराजिओ, राया विइयदिवसे होहितित्ति अइगओ, इमेवि सए सए आलए गया, संभात सोपारक, बुद्दे पराजितो मारिखकमलेन, गत खकमावासं चिन्तयति, एतस्य वृद्धिसारुणस्य मम हानि।, अम्यं मलं मार्गवति, शृणोति -सुराष्ट्रावामस्तीति, एतेन भूगफछारियां प्रामे दूरीयकृषिकायो कर्षको रट:-एकेन हलेन हलं वाहपति एफेन कासमुपास्यति तं पा स्थितः पश्यामि अस्याहारमिति बलीयदों मको. भार्या च तस्य भक्कमहीत्वाऽाता, प्रस्थिता, उधारने करम घटे प्रेक्षते, जिमितः संज्ञाभूमि गतः, तत्रापिः | प्रेक्षते सर्व वर्तितं, कालिको वसति तसेच गृहे मार्गवति, दत्ता, स्वितः, संकथायां पृच्छति-काजीविका , न कथिते भणति-महमहनस्वामीकर करोमीति, तस्य भार्यायै तेन कासमूल्यं दत्तं बलीवदीच, सा सबलीयदायिनीं गता (साऽऽश्वस्ता, तो अपिनी गती), चमनविरेचनानि कृतानि, पोपितो | निघुवं च शिक्षिता, पुनरपि महिमकाले सेनैव विधिनाऽऽगता, प्रथमविवसे कांसमझो मास्पिकमल युद्ध एकोऽपि न पराजिता, द्वितीयदिपसे भविष्य-16 नीति राजाऽतिगतः, इमावपि खक भालये गती, ॥६६५॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: -~-20~ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [स्.-] दीप अनुक्रम [२६] [भाग-३१] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १/४ ( मूलं+निर्युक्तिः वृत्तिः) अध्ययन] [४] मूलं [स्] / [गाथा-] निर्बुक्तिः [ १२७९ ] भष्यं [२०६...], अट्टणेण फलहियमलो भणिओ-कहेहि पुत्ता ! जं ते दुक्खावियं, तेण कहियं, मक्खिताऽक्खेवेणं पुणण्णवीकयं, मच्छि यस्सवि रण्णा संमदगा पेसिया, भणइ अहं तस्स पिउपि ण बिभेमि को सो बराओ ?, वितियदिवसे समजुज्झा, ततियदिवसे अंबियपहारो वइसाहं ठिओ मच्छिओ, अट्टणेण भणिओ फलिहित्ति, तेण फलहिग्गाहेण गहिओ सीसे, तं कुंडि - यनालगंपिव एगंते पडियं, सक्कारिओ गओ उज्जेणिं, पंचलक्खणाण भोगाण आभागी जाओ, इयरो मओ, एवं जहा पडागा तहा आराहणपडागा, जहा अट्टणो तहा आयरिओ, जहा महो तहा साहू, पहारा अवराहा, जो ते गुरुणो आलोएइ सो निस्सल्लो निधाणपडागं तेलोकरंगमज्झे हरइ, एवं आलोयणं प्रति योगसङ्ग्रहो भवति । एए सीस गुणा, निरवलावस्स जो अन्नस्स न कहेइ एरिसमेतेण पडिसेवियंति, एत्थ उदाहरणगाहा- दंतपुरदन्तचक्के सचवदी दोहले य वणयरए । धणमित्त धणसिरी य पउमसिरी चैव दढमित्तो ॥ १२८० ॥ १ अट्टनेन कपसमो भणितः - कथय पुत्र ! यचे दुःखितं तेन कथितं श्रक्षित्वा अक्षेपेण पुनर्नवीकृतं माल्विकायापि राज्ञा संमर्दकाः प्रेषिताः, मणति अहं तस्य पितुरपि न विभेमि कः स वराकः, द्वितीयदिवसे समयुद्ध तृतीयादिवसे महारार्थो वैशाखं स्थितो मात्स्यिकः अनेन भणित: फलि हीति, तेन फळहिग्राहेण गृहीतः शीर्षे तत् कुण्डिकानामिवैकान्ते पतितं, सरकारितो गत उज्जयिनी, पञ्चलक्षणानां भोगानामाभागीजातः इसरो मृतः, एवं यथा पताका तथाऽऽराधनापताका, यथाऽनस्तथा भाचार्यः, यथा महस्तथा साधुः प्रहारा अपराधाः, यतस्तान् गुरुणामालोचयति स निश्शस्यो नियोणपताकां त्रैलोक्यरङ्गमध्ये हरति पुषमालोचनां प्रति योगसंग्रहो भवति । एते शिष्यगुणाः, निरपलापस्य - पोऽन्यसौ न कथयति - ईडशमैतेन प्रति सेवित्तमिति, भोदाहरणगाथा । पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः ~21~ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८०] भाष्यं [२०६...], प्रत सूत्रांक आवश्यक अस्या व्याख्या-कथानकादवसेया, तच्चेद-दंतपुरे णयरे दंतचको राया, सच्चबई देवी, तीसे दोहलो-कह दतमए प्रतिक्रहारिभ- पासाए अभिरमिजइ ?, रायाए पुच्छियं, दंतनिामेत्तं घोसावियं रण्णा जहा-उचियं मोल्लं देमि, जो न देह तस्स राया मणाध्य. द्रीया सरीरनिग्गहं करेइ, तत्थेव णयरे धणमित्तो वाणियओ, तस्स दो भारियाओ, धणसिरी महती पउमसिरी तु डहरिया निरपळा पयोग दृढ पीययरी यत्ति, अण्णया सवत्तीणं भंडणं, धणसिरी भणइ-किंतुमं एवं गबिया ? किं तुझ महाओ अहियं, जहा सच्च-14 ॥६६६॥ वईए सहा ते किं पासाओ कीरजा ?, सा भणइ-जइन कीरइ तो अहं नेवत्ति उवगरए (वरए) बार बंधित्ता ठिया, | मित्रोदा० हावाणियो आगओ पुच्छा-कहिं पउमसिरी १, दासीहिं कहियं, तस्थेव अइयओ, पसाएइ, न पसीयइत्ति, जइ नत्थि न जीवामि, तस्स मित्तो दहमित्तो नाम, सो आगओ, तेण पुच्छियं, सर्व कहेइ, भणइ-कीरज, मा इमाए मरंतीए तुर्मपि मरिजासि, तुर्ममि मरते अहं, रायाए य घोसावियं, तो पच्छन्नं काय ताहे सो ददमित्तो पुलिंदगपाउग्गाणि दीप अनुक्रम [२६] वन्तपुरे नगरे दन्तचक्रो राक्षा, सत्यवती देवी, तथा दोहदः कथं दन्तमये प्रासादेभिरमे, राज्ञा पूर्व, दसनिमितं घोषितं राशा यथा उचित | मूल्यं ददामि, यो म दास्पति तख राजा परीरनिमहं करोति, तत्रैव नगरे धनमित्रो वणिक, तस्य भाषे, धनश्रीमहती पाधीस्तु लवी पियतरा चेति, अन्पदा | सपापोभण्डन, धनश्रीभणति-किसमेवं गर्थिता कितव मत् अधिकी, यथा सत्यत्रत्यास्तव किं प्रासादः क्रियते , सा भणति-पदिन क्रियते सदाऽहं मेये. त्यपवर के द्वार बङ्गा स्थिता, यनिगायतः पृष्ठति-क पद्मश्री, पासीभिः कधित, नत्रैवाभिगतः, प्रसादयति, न प्रसीदतीति, यदि नास्ति न जीवामि, तस्व | मित्रं हटमित्रो नाम, स भागतः, तेन पृष्ठं, सर्व कथयति, भगति-क्रियता, माऽस्या नियमाणायां समपि मृथाः, स्वधि नियमाणेऽई, राज्ञा च धोपितं, ततः प्रच्छन्नं कर्तव्यं, तदा स दृढ मित्रः पुलिभप्रायोग्याणि ॥६६६॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~22 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) ཝལླཱསྶ सूत्रांक [सू.-] अनुक्रम [२६] [भाग-३१] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १/४ ( मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [४], मूलं [स्] / [ गाथा-], निर्बुक्तिः [१२८० ] भष्यं [ २०६...]. मणीयमलत्तगं कंकणं च गहाय अडविं गओ, दंता उद्धा पुंजो कओ, तेण तणपिंडिगाण मज्झे बंधित्ता सगडं भरेत्ता आणीया, णयरे पवेसिज्जंतेसु वसहेण तणपिंडगा कडिया, तओ खडत्ति दंतो पडिओ, नगर गोतिपहिं दिडो गहिओ रायाए उवणीओ, बज्झो णीणिजइ, धणमित्तो सोऊण आगओ, रायाए पायवडिओ विनवेइ, जहा एए भए आणाविया, सो पुच्छिओ भणइ-अहमेयं न याणामि कोति, एवं ते अवरोप्परं भर्णति, रायाए सबहसाविया पुच्छिया, अभओ दिण्णो, परिकहियं, पूएत्ता विसज्जिया, एवं निरवलावेण होयचं आयरिएणं । वितिओ-एगेण एगस्स हत्थे भाणं वा किंचि पणामियं, अंतरा पडियं, तत्थ भाणियवं मम दोसो इयरेणावि ममंति । निरवलावेत्ति गयं २ । इयाणिं आव ईसु ददधम्मत्तणं काय, एवं जोगा संगहिया भवंति, ताओ य आवइओ चत्तारि, तं०-दबाबई ४, उदाहरणगाहाउज्जेणीए धणवसु अणगारे धम्मघोस चंपाए। अडवीए सत्यविन्भम वोसिरणं सिज्झणा चैव ।। १२८९ ॥ १ मणिको अङ्कणानि च गृहीत्वाऽटवीं गतः, दन्ता लब्धाः पुजः कृतः तेन तृणपिण्डीनां मध्ये वफा शकटं त्वाऽऽनीताः, नगरे प्रविश्यमा, तेषु वृषभेण तृणपिण्ड्यः कृष्टाः ततः खरदिति दन्तः पतितः, नगर सिकेर्टष्टो गृहीतम, राज्ञ उपनीता, बच्यो निष्काश्यते, धनमित्रः श्रुत्वाऽगतः, राज्ञः सदयोः पतितो विज्ञपयति यथा मयैते मानाविताः, स पृष्टो भणति महमेनं न जानामि इति एवं तौ परस्परं भणतः राज्ञा शपथशती पृष्टौ अभयं दर्श परिकथितं पूजयित्वा विशु एवं निरपलापेन भवितव्यं भाचार्येण द्वितीय:- एकेनैकख इथे भाजनं वा किचिद अन्तरा पतितं सत्र भणितम्यं मम दोषः, इतरेणापि ममेति निरपलापमिति गतम् । इदानीमापत्सु धर्मता कण्या, एवं योगाः संगृहीता भवन्ति, तावापदखतन्त्रः, तद्यथा- दुम्मा ४, उदाहरणगाथा पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः ~23~ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८१] भाष्यं २०६...], आवश्यकहारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥६६७॥ दीप अनुक्रम [२६] CARE 4%ACCOAC-%AKCE अस्या व्याख्या कथानकादवसेया, तच्चेदं-उज्जेणी णयरी, तत्थ वसू पाणियओ, सो पं जातकामो उग्घोसणं कारेइप्रतिक्रमजह [नाए] धन्नो, एवं अणुनवेइ धम्मघोसो नामणगारो, तेसु दूरं अडविमइगएसु पुलिदेहिं विलोलिओ सत्थो इओP | णाध्य तइओ नहो, सो अणगारो अण्णेण लोएण समं अडविं पविट्ठो, ते मूलाणि खायंति पाणियं च पियंति, सो निमंतिज्जइ, योगसं० नेच्छा आहारज्जाए, एगत्थ सिलायले भत्तं पच्चक्खायं, अदीणस्स अहियासेमाणस्स केवलणाणमुप्पण्णं सिद्धो, दढधम्मयाएट इधर्मजोगा संगहिया, एसा दबाबई, खेत्तावई खेसाणं असईए कालावई ओमोदरियाइ, भावावईए उदाहरणगाहा तायां महुराए जउण राया जउणाचंकेण दंडमणगारे । वहणं च कालकरणं सकागमणं च पध्वजा ॥१२८२॥ 18 | धर्मघो० व्याख्या कथानकादवसेया, तच्चेद-महुराए णयरीए जउणो राया, जउणायक उज्जाणं अघरेण, तत्थ जउणाए कोप्परो टापदण्डादा. दिण्णो, तत्थ दंडो अणगारो आयावेइ, सो रायाए नितेण दिछो, तेण रोसेण असिणा सीसं छिन्नं, अन्ने भणति-फलेण आहओ, सहिवि मणुस्सेहिं पत्थररासी कओ, कोवोदयं पइ तस्स आवई, कालगओ सिद्धो, देवागमणं महिमाकरण । १ उज्जयिनी नगरी, तन्त्र वसुपिफ, स चम्पा यातुकाम उधोपणां कास्यति, यथा धन्यः, एसमनुज्ञापयति धर्मधोषो नामानगारः, तेषु दूरमटवीम. तिगतेषु पुलिम्रैकिलोलितः साथैः इतसतो नष्टः, सोनगारोअन्येन लोकेन सममटवीं प्रविष्टः, ते मूलानि शान्ति पानीयं च पिबन्ति, स निमम्म्यते, नेच्छति आहारजातं, एकत्र शिलातले भर्फ प्रत्याख्यातं, अदीनस्वाध्यासीनस्थ केवलज्ञानमुत्पनं सिद्धः, धर्मतया योगाः संगृहीताः, एषा व्यापद्, क्षेत्रापत् क्षेत्राणामसति कालापत् अरमोदस्किादि भावापधुदाहरणगाथा । २ मधुरायां मगर्यो धमुनो राजा यमुनावकमुखानमपरखा, तन यमुनायां स्कन्धाबारो दत्त, तत्र दादोऽनगार आतापयति, स राज्ञा निर्गच्छता दृष्टः, तेन रोपेणासिना शीर्ष छिन्नं, अन्ये भणन्ति-बीजपूरेणाइतः, सर्वैरपि मनुष्यैः प्रस्तरराशिः कृतः, काकोपोदयं प्रति तस्य आपत्, कालगतः सिद्धः, देवागमन महिमकरणं ॥६६७॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~24 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८२] भाष्यं २०६...], प्रत सूत्रांक |संकागमणं पालएणं विमाणेण, तस्सवि य रण्णो अधिती जाया, बजेण भेसिओ सकेण-जइ पवइसितो मुच्चसि, पबइओ, थिराण अंतिए अभिग्गहं गेण्हइ-जइ भिक्खागओ संभरामिण जेमेमि, जइ दरजिमिओ ता सेसर्ग विगिंचामि, एवं तेण किर भगवया एगमवि दिवसं नाऽऽहारियं, तस्सवि दबावई, दंडस्स भावावई, आवईसु दधम्मतत्ति गयं ३ ॥ इयाणिं अणिस्सिओवहाणेत्ति, न निश्रितमनिश्रितं, द्रव्योपधानं उपधानकमेव भावोपधानं तपः, सो किर अणिस्सिओ कायवो इह परस्थ य, जहा केण कओ, एत्थोदाहरणगाहापाइलिपुत्त महागिरि अजसुहत्थी य सेहि वसुती । वइदिस उज्जेणीए जियपडिमा एलकच्छच ॥१२८३ ॥3 इमीए वक्खाण-अजधूलभद्दस्स दो सीसा-अज्जमहागिरी अज्जमहत्थी य, महागिरी अज्जसुहत्थिस्स उवज्झाया, महा-18 | गिरी गणं सुहस्थिस्स दाऊण पोच्छिण्णो जिणकप्पोत्ति, तहवि अपडिबद्धया होउत्ति गच्छपडिबद्धा जिणकप्पपरिकम्म (सू.] दीप अनुक्रम [२६] 52584-%D9602595%25 कागमनं पालकेन विमानेन, तखापि च राशोऽतिजांता, वनेण भापितः पाकेण-यदि प्रमजसि तर्हि मुख्यसे, प्रजिता, स्थनिराणामन्सिकेऽभि. ग्रहं गृह्णाति-यदि भिक्षागतः स्मरामि न जेमामि, यदि अर्धजिमितत्तदा शेयं त्यजामि, एवं तेन किस भगवतैकसिमपि दिवसे नाहतं, सस्थापि इण्यापन, दण्डस्य भावापत् , आपत्सु वधर्मतेति गतं३ । इदानीममिश्रितोपवानमिति, सत् किलानिधितं कर्तव्यं इह परन्त्र च, यथा केन कृतं , अत्रोदाहरणगाथा२ अस्या व्याख्यान-आवस्थूलभवस्य ही शिष्यो-आर्यमहागिरिरायसुहन्ती च, महागिरिरायसुहस्तिन उपाध्यायः, महागिरिगणं मुशलिने वाला ब्युच्छियो जिनकल्प एति, तथाप्यप्रतिबद्धता भवचिति गच्छप्रतिबद्धाः जिनकल्पपरिकर्मणां पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: -~-25 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२८३] भाष्यं [२०६...], प्रत सूत्रांक आवश्यक- हारिभ द्रीया ॥६६॥ गुंदा करेंति, ते विहरंता पाडलिपुत्तं गया, तत्थ वसुभूती सेट्ठी, तेर्सि अंतियं धम्म सोच्चा सावगो जाओ, सो अण्णया भणप्रतिक्रमअजसुहत्थिं-भय । मञ्झ दिन्नो संसारनित्थरणोवाओ, मए सयणस्स परिकहियं तं न तहा लग्गई, तुम्भेवि ता अण- णाध्य. भिजोएणं गंतूर्ण कहेहित्ति, सो गंतूण पकहिओ, तत्थ य महागिरी पविछो, ते दद्दूण सहसा उहिओ, बसुभूती भणइ- योगसं० तुभवि अन्ने आयरिया, ताहे सुहस्थी तेसिं गुणसंथवं करेइ, जहा-जिणकप्पो अतीतो तहावि एए एवं परिकम करेंति, अनिश्नि|एवं तेसिं चिरं कहिचा अणुषयाणि य दाऊण गओ सुहत्थी, तेण वसुभूइणा जेमित्ता ते भणिया-जइ एरिसो साहू एज तूपसिआतो से तुम्भे उज्झंतगाणि एवं करेज, एवं दिण्णे महाफलं भविस्सइ, बीयदिवसे महागिरी भिक्खस्स पविठ्ठा, तं अपुध- महागिकरणं दट्टण चिंतेइ-दवओ४, णायं जहा णाओ अहति तहेब अब्भमिते नियत्ता भणंति-अजो! अणेसणा कया, केणं? तुमे जेणसि कलं अभुडिओ, दोवि जणा वतिदिसं गया, तत्थ जियपडिमं वंदित्ता अजमहागिरी एलकच्छं गया कुर्वन्ति, ते (मुहस्तिनः) विहरन्तः पाटलीपुत्रं गताः, तत्र चसुभूतिः श्रेष्ठी, तेषामन्तिके धर्म श्रुत्वा श्रावको जाता, सोऽन्यदा भगति मार्यमुद। | तिनं-भगवन ! मह्यं दत्तः संसारनिस्तरणोपायः, मया स्वजनाय परिकथितं तक तथा लगति, यूयमपि तत् अनभियोगेन गत्या कषयतेति, स गत्वा प्रकषितः । ॥६६८॥ तत्र च महागिरिः प्रविष्टः, सान् दृष्ट्वा सहसोधितः, वसुभूतिभणति-युष्माकमप्यन्ये आचार्याः, तदा सुहस्तिनस्तेषां गुणसंस्तवं कुर्वन्ति, यथा जिनकत्सोऽतीतम्तयाप्येते एवं परिकर्म कुर्वन्ति, एवं तेभ्यश्चिरं कथयित्वाऽनुसतानि च दत्वा गतः सुहस्ती, तेन वसुभूतिना जिमिष्या ते भणिता: यद्येवादशः साधुराया तु तदा ती ययमक्षितकान्य कुर्यातएवं दसे महाफत भविष्यति, द्वितीय दिवसे महागिरिभिक्षावै प्रविष्टः, तदपूर्वकरणं हटा चिन्तयति-न्यतः ज्ञातं यथा हातोऽहमिति तयैवाभ्रान्ता निर्गता भणन्ति-आर्य ! भनेषणा कृता, कर्थ 1, वं येनाति कल्येऽम्युस्थितः, द्वावपि बनौ विदेशं गतौ, नत्र जीवप्रतिमा वन्दित्वा भार्यमहागिरव एकाक्षं गता दीप अनुक्रम [२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~26 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८३] भाष्यं [२०६...], प्रत सूत्रांक [सू.] RCHRkR0 गयग्गपदगं वंदया, तस्स कह एलगच्छ नाम ?, तं पुर्व दसण्णपुरं नगरमासी, तस्थ साविया एगस्स मिच्छदिहिस्स दिण्णा, बेयालियं आवस्सयं करेति पचक्खाइ य, सो भणइ-किं रत्ति उहित्ता कोइ जेमेइ , एवं उवहसइ, अण्णया सो भणइअहपि पच्चक्खामि, सा भणइ-भंजिहिसि, सो भणइ-कि अण्णयावि अहं रत्तिं उद्वेत्ता जेमेमि, दिसं, देवया चिंतेइसावियं उचासेइ अज्ज पं उबालभामि, तस्स भगिणी तत्थेव वसइ, तीसे स्वेण रत्तिं पहेणयं गहाय आगया, पञ्चक्खइओ, सावियाए वारिओ भणइ-तुम्भच्चएहिं आलपालेहि किं ?, देवयाए पहारो दिष्णो, दोवि अच्छिगोलगा भूमीए पडिया, सा मम अयसो होहित्ति काउस्सग्गं ठिया, अहरत्ते देवया आगया भणइ-किं साविए !, सा भणइ-मम एस अजसोत्ति ताहे अण्णस्स एलगस्स अच्छीणि सप्पएसाणि तक्खणमारियस्स आणेत्ता लाइयाणि, तओ से सयणो भणइ-तुभं अच्छीणि एलगस्स जारिसाणित्ति, तेण सर्व कहिय, सहो जाओ, जणो कोउहल्लेण एति पेच्छगो, सबरजे फुड भण्णइ गजाप्रपदकवादका, तस्य कथमेडकाक्षं नाम, तत् पूर्व दशाणपुर नगरमासीत् तत्र श्राविका एकौ मिस्वारश्ये दत्ता, विकाले भावश्यक करोति प्रत्याख्याति च, स भणति-किरात्राबुत्थाय कोऽपि जेमति, एनमुपहसति, अन्यदास भणति-अहमपि प्रत्याख्यामि, सा भणति-भलपसि, स भणति-किमन्यदाऽप्य रात्राबुधाय जेमामि, वर्स, देवता चिन्तयति-श्राविकामुहाजते अचैनमुपासने, तप भगिनी तच वसति, तस्या रूपेण रात्री आहेणकं गृहीत्वाऽऽगता, प्रत्यास्वायकः श्राविकया चारितो भणति-त्वदीयैः प्रलापैः किं , देवतया प्रहारो दत्तः, द्वावप्याक्षिगोलको भूमौ पतिती, सा ममायको भविष्यतीति कायोरसमें स्थिता, मधुराने देवताऽऽगता भणति--कि श्राविके ?, सा भणति-ममैतदयश इति, तदाऽन्यस्वेटकस्याक्षिणी सप्रदेशे तरक्षणमारितस्थानीय योजितानि, ततसतस्य स्वजनो भणति-सवाक्षिणी पदकस्य पारशे इति, तेन सर्व कधित, भादो जाता, जनः कुतूहलेनायाति प्रेक्षका, सर्वराज्ये फुट भषयते दीप अनुक्रम [२६] C पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~27~ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८३] भाष्यं २०६...], आवश्यकहारिभद्रीया % प्रत सूत्रांक [सू.] ॥६६९॥ 4-4-58- - को एसि , जत्थ सो एलकच्छओ, अण्णे भणति-सो चेव राया, ताहे दसण्णपुरस्स एलकच्छ नार्म जाय, तत्थ गयग्गपयओ परओ, तस्स उप्पत्ती, तस्थेव दसण्णपुरे दसण्णभद्दो राया, तस्स पंचसयाणि देवीणोरोहो, एवं सो जोवणेण|8| दमणाध्य. रूवेण य पडिबद्धो परिसं अण्णस्स नत्थित्ति, तेणं कालेणं तेणं समएणं भगवओ महावीरस्स दसण्णकूडे समोसरणं, ताहे SIMa सो चिंतेइ-तहा कले वंदामि जहा केणइन अण्णेण वंदियपुबो, तं च अज्झत्थियं सको णाऊण एइ, इमोवि महया इडीए| तपसि आ अनिश्रितनिग्गओ वंदिओ य सबिड्डीए, सकोवि एरावणं विलग्गो, तत्थ अह दंते विउबेइ, एकेके दंते अडवावीओ एकेकाए यावीए यमुहागिअहह पउमाई एकेक पउमं अपत्तं पत्ते य २ बत्तीसइबद्धनाडगं, एवं सो सबिड्डीए एरावणविलग्गो आयाहिणं पयाहिणं युदा० करेइ, ताहे तस्स हस्थिस्स दसण्णकूडे पथए य पयाणि देवप्पहावेण उद्वियाणि, तेण णाम कयं गयग्गपदग्गोत्ति, ताहे सो| दसन्नभद्दो तं पेच्छिकण एरिसा कओ अम्हारिसाणमिद्धी?, अहो कएलओऽणेण धम्मो, अहमवि करेमि, ताहे सो पचयइ, कुत भावासि, यत्र स एडकाक्षः, अन्ये भणन्ति-स एव राजा, तदा दशाणपुरस्मैडकाक्षं नाम जातं, तत्र गजानपदः पर्वतः, तस्योत्पत्तिः-दशाण-४ परे दशाणभद्रो राजा, तस्य पञ्चशतानि देवीनामवरोधा, एवं स बावनेन रूपेण च प्रतिबद्धोऽन्यखेडयां नास्तीति, तस्मिन् काले तमिान् समये भगवतो महावीरस्य दयार्णकूटे समवसरण, सदास चिन्तयति तथा कन्ये वन्दिताहे यथा केनचिनान्येन वन्दितपूर्व: सध्यसितंशको शावाध्याति, अधमपि ॥६६९॥ महत्या का निर्गतो बन्दिता सर्वा, शोऽवरावणं विसमा तत्राट दन्तान् बिकुर्वति, एकैमिन पन्ते अशष्ट बापी। एकैकयां वाच्यामा पद्मानि पुकैक पद्ममष्टपन पत्रे पोपहाविशद नाटकं, एवं स सर्वया ऐरावणविला आदक्षिणं प्रदक्षिणं करोति, तदा तस्य इतिनो शारे पर्वते च पादा देवताप्रभावेनोस्थिताः, तेन नाम कृतं गजाप्रपदक (वाम) इति, तदा स दशाणभवता प्रेक्ष्य इंदशी कुतोऽस्माकमृद्धिः, अहो कृतोऽनेन धर्मः, अहमपि। करोमि, सदा स प्रबजहि, दीप अनुक्रम [२६] 6 - R पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~28~ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [स्.-] दीप अनुक्रम [२६] [भाग-३१] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १/४ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन] [४] मूलं [स्] / [गाथा-] निर्बुक्तिः [ १२८३ ] भष्यं [२०६...], ऐसा गयग्गपयस्स उत्पत्ती, तस्थ महागिरीहिं भत्तं पञ्चकखायं देवत्तं गया, सुहत्थीवि उज्जेणिं जियपडिमं वंदया गया उज्जाणे ठिया, भणिया य साहुणो-बसहिं मग्गहत्ति, तत्थ एगो संघाडगो सुभद्दाए सिडिभजाए घरं भिक्खरस अइगओ' पुच्छिया ताए कओ भगवंतो ? तेहिं भणियं सुहत्थिस्स, वसहिं मग्गामो, जाणसालाउ दरिसियाड, तत्थ ठिया, अन्नया पओसकाले आयरिया नलिणिगुम्मं अज्झयणं परियइंति, तीसे पुत्तो अवंतिसुकुमालो सत्ततले पासाए बत्तीसाहिं भज्जाहिं समं उवललइ, तेण सुत्तविबुद्धेण सुयं, न एवं नाडगंति भूमीओ भूमीयं सुणतो २ उदिष्णो, बाहिं निग्गओ, कत्थ एरिसंति जाई सरिया, तेसि मूलं गओ, साहइ अहं अवंतिसुकुमालोत्ति नलिणिगुम्मे देवो आसि, तस्स उस्सुग्गो पयामि, असमत्थो य अहं सामन्नपरियागं पालेडं, इंगिणिं साहेमि, तेवि मोयावित्ता, तेणं पुच्छियत्ति, नेच्छति, सयमेव लोयं करेंति, मा सयंगिहीयलिंगो हवउत्ति लिंगं दिण्णं, मसाणे कंथरे कुंडगं, तत्थ भतं पञ्चवखायं सुकुमाल पहिं १ एषा गजामपदकस्य उत्पत्तिः तत्र महागिरिभिर्भकं प्रत्याख्यातं देवत्वं गताः, सुहसिनोऽपि उज्जयिनों जीवत्यतिमावन्दका गताः, उद्याने स्थिताः भणित साधवः वसतिं मार्गयतेति तत्रैकः संघाटकः सुभद्रायाः श्रेष्ठिभाषांचा गृई भिक्षायातिगतः पृष्टास्तया कुतो भगवन्तः ?, तैर्भणितं सुहस्तिनः, वसतिं मार्गयामः, यानशाला दर्शिताः, तत्र स्थिताः, अन्यदा प्रदोषकाले आचार्य नलिनीशुष्ममध्ययनं परिवर्तयन्ति तस्याः पुत्रोऽन्ती सुकुमालः सप्ततले प्रासादे द्वात्रिंशता भार्याभिः सममुपललति तेन सावयुद्धेन श्रुतं नैतनाटकमिति भूमे भूमिमुतीर्णः श्रवन् बहिर्निर्गतः बेटशमिति जातिः स्मृता, तेषां मूलं गतः, कथयति अहं अवन्तिसुकुमाल इति नलिनीगुल्मे देवोऽभवं तस्मायुत्सुकः प्रजामि, असमर्थवाहं श्रामयं पालयितुं इङ्गिन करोमि तेऽपि ( भणन्ति - ) मातुमचवित्वा तेन पृष्टेति नेच्छति, स्वयमेव लोघं करोति, मा स्वयंगृहीतलिङ्गो भूदिति लिङ्गं वृत्तं श्मशाने कंरकु ख्यातं सुकुमालयोः तत्र भक्तं प्रत्या पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः ~29~ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२८३] भाष्यं २०६...], भावश्यक- हारिभ द्रीया ॥६७०॥ प्रत सूत्रांक पाएहिं लोहियगंधेण सिवाए सपेल्लियाए आगमणं, सिवा एगं पायं खायइ, एग चिल्लगाणि, पढमे जामे जण्णुयाणि बीए प्रतिक्रमऊरू तइए पोर्ट्स कालगओ, गंधोदगपुप्फवासं, आयरियाणं आलोयणा, भज्जाणं परंपरं पुच्छा, आयरिएहिं कहियं, सबि-IAमणाध्य. हीए सुण्हाहिं समं गया मसाणं, पवइयाओ य, एगा गुचिणी नियत्ता, तेसिं पुत्तो तस्थ देवकुलं करेइ, तं श्याणि महा योगसं० ६५ शिक्षायां कालं जाय, लोएण परिग्गहियं, उत्तरचूलियाए भणिय पाडलिपुत्तेति, समत्तं अणिस्सियतवो महागिरीणं ४ । इयाणिं सि-IPTA क्खत्ति पर्य, सा दुविहा-गहणसिक्खा आसेवणासिक्खा य, तत्थ म्युदा० खितिवणउसभकुसग्गं रायगिहं चंपपाडलीपुत्तं । नंदे सगडाले थूलभद्दसिरिए वररुची य॥१२८४ ॥ एईए वक्खाणं-अतीतअद्धाए खिइपइडियं णयर, जियसत्तू राया, तस्स णयरस पत्थूणि उस्सण्णाणि, अण्णं णयरहाणं वत्थुपाढएहिं मग्गावेइ, तेहिं एग चणयक्खेतं अतीव पुष्फेहिं फलेहि य उववेयं दहूं, चणयणयरं निवेसियं, दीप अनुक्रम [२६] n६uall पादयोः रधिरगन्धेन शिवायाः सशिशुकाया नायमनं, एकं पादं शिवा खादति, एक शिशवः, प्रथमे यामे जानुनी द्वितीये अरुची तृतीये उदरं कालगतः, | गन्धोदकपुष्पवर्ष, आचार्येभ्य आलोचना, भार्याणां परम्परकेण पृच्छा, आचार्यैः कथितं, सर्वध्या पाभिः समं गता श्मशान, प्रबजिताब, एका गर्भिणी निवृत्ता, तेषां पुत्रतत्र देव करोति, तदिदानी महाकालं जातं, लोकेन परिगृहीतं, उत्तरचूलिकायां भणितं पाटलिपुत्रमिति, समान अनिधितोपधा महागिरीणां । इदानी शिक्षेति पर्व, सा द्विविधा-प्रहणशिक्षाआसेवनाशिक्षा च, तन-मस्या व्याख्यान-अतीताद्वायां शितिप्रतिष्ठितं नगरं, जितशबू राजा, तस्य नगरस्य पस्तुत्युवमानि, सम्पनगरस्थानं वास्तुपाठकमार्गवति, तैरेकं चणकक्षेत्र अतीव पुष्पैः फलश्रोपपेतं रष्ट्रा वणकनगर निवेषितं, पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~30 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], प्रत सूत्रांक कालेण तस्स वत्थूणि खीणाणि, पुणोवि वत्थु मग्गिजइ, तत्थ एगो वसहो अण्णेहिं पारद्धो एगमि रणे अच्छइ, न।। तीरइ अन्नेहिं वसहेहिं पराजिणिउं, तत्थ उसमपुरं निवेसियं, पुणरवि कालेण उच्छन्नं, पुणोवि मग्गति, कुसथंबो दिहो अतीवपमाणाकितिविसिहो, तरथ कुसग्गपुरं जायं, तमि य काले पसेणई राया, तं च णयरं पुणो २ अग्गिणा डज्झइ, ताहे लोगभयजणणनिमित्तं घोसावेइ-जस्स घरे अग्गी उद्देइ सो णगराओ निच्छुब्भइ, तत्थ महाणसियाण पमाएण रण्णो चेव घराओ अग्गी उहिओ, ते सच्चपइण्णा रायाणो-जइ अप्पगं ण सासयामि तो कई अन्नंति निग्गओ जयराओ, तस्स गाउयमित्ते ठिओ, ताहे दंडभडभोइया वाणियगाय तत्थ वच्चंति भणति-कहिं बच्चही, आह-रायगिहंति, कओएह ? रायगिहाओ, एवं णयरं रायगिहं जायं, जया य राइणो गिहे अग्गी उडिओ तओ कुमाराजं जस्स पियं आसो हत्थी वा तं तेण णीणिए सेणिएण भंभा णीणिया, राया पुच्छइ-केण किं णीणियंति !, अण्णो भणइ-मए हत्थी आसो एवमाइ, [सू.] र % AASANAMATKARISADCChe - 6 C0- दीप अनुक्रम [२६] कालेन तस्व वस्तूनि क्षीणानि, पुनरपि वास्तु मार्गयति, तत्रैको वृषभोमयः प्रारब्ध एकस्मितारण्ये तिएति, न शक्यतेऽन्फवृषभैः पराजेतुं, तत्र वृषभपुर निवेशितं, पुनरपि कालेनोच्छिन्न, पुनरपि मार्गबन्ति, कुशस्तम्बो रोऽतीवप्रमाणाकृतिविशिष्टः, तब कुशाप्रपुरं जातं, तमिश्च काले प्रसेनजित् राजा, वच नगरं पुनः २ अग्निना दाते, तदा होकभवजनन निमिछ घोषयति-यस्थ गृहेऽभिरुतिष्ठति स नगरात् निष्काश्यते, तत्र महानसिकानां प्रमादेन राज्ञ एवं गृहात अग्निरुस्थितः, ते सत्यप्रतिज्ञा राजानः-बधात्मानं न शामि तदा कथमन्यमिति निर्गतो नगरात्, तस्मात् गन्यूतमात्रे स्थितः, सदा दण्डिकभटभोजिका चणिजश्व तत्र प्रजन्तः भणन्ति-कवजय, भाइ राजगृहमिति, कुन भाषाथ , राजगृहात, एवं नगरे राजगृहं जातं, यदाच राज्ञो गृहेऽग्निरुस्थितस्ततः कुमारा यमस्य प्रियमवो हसी वा सत्तेन निष्काशिते श्रेणिकेन दा नीता, राजा पृच्छति-केन किं भीतमिति, अन्यो भवति-यथा इसी अश्वः एवमादिः * पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~31 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं २०६...], प्रत सूत्रांक हारिभ- 1 द्रीया ॥६७१॥ [सू.] | 'सेणि ओ पुच्छिओ-भभा, ताहे राया भणइ सेणियं-एस ते तत्थ सारो भंभित्ति , सेणिओ भण-आम, सो य रणो प्रतिक्र| अञ्चतपिओ, तेण से णामं कर्य-भभिसारोत्ति, सो रणो पिओ लक्खणजुत्तोत्ति, मा अप्णेहिं मारिजिहित्ति न किंचिवि मणाध्य |देइ, सेसा कुमारा भडचडगरेण निति, सेणिओ ते दडण अधितिं करेति, सो तओ निष्फिडिओ वेण्णायई गओ, संयोगशि क्षायां वज्रजहा नमोकारे-अचियत्त भोगऽदाणं निग्गम विष्णायडे य कासवए । लाभ घरनयण ननुग धूया सुस्सूसिया दिण्णाशा खाम्युदः पेसण आपुच्छणया पंडरकुडुत्ति गमणमभिसेओ । दोहल णाम णिरुत्ती कहं पिया मेत्ति रायगिहे ॥२॥ आगमणऽमच्चमग्गण खुडग छगणे य कस्स तं ? तुझं । कहणं माऊआणण विभूसणा वारणा माऊ ॥३॥ तं च सेणियं उजेणिओ पज्जोओ रोहओ जाइ, सो य उइण्णो, सेणिओ बीहेइ, अभओ भणइ-मा संकह, नासेमि से वायंति, तेण खंधावारणिवेस जाणपण भूमीगया दिणारा लोहसंघाडएसु निक्खाया दंडवासस्थाणेसु, सो आगो रोहद, जुझिया कवि दिवसे, मेणिक पृष्टः-भम्भा, तदा राजा भणति श्रेणिक-एष ते सारो भन्भेति !, श्रेणिको भणति-ओम्, सपा राशोऽस्यन्तप्रियः, तेन तस्य नाम कृतंभम्मसार इति, स राज्ञः प्रियो क्षणयुक्त इति, मा अन्धमारी ति न लिजिदपि ददाति, शेषाः कुमारा भटसमूहेन निर्गच्छन्ति, श्रेणिकस्तान् दृष्ट्वाऽपति करोति, स ततः निर्गतो पेनात गता, यथा नमस्कारे-अप्रीति गादानं निगमो बेनातरे च लेखहारः । लामो गृहमयनं गला दुहिता शुभूपिका दना ॥१॥ |प्रेषणं आपृच्छा पाण्डरकुडवा इति गमनमभिषेक: । दोहदा नाम निरुक्तिः पिता मे इति राजगृहे ॥२॥ आगमनं अमात्यमार्गणं मुद्रिका गोमयं च कस्पद वं? तब । कथनं मातुरानयनं विभूषणं वारणं मातुः ॥ ३॥ तं च श्रेणिक मायिनीतः प्रयोतो रोधक आयाति, स चोदितः, श्रेणिको बिभेति, अभयो भणति ॥६७१॥ मा शङ्कवं, नाशयामि तस्य वादमि ति, तेन रुन्धावारनिवेशज्ञायकेन भूमिगता दीनारा लोहनाटकेषु निखाता दण्डावासस्थानेषु, स आगतो रुणद्धि, योधिताः कतिचिदिवसान्, RECXXX दीप अनुक्रम [२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~32 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], - प्रत - सूत्रांक पच्छा अभओ लोह देइ, जहा तव दंडिया सधे सेणिएण भिण्णा णास माऽपिहिसि, अहव ण पञ्चओ अमुगस्स दंडस्सा है। अमुर्ग पएस खणह, तेण खयं, दिहो, नहो य, पच्छा सेणिएण बलं विलोलियं, ते य रायाणो सबे पकहिंति-न एयरस कारी अम्हे, अभएण एसा माया कया, तेण पत्तीयं । अण्णया सो अत्थाणीए भणइ-सो मम नत्थि ? जो तं आणेज,५ अण्णया एगा गणिया भणइ-अहं आणेमि, नवरं मम वितिजिगा दिजंतु, दिण्णाओ से सत्त वितिजिगाओ जाओ से रुच्चंति मज्झिमवयाओ, मणुस्सावि थेरा, तेहिं समं पचहणेसु बहुएण य भत्तपाणेण य पुर्व व संजइमूले कवडसहत्तणं गहेऊण गयाओ, अन्नेसु य गामणयरेसु जत्थ संजया सड्डा य तहिं २ अइंतिओ सुहृयरं बहुसुयाओ जायाओ, रायगिहं| गयाओ, बाहिं उजाणे ठियाउ चेइयाणि बंदंतीउ घरचेइयपरिवाडीए अभयघरमइगयाओ निसीहियत्ति, अभओ दणं उम्मुकभूसणाउ उडिओ सागयं निसीहियापत्तिः, चेइयाणि दरिसियाणि वंदियाणि य, अभयं वंदिऊण निविट्ठाओ, -- [सू.] VXXX-RE-%-5 दीप अनुक्रम [२६] - पवादभयो लेख वदाति, यथा तव दण्डिकाः सर्वे श्रेणिकेम भेदिता नश्य माऽर्येथाः, अथ च न प्रत्ययोऽमुकस्य दण्डिकखामुकं प्रदेश खन, तेन | हैसास, दृष्टो, नष्टचा, पमाणिवेन पर विलोलितं, ते च राजानः सर्वे प्रकथयन्ति-मैतख कत्तीरो वयं, अभयेनेचा भाया कृता, तेन प्रस्थापितं । अम्बदास आस्थाच्या भगति-स मम नास्ति? यस्तमानयेत, अन्यदेका गणिका भाति-महमानयामि, नवरं मम साहारियका दीपम्ता, दत्तास्तथाः सप्त बैतीयिका यास्तस्यै रोचन्ते मध्यवयसः, मनुष्या अपि स्थविराः, तैः समं प्रवहणेषु च बहुकेन भकपानेन च पूर्वमेव संयतीमूले कपटश्नाद्धर्व गृहीत्वा गताः, अन्येषु च ग्रामनगरेषु : यत्र संयताः श्राद्वान तालिगम्यः सुष्टुतरं बहुश्रुता जाता, राजगृहं गताः, बहिरुयाने स्थितात्रैत्यानि वन्दमाना गृहचैत्यपरिपापाऽभयगृहमतिगता नैषेचिकीति (मणितपस्या), अभयो ष्टोन्मुकभूषणा उत्थितः स्वागतं भषेधिकीनामिति, चैत्यानि दर्शितानि पन्दितानि च मभयं पन्दिरमा निविष्टा, - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~33~ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], प्रत सूत्रांक * k आवश्यक- जम्मभूमीउ णिक्खमणणाणणिवाणभूमीओ वंदावेति, पुच्छइ-कओ!, ताओ कहेंति-उज्जेणीए अमुगो वाणियपुत्तो तस्स प्रतिक्रहारिभ- माय भज्जा, सो कालगओ, तस्स भजाओ अम्हे पचाउकामाओ, न तीरंति पवइएहिं चेइयाहिं वंदिङ पछियवए, भणियाओमणाध्य० द्रीया पाहुणियाउ होइ, भणंति-अभत्तढ़ियाओ अम्हे, सुचिरं अच्छित्ता गयाओ, वितियदिवसे अभओ एकगो आसेणं पगे योगसंग्र० पगओ, एह मम घरे पारेधत्ति, भणंति-इम पारगं तुम्भे पारेह, चिंतेइ-मा मम घरं न जाहिंति भणइ-एवं होउ, पजि शिक्षायां | वज्रस्वामिओ, संजोइ महुँ पाइओ सुत्तो, ताहे आसरहेण पलाविओ, अंतरा अण्णेवि रहा पुबडिया, एवं परंपरेण उजेणि म्युदा० पाविओ, उवणीओ पज्जोयस्स, भणिओ-कहिं ते पंडिच्चं?, धम्मच्छलेण वंचिओ, बद्धो, पुवाणीया से भज्जा सा उवणीया, तीसे का उप्पत्ती-सेणियस्स विजाहरो मित्तो तेण मित्तया थिरा होउत्ति सेणिएण से सेणा नाम भगिणी दिना निबंधे। कए, साविय विजाहरस्स इहा, एसा धरणिगोयरा अम्हं पवहाएत्ति विजाहरिहिं मारिया, तीसे धूया सा तेण मा एसावि ॥६७२॥ *-*- दीप अनुक्रम [२६] 4 जन्मभूमीनिष्क्रमणज्ञाननिर्वाणभूमीन्दियति, पृच्छति-कुतः, ताः कथयन्ति-जविन्याममुको वणिपुत्रः तस्य च भार्याः, स कालपतः, तस्य भार्या वयं प्रबजितुकामाः, न शक्यते प्रबजिताभिश्चैत्यानि वन्दितुं प्रस्थातुं, भाषिताः-प्रापूर्णिका भवत, भणन्ति-भभक्कार्थिन्यो वयं, सुचिरं स्थित्वा गताः, द्वितीय दिवसे अभयः एकाकी अश्वेन प्रभाते प्रगतः, आयात मम गृहे पारयतेति, भणन्ति-इदं पारणकं यूयं पारयत, चिन्तयति-मा मम गृहं नायासिष्ट, भणति-एवं भवतु, प्रजिमितः, सांयोगिकं मधु पाययित्वा स्वपितः, तदाऽवरथेन परिमापितः, अन्तरा अन्येऽपि रमाः पूर्वस्थापिताः, एवं परम्परफेणोनायिनी प्रापित्तः, प्रद्योतायोपनीतः, भणित:-क ते पाण्डित्य, धर्मच्चलेन वञ्चितो, बद्धः, पूर्वानीता तख भार्या स्रोपनीता, तस्याः कोत्पत्तिः, मेणिक व विद्याधरी मित्र, ततो मैत्री स्थिरा भमस्थिति श्रेणिकेन तमै सेनानानी भगिनी दत्ता निन्धं कृत्वा, सापिच विद्याधरस्पेष्टा, एषा धरणीगोचराउमाकं प्रवधायेति विधान धरीमिमारित्ता, तस्था दुहिता सा तेन मैपाऽपि ॥६७२॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~34 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], प्रत सूत्रांक (सू.] दीप अनुक्रम [२६] मारिजिहितित्ति सेणियस्स उवणीया खिजिओ (उज्झिया)य, सा जोबणस्था अभयस्म दिण्णा, सा विज्जाहरी अभ-| यस्स इट्ठा, सेसाहिं महिलाहिं मायंगी उलग्गिया, ताहिं विजाहिं जहा नमोक्कारे चक्खिदिय उदाहरणे जाव पञ्चंतेहिं उज्झिया तायसेहिं दिवा पुच्छिया कओसित्ति, तीए कहियं, ते य सेणियस्स पचया तावसा, तेहिं अम्ह नत्तुगित्ति सारविया, अन्नया पविया सिवाए उजेणी नेऊण दिण्णा, एवं तीए समं अभओ वसइ, तस्स पज्जोयस्स चत्तारि रयणाणिलोहजंघो लेहारओ अग्गिभीरुरहोऽनलगिरी हत्थि सिवा देवित्ति, अन्नया सो लोहजंघो भरुयच्छं विसजिओ, ते लोका य चिंतेन्ति-एस एगदिवसेण एइ पंचवीसजोयणाणि, पुणो २ सदाविजामो, एयं मारेमो, जो अण्णो होहिति सो गणिएहिं दिवसेहिं पहिति, एचिरंपि कालं सुहिया होमो, तस्स संबलं पदिपणं, सो नेच्छइ, ताहे विहीए से दवावियं, तत्थवि से विससंजोइया मोयगा दिण्णा, सेसगं संबलं हरियं, सो कइवि जोयणाणि गंतुं नदीतीरे खामित्ति जाव सउणो वारेइ, मार्यतामिति श्रेणिकायोपनीता, रुएका (भवरोधाय), सा यौवन स्थाऽभयाय दत्ता, सा बियाधर्षभयोटा, कोषाभिर्महेलाभिमांतकी भयलगिता, ताभिर्विधाभिषया नमस्कारे चक्षुरिन्द्रियोदाहरणे यावत् प्रत्यन्तै पिसता तापसष्टा पृष्टा-कुतोऽसीति', तथा कधित, ते चणिकस्य पर्वगामापस, सैरसार्क नति संरक्षिता, अभ्यदा प्रस्थापिता सजयिनी नीवा शिवायै दसा, एवं तथा समम भयो वसति, तस्य प्रयोतष पवारि जानि-लोहजो रेखहारकोऽग्निभीरू रथोऽनलगिरिईसी शिवा देवीति, मन्यदा स लोहजहो भृगुक प्रति विसृष्टः, ते कोकान चिन्तयन्ति-एष एफदिवसेनायाति पञ्चविंशतियोजनानि, पुनः पुनः नाम्दापविश्यामह, एनं माश्यामा, बोम्यो भविष्यति स बहभिर्दिनरावास्यति इयचिर पाई सुखिनी भविष्यामः, तसे सम्पर्क प्रदर्ग, स नेच्छति, तदा विधिना (बीच्या) तम दापित, वनापि विषसंयुका मोदकासास्मै दत्ताः, यो शम्बई इतं, स कतिचिद्योजनानि गत्वा नदीतीरे खादामीति यावच्छकुनो धारयति, - - - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~35 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], आवश्यक- हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥६७३॥ KE% उद्वेत्ता पहाविओ, पुणो दूरं गंतुं पक्खाइओ, तत्थवि वारिओ तइयंपि वारिओ, तेण चिंतियं-भविय कारणेणंति पजो- प्रतिक्रमयस्स मूलं गओ, निवेइयं रायकजं, तं च से परिकहिय, अभओ वियक्खणोत्ति सहाविओ, तं च से परिकहियं, अभोणाध्य. तं अग्बाइ संबलं भणइ-एत्थ दषसंजोएण दिट्ठीविसो सप्पो सम्मुच्छिमो जाओ, जइ उग्घाडियं होतं तो दिहीविसेण सप्पेण ५शिक्षायां खाइओ होइ(न्तो), तो किं कजा, वणनिउंजे मुएजह, परंमुहो मुको, वणाणि दहाणि, सो अन्तोमुत्तेण मओ, तुडोटी राया,भणिओ-पंधणविमोक्खवजं वरं वरेहित्ति, भणइ-तुन्भं चेव हत्थे अच्छत, अण्णयाऽनलगिरी वियट्टो न तीरद घेत्तुं,ILA म्यु० अभअभओ पुच्छिओ, भणइ-उदायणो गायउत्ति, तो उदायणो कहं बद्धोत्ति-तस्स य पज्जोयस्स धूया वासवदत्ता नाम, योदन्तः सा बहुयाउ कलाउ सिक्खाविया, गंधवेण उदयणो पहाणो सो घेप्पउत्ति, केण उवाएणंति ?, सो किर जं हतिथं पेच्छा तस्थ गायइ जाव बंधपि न याणइ, एवं कालो वच्चइ, इमेण जंतमओ हत्थी काराविओ, तं सिक्खावेइ, तस्स विसयए अध्याय प्रचापिता, पुनरं गत्वा प्रवादितस्तत्रापि वारितः तृतीयमपि चारितः, तेन चिन्तित-भवितव्य कारणेनेति प्रयोतस्य मूले गतो, निवेदितं राज्यकार्य, तश्च तस्मै परिकथितं, अभयो विचक्षण इति शब्दितः, सच तमै परिकधितं, अभयस्तत् आप्राय वाम्बर्क भणति-अत्र इम्पसंयोगेन रहिविषा सर्पः संमूछिमो जातः, यधुपाटितमभविष्यत्तदा दृष्टिविषेण सर्पज खादितोऽभविष्यद, तत् किं क्रियता , वननिकले मुञ्चत, पराबमुखो मुक्तः, वनानि दग्धानि, सोऽन्तर्मुहूर्तेन मृतः, वो राजा, भणिता-धनविमोक्षवर्ज बरं वृशुश्चेति, भणति-युप्माकमेव हसे तिष्ठत, अन्यदाऽनलगिरिविकको न शक्यते प्रदीत, अभयः पृष्टः, भणति- G ॥६७३॥ उदायनो गायरिवति, वत् उदापनः कथं बद इति, तस्य च प्रयोतम दुहिता वासवदत्ता नानी, सा बहुकाः कला शिक्षिता, गान्धर्वणोदायमः प्रधानः स गृक्षतामिति, केनोपाबेनेति, सकिल इतिनं प्रेक्षते तत्र गायति यावद् बन्ध (वय) मपि न जानाति, एवं कालो मजति, मनेन यन्त्रमयो हनी कारितः | त शिक्षयति, तस्य विषये % दीप अनुक्रम [२६] % % MADHA पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~36 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [स्.-] दीप अनुक्रम [२६] [भाग-३१] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १/४ ( मूलं+निर्युक्तिः वृत्तिः) अध्ययन] [४] मूलं [स्] / [गाथा-] निर्बुक्तिः [ १२८४ ] भष्यं [२०६...], चारिजइ, तस्स वणचरेण कहियं, सो गओ तत्थ, खंधावारो पेरतेहिं अच्छ, सो गायइ हत्थी ठिओ दुको गहिओ य आणिओ य, भणिओ-मम धूया काणा तं सिक्खावेहि मा तं पेच्छसु मा सा तुमं दहूण लज्जिहिति, तीसेवि कहियेउवज्झाओ कोटिउत्ति मा दच्छिहिसित्ति, सो य जवणियंतरिओ तं सिक्खावेइ, सा तस्स सरेण हीरइ कोढिओत्ति न जोएति, अण्णया चिंतेइ-जइ पेच्छामि, तं चिंतेन्ती अण्णहा पढइ, तेण रुद्वेण भणिया-किं काणे ! विणासेहि ?, सा भणइ-कोढिया !न याणसि अप्पाणयं, तेण चिंतियं जारिसो अहं कोढिओ तारिसा एसावि काणत्ति, जवणिया फालिया, दिट्ठा, अवरोप्परं संजोगो जाओ, नवरं कंचणमाला दासी जाणइ अम्मधाई य सा चेव, अण्णया आलाणखंभा ओऽनलगिरी फिडिओ, रायाए अभओ पुच्छिओ-उदायणो निगाय उत्ति, ताहे उदायणो भणिओ, सो भणइ-भद्दवतिं हत्थिणि आरुहिऊणं अहं दारिगा य गायामो, जबणियंतरियाणि गाणि गीयंति, हत्थी गेएण अक्खित्तो गहिओ, इमाणिवि पलायाणि, चार्यते तस्मै वनचरैः कथितं स गतस्तत्र, स्कन्धावारः पर्यन्तेषु तिष्ठति स गायति हस्ती स्थितः आसीभूतो गृहीतवानीत भणितो-मम दुहिता काणा तो शिक्षण मा तं द्राक्षीः मा सारवां दृष्ट्वाऽजीदिति, तस्मायपि कचित उपाध्यायः कुष्टीति मा द्राक्षीरिति स च यवनिकान्तरितस्तां शिक्षयति सा तस्य स्वरेणापत्तीभूता कुट्टीति न पश्यति, अन्यदा चिन्तयति-यदि पश्यामि तचिन्तयन्ती अन्यथा पठति, तेन रुष्टेन भणिता कि काणे! विनाशयसि ?, सा भणति कुष्ठिन् ! न जानायामानं तेन चिन्तितं पादशोऽहं कुडी ताशी एपापि काणेति यवनिका पाटिता दृष्टा, परस्परं संयोगो जातः, नवरं काञ्चनमाला दासी जानाति, अम्बधात्री च सेव, अम्यदाऽऽहानस्तम्भादनलगिरिश्छुटितः राज्ञाऽभयः पृष्टः- उदायनो निमीयतामिति तदोदायनो भणितः, स भणति भङ्ग वर्ती हस्तिनीमामाई दारिकाच गायावः यवनिकान्तरिते गानं गायतः, हस्ती गेयेनाक्षिसो गृहीतः, इमे अपि पलायिते, पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः ~37~ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं २०६...], आवश्यकहारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥६७४॥ एस बीओ वरो, अभएण भणियं-एसोवि तुम्भं चेव पासे अच्छउ, अण्णे भणंति-उज्जाणियागओ पजोओ इमा दारिया प्रतिक्रम|णिम्माया तत्थ गाविजिहित्ति, तस्स य जोगंधरायाणो अमच्चो, सो उम्मत्तगवेसेण पढइ-यदि तां चैव तां चैव, तां चैवा-राणाध्य. |ऽऽयतलोचनाम् । न हरामि नृपस्यार्थे, नाहं योगंधरायणः ॥ १॥ सो य पज्जोएण दिहो, ठिओ काइयं पवोसरिजं, णाय-बायोग रोय कओ पिसाउत्ति, सा य कंचणमाला विभिन्नरहस्सा, वसंतमेंठेणवि चत्तारि मुत्तपडियाओ विलइयाओ घोसवती ५शिक्षायां वीणा, कच्छाए बज्झतीए सकुरओ नाम मंतीए अंधलो भणइ-कक्षायां वध्यमानायां, यथा रसति हस्तिनी । योजनानां म्यु० अभशतं गत्वा, प्राणत्यागं करिष्यति ॥१॥ताहे सवजणसमुदओ, मञ्झे उदयणो, भणइ-एष प्रयाति सार्थः काञ्चनमाला योदन्तः वसन्तकश्चैव । भद्रवती घोषयती यासवदत्ता उदयनश्च ॥१॥ पहाविया हस्थिणी, अनलगिरी जाव संनग्झइ ताव पणवीस जोयणाणि गयाणि संनहो, मग्गलग्गो, अदूरागए घडिया भग्गा, जाव त उरिसंघइ ताव अण्णाणिवि पंचवीसं, एवं तिपिणवि, दीप अनुक्रम [२६] KARNECX ॥६७४॥ एप द्वितीयो वरः, अभयेन माणितं-एपोऽपि युष्माकमेव पायें तिष्ठतु, अन्ये भणन्ति-उद्यानिकागतः प्रद्योत इयं च दारिका निष्णाता तब गायनीतिः तस्य च योगन्धरायणोऽमास्यः, स उन्मत्तक येषेण पठति-१ च प्रद्योतेन रष्टः, स्थितः कायिकी प्रध्युरखष्ट्र, नागरच कुतः पिशाच इति, सा च काञ्चनमाला | 14 विभिन्नरहवा, वसन्तमेण्टेनापि चतलो मूत्रटिका विलगिताः, घोषवती वीणा, कक्षायां वध्यमानायां सकुरवो नाम मन्धी (सत्कोरको रखो नाम), मन्त्रिगा-1 न्धो भण्यते,-तदा सर्वजनसमुदयो, मध्ये उदायनो वर्चते, भण्पति-प्रधाविता इस्तिनी अनलगिरियावत् संनझते तावत् पञ्चविंशति योजनानां गतः नष्टः, मार्गलमा, भदूरागते घटिका भना, यावत्ता मुजिननि तावदन्यान्यपि पञ्चविंशति, एवं श्रीन वारान् , पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~38~ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], प्रत नगरं च अइगओ। अण्णया उजेणीए अग्गी उडिओ, णयरं उज्झइ, अभओ पुच्छिओ, सो भणइ-विषस्य विषमौषधं अग्नेरग्निरेव, ताहे अग्गीउ अण्णो अग्गी कओ, ताहे ठिओ, तइओ वरो, एसवि अच्छउ । अण्णया उजेणीए असिवं उहियं, अभओ पुच्छिओ भणइ-अम्भितरियाए अस्थाणीए देवीओ विहूसियाओ एजंतु, जा तुन्भे रायालंकारविभूसिए | जिणइ तं मम कहेजह, तहेव कर्य, राया पलोएति, सबा हेटाहुत्ती ठायति, सिवाए राया जिओ, कहियं तव चुलमाउगाए, भणइ-रात्र्ति अवसण्णा कुंभबलिए अञ्चणियं करेउ, जं भूयं उड्ढेइ तस्स मुहे कूरं छुडभइ, तहेव कयंति, तियचउक्के अट्टालए य जाहे सा देवया सिवारूवेणं वासइ ताहे कूरं छुन्भइ, भणइ य-अहं सिवा गोपालगमायत्ति, एवं सबाणिवि निज्जियाणि, सती जाया, तत्थ चउत्थो वरो। ताहे अभओ चिंतेइ-केचिरं अच्छामो ?, जामोत्ति, भणइ-भट्टारगा! वरा दिजंतु, वरेहि पुत्ता!, भणइ-नलगिरिमि हस्थिमितुम्भेहिं मिण्ठेहिं सिवाए उच्छंगे निवन्नो (अग्गिंसाहमि)अग्गिभीरुस्स रहस्स 122753 सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [२६] नगर पातिगतः । सम्पदोजविन्यामनिरुत्थितः, नगरं दद्यते, अभयः पृष्टः, स भणति-तदाझेरन्योऽभिः कृतसवा स्थिता, तूमीयो बस, एषोऽपि तिछतु । अन्यदोजयिन्यामशिवमुस्थित, अभयः पृष्टो भणति-अभ्यन्तरिकायामास्थान्यां देन्यो विभूपिता भायान्तु, या युष्मान् राजालकार विभूषितान् जयति तां मझ कथयत, तथैव कृतं, राजा प्रलोकयति, सर्वा अधस्तात् तिन्ति (हीना दृश्यन्ते), शिवया राजा जितः, कधितं तब लधुमात्रा, भणति-रात्रावयसमाकुम्भवलिकथानिको कुर्वन्तु, यो भूत उत्तिष्टति तस्स मुसे कूर क्षिप्यते, तथैव कृतमिति, त्रिके चतुरकेडहालके च यदा सा देवता शिधारूपेण रटति सदा कूरः क्षिप्यते, भणति च-अहं शिवा गोपालकमातेति, एवं संवेऽपि निर्जिता, शान्ति ता, तत्र चतुर्थों वरः। तदाऽभयलिन्तयति-किपचिरं तिष्ठामः', याम इति, भणति-भहारकाः वरान् ददत, पृणुष्व पुत्र!, भणति-अनलगिरी हलिनि युध्मासुमेण्डेषु शिवाया उत्सले निषण्मोअभि प्रविशामि, अमिनीसरवस्व पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~39~ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], प्रत सूत्रांक योगसंग आवश्यक- दारुएहिं चियगा कीरउ, तत्थ पविसामि, राया विसन्नो, तुढो सक्कारेउं विसजिओ, ताहे अभओ भणइ-अहं तुम्भेहि छलेणं आणिओ, तुम्भे दिवसओ आइचं दीवियं काऊण रडतं णयरमझेण जइन हरामि तो अग्गिं अतीमित्ति, तं द्रीया भज गहाय गओ, किंचि कालं रायगिहे अच्छित्ता दो गणियादारियाओ अप्पडिरूवाओ गहाय वाणियगवेसेण उज्जे- जणीए रायमग्गोगाढं आवारिं गेण्हइ, अण्णया दिवाउ पज्जोएण, ताहिं विसविलासाहिं दिट्ठीहिं निन्भाइओ अंजली य से कया, अइयओ नियगभवर्ण, दूतीं पेसेइ, ताहिं परिकुवियाहिं धाडिया, भणइ-राया ण होहित्ति, बीयदिवसे सणियगं आरुसियाउ, तइयदिवसे भणिया-सत्तमे दिवसे देवकुले अम्ह देवजण्णगो तत्थ विरहो, इयरहा भाया रक्खइ, तेण य सरिसगो मणूसो पज्जोउत्ति नाम काऊण उम्मत्तओ कओ, भणइ-मम एस भाया सारवेमि णं, किं करेमि एरिसो भाइहणेहो, सो रुटो रुटो नासइ, पुणो हक्कविऊण रडतो पुणो २ आणिज्जइ उद्वेह रे अमुगा अमुगा अहं पज्जोओ हीरामित्ति, प्रतिक मणाध्य. योगस० पशिक्षायां वजस्वा [सू.] म्यु० अभ योदन्तः दीप अनुक्रम [२६] DI॥६७५॥ . दारुमिश्चितिका क्रिया, तन्त्र प्रविशामि, राजा विषण्णः, तुष्टः साकला बिसृष्टः, सदाऽभयो भणनि-अई युष्माभिश्छलेदानीतः, युष्मान दिवस आदित्यं दीपिका कृत्वा रटन्तं नगरमध्येन हरामि न यदि तदानि प्रविशामीति, तां भायाँ गृहीत्वा गतः, कचिरकालं राजगृहे स्थित्वा हे गणिकादारिके अप्रतिरूपे गृहीत्वा वाणिग्वेषणोभविन्या राजमार्गावगाढमास्पदं गृह्णाति, अन्वदा दृष्टे प्रथोतेन, ताभ्यां विषविलासाभिष्टिभिनिध्यातः मालिश ती कृतः, अतिगतो निमभवन, दूर्ती प्रेषते, ताभ्यां परिकुपिताभ्यां धादिता, भणति-राजा न भवतीति, द्वितीयदिवसे शनैरारुष्टे, तृतीयदिची भणिता-सप्तमे दिवसे देवकुले सार्क देवयज्ञस्तान विरहः, इतस्था भ्राता रक्षति, तेन च सदशो मनुष्यः प्रद्योत इति नाम कृत्वोन्मत्तः कृतः, भणति-ममैष प्राता रक्षामि एनं, [किकरोमि भातृस्नेह ईशः स कष्टो रुष्टो नश्यति, पुनः हकारविरचा रटन् पुनः २ आनीयते उत्तिष्ठत रे अमुकाः ! २ अई प्रयोतो हिये इति, पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~40 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], प्रत सूत्रांक तेण सत्तमे दिवसे दूती पेसिया, एउ एकलउत्ति भणिओ आगओ, गवक्खए विलग्गो, मणुस्सेहिं पडिबद्धो पालंकेण सम, हीरइ दिवसओ णयरमज्झेण, विहीकरणमूलेण पुच्छिज्जइ, भणइ-विज्जघरं णेज्जइ, अग्गओ आसरहेहिं उक्खित्तो पाविओ रायगिह, सेणियरस कहियं, असिं अछित्ता आगओ, अभएण वारिओ, किं कजउ, सकारिता विसज्जिओ, पीई। जाया परोप्पर, एवं ताव अभयस्स उहाणपरियावणिया, तस्स सेणियस्स चेल्लणा देवी, तीसे उहाणपारियावणिया कहिजइ, तत्य रायगिहे पसेणइसतिओ नागनामा रहिओ, तस्स सुलसा भज्जा, सो अपुत्तओ इंदक्खंदादी णमंसद, सा साविया नेच्छइ, अन्नं परिणेहि, सो भणइ-तव पुत्तो तेण कजं, तेण वेजोवएसेण तिहिं सयसहस्सेहिं तिणि तेलकुलवा पक्का, सक्कालए संलाबो-एरिसा सुलसा सावियत्ति, देवो आगओ साहू, तजातियरूवेण निसीहिया कया, उहित्ता वंद इ, भणइ-किमागमणं तुझं?, सयसहस्सपायतेलं तं देहि, वेजेण उवइई, देमित्ति अतिगया, उत्तारतीए भिन्न, [सू.] दीप अनुक्रम [२६] तेन सप्तमे दिवसे तूती प्रेषिता, एकाकी भावास्विति भणित आगतः, गवाक्षे विलमः, मनुष्यैः प्रतिबद्धः पल्यकेन सम, प्रियते दिवसे नगरमध्येन, वीधिकरणमूलेन पृश्यते, भणति-वैधगृह नीयते, मातोश्वररुरिक्षतः प्रापितो राजगृह, श्रेणिकाय कथितं, असिमाकृष्यागतः, अभयेन पारितः, किं क्रियता , सत्कारविचा विसृष्टः, प्रीतिात्ता परस्परं, एवं तावत् अभयस्पोट्यागपर्योपणिका, सस्य श्रेणिकस्य चिलणादेवी, तस्या उत्थानपर्यापनिका कथ्यते, तत्र राजगृहे प्रसेनजित्सरको नागनामा रधिकः, तस्य भार्या सुलसा, सोपुत्र इन्द्रस्कन्दादीन् नमस्थति, सा प्राविका नेच्छति, अन्यां परिणय, स भणतितब पुत्रसेन काय, तेन वैद्योपदेशेन त्रिभिः शतसहसैनयः तैलकुलयाः पकाः, एकदा शकालये संलापः-इश्वी खुलसा शाबिकेति, देव आगतः साधुः, तजातीयरूपेण नैधिको कृता, उत्थाय वन्दते, भणति-किमर्थमायननं युष्माकं, शतसहत्रपाकतैलं तदेहि, वैयेनोपदिष्ट, दवामीत्यतियता, अवतारयन्त्या भित्र पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~41 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥६७६॥ CON | अन्नपक्कं गहाय निग्गया, तंपि भिण्णं, तइयपि भिण्णं, तुट्ठो य साहइ, जहाविहिं बत्तीसंगुलियाउ देइ, कमेण खाहि, ४.४ प्रतिक्रमबत्तीसं पुत्ता होहिन्ति, जया य ते किंचि पओयणं ताहे संभरिजासि एहामित्ति, ताए चिंतियं-केचिरं बालरूवाणं असु- मणाध्य. इयं मल्लेस्सामि, एयाहिं सबाहिवि एगो पुत्तो हुज्जा, खइयाओ, तओ णाहूया बत्तीस, पोट्ट वहुइ, अद्धितीए काउस्सग्गं | योगसं० ठिया, देवो आगओ, पुच्छइ, साहइ-सबाओ खइयाओ, सो भणइ-दुहु ते कयं, एगाउया होहिंति, देवेण उवसामियं शिक्षाया वज्रस्वाउ असायं, कालेणं बत्तीसं पुत्ता जाया, सेणियस्स सरिसबया वहुंति, तेऽविरहिया जाया, देवदिन्नत्ति विक्खाया। इओ म्यु०अभ य वेसालिओ चेडओ हेहय कुलसंभूओ तस्स देवीर्ण अन्नमन्नाणं सत्त धूयाओ, तंजहा-पभावई पउमावई मियावई सिवा दि योदन्तः जेठा सुजेहा चेल्लणत्ति सो चेडओ सावओ परविवाहकारणस्स पञ्चक्खायं (ति) धूयाओ कस्सइ न देइ, ताओ मादि| मिस्सग्गाहिं रायाणि पुच्छित्ता अन्नेसि इच्छियाणं सरिसयाणं देइ, पभावती वीईभए णयरे उदायणस्स दिण्णा पउमावई | अम्बपर्क गृहीचा निर्गता, तदापि भिक्ष, सूतीपमपि भिक, तुम कथयति, यथाविधि विकटिका ददाति, कमेण खादयः, द्वाविंधात् पुत्रा भवि. त्यम्तीति, यथा च से किजिन प्रयोजनं तदा संस्मरेः आयास्वामीति, क्या चिन्तित-कियश्चिरं बालरूपाणामाचि मयिष्यामि, एताभिः सांभिरपि एका पुनो भवतु, खादिताः, तत त्पना द्वाविंशत, उदरं वर्धते, अश्या कायोरस, स्थिता, देव आगतः, पृच्छति, कथयति, सर्वाः सादिताः, स भणसिदांचया। ॥६७६॥ कृतं, एकायुष्का भविष्यन्ति, देवेनोपयामितं बसात, कालेन द्वात्रिंशत् पुत्राः जाताः, श्रेणिकस सटग्ययसो वर्धन्ते, तेउविरहिता जाता देवदत्ता इति विख्याताः, इतब बैशालिकोटको हैहयकुलसंभूतो तस्य देवीनामन्याभ्यास सप्त दुहितरः, तद्यथा-प्रभावती पद्मावती मृगावती शिवा ज्येहा सुज्येष्ठा चेहणेति, स चेटकः श्रायकः परवीवाहकरणस्य प्रत्याख्यातमिति दुहितः कचित् न दवाति, ता मातृमिश्रकादिभिः राजानं पृष्टाम्येभ्य इष्टेभ्यः सोम्यो दीयन्ते, प्रभावती बीतभये प्रदायनाय दत्ता पद्मावती दीप अनुक्रम [२६] M पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~42 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं २०६...], प्रत % सूत्रांक (सू.] पाए दहिवायणस्स मियावई कोसंबीए सयाणियस्स सिवा उज्जेणीए पजोयस्स जेहा कुंडग्गामे वद्धमाणसामिणो जेस्स 2 पणदिवद्धणस्स दिण्णा, सुजेडा चेल्लणा य कण्णयाओ अच्छंति, तं अंतेउरं परिवायगा अइगया ससमयं तासिं कहेइ, सुजे| हाए निप्पिपसिणवागरणा कया मुहमक्कडियाहिं निच्छूढा पओसमावण्णा निग्गया, अमरिसेण सुजेडारूवं चित्तफलहे| काऊण सेणिघरमागया, दिडा सेणिएण, पुच्छिया, कहियं, अधिति करेइ, दूओ विसजिओ वरगो, तं भणइ चेडगो१ किहहं वाहियकुले देमित्ति पडिसिद्धो, घोरतरा अधिती जाया, अभयागमो जहा णाए, पुच्छिए कहियं-अच्छह वीसत्था, आणेमित्ति, अतिगओ निययभवणं उवायं चिंतेंतो वाणियरूवं करेइ, सरभेयवण्णभेयाउ काऊण वेसालि गओ, कपणंतेउरसमीवे आवणं गिण्हइ, चित्तपडए सेणियस्स रूवं लिहइ, जाहे ताओ कर्णतेउरवासीओ केजगस्स एइ ताहे सुबहु12 देइ, ताओवि य दाणमाणसंगहियाओ करेइ, पुच्छति-किमेयं चित्तपट्टए ?, भणइ-सेणिओ अम्ह सामी, किं एरिसं तस्स8 चम्पायां वधियाहमाय मृगावती कौशाम्यां शतानीकाय शिवोजयिन्यां प्रद्योताव ज्येष्ठा कुण्डमामे वर्धमानस्वामिगो ज्येष्टस्य नन्दिवर्धनख दत्ता, सुज्येष्ठा चेलणा च कन्ये तिष्ठतः, सदन्तःपुरै प्रनामिकाऽसिगता खसमयं ताभ्यां कथयति, सुज्येष्या निस्पृष्टप्रभम्याकरणा कृता मुखमकटिकाभिनिष्काशिता प्रद्वेषमापन्ना निर्गना, अमर्पण सुज्येष्ठारूपं चित्रफलके कृत्वा श्रेणिकगृहमागता, दृष्टा श्रेणिकेन, गृधा, कथितं, अति करोति, दूतो विसृष्टो बरका, तं भणति चेटक:-कथमहं वाहिकालाय ददामीति प्रतिपिडा, घोरतराऽतिः जाता, अभयागमो यथा ज्ञाते, पृटे कधितं-तिष्ठत विधमाः, आनयामीति अतिगत | निजभवन, अपार्य चिन्तयन् पणिमूष मोति, स्वरभेदवर्णभेदी कृत्वा विधातां गतः, कम्या:पुरसमीपे आपणं गृहाति, चित्रपट श्रेपिाकस्य रूप लिलति, वायदा ता अन्तापुरवासिन्या करवायायान्ति तदा सुबह वाति, ता अपिच दानमानसंगृहीताः करोति, पृच्छन्ति-किमेतत् चित्रपरक, मणति-णिकाऽस्माक का स्वामी, किमीशं तस्स दीप अनुक्रम [२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~43~ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [२६] आवश्यक-155वं, अभओ भणइ-को समथो तस्स रूवं काउं?, जं वा तं वा लिहियं, दासचेडीहिं कण्णतेउरे कहियं, ताो भणि- ४ प्रतिकहारिभ- याओ-आणेह ताव तं पट्टगं, दासीहि मग्गिओ न देइ, मा मज्झ सामिए अवन्नं काहिहि, बहयाहि जायणियाहिं दिण्णो, INIमणाध्य. द्रीया पच्छण्णं पवेसिओ, दिडो सुजेट्टाए, दासीओ विभिण्णरहस्साओ कयाओ, सो वाणियओभणिओ-कहं सेणिओ भत्ता भवि योगसं० जइ, सो भणइ-जइ एवं तो इहं चेव सेणियं आणेमि, आणिओ सेणिओ, पच्छन्ना सुरंगा खया, जाव कण्णतेउरं, ४५शिक्षायां ॥६७७॥ सुजेठा चेलणं आपुच्छइ-जामि सेणिएण समंति, दोषि पहावियाओ, जाव सुजेडा आभरणाणं गया ताव मणुस्सा सुरु- वनस्वा. कोणिगाए उब्बुडा चेल्लणं गहाय गया, सुजेठाए आराडी मुक्का, चेडगो संनद्धो, वीरंगओ रहिओ भणइ-भट्टारगा! मा तुम्भे उमाकोदन्तः बच्चेह, अहं आणमित्ति निग्गओ, पच्छओ लग्गइ, तत्थ दरीए एगो रहमग्गो, तत्थ ते बत्तीसंपि सुलसापुता ठिता, ते वीरंगएण एकेण सरेण मारिया, जाव सो ते रहे ओसारेइ ताव सेणिओ पलाओ, सोवि नियत्तो, सेणिओ सुजेठं संलवइ, रूपं ?, अभयो भणति-कः समर्थस्तस्य रूपं का, बदा तदा लिखितं, दासचेटीभिः कन्याऽन्तःपुरे कथितं, ता भणिता:-आनबत तावत् तं पट्टक, दासीभिर्मागितो न ददाति, मा मम स्वामिनोवा कार्यात , बहुकाभिर्याचनाभितः, प्रच्छन्नं प्रवेशिता, दृष्टः सुम्पेष्टया, दायो विभिबारहखाः कृताः, स वणिग भणितः-कथं श्रेणिको भनी भवेत् १, स भणति-पयेथे तदेहव श्रेणिकमानमामि, मानीतः श्रेणिकः, प्रच्छना सुरङ्गा खाता, यावरकन्याऽन्तःपुरं, सुज्येष्ठा चेल्लणामापृश्छति-पामि श्रेणिकेन सममिति, २ अपि प्रधाबिते, यावत् सुज्येष्ठा आभरणेभ्यो गता तावत् मनुष्याः सुरझायां उद्यातालणां गृहीत्वा | गताः, ज्योयाडसटिभुक्ता, चेटका समदः, बीराजदो रथिको भणति भट्टारका ! मा यूवं अजिष्ट, भहमानवामीति निर्गता, पृष्तो काति, तब र्यामेको ६७७॥ रथमार्गः, तत्र ते द्वात्रिंशदपि सुलसापुत्राः स्थिताः, ते वीराङ्गदेनैकेन शरेण मारिताः, स यावान् स्थान् अपसारयति तावत् श्रेणिकः पलायितः, सोऽपि निवृत्तः श्रेषिक: सुज्येष्ठां संलपति, पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~44 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं २०६...], प्रत सूत्रांक [सू.] |सा भणइ-अहं चेल्लणा, सेणिओ भणइ-मुजेहतुरिया तुम चेव, सेणियस्स हरिसोवि बिसाओवि विसाओ रहियमारणेणट हरिसो चेल्लणालभेण, चेलणाएवि हरिसो तस्स रूवेणं विसादो भगिणीवंचणेण, सुजिडावि घिरत्थु कामभोगाणंति पक्षतिया, चेलणाएवि पुत्तो जाओ कोणिओ नाम, तस्स का उप्पत्ती?, एगं पच्चंतणयरं, तत्थ जियसत्तुरणो पुत्तो सुमंगलो, अमच्चपुत्तो सेणगोत्ति पोट्टिओ, सो हसिज्जइ, पाणिए उच्चोलएहिं मारिजइ सो दुक्खाविजइ सुमंगलेण, सो तेण निबेएण बालतबस्सी पवइओ, सुमंगलोवि राया जाओ, अण्णया सो तेण ओगासेण वोलेंतो पेच्छइ तं बालतवस्सि, रण्णा पुच्छियं-को एसत्ति?, लोगो भणइ-एस एरिस तवं करेति, रायाए अणुकंपा जाया, पुषिं दुक्खावियगो, निमंतिओ, मम घरे पारेहित्ति, मासक्खमणे पुण्णे गओ, राया पडिलग्गो न दिण्णं दारपालेहिं दारं, पुणोवि उद्वियं पविट्ठो, संभरिओ, पुणो गओ निमंतेइ, आगओ, पुणोषि पडिलग्गो राया, पुणोवि उहियं पविट्ठो, पुणोवि निमंतेइ तइयं, सो तझ्याए १सा भणति-अहं चेलणा, श्रेणिको भणति-मुण्येष्ठायास्वरिता त्वमेव, श्रेणिकस्य होंऽपि विषादोऽपि, विषादो रथिकमारणेन हर्षहणालाभेन, चेछणाया अपि तस्य रूपेण विषादो भगिनीयनेन, सुज्येष्ठापि धिगस्तु कामभोगानिति प्रनजिता चेलणाया अपि पुत्रो जातः कोणिकनामा, सस्य कोस्पत्तिा! मएकं प्रपनानगर, तन जितशत्रुराजस पुनः सुमङ्गलः, अमात्यपुत्रः सेनक इति महोदरः, स हसते, पाणिभ्यो उधुलुकमायते, स दुःखते सुमगरलेन, सतेन निदेन बालतपस्वी प्रनजितः, मुमालोऽपि राजा जातः, अन्यदा स तेनावकाशेग व्यतिनजन् पश्यति तं बालतपस्विन, राशा पृष्फ एष इति !, लोको भणति-एप ईरशं तपः करोति, राज्ञोऽनुकम्पा जाता, पै दुलितो, निमन्त्रितः मम गृहे पारयेति, मासक्षपणे पूर्णे गता, राजा प्रतिकारः (पलामो जातः),न दत्तं द्वारपालोर, पुनरप्युत्थितं (प्युष्टिका) प्रविष्टा, संस्मृतः, पुनर्गसो निमन्त्रपति, भागतः, पुनरपि प्रतिमझो राजा, पुनरप्युष्ट्रिका प्रविष्टः, पुनरपि निमन्त्रवति तृतीयवारं, स तृतीयवारे दीप अनुक्रम [२६] LORRC-IN-EX-5X KR64- पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~45 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], आवश्यक- हारिभ- द्रीया प्रत सूत्रांक ॥६७८॥ [सू.] आगओ दुवारपालेहिं पिट्टिओ, जइवारा पद तइवारा राया पडिलग्गइ, सो निग्गओ, अह अधितीए निग्गओ४ प्रतिक्रपबइओ एइणा धरिसिओ, नियाणं करेइ-एयस्स वहाए उववज्जामिति, कालगओ, अप्पिडिओ वाणमंतरोमणाध्य. जाओ, सोऽवि राया तावसभत्तो तावसो पबइओ सोवि वाणमंतरो जाओ, पुर्वि राया सेणिओ जाओ, कुंडी- योगसं. समणो कोणिओ, जं चेव चेलणाए पोद्दे उववण्णो तं चेव चिंतेइ- करायाणं अक्खीहिन खजा५शिक्षायां तीए चिंतिय-एयस्स गम्भस्स दोसोत्ति गभ, साडणेहिवि न पडइ, डोहलकाले दोहलो, किह', सेणियस्स वज्रस्वाउदरवलिमंसाणि खायज्जा, अपूरते परिहायइ, न य अक्खाइ, णिबंधे सबहसाषियाए कहिये, तओ अभयस्सम्यु०कारण कहिये, ससगचंमेण समं मंस कप्पेत्ता बलीए उवरिं दिन्नं, तीसे ओलोयणगयाए पिच्छमाणीए दिजइ, राया अलियप-1 कोदन्तः मुच्छियाणि करेइ, चेलणा जाहे सेणियं चिंतेइ ताहे अद्धितीय उप्पजइ, जाहे गर्भ चिंतेइ ताहे कहं सर्व खाएजत्ति, एवं विणीओ दोहलो, णवहिं मासेहिं दारगो जाओ, रपणो णिवेइयं, तुडो, दासीए छड्डाविओ असोगवणियाए, कहियं भागतो द्वारपाल पिशिता, पतिवारा आयाति सतिवारा राजा प्रतिभज्यते, स निर्गता, अखापस्या निर्गतः प्रमजित एतेन धर्षिता, निदानं करोति-10 |एतस्य वधायोपपये इति, कालगतः, अल्पविको व्यन्तरो जाता, सोऽपि राजा तापसभक्तः, तापसः मनजितः सोऽपि व्यन्तरो जाता, पूर्व राजा श्रेणिको जात्तः, कुण्डीश्रमणा कोणिका, पदेव घेखणाया उपरे पासव चिन्तयति-कथं राजानमक्षिभ्यो न प्रेक्षेष, तथा चिन्तितं-एतस्य गर्भस्य दोष इति गर्भ, शासनैरपि न पचति, दोहदकाले दोहदः, कथं', श्रेणिकसयोदरवलिमांसानि खादेयं, अपूर्वमाणे परिहीवते, न चाख्याति, निर्बन्धे शपयशापितया कधित, ततोऽभयाय कधितं, पाकचर्मणा समं मांस कल्पयित्वा वस्या उपरि दत्तं, तस्थायवलोकनयतायै प्रेक्षमाणा दीयते, राजा अलीकप्रमूर्शनानि करोति ॥६७८।। वेक्षणा बदा श्रेणिकं चिन्तयति तदाऽतिरुत्पचते, बदा गर्भ चिन्तयति यदा कथं सर्व खादेयमिति, एवं ग्यपनीतो दीईवा, नवमु मासेषु दारको जातः, राजे | निवेदितं, दुधः, दास्या त्याजितोऽशोकवनिकार्या, कथितं दीप अनुक्रम [२६] A5% पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~46~ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.-] दीप अनुक्रम [२६] [भाग-३१] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १/४ ( मूलं+निर्युक्तिः वृत्तिः) अध्ययन] [४] मूलं [स्] / [गाथा-] निर्बुक्तिः [ १२८४ ] भष्यं [२०६...], 'सेणियस्स, आगओ, अंबाडिया, किं से पढमपुत्तो उज्झिओत्ति !, गओ असोगवणियं, तेणं सो उज्जीविओ, असोगचंदो से नामं कथं, तत्थवि कुक्कुडिपिंडणं कोणंगुलीऽहिविद्धा, सुकुमालिया सा न पडणइ, कूणिया जाया, ताहे से दारएहि नाम कथं कृणिओन्ति, जाहे य तं अंगुलिं पूइ गलंति सेणिओ मुहे करेइ ताहे ठाति, इयरहा रोवइ, सो य संवइ, इओ य अण्णे दो पुस्ता चेहणाए जाया हो विहलो य, अण्णे सेणियस्स बहवे पुत्ता अण्णासिं देवीणं, जाहे य किर उज्जाणियांखंधावारो जाओ, ताहे चेहणा कोणियस्स गुलमोयए पेसेइ हलविहलाणं खंडकए, तेण वेरेण कोणिओ चिंतएए सेणिओ मम देइति पओसं वहइ, अण्णया कोणियस्स अहहिं रायकन्नाहिं समं विवाहो जाओ, जाव उपिं पासा - यवरगओ बिहरइ, एसा कोणियस्स उप्पत्ती परिकहिया । सेणियस्स किर रण्णो जावतियं रजस्स मोडं तावतियं देवदिनस्स हारस्स सेयणगस्स गंधहत्थिस्स, एएसिं उद्वाणं परिकहेयवं, हारस्स का उत्पत्ती कोसंबीए णारी विजाइणी १] श्रेणिकाय, भागतः उपालब्धा, किं तया प्रथमपुत्र उज्झित इति? गलोज्योकवनिकां तेन स उज्जीवितः, अशोकचन्द्रस्तस्य नाम कृतं तत्रापि 'कुकुटपिच्छेन कोणे अंगुलिरभिविदा, सुकुमालिका सा न प्रगुणीभवति, वका जाता, तदा तस्य दारकैर्नाम कृतं कूणिक इति यदा च तस्था अज्याः पूतिः खपति श्रेणिको मुझे करोति सदा उपरतरुदितो भवति इतरथा रोदिति स च संवर्धते इतान्यो हो पुत्री चेहणाया जातो, इहो विलय, अन्ये श्रेणिक बहवः पुत्रा अभ्यासां देवीनां यदाच किल उद्यानकास्कन्धावारो जातस्तदा चेहणा कोणिकाय गुरुमोदकान् प्रेषते विहाय खण्डाकृतान् तेन वैरेण कोणिकचिन्तयति एतान् श्रेणिको मां ददातीति मद्वेषं यद्दति सम्पदा कोणिकस्याष्टभिः राजकन्याभिः समं विवाहो जातः यावत् उपरि प्रासादवरस्य गतो विहरति पुषा कोणिकस्योत्पत्तिः परिकथिता । श्रेणिक किक यावत् राज्यस्य मूल्यं तावत् देवदत्तस्य द्वारस्य सेचनकस्य गन्धदखिनः, एतयोरुत्थानं परिकथमितम् हारस्त्र कोत्पत्तिः १-कोशाम्यां विजातीया पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः ~47~ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.-] दीप अनुक्रम [२६] आवश्यकहारिभद्रीया ॥६७९ ॥ [भाग-३१] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १/४ ( मूलं+निर्युक्तिः वृत्तिः) अध्ययन] [४] मूलं [स्] / [गाथा-] निर्बुक्तिः [ १२८४ ] भष्यं [२०६...], गुविणी पई भणइ-धयमोल्लं विढवेहि, कं भग्गामि ?, भणइ-रायाणं पुष्फेहि अलग्गाहि न य वारिजिहिसि, सो य उलग्गिओ पुप्फफलादीहिं, एवं कालो बच्चइ, पज्जोओ य कोसंविं आगच्छइ, सो य सयाणिओ तस्स भरण जडणाए दाहिणं कूलं उडवित्ता उत्तरकूलं एइ, सो य पज्जोओ न तरइ जडणं उत्तरि, कोसंबीए दक्खिणपासे खंधावारं निवेसित्ता चिठ्ठइ, ता बेइ-जे य तस्स तणहारिगाई तेसिं वायस्सिओ गहियओ कन्ननासादि छिंदइ सयाणि य मणुस्सा एवं परिखीणा, एगाए रतं. ए पठाओ, तं च तेण पुप्फपुडियागरण दिडं, रण्णो य निवेश्यं, राया तुट्ठो भाइ-किं देमि ?, भणति वंभणिं पुच्छामि, पुच्छित्ता भणइ-अग्गासणे कूरं मग्गाहित्ति, एवं सो जेमेइ दिवसे २ दीणारं देइ दक्खिणं, एवं ते कुमारामच्चा चिंतेंति- एस रण्णो अग्गासणिओ दाणमाणग्गिहीओ कीरउत्ति ते दीणारा देंति, खद्धादाणिओ जाओ, पुत्तावि से जाया, सो तं बहुयं जेमेयचं, न तीरइ, ताहे दक्खिणालोभेण वमेउं २ जिमिओ, पच्छा से कोढो गुर्वी पति भणति घृतमूल्यमुपार्जय के मार्गचामि ?, भणति राजानमबलग पुष्पैः न च वासे, स पावलग्नः पुष्पफलादिभिः एवं कालो जति प्रयोतय कौशाम्बीमागच्छति स च शतानीकल भयेन यमुनाया दक्षिणं कूलं उत्थाप्योरलं गच्छति स च प्रयोतो न तरति यमुनाखरी, कौशाम्ब्या दक्षिणपार्थे स्वावारं निवेश्य तिष्ठति तदा ब्रवीति ये च तस्य तृणहारकादयस्तेषां पायाश्रितो गृहीतः कर्णनासादि निति शतानि च मनुष्याणां एवं परिक्षीणानि, एकस्यां रात्री पलायितः तच तेन पुष्पपुटिकागतेन राज्ञे च निवेदितं राजा तुष्टो भगति किं ददामि ? भनति ब्राह्मणी पृच्छामि, पृष्ट्वा भगति अग्रासनेन सह कूरं मार्गेयेति, एवं स जेमति दिवसे २ ददाति दीनारं दक्षिणां एवं ते कुमारामात्यान्तयन्ति एष राजोपासनको दानमानगृहीतः क्रियतामिति दीनारान् ददति, बहुदानीयो जातः पुत्रा अपि तस्य जाताः, स तत् बहुकं मितम्यं न शक्यते, तदा दक्षिणालोमेन वा २ जिमितः पश्चात्तस्य कुठं ४ प्रतिक्रमयोग० ५शि क्षायां वज्र स्वाम्यु० सेटु कवृत्तान्तः ~48~ ।।६७९ ।। पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [स्.-] दीप अनुक्रम [२६] [भाग-३१] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १/४ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन] [४] मूलं [स्] / [गाथा-] निर्बुक्तिः [ १२८४ ] भष्यं [२०६...], जाओ, अभिग्रस्तस्तेन, ताहे कुमारामच्चा भणति पुत्ते ! विसज्जेह, ताहे से पुत्ता जेमेइ, ताणवि तहेब, संतती कालंतरेण पिडणा लज्जितमारद्धा, पच्छिमे से निलओ कओ, ताओवि से सुण्हाओ न तहा वट्टिउमारद्धाओ, पुत्तावि नाढायंति, तेण चिंतियं एयाणि मम दषेण बहियाणि मम चैव नाढायंति, तहा करेमि जहेयाणिवि वसणं पार्श्विति, अन्नया तेण पुत्ता सदाविया, भणइ पुत्ता ! किं मम जीविएणं ?, अम्ह कुलपरंपरागओ पसुबहो तं करोमि, तो अणसणं काहामि, तेहिं से कालगओ छगलओ दिण्णो, सो तेण अप्पगं उलिहावेद, उहोलियाओ य खवावेइ, जाहे नायं सुगहिओ एस कोडेणंति ताहे लोमाणि उप्पाडे फुसित्ति एन्ति, ताहे मारेता भणइ-तुम्भेहिं चेत्र एस खाएयवो, तेहिं खइओ, कोढेण गहियाणि, सोवि उट्ठेत्ता नहो, एगत्थ अडवीए पवयदरीए णाणाविहाणं रुक्खाणं तयापत्तफलाणि पडताणि तिफला य पडिया, सो सारएण उण्हेण कक्को जाओ, तं निविष्णो पियइ, तेणं पोहं भिण्णं, सोहिए सज्जो जाओ, आगओ सहिं, जातं, तदा कुमारामात्या भणन्ति पुत्रान् विसृज, तदा तस्य पुत्रा जेमन्ति तेषामपि तथैव, संततिः कालान्तरे पितुर्हजितुमारब्धा, पश्चिमेतस्य निलयः कृतः, सा अपि तस्य स्नुषा न तथा वतुमारब्धाः पुत्रा अपि नाहियन्ते तेन चिन्तितं एते मम द्रव्येण वृद्धा मामेव माद्रियन्ते तथा करोमि चैतेऽपि व्यसनं प्रामुवन्ति, अन्यदा तेन पुत्राः शब्दिताः, भणति पुत्राः ! मम किं जीवितेन ?, अस्माकं कुरुपरम्परागतः पशुवधः तं करोमि ततोऽनशनं करिष्यामि, तैस्तसै कृष्णगो दक्षः, स तेनात्मीयं (तनुं ) चुम्बयति, मलगुटिकाथ खादयति यदा ज्ञातं सुगृहीत एष कुठेनेति तदा रोमान्युत्पाटयति झटित्या यान्ति तदा मारयिष्या भणति युष्माभिरेवैष खादितव्यः तैः खादितः कुठेन गृहीताः सोऽप्युत्थाय मष्टः, एकत्र अटव्यां पर्वतदय नानाविधानां वृक्षाणां स्वपत्रफलानि सन्ति त्रिफला च पतिता, स शारदेन उष्णेन कस्को जातः, ततो निर्विण्णतं पिवति, तेनोदरं भिन्नं, शुद्धी सभो जातः आगतः स्वगृह पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः ~ 49~ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं २०६...], आवश्यकहारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥६८०॥ [सू.] जणो भणड-किहते नह, भणइ-देवेहि मे नासियं, ताणि पेच्छद-सडसडिंताणि, किह तो तुम्भेवि मम खिंसह १. ताहेरप्रतिक्रमताणि भणति-किं तुमे पावियाणि ', भणइ बादति, सो जणेण खिंसिओ, ताहे नहो गओ रायगिहं दारवालिएण समं... योग०५शि दारे वसइ, तत्थ वारजक्खणीए सो मरुओ भुंजइ, अण्णया बहू उंडेरया खइया, सामिस्स समोसरणं, सो बारवालिओ क्षायां वज स्वाम्यु०सेडु तं ठवेत्ता भगवओ वंदओ एइ, सो बारं न छड्डेइ, तिसाइओ मओ वावीए मंडुको जाओ, पुवभवं संभरइ, उत्तिण्णो । कवृत्तान्तः बाबीए पहाइओ सामिवंदओ, सेणिओय नीति,तत्थेगेण बारवालिओ किसोरेण अर्कतोमओ देवो जाओ,सको सेणियं पसंसइ, सो समोसरणे सेणियस्स मूले कोढियरूवेणं निविहो तं चिरिका फोडित्ता सिंचाइ, तस्थ सामिणा छियं, भणइ-मर, सेणियं जीव, अभयं जीव वा मर वा, कालसोरियं मा मर मा जीव, सेणिओ कुविओ भट्टारओ मर भणिओ, मणुस्सा सणिया, उडिए समोसरणे फ्लोइओ, न तीरइ णा देवोत्ति, गओ घरं, विइयदिवसे पए आगओ, पुच्छइ-सोकोत्ति, नो भणति-कयं तव नाई 1, भणति-देवमें माधितं, ते पश्यन्ति-शटितशटितानि (लीनि स्वाङ्गानि), क तत् पूपमपि मां निन्दती, तदा ते | भणन्ति-कि स्वया प्रापिताः, भणति-बादमिति, सजनेन निमरिससः, सदा नहो गतो राजगृई द्वारपालकेन समं द्वारे वसति, नत्र द्वारपक्षावासे समरुको भुझे, अन्यदा बहवो बटका भुक्काः, स्वामिगः समपसरणं, स द्वारपालत स्थापयित्वा भगवान्दको गतः, सद्वारं न खजति, तृषास्तिो मतो वायां मदको जाता, पूर्व भारति, भवतीणों वाच्याः प्रधावितः स्वामियन्दका, श्रेणिक निर्गच्छति, द्वारपालः तत्रैकेज कियाोरेणाकाम्तो मतो देवो जाता, पाका अणि ॥६८.॥ प्रशंसतिससमवसरणे णिकप मूले (अन्तिके ) कृष्टिरूपेण निविष्टः तं स्फोटकान् स्फोरपिया सिमति, सत्र स्वामिना तं, भणति-नियख, श्रेणिक जीव, अभय जीव था नियस्व वा, काळशौकरिक मा नियनमा जीव, श्रेणिका कुपितः मझर (प्रति) नियति भणित, मनुष्याः संशिताः, उस्थिते समवसरणे प्रलोकितः, न पायते छातुं वेब इति, गतो गई, द्वितीयविबसे प्रगे भागतः, पृच्छति-स क इति, दीप अनुक्रम [२६] 45 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~50~ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], प्रत -25685 सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [२६] तओ सेडुगवत्तंत सामी कहेइ, जाब देवो जाओ, ता तुन्भेहिं छीए किं एवं भणइ, भगवं मम भणइ-किं संसारे अकलह निषाणं गच्छेति, तुमं पुण जाव जीवसि ताव सुहं मओ नरयं जाहिसित्ति, अभओ इहवि पेश्यसाहुपूयाए पुण्णं समजिणइ मओ देवलोग जाहिति, कालो जइ जीवद दिवसे २ पंच महिससयाई वावाएइ मओ मरए गच्छद, राया। भणइ-अहं तुन्भेहिं नाहेहिं कीस नरयं जामि ? केण उवाएण वा न गच्छेजा, सामी भणइ-जइ कपिलं माहणि भिक्खं दावेसि कालसूरिय सूर्ण मोएसि तो न गच्छसि नरयं, वीमंसियाणि सवप्पगारेण नेच्छंति, सोय किर अभवसिद्धीओ कालो, पिज्जाइयाणिया कविला न पडिवजा जिणवयणं, सेणिएण धिज्जाइणी भणिया सामेण-साह बंदाहि, सा नेच्छा, मारेमि ते, तहावि नेच्छइ, कालोवि नेच्छइत्ति, भणइ-मम गुणेण एत्तिओ जणो सुहिओ नगरं च, एत्थ को दोसो, तस्स पुत्तो पालगो नाम सो अभएण उवसामिओ, कालो मरिउमारतो, तस्स पंचमहिसगसयघातेहिं से ऊर्ण अहे सत्तमया ततः सेटुकवृत्तान्त स्वामी कधयति, याबद्देवो जाता, सहि युष्माभिः ते किमेवं भणति', भाइ भगवान् मा भणति-कि संसारे तिष्ठत निर्वाण गच्छतेति, त्वं पुनर्यावजीवसि तावत्सुखितो मृतो नरकं यायसीति, अभय ददापि वैश्यसाधुपूजया पुण्यं समुपार्जयति मृतो देवकोकं यास्थति, कालिको यदि जीवेत् दिवसे २ महिषपञ्चशती न्यापादयति मतो नरकं गमिष्यति, राजा भणति-अहं युष्मासु नाथेषु कथं नरकं गमिष्यामि १, केन घोपायेग न गच्छे !, स्वामी भणति-यदि कपिलां प्राह्मणी भिक्षा दापयसि कालशौकरिकात् सूनो मोचयसि तदान गच्छसि मरकं, प्रज्ञापितो सर्वप्रकारेण नेपछता, स किसाभव्य सिद्धिका कालिका, विजातीया कपिला न प्रतिपयते जिनवचनं, श्रेणिकेन घिमातीया भणिता साना-साधून वन्दस्ख, सा नेपछति, मारयामि त्वां, तथापिन प्रतिपद्यते, कालिकोऽपि नेष्यतीति, भणति-मम गुणेनेषान् जनः सुखी नगरं च, भन्न को दोषः, तसा पुत्रः पाळको नामाभयेन स उपामितः, कालिको मर्तुमारब्धः, तस्य महिषपञ्चशत्या धातेनाथोनमधः सप्तमी गर पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~51~ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२८४] भाष्यं [२०६...], आवश्यकहारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥६८१॥ पाउग्गं, अण्णया महिससयाणि पंच पुत्तेण से पलावियाणि, तेण विभंगेण दिवाणि मारियाणि य, सोलस य रोगार्यका प्रतिक पाउन्भूया विवरीया इंदियत्था जाया जं दुग्गंध तं सुगंध मन्नइ, पुत्तेण य से अभयस्स कहियं, ताहे चंदणि उदगं दिजइ, योग०५शि भणइ-अहो मिझु विद्वेण आलिप्पड पूइर्मसं आहारो, एवं किसिऊण मओ अहे सत्तमं गओ, ताहे सयणेण पुत्तो से ठवि- क्षायां वजजइ सो नेच्छइ, मा नरगं जाइस्सामित्ति सो नेच्छइ, ताई भणति-अम्हे विगिंचिस्सामो तुम नवरं एक मारेहि सेसए स्वाम्यु. सबे परियणो मारेहिति, इत्थीए महिसओ बिइए कुहाडो य रत्तचंदणेणं रत्तकणवीरेहि, दोवि डंडीया मा तेण कुहाडएणकालिंकअप्पा हओ पडि ओ विलवाइ, सयण भणइ-एयं दुक्खं अवणेह, भणती-न तीरंति, तो कहं भणह-अम्हे विगिचामोत्ति?,एयं शौकरिका. पसंगेण भणियं, तेण देवेणं सेणियस्स तुडेण अट्ठारसर्वको हारो दिण्णो दोषिण य अक्खलियवद्दा दिण्णा, सो हारो चेलणाए दिण्णो पियत्ति का, वट्टा नंदाए, ताए रुहाए किमहं चेडरूवत्तिकाऊण अनिरक्खिया खंभे आवडिया भग्गा, प्रायोग्य, अन्यदा महिपपाशवी पुश्रेष्ण तस्थ पलासिता, तेन विभऊन दृष्टा मारिता च, पोदश रोगातका प्रादुर्भूताः विपरीता इन्द्रियार्थी जाता यत दुर्गन्धं तत्सुगन्धि मन्यते, पुत्रेण च तस्याभयाय कथित, तदा वोंगृहोदकं दीयते, भणति-अहो मिष्टं विष्ठयोपलिप्यते पूनिमांसमाहारः, एवं क्लिष्ट्वा मृतो ॥६८॥ ऽधः सप्तम्यां गतः, तदा स्वजनेन तस्य पुत्रः स्थाप्यते स नेच्छति, मा नरकं गममिति स नेच्छति, ते भणन्ति-वयं विभक्ष्यामरवं परमे मास्य शेषान् सर्वान् परिजनो मारयिष्यति, खिया महिषो द्वितीयया कुठारो रकचन्दनेन रककणचीरैः (मण्डितो), द्रावपि मा दण्डिता भूव तेन कुठारेणारमा हतः पतितो विलपति, स्वजनं भणति-एत दुःसम्पा न भणति-एमासमपनयत, भणन्ति-न शक्यते, सत् कथं भणत-वर्य विभश्याम इति, एतत्प्रसङ्गेन माणितं, तेन देवेन श्रेणिकायाx तुटेनाष्टादशसरिको हारो दचा दीपाराश्यवृत्ती पत्नी, स हार बेलणार्य इत्तः नियेतिकवा, वृक्षौ नम्दाथै, तथा रुथ्या किमई चेटरूपे तिकृत्वा दूर क्षिप्ती, सम्भै आपतितौ मन्नी, दीप अनुक्रम [२६] CA पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~52 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं २०६...], प्रत सूत्रांक [सू.] तत्थ एगमि कुंडलजुयल एगमि देवदूसजुयलं, तुहाए गहियाणि, एवं हारस्स उष्पत्ती । सेयणगस्स का उप्पत्ती ?, एगस्थ वणे हथिजुहं परिवसइ, तंमि जूहे एगो हत्थी जाए जाए हथिचेलए मारेइ, एगा गुधिगी हस्थिणिगा, सा य ओसरिता एकल्लिया चरइ, अण्णया कयाइ तणपिडियं सीसे काऊण तावसासमं गया, तेसिं तावसाणं पाएमु पडिया, तेहिं णायंसरणागया वराई, अण्णया तत्थ चरंती वियाया पुत्तं, हथिजूहेण समं चरंती छिद्देण आगंतूण थर्ण देइ, एवं संबड्डइ, तत्थ तावसपुत्ता पुष्फजाईओ सिंचंति, सोवि सोडाए पाणियं नेऊण सिंचाइ, ताहे नाम कयं सेवणओत्ति, संवहिओ मयगलो जाओ, ताहे णेण जूहबई मारिओ, अप्पणा जुहं पडिवण्णो, अण्णया तेहिं ताबसेहिं राया गाम दाहितित्ति मोयगेहि लोभित्ता रायगिहं नीओ, णयर पवेसेत्ता बद्धो सालाए, अण्णया कुलवती तेण व पुवन्भासेण दुको किं पुत्ता! सेयणग ओच्छगं च से पणामेइ, तेण सो मारिओ, अण्णे भणंति-जूहवइत्तणे ठिएणं मा अण्णावि वियातित्ति ते तकस्मिन् कुन्दलयुगलमेकस्मिन् देवतुष्ययुगलं, तुष्टया गृहीतानि, एवं हारस्योत्पत्तिः। सेचनकस्य कोपतित, एकत्र बने हस्तिपूर्ण परिक्सति, तस्मिन् पूणे एको हस्ती जातान् गातान् हस्तिकलभान मारयति, एका गुची हस्तिनी, सा चापपत्यकाकिनी चरति, भग्यदा कदाचित् तृणपिण्टिको शीर्षे कृत्वा तापसाश्रमं गता, तेषां तापसाई पादयोः पतिता, सेशोतं-शरणागता वराकी, अन्यदा तत्र चरन्ती प्रजनितवती पुत्रं, हस्तियूयेन समं चरन्ती जबसरे आगत्य सनं ददाति, एवं संवर्धते, सत्र तापसपुत्राः पुष्पजातीः सिञ्चन्ति, सोऽपि शुण्डपा पानीषमानीय सिमति, तदा नाम कृतं सेचनक इति, संवृद्धो मदकलो जातः, तदाऽनेन यूथपतिर्मारितः, आत्मना यूथं प्रतिपनं, अन्य दा सापस राजा प्रामं दास्यतीति लोभयित्वा मोदक राजगृहं नीतः, नगरं प्रवेश्य बद्धः शालायां, मन्बदा कुलपतिस्तेनैव पूर्वाभ्यासेनागतः, किं पुत्र सेचनक ! वस्त्रं च तमे क्षिपति, लेन स मारिता, अन्ये भणस्ति-यूथपतित्वे सितेन मान्यापि प्रजीजददिति ते **%A60-4 50-944 दीप अनुक्रम [२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~53 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [२६] भावश्यक-४तावसउडया भग्गा तेहिं तावसेहिं रुहेहिं सेणियस्स रण्णो कहियं, ताहे सेणिएण गहिमओ, एसा सेयणगस्स उप्पत्ती प्रात प्रतिक्रम. योगपनि हारिभ- पुवभवो तस्स-एगो धिज्जाइओ जन्नं जयइ, तस्स दासो तेण जन्नवाडे ठविओ, सो भणइ-जइ सेसं मम देहि तो ठामि क्षायां वज द्रीया इयरहा ण, एवं होउत्ति सोवि ठिओ, सेसं साहूण देइ, देवाउयं निबद्धं देवलोगाओ चुओ सेणियस्स पुत्तो नंदिसेणो स्वाम्यु ॥५८२॥ जाओ, धिज्जाइओऽवि संसारं हिंडित्ता सेयणगो जाओ, जाहे किर नंदिसेणो विलम्गइ ताहे ओहयमणसंकप्पो भवइ, सेचनकविमणो होइ, ओहिणा जाणइ, सामी पुच्छिओ, एवं सर्व कहेइ, एस सेयणगस्स पुषभयो । अभओ किर सामि पुच्छइ- पूवभवः को अपच्छिमो रायरिसित्ति ?, सामिणा उदायणो वागरिओ, अओ परं बद्धमजडान पवयंति, ताहे अभएणरजं दिजमाणं न इच्छिय, पच्छा सेणिओ चिंतेइ-कोणियस्स र दिजिहित्ति हल्लस्स हत्थी दिनो विहालस्स देवदिनो हारो, अभएण पचयंतेण नंदाए य खोमजुयलं कुंडलजुयलं हल्लविहल्लाणं दिण्णाणि, मया विभवेण अभओ समाऊओ पवइओ, अण्णया तापसोटजा भन्नासैस्तापस रुटैः श्रेणिकस्य राशः कथितं, तदा श्रेणिकेन गृहीतः, एषा सेचनकस्योत्पत्तिः। तस्य पूर्वभवः-एको धिम्जातीयो यचं यजते, तख दासो यज्ञपाटे तेन स्थापितः, स भगति-यदि शेष मा दास्यसि सहि तिष्ठामि इतरथा न, एवं भवस्विति सोऽपि स्थितः, शेषं साधुभ्यो ददाति, देवायुर्निचर, देवलोकाच्युतः श्रेणिकस्य पुत्रो मन्दिपेणो जाता, विजातीयोऽपि संसार हिण्डित्वा सेचनको माता, बदा किल मन्दिपेण भारोदति तदोपहतमनः । ॥६८२॥ संकल्लो भवति विमनस्को भवति, अवधिना (विभशन)जानाति, स्वामी पृष्टः एतत् सर्व कधपति, पुष सेचनकस्य पूर्वभवः । अभवः किल स्वामिनपृच्छति-कोऽपविमो राजपिरिति ', स्वामिनोदायनो म्याकृतः, अतः परं बद्धमुकुटा न प्रबजिष्यन्ति, तदाऽभयेन राज्यं दीयमानं नेष्ट, पश्चात् श्रेणिकश्चितपति-कोणि काय राज्यं दास्यते इति हल्लाय हस्ती दत्तः विहलाय देवदत्तो हारो दत्तः, अभयेन प्रमजता नन्दायाः श्रीमयुगलं कुण्डलायुगलं च हलविहल्लाभ्यां दत्ते, महता विभवेनाभवः समातृका प्रबजितः, मन्यवा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~54~ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], प्रत सूत्रांक X-25% [सू.] कोणिओ कालादीहि दसहिं कुमारेहिं समं मंतेइ-सेणियं बंधेत्ता एक्कारसभाए रजं करेमोत्ति, तेहिं पडिसुयं, सेणिओ बद्धो, पुषण्हे अवरण्हे य कससयं दवावेइ, चेलणाइ कयाइ ढोयं न देइ, भत्तं वारियं, पाणियं न देइ, ताहे चेल्लणा कहवि कुम्मासे बालेहिं बंधित्ता सयाउं च सुरं पवेसेइ, सा किर धोवइ सयवारे सुरा पाणियं सर्व होइ । अण्णया तस्स पउमावईए देवीए पुत्तो उदायितकुमारो जेमतस्स उच्छंगे ठिओ, सो थाले मुत्तेति, न चालेइ मा दुमिजिहित्ति (जत्तिए) मुत्तियं तत्तियं कूरै अवणेइ, मार्य भणति-अम्मो ! अण्णस्सबि कस्सवि पुत्तो एप्पिओ अस्थि', मायाए सो भणिओदुरात्मन् तव अंगुली किमिए वर्मती पिया मुहे काऊण अच्छियाइओ, इयरहा तुमं रोवंतो अच्छियाइओ, ताहे चित्तं मउयं जाय, भणइ-किह , तो खाइ पुण मम गुलमोयए पेसेह, देवी भणइ-मए ते कया, जं तुम सदा पिइवेरिओ उदरे आरतोत्ति सर्व कहेइ, तहावि तुज्झ पिया न विरजइ, सो तुमे पिया एवं वसणं पाविओ, तस्स अरती जाया, कोणिक कालादिभिर्दशभिः कुमारः समं मन्त्रयति-जिक बङ्गा एकादश भागान राज्यस्य पुमै इति, सेः प्रतिश्रुतं, श्रेणिको बखा, पूर्वाहे अपराहे च कशाशते दापयति, चेलणायाः कदाचियपि गमनं (क)म ददाति, भक्त बारितं, पानीयं न ददाति, तदा चेलणा कथमपि कुष्माघान् वालेषु बट्टा स्वयं च सुरो प्रवेशयति, सा किक प्रक्षालयति शासकृत्यः सुरा पानीयं सर्व भवति । भम्बदा तख पावत्या देव्याः पुत्र बदाविकमारो जेमत उत्सले स्थित्तः, स स्थाले मूत्रपति, न चालयति मा दोषीदिति (यावति) मूधित तावन्तं चरमपनयति, मासरं भणति-अम्ब! अन्यथापि कस्यापि पुत्र इयस्मियोऽस्ति , || मात्रा स भणिता-सयाली कमीन पमन्ती पिता (तब) मुखे कृत्वा स्थितवान् , इतरथा त्वं रुदन् खितवान्, तदा चित्त मृदु जाते, भणति-कथा कपुर मझ गुरमोदकान् अप्रैषीत् ', देवी भणति-मया ते कृताः, यवं सदा पितृवैरिका, उपरे (आगमनान) भारभ्येति सर्व कथिसं, सथापि तव पिता न पर हीत, स स्वया पितैष व्यसनं भापितः, तस्वारतिर्जाता, दीप अनुक्रम [२६] 20 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~55 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं २०६...], आवश्यक- हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥६८३॥ सुणेतओ चेव उहाय लोहदंडं गहाय नियलाणि भंजामित्ति पहाविओ, रक्खबालगा नेहेणं भणति-एस सो पावो लोह- ४ प्रतिकदंड गहाय एइत्ति, सेणिएण चिंतियं-न नज्जइ कुमारेण मारेहितित्ति तालउड विसं खइयं जाव एइ ताव मओ, सुहृयरमा योगसं० अधिती जाया ताहे डहिऊण घरमागओ रज्जधुरामुकतत्तीओ तं चेव चिंततो अच्छइ, कुमारामञ्चेहिं चिंतिय-नई रज शिक्षायां होइत्ति तंबिए सासणे लिहिता अक्खराणि जुण्णं काऊण राइणो उवणीयं, एवं पिउणो कीरद पिंडदाणादी, णित्वारि वज्रस्वाम्यु. जइ, तप्पभिति पिंडनिवेयणा पत्ता, एवं कालेण विसोगो जाओ, पुणरवि सयणपरिभोए य पियसैतिए दळूण अद्धितीचेटकको होहित्ति तओ निग्गओ चंपारायहाणी करेइ, ते हल्लविहल्ला सेयणएण गंधहत्धिणा समं सभवणेसु य उज्जाणेसु य पुक्ख- णिकयुद्ध रिणीएस अभिरमंति, सोवि हत्थी अंतेउरियाए अभिरमावेइ, ते य पउमावई पेच्छाइ,णयरमझेण य ते हलविहला हारण कुंडलेहि य देवदुसेण विभूसिया हस्थिखंधवरगया दहूण अद्धितिं पगया कोणियं विष्णवेइ, सो नेच्छइ पिउणा दिण्णंति, दीप अनुक्रम [२६] पवनेयोत्थाय खोडद गृहीत्वा निगवान् भनज्मि इति प्रधावित्तः, खेडेन रक्षपालका: भणन्ति-एप सपापो सोहप गृहीत्वाऽध्याति, श्रेणिकेन चिन्तितन ज्ञायते (फेन) कुमरणेन मारविष्यतीति तालपुर विषं खावितं यावदेति तावन्मृतः, सुपुलरातिांता, सदा दावा गृहमागतो मुक्ताज्यधूनप्तिस्तदेव | चिन्तयन् तिष्ठति, कुमारामास्वैलिम्ति-नायं मलयतीति तान्त्रिक शासनं लिनिस्वाऽक्षराशि मीणानि कृत्वा राजपनीतं, एवं पितुः क्रियते पिण्डदानादि, निस्तार्यते, तत्मभूति पिण्ड निवेदना प्रवृत्ता, एवं कालेन विशोको जातः, पुनरपि स्वजनपरिभोगांव पितृसत्कान् दृष्ट्वाऽतिर्भविष्यतीति निर्गतसातम्या राजधानी करोति, लौ हलविहली सेचनकेन हस्तिना समं स्वभवनेषु ज्यानेषु पुष्करिणीषु चाभिरमंते, सोऽपि इसी अन्तःपुरिका अभिरमवते, तीच पद्मावती प्रेक्षते, नगरमध्येन च ती हलविहलो हारेण कुण्डलान्या देवतुष्येण च विभूषिती वरहस्तिस्कन्धगती राष्ट्राधृति प्रगता कोणिक विज्ञपयति, स नेति पित्रा दत्तमिति, ॥६८३॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~56 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], प्रत सूत्रांक [सू.] tor y- एवं बहुसो २ भणतीए चित्तं उप्पण्णं, अण्णया हल्लविहाले भणइ-रजं अद्धं अद्धेण विगिंचामो सेयणगं मम देह, ते हि मा सुरक्खं चिंतियं देमोत्ति भणंति गया सभवर्ण, एकाए रत्तीए सअंतेउरपरिवारा वेसालिं अज्जमूलं गया, कोणियस्स। कहियं-नहा कुमारा, तेण चिंतियं-तेवि न जाया हत्थीवि नस्थि, चेडयरस दुयं पेसइ, अमरिसिओ, जइ गया कुमारा गया नाम, हरिथ पेसेह, चेडगो भणइ-जहा तुम मम नत्तुओ तहा एएवि, कह इयाणिं सरणागयाण हरामि, न देमित्ति दूओ पडिगओ, कहियं च, पुणोवि दुयं पट्टवेइ-देह, न देह तो जुझसज्जा होह एमित्ति, भणइ-जहा ते रुबइ, ताहे कोणिएण कालाइया कुमारा दसवि आवाहिया, तत्थेक्केकरस तिन्नि २ हत्थिसहस्सा तिन्नि २ आससहस्सा तिन्नि २ रहसहस्सा तिन्नि २ मणुस्सकोडिओ कोणियस्सवि एत्तियं सवाणिवि तित्तीसं ३३, तं सोऊण चेडएण अट्ठारसगणरायाणो. मेलिया, एवं ते चेडएण सम एगूणषीसं रायाणो, तेसिपि तिन्नि २ हस्थिसहस्साणि तह चेव नवरं सर्व संखेवेण एवं बहुशोर भणमया चित्तमुस्पादितं, अन्यदा हलविहली भणति-राज्यमर्धम विभजामः सेचनकं मयं दत्त, नौ तु मा सुरक्षं चिन्तितं दावेति भणन्सौ गती खभवन, एकया राज्या साम्तापूरपरिकारी पैशाच्यामार्य (मातामह) पादमूल गती, कोणिकाय कवितं-जही कुमारी, तेन चिन्तितं-तावपि न जाती हस्त्यपि नास्ति, चेटकाय दूतं प्रेषयति, अमर्पितो, यदि गतौ कुमारौ गतौ नाम हस्तिनं प्रेषय, चेटको भणति- यथा स्वं मप्ता तवैतावपि, कवभिदानी शशरणागतयोहरामि, ग ददामीति दूतः प्रतिगतः, कथितं च पुनरपि दूतं प्रस्थापयति-देहि, न दयालदा युद्धसनो भवैमीति, भणति-यथा ते रोचते, तदा कोणिकेन कालादिकाः कुमारा दशायाहूताः, तपैकैकस्य श्रीणि २६स्तिसहस्राणि श्रीणि २ अवसहस्त्राणि श्रीणि २ रथसहस्राणि तिस्रो २ मनुष्यकोटयः कोणिकवाध्येतावत् सर्वाण्यपि प्रयविंशत् तत् श्रुत्वा पेटकनाशदया गणराजा मेलिसाः, एवं से चेटकेन सममेकोनविंशती राजाना, तेषामपि हसिना निसइस्त्री २ तथैव नवरं सर्व संक्षेपेण दीप अनुक्रम [२६] -- पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~57 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], आवश्यक- हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥६८४॥ सत्तावणं, ताहे जुद्ध संपलग्गं, कोणियस्स कालो दंडणायगो, दो बूहा काया, कोणियस्स गरुडवूहो चेडगस्स सागर- प्रतिकहो, सो जुझंतो कालो ताव गओ जाव चेडगो, चेडएण य एगस्स य सरस्स अभिग्गहो कओ, सो य अमोहो, तेण सोनोगमणाध्य. सो कालो मारिओ, भग्गं कोणियबलं, पडिनियत्ता सए २ आवासे गया, एवं दसहि दिवसेहिं दसवि मारिया चेडएण योगसं० IDशिक्षायां कालादीया, एक्कारसमे दिवसे कोणिओ अहमभत्तं गिण्हइ, सक्कचमरा आगया, सको भणइ-चेडगो सावगोत्ति अहं न वनस्वाम्यु. पहरामि नवरं सारक्खामि, एरथ दो संगामा महासिलाकंडओ रहमुसलो भाणियवो जहा पण्णत्तीए, ते किर चमरेण चेटककोविउविया, ताहे चेडगस्स सरो वइरपडिरूवगे अप्फिडिओ, गणरायाणो नद्या सणयरेसु गया, चेडगोवि वेसालि गओ, णिकयुद्ध रोहगसज्जो ठिओ, एवं बारस वरिसा जाया रोहिजंतस्स, एत्थ य रोहए हल्लविहल्ला सेयणएण निग्गया बलं मारेंति दिवे दिवे, कोणिओषि परिखिजा हस्थिणा, चिंतेइ-को उवाओ जेण मारिजेजा, कुमारामच्चा भणंति-जइ नवरं हत्थी| दीप अनुक्रम [२६] सप्तपश्चाशत्, तवा युद्ध प्रवृत्तं, कोणिकरण काको दण्डनायकः द्वौ म्यूही कृती, कोणिकस्स गरुडम्यूहवेटकस्य सागरम्यूदः, स युध्यमानः कालस्ताबहनो यावधेटकः, चेटकेन चैकस्य शरस्याभिप्रहः कृतः, स चामोषः, तेन स कालो मारितः, भर्म कोणिकवलं, प्रतिलिचाः स्वके २ मावासे गताः, एवं | दशभिर्दिवसर्दशापि मारिताटकेन काकादयः, एकादशे दिवसे कोणिकोऽष्टमभक्त गृहाति, शऋचमरावागती, पाको भणति-धेटकः श्रावक इसाई न प्रहरामि गवर संरक्षयामि, अन्न द्वौ संमामी महाधिलाकण्टकरथमुपाली भणितम्पी वथा प्रशली, तौ किक चमरेण विकुर्विती, तवा पेटकस शारो वनप्रतिरूपके रस |लितः, गणराजा नष्टाः स्वनगरेषु गताः, चेटकोऽपि पैशाची गता, रोधकसजा स्थितः, एवं द्वावधा वर्षाणि जातानि बध्यमाने, मत्र परोधके दलनिकली सेच| नकेन निर्गसी बर्क मारयतः विषसे दिवसे, कोणिकोऽपि परिसियते हल्लिना, चिन्तयति- पायो येन मार्येते, मारामाल्या भणन्ति-पवि नवरं इस्ती ॥६८४॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~58~ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं २०६...], प्रत सूत्रांक [सू.] रिजा अमरिसिओ भणइ-मारिजउ, ताहे इंगालखड्डा कया, ताहे सेयण ओ ओहिणा पेच्छह न वोलेड खड़, कुमारा भणंतिता निमित्तं इमं आवई पत्ता तोषि निच्छसि', ताहे सेयणएण खंधाओ ओयारिया, सो य ताए खडाए पडिओ मओ रयणप्पहाए नेरइओ उववष्णो, तेवि कुमारा सामिस्स सीसत्ति बोसिरंति देवयाए साहरिया जत्थ| भयवं तित्थयरो विहरइ, तहवि णयरी न पडइ, कोणियस्स चिंता, ताहे कूलवालगस्स रुहा देवया आगासे भणइ|'समणे जइ कूलवालए मागहियं गणियं लगेहिती । लाया य असोगर्चदए, वेसालिं नगरि गहिस्सइ ॥१॥सुणेतओ४ हाचेव चपं गओ कूलवालय पुच्छइ, कहियं, मागहिया सद्दाविया विडसाविया जाया, पहाविया, का तीसे उप्पत्ती जहा णमोकारे पारिणामियबुद्धीए थूभेत्ति-सिद्धसिलायलगमणं खुड्डगसिललोहणा य विक्खंभो । सावो मिच्छावाइत्ति |निग्गओ कुलचालतवो ॥१॥ तायसपाली नइवारणं च कोहे य कोणिए कहणं । मागहिगमणं बंदण मोदगअइसार| मात, अपितो भणति-मार्यता, तदाकारगा कृता, तदा सेचनकोऽवधिना पश्यति, नातिकामति गती, कुमारी भणत: तब निमिपार्मिषमापतिः प्राप्ता समापि नेपासि, सदा सेचनफेन स्कन्धादयतारिती, स प तस्यां गायो पतितो मृतो रसप्रभायो नैरपिक जापाः, तावपि कुमारी स्वामिनः शिष्याविति पुरगजन्ती देवतया संहती यन्त्र भगवान् सीर्थकरो विहरति, तथापि भगरी न पतति, कोणिकस चिन्ता. सदा सवालकाय का भणति-धमणः कूलवालको यदि मागधिका वेश्यां सगियति । राजा पाशोकचन्दो वैशाली नगरी महीव्यति ॥ ॥ ध्वमेव चम्पां गतः कूलवालक पृच्छति, कथितं, मागधिका शब्दिता विश्रानिका जाता, प्रथापिता, का तथा उत्पत्तियथा नमस्कारे पारिणामिकीवुद्धी स्तूप इति, सिद्धशिलासहगमनं दुखकेन शिलालोहनं च विकम्भः (पादप्रसारिका)माणे मिथ्यावादीति निर्गतः फूलपालकतपः ॥1॥ तापसपली नदीवारणं च कोधे कोणिकाय (देवतया) कथितं । मायधिकागमनं वन्दनं मोदकाः मतीसारः KC दीप अनुक्रम [२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~59~ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], आवश्यकहारिभद्रीया - प्रत सूत्रांक ॥६८५॥ आणणया ॥२॥ पडिचरणोभासणया कोणियगणियत्ति गमणनिग्गमणं । बेसालि जहा घेप्पड उदिक्ष जो गवे- प्रतिक्रमसामि ॥ ३॥ सालिगमण मग्गण साईकारावणे य आउट्टा । थूभ नरिंदनिवारण इट्टगनिकालणविणासो ॥४॥ पडियागमणे रोहण गद्दभहलवाहणापइण्णाय । चेडगनिग्गम बहपरिणओ य माया वालद्धो ॥५॥" कोणिओ भणइ प्रयोग०५शि क्षायां वज्रचेडग ? किं करेमि !, जाव पुक्खरिणीओ उड्डेमि ताव मा नगरी अतीहि, तेण पडिवणं, चेडगो सबलोहियं पडिर्म गलए स्वाम्य वै. अंधिऊण उइण्णो, धरणेण सभवणं नीओ कालगओ देवलोगं गओ, वेसालिजणो सबो महेसरेण नीलवंतमि साहरिओशालीग्रहः को महेसरोत्ति ?, तस्सेव चेडगस्स घूया सुजेहा वेरग्गा पवइया, साउवस्सयस्संतो आयावेइ, इओय पेढालगो नाम परिवायओ विजासिलो विजाउ दाउकामो पुरिसं मग्गइ, जइ बंभचारिणीए पुत्तो होज्जा तो समस्थो होजा, तं आयावतीं दहणं धूमिगावामोहं काऊण विजाविवज्जासो तत्थ सेरितु काले जाए गम्भे अतिसयणाणीहिं कहियं-न एयाए| आनयनं ॥१॥ प्रविचरणमवभासनं कोगिकगणिकेति गमनं निर्गमनं । वैशाली यथा गृह्यते नवीक्षण प्रयतो गवेषधामि ॥२॥ वैशालीगमनं मार्गणं | सस्पधारकारणेनावर्जिता । सपः नरेन्द्रनिवारण इष्टिकानिष्काशनं विनायाः ॥ ४॥ पतिते गमनं रोषः (पूर्तिः) गर्दभहलवाहनप्रतिझायाः । चेटकनिनमो वश्वपरिणतब मात्रीपालन्धः ॥ ५॥ कोणिको भणगि-चेटक! किं करोमि', यावत् पुष्करिथया मागच्छामि तावम्मा नगरी वासीः, तेन प्रतिपर्व, चेटकः सकललोहमयी प्रतिमां गले बा अवतीर्णः, धरणेन स्वभवनं नीतः कालगतो देवडोकं गतः, वैशालीजन: सर्वो महेश्वरेण नीलयति संहतः । को महेबर | ॥६८५॥ इति , तस्वैव चेटकख दुहिता सुम्येष्ठा वैराग्याप्रमजिता, सोपाश्रयस्यान्तरातापयति, इस पेढालको नाम परिबाद विद्यासिद्धो विद्या दातुकामः पुरुष | मार्गयति, यदि मह्मचारिण्याः पुत्रो भवेत् तहि समर्थों भवेत् , तामाताफ्यम्ती टष्टा भूमिकाम्यामोई कृत्या विद्याविपर्यासः तत्र व्युत्मज्य (ततः) काले जाते गतिशयज्ञानिभिः कवितं-तस्याः दीप अनुक्रम [२६] 4-30 46456 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~60~ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], % % प्रत % सूत्रांक (सू.] कामविकारो जाओ, सहयकुले वडाविओ, समोसरणं गओ साहुणीहिं सह, तत्थ य कालसंदीवो चंदित्ता सामि पुच्छइकओ मे भयं , सामिणा भणियं-एयाओ सच्चतीओ, ताहे तस्स मूलं गओ, अवण्णाए भणइ-अरे तुम मम मारेहिसित्ति पाएसु बला पाडिओ, संवडिओ, परिवायगेण तेण संजतीण हिओ, विज्जाओ सिक्खाविओ, महारोहिणिं च साहेइ, इमं सत्तमं भवं, पंचसु मारिओ, छट्टे छम्मासावसेसाउएण नेच्छिया, अह साहेत्तुमारद्धो अणाहमडए चितियं काऊण उज्जालेता अल्लचम वियडित्ता वामेण अंगुहएण ताव चंकमइ जाव कहाणि जलंति, एत्थंतरे कालसंदीवो आगओ कहाणि & छुन्भइ, सत्तरत्ते गए देवया सयं उवडिया-मा विग्धं करेहि, अहं एयस्स सिज्झिउकामा, सिद्धा भणइ-एगं अंग परिचय जेण पबिसामि सरीरं, तेण निलाडेण पडिच्छिया, तेण अइयया, तत्थ बिलं जायं, देवयाए से तुहाए तइयं अपिंछ कयं, तेण पेढालो मारिओ, कीस णेणं मम माया रायधूयत्ति विद्धंसिया, तेण से रुद्दो नाम जायं, पच्छा कालसंदीवं आभोएइ, कामविकारो जातः, श्राद्धकुले वर्धितः, समवसरणं गतः साध्वीभिस्सद, च कालसंदीपको बन्दिया स्वामिनं पूच्छति-पतो मै भयं', खामिना भणित-एतमाद सपके, सदा तस्य पार्थ गत!, अवशया भणति-अरे मां मारयिष्यसीति पादयोबलान पातितः, संजूदा परिनाजफेन तेन संयतीनां | पार्थात् इतः, विद्याः शिक्षिता, महारोहिणींच साधयति, अयं सप्तमो भवः, पत्रसु मारितः, षष्ठे पपमासाचशेषायुष्कतया नेष्टा, अथ साविमुभारम्धः अनाभमृतकेन चितिको कृपा प्रज्वास्य माधर्म प्रावृल बामेनानुष्ठेन तावत् चाम्यति यावत् काहानिश्वसन्ति, अनान्तरे कालसंदीपक आगतः काष्ठानि क्षिपति, सप्तररात्रे गते देवता स्वयमुपस्थिता-मा विसं कार्षीः, महमेतख सेचिनुकामा, सिद्धा भणति-एकम परिवत्र येन प्रविशामि भारीरं, तेन कलाटेन प्रतीष्टा, | तेनालिगता, तत्र बिलं जातं, देवतया ती तुझ्या तृतीचमक्षि करा, तेन पेढालो मारितः, कथं मम माता राजदुदितेति विश्वसा, तेन तस्य रुदो नाम मातं, पश्चात् काळसंदीपमाभोगयति, दीप अनुक्रम [२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~614 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२८४] भाष्यं २०६...], आवश्यक- हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥६८६॥ दिडो, पलाओ, मग्गओ लग्गइ, एवं हेहा उवरिं च नासइ, कालसंदीवेण तिन्नि पुराणि विउविता, सामिपायमले प्रतिक्रमअच्छइ, ताणि देवयाणि पहओ, ताहे ताणि भणंति-अम्हे विजाओ, सो भट्टारगपायमूलं गोसि तत्थ गओ. एकमेकाशमणाध्याः खामिओ, अण्णे भणति-लवणे महापायाले मारिओ, पच्छा सो विजाचकवट्टी तिसंझं सबतित्थगरे वंदित्ता णट्ट चाम: योगपशि दाइत्ता पच्छा अभिरमइ, तेण इंदण नाम कयं महेसरोत्ति, सोवि किर धेजाइयाण पओसमावण्णो धिज्जाइयकन्नगाण क्षायां वज्रसय २ विणासेइ, अन्नेसु अंतेउरेसु अभिरमद, तस्स य भणंति दो सीसा-नंदीसरो नंदी य, एवं पुष्फएण विमाणेण अभि- स्वाम्यु.महे रोत्पदा रमइ, एवं कालो वचाइ, अन्नया उजेणीए पज्जोयरस अंतेउरे सिवं मोतूर्ण सेसाओ विद्धंसेइ, पज्जोओ चिंतेइ-को उवाओ: होजा जेण एसो विणासेज्जा, तत्थेगा उमा नाम गणिया रूवस्सिणी, साकिर धूवग्गहर्ण गेण्हइ जाहे तेणंतेण एइ, एवं बच्चइ काले उइण्णो, ताए दोणि पुष्पाणि वियसियं मउलियं च, मउलियं पणामियं, महेसरेण वियसियस्स हत्थो पसारिओ, दीप अनुक्रम [२६] 4-54- 55-45-45-5 E, पलायिता, पृष्ठतो लगति, एवमधस्तादुपरि घनश्यति, कालसंदीपेन श्रीणि पुराणि विकृर्षितानि, स्वामिपुरविपति, ता देवताः प्रहता, तदाता। भणन्ति-वर्य विद्या, स भहारकपादमूलं गत इति गता, सत्र एककेन अमिता, अन्ये भणन्ति-सपणे महापाताले मारितः, पश्चात् स विथाचावी निसाध्यं सर्व तीर्थकरान बन्दिया भूप्यं च विवा पवादभिरमते, तेनेगेण नाम कृतं महेश्वर इति, सोऽपि किक धिरजातीयानां प्रवेषमापनो विजातीयकम्पकानां शतं | बिनाशयति, मन्येप्यन्तापुरेषु अभिरमते, तस्य च भण्येते ही शिष्यो-मन्दीभरो नन्दीच, एवं पुष्प कण विमानेन अभिरमते, एवं कालो प्रजाति, अन्यदोजबिन्यो प्रथोतवान्तापुरे विवो मुनषा भेषा विध्वंसयति, प्रयोतबिन्तयति-क उपायो भवेत् येन एष विनाश्येत १. तत्रैकोमानाशी गणिका कपिणी, साहिल पूप-ल महर्ण गृहाति यदा तेन मार्गे गैति, एवं प्रगति काले अवतीर्णः, सपा हे पुणे विकसितं मुकूलितं च, मुकुलितमर्पयति, महेभरेण विकसित्ताय इतः प्रसारितः, ॥६८६॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~62~ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं २०६...], -- - प्रत सूत्रांक सो मउलं पणामेइ एयस्स तुझे अरसित्ति, कह , ताहे भणइ-परिसिओ कण्णाओ ममं तावपेच्छह, तीए सह संवसह हियहियओ कओ, एवं वच्चइ कालो, सा पुच्छइ-काए वेलाए देवयाओ ओसरंति ?, तेण सिह-जाहे मेहुणं सेवामि, तीए रणो सिह मा ममं मारेहित्ति, पुरिसेहिं अंगस्स उवरि जोगा दरिसिया, एवं रक्खामो, ते य पज्जोएण भणिया-सह एयाए मारेह मा य दुरारद्धं करेहिह, ताहे मणुस्सा पच्छण्णं गया, तेहिं संसद्यो मारिओ सह तीए, ताहे नंदीसरो ताहिं विजाहिं अहिडिओ आगासे सिलं विउविचा भणइ-हा दास! मओसित्ति, ताहे सनगरो राया उल्लपडसाडगो खमाहि एगावराहंति, सो भणइ-एयरस जइ तवरथं अचेह तो मुयामि, एयं च णयरे २ एवं अवाउडियं ठावेहत्ति तो। मुयामि, तो पडिवण्णो, ताहे आययणाणि कारावियाणि, एसा महेसरस्स उप्पत्ती । ताहे नगरि सुणियं कोणिओ अइगओ गद्दभनंगलेण गाहाविया, एस्धंतरे सेणियभजाओ कालियादिमादियाओ पुच्छंति भगवं तित्थयर-अम्हें पुत्ता | ACROSCACN दीप अनुक्रम [२६] सासुकुलमर्पयत्येतस्य स्वमहंसीति, कथं १, सदा भणति-इंश्यः कन्या मां तावत् प्रेक्षख, तया सह संचसति हतहदयः कृतः, एवं मजति कालः, सा पृक्छति-कस्यां येलायां देवता अपसरन्ति, नोक-पदा मैथुन सेवे, सया राजे कथितं मा मां मारयतेति, पुरुषैरङ्गस्योपरि योगा दक्षिता, एवं रक्षयामः, ते च प्रद्योतेन भणिता-सहतया मारयत मा दुरारब्ध काई, तदा मनुष्याः गन्दीश्वरस्ताभिषिचाभिरधिष्ठित आकाशे शिला विकुळ भणति-हा दास!मृतोऽसीति, तदा सनागरो राजा शाटिकापटः क्षमस्कमपराधमिति, स भणति । यदि एनमेतदवस्थ भर्चयत, तदा मुजामि, पूनं च नगरे २ एवमप्रावृतं स्थापयतेति तदा मुशामि, तदा प्रतिपन्नः, तदाऽऽयतनानि कारितानि, एषा महेश्वरस्वोपतिः । तदा नगरी न्यो कोणिकोऽतिगतः गईभलालेन कृष्टा, अत्रान्तरे श्रेणिकभार्याः कालिकादिका पृष्ठन्ति भगवन्त तीर्थकर-असा पुत्राः पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~634 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], आवश्यक- हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥६८७॥ संगमाओ (पं० १७५००) एंति नवत्ति जहा निरयावलियाए ताहे पवइयाओ, ताहे कोणिओ चंपं आगओ, तत्थ प्रतिकसामी समोसढो, ताहे कोणिओ चिंतेइ-पहुया मम हत्थी चकवडीओ एवं आसरहाओ जामि पुच्छामि सामी अहं चकवट्टी मणाध्यक होमि नहोमित्ति निग्गओ सब्बबलसमुदएण, वंदित्ता भणइ-केवइया चकवट्टी एस्सा ?, सामी भणइ-सबे अतीता, पुणो योग०५शि भणइ-कहिं उववज्जिस्सामि', छट्ठीए पुढवीए, तमसदहतो सवाणि एगिंदियाणि लोहमयाणि रयणाणि करेइ, ताहे सब-क्षिायो बजबलेणं तिमिसगुहं गओ अहमेणं भत्तेणं, भणइ कयमालगो-अतीता बारस चक्रवट्टिणो जाहित्ति, नेच्छइ, हृत्थिविलग्गोस्वाम्युको मणी हस्थिमधए काऊण दंडेण दुवारं आहणइ, ताहे कयमालगेण आहओ मओ छडिं गओ, ताहे रायाणो उदाई ठावंति, उदाइस्स चिंता जाया-त्थ णयरे मम पिया आसि, अद्धितीए अण्णं णयरं कारावेइ, मग्गह वत्थुति पेसिया, तेवि एगाए पाडलाए उवरिं अवदारिएण तुंडेण चासं पासंति, कीडगा से अप्पणा चेव मुहं अतिति, किह सा पाडलित्ति, संग्रामात् आगमिष्यन्ति भवेति !, यथा निरयावसिकायो तदा प्रमजिताः, तदा कोणिकश्चम्पामागतः, नत्र स्वामी समवस्तः, तदा कोणिकमिन्तयति-बहवो मम हस्तिनचक्रवर्तिनः (यथा) एवमयरथा: यामि पृच्छामि स्वामिनं बाई पक्रवर्ती भवामि न भवामीति ! निर्गतः सर्ववलसमुदवेन, बन्दिया | ॥६८७॥ भणति-कियन्तश्चक्रवर्तिन एण्याः १, खामी भणति-सर्वेऽतीताः, पुनर्भणति-कोपरखे, षष्टया पुण्या, तबधानः सीपये केन्द्रियाणि रक्षानि कोहमयानि करोति, सदा सर्वबलेन तमिश्रगुहां गतः अष्टमभक्तेन, भणति कृतमालका-भसीता द्वादशा चक्रवर्तिमो याहीति, नेच्छति, इस्तिविलमो मणि इस्तिमस्तके कृत्वा | दम्झेन द्वारमाहन्ति, तदा कृतमाळकेनाहतो गृतः वहीं गतः, सदा राजान बदायिन स्थापयन्ति, उदाधिनचिन्ता जाता-भत्र नगरे मम पिताऽऽसीत् , ब| त्यान्यनगर कारवति, मार्गयत वास्तु इति प्रेषिताः, तेऽप्येकस्याः पाटकायाः उपर्यवदारितेन तुण्डेन चाषं पश्यन्ति, कीटिकास्तवाश्मन सुखमायान्ति, कथं सा पाटले ति, दीप अनुक्रम [२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~644 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], प्रत सूत्रांक 06-4-9-949 [सू.] - दीप अनुक्रम [२६] RSS RSSXCa | दो महुराओ-दक्खिणा उत्तरा य, उत्तरमहुराओ वाणिगदारगो दक्षिणमहुरं दिसाजत्ताएगओ, तस्स तत्थ एगेण वाणियदागेण सह मित्तया, तस्स भगिणी अग्णिया, तेण भत्तं कयं, सा य जेमंतस्स वीयणगं धरेइ, सो तं पाएसु आरंभ |णिवण्णेति अज्झोववो, मग्गाविया, ताणि भणति-जइ इहं चेव अच्छसि जाव एकंपिता दारगरुवं जायं तो देमो, पडि|वणं, दिण्णा, एवं कालो वच्चइ, अण्णया तस्स दारगस्स अंमापितीहिं लेहो विसजिओ-अम्हे अंधलीभूयाणि जइ जीवंताणि पेच्छसि तो एहि, सो लेहो उवणीओ, सो तं वाएइ अंसूणि मुयमाणो, तीए दिडो, पुच्छइ, न किंचि साहइ, तीए लेहो गहिओ, वाइत्ता भणइ-मा अधितिं करेहि, आपुच्छामि, ताए कहियं सर्व अम्हापिऊणं, कहिए विसजि४ याणि, निग्गयाणि दक्षिणमहुराओ, सा य अपिणया गुधिणी, सा अंतरा पंथे वियाया, सो चिंतेइ-अम्मापियरो नाम कहिंतित्ति न कर्य, ताहे रमा।तो परियणो भणेइ-अण्णियाए पुत्तोत्ति, कालेण पत्ताणि, तेहिवि से तं चेव नाम कयं अण्णं मधुरे-दक्षिणा उसरा च, उत्तरमधुराया वणिन्दारको दक्षिणमधुरां दिग्यात्रायै गतः, सब तस्य एकेन वणिजा सह मैत्री, तस्य भगिनी अर्णिका, तेन भक्तं कृतं, सा च जेमतो भ्यजनकं धारयति, स तां पादादारम्प पश्यति अध्युपपला, मार्गिता, ते भणन्ति-यदी हैव स्थास्यसि यावदेकमपि तावत् वारकरूप जातं ( भवेत्) तवा वमः, प्रतिपर्व, दत्ता, एवं कालो बजाति, अन्यदा तस्स दारकस्य मातापितृभ्यां लेसो विमृष्टः वयमन्धीभूती यदि जीवन्तौ प्रेक्षितुमियसि तदाऽध्या, स लेख अपनीतः, स तं वाचवति मुखमणि, तया टा, पृच्छति, न किश्चिदपि कथयति, तया लेखो गृहीतो, वाचविस्वा भणतिमाउधृति कार्षीः, भापृष्ठ, तथा कथितं सर्व मातापितृभ्यां, कधिते विसष्टी, निर्गती दक्षिणमधुशतः, सा चाणिका गुर्वी, साउतरा पथः प्रजनितवती, स चिन्तयति-मातरपितरं नाम करिश्वतीति न कृतं, तदा रमयन् परिजनो भणति-मणिकायाः पुत्र इति, कालेन प्रासी, ताभ्यामपि तस्य तदेव नाम कृतमन्यत् 2-१ -% पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~65 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं २०६...], आवश्यक- हारिभ द्रीया प्रत सूत्रांक न पाहिहित्ति, ताहे सो अण्णियपुत्तो उम्मुक्कबालभावो भोगे अवहाय पचइओ, धेरत्तणे विहरमाणो गंगायडे पुष्फभई नाम णयर गओ ससीसपरिवारो, पुष्फकेऊ राया पुष्फवती देवी, तीसे जमलगाणि दारगो दारिगा य जाया- |णि पुष्फचूलो पुष्फचूला य अण्णमण्णमणुरत्ताणि, तेण रायाए चिंतियं-जइ विओइति तो मरंति, ता एयाणि चेव मिहुणगं करेमि, मेलित्ता नागरा पुच्छिया-एत्थं जं रयणमुप्पज्जइ तस्स को ववसाइ राया णयरे वा अंतेउरे वा!, एवं पत्तियावेइ, मायाए वारंतीए संजोगो धडाविओ, अभिरमंति, सा देवी साविया तेण निबेएण पबइया, देवो जाओ, ओहिणा पेच्छा धूयं, तओ से अज्झहिओ नेहो, मा नरगं गच्छिहित्ति सुमिणए नरए दंसेइ, सा भीया रायाण अवयासेइ, एवं| रति २, ताहे पासंडिणो सद्दाविया, कहेह केरिसा नरया, ते कहिंति, ते अण्णारिसगा, पच्छा अग्णियपुत्ता पुच्छिया, ते कहेउमारद्धा-निच्चंधयारतमसा०, सा भणइ-किं तुन्भेहिवि सुमिणओ दिहो', आयरिया भणंति-तित्थयरोवएसोत्ति, प्रतिक्रममणाध्य. योग०५शि क्षायां वन स्वाम्यु पाटलावृत्त ॥६८८॥ दीप अनुक्रम [२६] नप्रसास्थतीति, तदा सोर्णिकापुष वाकवाकभावो भोगानपहाय प्रवजितः, स्थविर विचरन् गजातरे पुष्पम नाम मगरं गतः सशिष्यपरीवारः, | पुष्पकेतू राजा पुष्पवती देवी, तस्या युग्मं दारको दारिका च जाते- पुष्प चूलः पुष्पचूला चान्योऽग्यमनुरक्त, तेन राज्ञा चिन्तित-पदि वियोग्येते ताई। नियेते, तदेवायेव मिधुनं करोमि, मेलबिया नागराः पृष्टाः अत्र यसमुत्पद्यते तस्य को व्यवस्पति राजा नगरं वा अन्तःपुरंवारी, एवं प्रत्याययति, मातरिवारय-१ म्त्यां संयोगो पटितः, अभिरमेते, सा देवी श्राविका तेन निदेन प्रनजिता, देवो बातः, अवधिना प्रेक्षते दुहितरं, ततमास्वाम्यधिक बेहः, मा नरकं गादिति | स्व मे नरकान दर्शयति, सा भीता राजानं कथयति, पर्व रात्री रात्री, तदा पाषण्डिकाः धाब्दिताः कथयत कीदशा नरकाः ', ते कथयन्ति, तेऽम्बारशः, पखा| पर्णिकानाः पृष्टाः, ते कथयितुमारब्धा:-नित्यान्धकारतमिस्राः, सा भणति-कि युष्माभिरपि स्वमोदष्टः, आचार्या भणन्ति-तीर्थकरोपदेश इनि, ६८८॥ ॐ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~66~ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], % प्रत सूत्रांक 0-% [सू.] एवं गओ, कालेणं देवो देवलोयं दरिसेइ, तत्थवि तहेव पासंडिको पुच्छिया जाहे न याति ताहे अण्णियपुत्ता पुच्छिथा, तेहिं कहिया देवलोगा, सा भणइ-किह नरगा न गमंति?, तेण साहुधम्मो कहिओ, रायाणं च आपुच्छइ, तेण | भणियं-मुएमि जइ इह चेव मम गिहे भिक्खं गिण्हइत्ति, तीए पडिस्सुर्य, पपइया, तत्थ य ते आयरिया जंघाबलपरि-ट हीणा ओमे पबइयगे विसज्जेत्ता तत्थेव विहरंति, ताहे सा भिक्खं अंतेउराओ आणेइ, एवं कालो वचाइ, अण्णया तीसे भगवईए सोभणेणऽझवसाणेण केवलणाणमुप्पणं, केवली किर पुवपउत्तं विणयं न लंघेद, अण्णया जं आयरियाण हियइच्छियं तं आणेइ, सिंभकाले य जेण सिंभो ण उप्पज्जइ, एवं सेसेहिवि, ताहे ते भणंति-जं मए चिंतियं तं चेव आणीयं, भणइ-जाणामि, किह ?, अइसएण, केण?, केवलेण, केवली आसाइओत्ति खामिओ, अण्णे भणंति-वासे पडते आणियं, ताहे| भणंति-किह अजे ! वासे पडते आणेसि , सा भणइ-जेण २ अंतेण अचित्तो तेण २ अन्तेण आगया, कह जाणासि ?, एर्ष गतः, कालेन देचो देवलोक दर्शयति, तत्रापि तवैव पापविद्धनः पृष्टा यदा न जामति सदाचायो पृष्टाःतिः कथिता देवलोकाः, सा भणति-कथं नरका न गम्पन्ते , तेन साधुधर्मः कथितः, राजानं चापृश्यते, तेन भणित-मुच्चामि यदीव मम गृहे भिक्षां गृहासि, सया प्रतिश्रुतं, प्रश्नजिता, सत्र च ते आचार्याः परिहीणाबला अवमे मनजितान् विसृज्य तत्रैव विहरन्ति, तदा सा भिक्षामन्तःपुरापानयति, एवं कालो बजति, अन्यदा नस्था भगवत्याः शोभनेनाध्यवसानेन केवलज्ञानमुत्पन्नं, केवली किल पूर्वप्रवृत्तं विनयं न लक्ष्यति, अन्यदा यदाचार्याणां दीप्सितं तदानयति, श्लेष्मकाले च येन सेप्मा नोत्पद्यते, एवं शेषेरपि, सदा ते भणन्ति-यन्मया चिन्तितं तदेवानीतं, भणति-जानामि, कथं १, अतिशयेन, केन', केयलेन, क्षमितः केवपाशातित इति, अन्ये भणन्ति-वर्षायां परानयां मानीतं, तदा भणन्ति-कथमार्थे ! वर्षायां पतन्त्यामानयसि , सा भण ति-थेन येन मार्गेणाचित्तस्तेन २ मार्गेणागता, कर्य जानीचे, दीप अनुक्रम [२६] 044 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~67~ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], स प्रत सूत्रांक आवश्यकहारिभद्रीया ॥६८९॥ अइसएण, खामेइ, अद्धितिं पगओ, ताहे सो केवली भणइ-तुभवि चरमसरीरा सिज्झिहिह गंगं उत्तरंता, तो ताहे चेव ४ प्रतिक्रपउत्तिण्णो, णावावि जेण २ पासेणऽवलम्गइ तं तं निबुडइ मझे उडिया सवावि निबुड्डा, तेहिं पाणीए छूढो, नाणं उप | मणाध्य० पणं, देवेहि महिमा कया, पयागं तस्थ तित्थं पवत्तं, से सीसकरोडी मच्छकच्छभेहिं खज्जती एगस्थ उच्छलिया पुलिणे, सा2 योगसं० इओ तओ छुम्भमाणा एगत्थ लग्गा, तत्थ पाडलिवीयं कहषि पविडं, दाहिणाओ हणुगाओ करोडि भिंदतो पायगो ५ शिक्षायां वज्रखाम्यु. उहिमो, विसालो पायवो जाओ, तत्थ तं चासं पासंति, चिंतेति-एस्थ णयरे रायस्स सयमेव रयणाणि एहिंति तं जयरं | पाटलीनिवेसिंति, तत्थ मुत्ताणि पसारिजंति, नेमित्तिओ भणइ-ताव जाहि जाच सिवा वासेंति तओ नियत्तेजासित्ति, ताहे| पत्रोत्प पुवाओ अंताओ अवरामुहो गओ तत्थ सिवा उडिया नियत्तो, उत्तराहुत्तो तत्थवि, पुणोवि पुषाहुत्तो गओ तत्थवि, दक्खिणहुत्तो तत्थवि सिवाए वासियं, तं किर वीयणगसंठियं नयरं, णयरणाभिए य उदाइणा चेइहरं कारावियं, एसा दीप अनुक्रम [२६] अतिशयेन, क्षमयसि, अति प्रगतः, वदास केवही भणति-यूयमपि चरमशरीरा: सेरपथ गलामुखरता, सतस्सदैव प्रोत्तीर्णः, नौरपि यस्मिन् २॥ पाऽवलगति तेग २ मूति मध्ये उपस्थापिताः सर्यापि बुद्धिता, तैः पानीये क्षिसः, ज्ञानमुत्पने, देवमहिमा कृतः, प्रयाग तत्र तीर्थ जातं, तख पीकरोटिका मत्स्यकच्छपैः खाद्यमानेकत्रोच्छलिता पुलिने, सेतसतः क्षिप्यमाणका लमा, तत्र पाटकाबीज कथमपि प्रविध, दक्षिणायनोः करोटि भिन्वन् पादप स्थितः। | पादपो विशालो जातः, तत्र तं चापं पश्यन्ति, चिन्तयन्ति-मन्त्र नगरे राज्ञः स्वयमेव रवान्यष्यन्ति तत्र नगरं नियेशित मिति , तत्र सूत्राणि प्रसार्यन्ते, नैमित्तिको। | भणति-तावद्यात यायपिछया वासयति ततो निवर्तयध्यमिति, तदा पूर्वमादन्तादपराभिमुखो गतसप्त विवा रसिता निवृत्ता, उत्तराभिमुखतत्रापि, पुनरपि । | पूर्वाभिमुखो गतस्तत्रापि, दक्षिणामुखस्तत्रापि शिवया बासितं, तकिक व्यजनकसंस्थितं मगर, नगरमानी चोदाविना पैत्यगई कारितं, एषा ६८९॥ X पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~68~ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], प्रत सूत्रांक (सू.] पाडलिपुत्तस्स उत्पत्ती । सो उदाई तस्थ ठिओ रज भुजइ, सो य राया ते डंडे अभिक्खणं ओलग्गायेइ, ते चिंतति-ट कहमहो एयाए धाडीए मुश्चिज्जामो ?, इओ य एगस्स रायाणस्स कम्हिवि अवराहे रजं हियं, सो राया नहो, तस्स पुत्तो भमंतो उज्जेणिमागओ, एग रायाय ओलग्गइ, सो य बहुसो २ परिभषइ उदाइस्स, ताहे सो रायपुत्तो पायवडिओ|| विष्णवेइ-अहं तस्स पीई पिबामि नवरं मम वितिजिओ होजासि, तेण पडिस्सुयं, गओ पाडलिपुत्तं, बाहिरिगमज्झमि गपरिसासु ओलग्गिऊण छिद्दमलभमाणो साहूणो अतिंति, ते अतीतमाणे पेच्छइ, ताहे एगस्स आयरियस्स मूले पबइओ, ४ सबा परिसा आराहिया तस्स पजाया, सो राया अहमिचउद्दसीसु पोसहं करेइ, तत्थायरिया अतिति धम्मकहानिमित्तं, अण्णया वेयालियं, आयरिया भणंति-गेहह उवगरणं राउलमतीमो, ताहे सो झडित्ति उडिओ, गहियं उबगरणं, पुबाट संगोविया कंकलोहकत्तिया सावि गहिया, पच्छण्णं कया, अतिगया राउलं, चिरं धम्मो कहिओ, आयरिया पसुत्ता, पाटलिपुत्रस्योत्पतिः । स उदायी तन्त्र स्थितो राज्यं भुनक्ति, स च राजा तान् (लोकान् ) दण्डान् मनीषणं भयरूगवति, ते चिन्तयन्ति-कथमहो (पि अपराध राज्य हतं, स राजा नष्टः, तस पुत्रो माभ्यन् वापिनीमागतः, एकं राजानमवलगवति. IC बहुशः २ परिभूयते सदाविना, सदा स राजपुत्रः पादपतितो विज्ञपयति-अहं सस्थ जीवितं पियामि परं मम द्वितीयो भव, तेन मतिश्रुतं, गतः पाटलिपुत्रं, वाशमध्यमृगपरम अवलय छिजमलममाना साधव आयान्ति तान् भाषातः प्रेक्षते, तदेकरसाचार्यख भूले प्राजिता, सर्वो पर्यंत भाराबा तख प्रजाता, स राजाऽष्टमीचतुर्दश्योः पोष करोति, तप्राचार्या आधान्ति धर्मकथानिमिर्च, मन्यदा वैकालिक, आचार्या भणन्ति-गृहाणोपकरणं राजकुलमतिगच्छामः,IA तदा ससटिति स्थितः, गृहीतमुपकरणं पूर्वसंगोपिता काळोहकतरिका सापि गृहीता, प्रच्छन्ना कृता, भतिगती राजकुर्क, चिरं धर्मः कथितः, आचार्याः प्रमुला, दीप अनुक्रम [२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~69~ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], प्रत सूत्रांक आवश्यक- रायावि पसुत्तो, तेण उहित्ता रण्णो सीसे निवेसिया, तत्थेव अहिलग्गो निग्गओ, धाणइल्लगावि न पारिति पवइओत्ति, प्रतिकहारिभ- रुहिरेण आयरिया पच्चालिया, उडिया, पेच्छंति रायाणगं वावाइयं, मा पबयणस्स उड्डाहो होहिइत्ति आलोइयपडिकतोमणाध्य० द्रीया दि अपणो सीसं छिंदेइ, कालगओ सो एवं । इओ य पहावियसालिगए नावियदुयक्खरओ उवझायस्स कहेइ-जहा योगस. ममऽजईतेण णयरं वेढियं, पहाए दिह, सो सुमिणसत्थं जाणइ, ताहे घर नेऊण मत्थओ घोओ धूया य से दिण्णा, शिक्षायां ॥६९०॥ [दिप्पिउमारद्धो, सीयाए णयरं हिंडाविजइ, सोवि राया अंतेउरसेज्जावलीहि दिडो सहसा, कुवियं, नायओ, वज्रस्वाम्यु. अउत्तोत्ति अण्णेण दारेणं नीणिओ सकारिओ, आसो अहियासिओ, अभितरा हिंडाविओ माझे हिंडाविओ बाहिं उदायिवृत्त नन्दराज्य निग्गओ रायकुलाओ तस्स पहावियदासस्स पट्टि अडेइ पेच्छइ य णं तेयसा जलंत, रायाभिसेएण अहिसित्तो राया जाओ, ते य डंडभडभोड्या दासोत्ति तहा विणयं न करेंति, सो चिंतेइ जइ विणयं ण करेंति कस्स अहं रायत्ति दीप अनुक्रम [२६] राजाऽपि प्रमुप्तः, तेनोत्थाय राज्ञः शी निवेशिता, तत्रैव जनमुष्टिः (१) निर्गतः, प्रातीहारिका अपि न वारयन्ति प्रबजित इति, रुधिरेणाचायोः प्रत्याहिताः, उस्थिताः, प्रेक्षन्ते राजानं च्यापादितं, मा प्रवचनस्योडाहो मूदिखाकोचितप्रतिक्रान्ता, आत्मनः शी छिन्दन्ति, कालगतास एवं । इतन नापिनशालायां नापितदास उपाध्यायाथ कवरति-यथा ममायाप्रेण नगरं येहितं, प्रभाते दृष्ट, स स्वमशास्त्रं जानाति, तदा गृहं नीरवा मसक धीतं दुहिता 18च ती दत्ता, दीपितुमारब्धः, शिविकया नगरं हिणवते, सोऽपि राजा अन्तःपुरिकाशपापालिका निर्दष्टः सहसा, जित, शातः, अन्न इवन्येन द्वारेण मीतः सत्कारितः, अवोऽधिवासितः, अभ्यन्तरे दिण्डितो मध्ये हिपिततः बहिनिंगतो राजकुलात् नापितदारकं पृष्ठौ लगवति प्रेक्षते च तं तेजसा ज्वकम्तं, राज्याभिषेकेगाभिषिक्तो राजा जातः, ते च दधिकसुभटभोजिका दास इति तथा विनयं न कुर्वन्ति, सचिन्तयति-यदि विनयं ग कुर्वन्ति कमाई राजेति ॥६९०॥ . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~70 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], प्रत सूत्रांक अस्थाणीओ उद्वित्ता निग्गओ, पुणो पविष्ठो, ते ण उडेति, तेण भणियं-गेण्हह एए गोहेत्ति, ते अवरोप्परं दहण हसति, तेण अमरिसेण अत्थाणिमंडलियाए लिप्पकम्मनिम्मियं पडिहारजुयलं पलोइयं, ताहे तेण सरभसुद्धाइएण असिहत्थेण मारिया केइ नहा, पच्छा विणयं उवठिया, स्वामिओ राया, तस्स कुमारामच्चा नत्थि, सो मग्गइ । इओ य कविलो नाम: भणो णयरवाहिरियाए वसइ, वेयालियं च साहुणो आगया दुक्खं वियाले अतियंतुमित्ति तस्स अग्गिहोत्तस्स घरए। ठिया, सो भणो चिंतेइ-पुच्छामि ता णे किंचि जाणंति नवत्ति !, पुच्छिया, परिकहियं आयरिएहि, सहो जाओ तं वाव रयणिं, एवं काले वच्चंते अण्णया अण्णे साहुणो तस्स घरे वासारत्तिं ठिया, तस्स य पुत्तो जायमेत्तओ अंबारेवईहिं Kगहिओ, सो साहूण भायणाणि कप्ताणं हेट्ठा ठविओ, नहा वाणमंतरी, तीसे पया धिरा जाया, कप्पओत्ति से नाम कयं, माताणि दोवि कालगयाणि, इमोवि चोदसम विजाहाणेसु सुपरिणिडिओ णाम लभइ पाडलिपुत्ते, सो य संतोसेण दाणं | [सू.] दीप अनुक्रम [२६] आस्था निकाया उत्थाय निर्गतः पुनः प्रविष्टः, ते मोत्तिष्ठन्ति, तेन भणितं-गृहीततान् मधमानिति, ते परस्परं एटा हसन्ति, तेनामर्पणास्थानमण्डपिकायां लेष्यकर्मनिर्मितं प्रतीहारयुगलं प्रलोकितं, तदा तेन सरभ सोदावितेन असिइस्तेन मारिताः केविनष्टाः, पनाद्विनयमुपस्थिताः, क्षामितो राजा, तख कुमारामात्यान सन्ति, समायति । इत्ता कपिलो नाम प्राह्मणो नगरबाहिरिकार्या वसति, विकाले च साधव भागता दुःखं विकालेऽत्तिगन्तुमिति तस्याशिहोत्ररूप गृहे स्थिताः, समायणचिन्तयति-पृच्छामि तावत् एते किजिजानन्ति नवेति !, पृष्टाः, परिकथितमाचार्यैः, आलो जातस्तस्वामेव रजन्यां, पुर्व ब्रजति काले अन्यदाये साधयस्तस्य गृदेवाराने स्थिताः, तस्य च पुनः जातमात्रोऽम्बारेवतीभ्यां गृहीतः, स साधुषु कल्पयासु भाजनानामधात् स्थापिता, नष्टे पन्तौं, तस्याः प्रजा स्थिरा जाता, कवपक इति तस्य नाम कृतं, तो द्वावपि कालगती, अयमपि चतुर्दशसु विधास्थानेषु सुपरिनिष्ठितो नाम (रेखा)लभने | पाटलीपुत्रे, स च संतोषेण डानं S पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~71 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], प्रत सूत्रांक आवश्यक-लने इच्छइ, दारियाओ लभमाणीओ नेच्छइ, अणेगेहिं खंडिगसएहिं परिवारिओ हिंडइ, इओ य तस्स अइगमणनिग्गमणपहेप्रतिकहारिभद्रीया माएगो मरुओ, तस्स धूया जायूसतवाहिणा गहिया, लाघवं सरीरस्स नत्थि अतीवरूपिणित्ति न कोइ वरेइ, महती जाया, |मणाध्य रुहिरं से आगयं, तस्स कहियं मायाए, सो चिंतेइ-बंभवज्झा एसा, कप्पगो सनसंधो तस्स उवाएण देमि, तेण दारे योगसं० ॥६९॥ अगडे खओ, तस्थ ठविया, तेणंतेण य कप्पगोऽतीति, मया सद्देण पकुविओ-भो भो कविला ! अगडे पडिया जोद ५ शिक्षा नित्थारेइ तस्सेवेसा, तं सोऊण कप्पगो किवाए धाविओ उत्तारिया यऽणेण, भणिओ य-सञ्चसंधो होजासि पुत्तगत्ति, कल्पकवंसे ताहे तेण जणवायभएण पडिवण्णा, तेण पच्छा ओसहसंजोएण लट्ठी कया, रायाए सुर्य-कप्पओ पंडिओत्ति, सद्दाविओ | स्थूलभद्र|विण्णविओ य रायाणं भणइ-अहं ग्रासाच्छादनं विनिर्मुच्य परिग्रहं न करेमि, कह इमं किचं संपडिवजामि, न तीरइ |निरवराहस्स किंची काउं, ताहे सो राया छिदाइ मग्गइ, अण्णया रायाए जायाए साहीए निल्लेवगो सो सद्दाविओ, तुम | % %25 अनुक्रम [२६] नेपछति, दारिका लभ्यमाना नेच्छति, अनेक छात्रशतैः परिचूतो हिण्हते, इतस तस्य प्रवेशनिर्गमपचे एको महका, तस्य दुहिता जलोदरय्याधिना गृहीता, साधर्व शरीरस नास्तीति अतीवरूपिणीति न कोऽपि वृशुते, महती जाता, मनुस्तस्या जातः, सथी कथितं मात्रा, सचिन्तयति-महादस्पेषा, कम्पका | सत्यसन्धसमी पायेन ददामि, सेन जारि भवटा खाता, तत्र स्थापिता, तेनावना च कल्पक आषाति, महता पाल्देन प्रकूजितः-भो भोः! कपिल अपरे पतिता यो निस्तारयति तस्वैपा, सवा करपकः कृपया धाविता, उत्सारिता चानेन, भणितच सयसम्धो भव पुत्रक इति, तदा तेन जमापवादभीतेन प्रतिपन्ना, तेन पवादोषधसंयोगेन का पूता, राज्ञा श्रुतं-कल्पकः पण्डित इति, पादितो विजय राजानं भणति न करोमि, कथमिदं कृत्वं संप्रतिपरो, म वाफ्यते निरप. रायस किबित् कर्त, तदा स राजा छिद्राणि मान्यति, अन्यदा राज्ञा पाटके (तस्य) जायाया निपका सशब्दिता, स्वं K ॥६९१॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~72 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं २०६...], प्रत सूत्रांक कैप्पगस्स पोत्ताई धोबसि नवत्ति ?, भणइ-धोवामि, ताहे रायाए भणिओ-जइ एत्ताहे अप्पेइ तो मा दिजासित्ति, अण्णया इंदमहे से भणइ भजा-से ममवेताई पोत्ताई रयाविहि, सो नेच्छइ, सा अभिक्खणं बढेइ, तेण पडिवणं, तेण णीयाणि रयगहरं, सो भणइ-अहं विणा मोल्लेण रयामि, सो छणदिवसे पमग्गिओ, अज्जहिजोत्ति कालं हरइ, सो छणो वोलीणो, तहवि न देइ, बीए वरिसे न दिण्णाणि, तइएवि वरिसे दिवे २ मग्गइ न देइ, तस्स रोसो जाओ, भणइ-कप्पगो न होमि जइ तव रुहिरेण न रयामि, अग्गिं पविसामि, अण्णदिवसे गओ छुरियं घेत्तूण, सो रयओ भज्ज भणइ-आणेहित्ति, दिण्णाणि, तस्स पोर्ट फालित्ता रुहिरेण रयाणि, रयगमज्जा भणइ-रायाए एसो वारिओ किमेएण अवरद्धं ?, कप्पस्स चिंता जाया-एस रणो माया, तया मए कुमारामञ्चत्तर्ण नेच्छियंति, जइ पवइओ होतो किमयं होयंति, वञ्चामि सयं ६ मा गोहेहि नेजीहामित्ति गओ रायकुलं, राया उडिओ, भणइ-संदिसह किं करेमि!,तं मम वितप्पं चिंतियति, सो % [सू.] 2 -9 0-994 दीप अनुक्रम [२६] - 9 कापकस्य वखाणि प्रक्षालयसि भवेति', भणति-प्रक्षालयामि, तदा राज्ञा भणित:-अयानार्षयति ताई मा दया इति, अन्य देन्बमहे तं भणति भार्था-अथ मम तानि वखाणि रजयत, सनेच्छति, साउभीर्ण कलहपति, तेन प्रतिपक्ष, तेन नीतानि स्वगृहं, स भणति-महं विना मूल्येन रजामि, सक्षणदिवसे प्रमार्गितः, अधमा (स.) इति कालमुलाते, स क्षणो यतिकाम्तः, तथापि न ददाति, द्वितीय वर्षे न बचानि, तृतीयेऽपि वर्षे दिवसे २ मार्गयति न ददाति, तप रोषो गातः, भणति-मस्पको न भवामि यदि सब रुधिरेण न रजामि, अनि प्रविशामि, अन्यदिवसे गतः क्षुरिको गृहीवा, सरसको भायौं भणति-आनयेति, दत्तानि, तसोदरं पाटयित्वा रुधिरेण रक्कानि, रजकमा भणति-जैव पारितः किमेतेनापरावं, कल्पस्य चिन्ता जाता एषा राजो माया, तदा मया कुमारामात्याय नेष्टमिति, यदि प्रमजिसो भविष्य किमिदमभविष्यदिति, मजामि स्वयं मा दण्डिकै नांविधि इति गतो राजकुलं, राजोरिधता, भणति-- संदिश किं करोमि, तं मम विकल्पं चिन्तितं, स CAR X पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~73 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], आवश्यकहारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥६९२॥ भणइ-महाराय ! जं भणसि तं करेमि, रयगसेणी आगया, रायाए समं उल्लवेंतं दहूण नहा, कुमारामच्चो ठिओ, एवं सर्व प्रतिक्रारजं तदायत्तं ठियं, पुत्तावि से जाया, तीसे अण्णाणं च ईसरधूयाणं, अण्णया कप्पगपुत्तस्स विवाहो, तेण चिंतिय-संते- मणाध्य उरस्स रणो भत्तं दायब, आहरणाणि रण्णो निजोगो घडिजइ, जो नंदेण कुमारामच्चो फेडिओ सो तस्स छिद्दाणियोगसं० मग्गइ, कप्पगदासी दाणमाणसंगहिया कया, जो य तव सामिस्स दिवसोदंतोतं कहेह दिवे २, तीए पडिवणं, अण्णया ट्र५शिक्षायां भणइ-रण्णो निजोगो पडिजाइ, पुवामञ्चो य जो फेडिओ तेण छिदं लद्धं, रायाए पायवडिओ विष्णवेह-जइवि अम्हे कल्पकवेश तुम्ह अविगणिया तहावि तुभ संतिगाणि सित्थाणि धरति अज्जवि तेण अवस्सं कहेयवं जहा किर कप्पओ तुझं अहियं स्थूलभद्रचिंतितो पुत्तं रज्जे ठविउकामो, रजनिज्जोगो सजिजइ, पेसविया रायपुरिसा, सकुद्दुचो कूवे छूढो, कोद्दवोदणसेइया दीक्षा पाणियगलंतिया य दिजइ, सर्व ताहे सो भणइ-एएण सबेहिंवि मारियवं, जो णे एगो कुलद्धारयं करेइ वेरनिजायणं च भणति-महाराज ! बजणसि तत् करोमि, रजकनेणिरायता, राज्ञा सम मुखापयतं दृष्ट्वा नष्टा, कुमारामात्यःस्थितः, एवं सर्व राज्यं तदापत्तं स्थितं, पुग्ना अपि तस्य जाना, तथा अन्यानां चेबदुहितुणाश, अन्यदा कल्पकपुत्रस्य विवाहो (जातः), तेन चिन्तितं-सान्तःपुरस राको भकं दातव्यं, भाभरणानि | राज्ञो नियोंगो धाते, यो नन्देन कुमारामालाः स्फेटितः स तख द्विाणि मार्गपति, कल्पकदास्यो दाममानसंगृहीताः कृताः, यश्च तव स्वामिनो विचसोदन्ती | कथयेः दिवा दिवा, तथा प्रतिपक्ष, सम्पदा भणति-राजो निषोंगो पाते, पूर्वामानश्च यः स्फेटितस्तेन लिमय, राजे पापतितो विशपषति-पथपि वयं *अच्माकमस्मितास्तथापि युष्मत्सत्कानि सिक्यूनिधियतयापि तेगाव कवितध्वं यधा किलकारको बुधमाकमहितं चिन्तयन् पुर्व राज्य स्थापयितुकामः,IRIDEen राज्यनियोगः प्रगुणीक्रियते, प्रेषिता राजपुरुषार, सकडम्बः कूपे क्षिप्तः, कोद्योउनसेतिका पानीवस्य गन्तिका (गगरी) दीपते, सर्वान् तरस भणति-13 | एतेन सर्वेऽपि मारपितब्याः, योऽस्माकमेकः कुलोवारं करोति परनिर्यातनं च दीप अनुक्रम [२६] AR पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~74 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], प्रत सूत्रांक सो जेमेज, ताणि भणति-अम्हे असमत्थाणि, भत्तं पच्चक्खामो, पञ्चक्खाय, गयाणि देवलोग, कप्पगो जेमेइ, पच्चंतरा-8 तीहि य सुर्य जहा कप्पगो विणासिओ, जामो गेण्हामोत्ति, आगएहिं पाडलिपुत्तं रोहिय, नंदो चिंतेइ-जा कप्पगो होतो. |न एवं अभिवतो, पुच्छिया बारवाला-अस्थि तत्थ कोइ भत्तं पडिच्छड 1, जो तस्स दासो सोवि महामंतित्ति, तेहिं| भणियं-अस्थि, ताहे आसंदएण उक्खित्ता नीणि भो, पिक्किओ विजेहिं संधुकिओ आउसे कारिए पागारे दरिसिओगडू कप्पगो, दरिसिओ कप्पगोत्ति ते भीया दंडा सासंकिया जाया, नंदं परिहीणं णाऊण सुडतरं अभिवंति, ताहे लेहो विसजिओ, जो तुझ सबैसिं अभिमओ सो एउ तो संधी वा जंतुन्भे भणिहिह तं करेहित्ति, तेहिं दूओ विसजिओ, कप्पओ विनिग्गओ, नदीमझे मिलिया, कप्पगो नावाए हत्थसण्णाहिं लवइ, उच्छुकलावस्स हेटा उबरिं च छिन्नस्स मज्झे किं होहि, दहिकुंडस्स हेडा उवरिंच छिनस्स धसत्ति पडियस्त किं होहिइत्ति, एवं भणिता तं पयाहिणं करेंतो (सू.] दीप अनुक्रम [२६] % १स जेमत, ते भणन्ति-पयमसमर्थाः, भक्तं प्रत्याश्यामा, प्रत्याख्यातं, गता देवलोकं, कल्पको जेमति, प्रत्यन्तराजभित्र श्रुतं यथा कल्पको विनाशितः, यामो गृहीम इति, आगतः पाटलिपुत्रं रुई, नन्दचिन्तयति यदि कल्पको भविष्यत्तदा नैवमभ्यगोच्य, पृष्टा द्वारपाला:-अस्ति तन्त्र कश्चित् ?, भक्तं प्रतीच्छति ? | यस्तख दासा सोऽपि महामन्त्रीति, तैर्भणित-अस्ति, तदाऽऽस्सन्दकेनोरिक्षप्य निष्काशितः, पूरकतो वैः (भीतिमाम्वितः), पटी जाते प्राकारे दर्शित। कल्पकः, इर्शितः सन् कम्पक इति ते भीताः दण्डाः साशा जाताः, नन्द परिहीणं ज्ञावा सुप्तुतरामभिवन्ति, सहा लेस्रो विसष्टः-यो युष्माकं सर्वेषामभिमतः सभायात, ततः सन्धि वायपूर्व भणियच तत् करिष्याम इति, तेवूतो विसृष्टः, कल्पको विनिर्गतः, नदीमध्ये मिलिताः, कल्पको गाविससंज्ञाभिसंपति, दक्ष कलापखालादुपरि च जिस मध्ये किं भवति', वधिकुण्डयाधस्तादुपरि च छिन्नस्य धसमिति पतितस्थ किं भवतीति, एवं मणिवा तान् प्रदक्षिणां कुर्वन् 2%25A4%25 + RX पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~75 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम [२६] आवश्यक-पडिनियत्तो, इयरोवि विलक्खो नियत्तो पुच्छिओ लज्जइ अक्खिळ, पलबइ बडुगोत्ति अक्खायं, नहा, नंदोवि कप्पएणप्रतिकहारिभ- अभियो भणिओ-सण्णह, पच्छा आसहत्थी य गहिया, पुणोवि ठविओ तंमि ठाणे, सो य निओगामच्चो विणासिओ, तस्स कप्प-18 मणाध्य द्रीया गस्स बंसो गंदवंसेण सम अणुवत्तइ, नवमए नंदे कप्पगवंसपसूओ सगडालो, थूलभद्दो से पुत्तो सिरिओ य, सत्त धीवरील योगसं० ॥६९३॥ दाय जक्खा जक्खदिन्ना भूया भूयदिण्णा सेणा वेणा रेणा, इओ य वररुइ धिज्जाइओ नंदं अट्ठसएणं सिलोगाणमोलग्गइ. ५ शिक्षायां सो राया तुट्टो सगडालमुहं पलोएइ, सो मिच्छतंतिकार्ड न पसंसेइ, तेण भज्जा से ओलग्गिया, पुच्छिओ भणइ-भत्ता कल्पकवंश ते ण पसंसइ, तीए भणियं-अहं पसंसावेमि, तो सो तीए भणिओ, पच्छा भणइ-किह मिच्छत्तं पसंसामित्ति ?. एवं सूलमत्र दिवसे २ महिलाए करणिं कारिओ अण्णया भणइ-सुभासियंति, ताहे दीणाराणं अहसयं दिपणं, पच्छा दिणे २ पदिण्णो दीक्षा |सगडालो चिंतेइ-निविओ रायकोसोत्ति, नंद भणइ-भट्टारगा! किं तुम्भे एयस्स देह १, तुन्भे पसंसिओत्ति, भणइ-अहे | प्रतिनिवृत्तः, इसरोऽपि विलक्षी निवृत्तः पृशे सजते आगया, प्रलपति बटुक इति भाग्यात, मष्टा, नन्दोऽपि कल्पकेन भणितः-समध्य, पश्चादश्या [हमिलना गृहीता, पुनरपि स्थापित सस्मिन् स्थाने, स च नियोगामाखो विनाशितः, तस्य कल्पकस्य वंशो नन्दवंशेन सममभुपते, नबमे नन्दे कल्पकवंशप्रसूतः शकटालः, स्थूलमजस्तस्य पुत्रः श्रीयकक्ष, सप्त दुहितरच यक्षा यक्षवत्ता भूता भूतदत्ता सेना वेणा रेणा, इतश्च वररुचिर्षिजातीयो नम्बमष्टशतेन झो W६९३॥ कानां सेवते, स राजा तुष्टः शकटासमुखं प्रलोकयति, स मिथ्यात्वमितिकृत्वा न प्रशंसति, तेन भार्या तखाराहा, पृष्टो भणति-भत्तो सच न प्रशंसति, तथा भणितं-अहं प्रशंसयामि, तत्तः स तया भगितः, पश्चात् भणति-कथं मिथ्या प्रवासामि इति, एवं दिवसे दिवसे महिलया वार्च (प्रशंसाक्रिया) प्राहितोम्पदा भणति-सुभाषितमिति, सदा दीनाराणामष्टातं दत्तं, पश्चादिने दिने प्रदानुमारब्धः, शकटालचिन्तयति-निष्ठितो राजकोश इति, नन्द भणति-महा|स्काः! किं यूपमेती दत्त या प्रशंसित इति, भणति-आई पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~76 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं २०६...], प्रत सूत्रांक [सू.] पसंसामि लोइयकवाणि अनहाणि पढाइ, राया भणइ-कहं लोइयकवाणि ?. सगडालो भणइ-मम धूयाओवि पदति, दाकिमंग पुण अण्णो लोगो, जक्खा एगपि सुयं गिण्हइ, वितिया दोहि तइया तिहि वाराहि, ताओ अण्णया पविसंति || अंतेउरं, जवणियंतरियाओ ठवियाओ, वररुई आगओ धुणइ, पच्छा जक्खाए पढियं बितियाए दोणि तइयाए तिण्णि | वारा सुर्य पढियं एवं सत्तहिवि, रायाए पत्तियं, वररुईस दाणं वारियं, पच्छा सो ते दीणारे रतिं गंगाजले जंते ठवेइ, लासाहे दिवसओ धुणइ गंगं, पच्छा पाएण आहणइ, गंगा देइत्ति एवं लोगो भणइ, कालंतरेण रायाए सुर्य, सगडालस्स | कहेइ-तस्स किर गंगा देइ, सगडालो भणइ-जइ मए गए देइ तो देइ, कालं वच्चामि, तेण पञ्चइगो पुरिसो पेसिओ विगाले पच्छन्नं अच्छसु जं वररुई ठवेइ तं आणेज्जासि, गएण आणिया पोलिया सगडालस्स दिण्णा, गोसे नंदोवि गओ, पिच्छइ थुर्णत, थुए निबुडो, हत्थेहि पाएहि य जंतं मग्गइ, नस्थि, विलक्खो जाओ, ताहे सगडालो पोलियं रणो 1 प्रशंसामि लौकिककाम्यानि अनर्थकानि पठति, राजा भणति-कथं लौकिककाथ्यानि ?, शकटाको भणति-मम दुहितरोऽपि पठन्ति किमा पुनरम्यो कोका, यक्षा एकशः श्रुतं गृहाति द्वितीया रिका: समीया त्रिः, ता अभ्यदा प्रधेशयति अन्तःपुर, यवनिकान्तरिताः स्थापिताः, वररुचिरागतः सौति, I पक्षात् यक्षषा एकाः द्वितीया हिरवस्तृतीयथा त्रिः श्रुतं पठितं एवं सप्तभिरपि, राज्ञा प्रत्ययितं, वररुचये दानं चारितं, पवारस तान् दीनारान् रात्री गङ्गाजले यन्त्र स्थापयति, तदा दिवसे सौति गङ्गा पश्चात्पादेमाहन्ति, गङ्गाददातीत्येवं लोको भवति, कालान्तरेण राज्ञा श्रुतं, शकटालाय कथयति-तौ किल गया। ववाति, पाकटालो भणति-पदि मवि गते ववाति तर्हि ददाति, कल्ये बजावः, तेन प्रत्यथितः पुरुषः प्रेषितो विकाले प्रच्छ तिष्ठ यद्वररुचिः स्थापयति तदानये, गतेनानीता पोहलिका शटालाय यचा, प्रत्यूपति नन्दोऽपि गता, प्रेक्षते स्तुवन्त, स्तुत्वा ममः दसाभ्यां पादाभ्यां च यन्त्र मार्गवति, नास्ति, विलक्षो जाता, | तदा शकटाकः पोहलिका राशे दीप अनुक्रम [२६] न्दा -% पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~77 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.-] दीप अनुक्रम [२६] आवश्यक हारिभद्रीया ॥६९४ ॥ [भाग-३१] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १/४ ( मूलं+निर्युक्तिः वृत्तिः) अध्ययन] [४] मूलं [स्] / [गाथा-] निर्बुक्तिः [ १२८४ ] भष्यं [२०६...], दैरिसेइ, ओहामिओ गओ, पुणोषि छिद्दाणि मग्गइ सगडालस्स एएण सर्व खोडियंति, अण्णया सिरीयस्स विवाहो, रण्णो अणुओगो सज्जिज्जइ, वररुइणा तस्स दासी ओलग्गिया, तीए कहिथं रण्णो भत्तं सज्जिज्जइ आजोगो य, ताहे तेण चिंतियं एवं छि, डिंभरुवाणि मोयगे दाऊण इमं पाढेइ- 'रायनंदु नवि जाणइ जं सगडालो काहिइ रायनंदं मारेसा तो सिरियं रज्जे ठवेहित्ति ॥ १ ॥' ताइ पढंति, रायाए सुर्य, गवेसामि, तं दिनं कुविओ राया, जओ जओ सगडालो पाएस पडइ तओ तओ पराहुत्तो ठाइ, सगडालो घरं गओ, सिरिओ नंदस्स पडिहारो, तं भणइ - किमहं मरामि सधाणिचि मरंतु, तुमं ममं रण्णो पायवडियं मारेहि, सो कन्ने ठएइ, सगडालो भणइ-अहं तालउडं विसं खामि, पायवडिओ य पमओ, तुमं ममं पायवडियं मारेहिसि, तेण पडिस्सुयं, ताहे मारिओ, राया उद्विओ, हाहा अकजं !, सिरियत्ति, भणइ-जो तुझ पायो सो अम्हवि पावो, सकारिओ सिरियओ, भणिओ, कुमारामच्चत्तणं पडिबज्जसु सो भणइ-ममं जेडो १ दर्शयति, अपभ्राजितो गतः पुनरपि चित्राणि मार्गयति शकटाला एतेन सर्व विनाशितमिति, अम्यदा श्रीचकस्य विवाहः, राम्रो नियोगः सज्ज्यते, वररुचिना तस्य दासी भवलगिता तथा कथितं राहो भक्तं सज्ज्यते आयोग, तदा तेन चिन्तितं एतत् जिदं, डिम्भान् मोदकान्त पाठपति नन्दो राजा नैव जानाति यद् शकटालः करिष्यति। मन्दराजं मारथित्वा ततः श्रीवकं राज्ये स्थापयिष्यती 'ति ते पठन्ति राज्ञा श्रुतं गवेषयामि सदृष्टं कुपितो राजा यतो यतः शकटालः पादयोः पतति ततस्ततः पराङ्मुखस्तिष्ठति, शकटालो गृहं गतः, श्रीबको नन्दस्य प्रतीहारः तं भणति किमहं त्रिये सर्वेऽपि त्रियां ?, त्वं मां राज्ञः पदोः पतितं मारय, स कण स्थगयति, शकटालो भणति-महंतालपुरं विषं खादामि पादपतितः प्रमृतः एवं मां पादपतितं मारयेः, वेन प्रतितं, तदा मारितः, राजोत्थितः हा हा अकार्य श्रीपक इति, भगति यस्वय्येव पापः सोऽसाकमपि पापः सत्कृतः श्रीयकः भणितः कुमारामात्यवं प्रतिपचस्व, स भणति मम ज्येष्ठ ४ प्रतिक्र मणाध्य० योगसं० ५ शिक्षायां कल्पकवंशे स्थूलभद्रदीक्षा ~78~ ॥ ६९४॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं २०६...], * OC0% % प्रत 4 सूत्रांक -% दीप अनुक्रम [२६] भाया थूलभद्दो बारसम परिसं गणियाए घरं पविट्ठस्स, सो सहाविओ भणइ-चिंतेमि, सो भणइ-असोगवणियाए चिंतेहि, सो तत्थ अइयओ चिंतेइ-केरिसया भोगा रजवक्खित्ताणं !, पुणरवि णरय जाइवं होहितित्ति, एते णामेरिसया भोगा तओ पंचमुद्वियं लोयं काऊण कंवलरयणं छिंदित्ता रयहरणं करेता रण्णो पासमागओ धम्मेण बहाहि एवं चिंतियं, राया भणइ-सुचिंतिय, निग्गओ, राया भणइ-पेच्छह कवडत्तणेण गणियाघरं पविसइ नवित्ति, आगासतलगओ पेच्छइ, जहा मतकडेवरस्स जणो अवसरइ मुहाणि य ठएइ, सो भगवं तहेव जाइ, राया भणइ-निविणकामभोगो भगवंति, सिरिओ ठविओ, सो संभूयविजयस्स पासे पधइओ, सिरियओवि किर भाइनेहेण कोसाए गणियाए घरं अलियड़, सा य अणुरत्ता थूलभद्दे अण्णं मणुस्सं नेच्छइ, तीसे कोसाए डहरिया भगिणी उवकोसा, तीए सह वररुई चिडइ, सो सिरिओ तस्स छिद्दाणि मग्गइ, भाउजायाए मूले भणइ-एयस्त निमित्तेण अम्हे पितिमरणं पत्ता, भाइविओर्ग च पत्ता, तुझ विओओ आता स्थूलभा द्वादशं वर्ष गणिकागृहं प्रविष्य, स शब्दितो भणति-चिन्तयामि, स भवति-अशोकवनिकायां चिन्तय, सतवातिगतबिम्सथति कीदशा भोगा राज्यव्याक्षिसाना ? पुनरपि नरके यातब्ध भविष्यतीति, एते नामेहशा भोगावतः पजमुष्टिकं सोचं कृष्वा कम्बहरलं छिपवारजोहरणं कृत्वा राशः पाचमागत्य धर्मेण ववैवं चिन्तितं, राजा भणति-सुचिन्तितं, निर्गतो, राजा भणति-पश्यामि कपटेन गणिकागृहं प्रविशति नति, भाकाशतलगतः प्रेक्षते, यथा मृतकलेवरात् जनोऽपसरति मुखानि च स्थगवति स भगवान् तथैव यात्ति, राजा भणति-निविणकामभोगो भगवानिति, श्रीयकः स्थापितः, स संभूतिविजयस्य पा प्रवजितः, श्रीवकोऽपि किल भ्रातृस्नेहेन कोशाया गृहमाश्रयति, सा चानुरक्ता स्थूलभदेऽम्यं मनुष्य नेच्छति, तस्याः कोशाया लम्ची भगिन्युपकोशा, नया सह वररुचिस्तिपति, स श्रीयकरतब खिापि मार्गयति, भ्रातृजायाया मूले भणति-पतख निमित्तेन अम्मा पिता मरण्य प्राप्तः, भ्रातृवियोगं च (वय) माताः, तब वियोगो पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~79 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२८४] भाष्यं २०६...], प्रत सूत्रांक आवश्यक- जाओ, एयं सुरं पाएहि, तीए भगिणी भणिया-तुमं मत्तिया एस अमत्तओ जं वा तं वा भणिहिसि, पयपि पाएहि, सा४ प्रतिकहारिभ- पपाइया, सो नेच्छइ, अलाहि ममं तुमे, ताहे सो तीए अविओगं मग्गंतो चंदपमं सुरं पियइ, लोगो जाणाइ खीरंति, मणाध्यक द्रीया कोसाए सिरियस्स कहिय, राया सिरियं भणइ-एरिसो मम हिओ तब पियाऽऽसी, सिरिओ भणह-सच सामी 1, एएण[21 योगसं० ५शिक्षायां ॥६९५|| मित्तवालएण एवं अम्ह कय, राया भणइ-किं मजं पियइ ?, पियइ, कहं , तो पेच्छइ, सो राउलं गओ, तेणुप्पलं भावियं द्र मणुस्सहत्थे दिण्णं, एवं वररुइस्स दिजाहि, इमाणि अण्णेसिं, सो अस्थाणीए पहाइओ, तं वररुइस्स दिन्नं, तेणुरिसघियं, कल्पकवशे भिंगारेण आगयं निच्छूद्धं, चाउयेजेण पायच्छित्तं से तत्तं तउयं पेज्जाविओ, मओ । थूलभद्दसामीवि संभूयविजयाणं | स्थूलभद्र दीक्षा सगासे घोराकारं तवं करेइ, विहरतो पाडलिपुत्तमागओ, तिणि अणगारा अभिग्गहं गिण्हंति-एगो सीहगुहाए, तं| पेच्छंतो सीहो उसंतो, अण्णो सप्पवसहीए, सोवि दिट्टीविसो उवसंतो, अण्णो कूवफलए, थूलभद्दो कोसाए घरं, सा जातः, एनं सुरा पाषय, तथा भगिनी भणिसा-वं मत्ता एषोऽमनो बट्टा तद्वा भाणण्यास, पुनमपि पायय, साप्रपायिता, स नेच्छति, भलं मम स्वयं तदा स तस्या अवियोग मृगयमाणश्चन्द्रमा सुरां पिथति, लोको जानाति-क्षीरमिति, कोशया श्रीयकाय कथितं, राजा श्रीयकं भाति-ईशो मम हितस्तव पिताऽऽसीत्, श्रीयको भणति-सत्यं स्वामिन् ! एतेन पुनर्भयपायिना एतदस्माकं कृतं, राजा भणति-कि मद्य पियति ?, पिबति, कथं ?, ताई प्रेक्षवं, स राजकुलं गतः, तेनोत्पलं भावितं मनुष्यहस्ते वर्त, एतत् वररुचये दद्याः, इमान्यन्येभ्यः, स आस्थान्यो प्रधावितः, तत् वररुचये दर, तेनामातं, कलोनाग समुद्रीण, चातुयेन प्रायश्चिक्षे सततं वपुः पावितः, मृतः । स्थूलभद्रस्वाम्पपि संभूति विजयानां सकाशे घोराकारं तपः करोति, विहरन पाटलिपुत्रमागतः, ॥६९५॥ Kायोऽनगारा अभिनाई गृहन्ति-एका सिंहगुहाया, संप्रेक्षमाणः सिंह उपशान्तः, अन्यः सर्पसती, सोऽपि दृष्टिविष उपशान्तः, अन्यः कूपफलके, स्थूलमनः कोशाया गृहे, सा. दीप अनुक्रम [२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~80 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.-] दीप अनुक्रम [२६] [भाग-३१] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १/४ ( मूलं+निर्युक्तिः वृत्तिः) अध्ययन] [४] मूलं [स्] / [गाथा-] निर्बुक्तिः [ १२८४ ] भष्यं [२०६...], तुट्ठा परीसहपराजिओ आगओति, भणइ किं करेमि ?, उज्जाण घरे ठाणं देहि, दिण्णो, रतिं सधालंकारविहसिया आगया, चाडुयं पकया, सो मंदरो इव निकंपो न सकए खोहेडं, ताहे धम्मं पडिसुणइ, साविया जाया, भणइ - जइ रायावसेणं अण्णेण समं वसेज्जा इयरहा बंभचारिणियावयं सा गिण्हर, ताहे सीहगुहाओ आगओ चत्तारि मासे उपवासं काऊण, आयरिएहि ईसित्ति अभुडिओ, भणियं सागयं दुक्करकारगरसत्ति ?, एवं सम्पत्ती कुवफलइत्तोवि, थूलभद्दसामीवि तत्थेव गणियाघरे भिक्खं गेण्हइ, सोवि च मासेमु पुण्णेमु आगओ, आयरिया संभ्रमेण अब्भुट्टिया, भणियंसागयं ते अइदुकर २ कारगति ?, ते भांति तिष्णिवि-पेच्छह आयरिया रागं वहति अमञ्चपुत्तोत्ति, वितियवरिसारते सीहगुहाखमओ गणियाघरं वच्चामि अभिग्गहं गेण्हइ, आयरिया उवउत्ता, वारिओ, अपडिसुर्णेतो गओ, वसही मग्गिया, दिन्ना, सा सभावेणं उरालियसरीरा विभूसिया अविभूसियावि, धम्मं सुणेइ, तीसे सरीरे सो अज्झोववन्नो, ओभासइ, सा १] तुष्टा परीपपराजित आगत इति, भणति-कि करोमि ?, उद्याने गृहे स्थानं देहि, दत्तं रात्रौ सर्वालङ्कारविभूषिता आगसा, चाटु प्रकृता, स मेरुरिव निष्प्रकम्पो न शक्यते क्षोभयितुं सदा धर्म शृणोति श्राविका जाता, भणति-यदि राजवशेनाम्येन समं वसामि इतरथा ब्रह्मचारिणीवतं सा गृह्णाति तदा सिंहगुहाया आगतधतुरो मासानुपवासं कृत्वा आचार्यैरपदिति अभ्युत्थितः भणितं स्वागतं दुष्करकारकस्येति ?, एवं सर्पविलसत्कः कूपफलकाकोऽपि, स्थूलभङ्गोऽपि स्वामी तत्रैव गणिकागृहे भिक्षां गृह्णाति सोऽपि चतुर्मास्यां पूजयामागतः, आचार्याः संभ्रमेणोत्थिताः भणितं स्वागतं तेऽतिदुष्कर दुष्करकारकस्येति ?, ते भणन्ति प्रयोऽपि पश्यत आचायो रागं वहन्ति अमात्यपुत्र इति द्वितीयवरात्रे सिंहगुहाक्षपको गणिकागृदं व्रजामीति अभिप्रहं गृह्णाति आचायो उपयुक्ताः वारितोऽप्रतियन् गतः वसतिर्मार्गिता, दत्ता, सा स्वभावेनोदारशरीरा विभूषिता अविभूषितापि धर्मे शृणोति तस्याः शरीरे सोsयुपपन्नः, याचते, सा पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः ~81~ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं २०६...], आवश्यक- हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥६९६॥ [सू.] दीप अनुक्रम [२६] नेच्छा, भणइ-जइ नवरि किंचि देसि, किं देमि ?, सयसहस्सं, सो मग्गिउमारतो, नेपालविसए सावगो राया, जो तहिं ४ प्रतिकजाइ तस्स सयसहस्समोलं कंबलं देइ, सो तं गओ, दिन्नो रायाणएण, पइ, एगत्थ चोरेहिं पंथो बद्धो, सउणो वासइ- मणाध्य. सयसहस्सं एइ, सो चोरसेणावई जाणइ, नवरं एजंतं संजयं पेच्छइ, वोलीणो, पुणोवि वासइ-सयसहस्सं गयं, तेण योगसं०. सेणावइणा गंतूण पलोइओ, भणइ-अस्थि कंबलो गणियाए नेमि, मुक्को, गओ, तीसे दिन्नो, ताए चंदणियाए छूढो, सो शिक्षाया वारेइ-मा विणासेहि, सा भणइ-तुम एवं सोयसि अप्पयं न सोयसि, तुमंपि एरिसो चेव होहिसि, उवसामिओ, लद्धा कल्पकवंशे बुद्धी, इच्छामित्ति मिच्छामिदुकडं, गओ, पुणोषि आलोएत्ता विहरइ, आयरिएण भणियं-एवं अइदुकरदुकरकारगो| स्थूलभद्रथूलभदो, पुषपरिचिया असाविया य थूलभदेण अहियासिया य, इयाणि सहा तुमे अदिदोसा पस्थियत्ति उवालद्धो, एवं ते विहरति, एवं सा गणिया रहियस्स दिण्णा नंदेण, थूलभद्दसामिणो अभिक्खणं गुणगहणं करेइ, न तहा उबचरइ,15 नेच्छति, भणति-यदिपर किजिददासि, कि परामि, पतसहसं, स मार्गितुमारब्धः, नेपालविषये धावको राजा, यः तन्त्र वाति सम्म वातसहस्त्रमूल्य कम्बलं ददाति, स तं गतः, दसो राजा, भावाति, एकच चारैः स्थानं बवं, शकुनो रति-शतसहसमायाति, स चौरसेनापतिजानाति, नवरमायान्तं संयतं पश्यति, पश्चाङ्गतः, पुनरपि रति-शतसहस्त्रं गतं, तेन सेनापतिना गत्वा प्रलोकितः, भणति-अस्ति कम्बको गणिकायै नयामि, मुको, गतः, तरी दत्तः, तया वोंगृहे क्षिप्तः, सपारयति-मा बिनापाय, सा भणति-स्वमेनं शोचसे आस्मानं न शोचसे, यमपीचो भविष्यसि चैव, उपशाम्ता, कब्धा बुद्धिः, इच्छामी- ॥६९६॥ तिमे मिष्यादुष्कृतमिति, गतः, पुनरपि आलोच्य विहरति, भाचार्येण माणित-चमतिदुष्करदुष्करकारकः स्थूलमदः, पूर्वपरिचिता अभाविका च स्थूलभद्रेण अभ्यासिता च, वानी भाडा खयामदोषा प्रार्धितेति उपालन्धः, एवं ते विहरन्ति, एवं सागणिका रधिकाय सा नन्देन, स्थूलभद्स्वामिनोभीक्षणं गुणग्रहणं करोति, न धोपचरति पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~82 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], प्रत सो तीए अप्पणो विण्णाणं दरिसिउकामो असोगवणियं नेइ, भूमीगएण अंबगपिंडी पाडिया, कंड पुंखे अण्णोणं लायतेण हत्थब्भासं आणेत्ता अद्धचंदेण छिन्ना गहिया, तहवि न तूसइ, भणइ-किं सिक्खियस्स दुकरं !, सा भणइ-पेच्छ। ममंति, सिद्धत्थगरासिंमि नच्चिया सूईणं अग्गयंमि य, सो आउट्टो, सा भणइ-'न दुकर तोडिय अंबलुंबिया न दुकर दिनश्चित सिक्खियाए । तं दुकरं तं च महाणुभावं, जे सो मुणी पमयवर्णमि बुच्छो ॥१॥तीए सोवि सावओ को तिमि य काले बारवरिसिओ दुकालो जाओ, संजयाइ तओ समुदतीरे अच्छित्ता पुणरवि पाडलिपुत्ते मिलिया, तेसिं अण्णस्स उद्देसो अण्णस्त खंड एवं संघातंतेहिं एकारस अंगाणि संघाइयाणि, दिठिवाओ नथि, नेपालबत्तिणीए य भद्दबाहू अच्छति चोद्दसपुषी, तेसिं संघेण संघाडओ पट्टविओ दिहिवार्य बाएहित्ति, गंतूण निवेइयं संघकर्ज, ते भण-14 ति-दुकालनिमित्तं महापाणं न पविठोमि, इयाणिं पविठ्ठो, तो ण जाइ वायणं दाउं, पडिणियत्तेहिं संघस्स अक्खायं, तेहि। 2009-057 सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [२६] स तथाधामनो विज्ञानं दर्शवितुकामोशोकवनिका नयति, भूमिगतेनामपिण्डी पातिता, पाणपृष्ठेऽम्पोऽयं जाता हसेनानीवार्थपण किया गृहीता, क्याविन पुष्यति, भणति-कि शिक्षितस्य दुष्कर, सा भणति-पश्य ममेति, सिद्धार्थ करायौ नर्सिता सूचीमा चाये, स आवर्जितः, सा भणति न दुष्कर प्रमोदितायामास्त्रविष्यां न दुष्करं सपनर्सने (शिक्षिताया.) तदुष्करं तच महानुभावं यस मुनिः प्रमदाबने उपितः ॥1॥ तथा सोऽपि श्रावका कृतः । तस्मिन काले दशवार्षिको दुष्काळो जाता, संयतादिकाः ततः समुमतीरे स्थात्वा पुनरपि पाटलिपुत्रे मिलिताः, तेपामम्पयोदेशोऽन्यस्य खण्डमे संघातपभिरेकादशा. कानि संपातितानि, दृष्टिबादो नास्ति, नेपाकदेशे च भदमाहवस्तिहन्ति चतुर्दशपूर्वधराः, तेषां सरून संघाटका प्रेषितो दृष्टिवादं वाचयेति, गत्वा निवेदितं संघकार्य, ते भणन्ति-दुष्काळनिमिरी महामार्ण न प्रविष्टोऽमि, इदानी प्रविष्टस्ततो न वाचना दाद समर्थः, प्रतिनिवृत्तः संघावारयातं, पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~83~ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.-] दीप अनुक्रम [२६] 1962-% [भाग-३१] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १/४ ( मूलं+निर्युक्तिः वृत्तिः) अध्ययन] [४] मूलं [स्] / [गाथा-] निर्बुक्तिः [ १२८४ ] भष्यं [२०६...], आवश्यक अन्नो सिंघाडओ विसजिओ, जो संघस्त आणं वइकमह तस्स को दंडो ?, ते गया, कहियं, भणइ ओघाडिज्जइ, ते भांति, हारिभ- मा उग्घा डेह पेसेह मेहावी सत्त पडियाओ देमि, भिक्खायरियाए आगओ १ कालवेलाए २ सण्णाए आगओ ३ वेयालियाए ४ द्रीया पडिपुच्छा आवस्सए तिष्णि ७, महापाणं किर जया अइयओ होइ तथा उप्पण्णे कज्जे अंतोमुहुत्तेण चउद्दस पुचाणि अणुपेद्दइ, उक्कइओवकश्याणि करेड, ताहे थूलभद्दष्पमुहाणं पंच मेहावीणं सयाणि गयाणि, ते प (पं)डिया वायणं, मासेणं एगेणं दोहिं तिहिं सबे ऊसरिया न तरति पडिपुच्छपण पढिडं, नवरं थूलभद्दसामी ठिओ, थेवावसेसे महापाणे पुच्छिओ-न हु किलंमसि ?, भणइ-न किलामाभि, खमाहि कंचि कालं तो दिवस सर्व्वं वायणं देमि, पुच्छइ-किं पढियं कित्तियं वा सेसं ?, आयरिया भणति-अद्धासी य सुत्ताणि, सिद्धत्थगमंदरे उवमाणं भणिओ, एत्तो ऊणतरेण कालेणं पढिहिसि मा विसायं वच, समत्ते महापाणे पढियाणि नव पुवाणि दसमं च दोहिं वत्थूहिं ऊणं, एयंमि अंतरे बिहरंता गया पाडलिपुत्तं, ॥६९७॥ रम्यः संचारको निः संवस्वाज्ञामतिक्राम्यति तख को दण्डः, ते गताः कथितं भगति-उद्यायते ते भजन्ति, माजी प मेधाविनः सप्त वाचना ददामि मिक्षाचया आगतः कालवेलायां संज्ञाया आगतो विकाले आवश्यके कृते तिसः, महाप्राणं किल यदातिगतो भवति तत्पन्ने कार्येऽन्तर्मुहूर्तेन चतुर्दश पूर्वाणि अनुपेक्ष्यते कमिापऋनिकानि करोति तदा स्थूलभद्रमुखा पत्र मेधाविनां शतानि गतानि ते वाचनाः पठितुमा धाः मासेनैकेन द्वाभ्यां त्रिभिः सर्वेऽपस्ता न शत्रुवति प्रतिडकेन (बिना ) पठितुं नवरं स्थूलभद्रस्वामी स्थितः स्तोकावशेपे महाप्राणे पृष्टः मैव काम्यति ?, भणति न काम्यानि प्रतीक्षत्र कञ्चित् कालं ततो दिवस सर्वे वाचनां दास्यामि पृष्छति किं पठितं कषत् शेषं ?, आचायां भणन्ति अष्टशशीतिः सूत्राणि, विद्यार्थकमन्दरोपमानं भणितं, इस कनवरेण कालेन पठिष्यति मा विपाई बाजीः समाप्ते महाप्राणे पठिताले नव पूर्वादिभ्य वस्तुभ्यासूनं एतस्मिन्नन्तरे विहरन्तो गताः पाटलिपुत्रं. ४ प्रतिक्र मणाध्य० योगसं० ५ शिक्षायां भद्रबाहु० पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः ~84~ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२८४] भाष्यं [२०६...], 6 प्रत 2-2- सूत्रांक थूलभद्दस्स य ताओ सत्तवि भगिणीओ पवइयाओ, आयरिए भाउगं च वंदिउं निग्गयाओ, उज्जाणे किर ठपिएल्लगा आयरिया, वंदित्ता पुच्छंति-कहिं जेद्वज्जो ?, एयाए देउलियाए गुणेइत्ति, तेणं ताओ दिवाओ, तेण चिंतियं-भगिणीणं| इहिं दरिसेमित्ति सीहरूवं विउचाइ, ताओ सीहं पेच्छति, ताओ नहाओ, भणंति-सीहेण खइओ, आयरिया भणंति-न सो| सीहो थूलभद्दो सो, ता जाह एत्ताहे, आगयाओ वंदिओ, खेमं कुसलं पुच्छइ, जहा सिरियओ पबइओ अभत्तडेण कालगओ, महाविदेहे य पुच्छिया तित्थयरा, देवयाए नीया, अज्जा ! दो अज्झयणाणि भावणाविमुसी आणिवाणि, एवं वंदित्ता गयाओ, बिइयदिवसे उद्देसकाले उवडिओ, न उद्दिसंति, किं कारणं ?, उवउत्तो, तेण जाणियं, कल्लत्तणगेणा, भणइ,-न पुणो काहामि, ते भणंति-न तुमं काहिसि, अन्ने काहिंति, पच्छा महया किलेसेण पडिवण्णा, उवरिल्हाणि चत्तारि | पुवाणि पढाहि, मा पुण अण्णस्स दाहिसि, ते चत्तारि तओ वोच्छिषणा, दसमस्स दो पच्छिमाणि वत्थूणि योच्छिण्णाणि, [सू.] दीप अनुक्रम [२६] स्थूलभद्रस च ताः समापि भगिन्यः प्रनजिताः, आचार्यान् प्रातरं च वन्दितुं नियंता, उखाने किल स्थिता आचार्याः, पन्दित्वा पूछन्तिज्येार्य, एतस्यां देवकुक्षिका गुणयत्ति, तेन सा दृष्टाः, सेन चिन्तितं-भगिनीनां ऋदि दर्शयामीति सिंहरूपं पिकवंति, ताः सिंह पश्यन्ति, ता नष्टाः, भणन्ति-सिंहेन खादितः, आचार्या भणन्ति-नस सिंहः स्थूलभाःसातत् याताना, आगताः वन्दितः, क्षेमं कुशलं च पृष्ठति, यथा श्रीयकः प्रवजितोऽभक्का धन कालगता, महाविदेदेषु च पृटामतीर्थकराः, देवतया नीता, आर्य! अध्ययने भावनाविमुकी आनीते, एवं वन्दित्वा गते, द्वितीयविवसे उद्देसकाले उपस्थितः, गोदिशान्ति, किं कारण !, उपयुक्तः, तेन ज्ञान, बस्तनीवेन, भणति-न पुनः करिष्यामि, ते भणन्ति-नवं करिष्यखि, मम्धे करिष्यन्ति, पश्चात् महता के शेनप्रतिपावन्ता, परितनानि चत्वारि पूर्वाणि पठ मा पुनरन्षी दाः, तानि चत्वारि ततो न्युच्छिमानि, शमसी पक्षिमे वस्तुनी व्यवच्छिन्ने, पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~85 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], CA प्रत सूत्रांक आवश्यकहारिभ द्रीया ॥६९८॥ [सू.] दस पुवाणि अणुसजति ॥ एवं शिक्षा प्रति योगाः सङ्ग्रहीता भवन्ति यथा स्थूलभद्रस्वामिनः । शिक्षेति गतं ५ । इयाणि |४प्रतिकनिप्पडिकमयत्ति, निप्पडिकम्मत्तणेण योगाः सङ्गृह्यन्ते, तत्र वैधोदाहरणमाह मणाध्य • पठाणे नागवम् नागसिरी नागदत्त पवजा । एगविहा सहाणे देवय साहू य बिल्लगिरे ॥ १२८५ ॥ योगसं० अस्याश्चार्थः कधानकादवसेयः, तवेदम्-पाहाणे णयरे नागवसू सेट्टी णागसिरी भज्जा, सहाणि दोबि, तेसिं पुत्तो|६ निष्प्रति नागदत्तो निविण्णकामभोगो पबइओ, सो य पेच्छइ जिणकप्पियाण पूयासकारे, विभासा जहा ववहारे पडिमापडिव | कमेता नाण य पडिनियत्ताणं पूयाविभासा, सो भणइ-अहंपि जिणकप्पं पडिवजामि, आयरिएहिं वारिओ, न ठाइ, सयं चेवपडिवजइ, निग्गओ, एगस्थ वाणमंतरघरे पडिम ठिओ, देवयाए सम्मदिहियाए मा विणिस्सिाहितित्ति इत्थिरूपेण उवहारं| गहाय आगया, वाणमंतरं अचित्ता भणइ-गिण्ह खवणत्ति, पललभूवं कूरं भक्खरूवाणि नाणापगाररूवाणि गहियाणि, खाइत्ता रत्तिं पडिमं ठिओ, जिणकप्पियत्तं न मुंचति, पोट्टसरणी जाया, देवयाए आयरियाण कहियं, सो सीसो अमुगत्थ, दश पूर्वाणि अनुप्सम्यन्ते । प्रतिष्टाने नगरे नागवसुः श्रेष्ठी नागश्रीभार्या, श्राद्ध है अपि, तयोः पुत्रो नागदत्तो निर्विणकाम भोगः प्रबजितः, सच | प्रेक्षते जिनकलिपकानां पूजासकारी, विभाषा यथा व्यवहारे प्रतिमाप्रतिपन्नानां च प्रतिनिवृत्तानां पूजाविभाषा, स भणति-महमपि जिनकल्यं प्रतिपये, आचावारितः, न तिति, स्वयमेव प्रतिपचते, निर्गतः, एका म्यन्तरगृहे प्रतिमया स्थितः, देवता सम्पष्टिः मा विन-दिति बीरूपेयोपहार गृहीत्वा ॥६९८॥ गता, व्यस्तरमर्चयित्वा भणति-गृहाण अपक इति, पललभूतं (मिष्ट) रं भक्ष्यरूपाणि नानाप्रकारस्वरूपाणि गृहीतानि, खादित्वा रात्री प्रतिमा स्थितः, जिमकल्पिको ग मुमति, अतिसारो जातः, देवतयाऽचार्याणां कथित, स शिष्योमुत्र, दीप अनुक्रम CACACACANCHANCHAR [२६] AMER पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~86 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२८५] भाष्यं [२०६...], 55 प्रत सूत्रांक [सू.] साहू पेसिया, आणिओ, देवयाए भणियं-बिल्लगिरं दिजहित्ति दिन्नं, ठियं, सिक्खविओ य-न य एवं काय । निष्पडिकंमत्ति गयं ६ । इयाणिं अन्नायएत्ति, कोऽर्थः १-पुर्वि परीसहसमत्थाणं जं उवहाणं कीरइ तं जहा लोगो न याणाइ तहा कायचंति, नायं वा कयं न नज्जेज्जा पच्छन्नं वा कयं नजेजा, तत्रोदाहरणगाहाहाकोसंघिय जियसेणे धम्मवसू धम्मघोस धम्मजसे । विगयभया विणयबई इडिविसाय परिकम्मे ॥१२८६॥ इमीए वक्खाण-कोसंबीए अजियसेणो राया,धारिणी तस्स देवी, तत्थवि धम्मवसू आयरिया, ताणं दो सीसा-धम्मघोसो धम्मजसो य, विणयमई मयहरिया, विगयभया तीए सिस्सिणीया, तीए भत्तं पञ्चक्खायं, संघेण महया इहिसकारेण निजामिया, विभासा, ते धम्मवसुसीसा दोषि परिकर्म करेंति, इओ य उजेणिवंतिवद्धणपालगसुपरहवडणे चेव । धारिय(णि) अवंतिसेणे मणिप्पभा वकछगातीरे ॥१२८७॥ । व्याख्या-उजेणीए पज्जोयसुया दोभायरो पालगो गोपाल ओ य, गोपालओ पवइओ, पालगस्स दो पुत्ता-अवंतिवद्धणो साधकः प्रेषिता, भानीता, देवतया भणिता:-वीजपूरगर्भ दत्त, दत्तः, स्थितः, शिक्षितच-न चैवं कर्तव्यं । निष्प्रतिकर्मति गतं । इदानीमज्ञात | इति, पूर्व परीषदसमर्षदुपचानं क्रियते तत् यथा लोको न जानाति तथा कम्पमिति, ज्ञातं वा कृतं न ज्ञायेत प्रच्छन्नं वा कृतं शायेत । मया व्याख्या - | कोशाम्बामजितसेनो राजा धारिणी तस्य देवी, तत्रापि धर्मवसव प्राचार्याः, तेषां दी शिष्यी-धर्मधोषो धर्मपशाच, विनपमतिमंदरिका, विगतभपा तस्याः | शिष्या, तया भकं प्रत्याख्यात, सकेन महता सिकारेण निर्या मिता, विभाषा, तौ धर्मसुशिष्यी द्वावपि परिकर्म कुर्वतः हतब-वजयिन्या प्रयोतसुती बी भातरी-पालको गोपालकब, गोपालकः प्रत्रजितः, पालकस्य ही पुत्री-अवन्तीवधनो दीप अनुक्रम [२६] ~87 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८७] भाष्यं [२०६...], प्रत सूत्रांक आवश्यक छवद्धणो य, पालगो अचंतिबद्धणं रायाणं रहयद्धणं जुवरायाण ठवित्ता पवइओ, रहवद्धणस्स भजा धारिणी, तीसे हारिभ-नापुत्तो अवंतिसेणो । अन्नया उजाणे राइणा धारिणी सवंगे वीसत्ता अच्छती दिवा, अज्झोववन्नो, दूती पेसिया, सा|| मणाध्य द्रीया योगसं०७ नेच्छइ, पुणो २ पेसइ, तीए अधोभावेण भणियं-भाउस्सवि न लज्जसि ?, ताहे तेण सो मारिओ, विभासा, तंमि वियाले अज्ञातके |सयाणि आभरणगाणि गहाय कोसंविं सत्थो वच्चइ, तत्थ एगस्स वुहस्स बाणियगस्स उवल्लीणा, गया कोसंधि, संजइओ ॥६९९॥ पुच्छित्ता रणो जाणसालाए ठियाओ तत्थ गया, बंदित्ता साविया पबइया, तीए गम्भो अहुणोववन्नो साहुणो माण पजविहिति(त्ति) तं न अक्खिये, पच्छा णाए मयहरियाए पुच्छिया-सम्भावेण कहिओ जहा रहवद्धणभजाऽह, संजती-18 माझेऽसागारियं अच्छाविया, वियाया रति, मा साहूर्ण उड्डाहो होहितित्ति णाममुद्दा आभरणाणि य उक्खिणित्ता रणो| अंगणए ठवित्ता पच्छन्ना अच्छा, अजियसेणेणागासतलगएणं पभा मणीण दिवा दिडा, दिवो य, गहिओ, णेण| [सू.] दीप अनुक्रम [२६] राष्ट्रवर्धनन, पालकोऽवन्तीवर्धन राजाम राप्रवर्धनं युवराज खापचिस्या प्रबजितः, राष्ट्रवर्धनस्य भाषी धारिणी, तस्याः पुत्रोऽयम्तीपेणः । अन्यदोयाने राज्ञा धारिणी सङ्गेिषु विनम्ता तिष्ठन्ती दृष्टा, अभ्युपपन्नः, बूती प्रेषिता, सा नेच्छति, पुनः २ प्रेषते, तवा तिरस्कारजमा मणिधातुरपि न लजले, | तदा तेन स मारिता, विभाषा, तसिन् विकाले खकायाभरणानि गृहीत्वा कौशाम्यां सार्थों मजति सबैकस वृदय पणिजः पार्थमाश्रिता, गता कौशाम्बी, | संयत्यः पृष्ट्वा राज्ञो यानशालायां स्थिताः तत्र गता, बन्वित्ता प्राविका प्रबजिता, त्या गोंधुनोत्पन्नः साधवो मा प्रविनमन्निति समापातं, पनात् ज्ञाते महत्चरिकया पृष्टः-सदावा कथितः यथा राष्ट्रवर्धनस्य भाषांई, संयतीमध्येऽसागारिक स्थापिता, प्रजनितवती रात्री, मा साधूनामुम्हो भूदिति नाममुद्रामाभरणानि चोरिक्षय राज्ञोजणे स्थापयित्वा प्रश्नमा तिष्ठति, अजितसेनेनाकाशतलगतेन मणीनां प्रभा दिल्या हटा, SEN, गृहीता, मनेन 80 ॥६९९॥ -%%% -%25 ~88~ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८७] भाष्यं [२०६...], प्रत सूत्रांक | अम्गमहिसीए दिन्नो अपुत्ताए, सो य पुत्तो, सा य संजतीहिं पुच्छिया भणइ-उद्दाणगं जायं तं मए विगिंचियं, खइयं | होहिति, ताहे अंतेउरणीइ अतीद य, अंतेउरियाहिं समं मित्तिया जाया, तस्स मणिप्पहोत्ति णामं कयं, सो राया मओ, मणिप्पभो राया जाओ, सो य तीए संजईए निरायं अणुरत्तो, सो य अवंतिवद्धणो पच्छायावेण भायावि मारिओ सावि देवीण जायत्ति भाउनेहेण अवंतिसेणस्स रज्जं दाऊण पबइओ, सो य मणिप्पहं कप्पागं मग्गइ, सो न देइ, ताहे सच-| वलेण कोसर्वि पहाविओ। ते य दोवि अणगारा परिकम्मे समत्ते एगो भणइ-जहा विणयवतीए इड्डी तहा ममवि होउ, णयरे भत्तं पञ्चक्खायं, बीओ धम्मजसो विभूसं नेच्छंतो कोसंबीए उज्जेणीए य अंतरा वच्छगातीरे पत्यकंदराए भत्तं पञ्चक्खायं । ताहे तेण अवंतिसेणेण कोसंबी रोहिया, तत्थ जणो अपणो अद्दण्णो, न कोइ धम्मघोसस्स समीवं अल्लियइ,x है सो य चिंतियमस्थमलभमाणो कालगओ, बारेण निप्फेडो न लब्भइ पागाररस उवरिएण अहिक्खित्तो । सा पवइय [सू.] दीप अनुक्रम [२६] 5 अप्रमाहिर अप्राय वचा, स च पुनः, सा च संयतीभिः पृष्टा भणति-गृतं जातं सम्ममा स्थप्रसिद्ध (विगष्ट !) भविष्यतीति, सदावापुरं गच्छत्यायाति च, अन्तःपुरिकाभिः समं मैत्री जाता, तस्य मणिप्रभ इति नाम कृत, स राजा सुतः, मणिप्रभो राजा जातः, सच तस्यां संयत्वां नितरामनुरक्तः, स चावन्तिवर्धनः पश्चातापेन भाताऽपि मारितः साऽपि देवी म प्राति ब्रानुनेहेनावन्तीपेणव राज्य दवा प्रवजितः, सच मणिप्रभं दण्डं मार्गवति, स म ददाति, तदा सर्वदलेन कौशाम्बी प्रधावितः । तौ च द्वावपि अनगारौ परिकर्मणि समाप्ते (अनशनोवती)एको भणति-वधा विनयवल्या कडिसथा ममापि भवतु, नगरे भक्तं प्रत्याश्यात, दितीयो धर्मशा विभूषामनिन्। कौशम्ब्या अविम्यानातरा बरसकातीरे पर्वतकन्दरायो भक्त प्रत्यास्यातवान् । ताई तेनावन्तीपेणेन कौशाम्बी रुवा, तत्र स्वयं जनः पीडितः, न कविवर्मयोपस्य समीपमागच्छति, स च चिन्तितमर्थमलभमानः कालगता द्वारेण निष्काशन न | लभ्यते (इति) प्राकारस्योपरिकया बहिः क्षिप्तः । सा प्रवजिता 4560-56- 0 ~89~ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [स्.-] दीप अनुक्रम [२६] आवश्यकहारिभद्रीया ॥७००॥ [भाग-३१] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १/४ ( मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन] [४] मूलं [स्] / [गाथा-] निर्बुक्तिः [ १२८७ ] भष्यं [२०६...], चिंतेई मा जणक्खओ होउत्ति रहस्तं भिंदामि, अंतेउरमइगया, मणिप्पहं ओसारेत्ता भणइ किं भाउगेण समं कलहेसि ?, सो भणइ कहन्ति, ताहे तं सर्व संबंधं अक्वायं, जइ न पत्तियसि तो मायरं पुच्छाहि, पुच्छर, तीए णायं अवस्सं रहसभेओ, कहियं जहावत्तं रवद्धणसंतगाणि आभरणगाणि नाममुद्दाइ दाइयाई, पत्तीओ भणइ-जह एत्ताहे ओसरामि तो ममं अयसो, अज्जा भणइ-अहं तं पडिबोहेमि, एवं होउत्ति, निग्गया, अवंतिसेणस्स निवेइयं पवइया दहुमिच्छइ, अइयया, पाए दहूण णाया अंगपाडिहारियाहिं, पायवडियाओ परन्नाओ, कहियं तस्स तब मायत्ति, सो य पायवडिओ परुन्नो, तस्सवि कहेइ-एस में भाया, दोवि चाहिँ मिलिया, अवरोप्परमवयासेऊणं परुण्णा, किंचि कालं कोसंबीए अच्छित्ता दोवि उज्जेणि पाविया, मायावि सह महारियाए पणीया, जाहे व बच्छयातीरे पवयं पत्ता, ताहे जे तंमि जणवए साहुणो ते पवए ओरुभंते चडते य दङ्ग पुच्छिया, ताहे ताओवि वंदिडं गयाओ, वितियदिवसे राया पहाविओ, चितिमा जनश्यो भूदिति रहस्यं भिनधि, अन्तः पुरमतिगता, मणिप्रभमपसार्य भगति किं भ्रात्रा समं कलहयसि ? स भगति कथमिति, तदा तं सर्व सम्बन्धमाख्यातवती यदि न प्रत्येषि तर्हि मातरं पृच्छ पृच्छति तथा ज्ञातं अवश्यं रसभेदः कथितं यथावृत्तं राष्ट्रवर्धनसत्कानि आभरणानि नाममुद्रादीनि दर्शितानि प्रत्यवितो भगति यद्यधुनापसरामि सहि मेऽयशः, आर्या भणति अहं तं प्रतिबोधयामि एवं भवस्थिति नियंता, अवन्तीषेणाय निवेदितं प्रमजिता द्रष्टुमिच्छति, अतिगता, पादी दृड्डा ज्ञाताऽन्तःपुरप्रतिहारिणीभिः पादपतिताः प्ररुदिताः कथितं तस्य तर मातेति स च पादपतितः प्ररुदितः, तस्यापि कथयति एप तव भ्राता द्वावपि वहिर्मिलितौ परस्परमा यि प्ररुदितौ काळं कौशाम्यानि प्राप्ती मातापि सह महसरिकया नीता यदा च वसकातीरे पर्वतं माता सदा ये तस्मिन् जनपदे साधवान् पर्वतावतरत आरोहत रट्टा पृष्टवती तदा ता अपि वन्दितं गताः, द्वितीयदिवसे राजा प्रस्थितः,. ~90~ ४ प्रतिक्र मणाध्य० योगसं० अज्ञातके ७ ॥७००॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२८७] भाष्यं २०६...], प्रत सूत्रांक (सू.] दीप अनुक्रम [२६] ताओ भणति-भक्तं पञ्चक्खायओ एरथं साहू अम्हे अच्छामो, दोवि रायाणो ठिया, दिवसे २ महिमं करेंति, कालगओ, एवं ते य गया रायाणो, एवं तस्स अनिच्छमाणस्सवि जाओ इयरस्स इच्छमाणस्सवि न जाओ पूयासकारो, जहा धम्मजसेण तहा काय। अण्णाययत्तिगयं । इयाणि अलोभेत्ति, लोभविवेगवाए जोगा संगहिया भवंति अलोभया तेण कायचा, कह ? तत्थोदाहरणमाह साएए पुंडरीए कंडरिए चेव देविजसभद्दा । सावस्थिअजियसेणे कित्तिमई खडगकुमारो ॥१२८८॥ जसभद्दे सिरिकता जयसंधी चेव कपणपाले य । नविही परिओसे दाणं पुच्छा य पब्बजा ॥ १२८९ ॥ सुटु वाइयं सुङ गाइयं सुङ नचियं साम सुंदरि!। अणुपालिय दीहराइयओ सुमिणते मा पमायए ॥१२९०॥ द्वारगाथात्रयम्, अस्य व्याख्या कथानकादयसेया, तवेद-सागेयं णयर, पुंडरिओ राया, कंडरिओ जुवराया, जुब-| रन्नो देवी जसभदा, तं पुंडरीओ चंकमंती दहण अज्झोववन्नो, नेच्छइ, तहेव जुवराया मारिओ, सावि सत्थेण समं पलाया, आहुणोववन्नगम्भा पत्ता य सावस्थि, तत्थ य सावस्थीए अजियसेणो आयरिओ, कित्सिमती मयहरिया, सा ला भणन्ति-प्रत्यारयातभकोऽत्र साधुः ततो पर्व विधामा हावपि राजानौ स्थिती, दिवसे २ महिमानं कुरुता, कालगतः, एवं ते राजानी च गताः। एवं तस्यानिच्छतोऽपि जात ऋद्धिसरकारः, इतरवेच्छतोऽपि न जातः पूजासत्कार, यथा धर्मयशसा तथा कर्तव्यं । महातकमिति गतं, इदानीं अलोम इति, लोभविवेकितया योगाः संगृहीता भवन्ति, भकोभता तेन कय्या, कथं?, तत्रोदाहरणमाह । साकेत नगर, पुण्डरीको राजा, कण्डरीको युवराजः, युवराजस्व देवी यशोभद्रा, तां चकमन्ती रष्ट्या पुण्डरीकोऽभ्युपपन्नः, नेच्छति, धैव युवरामो मारितः, साऽपि साधेन समं पलायिता, अधुनोषनगर्दा प्राप्ता च श्रावस्ती, चित्र चश्रावस्यामजितसेन आचार्यः, कीर्तिमतिमहतरिका, सा. ~91 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२९०] भाष्यं २०६...], आवश्यक- हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥७०१॥ 40-%C-COM तीए मूले तेणेव कमेण पचाया जहा धारिणी तहा विभासियबा, नवरं तीए दारओ न छडिओ खडगकुमारोत्ति से नाम||४ प्रतिककर्य, सोजोबणत्थो जाओ, चिंतेइ-पवजन तरामि काउं, मायरं आपुच्छइ-जामि, सा अणुसासई तहवि न ठाइ, सामणाध्य भणइ-तो खाइ मन्निमित्तं बारस वरिसाणि करेहि, भणइ-करेमि, पुन्नेसु आपुच्छइ, सा भणइ-मयहरियं आपुच्छामि, योगसं० तीसेवि बारस वरिसाणि, ताहे आयरियस्सवि वयणेण बारस, उवझायस्स बारस, एवं अडयालीसं बरिसाणि अच्छा । विओ तह विन ठाइ, विसजिओ, पच्छा मायाए भण्णइ-मा जहिं वा तहिं वा बच्चाह, महल्लपिया तुज्य पुंडरीओ राया, इमा ते पितिसतिया मुद्दिया कंबलरयणं च मए नितीएनीणीयं एयाणि गहाय बच्चाहित्ति, गओणयर, रण्णो जाण-1x सालाए आवासिओ काले रायाण पेच्छिहामित्ति, अभंतरपरिसाए पेच्छणयं पेच्छइ, सा नट्टिया सवरतिं नच्चिऊण पभायकाले निदाइया, ताहे सा धोरिगिणी चिंतेइ-तोसिया एरिसा बहुगं च लद्धं जइ एत्थ वियदृइ तो धरिसियामोत्ति, ताहे इमं गीतियं पगाइया-'मुहू गाइयं सुहू नश्चियं सु वाइयं साम सुंदरि। अणुपालिय दीहराइयओ सुमिणते मा पमायए ॥१॥ तस्या मूले तेनैव क्रमेण मनजिता यथा धारिणी तथा विभाषितज्या, नवरं तया दारको न त्यक्तः शुलककुमार इति तस्य नाम कृतं, सबीवनस्थो जाता, चिन्तयति-प्रनग्यां न शकोमिक, मातरमापृच्छते-यामि, सा अनुशास्ति तथापि न लिएति, सा भणति-तदा मनिमित्त द्वादशवर्षाणि कुरु, भणति-करोमि, पूर्णेषु पृच्छते, सा भणति-महत्तरिकामा, तथा अपि द्वादश वर्षाणि, तत प्राचार्य स्थापि वचनेन द्वादश उपाध्यायस्य द्वादश, एचमष्टचत्वारिंशत् वर्षाणि स्थापितस्तथापि न तिष्ठति, विसष्टः, पवाद् मात्रा भण्यते-मा यत्र वा तत्र वा बाजीः, पितृम्परराव पुण्डरीको राजा, इयं च ते पितृसरका मुद्रिका ७०१॥ कम्बलरखं मया निर्गच्छन्त्याऽऽनीत, एते गृहीत्वा मज, गतो नगर्न, राज्ञो यानशालायामुषितः कल्ये राजानं प्रेसिष्य इति, अभ्यन्तस्पर्षदि प्रेक्षणकं प्रेक्षते, सा नही सर्वरान नर्तित्वा प्रभातकाले निद्राषिता, तदा सा नर्सकी चिन्तयति-तोषिता पर्पन बहुच लब्धं ययधुना प्रमावति तर्हि अपभ्राजिताः स इति, तदेमा गीतिका प्रगतिवता-सुगात मनातत सुवादित श्यामाया सुन्दर अनुपात दाधरात्र खझान्त माप्रमावाः॥१॥ दीप अनुक्रम [२६] ~92 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२९०] भाष्यं २०६...], प्रत 1-987 सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [२६] इयं निगदसिद्धैव, एरवंतरे खुडुएण कंबलरयणं छूढ़, जसभद्देण जुवराइणा कुंडलं सयसहस्समोलं, सिरिकताए सस्थवाहिणीए हारो सयसहस्समोलो, जयसंधिणा अमच्चेण कडगो सयसहस्समोल्लो, कण्णवालो मिठो तेण अंकुसो सयसहस्सो, कंबलं कुंडल ( काडय) हारेगावलि अंकुसोत्ति एयाइ सयसहस्समोल्लाइ, जो य फिर तत्थ तूसाइ वा देह वा सो सरो। &ालिखिजइ, जह जाणइ तो तुडो अहन याणइ तो दंडो तेसिंति सधे लिहिया, पभाए सबे सदाविया, पुछिया, खुङगो! तम्भे कीस दिन्नं ?, सो जहा पियामारिओ तं सर्व परिकहेइ जाव न समत्थो संजममणुपालेड, तुम्भ मूलमागओरज अहि-12 लसामित्ति, सोभणइ-देमि, सो खुडगो भणइ-अलाहि,सुमिर्णतयं वट्टइ, मरिजा, पुवकओवि संजमो नासिहित्ति, जुवराया? भणइ-तुम मारेउं मग्गामि थेरो राया रजं न देइत्ति, सोवि दिजंतं नेच्छइ, सत्थवाहभज्जा भणइ-वारस वरिसाणि पउत्थस्स, पहे वट्टइ, अन्नं पवेसेमि वीमंसा वट्टइ, अमच्चो-अण्णरायाणएहिं समं घडामि, पच्चंतरायाणो हत्थिमेंठं भणंति-हत्थिं आणेहि अनान्तरे छलककुमारेण कम्बकरतं क्षिप्त, यशोभAण युवराजेन कुण्डलं शतसहसमूल्यं, श्रीकान्तया सार्थवामा हारा मातसहसमूल्यः, जयसम्धिना-1 मात्येन कटक पातसहसमूल्यं, कर्णपालो मेण्टमोनाकुशः शतसहस्त्रमूल्यः, कम्बलं कुण्डलं (कटक) हार एकावलिका भश इत्येतानि शतसहसमूल्यानि, यस |किल तन्त्र तुषति पवाति पास सों लिख्यते, यदि जानाति तदा तुरः अथ न जानाति तदा दण्टस्तेषामिति स लिरिषताः, प्रभाते सर्वे शब्दिताः पृष्टाः। शुक! या कि , सपथा पिता मारितः तत् सर्व परिकापति थापा समर्थः संयममनुपालयितुं, थुप्मा पाश्रमागतः राज्यमभिलपामीति, स भणति-ददामि, स धलको भणति भल, समान्तो वसते, त्रिवे, पूर्वकृतोऽपि संयमो नश्वेदिति, युवराजो भणति-यो मारयितुं मुगये स्थविरो राजा राज्य ददातीति सोऽपि दीयमानं नेति, सार्यवाहभार्या भणति-द्वादश वर्षाणि प्रोपित्तसा, पथि पर्वते, अन्धं प्रवेशयामीति विमोऽभून, अमाव:-TV अन्यराजभिः समं मन्प्रयामि, मसान्तराजानो हसिमेण्ड भगन्ति-हस्तिनमानय ~93~ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२९०] भाष्यं [२०६...], प्रत ४ प्रतिकणाध्य. योगर्स० तितिक्षा सत्रांक दीप अनुक्रम [२६] आवश्यक- मारेह वत्ति, भणंति ते तहा करेहित्ति भणिया नेच्छंति, खुड्डगकुमारस्स मग्गेण लग्गा पवइया, सवेहिं लोभो परिचत्तो, हारिभ- एवं अलोभया कायबा, अलोभेत्ति गयं ८ । इयाणिं तितिक्खत्ति दारं, तितिक्खा कायबा-परीसहोवसग्गाणं अतिसङ्ग्म द्रीया भिणियं होइ, तत्रोदाहरणगाथाद्वयम्१७०२॥ इंदपुर इंददत्ते पाबीस सुया सुरिंदत्ते य । महुराए जियस सयंवरो निब्युईए उ ॥१२९१ ॥ अग्गियए पव्वयए बहुली तह सागरे य बोद्धव्वे । एगदिवसेण जाया तस्थेव सुरिंददत्ते य॥ १२९२ ॥ अस्य व्याख्या कथानकादवसेया, तञ्चेदम्-इंदपुरं णयर, इंददत्तो राया, तस्स इट्ठाण घराण देवीणं बावीसं पुत्ता, | अण्णे भणंति-एगाए देवीए, ते सवे रण्णो पाणसमा, अहेगा धूया अमच्चस्स, सा जं परं परिणतेण दिवा, सा अण्णया। कयाइ पहाया समाणी अच्छइ, ताहे रायाए दिहा, कस्सेसा ?, तेहिं भणियं-तुम्भ देवी, ताहे सो ताए सम एक रतिं वुच्छो, सा य रितुण्हाया, तीसे गम्भो लग्गो, सा अमच्चेण भणिएलिया-जधा तुम्भ गम्भो लग्गइ तया ममं साहेजाहि, मारय वेति, भगन्ति ते तथा कुर्विति, भणिता नेच्छन्ति, क्षुल्लककुमारस मार्गेण वनाः भवजिताः, सलोभा परित्यकः, एवमलोभता कर्तव्या, अलोभ इति गतं । इदानी तितिक्षेतिद्वार, तितिक्षा कर्तव्या-परीषहोपसर्गाणां अधिसहनं भणितं भवति । इन्द्रपुर नगरं, इन्द्रदत्तो राजा, तखेधानां बराणां देवीनां वाविंशतिः पुत्राः, अम्बे भणन्ति-एकस्या देव्याः, ते सर्व राज्ञः प्राणसमाः, अथैकाठमात्यस दुहिता, सा यत्परं परिणपता रष्टा, सा अम्पदा ऋतुस्वाता ससी तिष्ठति, तदा राज्ञा दृष्टा, कस्यैषा ?, तैर्भणितं-बुष्मा देवी, तदा स तया सममेकां रात्रिमुषितः, सा च तुलाता, तस्यां गर्भो लमः, साऽमात्यैन भणितपूना-पदा तब गर्भो भवेतदा माझं कथयेः,. ॥७०२॥ ~94 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२९२] भाष्यं [२०६...], CAX प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [२६] ताए सो दिवसो सिहो मुहुत्तो वेला जंच राएण उल्लवियं साइतकारो तेण ते पत्तए लिहियं, सो य सारवेइ, नवण्डै | मासाणं दारओ जाओ, तस्स दासचेडाणि तद्दिवसे जायाणि, तं०-अग्गियओ पवयओ बहुलिगो सागरगो, ताणि 51 सहजायाणि, तेण कलायरियस्स उवणीओ, तेण लेहाइयाओ बावत्तरि कलाओ गहियाओ, जाहे साओ गाहेइ आयरिओ ताहे ताणि कुटुंति विकटुंति य, पुषपरिचएण ताणि रोडंति सोवि ताणि न गणेइ, गहियाओ कलाओ, ते अन्ने गाहिजंति बावीसपि कुमारा, जस्स अप्पिजति आयरियस्स तं पिट्टति मत्थएहि य हणंति, अह उवज्झाओ तें पिट्टेड अपढ़ते ताहे साहेति माइमिस्सिगाणं, ताहे ताओ भणंति-किं सुलभाणि पुत्तजम्माणि ?, ताहे न सिक्खियाई। इओ य महुराए जियसनू राया, तस्स सुया निधुई नाम कण्णया, सा अलंकिया रणो उवणीया, राया भणइ-जो रोयह सो ते भत्ता, ताहे ताए णार्य-जो सूरो वीरो विकतो सो पुण रजं दिज्जा, ताहे सा य बलं वाहणं गहाय गया इंदपुरं| णयर, रायस्स बहवे पुचा सुएलिआ, दूओ पयट्टो, ताहे आवाहिया सबे रायाणो, ताहे तेण रायाणएण सुर्य तया स दिवसो मुहतो वेला यच राजोलतं सत्पकारः (तत् सर्वमुक्क) तेन तत् पत्रके लिखित, स च संरक्षति, नवसु मासेषु दारको जातः, तस दासदासहिपसे जाताः, तथा अग्निः पर्वतका पालिका सागरा, ते सहजाता, तेन फलापार्यायोपनीता, तेन लेखादिका दासप्ततिः कका गृधीता, मैयदा ता मादयस्थाचालान् तदा ते हयन्ति विकर्षयन्ति च, पूर्वपरिचयेन ते लुठन्ति, सोऽपि तान गणयति, गृहीताः कला, तेऽम्ये प्रान्ते द्वाविंशतिरपि कुमारा, वी मध्यन्ते भाचार्याय तं पिहयन्ति मस्तकेनपान्ति, अधोपाध्यायस्वान् पियति अपठतः तदाकथयन्ति मातृप्रभृतीना, तदा वा भणन्ति-कि सुलभानि पुत्रजम्मानि, तदा(त) मशिक्षिताः । इतनमधरायां जितशर राजा. तसा सता लितिनाम कन्या, सावता राक्ष अपनीता, राजा भणति-यो रोचते | स ते भर्ता, तदा तया शातं-यः शूरो वीरो विक्रान्तः स पुना राज्यं दद्यात, तदा सा बलं वाहनं च गृहीत्वा गतेबपुर नगर, राहो बहवः सुवाः श्रुतपूर्वाः, से इतःप्रवर्तितः, तदाऽऽहता असिका राजानः, तदा तेन राज्ञा श्रुतं. AM ~95 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.-] दीप अनुक्रम [२६] आवश्यकहारिभद्रीया ॥७०३ ॥ [भाग-३१] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १/४ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन [४], मूलं [स्] / [ गाथा-], निर्बुक्तिः [१२९२] आष्यं [ २०६...]. जहा सा एइ, हडतुडो, उस्तियपडागं णयरं कथं, रंगो कओ, तत्थ चर्क, एन्थ एर्गमि अक्ले अड चक्काणि, तेसिं पुरओ घीया ठविया, सा पुण विधियवा, राया सन्नद्धो निग्गओ सह पुत्तेहिं, ताहे सा कण्णा सवालंकारविहूसिया एगंमि पासे अच्छइ, सो रंगो रायाणो य ते य डंडभडभोइया जारिसो दोवतीए, तत्थ रण्णो जेडुपुत्तो सिरिमाली कुमारो, एसा दारिया रजं च भोत्सवं, सो तुट्ठो, अहं नूणं अण्णेहिंतो राईहिं अम्महिओ, ताहे सो भणिओ-बिंधहत्ति, ताहे सो अकयकरणो तस्स समूहस्स मज्झे तं धणुं घेत्तृण चैव न चाएइ, किवि अणेण गहियं, तेण जत्तो वञ्चइ तत्तो वच्चइति कंड मुकं, एवं कस्सइ एवं अरयं वोलियं कस्स दो तिणि अण्णेसिं बाहिरेण चैव निंति, तेणवि अमचेण सो नत्तृगो पसाहिडं तद्दिवसमाणीओ तत्थऽच्छड, ताहे सो राया ओहयमणसंकल्पो करयलपरहस्थमुहो- अहो अहं पुत्तेहिं लोगमज्झे विगोविओत्ति अच्छइ, ताहे सो अमचो पुच्छइ-किं तुम्भे देवाणुपिया ओहय जाव शियायह ?, ताहे सो भणइ १ यथा सैति ष्टष्टः च्छ्रतपताकं नगरं कृतं रङ्गः कृतः, तत्र चत्रं, अत्रैकस्मिन् चक्रेऽष्टचाणि तेषां पुरतः पुतलिका स्थापिता, सा पुनर्वेद्या, राजा सो निर्गतः सह पुत्रैः, तदा सा कन्या सर्वोङ्कारविभूषिता एकस्मिन् पार्थे तिष्ठति स रङ्गः ते राजानो दण्डिकभटभोजिका याशो द्रौपद्याः, तत्र राज्ञो ज्येष्ठः पुत्रः श्रीमाली कुमारः, एषा दारिका राज्यं च भोक्तव्यं स तुष्टः, अहं नूनमन्यराजभ्योऽभ्यधिकः, तदा स भणितः विध्वेति तदा सोऽकृतकर तस्य समूहस्य मध्ये तद्धनुर्महीतुमेव न शक्नोति कथमप्यनेन गृहीतं तेन यतो मजति ततो व्रजविति काण्डं गुणं, एवं कखचिदेकमरकं व्यतिक्रान्तं कखचि श्रीणि अन्येषां बहिरेव निर्गच्छति, तेनाप्यमात्येन स नहा प्रसाध्य तरिसमानीतस्तत्र तिष्ठति तदा स राजोपदतमनः संकल्पः करतलस्थापितमुखः अहो अहं पुत्रैकमध्ये विगोषित इति तिष्ठति तदा सोऽमात्यः पृच्छति किं पूर्व देवानुप्रिया उपहृतमनः संकल्पा यावत् ध्यायत ?, तदा स भणति ~96~ ४ प्रतिक्रमणाच्य● योगसं० ९ तितिक्षाय ॥७०३॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२९२] भाष्यं २०६...], HERA प्रत सूत्रांक [सू.] एएहिं अहं लहुईकओ, ताहे भणइ-अस्थि पुत्तो तुभ अण्णोवि, कहिं , सुरिंददत्तो नाम कुमारो, तं सोवि ता विण्णासउ मे, ताहे तं राया पुच्छह-कओ मम एस पुत्तो ?, ताहे ताणि सिट्टाणि रहस्साणि, ताहे राया तुहो भणइ-सेयं तव | पुत्ता ! एए अह चके भेत्तूण रज्जसोक्खं नियुत्तिदारियं पावित्तए, ताहे सो कुमारो ठाणं आलीढं ठाइऊण गिण्हइ धणू, लक्खाभिमुहं सरं संधेइ, ताणि चेडरूवाणि ते य कुमारा सबओ रोडंति, अण्णे य दोषिण पुरिसा असिव्यग्रहस्तौ, ताहे सो पणाम रण्णो उवज्झायस्स य करेइ, सोवि से उवम्झाओ भयं दावेइ-एए दोषिण पुरिसा जइ फिडिसि सीसं ते फिट्ट (हिस्सति) तेसिं दोण्हवि पुरिसाण ते य चत्तारि ते य बावीसं अगणंतो ताण अहण्हं रहचक्काणं छिदं जाणिऊण एगमि छिड्डे नाऊण | अप्फिडियाए दिहीए तमि लक्खे तेणं अण्णमि य मणं अकुणमाणेण सा धीतीगा अञ्छिमि विद्धा, तत्थ उकुडिसीहनायसाहुकारो दिण्णो, एसा दयतितिक्खा, एसा चेव विभासा भावे, उपसंहारो जहा कुमारो तहा साहू जहा ते चत्तारि तहा एतैरह लपूलतः, तथा भणति-अस्ति पुनो युष्माकमन्योऽपि,क?, सुरेन्ददत्तो नाम कुमारः, तत् सोऽपि तावत् परीक्ष्यतां मम, सदा त राजा पृच्छतिकुतो मम पुत्र एषः, तदा तानि शिष्टानि रहस्यानि, तदा राजा तुष्टो भणति-श्रेयसव पुत्र! एतानि अष्ट चक्र:णि भिवा राज्यसौरुवं निवृति दारिकां च प्राप्तुं, तदास कुमारः स्थानमाकीटं स्थित्वा गृहाति धनुः, सल्याभिमुखं शरं संदधाति, ते चेटास्ते च कुमाराः सर्वतो बोले कुर्वन्ति, सम्वौपदी पुरुषी, तदा स प्रणामं राश उपाध्यायस्य च करोति, सोऽपि तस्योपाध्यायो भयं दर्शयति-पतौ द्वौ पुरुषौ यदि स्खालसि शीर्ष ते पातयिष्यत्तः, तौ द्वावपि पुरुषौ तांत्र चतुरस्तांश्च द्वाविंशति वगणयन् तेषामधामो रथचकागो हिन शास्वैकमिभिने ज्ञात्वाऽपतितया या तस्मालक्ष्वात् अन्यस्मिन् मनोऽकुर्वता तेन सा पुतलिकाऽक्षिण विद्धा, तनोत्कृष्टसिंहनादपुरस्साधुकारो इचः, एषा व्यतितिक्षा, एषैव विभाषा भावे, उपसंहारो यथा कुमारस्तथा साधुः यथा ते घरवारलथा दीप अनुक्रम [२६] SCRACK %25% ~97 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२९२] भाष्यं [२०६...], आवश्यकहारिभद्रीया ४प्रतिक्रमणाध्य. योगर्स प्रत सूत्रांक ॥७०४॥ १.आर्ज कार्षि 46456 490425% चत्तारि कसाया जहा ते बावीस कुमारा तहा बावीसं परीसहा जहा ते दो मणूसा तहा रागद्दोसा जहा घितिगा विधेयषा तहा आराहणा जहा निवृत्तीदारिया तहा सिद्धी । तितिक्खत्ति गयं ९, इयाणि अज्जवत्ति, अज्जवं नाम उअयत्तणं, तत्थुदाहरणगाहा चंपाए कोसियजो अंगरिसी सहए य आणते । पंधग जोइजसाविय अभक्खाणे य संबोही ॥१२९३॥ इमीए वक्खाणं-पाए कोसिअजो नाम उवज्झाओ, तस्स दो सीसा-अंगरिसी रुद्दओ य, अंगओ भद्दओ, तेण से अंगरिसी नाम कयं, रुद्दओ सो गंठिछेदओ, ते दोवि तेण उवज्झाएण दारुगाणं पट्टविया, अंगरिसी अडवीओ |भारं गहाय पडिएति, रुद्दओ दिवसे रमित्ता वियाले संभरिय ताहे पहाविओ अडविं, तं च पेच्छाइ दारुगभारएण एन्तर्ग, चिंतेइ य-निन्दोमि सपझाएणंति, इओ य जोइजसा नाम बच्छवाली पुत्तस्स पंथगस्स भत्र्त नेऊण दारुगभार-1 एण एइ, रुद्दएण सा एगाए खड्डाए मारिया, तं दारुगभारं गहाय अण्णेण मग्गेण पुरओ आगओ उवज्झायस्स हत्थे चरवारः कषाया यथा ते द्वाविंशतिः कुमाराशया द्वाविंशतिः परीषदा यथा ती द्वौ पुरुषी तथा रागद्वेषौ यथा पुतलिका पेडया तथाऽऽराधना यथा | निभृतिवारिका तथा सिद्धिः । तितिक्षेति गतं, इदानीमार्णवमिति, मार्जवं नाम ऋजुत्वं, तत्रोदाहरणयाथा, अस्खा व्याख्यानं-चम्पायां कोशिकाओं नामोपा वायः, तस्प वी शिष्यो-आर्षिः रुजल, अङ्गको भड़कलेन तखाङ्गार्षिः नाम कृतं, रुजः स प्रन्थिपएका, तौ द्वावपि तेनोपाध्यायेन दारकेभ्यः प्रस्थापिती, | अकर्षिरटवीतो भारं गृहीरचा प्रस्येति, रुद्रको दिवसे या विकाले स्मृतं बड़ा तदा प्रधावितोऽठवीं, संप प्रेक्षते दारुकभारेणायान्तं, चितपति च निकाशितोऽसि उपाध्यायेनेति, इसा क्योतिषशा नाम यसपालिका पुत्रस्य पन्यास भनीरवा दायभारकेणाबाति, सा बनकेणेकस्यो गर्माया मारिता, तं दारुक|भारं गृहीत्वाऽन्येच भार्गेण पुरत भागत उपाध्यायस्य इसे NAGe+ दीप अनुक्रम [२६] ७०४॥ ~98~ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२९३] भाष्यं [२०६...], प्रत सूत्रांक [सू.] धुणमाणो कहेह-जहा णेण तुझ सुंदरसीसेण जोइजसा मारिया, रमणविभासा, सो आगओ, धाडिओ वणसंडे चिंतेइ-सुहझवसाणेण जाती सरिया संजमो केवलनाणं देवा महिम करेंति, देवेहिं कहियं, जहा एएण अभक्खार्ण दिन्नं, रुद्दगो लोगेण | हीलिज्जइ, सो चिंतेइ-सच्च मए अम्भक्खाणं दिन्नं, सो चिंतेंतो संबुद्धो पत्तेयबुद्धो, इयरो बंभणो बंभणी य दोवि पवइयाणि, उत्पण्णणाणाणि सिद्धाणि पत्तारिवि. एवं काय वा न काय वेति १० । अज्जवत्ति गये, इयाणि सुइत्ति, सुई। नाम सच्चं, सच्चं च संजमो, सो चेव सोय, सत्यं प्रति योगाः सहीता भवन्ति, तत्रोदाहरणगाथासोरिअ मुरंपरेवि अ सिट्ठी अ धणंजए सुभद्दा य । वीरे अ धम्मघोसे धम्मजसेऽसोगपुच्छा य ॥१२९४ ॥ ... सोरियपुरं णयरं, तब सुरवरो जक्खो, तत्थ सेट्ठी धणंजओ नाम, तस्स भज्जा सुभद्दा, तेहिं सुरवरो नमंसिओ, पुत्तकामेहि उवाइयं सुरवरस्स कयं-जइ पुत्तो जायइ तो महिससएणं जण्ण करेमि, ताणं संपत्ती जाया, ताणि संबुझेहिन्ति सामी समोसदो, सेट्टी निग्गओ, संबुद्धो, अणुषयाणि गिण्हामित्ति जइ जक्खो अणुजाणइ, सोवि जक्खो उबसामिओ, । रक्त कथयति यथाऽनेन तव सुन्दर शिष्येण ज्योतिर्यशा मारिता, रमणविभाषा, व भागतः, निर्धाढितो पनपने चिन्तयनि-शुभाध्यवसानेन जातिः स्मृता संवमः केवलशान महिमानं देवाः कुर्वन्ति, देवैः कधितं यधतेनाम्याख्यान दचं, नको डोकेन दीयते, स चिन्तयति-सवं मयाऽभ्यालयाने दत्तं, सचिन्तयन् संयुद्धः प्रत्येकबुद्धः इतरो मानणो माहाणी चढे अपि प्रमजिते, उत्पाज्ञानाभस्वारोऽपि सिद्धाः । एवं कम्यं वा न कर्तग्यं वेति । भावमिति गतं, इदानीं सुपिरिति, पिनाम सय, सर्वच संयमः स एवं शौचं, शौर्यपुर नगर, तत्र सुरवरी पक्षा, तत्र श्रेष्ठी धनजयो नाम, तस्य भायो सुभदा, ताभ्यां सुरवसे नमरकता, पुत्रकामाभ्यामपयाचितं पश्वर कृतं-पवि पत्रो भविष्यति त महिषशन यचं करिष्यामि, सयो। संपत्तिांता, सानि संभोसन्ते इति स्वामी समवता श्रेष्ठी निर्माता संखः, अनुनतानि महामीति यदि यक्षोऽनुजानीते, सोऽपि यक्ष पशाश्ता. दीप अनुक्रम [२६] ~99~ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२९४] भाष्यं [२०६...], प्रत ४ प्रतिकामणाध्य योग १३ शुचौ धनञ्जयो नारदश्च सूत्रांक श्यक- अण्णे भणंति-वएहिं सैण्णिहिएहिं मग्गिओ, दयाए न देइ, नियसरीरसयखंडपवजणेण कतिवयखंडेसु कएसु सेट्ठी चिंतेइहारिभ-८ अहोऽहं धण्णो ! जेण इमाए वेयणाए पाणिणो ण जोइयत्ति, सत्तं परिक्खिऊण सुरवरो सर्य चेव पडिबुद्धो, पिडमया वा द्रीया कया, एष देशशुचिः श्रावकत्वं, सर्वशुची सामिस्स दो सीसा-धम्मघोसो धम्मजसो य, एगस्स असोगवरपायवस्स हेडा, गुणेति, ते पुषण्हे ठिया अवरण्हेवि छाया ण परावत्तइ, एगो भणइ-तुझ सिद्धी, बीओ भणइ-तुझ लजी, एगो काइग-18 ॥७०५॥ भूमीए गओ, पितिओवि तहेव, नार्य जहा एगस्सवि न होइ एस लद्धी, पुच्छिओ सामी-कहेइ तस्स उप्पत्ती सोरियसमुद्दविजए जन्नजसे चेव जन्नदत्ते य । सोमित्ता सोमजसा उंछविही नारदुप्पत्ती ॥१२९५ ॥ अणुकंपा वेयड्डो मणिकंचण वासुदेव पुच्छा य । सीमधरजुगवाह जुर्गधरे व महवाहू ॥१२९६ ॥ गाथा द्वितयम्, अस्य व्याख्या-सोरियपुरे समुद्दविजओ जया राया आसि तया अण्णजसो तावसो आसी, तस्स भजा | सोमित्ता, तीसे पुत्तो जन्नदत्तो, सोमजसा मुण्हा, ताण पुत्तो नारदो, ताणि उछवित्तीणि, एगदिवसं जेमेति एगदिवस अन्ये भणन्ति तेषु सचिहितेषु मार्गितः, दपया न ददाति, निजशरीरशतषपदैः प्रपथमाने कतिपयेषु खपदेषु कृतेषु श्रेष्ठी चिन्तयति-भदो माह धन्यो येन मयाऽनया वेदनया प्राणिनी नबोभिता इति, सर्व परीक्ष्य सुरवरः स्वयमेव प्रतिबुबा, पिटमया या कृताः । स्वामिनो द्वी शिष्यी-धर्मघोषी धर्मयशाच, एकस्य वराशोकपादपस्थापना गुणयन्ती तो पूर्वाद्धे स्थिती अपरावपि छाया न परावर्तते, एको भणति-तव सिद्धिः, द्वितीयो भणति-तव लब्धिः, एकः कायिकी भूमि गतः, द्वितीयोऽपि तपैव, शातं यथा नैकस्याप्येषा लब्धिरस्ति, पृष्टः खामी कथयति तस्योत्पति । शौर्यपुरे नगरे समुद्र विजयो बदा राजाऽऽसीत् तदा यज्ञयशातापस माखीद, तख भार्या सौमित्री मासीत्तस्याः पुत्रो यज्ञदत्तः, सोमयशाः शुषा, सयो। पुत्रो नारद, सानुमती, एक|सिन् दिवसे जेमत एकस्मिन् । २ गइपहि दीप अनुक्रम [२६] |७०५|| 2-04 ~100 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२९६] भाष्यं [२०६...], । प्रत सूत्रांक उवासं करेंति, ताणि तं नारदं असोगरुक्खहेहे पुत्वण्हे ठविऊण दिवस उंछंति, इओ य वेयड्ढाए वेसमणकाइया देवा जंभगा तेणं २ वीतीवयंति, पेच्छति दारगं, ओहिणा आभोएंति, सो ताणं देवनिकायाओ चुओ तो तं अणुकंपाए छाहिं धंति-दुक्खं उण्हे अच्छइत्ति, पडिनियत्तेहिं नीसीहिओ सिक्खाविओ य-प्रद्युम्नवत् , केइ भणंति-एसा असोगपुच्छा, नारदुप्पत्ती य, सो उम्मुकबालभावो तेहिं देवेहिं पुषभवपिययाए विजाभएहि पन्नत्तिमादियाओ सिक्खाविओ, सो मणिपाउआहिं कंचणकुंडियाए आगासेण हिंडइ, अण्णया बारवइमागओ, वासुदेवेण पुच्छिओ-किं शौचं इति ?, सो | ण तरति णिवेढेऊ, वक्खेवो कओ, अण्णाए कहाए उद्देत्ता पुवधिदेहे सीमंधरसामि जुगवाहवासुदेवो पुच्छइ-किं शौचं ?, तित्थगरो भणइ-सचे सोयंति, तेण एगेण पएण सच्चं पजाएहि ओवहारियं, पुणो अवरविदेहं गओ, जुगंधरतित्थगरं महाबाहू नाम वासुदेवो पुच्छड तं चेव, तस्सवि सक्खं उवगयं, पच्छा बारवइमागओ वासुदेवं भणइ-किं ते तया पुछियं, [सू.] CCEShe दीप अनुक्रम [२६] दिवसे उपवासं कुरुतः, तौ तं नारदमशोकवृक्षस्थावस्तात् पूर्वाहे स्थापयित्वोच्छतः, इतन्त्र वैताब्ये वैश्रमणकाविका देवा जृम्भकास्तेनावना व्यति| बजन्ति, प्रेक्षन्ते दारकं, अवधिनाऽऽभोगवन्ति, स तेषां देवनिकायायुतः, ततस्तदनुकम्पया तो छायां सम्भयन्ति-दुःखमुष्णे तिष्ठतीति, प्रतिनिवृत्तैः निशीभ्यः (गुप्ता विद्याः) शिक्षितः केचिद भणन्ति-एषाअशोकच्छा नारदोत्पत्तित्रा, सवन्मुक्तबालभावतः पूर्वभवप्रियतया विद्याजुम्भकैः प्रज्ञप्त्यादिकाः | शिक्षितः, स मणिपादुकाभ्यां काञ्चनकुण्टिकयाऽऽकाशेन हिण्डते, मन्पदा द्वारवतीमागतो, वासुदेवेन पृष्टः-सन शक्रोत्युत्तरं दातुं, उरक्षेपः कृतः, अन्यथा कथयोत्थाय पूर्वविदेदेषु सीमन्धरस्वामिनं युगबाहुचासुदेवः पृच्छति- तीर्थकरो भणति-सल्यं शौचमिति, तेनैकेन पदेन सय पर्यायैरवधारितं, पुनरपरषिदेदेषु घुगन्धरतीर्थकर महाबाहुन म वासुदेवः पृचति तदेव, तस्मादपि साक्षादुपगतं, पश्चात् द्वारवतीमागतो वासुदेवं भणति-किं त्वया तदा पृष्टी, 2-424 ~101 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [स्.-] दीप अनुक्रम [२६] आवश्यक हारिभद्वीया ॥७०६ ॥ [भाग-३१] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १/४ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन] [४] मूलं [.] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १२९६ ] भष्यं [२०६...], ताहे सो तं भणइ सोयंति, भणइ सञ्चंति, पुच्छिओ किं सच्चं ?, पुणो ओहासइ, वासुदेवेण भणियं जहिं ते एयं पुच्छियं तहिं एयंपि पुच्छियं होतंति खिंसिओ, तेण भणियं-सचं भट्टारओ न पुच्छिओ, विचितेउमारद्धो, जाई सरिया, पच्छा अतीव सोयवंतो पत्तेयबुद्धो जाओ, पढममज्झयणं सो चैव वदइ, एवं सोएण जोगा समाहिया भवंति ११ । सोएत्ति गयं, इयाणिं सम्मद्दिहित्ति, संमहंसणविसुद्ध एवि किल योगाः सङ्गृह्यन्ते, तस्थ उदाहरणगाहा - सायमि महाबल विमलपड़े चैव चित्तकम्मे य। निष्पत्ति छट्ठमासे भुमीकम्मस्स करणं च ।। १२९७ ।। अस्या व्याख्या कथानकादवसेया, साएए महबलो राया, अत्थाणीए दूओ पुच्छिओ-किं नत्थि मम जं अनेसिं रायाणं अस्थित्ति १, चित्तसभत्ति, कारिया, तत्थ दोवि चित्तकरावप्रतिमौ विख्यातौ विमलः प्रभाकरश्च तेसिं अद्धद्वेणं अप्पिया, जवणियंतरिया चित्ते, एगेण निम्मवियं, एगेण भूमी कया, राया तस्स तुडो, पूइयो य पुच्छिओ य, प्रभाकरो पुच्छिओ भणइ-भूमी कया, न ताव चित्तेमित्ति, राया भणइ-केरिसया भूमी कयति, जबणिया अवणीया, इयरं चित्त कम् [5] सदा स तं भणति शीघ्रमिति, भणति सत्यमिति पृष्टः किं सत्यं १, पुनरपभ्राजते, वासुदेवेन भणितं यत्रतत्पृष्टं तत्रैतदपि पृश्मभविष्यदिति मितिः तेन भणितं सत्यं भट्टारको न पृष्टः, विचिन्तयितुमारब्धः, जातिः स्मृता पश्चादतीय शौचवान् प्रत्येकयुद्धो जातः, प्रथममध्ययनं स एव (देव) वदति । एवं शौचेन योगाः संगृहीता भवन्ति । शौचमिति गतं इदानीं सम्यग्दष्टिरिति सम्यग्दर्शनविशुद्ध्यापि तत्रोदाहरणगाथा | साकेते महाबली राजा, आस्थाम्यां दूतः पृष्टः किं नास्ति मम यदन्येषां राज्ञां अस्ति ? चिनसमेति कारिता, तत्र द्वौ चित्रकरी, ताभ्यामर्थामध अर्पितवान् यवनिकान्तरितौ चित्रयतः एकेन निर्मितं, एकेन भूमी कृता, राजा तने तुष्टः पूजित पृथ्य प्रभाकरः पृष्टो भणति भूमी कृता न तावत् विश्रयामीति, राजा भगति कीदृशी भूमिः कृतेति यवनिका उपनीता, इतर चित्रकर्म ~102~ ४ प्रतिक्र मणाध्य० योगसं० १२ सम्यदृष्टम भासोदा० ॥७०६ ॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२९७] भाष्यं २०६...], प्रत सूत्रांक (सू.] निम्मलयरं दीसइ, राया कुविओ, विनविओ-पभा एस्थ संकंतत्ति, ते छाइय, नवरं कुटुं, तुडेण एवं चेव अच्छउत्ति भणिओ, एवं संमत्तं विसुद्धं कायवं, तेनैव योगाः सनहीता भवन्ति १२ । सम्यग्दृष्टिरिति गते, इयाणिं समाहित्ति समाधानं, तत्थोदाहरणगाहाणयरं सुदंसणपुरं सुसुणाए सुजस सुन्वए चेव । पध्वज सिक्खमादी एगविहारे य फासणया ॥१२९८ ॥ व्याख्या-कथानकादवसेया, तच्चेदम्-सुदसणपुरे सुसुनागो गाहावई, सुजसा से भजा, सड्ढाणि, ताण पुत्तो सुवओ नाम सुहेण गम्भे अरिछओ सुहेण वहिओ एवं जाव जोवणत्यो संबुद्धो आपुग्छित्ता पचाइओ पदिओ, एकलविहारपडिमापडिवणो, सकपसंसा, देवेहिं परिक्खिओ अणुकूलेण, धण्णो कुमारवंभचारी एगेण, बीएण को एयाओ कुलसंताणच्छेदगाओ अधण्णोति !, सो भगवं समो, एवं मायावित्ताणि सविसयपसत्ताणि दंसियाणि, पच्छा मारिजंतगाणि, कलुणं कूवेंति, तहावि समो, पच्छा सवेवि उऊ बिउबिता दिवाए इत्थियाए सविन्भमं पलोइयं मुक्कदीहनीसासमवगूढो, तहावि निर्मकतर रयते, राजा कुपितः, विशाल प्रभाउप संक्रान्तेति, तच्छादितं, नवरं कुल्यं, तुष्टेनैवमेव तिष्ठस्थिति भणितः, एवं सम्बा विशुद्ध कर्तव्यं । इदानीं समाधिरिति, तम्रोदाहरणगाथा । सुदर्शनपुरे शिशुनागः श्रेष्ठी, सुषशास्तस्य भार्या, बादी, तयोः पुत्रः सुनतो नाम मुखेन गर्ने स्थितः सुखेन वृद्धः एवं यावत् यौवनस्थः संबुद्धः, भापृच्छय प्रवजितः पठितः, एकाकिबिहारमतिमा प्रतिपयः, वाकप्रसा, देवैः परीक्षितोऽनुकलेन, धन्यः कुमारप्रमचारी एकेन, द्वितीयेन क एतमात् कुलसन्तानच्छेदकावधम्य इति स भगवान् समः, एवं मातापितरी खविषयासक्ती दर्शिती, पश्चात् मार्यमाणी, करुर्म कूमता, तथाऽपि समः, पश्चात् सयौ कतवो विकुर्विता दिश्यया खिया सविनमं प्रलोकितं मुक्तीनिधासमुपगूढः तथाऽपि. दीप अनुक्रम [२६] COCAL ~103 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२९८] भाष्यं [२०६...], प्रत सूत्रांक हारिभद्रीया ॥७०७॥ संजमे समाहिततरो जाओ, णाणमुप्पण्णं, जाव सिद्धो १३ । समाहित्ति गर्य, आयारेत्ति इयाणिं, आयारउवगच्छणयाए प्रतिकयोगाः सङ्गुह्यन्ते, एत्थोदाहरणगाहा मणाध्य योगसं० पाडलिपुत्त हुयासण जलणसिहा चेव जलणडहणे य । सोहम्मपलियपणए आमलकप्पाइ णट्टविही ॥ १२९९॥1 १३ समा___ व्याख्या कथानकादवसेया, तच्चेदं-पाडलिपुत्ते हुयासणो माहणो, तस्स भज्जा जलणसिहा, सावगाणि, तेसिं दो पुत्ता-13 धौ सुव्रतः जलणो डहणो य, चत्तारिवि पबइयाणि, जलणो उज्जुसंपण्णो, डहणो मायाबहुलो, पहित्ति वच्चइ, वच्चाहि एइ, सो तस्स १४आचारे ठाणस्स अणालोइयपडिकतो कालगओ, दोवि सोधम्मे उववन्ना सक्कस्स अम्भितरपरिसाए, पंच पलिओवमाति ठिती, सामी पलियामानिहिती सामीज्वलनदसमोसढो आमलकप्पाए अंबसालवणे चेइए, दोवि देवा आगया, नट्टविहिं दाएंति दोवि जणा, एगो उजुगं विउविस्सामित्ति। उज्जुगं बिउबइ, इमस्स विवरीयं, तं च दळूण गोयमसामिणा सामी पुच्छिओ, ताहे सामी तेसिं पुषभवं कहेइ-मायादोसोत्ति, हनी दीप अनुक्रम [२६] ॥७०७॥ संयमे समाहिततरो जातः, ज्ञानमुत्पनं यावत् सिद्धः। समाधिरिति गतं, आचार इतीदानी, भाचारोपगततया योगाः, भत्रोदाहरणगाया । पाटलिपुत्रे हुताशनो ब्राझणः, तस्य भार्या ज्वलनशिस्त्रा, श्रावको, तयोगी पुत्री-ज्वलनो दहनश्च, चम्बारोऽपि प्रजिताः, ज्वलन जुतासंपनः, दानो मायाबहुला, आयाहीति मजति मजेत्यायाति, स तस्य स्थानखानालोचितप्रतिकातः कालगतः, द्वावपि सौधर्मे अपनी पाकस्वाभ्यन्तरपति, पत्र पक्योपमानि स्थितिः, स्वामी समवस्तः श्रामलकल्पायामात्रशालबने थैलो, द्वावपि देवावागती नृत्यविधि दर्शयतः द्वावपि जनौ, एक ऋतु विकुर्वविष्यामीति आजक विकुर्वति, अख विपरीतं, सच दृष्टा गौतमस्वामिना स्वामी पृष्टः, तदा स्वामी तयोः पूर्वभवं कभपति-मायादोष इति. ~104 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२९९] भाष्यं २०६...], प्रत 8-25% सूत्रांक एवं आयारोपगयसणेण जोगा संगहिया भवति १४ । आयारोवगेत्ति गये, इयाणि विणओवगयत्तणेण जोगा संगहिया भवंति, तत्थ उदाहरणगाहाउज्जेणी अंबरिसी मालुग तह निधए य पच्चज्जा । संकमणं च परगणे अविणय विणए य पडिवत्ती॥ १३००।। ___व्याख्या कथानकादवसेया, तच्चेदं-उज्जेणीए अंबरिसी माहणो, मालुगा से भज्जा, सहाणि, निंबगो पुत्तो, मालुगा कालगया, सो पुत्तेण समं पवइओ, सो दुषिणीओ काइयभूमीए कंटए निविखवइ सज्झायं पढविन्तार्ण छीयइ,४ असज्झायं करेइ, सर्व च सामायारी वितहं करेइ, कालं उवणइ, ताहे पवइया आयरिय भणंति-अथवा एसो अच्छउ | अहवा अम्हेत्ति, निच्छूढो, पियावि से पिडओ जाइ, अन्नस्स आयरियस्स मूलं गओ, तत्थवि निच्छुढो, एवं किर | उज्जेणीए पंच पडिस्सगसयाणि सवाणि हिंडियाणि, निच्छूढो य सो खंतो सन्नाभूमीए रोवइ, सो भणइ-किं खंता! रोवसित्ति , तुमं नाम कयं निंबओत्ति एवं न अण्णहत्ति, एएहिमणभागेहिं आयारेहि तुझंतेण पण्डिं च अहंपि ठायं [सू.] % -7- दीप अनुक्रम [२६] RECERABAR .4 4 एक्माचारोपगततया योगा। संगृहीता भवन्ति । आचारोपग इति गतं, इदानी विनयोपगलरचेन योगाः संगृहीता भवन्ति, तत्रोदाहरणगाथा । | नविम्यामम्बार्षिक्षक्षणः, मालुका तसा भार्या, श्रादी, निम्बकः पुत्रः, मालुका कालगता, स पुत्रेण सम प्रमजितः, स दुनिीतः कायिकीभूमी कष्टकान् निक्षिपति स्वाध्याय प्रस्थापयास (साधुषु)ौति, अस्वाध्यायं करोति, सर्वा च सामाचारी बितों करोति, कालमुपहन्ति, तदा प्रमजिता आचार्य भणन्तिअश्व वैष तितु अथवा पथमिति, निकाशितः, पिताऽपि तस्य पृष्ठे याति, भम्यस्थाचार्यस्य मूलं गतः, तत्रापि निष्काशितः, एवं किलोमाथियों पर प्रतिअवशतानि सर्वाणि हिण्डिता, निष्काशितश्च स तृदः संज्ञाभूमौ रोदिति, स भणति-किं वृत्! रोदिषीति !, तव नाम कृतं निम्बक इति एतश्चान्यथेति, एतैरभाग्वैराचारैस्वदीयैरघुनामपि स्थिति A 1-% ~105 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.-] दीप अनुक्रम [२६] आवश्यक हारिभ द्रीया {hscll [भाग-३१] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १/४ ( मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन] [४] मूलं [स्] / [गाथा-] निर्बुक्तिः [ १३०० ] भष्यं [२०६...], ने उभामि, न य वट्टइ उप्पधइवं, तस्सवि अधिती जाया, भणइ खंता ! एकसिं कहिंचि ठाहिं मग्गाहि, भणइ-मग्गामि जइ विणीओ होसि एकसि नवरं जइ, पवइयाणं मूलं गया, पचइयगा खुहिया, सो भणइ-न करेहित्ति, तहवि निच्छंति, आयरिया भणति मा अजो ! एवं होह, पाहुणगा भवे, अज्जकलं जाहिंति, ठिया, ताहे खुलओ तिण्णि २ उच्चारपास वणाणं वारस भूमीओ पडिलेहित्ता सवा सामायारी, विभासियवा अवितहा, साहू तुट्टा, सो निंबओ अमयखुडुगो जाओ, तरतमजोगेण पंचवि पडिस्सगसयाणि ताणि मंमाणियाणि आराहियाणि, निग्गंतुं न दिंति एवं पच्छा सो बिणओवगो जाओ एवं काय १५ । विणओवपत्ति गयं, इयाणिं धिइमई यत्ति, धितीए जो मतिं करेह तस्य योगाः सङ्गृहीता भवन्ति, तत्थोदाहरणगाहा नयरी य पंडुमरा पंडववंसे मई य सुमईथ। वारीवसभारुहणे उप्पाइय सुहियविभासा ॥। १३०१ ॥ व्याख्या कथानकादवसेया, तचेदं जयरी य पंडुमडुरा, तत्थ पंच पंडवा, तेहिं पवयंतेहिं पुत्तो रज्जे ठविभो, १ न लभे न च ववजितुं तस्याप्यष्टतिजांता, भणति वृद्ध !, एकशः कुत्रापि स्थितिमन्वेषय, भणति-मार्गयामि यदि विनीतो भवस्येकशः, परं यदि प्रबजितानां मूलं गतौ प्रमजिताः शुब्धाः, स भजति न करिष्यतीति, तथापि नेच्छन्ति, भाषायां भणन्ति मैवं भवतार्याः, प्रापूर्णको भवतां भद्य कल्ये वास्वत इति स्थितौ तदा कः तिस्रः २ उचारप्रश्रवणयोर्द्वादश भूमी: प्रतिक्रिष्य सर्वाः समाचारी (करोति ), विभाषितम्याः अवितथाः, साथवस्तुष्टाः स निम्बको क्षुद्धको जातः, तरतमयोगेन पञ्चापि प्रतिश्रवशतानि तानि ममीकृतानि आराद्वानि, निर्गन्तुं न ददति, एवं स पश्चात् स विनयो. पयो जातः, एवं कर्त्तव्यं विनयोपग इति गतं इदानीं प्रतिमतिरिति यो मत करोति तस्य तत्रोदाहरणयाथा। नगरी च पाण्डुमथुरा, तत्र पच पाण्डवाः, तैः प्रमद्भिः पुत्रो राज्ये स्थापितः ~106~ ४ प्रतिक्र मणाध्य० योगसं० विनयोपगे १५ निम्बकः १६ धृतिम्मती मति सुमत्यौ ॥७०८ || Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३०१] भाष्यं [२०६...], प्रत सूत्रांक ते अरिहनेमिस्स पायमूले पडिया, हत्थकप्पे भिक्खं हिंडिता सुणेति-जहा सामी कालगओ, गहियं भत्तपाणं विगिंचित्ता सेत्तंजे पथए भत्तपञ्चक्खायं करेंति, णाणुप्पत्ती, सिद्धा या ताण बंसे अण्णो राया पंडुसेणो नाम, तस्स दो धूयाओ-मई सुमई य ताओ उजते चेइयवंदियाओ सुरई वारिवसभेण [वारिवसभो नाम वहणं तेण ] समुद्देण पइ, उप्पाइयं उठियं, लोगो खंदरुद्दे नमसइ, इमाहि धणियतराग अप्पा संजमे जोइओ, एसो सो कालोत्ति, भिन्नं वर्ण, संजयत्तंपि सिणायगत्तंपि कालगयाओ सिद्धाओ, एगस्थ सरीराणि उच्छल्लियाणि, सुङिएण लवणाहिवइणा महिमा कया, देवुजोए ताहे तं पभास तित्थं जायं, दोहिवि ताहे धीतीए मतिं करेंतीहि जोगा संगहिया, पिइमई यत्ति गयं १६, इयाणिं संवेगेत्ति, सम्यग वेगः। संवेगः तेण संवेगेण जोगा संगहिया भवति, तत्रोदाहरणगाथाद्वयंचंपाए मित्तपमेधणमित्ते धणसिरी सुजाते या पियंगू धम्मघोसे य अरक्खुरी चेव चंदघोसे य॥ १३०२॥ चंदजसा रायगिहे वारत्तपुरे अभयसेण चारत्ते । सुसुमार धुंधुमारे अंगारवई य पजोए ॥ १३०३ ॥ [सू.] ACTORRHABARCORIESear दीप अनुक्रम [२६] तेरिनेमे पादमूर्व प्रस्थिताः, इस्तिकसे हिण्डमानाः शृण्वन्ति-यथा स्वामी कालातः, गृहीत भक्तपानं त्यक्त्वा शत्रुनये पर्वते भक्तप्रत्याख्यान कुर्वन्ति, शानोत्पत्तिः सिखाम । तेषां दो अन्यो राजा पाण्डषेणो नाम, तस्व है दुहितरी-मतिः सुमतिच, ते उजयन्ते चैलाबन्दिके सुराई वाहनेन समुझे. गायातः सत्पात बस्थिता, कोकः स्कन्दरुद्री नमखति, भाभ्यां चाइतरमारमा संयमे योजितः, एष स काल इति, भिनं प्रवहणं, संपतत्वमपि स्नातकमपि काळगते सिबे, एकत्र शरीरे उच्छळिते, सुस्थितेन वणाधिपतिमा महिमा कृतः, देवोचोते तत्र प्रभासाक्यं तत् तीर्थं जातं, द्वाभ्यामपि तवा ती मति उर्वतीभ्यो घोगाः संगृहीताः । तिमतिरिति गतं, इदानीं संवेग इति, तेन संवेगेन योगाः संगृहीता भवन्ति । ~107~ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३०३] भाष्यं [२०६...], आवश्यकहारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥७०९॥ अस्या व्याख्या कथानकादवसेया तच्चेदं-चंपाए मित्तप्पभो राया, धारिणी देवी, धणमित्तो सत्यवाहो, धणसिरी प्रतिक भजा, तीसे ओवाइयलद्धओ पुत्तो जाओ, लोगो भणइ-जो पत्थ धणसमिद्धे सत्यवाहकुले जाओ तस्स सुजायंति, निवित्ते मणाप वारसाहे सुजाओत्ति से नाम कर्य, सो य किर देवकुमारो जारिसो तस्स ललियमण्णे अणुसिखंति, ताणि य सावगाणि, योगसं० तत्थेव णयरे धम्मघोसो अमचो, तस्स पियंगू भज्जा, सा सुणेइ-जहा एरिसो सुजाओत्ति, अण्णया दासीओ भणइ-जाहे|टीवारत्रकर्षि | १७ संवेगे सुजाओ इओ वोलेज्जा ताहे मम कहेजह जाव तं गं पेच्छेज्जामित्ति, अण्णया सो मित्तवंदपरिवारिओ तेणंतेण एति, कथा दासीए पियंगूए कहियं, सा निग्गया, अण्णाहि य सबत्तीहि दिह्रो, ताप भण्णइ-धण्णा सा जीसे भागावडिओ, अपणया ताओ परोप्परं भणंति-अहो लीला तस्स, पियंगू सुजायस्स वेसं करेइ, आभरणविभूसणेहिं विभूसिया रमइ, एवं वचइ सविलासं, एवं हत्थसोहा विभासा, एवं मित्तेहि समपि भासद, अमच्चो अइगओ, नीस? अंतेउरंति पाए सणियं निक्खिवंती 1544 दीप अनुक्रम [२६] * 1 चम्पाया मित्रप्रभो राजा, भारिणी देवी धनमित्रा सार्थवाहः, धनश्री यो, तस्या स्पयाचितलबधः पुत्रो जाता, कोको भणतियोऽा धनसमझे सार्थवाहकुले जातस्तस्य सुजातमिति, निवृत्ते द्वादशाहे सुजात इति तस्य नाम कृतं, सच किल देवकुमारो वामाः तस्य ललितमन्येऽनुशिक्षन्ते, ते श्रावका तत्रैव नगरे धर्मघोषोऽमायः, तस्य प्रियङ्क: भार्या, सा शृणोति योदशः सुजात इति, अन्यदा वासीमणति-पदा सुजातोऽनेन वर्मना व्यतिकाम्येत् सदाट मम कथयेत यावर्त प्रेक्षयिष्ये इति, अन्यदास मित्रवृन्दपरिवारितसेनाध्वना याति, दास्या प्रियाचे कथितं, सा निर्गसा, अन्याभिन सपनीभिः , तथा भण्यते-वन्या सा यस्या भाग्ये आपतितः, अन्यदा ताः परस्परं भवन्ति-अहो लीला तस, भियतः सुजातस्य वेषं करोति, आभरणविभूषणैर्विभूषिता रमते, एवं मजति सबिलासं, एवं इलशोभा विभाषा, एवं मित्रैः सममपि भाषते, अमात्योऽतिगतः, विनष्टमन्तःपुरमिति पादी पानेः निक्षिपन् ॥७०९॥ र ~108~ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३०३] भाष्यं [२०६...], प्रत सूत्रांक बारछिद्देणं पलोपइ, दिहा विखुडुती, सो चिंतेइ-विनई अंतेउरंति, भणइ-पच्छण्णं होउ, मा भिण्णे रहस्से सइरा-1 याराउ होहिंति, मारे मग्गइ सुजाय, बीहेइ य, पिया य से रण्णो निरायं अच्छिओ,मा तओ विणासं होहित्ति, उवायं 3 चिंतेइ, लद्धो उवाओत्ति, अण्णया कूडलेहेहिं पुरिसा कया, जो मित्तप्पहस्स विवक्खो, तेण लेहा विसज्जिया तेणति, सुजाओ वत्तबो-मित्तप्पभरायाणं मारेहि, तुमं पगओ राउले, तो अद्धरजियं करेमि, तेण ते लेहा रणो पुरओ वाइया, जहा तुम मारेयवोत्ति, राया कुविओ, तेवि लेहारिया वज्झा आणत्ता, तेणं ते पच्छण्णा कया, मित्सप्पभो चिंतेइ-जइ लोगनायं कजिहि तो पउरे खोभो होहित्ति, ममं च तस्स रण्णो अयसो दिज, तओ उवाएण मारेमि, तस्स मित्तप्पहस्स एगं पर्वतणयरं अरक्खुरी नाम, तत्थ तस्स मणूसो चंदण्झओ नाम, तस्स लेहं देह (०१९०००)जहा सुजाय पेसेमितं | मारेहित्ति, पेसिओ, सुजायं सहावेत्ता भणइ-पच अरक्खुरी, तत्थ रायकज्जाणि पेच्छाहि गओतं णयरिं अरक्षुरिं नाम, दिहो| [सू.] दीप अनुक्रम [२६] द्वारणि प्रकोष्यति, स्टा कीडन्ती, स चिन्तयति-विनष्टमन्तःपुरमिति, भणति-प्रच्छ भवतु, मा भिले हसे खैराचारा भूपमिति, मारयितुं मार्गपति सुमातं, बिभेति च, पिता च तस्य राहो नितरां स्थितः, मा ततो विनाशो भूदिति, उपायं चिन्तयति, लब्ध पाव इति, अन्यदा कूटलेख: (युक्ताः) पुरुषाः कृताः, यो मित्रप्रभस्य विपक्षः तेन लेख विसष्टास्तौ इति, सुजातो वक्तव्या-मित्रप्रभराज मारय, वं प्रगतो राजकुले, तत बाधराजिक करोमि, तेन ते लेखा राज्ञः पुरतो वाचिता यथा वं मारपितष इति, राजा कुपितः, ते लेखहारका बच्या आज्ञप्ताः, तेन ते प्रमाः कृताः, मित्रप्रभचिन्तयतियवि कोकज्ञातं क्रियते तदा पुरे क्षोभो भविष्यतीति, मयं च तस्स राशोऽयशो दाखति, सत पायेन मारवामि, तस्व मित्रमभक अत्यन्तनगरमारारं नाम, तत्र तसा मनुष्यचन्द्रध्वजो नाम, तमौ लेखं ददाति-पथा सुजातं मेधयामि तं मारबेरिति, प्रेषितः, सुजातं शब्दयित्वा भणति-समारतुरं, तन्त्र राज्यकार्याणि प्रेक्षस्व, गतः तो नगरीमारक्षुरी नाम, CE: Anh 8 ~109. Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३०३] भाष्यं [२०६...], आवश्यकहारिभद्रीया प्रत सूत्रांक | 'अच्छा वीसत्थो मारिजिहितित्ति दिणे २ एगा अभिरमंति, तस्स रूवं सील समुदायारं दणं चिंतेइ-नवरं अंतेउरियाहिं | समं विणडोत्ति तेण मारिजइ, किह वा एरिसं रूवं विणासेमित्ति उस्सारित्ता सर्व परिकहेइ, लेहं च दरिसेइ, तेण सुजाएण भण्णइ-जं जाणसि तं करेइ, तेण भणियं-तुम न मारेमित्ति, नवरं पच्छण्णं अच्छाहि, तेण चंदजसा भगिणी दिण्णा, |सा य तज्जाइणी तीए सह अच्छइ, परिभोगदोसेण तं वदृइ सुजायस्स ईसि संकेत, सावि तेण साविया कया, चिंतेइ-मम कएण एसो विणहोत्ति संवेगमावण्णा भत्तं पञ्चक्खाइ, तेणं चेव निजामिया, देवो जाओ, ओहिं पउंजइ, दङ्गागओ, वंदिता भणइ-किं करेमि!, सोवि संवेगमावण्णो चिंतेइ-जहा अम्मापियरो पेच्छिजामि तो पधयामि, तेण देवेण सिला विउबिया नगरस्सुवरिं, नागरा राया य धूवपडिग्गहहत्था पायवडिया विण्णवेंति, देवो तासेइ-हा! दासत्ति सुजाओ समणोवासओ अमच्चेण अकजे दूसिओ, अज भे चूरेमि, तो नवरि मुयामि जइ तं आणेह पसादेह णं, कहिं !, सो भणइ-एस ४प्रतिकमणाच्या योगसं० १७ संवेगे वारत्रकर्षि कथा ॥७१०॥ [सू.] दीप अनुक्रम -13 [२६] तिष्ठतु विश्वस्तो मार्यते इति दिने २ एकस्यौ अभिरमेते, तस्य रूपं शीलं समुदाचारं दृष्टा चिन्तयति-नबरमन्तःपुरिकाभिः समं बिना इति तेन मायंते, कथं वेशं रूपं विनाशयामीति !, बत्सार्य सर्व परिकथयति, लेखं च दर्शयति, तेन सुजातेन भण्यते-बजानासि तत् कुरू, तेन भनितं-स्वां न मार. यामीति, नवरं प्राछवं विष्ट, तेन चन्द्रया भगिनी दत्ता, सा च वजातीषा (स्वग्दोषदुष्टा) तया सह तिष्ठति, परिभोगदोषण तत् वर्चते सुजात स्पेषत् संक्रान्त, साऽपि तेन श्राविकीकृता, चिन्तयति मम कृतेनैष विनष्ट इति संवेगमापना भकं प्रत्याख्याति, तेनैव नियामिता, देवो जातः, अधि प्रयुणकि, |दृष्ट्वा पागतः, वन्दित्वा भणति- करोमि !, सोऽपि संवेगमापनश्चिन्तयति-यथा मातापितरौ प्रेक्षेयं तदा प्रबजेयं, तेन देवेन शिला चिकुर्षिता नगरस्योपरि, नागरा राजा च धूपप्रतिग्रहहस्ताः पादपतिता विज्ञपयन्ति, देवस्वासयति-दा दासा इति, सुजातः श्रमणोपासकोऽमास्येनाकार्ये दूषितः, भय भवनभूस्वामि. वहिं पर मुश्वामि यदि तमानयत प्रसादयतेनं, क, स भणति-एच. | ॥७१०॥ . ~110~ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३०३] भाष्यं [२०६...], प्रत CAMERA सूत्रांक [सू.] | उजाणे, सणायरो राया निग्गओ खामिओ, अम्मापियरो रायाण च आपुच्छित्ता पचइओ, अम्मापियरोवि अणुपधइयाणि, ताणि सिद्धाणि, सोऽवि धम्मघोसो निविसओ आणत्तो जेणं तस्स गुणा लोए पयरंति, यथा नेत्रे तथा शीलं, यथा नासा तथाऽऽर्जवम् । यथा रूपं तथा वित्तं, यथा शीलं तथा गुणाः॥१॥ अथवा-विषमसमैविषमसमाः, विषमैर्विपमाः समैः समाचाराः। करचरणकर्णनासिकदन्तोष्ठनिरीक्षणैः पुरुषाः॥२॥ पच्छा सो य नियमावण्णो सच्चं मए भोगलोभेण विणासिभोत्ति निग्गओ, हिंडतो रायगिहे णयरे थेराणं अंतिए पवइओ, विहरंतो बहुस्सुओ वारत्तपुरं गओ, तत्थ अभ-1 यसेणो राया, वारत्तो अमच्चो, भिक्खं हिंडतो वरत्तगस्स घरं गओ धम्मघोसो, तत्थ महुघयसंजुत्तं पायसथालं नीणीयं, तओ विंदू पडिओ, सो पारिसाडित्ति निच्छइ, वारत्तओ ओलोयणगओ पेच्छइ, किं मन्ने नेच्छद, एवं चिंतेइ जाव (ताव ) तत्थ मच्छिया उलीणा, ताओ घरकोइलिया पेच्छा, तंपि सरडो, सरडंपि मज्जारो, तंपि पचंतियसुणओ, तंपि वत्थवगसुणओ, ते दोवि भंडणं लग्गा, सुणयसामी उपठिया, भंडणं जायं, मारामारी, बाहिं निग्गया पाहुणगा बलं | उद्याने, सनागरो राजा निर्गतः क्षामितः, मातापितरौ राजानं चापपछ्य प्राजिलः, मातापितरावपि अनुषवजिती,ते सिद्धाः । सोऽपि धर्मघोषो निर्विषय आज्ञप्तो येन तस्य गुणा लोके प्रचरन्ति, पश्चात् स च निर्वेदमापनः सत्यं मया भोगलोभेन विनाशित इति निर्गतः, हिन्धमानो राजगृहे नगरे स्थविराणामन्तिके प्रनजितः, विहरन् बहुश्रुतो वारकपुरं गतः, तत्रामयसेगो राजा, वारत्रकोऽमात्यः, भिक्षा हिण्डमानो वास्त्रकख गई गतो धर्मयोषा, तत्र पूनमधु संयुक्त पायसवालभानीस, ततो विन्दुः पतिता, स परिशारिरिवि नेच्छति, पारतकोश्यलोकनगतः पश्यति, किं मन्ये नेपछति, एवं बावचिन्तयति तावत्र मक्षिक भागवाः ततो (ता.) गृहकोकिला तामपि सरटः सरटमपि मार्जारः तमपि प्रन्तिका तमपि वास्तव्यः था, तौ द्वावपि भन्दयितुं कमी, वखा मिना पस्थिती, युवं जातं, दण्डादण्ड्यादि, बहिनिमंताः मापूर्णकाः बलं दीप अनुक्रम [२६] ~111 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३०३] भाष्यं [२०६...], द्रीया प्रत सूत्रांक आवश्यक-18'पिंडेसा आगया, महासमरसंघाओ जाऔ, पच्छा वारत्तगो चिंतेइ-एएण कारणेण भगवं नेच्छइत्ति, सोहर्ण अग्झवसाणं| ४प्रतिक द उवगओ, जाई संभरिया, संबुद्धो, देवयाए भंडगं उवणीयं, सो वारत्तरिसी विहरतो सुसुमारपुरं गओ, तत्थ धुंधुमारोमणाध्य० राया, तस्स अंगारवई धूया, साविया, तत्थ परिवायगा उवागया, वाए पराजिया, पदोसमावन्ना से सावत्तए पाडेमित्ति योगर्स० चित्तं फलए लिहिता उजेणीए पज्जोयस्स दंसेइ, पज्जोएण पुच्छियं, कहियं चणाए, पज्जोओ तस्स दूर्य पेसइ, सो धुंधुमा७१२॥ १७ संवेगे रेण असफारिओ निच्छूढो, भणइ पिवासाए-विणएणं वरिजइ, दूएण पडियागएण बहुतरगं पज्जोयस्स कहिये, आसु वारत्रकर्षि कथा रुत्तो, सबबलेणं निग्गओ, सुसुमारपुरं वेदेइ, धुंधुमारो अंतो अच्छद, सोय वारत्तगरिसी एगस्थ नागघरे चचरमूले ठिएलगो, सो राया भीओ एस महाबलयगोत्ति, नेमित्त पुच्छर, सो भणइ-जाह-जाव नेमित्तं गेहामि, चेडगरूवाणि रमति ताणि | भेसावियाणि, तस्स वारत्तगस्स मूल आगयाणि रोवंताणि, ताणि भणियाणि-मा बीहेहित्ति, सो आगंतूण भणइ-मा दीप अनुक्रम [२६] पिण्डविया भागताः, महासमरसंघातो जातः, पश्चाद्वारप्रकश्चिन्तयति-एतेन कारणेन भगवानेषीदिति, शोभनमध्यवसानमुपगता, जातिः स्मृता, संबुद्धः, देवतयोपकरणमुपनीतं, सवारत्रकारषिविद्यारन् शिशुमारपुरं गतः, तत्र धुन्धुमारो राजा, तस्याकारवती दुनिता, भाविका, तन्न परिवाजिका भागता. वादे (नया) पराजिता, तस्याः प्रद्वेषमापना सापश्ये पातयामीति चित्रं फलके लिखित्वोजयिन्यां प्रद्योताव दर्शयति, प्रयोतेन पृष्ट, कथितं चानया, प्रयोतसमी पूर्व प्रेषयति, स धुन्धुमारेणासत्कृतो निष्काशितः, भणितः पिपासपा-विनयेन निवते, तेन प्रत्यागतेन हुतरं प्रयोतख कषितं, कुदः, सर्ववलेन C निर्गतः, शिशुमारपुरं वेष्टयति, धुन्धुमारोऽन्तः तिष्ठति, सच बास्त्रकर्षिरेका चस्वरमूले स्थितोऽस्ति, स राजा भीत एप महाबल इति, नेमितिकं पृच्छत्ति, स भणति-यात वावनिमित्तं गृहामि, पेटा रमन्ते ते भापितास्तस्य वारसकस पार्थमागता रुवन्तः, ते भणिता-मा भैप्टेति, सभागस्य भणति-मा ७११॥ CCCC WO ~112~ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३०३] भाष्यं [२०६...], 5% प्रत सूत्रांक [सू.] ASA % -% दीप अनुक्रम [२६] बीहेहित्ति, तुझं जओ, ताहे मज्झण्हे ओसण्णद्धार्ण उवरि पडिओ, पज्जोओ वेढित्ता गहिओ, णयरिं आणिओ, बाराणि बद्धाणि, पज्जोओ भणिओ-कओमुहो ते वाओ वाइ1, भणइ-जं जाणसि तं करेह, भणइ-किं तुमे महासासणेण वहिएण', ताहे से महाविभूईए अंगारवई पदिष्णा, दाराणि मुक्काणि, तस्थ अच्छइ, अण्णे भर्णति-तेण धुंधुमारेण देवयाए उपवासो कओ, तीए चेडरूवाणि विउबिया णिमित्तं गहियंति, ताहे पजोओ णयरे हिंडइ, पेच्छा अप्पसाहणं रायाणं, अंगारवतिं पुच्छह-कहं अहं गहिओ ?, सा साधुवयणं कहेइ, सो तस्स मूलं गओ, वदामि निमित्तिगखमणंति, सो उवउत्तो जाव पबज्जाउ, चेडरूवाणि संभरियाणि । चंदजसाए सुजायस्स धम्मघोसस्स वारत्तगस्स सबेर्सि संवेगेणं जोगा संगहिया भवंति, केई तु सुस्वरं जाव मियावई पवइया परंपरओ एयंपि कहेइ १७ । संवेगत्ति गर्य, हयाणि पणिहित्ति, पणिही नाम माया, सा दुविहा-दवपणिही य भावपणिही य, दवपणिहीए उदाहरणगाहा मनि, तव जया, तदा मध्याहे सन्नदानागुपरि पतितः, प्रयोतो वेष्टवित्वा गृहीतः, नगरीमानीता, द्वाराणि बद्धानि, प्रयोतो भणितः कुतोमुरते Xआवासोवाति, भणति-बजानासि ताकुर, भणति-मित्वमा महाशासनेन विनाशितेन , तदा ती धुमारेण महाविभूषाशास्वती पत्ता,हाराणि मुस्कलितानि, तत्र तिति, भन्ये भणन्ति-तेन धुन्धुमारेण देवतायै उपवासः कृतः, तया चेदा विकुर्विता निमित्तं गृहीतमिति, तदा प्रद्योतो नगरे हिण्डमानः प्रेक्षते राजानमपसाधन, भङ्गारवती पृच्छति-अहं कथं गृहीतः, सा साधुवचनं कथयति, स. तस्य पागतः, वन्दे नैमित्तिकक्षपणकमिति, स उपयुको पावत् प्रवज्या चेटाः स्मृताः । चन्द्रयशसः सुजाता धर्मघोषस्य वारत्रकस्य सर्वेषां संवेगेन योगा: संगृहीता भवन्ति, केचितु सुरवरं यावत् मृगापतिः प्रनजिता (एषः) परम्परकः एनमपि कथयन्ति । संवेग इति गतं, इदानीं प्रणिधिरिति, प्रणिधिर्माया, साहिविधा-वन्यप्रणिधिन भाषमणिधिव, यमणिधाबुदाहरणगाथा ~113 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३०४] भाष्यं [२०६...], आवश्यक- हारिभद्रीया प्रतिक मणाध्या प्रत सूत्रांक ॥७१२॥ भरुयच्छे जिणदेवो भयंतमिच्छे कुलाण भिक्खू या पठाण सालवाहण गुग्गुल भगवं च णहवाणे ॥१३०४॥ व्याख्या कथानकादवसेया, तच्चेदं-भरुयच्छे णयरे नहवाहणो राया कोससमिद्धो, इओ य पइड्डाणे सालवाहणो राया | चलसमिद्धो, सो नहवाणं रोहेइ, सो कोससमिद्धो जो हत्थं वा सीसं वा आणेइ तस्स सयसहस्सगं वित्तं देइ, ताहे तेण नहवाहणमणूसा दिवे २ मारंति, सालवाहणमणुस्साधि केवि मारित्ता आणेति, सो तेसिं न किंचि देइ, सो खीणजणो |पडिजाइ, नासित्ता पुणोवि वितियवरिसे पद, तत्थवि तहेव नासइ, एवं कालो बच्चा, अण्णया अमबो भणइ-ममं अव-1 राहेत्ता निविसयं आणवेह माणुसगांणि य बंधाहि, तेण तहेव कयं, सोवि निग्गंतूण गुग्गुलभारं गहाय भरुयच्छमागओ, एगस्थ देवउले अच्छइ,.सामंतरजेसु फुहूं-सालवाहणेणं अमच्चो निच्छूढो, भरुयच्छे णाओ, केणति पुच्छिओ को सोत्ति, |भणइ-गुग्गुलभग नाम अहंति, जेहिंणाओ ताण कहेइ जेण बिहाणेण निच्छूढो, अहा लहु से गणत्ति, पच्छा नहवाहणेण जिनदेवो [सू.] दीप अनुक्रम [२६] CLICKASHOC+ACKS भूगुकच्छे नगरे नभोवाहनो राजा कोषासमब, इतथा प्रतिष्ठाने शालवाहनो राजा बकसमखः, सनभोवाहनं रुणदि, स कोशसमको यो या | शीर्ष वाऽऽनयति तमे वातसहस्सहयं ददाति, तदा तेन नभोवाहनमनुष्या दिवसे २ मास्यन्ति, पानवाहनमनुष्या अपि कश्चिनापि मारयित्वाऽऽनयन्ति, स [तेभ्यः किचिदपि न ददाति, स क्षीणजनः प्रतियाति, नंदा पुनरपि द्वितीयवर्षे मायाति, तत्रापि सच नश्यति, एवं कालो जति, अन्यदाध्मात्यो भणति-12 मामपराध्य निर्विषयमापयत मनुष्यांग बधान, तेन तथैव कृतं, सोऽपि निर्गला गुग्गुकभार गृहीत्वा भूनकरणमागतः, एकत्र देवकुळे तिति, सामन्तराजेषु वितं-शामवाहनेनामावो निष्काशितः, भृगुको ज्ञातः, केनचित् पृष्टः, कास इति, भणति-गुग्गुलभगवान् नामाहमिति, पैशावतान् कथयति येन विधिना निकाशितः, यथा y (अपराध) ते गणयन्ति, पत्रासभोवादनेन ||७१२॥ ~114~ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३०४] भाष्यं [२०६...], प्रत सूत्रांक (सू.] दीप अनुक्रम [२६] सुर्य, मणुस्सा विसजिया नेच्छद कुमारामच्चत्तणस्स गंधपि सोउं, सो य राया सयं आगओ, ठविओ अमचो, वीसंभ जाणिऊण भणइ-पुष्णेण रज लब्भह, पुणोवि अण्णस्स जम्मस्स पत्थयणं करेहि, ताहे देवकुलाणि थूभतलागवावीण लाखणावणादिएहिं दर्व खइयं, सालवाहणो आवाहिओ, पुणोवि ताविजइ, अमचं भणइ-तुमं पंडिओत्ति, सो भणइ घडामि अंतेउरियाण आभरणेणंति, पुणो गओ पहाणंति, पच्छा पुणो संतेउरिओ णिवादेइ, तम्मि णिहिए सालवाहणो आवाहिओ, नस्थि दायब, सो विणडो, नई नयरंपि गहियं, एसा दवपणिही भावपणिहीए उदाहरण-भरुयच्छे जिणदेवो है नाम आयरिओ, भदंतमित्तो कुणालो य तच्चण्णिया दोवि भायरो वाई, तेहिं पडहओ निकालिओ, जिणदेवो चेइय वंदगो गओ मुणेइ, वारिओ, राउले बादो जाओ, पराजिया दोवि, पच्छा ते विचिंतेइ-विणा एएसि सिद्धतेण न तीरइ | एएसिं उत्तरं दाउँ, पच्छा माइठाणेण ताण मूले पषझ्या, विभासा गोविन्दवत्, पच्छा पढ़ताण उवगर्य, भावओ पडियन्ना, वर्त, मनुष्या विमृष्टा नेग्छति कुमारामात्यगन्धमपि श्रोतुं, सब राजा स्वयमागतः, स्थापितोऊमाख्यः, विशम्भं शाया भणति-पुण्येन राज्य लभ्यते, पुनरप्यन्यस्य जन्मनः पम्यवनं कुरु, तदा देवकुलानि स्तूपतटाकलापीनां खाननादिभिः सवै द्रव्यं खादितं, शाकवाहन माहूतः, पुनरपि ताध्यते, अमात्यं भवति-वं पण्डितोऽसि, स भणति-घटयाम्यन्तःपुरिकाणामाभरणानि, पुनर्गतः प्रतिष्टानमिति, पश्चात् पुनः सान्तःपुरिको निर्वाहयति, तस्मिन्नि[हिते शाळवाहन माहूतः, नास्ति दातळ, सविना मनगरमपि गृहीतं, एषाम्यप्रणिधिः । भावप्रणिधानुराहरण-भूगुका जिन देवो नामाचार्यः, भरन्तमित्रः कुणाला तचनिको द्वावपि भातरी वादिनी, ताभ्यां पटकको निष्काशितः, जिनदेवः चैल्पवन्दनाथै गतः पयोति, बारितः, राजकुले वादो जातः, पराजितौ द्वापपि, पश्चात्तौ विचिन्तयतः-विनतेषां सिवान्तेन न एतेषामुत्तरं दातुं पारपते, पश्चात् मातृस्थानेन तेषां पार्षे प्रमजिसी, विभाषा पश्चात् | पठतोरुपगतं, भावतः प्रतिपक्षी, २ सालिचाहणो * हिमोत्ति R ~115 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३०४] भाष्यं [२०६...], प्रत सूत्रांक आवश्यक- हारिभद्रीया ॥७१शा साडू जाया, एसा भावपणिहिसि । पणिहित्ति गयं १८।जहा इयाणि सुविहित्ति, सुविहीए जोगा संगहिया, विधिरनुज्ञा | विधी जस्स इहा, शोभनो विधिः सुविधिः, तत्रोदाहरणं जहा सामाइयनिजुत्तीए अणुकपाए अक्खाणर्ग मणाध्यक बारवई वेयरणी धन्वंतरि भविय अभविए विजे । कहणा य पुच्छियमिय गइनिसे य संयोही ॥१३०५॥ योगसं० सो वानरजूहबई कतारे सुविहियाणुकंपाए । भासुरवरबोंदिधरो देवो माणिओ जाओ (८४७) ॥१३०६॥ १९सुविधी जाव साहू साहरिओ साहूण समीवं । सुविहित्ति गयं १९ । इयाणि संवरेत्ति, संवरेण जोगा संगहिति, तस्थ वैतरणी क धा२०संवपडिवक्खेणं उदाहरणगाहा रेनन्दश्री वाणारसी य कोढे पासे गोवालभइसेणे य । नंदसिरी पउमसिरी रायगिहे सेणिए वीरो ॥ १३०७॥ व्याख्या कथानकादवसेया, तच्चेदं-रायगिहे सेणिएण बदमाणसामी पुच्छिओ, एगा देवी णट्टविहिं उवदसेत्ता गया है का एसा, सामी भणइ-वाणारसीए भइसेणो जुन्नसेट्ठी, तस्स भज्जा नंदा, तीए धूया नंदसिरी वरगविवजिया, सापू जाती, एषा भावप्रणिधिरिति । प्रणिधिरिति गतं, हवानी सुविधिरिति, सुविभिना योगाः संगृमन्ते, विधिर्यथा यस्पेष्टः, मथा सामायिकनियुको अनुकम्पावामाख्यान-धारवती वैतरणिः धन्वन्तरिभवोऽमण्यन वैयौ । कमर्म र पृष्टे च गतिनिर्देशन संबोधिः ॥ 1 ॥ स वानरयूथपतिः ॥७१२॥ कान्तारे सुविहितानुकम्पया। भासुरवरबोन्दीधरो देवो वैमानिको जातः ॥ २ ॥ यावत् साधुः संहृतः साधूनां समीपं सुविधिरिति गतं । इदानी संवर इति, संवरेण योगाः संगृह्यन्ते, तत्र प्रतिपक्षेणोदाहरणगाथा । राजगृहे श्रेणिकेन वर्धमानस्वामी पृष्टः, एका देवी नरविधिमुपदय गता कैसा !, स्वामी भणति-वाराणस्या भवसेनो जीर्णश्रेष्ठी, सस्य भार्या नन्दा, तस्या दुहिता नन्दधीरिति, वरविवर्जिता दीप अनुक्रम [२६] ~116 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३०७] भाष्यं [२०६...], 44 प्रत सूत्रांक [सू.] तस्थ कोहए चेइए पासस्सामी समोसढो, नंदसिरी पवइया, गोवालीए सिस्सिणिया दिण्णा, पुष उग्गेण विहरित्ता |पच्छा ओसन्ना जाया, हत्थे पाए धोवेइ, जहा दोवती विभासा, वारिजंती उढेऊणं विभत्ताए वसहीते ठिया, तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिकता चुलहिमवंते पजमदहे सिरी जाया देवगणिया, एतीए संवरो न कओ, पडिवक्खो सो न काययो, अण्णे भणंति-हस्थिणियारूवेण वाउकाएइ, ताहे सेणिएण पुच्छिओ, संवरेत्ति गयं २०। इयार्णि 'अत्तदोसोव|सहारे'त्ति अत्तदोसोवसंहारो कायबो, जइ किंचि कहामि तो दुगुणो बंधो होहिति, तत्थ उदाहरणगाहा बारव अरहमित्ते अणुद्धरी चेव तहय जिणदेवो । रोगस्स य उप्पत्ती पडिसेहो अससंहारो॥१३०८॥ ___व्याख्या कथानकादवसेया, तच्चेदं-बारवतीए अरहमित्तो सेट्ठी, अणुद्धरी भजा, सावयाणि, जिणदेवो पुत्तो, तस्स रोगा उप्पण्णा, न तीद तिर्गिच्छिउँ, बेजो भणइ-मंसं खाहि, नेच्छा, सयणपरियणो अम्मापियरो य पुत्तणेहेणाणुजा-1 ति, निबंधेवि कह सुचिरं रक्खियं वयं भंजामि, उक्तं च-"वरं प्रवेष्टुं ज्वलित हुताशन, न चापि भग्नं चिरसञ्चितं व्रतम्" तत्र कोरके चैये पास्वामी समरमत्तः, नन्दश्रीः प्रबजिता, गोपाक्यै शिष्या पता, पूर्वमुमेण विहत्य पदिवसना जाता, इसी पादौ प्रक्षाक्षपति, यथा दोपदी विभाषा, वार्यमाणोत्थाय विभक्तायो वसतौ खिता, तख स्थानस्थानालोचितप्रतिक्रान्ता शुलकहिमवति पभादे श्रीजोता देवगणिका, पुतषा संवरो न कृतः, प्रतिपक्षासन कर्तव्यः, अन्ये भणन्ति-दस्तिनीरूपेण बातमुनिरति, (रावान् करोति), तदा श्रेणिकेन पृष्ठः, संवर इति गतं, इदानीमात्मदोषोपसंहारेति भारमदोषोपसंहारः कर्तव्यः, यदि किमित् करिष्यामि तहि द्विगुणो बन्धो भविष्यतीति, सनोदाहरणगाथा-द्वारवस्या भई मित्रः श्रेष्ठी, मनुवरी, भायों, भावकी, जिनदेवः पुत्रः, तख रोगा अपमान पाक्यन्ते चिकित्सितुं, वैयो भणति-मांस खादय, मेछाति, खजनपरिजनो मातापितरौ च पुत्रसोईनानुजानन्ति, निम्धेऽपि कथं सुचिरं रक्षितं प्रतं भनज्मि, दीप अनुक्रम [२६] S CS ~117~ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३०८] भाष्यं [२०६...], आवश्यक हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥७१४|| (अत्तदोसोवसंहारो को, मरामित्ति सर्व सावज पञ्चक्खायं, कहवि कम्मक्खोवसमेणं पउणो, तहावि पञ्चक्खायं चेव, प्रतिक्रपषजं कयाइओ, सुहझवसाणस्स णाणमुप्पण्णं जाव सिद्धो। अत्तदोसोवसंहारोत्ति गयं, २१ । इयाणिं सबकामविरत्तयत्ति, मणाध्य सबकामेसु विरंचियवं, तत्रोदाहरणगाधा योगसं० उल्लेणिदेवलासुय अणुरत्ता लोयणा य पउमरहो । संगयओ मणुमइया असियगिरी अहसंकासा ॥१३०९॥ आत्मदा व्याख्या कथानकादवसेया, तच्छेद-उजेणीए नयरीए देवलासुओ राया, तस्स भज्जा अणुरत्ता लोयणा नाम, अन्नया पोप जिनदे वो०२२सवे सो राया सेजाए अच्छद, देवी वाले वीयरेइ, पलिय दिह, भणइ-भट्टारगा! दूओ आगओ, सो ससंभम भयहरिसाइओ काम उडिओ, कहिं सो, पच्छा सा भणइ-धम्मदूओत्ति, सणियं अंगुलीए वेदिता उक्खयं, सोवण्णे थाले खोमजुयलेण वेदित्ता णयरे हिंडाविओ, पच्छा अधिति करेइ-अजाए पलिए अम्ह पुषया पवयंति, अहं पुण न पवइओ, पउमरहं रजे ठवेऊण पवइओ, देवीवि, संगओ दासो मणुमइया दासी ताणिवि अणुरागेण पवइयाणि, सवाणिवि असियगिरितावसासमं तत्थ आमदोषोपसंहारः कृतः, त्रिय इति सर्व सावर्य प्रत्याख्यातं, कथमपि कर्मक्षयोपशमेन प्रगुणः तथापि प्रत्यारबातमेव, प्रमज्यां कृतवान्, शुभाध्य, वसायण ज्ञानभुत्पन्न यायत, सिद्धः । भात्मदोषोपसंहार इति गतं, इदानीं सर्वकामविरक्ततेति, सर्वकामेषु विरक्तव्य, अविन्या नगवां देपलासुतो राजा तसा भायोअनुरक्ता कोचना नानी, भन्यदा स राजा शय्यायो तिक्षति, देवी बालान् वीणयति (शोधयति), देव्या वाले पतितं रई, भणति-भद्दारक ! दूता |॥७१४॥ भागतः, स ससंश्रम भयहर्षवान् उश्चिता, कसा, पश्चात् सा भणति-धर्मदूत इति, शनैरल्या वेष्टवियोरखातं, सीवणे स्वाले भीमयुगलेन पेटविस्था नगरे दिण्डितः, पावरतिं करोति-मजाले पलितेऽया पूर्वजाः प्रामजिषुः, भई पुनने प्रवजितः, पारथं राज्ये वापविश्या प्रमजिता, देवपि, संगतो दासो [x मनुमतिका दासी तावप्यनुरागेण प्रबजिती, सर्वेऽप्यसितगिरितापसाश्रममन्त्र दीप अनुक्रम [२६] ~118~ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३०९] भाष्यं [२०६...], प्रत सूत्रांक गयाणि, संगयओ मणुमतिगा य केणइ कालंतरेण उप्पबइयाणि, देवीएवि गब्भो नक्खाओ पुर्व रण्णो, वहिउमारद्धो, राया अधिति पगओ-अयसो जाओत्ति अहं, तावसओ पच्छन्नं सारवेइ, सुकुमाला देवी वियायंती मया, तीए दारिया जाया, सा अन्नाणं तावसीणं थणयं पियइ, संवडिया, ताहे से अद्धसंकासत्ति नाम कय, सा जोषणस्था जाया, सा पियरंग अडवीओ आगयं विस्सामेइ, सो तीए जोवणे अज्झोववन्नो, अजं हिजो लएमित्ति अच्छइ, अण्णया पहाविभो गिहामित्ति उडगकडे आवडिओ, पडिओ चिंतेइ-धिद्धी इहलोए फलं परलोए न नज्जइ कि होतित्ति संबुद्धो, ओहिनाणं, भगइभवियब भो खलु सबकामविरतेणं अज्झयणं भासइ, धूया विरत्तेण संजतीण दिण्णा, सोवि सिद्धो । एवं सबकामविरजिएण जोगा संगहिया भवति । सबकामविरत्तयत्ति गयं २२, इयाणि पच्चक्खाणित्ति, पच्चक्खाणं च दुविह-मूलगुणपञ्चक्खाणं उत्तरगुणपञ्चक्खाणं च, मूलगुणपञ्चक्खाणे उदाहरणगाहा [सू.] दीप अनुक्रम [२६] CE- OF गताः, संगतो मनुमतिका च केनचिकालान्तरेणोप्रवजिती, देव्याऽपि गों नासपातः पूर्व राशः, वर्षितुमारब्धः, राजाऽपति प्रगतः अयशा जातोऽई तापसात् प्रच्छ संरक्षति, सुकुमाला देवी प्रजनयन्ती मृता, तस्या दारिका जाता, साऽन्यासां तापसीना लनं पिपति, संवर्धिता, सदा तथा अर्थसंकाशेति नाम कृतं, सा यौवनस्या जाता, सा पितरमटवीत आगतं विनमयति, स तथा यौवनेऽभयुपपन्ना, अव श्वो लास्वामीति तिष्ठति, सम्पदा प्रभावितो गृहामीति उटजकाठे | भापतितः, पतितचिन्तयति-विग् विग इहलोके फलं परलोके न ज्ञायते किं भविष्यतीति संवृदः, अवधिज्ञान, भणति-भवितम्ब भोः खलु सर्वकाम विरकन अध्ययन भाषते, दुहिता विरतन संयतीभ्यो दचा, सोऽपि सिद्धः । एवं सर्वकामविरकेन योगाः संगृहीता भवन्ति । सर्वकामविरकतेति गर्त, इदानी प्रस्थाण्यानमिति, प्रत्याख्यानं पद्विविध-मूलगुणप्रत्याख्यानमुतराणप्रत्याख्यानं च मूलगुणप्रपाण्याने उदाहरणगाथा ~119~ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३१०] भाष्यं [२०६...], आवश्यकहारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥७१५| कोडीवरिसचिलाए जिणदेवे रयणपुच्छ कहणा य । साएए सत्तुंजे वीरकहणा य संवोही ॥१३१०॥ प्रतिक्र मणाध्य व्याख्या कथानकादवसेया, तच्चेद-साएए सर्नुजए राया, जिणदेवो सावगो, सो दिसाजत्ताए गओ कोडीवरिसं, ते मिच्छा, तत्थ चिलाओ राया, तेण तस्स रयणाणि अण्णागारे पोत्ताणि मणी य जाणि तत्थ नस्थि ताणि ढोइयाणि, सो| प्रत्याचिलाओ पुग्छइ-अहो रयणाणि रूवियाणि, कहिं एयाणि रयणाणि ?, साहइ-अम्ह रज्जे, चिंतेइ-जइ नाम संबुझेजा, ख्यानं सो राया भणइ-अहंपि जामि रयणाणि पेच्छामि, तुझं तणगस्स रण्णो बीहेमि, जिणदेवो भणइ-मा बीहेहि, ताहे तस्स रणो लेह पेसेइ, तेण भणिओ-एउत्ति, आणिओ सावगेण, सामी समोसढो, सेर्नुजओ निग्गओ सपरिवारो महया इडीए, सयणसमूहो निग्गओ, चिलाओ पुच्छइ-जिणदेवो! कहिं जणो जाइ !, सो भणइ-एस सो रयणवाणियओ, भणह-तो।। जामो पेच्छामोत्ति, दोवि जणा निग्गया, पेच्छति सामिस्स छत्ताइछत्तं सीहासणं, विभासा, पुच्छइ-कह रयणाई, ताहे| [सू.] 4 दीप अनुक्रम [२६] % ७१५॥ साकेते पात्रुजयो राजा, जिमदेवः श्रावका, सदिग्यात्रया गतः कोटीवर्ष, ते म्लेच्छाः, सचिलातो राजा, तेन तमै रत्नानि विचित्राकाराणि वनागि मणवा यानि तन न सन्ति तानि बौकितानि, सचिलातः पृच्छति-अहो रनानि शुरूपाणि, कैतानि खानि !, कथयति-अस्माकं राग्य, चिन्तयति-पदि नाम संयुध्येत, स राजा भणति-अहमध्यावामि रखानि प्रेक्षे, परं त्वदीयात् राज्ञो विमेमि, जिनदेवो भणति-मा भैषीः, तदा तस्मै राजे लेखं ददाति, तेन भणितंआयारिवति, आनीतः प्रायकेण, स्वामी समवमृतः, पात्रुजयो निर्गतः सपरीवारो महत्या कया, स्वजनसमूहो निर्गतः, जिलातः पृच्छति-जिनदेव ! जनो याति , स भणति-पप रणवणिक सा, भणति-साह वावः प्रेक्षावहे, हावपि जनी निर्गती, प्रेक्षेते-खामिनभवातिच्छवं सिंहासनं, विभापा, पृच्छति-कथं। रखानि, तदा ~120 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३१०] भाष्यं २०६...], प्रत सूत्रांक (सू.] सामी भावरयणाणि दवरयणाणि य पण्णवेइ, चिलाओ भणइ-मम भावरयणाणि देहित्ति भणिओ रयहरणगोच्छगाइ तसाहिति, पबइओ, एयं मूलगुणपच्चक्खाणं, इयाणिं उत्तरगुणपञ्चक्खाणं, तत्रोदाहरणगाहा चाणारसी य णयरी अणगारे धम्मघोस धम्मजसे । मासस्स य पारणए गोउलगंगा व अणुकंपा ।। १३११॥ | व्याख्या कथानकादवसेया, तच्चेद-वाणारसीए दुवे अणगारा वासावासं ठिया-धम्मघोसो धम्मजसोय, ते मासं खमणेण अच्छंति, चउत्थपारणाए मा णियावासो होहितित्ति पढमाए सज्झायं बीयाए अत्थपोरिसी तइयाए उग्गाहेत्ता पहाविया,13 सारइएणं उण्हेणं अज्झाया तिसाइया गंगं उत्तरंता मणसावि पाणियं न पत्थेति, उत्तिण्णा, गंगादेवया आउद्या, गोउलाणि विउवित्ता सपाणीया गोवग्गा दधिविभासा, ताहे सद्दावेइ-एह साहू भिक्खं गेह, ते उवउत्ता दट्टण ताण रूवं, सा तेहिं पडिसिद्धा पहाविया, पच्छा ताए अणुकंपाए वासवद्दल विउधियं, भूमी उला, सियलेण वारण अप्पाइया गार्म स्वामी भावरतानि इन्वरनानि च प्रज्ञापयति, चिलातो भणति-मम भावरखान्यर्पयत इति भणितो रजोहरणगोच्छकादि दर्शयन्ति, प्रत्नजितः, एतत् मूलगुणप्रत्यास्यानं, इदानीमुत्तरगुणप्रत्याख्यानं, तश्रोदाहरणगाथा-वाराणस्यां हावनगारौ वर्षावासं स्थिती-धर्मघोषो धर्मयशाच, तो मासक्षपणमासक्षपणेन | तिष्ठतः, पतुर्थपारणके मा नित्यवासिनी भूचेति प्रथमायां स्वाध्यायं द्वितीयस्थामर्थपौरुषी (कृत्वा) तृतीयस्पामुद्राम प्रधाविती, शारदिकेनौप्य येनाभ्याता सुपादितौ गङ्गामुत्तरन्तौ मनसाऽपि पानीयं न प्रार्थयतः, उत्तीणी, गङ्गादेवताऽवजिता, गोकलानि विर्य सपानीयान् गोवान् इधि विभाषा, तदा शब्दयति-आयातं साधू ! भिक्षा गृहीतं, ताजुपयुक्तौ दृष्ट्वा तेषां रूपं, सा तान्यां प्रतिषिद्धा प्रधाविता, पश्चात् तयाऽनुकम्पया वर्षददलकं विकुर्वित, भूमिराई (जाता),शीतलेन वायुनाऽऽप्याषितौ ग्राम FACANCY AAAAAAA दीप अनुक्रम [२६] ~121 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१३११...] भाष्यं [२०५], प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यक- पत्ता, भिक्खं गहियं, एवं उत्तरगुणा न भग्गा । एयं उत्तरगुणपञ्चक्खाणं २३, पचक्खाणित्ति गयं २३ । इयाणिं विउस्स । हारिभ. ग्गेत्ति, विउस्सग्गो दुविहो-दवओ भावओ य, तत्थ दबविउस्सग्गे करकंडादओ उदाहरणं, तथाऽऽह भाष्यकार: मणाध्य द्रीया करकंट कलिंगेस, पंचालेसु य दुम्मुहो। नमीरापा विदेहेसु, गंधारेसु य णग्गती ॥ २०५॥ (भा०)॥ योगसं० वसभे य इंदके वलए अंबे य पुप्फिए योही। करकंडुदुम्मुहस्सा, नमिस्त गंधाररन्नो य ।। २०६॥ (भा०)॥ २३ प्रत्या॥७१६॥ इमीए वक्खाणं-चंपाए दहिवाहणो राया, चेडगधूया पउमावई देवी, तीसे डोहलो-किहऽहं रायनेवरथेण नेवस्थियाख्यानं २४ उज्जाणकाणणाणि विहरेजा', ओलुग्गा, रायापुच्छा, ताहे राया य सा य देवी जयहस्थिमि, राया छत्तं घरेइ, गया|व्युत्सर्गे कउज्जाणं, पढमपाउसो य वट्टइ, सो हत्थी सीयलपण मट्टियागंण अन्भाहओ वर्ण संभरिऊण वियट्टो वणाभिमुहो पयाओ.मारकवाद्या; जणो न तरइ ओलग्गिउं, दोवि अडविं पवेसियाणि, राया वडरुक्खं पासिऊण देवि भणइ-एयस्स वडस्स हेतुण जाहिति तो है तुमं सालं गेण्हिज्जासित्ति, सुसंजुत्ता अच्छ, तहत्ति पडिसुणेइ, राया दच्छो तेण साला गहिया, इदरी हिया, सो उइण्णो, प्राप्ती, मै गृहीतं, एवमुत्तरगुणा न भन्ना, एतदुत्तरगुणप्रत्याल्पानं । प्रत्याख्यानमिति गतं, इदानी व्युत्सर्ग इति, म्युल्सो द्विविधः-द्रव्यतो भावतश्च, तन्त्र मध्ययुत्सर्ग करकण्डादय पदाहरणं, तत्राह-अनयोख्यिानं-चम्पायां दधिचाहनो राजा, चेटकतुहिता पद्मावती देवी, तस्या दोहद-कथमई रामनेपथ्येन नेपश्यितोयानकाननानि विहरेयं, क्षीणा, राजपृच्छा, तदा राजा सा च देवी जयहस्लिनि, राजा छत्रं धारयति, गतोधानं, प्रथमप्राब्द च वर्तते, दास हस्ती कीतलेन मृतिकागम्धेनाभ्याहतो वन स्मृत्वा मत्तो वनाभिमुखं प्रयातः, जनो न शकल्यपलगित, द्वावपि अटवीं प्रवेशिती, राजा वटवृक्ष पर | देवी भगति-पतस्थ वटस्थापतात यास्यति ततस्वं शाळां गृतीया इत्ति, सुसंयुक्ता तिष्ठ, तथेति प्रति ऋणोति, राजा दक्षसेन शाला गृहीता, इतरा बता ॥७१६॥ सोऽवतीर्णः, %25% दीप अनुक्रम [२६] 45945 मूल संपादने मुद्रणदोष संभवात् अत्र भाष्य क्रम २०५ एवं २०६ द्विवारान् मुद्रितं ~122 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३११...] भाष्यं [२०६], % % प्रत सूत्रांक निराणंदो गओ चंपं णयरिं, सावि इस्थिगा नीया णिम्माणुस अडविं जाव तिसाइओ पेच्छइ दहं महइमहालयं, तत्थ उइण्णो, अभिरमइ हत्थी, इमावि सणिइमोइत्ता उत्तिष्णा, दहाओ दिसा अयाणंती एगाए दिसाए सागार भत्तं पच्चक्खाइत्ता पहाविया, जाव दूरं पत्ता ताव तावसो दिडो, तस्स मूलं गया, अभिवादिओ, तत्थ गच्छद, तेण पुच्छियाकओ अम्मो! इहागया ,ताहे कहेइ सन्भावं, चेडगस्स धूया, जाब हस्थिणा आणिया, सो य तावसो चेडगस्स नियलओतेण आसासिया-माबीहिहित्ति, ताहे वणफलाई देइ, अच्छावेचा कइवि दियहे अडवीए निष्फेडित्ता एत्तोहिंतो अम्हाणं अगइविसओ, एत्तो बरं हलवाहिया भूमी, तं न कप्पइ मम अतिक्कमिङ, जाहि एस दंतपुरस्स विसओ, दंतचको राया, निग्गया तओ अडवीओ, दंतपुरे अजाण मूले पवइया, पुच्छियाए गम्भो नाइक्खिओ, पच्छा नाए मयहारियाए आलोदावेद, सा वियाता समाणी सह णाममुद्दियाए कंबलरयणेण य वेढि सुसाणे उज्झेइ, पच्छा मसाणपालो पाणो, तेण गहिओ, %E0 [सू.] 4 A दीप अनुक्रम [२६] 4% निरानन्दो गतलम्पो नगरी, साऽपि स्त्री नीता निर्मानुपामटवी यावषादितः प्रेक्षते दूर्द महातिमहालयं, तत्रावतीर्णः, अभिरमते हस्सी, इयमपि शनैर्षिमुच्योत्तीणा, दश दिशोऽजानन्ती एकस्यो दिशि साकार भक्त प्रत्याख्याय प्रधाविता, यावरं गता तावतापसो दृष्टः, तस्य मूलं गता, अभिवादितः, तत्र ग ति, तेन पृष्टा-कृतोऽम्बदागता?, तदा कथयति सजावं, चेटकस्य दुहिता, बावस्तिनानीता, सच तापसोटकस्य निजका, तेनावखिता-मा भैषीरिति तदा वनफलानि ददाति, स्थापयित्वा कतिचिदिवसान अध्यीतो निष्काश्येतोऽस्माकमविषयो गतेः अतः परं हलकृष्टा भूमिः, तत् नं कल्पतेऽस्माकमतिकान्तुं याहि दन्तपुरख विषय एषः, दन्तवा रामा, निर्गता ततोऽटम्याः, दन्तपुरे आर्याणां मूले प्रनजिता, पृष्टया गों नाल्याता, जाते पश्चान्महतरिकाया आलो. यति, सा अजनयन्ती सन्ती सह नाममुदया रजकम्बलेन च बेष्टयित्वा श्मशाने उशति, पश्चात् श्मशानपालः पाणसेन गृहीतः, मूल संपादने मुद्रणदोष संभवात् अत्र भाष्य क्रम २०५ एवं २०६ द्विवारान् मुद्रितं ~123 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३११...] भाष्यं [२०६], द्रीया | प्रत सूत्रांक १७१७॥ आवश्यक- तेण अप्पणो भजाए समपिओ, सा अजा तीए पाणीए सह मेत्तियं घडेइ, साय अजा संजतीहिं पुच्छिया-किं गम्भो?, प्रतिकहारिभ-1 भणइ-मयगो जाओ, तो मए उज्झिओत्ति, सोवि संवडइ, ताहे दारगेहिं समं रमतो डिंभाणि भणइ-अहं तुभं राया मम तुम्भे कर देह, सो सुक्ककच्छूए गहिए, ताणि भणइ-ममं कंडुयह, ताहे करकंडुत्ति नामं कयं, सो य तीए संजतीए योगसं० अणुरत्तो, सा से मोदगे देइ, जं वा भिक्ख लहइ, संवडिओ मसाणं रक्खइ, तत्थ य दो संजया केणइ कारणेण तं मसाणं २४व्युत्सर्गे IN करकट्ठाद्या गया, जाव एगस्थ वंसीकुडंगे दंडगं पेच्छंति, तत्थेगो दंडलक्षणं जाणइ, सो भणइ-जो एवं दंडगं गेण्हइ सो राया हवई,X किंतु पडिच्छियबो जाव अण्णाणि चत्तारि अंगुलाणि वडइ, ताहे जोगोत्ति, तेण मायंगेण एगेण य धिज्जाइएण सुर्य, ताहे | सो मरुगो अप्पसागारिए तं चउरंगुलं खणिऊण छिदइ, तेण य चेडेण दिहो, उद्दालिओ, सो तेण मरुएण करणं णीओ, भणइ-देहि मे दंडगे, सो भणइ-न देमि, मम मसाणे, पिज्जाइओ भणइ-अण्णं गिण्ह, सो नेच्छइ, मम एएण कर्ज, सोर नात्मनो भार्यायै समर्पितः, सा भार्थी तथा पापया सह मैत्री घटषति, सा चायाँ संयतीभिः पृष्टा-क गर्भ, भणति-पतको जातस्ततो मयो-18 | शित इति, सोऽपि संवर्धते, तदा दारकैः समं रममाणो डिम्भान् भणति-अई भवतो राजा मा यूयं कर दत्त, स शुष्ककण्डा गृहीतः, तान् मणति-मां कण्डू| यत, तदा करकडूरिति नाम कृतं, स च तस्यां संपल्यां अनुरकः, सा तमै मोदकान् ददाति, यांचा भिक्षा लभते, संतृतः श्मशानं रक्षति, तत्र च ही साथ ||७१७॥ केनचित्कारणेन तत् श्मशानं गती, यावदेकत्र बंशीकुदले दई प्रेक्षेते, तत्रैको दण्डलक्षणं जानाति, स भणति-प एनं दण्डकं गृहाति - ताजा भवति, किंतु प्रतीक्षितव्यो यावदन्यान् चतुरोऽनुलान् वर्धते, सवा योग्य इति, तरोन माराङ्गेनफेन च धिरजातीयेन श्रुतं, सदा स मामणोल्पसागारिके तं चतुरगुलं खनिवा छिनति, तेन च चेटेन दृष्टः, उदालितः, स तेन प्राझणेन करणे (न्यायालय) नीतः, भणति-देहि मय इण्डकं, स भणति- ददामि, मम श्मशाने, धिग्जातीयो भणति-अन्यं गृहाण, स नेच्छति, ममतेन कार्य, स दीप अनुक्रम [२६] CAMERASAR A M ~124 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३११...] भाष्यं [२०६], 20-%2534600 प्रत दारओ पुच्छिओ-किं न देसि ?, भणइ-अहं एयस्स दंडगस्स पहावेणं राया भविस्सामि, ताहे कारणिया हसिऊण भणति-जया तुर्म राया भविजासि तया एयस्स मरुयस्स गाम देजाहि, पडिवणं तेण, मरुएण अण्णे मरुया वितिजा गहिया जहा मारेमो तं, तस्स पिउणा सुयं, ताणि तिण्णिवि नहाणि जाव कंचणपुरं गयाणि, तस्थ राया मरइ, रजारिहो अण्णो नस्थि, आसो अहिवासिओ, सो तस्स मुत्तगस्स मूलमागओ पयाहिणं काऊण ठिओ, जाव लक्खणपाढएहि दिहो लक्खणजुत्तोत्ति जयसद्दो कओ, नंदितूराणि आयाणि, इमोवि वियंभंतो वीसत्थो उडिओ, आसे विलम्गो, मायगोत्ति धिज्जाइया न देंति पवेसं, ताहे तेण दंडरयणं गहियं, जलिउमारद्धं, भीया ठिया, ताहे तेण वाडहाणगा हरिएसा धिज्जाइया कया, उक्तं च-दधिवाहनपुत्रेण, राज्ञा तु करकण्डुना । वाटहानकवास्तव्याश्चाण्डाला ब्राह्मणीकृताः ॥१॥ तस्स पिइधरनाम अवइन्नगोत्ति, पच्छा से तं चेडगरुवकयं नामं पइडियं, करकंडुत्ति, ताहे सो मरुगो आगओ, भणइ-देह सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [२६] दारकः पृष्टः-किन ददासि ?, भयति-महमेतस्य दण्डकस्य प्रभावेण राजा भविष्यामि, तदा कारणिका हसित्वा भणन्ति-यदा वं राजा भयेस्तबैमत प्राह्मणाय प्रामं दधाः, प्रतिपनं तेन, मरुकेग अन्ये ब्राह्मणा साहाय्यका गृहीता यथा मारयामस्तं, तब पित्रा श्रुतं, ते त्रयोऽपि नष्टाः पाचन काजनपुरं| गतासन राजा मृतः, राज्याहान्यो नास्ति, अनोऽधिवासिता, स तस्व सुप्तख पार्भमागतः प्रदक्षिणां कृत्वा स्थितो, यावलक्षणपाठकदष्टो लक्षणयुक्त इति जयशब्दः कृतः, नन्दीतण्याहतानि, अयमपि विनम्भमाणो विश्वस्त वस्थितः, अवे बिलग्नः, माता इति विजातीया न ददति प्रवेश, तदा तेन वण्डरवं गृहीतं, स्वलितुमारब्ध, भीताः स्थिताः, तदा तेग पाटधानवास्तम्या हरिकेशा चिम्जातीयाः कृताः । तस्य पितृगृहनामावकीर्णक इति, पश्चात्तस तत् चेटककृतं नाम प्रतिहितं, करकडूरिति, तदा स ब्राह्मण आगतः, भणति-देहि ~125 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३११...] भाष्यं [२०६], आवश्यक- हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक १७१८॥ मम गामंति, भणइ-जं ते रुच्चइ तं गेण्ह, सो भणइ-मम चंपाए घरं तहिं देहि, ताहे दहिवाहणस्स लेह देइ, देहि मम प्र तिक एगं गाम अहं तुज्झजं रुच्चइ गामं वाणयरं वा तं देमि, सो रुडो-दुहमायंगो न जाणइ अप्पयं तो मम लेह देइत्ति, दूएणमणाध्य. पडियागएण कहियं, करकंडुओ रुडो, गओ रोहिजइ, जुद्धं च वट्टइ, तीए संजतीए सुयं, मा जणक्खओ होउत्ति कर- योगसं० | कंडु ओसारेत्ता रहस्सं भिंदइ-एस तव पियत्ति, तेण ताणि अम्मापियराणि पुच्छियाणि, तेहिं सम्भावो कहिओ, नाम- २४९ मुद्दा कंबलरयणं च दावियं, भणइ, माणेण-ण ओसरामि, ताहे सा चंपं अइगया, रण्णो घरमतेंती णाया, पायवडियाओ करकंडाद्याः दासीओ परुण्णाओ, रायाएवि सुर्य, सोवि आगओ वंदित्ता आसणं दाऊण तं गम्भं पुच्छइ, सा भणइ-एस तुम जेण | रोहिओत्ति, तुट्ठो निग्गओ, मिलिओ, दोवि रजाई दहिवाहणो तस्स दाऊण पबइओ, करकंडू महासासणो जाओ, सो य किर गोउलप्पिओ, तस्स अणेगाणि गोउलाणि, अण्णया सरयकाले एगं गोवच्छगं गोरगत्तं सयं पेच्छह, भणइ-एयस्स दीप अनुक्रम [२६] मर्श प्राममिति, भणति-यस्तै रोचते तं गृहाण, स भणति-मम चम्पायां गृहं तत्र देहि, तदा वधिवाहनाय लेखं ददाति, देहि मे एक ग्राम अहं तव यो रोचते प्रामो वा नगर चा तं ददामि, स रुष्ट:-दुष्टमातङ्गो न जानाति आत्मानं ततो मा लेख ददातीति, दूतेन प्रत्यागतेन कथितं, करकण्डू रुष्टः, गतो रोधषति, बुर्द चवते, तपा संवस्या श्रुतं, मा जनक्षयो भूदिति करकण्डूमपसार्य रहस्यं भिनत्ति-एप तय पितेति, तेन तौ मातापितरौ पृष्टी, ताभ्यां सजावः | कथितः, नाममुद्रा कम्बलर च दक्षिते, भणति मानेन-नापसरामि, तदा सा चम्पामनियता, राज्ञो गृहमाबाम्ती ज्ञाता, पादपतिता दासो रोषितं ना, | राज्ञाऽपि श्रुतं, सोऽपि आगतो वन्दित्वासनं दवा तं गर्भ पुच्छति, सा भणति-पुष खं येन रुबा इति, तुष्टो निर्गतः, मिलितो, हे अपि राज्ये दधिवाइनसमै दावा प्रबजितः, करकर्महाशासनो जातः, स च किल गोकुलमिया, तस्यानेकानि गोकुलानि, अन्यदा शरस्काले एक गोवरसकं गौरगानं स्वयं प्रेक्षते, भणति-पुरास ॥७१८॥ ~126~ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१३११...] भाष्यं [२०६], प्रत सूत्रांक - [सू.] मायरं मा दुहेजह, जया बहिओ होइ तया अन्नाणं गावीणं दुद्धं पाएजह, तो गोवाला पडिसुर्णेति, सोवि उच्चत्तविसाणो| खंधवसहो जाओ, राया पेच्छइ, सो जुद्धिकओ कओ, पुणो कालेण आगओ पेच्छइ महाकायं वसह पडएहिं घडिजतं, गोवे पुच्छइ-कहिं सो वसहोत्ति ?, तेहिं दाविओ, पेच्छंतो तओ विसपणो चिंतेंतो संबुद्धो, तथा चाह भाष्यकार सेयं सुजाय सुविभत्तसिंग, जो पासिया वसभं गोडमज्झे । रिद्धिं अरुद्धिं समुपेहिया णं, कलिंगरायावि समिक्ख धम्मं । २०७॥ (भा०)॥ गोटुंगणस्समझे टेक्कियसद्देण जस्स भज्जति। दित्तावि दरियवसहा सुतिक्खसिंगा सरीरेण ॥२०८॥ (भा०)। पोराणयगयदप्पो गलंतनयणो चलंतवसभोहो। सो चेव इमो वसहो पञ्यपरिघट्टणं सहइ ॥२०९॥ (भा०)॥ | गाथात्रयस्य व्याख्या-श्वेत-शुक्ल सुजातं-गर्भदोषविकलं (सुविभक्त ) शृङ्ख-विभागस्थसमशृङ्गं यं राजा दृष्ट्वाअभिसमीक्ष्य वृषभ-प्रतीतं गोष्ठमध्ये-गोकुलान्तः पुनश्च तेनैवानुमानेन ऋद्धि-समृद्धिं सम्पदं विभूतिमित्यर्थः, तद्विपरीतां चाऋद्धिं च संप्रेक्ष्य-असारतयाऽऽलोच्य कलिङ्गा-जनपदास्तेषु राजा कलिङ्गराजा, असावपि समीक्ष्य धर्म-पर्यालोच्य धर्म सम्बुद्ध इति वाक्यशेषः। किं चिन्तयन् ?-'गोडंगणस्त मझें त्ति गोष्ठाङ्गणस्यान्तः ढेकितशब्दस्य यस्य भग्न मातरं मा दोग्ध, यदा वर्धितो भवेत् तदाऽभ्यासां गर्वा दुग्धं पाययेत, ततो गोपालाः प्रतिशृण्वन्ति, सोऽप्युनतमविषाणः स्वन्धवृषभो जातः, राजा प्रेक्षते, स युद्धीयः कृतः, पुनः कालेनागतः प्रेक्षते महाकार्य वृषभं महिषीयासैधंधमान, गोपान पृच्छति-कस तृषभ इति, तैईर्शितः, प्रेक्षमाणस्ततो विष. पणचिन्तयन् संबुद्धः । * समस्या प्र. दीप अनुक्रम [२६] 25-%82-* ~127~ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१३११...] भाष्यं [२०९], आवश्यक- हारिभ- द्रीया प्रत सूत्रांक वन्तः, के ?-दीप्ता अपि-रोषणा अपीत्यर्थः, दर्पितवृषभा-बलोन्मत्तबलीवर्दा इत्यर्थः, सुतीक्ष्णशृङ्गा अपि शारीरेण ४ प्रतिकबलेन । पौराणः गतदर्पः गलन्नयनः चलद्वृषभोष्ठः, स एवायं वृषभोऽधुना पडुगपरिघट्टणं सहइ, धिगसारः संसार इति, मणाध्य सर्वप्राणभृतां चैवेयं वातेति तस्मादलमनेनेति, एवं सम्बुद्धो, जातीसरणं, निग्गओ, विहरइ । इओ पंचालेसु जणवएसु योगसं० कपिले णयरे दुम्मुहो राया, सोवि इंदके पासइ लोएण महिजतं अणेयकुडभीसहस्सपडिमंडियाभिरामं, पुणोवि लुप्पंत, अणयकुडमासहस्सपाडमाडवामिराम, पुणा पता करकंडाद्याः पडियं च अमेग्झमुत्ताणमुवरिं, सो संयुद्धो, तथाऽऽह भाष्यकार: जो इंदकें समलंकियं त. दट्ट पडतं पविलुप्पमाणं। रिद्धिं अरिद्धिं समुपहिया णं, पंचालराया वि समिक्ख धर्म ॥ २१॥ (भा०) निगदसिद्धैव, विहरइ । इओ य विदेहाजणवए महिलाए णयरीए नमी राया, गिलाणो जाओ, देवीओ चंदणं घसंति | तस्स दाहपसमणनिमित्तं, वलयाणि खलखलंति, सो भणइ-कन्नाघाओ, न सहामि, एकेके अवणीए जाव एकेको अच्छइ, ॥७१९॥ एवं संजुबः, जातेः मरणं, निर्गतः, विहरति । इतश्च पाजालेषु जनपदेषु काम्पील्ये नगरे दुर्मुखो राजा, सोऽपि इन्दकेतुं पश्यति लोकेन मामानं अनेकलापताकासहस्रपरिमण्डिताभिरामं, पुनरपि लुप्यमानं, पतितं चामेश्यमूत्राणामुपरि, स संदः, विहरति। इतन्त्र विदेहजनपये मिथिलायां नगर्यो नमी राजा, ग्लानो जातः, देण्यश्चन्दनं धर्षयन्ति तस्य दाहप्रशमन निमित्त, वलयानि शब्दयन्ति, स मणति-कर्णाघातः, न सहे, एककस्मिकपनीते याव-18 कैकस्तिष्ठति, दीप अनुक्रम [२६] ~128~ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३११...] भाष्यं [२१०], प्रत सूत्रांक द्र [सू.] सदो नस्थि, राया भणइ-ताणि वलयाणि न खलखलेंति , अवणीयाणि, सो तेण दुक्खेण अब्भाहओ परलोगाभिमुहो चिंतेइ-पहुयाण दोसो एगस्स न दोसो, संबुद्धो, तथा चाहपहुयाण सहयं सोचा, एगस्स य असहयं । वलयाणं नमीराया, निक्खंतो मिहिलाहियो ॥ २११ ॥ (भा.)13 कण्ठया, विहरइ । इओ य गंधारविसए पुरिमपुरे णयरे नग्गई राया, सो अन्नया अणुज निग्गओ, पेच्छा यं कुसुमियं, तेण एगा मंजरी गहिया, एवं खंधावारेण लयंतेण कट्ठावसेसो कओ, पडिनियत्तो पुच्छइ-कहिं सो चूयरुक्खो, अमच्चेण कहियं-एस सोत्ति, कह कहाणि कओ!, तओ भणइ-जं तुम्भेहिं मंजरी गहिया पच्छा सबेण खंधावारेण गहिया, सो चिंतेइ-एवं रजसिरित्ति, जाव ऋद्धी ताव सोहेइ, अलाहि एयाए, संबुद्धो । तथा चाह जो चूपरुक्खं तु मणाहिराम, समंजरिं पल्लवपुष्फचित्तं । रिबि अरिद्धिं समुपेहिया णं, गंधाररायावि समिक्ख धम्मं ॥ २१२ । (भा०)॥ - - --- दीप अनुक्रम [२६] शब्दो नालि, राजा भणति-तानि बलपानि न शब्दयन्ति , अपनीतानि, सतेन दुःखेनाभ्याइतः परलोकाभिमुखश्चिन्तयति-बहूनां दोषो मकस दोषा, संयुद्धः । विहरति, इतना गान्धारविषये पुरिमपुरे नगरे नगती राजा, सोऽन्यदानुयात्रा निर्गता, प्रेक्षते पूर्व कुसुमितं, तेनेका मञ्जरी गृहीता. एवं स्कन्धाचारेण गृहवा काष्ठावशेषः कृतः, प्रतिनिवृत्तः पृच्छति-कस चूतवृक्षः, अमात्येन कथितं-स एष इनि, कधं काष्ठीकृतः, १, ततो भणति-यावया मक्षरी गृहीता पक्षात् सर्वेण स्कन्धाचारेण गृहीता, स चिन्तयति-एवं राज्यश्रीरिति, यावद्धिसावत् शोभते, भलमनपा, संयुद्धः। E-MA: % ~129~ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१३११...] भाष्यं [२१२], % प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [२६] | कण्ठ्या । एवं सो विहरइ। ते चत्तारि विहरमाणा खिइपइडियणयरमज्झे चउद्दारं देवउलं, पुर्ण करकंडू पविहो, दक्खि- ४ प्रतिकहारिभ णेणं दुम्महो, एवं सेसावि, किह साहुस्स अन्नहामहो अच्छामित्ति तेण दक्षिणेणावि मुहं कयं, नमी अवरेण, तओ- मणाध्य. द्रीया वि मुह, गंधारो उत्तरेण, तओ वि मुहं कयंति । तस्स य करकंडुस्स बहुसो कंडू, सा अस्थि चेव तेण कंडूयणगं गहाय या योगसं. २४व्युत्सर्गे मसिणं मसिणं कण्णो कंडूइओ, तं तेण एगस्थ संगोवियं, तं दुम्मुहो पेच्छइ,-'जया रजं च रहेंच, पुरं अंतेउरं तहा। ।७२०॥ करकंडाद्या 18 सबमेयं परिचज, संचयं किं करेसिमं ॥१॥ सिलोगो कंठो जाव करकडू पडिवयणं न देइ ताव नमी वयणमिमं भणइ जया ते पेइए रजे,कया किच्चकरा बहू । तेसिं किच्चं परिचज, अन्नकिच्चकरो भवं? ॥२॥ सिलोगो कठो, किं तुम एयस्स। आउत्तिगोत्ति । गंधारो भणइ-जया सर्व परिचज मोक्खाय घडसी भवं । परं गरिहसी कीस?, अत्तनीसेसकारए ॥३॥ ४सिलोगो कंठो, तं करकंडू भणइ-मोक्खमम्गं पवण्णाणं, साहूणं बंभयारिणं । अहियरथं निवारम्ते, न दोसं वसुमरिहसि ॥४॥ लासिलोगो-रूसउ वा परो मा वा, विसं वा परिअत्तउ । भासियबा हिया भासा, सपक्खगुणकारिणी ॥ ५॥ सिलोगो, श्लोकद्वयमपि कण्ठ्यं । तथाएवं स विहरति । ते चत्वारो विहरम्तः क्षितिप्रतिष्ठित्तनगरमध्ये चतुरि देवकुकं (तत्र) पूर्वेण करकण्डः प्रविष्टः, दक्षिणेन दुर्मुखः, एवं शेषा ॥७२०॥ वषि, कर्ष साधोरन्यतोमुखस्तिष्टामीति तेन दक्षिणस्यामपि मुखं कृतं, नमिरपरेण, तस्यामपि मुख, गाधार उत्तरेग, तस्यामपि मुखं कृतमिति । तस्य च करकण्डोर्यद्धी कण्डूः, सारत्येज, तेन कण्डूयनं गृहीत्वा मसूणं मसणं कर्णः कण्हयितः, यत् तेनैकन संगोषितं, तत् दुर्मुखः प्रेक्षते, श्लोकः काव्यः यावत् । करकण्डा प्रतिवचन न ददाति तावत् नमिवंचनमिव भणति । लोक कयाकिंवमेतखाऽऽयुक्तातिर, गान्धारो भणति-पोका कपः तं करकग्दर्भपति-लोकः, श्लोक, %2595 ~130 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३१२] भाष्यं [२१२...', (४०) 4%A प्रत सूत्रांक [सू.] जहा जलंताइ(त) कढ़ाई, उयेहा: न चिरंजले । घटिया घट्टिया झत्ति, तम्हा सहह घट्टणं ॥१३१२ ॥ सुचिरंपि वकुटाई होहिंति अणुपमजमाणाई । करमदिदारुयाई गर्यकुसागारवेंटाई॥१३१३॥ . KI इदमपि गाथाद्वयं कण्ठयमेव, ताणं सपाण दवविउस्सग्गो, जं रजाणि उझियाणि, भावविउस्सग्गो कोहादीणं, विउ-13 |स्सग्गेत्ति गयं २५, इयाणिं अप्पमाएत्ति, ण पमाओ अप्पमाओ, तत्थोदाहरणगाहा रायगिहमगहसुंदरि मगहसिरी पउमसत्थपक्खेवो। परिहरियअप्पमत्ता नहूँ गीय नवि य चुका ॥ १३१४ ॥10 | इमीए वक्खाण-रायगिहे णयरे जरासंधो राया, तस्स सबप्पहाणाओ दो गणियाओ-मगहसुंदरी मगहसिरी य, मग-15 हासिरी चिंतेइ-जइ एस न होजा ता मम अन्नो माणं न खंडेजा, राया य करयलत्यो होजत्ति, सा य तीसे छिद्दाणि | मग्गइ, ताहे मगहासिरी नदिवसंमि कणियारेसु सोवनियाओ संवलियाओ विसधूवियाओ सूचीओ केसरसरिसियाओ (खित्ताओ, ताओ पुण तीसे मगहसुंदरीए मयहरियाए अहियाओ, कह भमरा कणियाराणि न अल्लियंति चूएस निलंति ?, दीप अनुक्रम [२६] AREESee More १ तेषां सर्वेषां हयग्युसर्गः, यत् राज्यान्युमितानि, भावध्युत्सर्गः क्रोधादीनां । पुत्सर्ग इति गतं, इदानीमप्रमाद इति, न प्रमादोभमाद, बनो। दाहरणगाथा । अस्या व्याख्यान-राजगृहे नगरे जरासन्धो राजा, तस्य सर्वप्रधाने वे गणिके-मगधसुन्दरी मगधीन, मगधनीचिन्तयति, यषा न भवन सदा मम नान्यो मार्न खण्डवेन् , राजा च करतलस्थो भवेदिति, सा प तस्यामिहाणि मार्गयति, तदा मगधनीखदिवसे कर्णिकारेषु सावणिका मञ्जयः विषकार सिताः सूचयः केशरसदशाः क्षेपितवती, ताः पुनमस्या मगधसुन्दा महत्तरिकया ज्ञाताः, क श्रमराः कर्णिकारेषु नागच्छन्ति ? चूतेषु गम्ति ~131 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१३१४] भाष्यं [२१२...], प्रत सूत्रांक आवश्यक- हारिभ- द्रीया ॥७२॥ CHEClockCC नूर्ण सदोसाणि पुप्फाणि, जडू य भणीहामि एएहिं पुप्फेहिं अच्चणिया अचोक्खा विसभाषियाणि वा ता गामेल्लगत्तणं ४ प्रतिक्रहोहित्ति उवाएणं वारेमित्ति, सा य रंगओइणिया, अण्णया मंगलं गिजइ, सा इमं गीतियं पगीया मणाध्यक योगसं० पत्ते वसंतमासे आमोअ पमोअए पवत्तमि । मुत्तूण कण्णिआरए भमरा सेवंति चूअकुसुमाई ॥१३१५ ॥ २६अप्रमा गीति, इमा निगदसिद्धैव, सो चिंतेइ-अपुवा गीतिया, तीए णायं-सदोसा कणियारत्ति परिहरंतीए गीयं नच्चियं द:२७लच सविलासं, न य तत्थ छलिया, परिहरिय अप्पमत्ता नमु गीयं न कीर चुका, एवं साहुणावि पंचविहे पमाए रक्खंतेणं बालवः जोगा संगहिया २५ । इयाणि खवालवेत्ति, सो य अप्पमाओ लवे अद्धलवे या पमायं न जाइयचं, तत्थोदाहरणगाहा|भरुयच्छमि य विजए नडपिडए वासवासनागघरे । उवणा आयरियस्स (उ) सामायारीपउंजणया ॥१३१६॥ । इमीए वक्खाणं-भरुअच्छे णयरे एगो आयरिओ, तेण विजओ नाम सीसो उज्जेणी कजेण पेसिओ, सो जाइ, तस्स | गिलाणकजेण केणइ वक्खेवो, सो अंतरा अकालवासेण रुद्धो, अंडगतणउज्झियंति मडपिडए गामे वासावासं ठिओ, सो12 नूनं सदोषाणि पुष्पाणि, यदि चामणिष्य एतैः पुपरनिकायोक्षा विषभावितानि वासरा मामेषकत्वमभविष्य निति उपायेन धारयामि इति. साच रावतीणोऽम्पदा मजलं गायति, सेमांगीतिप्रगीतवती-भीतिदर्य, सचिन्तयति-अपनी गीति तथा शास-सदोषाणि कर्णिकाराणि इतितारा परिहरम्त्या गीतं नर्तितं च सवितासं, न च तत्र उहिता, परिहत्य (तानि), अप्रमत्ता नृत्ये गीते च न किल स्खलिता, एवं साधुनाऽपि पञ्चविधान् प्रमादान् | रक्षयता योगा। संगृहीताः । इदानीं सवालव इति, स चाप्रमादः लवेलवे वा प्रमाई न यातव्यं, तत्रोदाहरणगाथा-अस्सा ब्यागयान-गुकाळ नगर | आचार्यः, सेन विजयो गाम विध्य प्रजापिनी कार्येण प्रेषितः, स याति, तस ग्लानकार्पण केनचिद् म्याक्षेपः, सोअन्तराऽकालवण कब अडकतो. झितमिति नटपेटके मामे वर्षावास स्थितः, स दीप अनुक्रम [२६] ~132 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३१६] भाष्यं [२१२...], प्रत सूत्रांक (सू.] दीप अनुक्रम [२६] चिंतेइ-गुरुकुलवासो न जाओ, इहंपि करेमि जो उवएसो, तेण ठवणायरिओ कओ, एवमावासगमादीचकवालसामायारी सबा विभासियवा, एवं किल सो सबत्थ न चुको, खणे २ उवजुजइ-किं मे कयं, एवं किर साहुणा काय, एवं तेण जोगा संगहिया भवंति २७ । लबालवेत्ति गर्य, इयाणिं झाणसंवरजोगेत्ति, झाणेण जोगा संगहिया, तत्थोदाहरणं_णपरं च सिंववरण मुंडिम्बयअन्नपूसभूई य । आयाणपूसमित्ते सुहुमे झाणे विवादो य ।। १३१७ ।। इमीए वक्खाणं-सिंबवणे गयरे मुंडिम्बगो राया, तत्थ पूसभूई आयरिया बहुस्सुया, तेहिं सो राया उवसामिओ सड्डो जाओ, ताण सीसो पूसमित्तो बहुस्सुओ ओसण्णो अपणत्थ अच्छइ, अण्णया तेर्सि आयरियाणं चिंता-सुहुमं झाणं पविस्सामि,तं महापाणसम, तं पुण जाहे पविसइ ताहे एवं जोगसंनिरोहं करेइ ज न किंचिह चेएइ, तेसिंच जे मूले ते अगीयस्था, | तेर्सि पूममित्तो सद्दाविओ, आगओ, कहियं, स तेण पडिवन्नं, ताहे एगथ उवयरए निवाघाए झारंति, सो तेर्सि ढोर्य न चिन्तयति-गुरुकुशवासो न जातः, इहापि करोमि व उपदेशः, तेन स्थापनाचार्यः कृतः, एकमावश्यकादिचवालसामाचारी सर्वा विभाषितव्या, एवं |किल स सर्वत्र न स्वलितः, क्षणे क्षणे उपयुज्यते-कि मे कृतं !, एवं किल साधुना कर्तव्यं, एवं तेन योगाः संगृहीता भवन्ति । लपाकव इति गतं, इदानीं पानसंवरयोग इति, पानेन योगाः संगृहीताः, तत्रोदाहरणं । अस्खा वाख्यान-शिम्बावने नगरे मुण्डिकानको राजा, तब पुष्पभूतय आचार्या बहुश्रुताः, वः स राजोपशमितः श्राजो जातः, तेषां शिष्यः पुष्पमित्रो बटुक्षुतोऽवसत्रोऽन्यत्र तिति, अन्यदा तेपामाचार्याणां चिन्ता-सूक्ष्म ध्यानं प्रविशामि, सत् महामाणसम, सत् पुनर्यदा प्रविशति तवं योगसंनिरोधः क्रियते यथा न किश्चित् जियते तेषां च ये पार्क तेऽगीतार्थाः,तैः पुष्यमित्रः शब्दितः, आगतः, कथितं, स (तत्) तेन प्रतिपन्न, तदैकत्रापपरके नियांधासे ध्यायन्ति, स तेषामागन्न ATACAXIASSIC - : ~133 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३१७] भाष्यं [२१२...], प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम [२६] आवश्यक- देई, भणइ-एसो ठियगा बंदह, आयरिया वाउला, अण्णया ते अवरोप्परं मंतंति-किं मण्णे होजा गवेसामोत्ति, एगो ४ प्रतिकहारिभ- ओवरगबारे ठिओ निवन्नेइ, चिरं च ठिओ, आयरिओ न चलइ न भासइ न फंदा ऊसासनिस्सासोवि नस्थि, सुहमो किरमणाध्य. द्रीया तेसिं भवइ, सो गंतूण कोइ अण्णसिं, ते रुहा, अजो तुमं आयरिए कालगएवि न कहेसि ?, सो भणइ-न कालग- योगर्स० ॥७२२॥ है यत्ति, झाणं झायइत्ति, मा वाघायं करेहित्ति, अण्णे भणंति-पवइओ एसो लिंगी मन्ने बेयालं साहेउकामो लक्खणजुत्ता २८ आयरिया तेण ण कहेइ, अज्ज रत्तिं पेच्छहिह, ते आरद्धा तेण सम भंडिलं, तेण वारिया, ताहे ते राया ऊस्सारेऊण | संवरयोगः कहित्ता आणीओ, आयरिया कालगया सो लिंगी न देइ नीणेऊ, सोवि राया पिच्छा, तेणवि पत्तीयं कालगओत्ति, पूसमित्तस्स ण पत्तियइ, सीया सज्जीया, ताहे णिच्छयोणायो, विणासिया होहिंति, पुर्व भणिो सो आयरिएहिं-जाहे अगणी अन्नो वा अच्चओ होजत्ति ताहे मम अंगुढए छिवेजाहि, छिन्नो, पडिबुद्धो भणइ-कि अज्जो ! वाघाओ कओ?, पिच्छह ददाति, भणति-भत्र स्थिता बन्दध्वं, भाचार्या न्यायुताः, अन्पदा ते परस्परं मनयन्ते-कि मन्ये भवेद् गवेषयाम इति, एकोऽपवरकद्वारे स्थितो निभाळयति, चिरं च स्थितः, आचार्यों न चलति न भाषते न सन्दते उरासनिःश्वासाबपि न स्तः, सूक्ष्मौ किल तेषां भवतः, स गत्वा कथति अन्येषां, ते | रुष्टा, आर्य ! समाचार्यान् कालं गतानऽपि न कथयसि, स भगति-न कालाता इति, ध्यान पायन्ति, मा बाधात काति, अन्यान् भवन्ति-प्रबजित एष ७२२॥ लिङ्गी मन्ये वैतालं साधयितुकामो लक्षणयुक्ता भाचास्तेिन न स्थति, अद्य रात्री प्रेक्षवं, ते मारब्धाम्तेन सम भण्डयितुं, तेन चारिताः, तदा ते राजानमपसार्य कथयित्वाऽऽनीतवन्तः, आचार्याः कालगताः स लिही न ददाति निष्काशयितुं, सोऽपि राजा प्रेक्षते, तेनापि प्रत्ययितं कालगत इति, पुष्यमित्राय न प्रत्यापति शिक्षिका सजिता, तदा निश्चयो ज्ञातो, विनाशिना भविष्यन्ति, पूर्व मपितः स आचार्य:-पदामिन्यो वाऽत्ययो भवेद् सदा ममाष्टः स्पष्टम्यः, स्पृष्टः, प्रतिबुदो भणति-किमार्य ! पायातः कृतः', प्रेक्षध्यमेवै ~134 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३१८] भाष्यं [२१२...], प्रत 65656 सूत्रांक [सू.] एएहिं सीसेहिं तुझ कति, अंबाडिया, एरिसय किर झाणं पविसियवं, तो जोगा संगहिया भवति २८ । झाणसंवरजोगे| | यत्ति गयं, श्याणि उदए मारणंतिएत्ति, उदए जइ किर उदओ मारणतिओ मारणती बेयणा वा तो अहियासेयवं, तत्थोदाहरणगाहारोहीडगं च नयरं ललिआ गुट्ठी अरोहिणी गणिआ।धम्मरुद कडुअदुद्धियदाणाययणे अ कंमुदए ॥१३१८॥ ४ इमीए वक्खाणं-रोहिडए णयरे ललियागोष्ठी रोहिणी जुण्णगणिया अण्णं जीवणिउवाय अलभंती तीसे गोहीए भत्तं परंधिया, एवं कालो बच्चाइ, अण्णया तीए कडुयदोद्धियं गहियं, तं च बहुसंभारसंभियं उवक्खडियं विष्णस्सइ जाव मुहे ण तीरइ काउं, तीए चिंतियं-खिंसीया होमि गोहीएत्ति अण्णं उवक्खडेइ, एवं भिक्खचराण दिजहित्ति, मा दवमेवं चेव णासउ, जाव धम्मरुई णाम अण गारो मासक्खमणपारणए पविठो, तस्स दिनं, सो गओ उवस्सर्य, आलोएड गुरूणं, तेहि भायणं गहियं, खारगंधो य णाओ, अंगुलिए विण्यासियं, तेहि चिंतियं-जो एयं आहारेर सो मरई, भणिओ बुष्माकं शिष्यैः कृतमिति, निर्भसिताः, ईशं किल ध्यानं प्रवेटव्यं, ततो योगाः संगृहीता भवन्ति । ध्यान संचरयोगा इति गतं, इदानीमुदयो मारणान्तिक इति, यदि किलोदयो मारणास्तिको मारणान्तिकी वेदना वा तदाऽध्यासितव्वं तत्रोदाहरणगाथा । अखा व्याख्यान-मोहिरके नगरे ललितागोडी रोहिणी जीर्णगणिका अन्य भाजीविकोपायमलभमाना तथा गोष्ठया भकं प्राइवती, एवं कालो नाति, अन्यथा तथा कर्फ दाग्धिकं गृहीतं, तच बहुसंभारसंभूतमुपस्कृतं विनश्यति यावत मुखे न पापयते की, तया चिन्तितं-निन्दिता भविष्यामि गोष्ठया इति, भम्पदुपस्करोति, एतन् भिक्षाचरेभ्यो दीयते इति, यावत् धर्मचिनिगारो मासक्षमपारणके प्रविधा, तम दत्त, स गत सामर्थ, भाकोषयति गुरुन्, भोजनं गृहीतं, विषगन्ध ज्ञातः, अङ्गुल्या जिशासितं, तैचिन्तितं-य एनमाहास्यति स म्रियते, भाषितः-- दीप अनुक्रम [२६] * - * ~135 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३१८] भाष्यं [२१२...], •आवश्यकहारिभद्रीया प्रत RECACCCC सूत्रांक ७२३॥ 'विगिंचेहित्ति, सो तं गहाय अडविं गओ, एगत्व रुक्खदहरछायाए विगिंचामि, पत्ताबंध मुयंतस्स हत्थो लित्तो, सो तेण प्रतिक्रएगथ फुसिओ, तेण गंधेण कीडियाओ आगयाओ, जा जा खाइ सा सा मरइ, तेण चिंतियं-मए एगेण समप्पउ मा मणाध्य. जीवधाओ होउत्ति एगत्थ थंडिले आलोइयपडिकतेणं मुहाणंतर्ग पडिलेहिता अणिंदतेण आहारियं, वेयणा य तिबाट योगसं० जाया अहियासिया, सिद्धो, एवं अहियासेय, उदए मारणंतियत्तिगयं २९ । इयाणि संगाणं च परिहरणंति, संगो नाम 'पञ्जी सझे भावतोऽभिष्वङ्गः स्नेहगुणतो रागः भावो उ अभिसंगो येनास्य सङ्ग्रेन भयमुत्पद्यते तं जाणणापरिणाए| मारणान्ति का ३० सणाऊण पचक्खाणपरिणाए पञ्चक्खाएयवं, तस्थोदाहरणगाहा | गपरिज्ञा नयरी य चंपनामा जिणदेवो सत्यवाहअहिछत्ता । अडवी य तेण अगणी सावषसंगाण चोसिरणा ॥१३१९॥ ___ इमीए वक्खाणं-चपाए जिणदेवो नाम सावगो सस्थवाहो उग्रोसेत्ता अहिछत्तं बच्चइ, सो सत्थो पुलिंदएहिं विलोलिओ, सो सावगो नासतो अडविं पविहो जाव पुरओ अग्गिभयं मग्गओ वग्धभयं दुहओ पवायं, सो भीओ, असरणं बजेति, स तं गृहीत्वा गता, एका दग्धवृक्षावायां त्यजामीति, पात्रवन्ध मुजतो इसो लिया, स तेने का प्रया, तेन गन्धेन कीटिका आगताः, या या खादति सा सा नियते, तेन चिन्तितं-मयकेन समाप्यत मा जीवयातो भूदिति एकत्र स्थगिद्धले मुखानन्तकं प्रतिलिण्य आलोचितप्रतिकान्तेनानिन्दयसाहारितं, वेदना च तीना जाताऽध्यासिता, सिद्धः, एपमध्यासितयं, उदयो मारणान्तिक इति गतं, इदानीं सकानां च परिहरणमिति, सङ्गो नाम, भावस्व ७२३॥ भिव्यङ्गः स ज्ञानपरिजया ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिजया प्रत्यास्वातपः, सोदाहरणगाथा । अस्खा क्यारुपान-सम्पायर्या जिनदेवो नाम श्रावका सार्थवाद उद्बोप्याहिच्छत्रा मजति, स सार्थः पुहिन्द्रविलोकितः, सावको नश्यन् अटवीं प्रविधो यावत् पुरतोऽग्निभयं पृष्ठतो ध्यानभवं विधातः प्रवातं, स भीतः, अधारणं दीप अनुक्रम [२६] ~136~ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३१९] भाष्यं [२१२...], प्रत सूत्रांक [सू.] पाऊण सयमेव भावलिंग पडिवजित्ता कयसामाइओ पडिमं ठिओ, सावहिं खइओ, सिद्धो, एवं संगपरिणाए जोगा संगहिया भवंति ३०॥ संगाणं च परिणत्ति गयं, इयाणि पायच्छित्तकरणन्ति, जहाविहीए दत्तस्स, विही नाम जहा सुत्ते भणियं जो जित्तिएण सुझाइ तं सुतु उवउँजि देंतेण जोगा संगहिया भवंति दोण्हवि करेंतदेंतयाणं, तत्थोदाहरणं प्रति गाथापूर्वार्धमाह पायच्छित्तपरूवण आहरणं तत्थ होइ धणगुत्सा। इमरस वक्खाणं--एगस्थ णयरे धणगुत्ता आयरिया, ते किर पायच्छित्तं जाणंति दाउं छतमस्थगावि होतगा जहा एत्तिएण सुज्झइ वा नवत्ति, इगिएण जाणइ, जो ताण मूले वहइ ताहे सो सुहेण णिस्थरइ तं चाइयारं ठिओ य सो होइ अभहियं च निजरं पावेद, तहा कायचं, एवं दाणे य करणे य जोगा संगहिया भवंति, पायच्छित्तकरणेत्ति गयं ३१ इयाणि आराहणा य मारणंतित्ति, आराहणाए मरणकाले योगाः सङ्गुह्यन्ते, तत्रोदाहरणं प्रति गाथापश्चार्धमाह-- ज्ञात्वा स्वयमेव भावलिङ्ग प्रतिपद्य कृतसामायिक प्रतिमा स्थित्तः, श्वापदैः खादितः, सिद्धा, एवं सापरिज्ञया योगाः संगृहीता भवन्ति । सझाना | च परिशेति गरां । इदानी प्रायश्चित्तकरण मिति यथाविधि दत्तस्प, विधिनाम यथा सूवे भणितं यो वायता शुध्यति तं सुष्छु उपयुत्य वदता योगाः संगृहीता भवन्ति योरपि कुषददतो, बनोदाहरणं । भस्म व्याख्यान-एकत्र नगरे धनगुप्ता आचार्याः, ते कि प्रायशिसं जामन्ति दातुं छमस्या अपि सम्तो यथेयता। शुभपति वा नवेति, इहितेन जानाति, यसेषो मूले पति तदा स सुखेन निस्तरति तं चातिचार, स्थिर भपति सा अभ्यधिको चप्राप्नोति निर्जरी, तथा कर्तव्यं, | एवं दाने करणे च योगाः संगृहीता भवन्ति, प्रायश्चित्तकरणमिति गतं । इदानीमाराधना च मारणान्तिकीति, आराधनया मरणकाले योगाः संगृह्यन्ते, ACCASCE5C% दीप अनुक्रम [२६] ~137 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३२०] भाष्यं [२१२..., भावश्यक हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ७२४॥ आराहणाऍ मरुदेवा ओसप्पिणीए पढम सिद्धो ॥ १३२० ।। ४प्रतिक अस्य व्याख्या-विणीयाए णयरीए भरहो राया, उसहसामिणो समोसरण, प्राकारादिः सर्वः समवसरणवर्णकोऽभिधा-111 | योगसं० तव्यो यथा कल्पे,-सा मरुदेवा भरहं विभूसियं दद्दण भणइ-तुज्झ पिया एरिसिं विभूतिं चइत्ता एगो समणो हिंडइ, भरहोयभणइ-कत्तो मम तारिसा विभूई जारिसा तातस्स?, जइ न पत्तियसि तो एहि पेच्छामो, भरहो निग्गओ सबवलेण, मरुदे |श्चित्तं ३२ वावि निग्गया, एगंमि हस्थिमि बिलग्गा, जाव पेच्छइ छत्ताइछत्तं सुरसमूहं च ओवयंत, भरहस्स वत्थाभरणाणि ओमिलायं| ताणि दिवाणि, दिवा पुत्तविभूई ? कओ मम एरिसत्ति, सा तोसेण चिंतिउमारद्धा, अपुष्करणमणुपविडा, जाती नत्थि, जेण वणस्सइकाएहितो उवद्वित्ता, तत्थेव हस्थिवरगयाए केवलनाणं उप्पण, सिद्धा, इमीए ओसप्पिणीए पढमसिद्धो। एवमाराधनां प्रति योगसङ्ग्रहः कर्तव्य इति ३२ । दीप अनुक्रम [२६] ॥७२४॥ विनीतायां नगीं भरतो राजा, ऋषभवामिनः समवसरणं, सा मरुदेवी भरत विभूपितं दृष्ट्वा भणति-तब पितेरी विभूति यतकः श्रमणो हिण्डते, भरतो भणति-कृतो मम ताशी विभूतियोदशी सातस्य , बदिन प्रत्येषि सदेहि प्रेक्षावहे, भरतो निर्गतः सर्वपलेन, मरुदेण्यपि निर्गता, एकस्मिन् हस्तिनि | विकमा, पावर प्रेक्षते नातिच्छ सुरसमूर चारपतन्तं, भरतस वस्त्राभरणाम्यवम्कायमानानि सानि, या पुत्रविभूतिः कुतो ममेकी इति, सा तोपेण चिन्तयितुमारब्धा, अपूर्वकरणमनुपविष्टा, जातिस्मृतिनाति येन बनस्पतिकाविकादुत्ता, तत्रैव बरहसिस्कम्भयतायाः केवलज्ञानमुत्पर्य, सिद्धा, अखामचसर्पियो प्रथमः सिद्धः। ~138~ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३२०...] भाष्यं [२१२...], %ESEX प्रत सूत्रांक 564C3 दीप अनुक्रम तेत्तीसाए आसायणहिं (सूत्रं) त्रयविंशदिराशातनाभिः, क्रिया पूर्ववत् , आयः-समदर्शनाद्यवाप्तिलक्षणः तस्या शातना, तदुपदर्शनायाह सङ्ग्रहणिकार: पुरभो पक्कासने गंता विकृणनिसीयणायमणे । आलोयल्पडिसुणणा पुवाळवणे व आक्षोए ॥१॥ सह उपस निमंतण खद्धाइयाण तह अपदिसुणणे । सहूति व सस्थ गए किं तुम तबाह णो सुमणे ॥२॥ णो सरसि कई छेत्ता परिसं मिला अणुहिवाइ कहे। संथारपायघडण चिढ़े चाखणाई ॥ आसां व्याख्या-इहाकारणे रत्नाधिकस्याऽऽचार्यादेः शिक्षकेणाऽऽशातनाभीरुणा सामान्येन पुरतो गमनादि न कार्य, कारणे तु मार्गादिपरिज्ञानादौ ध्यामलदर्शनादौ च विपर्ययः अत्र सामाचार्यनुसारेण स्वबुद्धयाऽऽलोचनीयः, तत्र पुरतःअग्रतो गन्ताऽऽशातनावानेय, तथाहि-अग्रतो न गन्तव्यमेव, विनयभङ्गादिदोषात् , 'पक्ख'त्ति पक्षाभ्यामपि गन्ताऽऽशात-| नावानेय, अतः पक्षाभ्यामपि न गन्तव्यमुक्तदोपप्रसङ्गादेव, आसन्नः पृष्ठतोऽप्यासन्नं गन्तवमेव वक्तव्या, तत्र निःश्वासक्षुतश्लेष्मकणपातादयो दोषाः, ततश्च यावता भूभागेन गच्छत एते न भवन्ति तावता गन्तव्यमिति, एवमक्षरगमनिका कार्या, असम्मोहार्थं तु दशासूत्रैरेव प्रकटाईंयाख्यायन्ते, तद्यथा-पुरओत्ति सेहे रायणियस्स पुरओ गंता भवइ आसायणा सेहस्स १, पक्खत्ति सेहे राइणियस्स पक्खे गंता भवइ आसायणा सेहस्स २, आसण्णत्ति सेहे राइणियस्स णिसीययरस पुरत इति पक्षो रानिकस्य पुरतो गन्ता भवत्याशातना वक्षस्य , पक्षेति क्षो रानिकस्य पक्षयोगन्ता भवत्याशातना शैक्षय, र आसन्नमिति शैक्षो जाधिकरण निषीदत [२७] ik %ASARAGRA अथ आशातनाया: ३३ भेदा: सविस्तर वर्णयते ~139~ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१३२०...] भाष्यं [२१२...], आवश्यक हारिभदीया प्रतिकमणाध्य २३ आशातनाः प्रत सूत्रांक ॥७२५॥ * आसन्नं गंता भवाइ आसायणा सेहस्स ३, चित्ति सेहे रायणियस्स पुरओ चिरेत्ता भवाइ आसायणा सेहस्स ४, सेहे राइणि- यस्स पक्वं चित्ता भवइ आसावणा सेहस्स ५, सेहे राइणियस्स आसणं चिद्वेत्ता भवइ आसायणा सेहस्स ६, निसीयणत्ति सेहे| रायणियस्स पुरओ निसीइत्ता भवइ आसायणा सेहस्स ७, सेहे राइणियस्स सपक्खं निसीइत्ता भवइ आसायणा सेहस्स 4, सेहेराइणियस्स आसण्णं निसीयित्ता भवइ आसायणा सेहस्स ९, 'आयमणे'त्ति सेहे राइणिएणं सद्धिं चहिया विचारभूमी निक्खंते समाणे तत्थ सेहे पुषतरायं आयामति पच्छा रायणिए आसायणा सेहस्स १०, 'आलोयणे'त्ति सेहे रायणिएणं| सद्धिं बहिया विचारभूमी निक्वंते समाणे तत्थ सेहं पुवतरायं आलोएइ आसायणा सेहस्स, 'गमणागमणे'सि भावणा ११ 'अपडिमुणणे ति सेहे राइणियस्स राओ वा बियाले वा बाहरमाणस्स अजो ! के सुत्ते के जागरइ , तत्थ सेहे | जागरमाणे रायणियस्स अपडिसुणेत्ता भवइ आसायणा सेहस्त १२, 'पुबालवणे'त्ति केइ रायणियस्त पुवसंलत्तए |सिया तं सेहे पुचतरायं आलबद पच्छा रायणिए आसायणा सेहस्स १३, आलोएइत्ति असणं वा ४ पडिग्गाहेत्ता तं भासमं गन्ता भवति भाशातना शैक्षस ३, 'चितुति शिक्षा रखाधिक पुस्तः स्थाता भवति आशातना शैक्षस, शैक्षो खाधिकस्य पार्ने स्थाता, | भवत्याशातना शैक्षस ५, शैक्षो रवाधिकस्यासनं स्थाता भवत्याशातना शैक्षय ६, 'निषदन मिति शैक्षो खाधिकख पुरतो निषीदयिता भयत्याशातना औक्षस्य , शैक्षो रखाधिकस पार्थे निषीदविता भवत्याशातना शैक्षय, क्षो खाधिकस्यास निषीदयिता भवत्याशातना शैक्षस्य ९, भाचमन मिति शैक्षो| रत्नाधिकेन साथै बहिर्विचारभूमि निकान्तः सन् सत्र शैक्षा पूर्वमेवाचामति पश्चाद् राषिक: आशातना पीनस १७, 'आलोचनेति शैक्षो रालिकेन साध] x यहि विचारभूमि निष्कान्तः सम् तव शैक्षः पूर्वमेवालोचपति आशातना शैक्षस, गमनागमन मिति भावना 1, अप्रतिश्रवणमिति शैक्षो खाधिके रात्री का विकाले वा म्याहरति आर्य! सुप्तो का जागर्ति, तत्र शैक्षो जागरन राखिकस्वाप्रति श्रोता भवत्यागारमा क्षय १२, "पूर्वालपम'मिति कनिन् स्त्राधिका पूर्वसंहसः स्यात् तीक्षः पूर्ष मेवालपति पश्चात् रात्रिका आशातना शैक्षख १३. 'मालोचयती'ति अधानं वा प्रतिग्रह्य तत दीप अनुक्रम [२७] ॥ ~140 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१३२०...] भाष्यं [२१२...], प्रत सूत्रांक पुवामेव सेहतरागस्स आलोएति पच्छा रायणियस्स आसायणा सेहस्स १४, 'उवदंसे'त्ति सेहे असणं वा४ पडिग्गाहेत्ता ते पुवामेव सेहतरागस्स उचदंसेइ पच्छा रायणियस्स आसायणा सेहस्स १५, निमंतणेत्ति सेहे असणं वा४ पडिग्गाहेत्ता पुवामेव मासेहतरार्ग निर्मतेइ पच्छा राइणियं आसायणा सेहस्स १६, खद्धत्ति सेहे राइणिएण सद्धि असणं वा ४ पडिग्गाहेत्ता तंत राइणियं अणापुरिछत्ता जस्स जस्स इच्छह तस्स २ खद्धं खद्ध दलयद आसायणा सेहस्स १७, 'आइयण'त्ति सेहे असणं दावा ४ पडिगाहित्ता राइणिएण सद्धिं भुंजमाणे तस्थ सेहे खर्च २ दार्य २ ऊसई २ रसियं २ मणुण्णं २ मणामं २ णि २ |लक्खं २ आहरेत्ता भवइ आसायणा सेहस्स, इह च खर्द्धति बडबडेणं लंबणेण डायं डायति पत्रशाकः वाइंगणचिभड-। गपत्तिगादि सदंति वन्नगंधरसफरिसोववेयं रसियंति रसालं रसियं दाडिमवादि 'मणुपणं ति मणसो इह, 'मणाम'ति २ मणसामण्णं मणामं 'निद्धंति २ नेहाक्गाद 'लुक्खंति नेहवज्जियं १८, अप्पडिसुणणे'त्ति सेहे राइणियस्स बाहरमाणस्सअपडिसुणेत्ता भवइ आसायणा सेहस्स, सामान्येन दिवसओ अपडिसुणेत्ता भवइ १९ 'खद्धति यत्ति सेहे राइणियस्स खद्धं । पूर्वमेयायमरात्रिकस भालीचपति पनादानिकस्याकातना शैक्षख १४, 'उपदर्शन मिति शैक्षोऽशन वा प्रतिमा तत् पूर्वमेवावमराविकायोपदर्शयति पाहानिकायापासना पक्षस १५, निमन्त्रणमिति दीक्षोऽशानं वा प्रतिगृह्य पूर्वमेवावमरासिकं निमनपते पवाद राति आशातना शैक्षय | बद्ध'मिति क्षो रालिकेन सार्धमशनं वा प्रतिगृह तत् रानिकमनागृच्छय यो य इच्छति तं तं प्रचुरे प्रचुरं वदाति आयातना शैक्षस्य १७, 'अदन'मिति शैक्षोऽयानं वा प्रतिगृह्य राविकेन साधं भुञानसत्र शैक्षः प्रचुर २ कार्कर संस्कृतं रस्यं मनो मनमपं स्निग्धं रूकंर बाहारविता भवति |आपातना भीक्षण, एचपति बहता वृहता लम्बनेन जसरमिति वर्णगन्धरसस्पशॉपेतं रसितमिति रसयुक्तं दादिमानादि मनोज मिति भनस इथं |'मनोऽममिति मनसा मभ्यं मनाम, बिग्धमिति हावगाई सक्षमिति सेहवर्जितं, १८ अप्रतिश्रवणमिति शैक्षक रात्रिके व्याहरति अप्रतिश्रोता भवति माशातना शैक्षक, सामान्येन दिवसेऽमतिश्रोता भवति ११, स्वदेति चेति क्षो रासिकं सर्दू दीप अनुक्रम SAROCARSALA [२७] ~141 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३२०...] भाष्यं [२१२...], आवश्यक- हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥७२६॥ [सू.] खद्धं वत्ता भवइ आसायणा सेहस्स, इमं च खळू-बडुसदेणं खरककसनिहुरं भणइ २०, तत्थ गए'त्ति सेहे राइणिए वाहरिए ४४ प्रतिकजत्थ गए सुणइ तस्थ गए चेव उालावं देह आसायणा सेहस्स २१, 'किंति'त्ति सेहे राइणिपण आहए किंति बत्ता भवइमणाध्य. आसायणा सेहस्त, किंति-किं भणसित्ति भणइ, मत्थएण वंदामोत्ति भणिय २२, तुमति सेहेराइणियं तुमंति वत्ता भवइ ३ आशाआसायणा सेहस्स, को तुमंति चोएत्तए, २३ 'तजाए'त्ति सेहे राइणियं तज्जाएणं पडिहणिचा भवति आसायणा सेहस्स, तना तज्जाएणं ति कीस अज्जो ! गिलाणस्स न करेसि ?, भणइ-तुमं कीस न करेसि, आयरिओ भणइ-तुम आलसिओ, सो भणइ-तुम चेव आलसिओ इत्यादि२४, 'णो सुमणो'त्ति सेहे राइणियस्स कहं कहेमाणस्त नो सुमणसो भवइ आसायणा | सेहस्स, इह नो सुमणसेत्ति ओहयमणसंकप्पे अच्छा न अणुबूहइ कह अहो सोहणं कहियंति २५, 'णो सरसि'त्ति सेहे राइ|णियस्स कहं कहेमाणस्स णो समरसित्ति वत्ता भवई आसायणा सेहस्स, इह चणो सुमरसि'त्ति न सुमरसि तुर्म एवं अस्थं, बद्धं वक्ता भवति आयातना शैक्षरूप, इवं च खळ-हच्छन्देन खरकांवनिएर भणति २०, तत्र गते' इति शैक्षो राषिकेन पाहतो यत्र गतः शृणोति तत्र गत एवोलापं ददाति भाशातना शैक्षस्य २१, 'कि' मितीति शैक्षो राखिकेनाहूतः किमिति वक्ता भवत्याशासना शैक्षय, किमिति किं भणसीति भणति, मसकेन बन्द इति भणितव्य २२, ''मिति क्षो राखिक स्वमिति वका भवति आशातना शैक्षय, कस्वमिति नोदयिता २३, रानात' इति सैरालिका ७२६॥ तन्मातेन प्रतिहन्ता भवपाशातना शैक्षस्य, तमातेने ति कथमाय लानख न करोपि!, भणति-स्वं कथं न करोपि', भाचायों भगति-बमलसः, स भगतिस्वमे वालम इत्यादि २४, न सुमना' इति शैक्षो रालिके को कथयति नो खुमना भवत्याशातना शैक्षस्थ, इन सुमना इति उपहतमनःसंकल्पास्तिष्ठति नानुद्दति का हो शोभनं कधितमिति २५, न सरसीति शैक्षो रातिके कयां कथयति म भरसीतिवक्ता भवति भाशातना पीक्षख, हाच न मारतीति न सरसि त्वमेनमर्थ दीप अनुक्रम [२७] 5 -6-4-58- ~142 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३२०...] भाष्यं [२१२...], % ac प्रत सूत्रांक CAC-AA-%% 4% * दान एस एवं भवइ २६, कह छेत्त'त्ति रायणियस्स कहं कहेमाणस्स तं कहं अछिदित्ता भवइ आसायणा सेहस्स, अच्छि|दित्ता भवइत्ति भणइ अहं कहेमि २७, 'परिसं भेत्तेति रायणियस्स कहं कहेमाणस्स परिसं भेत्ता भवति आसायणा सेहस्स, इह च परिसं भेत्तत्ति एवं भणइ-भिक्खावेला समुद्दिसणवेला सुत्तत्थपोरिसिवेला, भिंदइ वा परिसं २८, 'अणुछियाए कहेइ' राइणियस्स कहं कहेमाणस्स तीए परिसाए अणुट्टियाए अबोच्छिन्नाए अबोगडाए दोचंपि तच्चंपि कह कहेता भवइ आसायणा सेहस्स, इह तीसे परिसाए अणुट्टियाएत्ति-निविद्वाए चेव अवोच्छिनाएत्ति-जावेगोवि अच्छा अचोगडाएत्ति अविसंसारियत्ति भणिय होइ, दोचंपि तच्चंपि-विहिं तिहिं चाहिं तमेवत्ति जो आयरिएण कहिओ अत्थो तमेवाहिगारं विगप्पइ, अयमवि पगारो अयमवि पगारोतस्सेवेगस्त सुत्तस्स २९, 'संथारपायघट्टण'ति सेज्जासंधारगं पाएण संघट्टेत्ता हस्येण ण अणुण्णवित्ता भवइ आसायणा सेहस्स, इह च सेजा-सवंगिया संथारो अट्ठाइजहत्थो जत्थ वा नैष एवं भवति २५, कथा तेति राखिके को कषयति तो का छेदयति आशातना क्षय, भाळेता भपतीति भणति-हं कथयामि २७, पर्षद भेचेति राषिके कथा कथयति पर्षदो भेत्ता भवति भाशातना शैक्षप, रबर पर्षदो भेति एवं भणवि-भिक्षावेला भोजनवेला सूत्रार्थपौरुषीबेला, [भिनत्ति वा पर्षदं २८, मनुरिधतायां कथयति रात्रिक कथा कथयति तस्यां पदि अनुस्थितायामभ्युछिन्नापामध्यातायो (भसंविप्रकीर्णायौ) द्विरपि निरपि कथायाः कथयिता भवत्याशासमा पक्षसह तखा पर्षदि अनरियतावामिति निविटापामेव अन्यच्छिमायामिति बावदेकोऽपि तिति, अध्यातायामिति अविसंबताचामिति भणितं भवति, द्विरपि विरपि-विक्रयविकृया चतुर्भिः तमेवेति य आचार्वज कधितोलमेवाधिकार विकस्पयति, भयमपि प्रकारा, भयमपि प्रकारः तसंचेकख सूत्रस्य २९, संस्तारपावघनमिति वारपासंसारको पादेन संबधित्वा दोन नानुज्ञापविता भवति आशातना भीक्षण, इह च वारया-सर्षातिकी संसारक:-अतृतीयहरूः बत्र वा दीप अनुक्रम -5 [२७] ShEoHANew ~143 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३२०...] भाष्यं [२१२...], प्रत आवश्यक हारिभदीया सत्राक %ER ॥७२७॥ ठाणे अच्छइ संथारो विदलकट्ठमओ वा, अहवा सेजा एव संथारओ तं पाएण संघट्टेइ, णाणुजाणावेइ-न खामेइ, प्रतिकभणियं च-'संघद्देत्ताण कारणे' त्यादि ३०, 'चेट'त्ति सेहे राइणियस्स सेजाए संथारे वा चिहित्ता वा निसिइत्ता वा तुय- मणाध्य M३३आशाट्टित्ता वा भवइ आसायणा सेहस्स ३१, 'उच्च'त्ति सेहे राइणियस्स उच्चासणं चिठित्ता वा निसिइत्ता वा भवइ आसायणा तनाः सेहस्स ३२, 'समासणे यावि'त्ति सेहे राइणियस्स समासणं चिद्वित्ता वा निसीइत्ता वा तुयहित्ता वा भवइ आसायणा सेहस्सत्ति १३ गाथात्रितयाथैः ॥ ॥ सूत्रोकाशातनासम्बन्धाभिधित्सयाह सहणिकार: अहवा- अरहताणं आसायणादि समाएँ किषिणाहीयं । जा कंठसमुदिहा तेतीसासायणा एषा ॥1॥ अतिक्रमणसहरणी समाप्ता ॥ व्याख्या-अथवा-अयमन्यः प्रकारः, 'अर्हतां' तीर्थकृतामाशातना, आदिशब्दात्सिद्धादिग्रहः यावत्स्वाध्याये किश्चिनाधीतं 'सज्झाए ण सज्झाइयंति वुत्तं भवइ, एताः 'कण्ठसिद्धा' निगदसिद्धा एवेत्यर्थः, वयस्त्रिंशदाशातना इति गाथार्थः॥ साम्प्रतं सूत्रोक्ता एवं त्रयस्त्रिंशयाण्यायन्ते, तत्र दीप अनुक्रम [२७] ७२७॥ W स्थाने तिष्ठति संस्तारको द्विवलकाष्टमयो वा, अथवा शास्यैव संसारकः तं पादेन संघस्यति, नानुज्ञापयति-न क्षमपति, भणितं च 'काबेन संघयिस्वेत्यादि ३०, स्थारोति शैक्षो रातिकस्य शग्यायो संसारके वा स्थाता या लिपीदविता वा स्वरवर्तविता या भवल्याशातना शैक्षस्य ३१, उन इति शैक्षो रात्रिकास-IN नात् वय आसने स्थाता निषीदषिता वा भवत्याशातना शैक्षस्य ३२, समासने चापीति शैक्षो राजिकासनस्य सम भासने स्थाता वा निचीदषिता वा स्ववर्तयिता वा भवत्याशातना शैक्षति । + A ~144 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१३२०...] भाष्यं [२१२...], प्रत सूत्रांक 4%93-562 अरिहताणं आसायणाए सिद्धाणं आसायणाए आयरियाणं आसायणाए उवज्झायाणं आसायणाए। साहूणमासायणाए साहुणीणं आसायणाए सावगाणं आसायणाए सावियाणं आसायणाए देवाणं आसायणाए देवीणं आसायणाए इहलोगस्सासायणाए परलोगस्स आसायणाए केवलिपन्नत्तस्स धम्मस्स आसायणाए सदेवमणुयासुरस्स लोगस्स आसायणाए सब्वपाणभूयजीवसत्ताणं आसायणाए कालस्स आसापणाए सुयस्स आसायणाए सुयदेवयाए आसायणाए वायणायरियस्स आसायणाए (सूत्रं) अर्हता-प्राग्निरूपितशब्दार्थानां सम्बन्धिन्याऽऽशातनया यो मया देवसिकोऽतिचारः कृतस्तस्य मिथ्या दुष्कृतमिति तक्रिया, एवं सिद्धादिपदेष्वपि योज्यते, इत्थं चाभिदधतोऽर्हतामाशातना भवति-नत्थी अरहंतत्ती जाणतो कीस भुंजई भोए । पाहुडियं उवजीवे एव वयंतुत्तरं इणमो ॥१॥ भोगफलं निवत्तिय पुण्णपगडीणमुदयवाहल्ला । भुंजइ | भोए एवं पाहुडियाए इम सुणसु ॥२॥णाणाइअणवरोहकअघातिमुहपायवस्स बेयाए । तिस्थंकरनामाए उदया तह | वीयरायत्ता ॥ ३ ॥ सिद्धानामाशातनया, क्रिया पूर्ववत्-सिद्धाणं आसायण एव भणंतस्स होइ मूढस्स । नत्थी निच्चेठा [सू.] दीप अनुक्रम 45 [२८] 60- न सन्ति महन्त इति जानानो या कथं भुनक्ति भोगान् । माभूतिका (समवसरणादिक) पजीवति कधी एवं गवत उतरमिदम् ॥1॥ नियं. चितमोगफलपुण्यप्रकृतीनामुवयबाहुल्यात् । भुनक्ति भोगान एवं प्राभुतिकायां इदं शृणु ॥ २॥ शनाथनवरोधकाघातिसुखपाइपस्य वेदनाय । तीर्थकरनान उदयात् तथा वीतरागत्यात् ॥ ३ ॥ सिद्धानामाशातना एवं भातो भवति मूढस । म सन्ति निश्वेष्टा सूत्रोक्त अरिहंत आदि ३३ आशातनाया: व्याख्यानं ~145 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३२०...] भाष्यं [२१२...], प्रत आवश्यक हारिभ- द्रीया ।।७२८॥ सत्राक वा सइवावी अहव उवओगे ॥१॥रागहोसधुवत्ता तहेव अण्णन्नकालमुवओगो । दसणणाणाणं तू होइ असवण्णुयाल चेव ॥ २॥ अण्णोण्णावरणभ(ता)वा एगत्तं वावि णाणदंसणओ । भण्णइ नवि एएसिं दोसो एगोवि संभवइ ॥३॥ १६॥२॥ मणाध्य. अथिति नियम सिद्धा सदाओ चेव गम्मए एवं । निच्चिद्वावि भवंती वीरियखयो न दोसो हु॥४॥ रागद्दोसो न भवेअहंदाद्यासबकसायाण निरवसेसखया । जियसाभवा ण जुगवमुवओगो नयमयाओ य ॥ ५॥ न पिहूआवरणाओ दवहिनयस्सशातना:१९ वा मयेणं तु । एगतं वा भवई दसणणाणाण दोण्हपि ॥६॥णाणणय दसणणए पडुच्च गाणं तु सबमेवेयं । सबं च दंस-11 गंती एवमसवण्णुया काज॥७॥पासणर्य व पडुच्चा जुगर्व उवओग होइ दोण्हपि । एवमसवण्णुत्ता एसो दोसोन संभ-1 वइ ॥८॥ आचार्याणामाशातना, क्रिया पूर्ववत्, आशातना तु-डहरो अकुलीणोत्ति य दुम्मेहो दमगमंदबुद्धित्ति । अवियप्पलाभलद्धी सीसो परिभवइ आयरिए ॥१॥ अहवावि वए एवं उवएस परस्स देंति एवं तु । दसविहवेयावच्चे कायवे दीप अनुक्रम [२८] वा सदा वाऽपि उपयोगेऽधना ॥1॥ भुपरागद्वेषावात्तथैवान्यान्यकाल उपयोगात, । दर्शनज्ञानयोस्तु भवस्वसर्वशतव ॥ ३ ॥ अन्योन्यावारकता वा का एकस्वं वाऽपि ज्ञानदर्शनयो।। भण्यते भवतेपो दोष एकोऽपि संभवति ॥ ३॥ सन्तीति निषमतः सिद्धाः शब्दादेव गम्पन्ते एवम् । निश्रेष्टा भपि भवन्ति वीर्यक्षयतो नैव दोषः ॥ ४॥ सगोपीन स्मातां सर्वकषायाणां निरवशेषक्ष यात् । जीवस्वाभाब्यात् नोपयोगयोगप नषमताच ॥ ५॥ न पृथगावरणात (ऐक्य) अध्यार्थिवनवस्य धा मतेन तु । एकत्वं वा भवति ज्ञानवर्षानयोपोरपि ॥ ॥ज्ञाननयं प्रतीत्व सर्वमेवेदं शानं दर्शननयं प्रवीला सर्वमेवं वर्शन-II ||७२८॥ ४ मिति एवमसर्वज्ञता कानु? ॥ ७॥ पश्यतो वा प्रतीब युगपदुपयोगो भवति द्वयोरपि । एवमसर्वज्ञता एष दोषो न संभवति ॥ ८ ॥ वालोऽकुलीन इति च दुर्मेधा इमको मन्दबुद्धिरिति । अपि चारमलामब्धिः शिष्यः परिभवत्याचार्यान् ॥ १॥ अथवाऽपि बदत्येवं-उपदेशं परमै ददति एवं तु । पचविध वैयावृत्यं कर्तव्य | % a5% ~146~ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१३२०...] भाष्यं [२१२...], प्रत सूत्रांक - सयं न कुर्वति ॥ २ ॥ डहरोवि णाणबुड्डो अकुलीणोत्ति य गुणालओ किह णु! । दुम्मेहाईणिवि एवं भर्णतऽसताइ दुम्मेहो ॥ ३ ॥ जाणंति नविय एवं निद्धम्मा मोक्खकारणं णाणं । निच्चं पगासयंता बेयावच्चाइ कुवंति ॥ ४ ॥ उपाध्यायानामा|शातनया, क्रिया पूर्ववत्, आशातनाऽपि साक्षेपपरिहारा यथाऽऽचार्याणां नवरं सूत्रप्रदा उपाध्याया इति, साधूनामाशातनया, क्रिया पूर्ववत्,-जोऽमुणियसमयसारो साहुसमुदिस्स भासए एवं। अविसहणातुरियगई भंडणमामुंडणा चेव ॥१॥ पाणसुगया व भुंजंति एगओ तह विरूवनवत्था । एमाइ वयदवणं मूढो न मुणेइ एवं तु ॥२॥ अविसहणादिसमेया | संसारसहायजाणणा चेव । साहू चेवऽकसाया जओ प जंति ते तहवि ॥३॥ साध्वीनामाशातनया, क्रिया पूर्ववत्,| कलहणिया बहुउवही अहवावि समणुवद्दवो समणी । गणियाण पुत्तभण्डा दुमवेलि जलस्स सेवालो ॥१॥ अत्रोत्तरं| कलहंति नेव नाऊण कसाए कम्मबंधवीए उ । संजलणाणमुदय ओ ईसिं कलहेवि को दोसो? ॥२॥ उवही य बहुविगप्पो बंभषयरक्षणथमेयार्सि । भणिओ जिणेहि जम्हा तम्हा उवहिमि नो दोसो ॥३॥ समणाण नेय एया उवहवो स्वयं न कुर्वन्ति ॥ २ ॥ बालोऽपि ज्ञानबोकुलीन इति गुणाळपः कथं नु? | तुर्मवादीम्यपि एवं भणति भसन्ति दुर्मेधः ॥३॥ जानन्ति नापि विवंच निधर्माणो मोक्षकारणं ज्ञान । नित्यं प्रकाशयस्तो वैवावृप्यादि कुर्वन्ति ॥४॥ योऽज्ञातसमयसार । साधून समुदिश्य भाषते एकदा भविषहणा अवारतात भण्डनमामुण्डनं व ॥१॥ पाणा व श्वान इव भुजन्ति एकजस्तथा विरूपनेपथ्याः । एवमादि वदत्यवर्ण मूढो न जानात्येतत्तु ॥२॥ अविषहणा दिसमेताः संसारखभावज्ञानादेव । साधव एवाकवाया पतोऽतः प्रभजन्ति तवैव ॥1॥कलहकारिका बावधिका अथवाऽपि श्रमणोपड़वा श्रमणी । गणिकाना, पुत्रभाषदा तुमला वही जलव शैवालः ॥७॥ कषायान् कर्मबन्धी जानि शारया नैव कलयन्ति । संज्वलनानासुदधात् ईषत् कलहेऽपि को दोषः। ॥२॥ उपचिन बहुविकल्पो महानतरक्षणार्थ मेतासाम् । भणितो जिनर्यस्मात् तस्मादुपधी न दोषः ॥३॥ श्रमणानां नेता पदवः - दीप अनुक्रम - [२८] -- ~147 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३२०...] भाष्यं [२१२...], प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यक सम्ममणुसरंताणं । आगमविहिं महत्थं जिणवयणसमाहियप्पाणं ॥४॥ श्रावकाणामाशातनया, क्रिया तथैव, जिनशासन- प्रतिकहारिभद भक्का गृहस्थाः श्रावका उच्यन्ते, आशातना तु-लण माणुसतं नाऊणवि जिणमय न जे विरई। पडिवजंति कहं ते | मणाध्य द्रीया धण्णा वुचंति लोगंमि? ॥१॥ सावगसुत्तासायणमत्थुत्तरं कम्मपरिणइवसाओ । जइवि पवजति न तंतहावि धपणत्ति अहंदाद्या मग्गठिया ॥२॥ सम्यग्दर्शनमार्गस्थितत्वेन गुणयुक्तत्वादित्यर्थः, श्राविकाणामाशातनया, क्रियाऽऽक्षेपपरिहारी पूर्ववत्, शातनाः१९ ॥७२९॥ देवानामाशातनया, क्रिया तथैव, आशातना तु-कामपसत्ता विरईए वज्जिया अणिमिसया (३)निचिट्ठा। देवा सामर्थमिवि न य तित्थस्सुन्नइकरा य ॥ १॥ एत्य पसिद्धी मोहणियसायवेयणियकम्मउदयाओ । कामपसत्ता विरई कम्मोदयउ चिय Kान तेसि ॥२॥ अणिमिस देवसहावा णिचिहाणुत्तरा उ कयकिच्चा । कालाणुभावा तित्थुन्नईवि अन्नत्थ कुर्वति ॥ ३ ॥ देवीनामाशातनया, क्रियाक्षेपपरिहारौ प्राग्वत् । इहलोकस्याऽऽशातनया, क्रिया प्राग्वत् । इहलोको-मनुष्यलोका, आशा|तना तस्य वितथप्ररूपणादिना, परलोकस्याऽऽशातनया, प्राग्वत् , परलोकः-नारकतिर्यगमराः, आशातना तस्य वितथपरूपणादिनक, द्वितयेऽप्याक्षेपपरिहारौ स्वमत्या कार्यों । केवलिप्रज्ञप्तस्य धर्मस्याऽऽशातनया, क्रिया प्राग्वत्, स च धर्मो | R७२९॥ दीप अनुक्रम SARAM [२८] सम्बगनुसरतात आगमविधि महार्थ जिनवचनसमाहिता मना ॥ ४ ॥ लकवा मानुष्यं ज्ञात्वाऽपि जिनवचन ये विरति । प्रतिपद्यन्ते कथं ते धन्या च्यन्ते लोके ॥ 1 ॥ श्रावकाशातमासूत्रमत्रोत्तरं कर्मपरिणतिवशात् । यद्यपि न तो प्रतिपद्यन्ते तथापि धन्या मार्गस्थिता इति ॥२॥कामप्रसका विरल्या | पर्जिता अनिमेषा निश्रेष्टा । देवाः सामऽपि न व तीर्थोनतिकारकाश्च ॥ १ ॥ अनोचरं मोहनीयसातवेचनीयकोवयात् । कामप्रसक्ता चिरतिश्च कर्मोदयत एव न तेषाम् ॥ २ ॥ अनिमेषा देवस्वाभाब्यात् निश्रेया अनुचरास्तु कृतकृत्याः । कालानुभावात् तीनितिमपि अन्यत्र कुर्वन्ति ॥३॥ ~148~ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१३२०...] भाष्यं [२१३], 5 प्रत सूत्रांक %95% 2 [सू.] द्विविधः-श्रुतधर्मश्चारित्रधर्मश्च, आशातना तु-पाययसुत्तनिवद्धं को वा जाणेइ पणीय केणेयं । किं वा चरणेणं तू दाणेण विणा उ हवइत्ति ॥११॥ उत्तरं-"बालस्त्रीमूढ(मन्द)मूर्खाणां, नृणां चारित्रकाशिणाम् । अनुग्रहार्थ तत्त्वज्ञैः, सिद्धान्तःप्राकृतः कृतः॥१॥"निपुणधर्मप्रतिपादकत्वाच सर्वज्ञप्रणीतत्वमिति, चरणमाश्रित्याह-'दानमौरभ्रिकेणापि, चाण्डालेनापि दीयते । येन वा तेन वा शीलं, न शक्यमभिरक्षितुम् ॥ १॥ दानेन भोगानामोति, यत्र यत्रोपपद्यते । शीलेन भोगान् स्वर्ग च, निर्वाणं चाधिगच्छति ॥ २॥ तथाऽभयदानदाता चारित्रवानियत एवेति । सदेवमनुष्यासुरस्य लोकस्याऽऽशातनया, क्रिया प्राग्वत् , आशातना तु वितथप्ररूपणादिना, आह च भाष्यकार:देवादीयं लोयं विवरीयं भणइ सत्तदीवुदही । तह कइ पयावईणं पयईपुरिसाण जोगो वा ॥२१॥ उत्तरं-सत्तसुपरिमियसत्ता मोक्खो मुण्णत्तणं पयावइ य । केण कउत्तऽणवत्था पयडीऍ कहं पवित्तित्ति ॥२१॥ जमचेयणत्ति पुरिसत्थनिमित्तं किल पवत्ततीसायातीसे चिय अपवित्ती परोसि सव्वं चिय विरुद्धं॥२१॥ (भा०) । सर्वप्राणभूतजीवसत्त्वानामाशातनया, क्रिया प्राग्वत् , तत्र प्राणिनः-द्वीन्द्रियादयः व्यक्तीच्यासनिःश्वासा अभूवन् भव|न्ति भविष्यन्ति चेति भूतानि-पृथिव्यादयः जीवन्ति जीवा-आयुःकर्मानुभवयुक्ताः सर्व एवेत्यर्थः सत्त्वाः-सांसारिकसंसा प्राकृतः सूचनिबन्ध इति को पा जानाति केनेदं प्रणीतमिति । किंवा पारिवणैव दानेन विना भवति ॥1॥ देवादिक लोकं विपरीतं वदति सप्त द्वीपोदधानः । तथा कृतिः प्रजापतेः प्रकृतिपुरुषयोः संयोगो वा ॥1॥ उत्तरं-सससु परिमिताः सत्वा अमोक्षः शून्यत्वं वा प्रजापति म । केन कृत इत्यनाथा प्रकृतेः कयं प्रवृत्तिरिति ॥२॥ बदचेतनेति पुरुषार्थनिमितं किल प्रवर्तते सा च । तस्मा एवाप्रवृत्तावितरोऽपि सर्वमेवैवं विरुवम् ॥३॥ दीप अनुक्रम [२८] ~149~ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३२०...] भाष्यं [२१५], प्रतिक मणाध्य. अहेदाथा प्रत हाशातनाः१९ सूत्रांक आवश्यक- रातीतभेदाः, एकाथिका वा ध्वनय इति, आशातना तु विपरीतप्ररूपणादिनैव, तथाहि-अङ्गठपर्वमात्रो द्वीन्द्रियाद्यात्मेति, हारिभ-18 पृथिव्यादयस्त्वजीवा एव, स्पन्दनादिचैतन्यकार्यानुपलब्धेः, जीवाः क्षणिका इति, सत्त्वाः संसारिणोऽङ्गुष्ठपर्वमात्रा एव | द्रीया भवन्ति, संसारातीता न सन्त्येव, अपि तु प्रध्यातदीपकल्पोपमो मोक्ष इति, उत्तर-देहमात्र एवात्मा, तत्रैव सुखदुःखा॥७३०॥ दितत्का>पलब्धेः, पूधिव्यादीनां त्वरूपचैतन्यत्वात् कार्यानुपलब्धि जीवत्वादिति, जीवा अप्पेकान्तक्षणिका न भवन्ति, निरन्वयनाशे उत्तरक्षणस्यानुसत्तेनिहतुकत्वादेकान्तनष्टस्यासदविशेषत्वात् , सत्वाःसंसारिणः (देहप्रमाणाः), प्रत्युक्ता एव | संसारातीता अपि विद्यम्त एवेति, जीवस्य सर्वथा विनाशाभावात् , तथाऽन्यैरप्युक्तं-"नासतो विद्यते भावो, नाभावो| विद्यते सतः । उभयोरपि रष्टोऽम्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः॥१॥" इत्यादि । कालस्याऽऽशातनया, क्रिया पूर्ववत् , आशातना तु नास्त्येव काल इति कालपरिणतिर्वा विश्वमिति, तथा च दुर्नयः-"कालः पचति भूतानि, कालः संहरते प्रजाः कालः सुप्तेषु जागति, कालो हि दुरतिक्रमः ॥१॥” इत्यादि, उत्सरं-कालोऽस्ति, तमन्तरेण बकुलचम्पकादीनां नियतः पुष्पादिप्रदानभावो न स्यात्, न च तत्परिणतिर्विश्वं, एकान्तनित्यस्य परिणामानुपपत्तेः। श्रुतस्याऽऽशातनया, क्रिया पूर्ववत्, आशातना तु-को आउरस्स कालो? मइलंबरपोवणे य को कालो । जइ मोक्खहेज नाणं को कालो १ तस्सऽकालो वा ॥१॥ इत्यादि, उत्तरं-जोगो जोरंगो जिणसासणमि दुक्खक्खया परजंतो। अण्णोष्णमबाहाए कभातुरस्य (औषधादाने) कालो मसिनाम्बरप्रक्षालने चकः कालः । यदि मोक्ष देतज्ञांन कमास काको कालो पार, दुःखक्षयकारणात प्रयुज्यमानो योगो जिनचासने योग्यः । अन्योऽन्यायाधया H दीप अनुक्रम [२८] ७१०॥ + ~150 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३२०...] भाष्यं [२१५], * प्रत सूत्रांक % % दीप अनुक्रम असवत्तो होइ कायवो ॥२॥ प्राग् धर्मद्वारेण श्रुताशातनोक्ता इह तु स्वतन्त्रविषयेति न पुनरुक्तं । श्रुतदेवताया आशातनया, क्रिया पूर्ववत, आशातना तु श्रुतदेवता न विद्यतेऽकिश्चित्करी वा, उत्तरंज ह्यनधिष्ठितो मौनीन्द्रः खल्वागमन अतोऽसावस्ति, न चाकिञ्चित्करी, तामालम्ब्य प्रशस्तमनसः कर्मक्षयदर्शनात् । वाचनाचार्यस्याऽऽशातनया, क्रिया पूर्व-18 वत्, तत्र वाचनाचार्यों छुपाध्यायसंदिष्टो य उद्देशादि करोति, आशातना स्वियं-निर्दुःखसुखः प्रभूतान् वारान् वन्दनं दापयति, उत्तरं-श्रुतोपचार एषः क इव तस्यात्र दोष इतिOजं वाइद्धं बच्चामेलियं हीणक्खरियं अञ्चक्खरियं पयहीणं विणयहीणं घोसहीणं जोगहीणं मुहुदिन्नं दुहु। पडिच्छियं अकाले कओ सज्झाओ काले न कओ सजझाओ असज्झाए सज्झाइयं सज्झाए न सज्झाइयं तस्स मिच्छामि दुक्कडं (सूत्रं) एए चोदस सुत्ता पुबिलिया य एगूणवीसंति एए तेत्तीसमासायणसुत्तत्ति । एतानि चतुर्दश सूत्राणि श्रुतक्रियाकालगोचरत्वान्न पुनरुक्तभाजीति, तथा दोषदुष्टपदं श्रुतं यदधीतं, तद्यथा-व्याविद्धं विपर्यस्तरत्नमालावद्, अनेन प्रकारेण याऽऽशातना तया हेतुभूतया योऽतिचारः कृतस्तस्य मिथ्यादुष्कृतमिति क्रिया, एवमन्यत्रापि योज्या, व्यत्याम्बेडितं 8 कोलिकपायसवत् , हीनाक्षरम्-अक्षरन्यूनम्, अत्यक्षरम्-अधिकाक्षरं, पदहीन-पदेनैवोनं, विनयहीनम्-अकृतोचितविनयं, घोषहीनम्-उदात्तादिघोपरहितं, योगरहित-सम्यगकृतयोगोपचारं, सुष्छुदत्तं गुरुणा दुष्छु प्रतीच्छितं कलुषितान्तरात्मनेति, अकाले कृतः स्वाध्यायो-यो यस्य श्रुतस्य कालिकादेरकाल इति, काले न कृतः स्वाध्यायः-यो यस्याऽऽत्मीयोs असपनो भवति कर्तव्या ॥६॥ एतानि चतुर्दश सूत्राणि पूर्वाणि चैकानविंशतिः, एतानि प्रयधिशदाशातनायूत्राणि -% [२९] CACANCE श्रुत संबंधी तथा श्रुतकाल संबंधी दोषा: वर्णयते ~151 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३२१] भाष्यं [२१५...], प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यक- ध्ययनकाल उक्त इति, अस्वाध्यायिके स्वाध्यायितं ॥ किमिदमस्वाध्यायिकमित्यनेन प्रस्तावेनाऽऽयाताऽस्वाध्यायिकनियु-10 प्रतिकहारिभ- तिरित्यस्यामेवाऽऽद्यद्वारगाथा मणाध्य दीया &ा असज्झाइयनिजुत्ती चुच्छामी धीरपुरिसपण्णत्तं । जं नाऊण सुविहिया पवयणसारं उबलहंति ॥ १३२१ । । अस्वाध्याअसजझायं तु दुविहं आयसमुत्थं च परसमुत्थं च । जं तत्थ परसमुत्थं तं पंचविहं तु नायग्वं ॥१३२२॥ I यिकनिक ॥७३॥ व्याख्या-आ अध्ययनमाध्ययनमाध्यायः शोभन आध्यायः स्वाध्यायः स एव स्वाध्यापिकंन स्थाध्यायिकमस्वाध्यायिक | तत्कारणमपि च रुधिरादि कारणे कार्योपचारात् अस्वाध्यायिकमुच्यते, तदस्वाध्यायिक द्विविध-द्विप्रकारं, मूलभेदापेक्षया द्विविधमेव, द्वैविध्य प्रदर्शयति-'आयसमुत्थं च परसमुत्थं च' आत्मनः समुत्थं-स्वव्रणोद्भवं रुधिरादि, चशब्दः| स्वगतानेकभेदप्रदर्शका, परसमुत्थं-संयमघातकादि, चः पूर्ववत्, तत्थ जं परसमुत्थं-परोजवं तं पञ्चविधं तु-पश्चप्रकार 'मुणेयर्थ' ज्ञातव्यमिति गाथार्थः॥ १३२१-१३२२ ।। तत्र बहुवक्तव्यत्वात् परसमुत्थमेव पश्चविधमादावुपदर्शयति संजमघाउबघाए सादिब्वे बुग्गहे य सारीरे । घोसणयमिच्छरण्णो कोई छलिओ पमाएणं ॥ १३२३ ॥ | व्याख्या-'संयमघातक' संयमविनाशकमित्यर्थः, तच्च महिकादि, उत्पातेन निवृत्तमौरपातिकं, तच्च पांशुपातादि, सह दिव्यैः सादिव्यं तच गन्धर्वनगरादि दिव्यकृतं सदिव्यं वेत्यर्थः, व्युग्रहश्चेति व्युद्हः-सामः, असावप्यस्वाध्यायिकनि- ॥७३१॥ |मित्तत्वात् तथोच्यते, शारीरं तिर्यग्मनुष्यपुद्गलादि, एयंमि पंचविहे असज्झाए सज्झायं करेंतस्स आयसंजमविराहणा, १ एतस्मिन् पाविधेऽस्याध्यामिक स्वाध्याय कुर्वत आत्मसंयमविराधना, दीप अनुक्रम [२९] SA अथ अस्वाध्याय नियुक्ति: प्रस्तुयते ~152 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१३२३] भाष्यं [२१५...], प्रत सूत्रांक तत्थ दिलुतो, घोसणयमिच्छ इत्यादेर्गाथाशकलस्यार्थः कथानकादवसेय इति गाथासमुदायार्थः, अधुना गाधापश्चार्धावयवार्थप्रतिपादनायाहमिच्छभयघोसण निवे हियसेसा ते उ दंडिया रण्णा । एवं दुहओ दंडो सुरपच्छित्ते इह परे य ॥ १३२४ ॥ | व्याख्या-खिइपइद्वियं णयरं, जियसत्तू राया, तेण सविसए घोसावियं जहा मेच्छो राया आगच्छइ, तो गामकूलतणयराणि मोत्तुं समासन्ने दुग्गे ठायह, मा विणस्सिहिह, जे ठिया रण्णो वयणेण दुग्गादिसु ते ण विणवा, जे पुण ण ठिया ते मिच्छया(पाई)हि विलुत्ता, ते पुणो रण्णा आणाभंगो मम कओत्ति जैपि कपि हियसेस तंपि दंडिया, एवमसज्झाए सज्झायं करेंतस्स उभओ दंडो, सुरत्ति देवया पछलइ पच्छित्तेत्ति-पायच्छित्तं च पावइ 'इह'त्ति इहलोए 'परे'त्ति परलोए णाणादि विफलत्ति गाथार्थः ॥ १३२४ ॥ (१९५००) इमो दिईतोवणओराया इह तिस्थयरो जाणवया साह घोसणं सुत्तं । मेच्छो य असमाओ रमणधणाईच नाणाई ॥१३२५॥ व्याख्या-जहा राया तहा तिस्थवरो, जहा जाणवया तहा साहू, जहा घोसणं तहा सुत्त-असज्झाइए सज्झायपडि तत्र दृष्टान्तः । क्षितिप्रतिधितं मगर जितशबू राजा, तेन स्वविषये घोषितं यथा मलेरको राजा आगच्छति ततो प्रामफूलनगरादीनि मुच्या समासके दुर्गे तिष्ठत, मा बिनहात, ये स्थिता राजो बचनेन दुर्गाविपु तेन विनष्टार, ये पुनर्न स्थितास्ते म्लेच्छपत्तिभिर्विलुप्ताः, ते पुना राजा आज्ञाभको मम कृत इति यदपि किमपि इतशेष सदपि दण्डिताः, एवमस्वाध्यायिके स्वाध्यावं कुर्वत उभयतो दण्डः, सुर इति देवता प्रस्टलति, प्रायभिचमिति प्रायश्चिपरं च पामोति, इति इहलोके पर इति परलोके ज्ञानादीनि बिफलानीति । अयं दृष्टान्तोपनयः यथा राजा तथा तीर्थकरो यथा जानपदासया साधयो यथा घोपर्ण तथा सूत्रं अस्वाध्यायिके स्वाध्यायप्रति दीप अनुक्रम SANSARASHREE-EARS [२९] ~153 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१३२५] भाष्यं [२१५...], प्रत अस्वाध्या सत्राक [सू.] आवश्यक- सेहंगति, जहा मेच्छो तहा असज्झाओ महिगादि, जहा रयणधणाइ तहा णाणादीणि महिगादीहि अविहीकारिणो १४ प्रतिक्रहारिभ- हीरति गाथार्थः॥ १३२५ ॥ | मणाध्य दीया थोवावसेसपोरिसिमज्झयणं वावि जो कुणइ सो उ । णाणाइसाररहियस्स तस्स छलणा उ संसारो॥१३२६॥ |यिकनिक ॥७३२॥ व्याख्या-थोवावसेसपोरिसिं कालवेलत्ति जं भणियं होइ, एवं सो उत्ति संबंधो, अज्झयण-पाठो अविसदाओ| वक्खाणं वावि जो कुणइ आणादिलंघणे णाणाइसाररहियस्स तस्स छलणा उ संसारोत्ति-णाणादिवेफलत्तणओ चेवर गाधार्थः ॥ १३२६ ॥ तत्राऽऽद्यद्वारावयवार्थप्रतिपादनायाहमहिया य भिन्नवासे सञ्चित्तरए य संजमे तिविहं । व्वे खित्ते काले जहियं वा जचिरं सव्वं ॥ १३२७ ॥ व्याख्या-'मह्यि'त्ति धूमिगा 'भिन्नवासे यत्ति बुझदादौ 'सचित्तरए'त्ति अरपणे वारद्धयपुढविरएत्ति भणियं होइ, संजमघाइयं एवं तिविहं होइ, इमं च 'दवेत्ति तं चेव दई महिगादि 'खेत्ते काले जहिं वेति जहिं खेत्ते महिगादि पडइ - दीप अनुक्रम [२९] % ॥७३२॥ पेपकमिति, यथा लेखसधासाध्यायो महिकादि।, यथा रखधनादि तथा ज्ञानादीनि महिकादिभिरविधिकारिणो नियन्ते । सोकावशेषा पीस|पीति कालवेलेति यज्ञणितं भवति, एवं स स्थितिसम्बन्धः, अध्ययन पाठः अपिशब्दात व्याख्यानं वापि यः करोति माज्ञायुलाने ज्ञानादिसाररहितस तस्यउळना तु संसार इति ज्ञानादेकल्यादेव । महिकेवि धूमिका भिनवर्षमिति नहुदादौ सति सचिन रज इति भरण्ये वासोबूतं पृथ्वीरज इति भणितं भवति, संयमघातकमेवं त्रिविधं भवति, इदं च य इति तदेव अन्य महिकादि क्षेत्रे काले यत्रैवेति-यत्र क्षेत्रे महिकादि पतति ~154 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३२७] भाष्यं [२१५...], प्रत सूत्रांक टिचिरं कालं 'सर्वति भावओ ठाणभासादि परिहरिजइ इति गाथासमुदायार्थः॥ १३२७ ॥ अवयवार्थ तु भाष्यकार: स्वयमेव व्याचष्टे, इह पञ्चविधासम्झाइयस्स, तं कह परिहरियषमिति !, तप्पसाहगो इमो दिढतोदुग्गाइतोसियनिवो पंचण्हं देह इच्छियपयारं । गहिए य देइ मुल्लं जणस्स आहारवस्थाई ॥१३२८॥ | व्याख्या-एगस्स रण्णो पंच पुरिसा, ते बहुसमरलद्धविजया, अण्णया तेहिं अञ्चंतषिसमं दुग्गं गहियं, तेर्सि तुट्ठो राया इच्छिय नगरे पयारं देइ, जं ते किंचि असणाइ वा वधाइगं च जणस्स गिर्हति तस्स वेयणय सर्व राया पय-18 च्छइ इति गाथार्थः ॥ १३२८ ॥ इकेण तोसियतरोगिहमगिहे तस्स सबहिं वियरे। रत्थाईसुचउण्हं एवं परमं तु सव्वस्थ ॥ १३२९ ॥ | व्याख्या-तेसिं पंचण्डं पुरिसाणं एगेण तोसिययरो तस्स गिहावणवाणेसु सवस्थ इच्छियपयारं पयच्छइ, जो एते |दिण्णपयारे आसाएजा तस्स राया दंड करेइ, एस दिहतो, इमो उवसंहारो-जहा पंच पुरिसा तहा पंचविहासज्झाइयं, जहा सो एगो अन्भहिततरो पुरिसो एवं पढम संजमोवघाइयं सर्व तत्थ ठाणासणादि, तंमि बट्टमाणे ण सज्झाओ नेव यावन्त कार्य (वा पतति) सर्वमिति भावतः स्थानमाचादि परिहियते । इह पञ्चविधास्वाध्यापिकस, सत् कथं परिहर्गम्यमिति , सध्यसाधकोऽयं दृष्टान्तः-एकस्य राज्ञः पत्र पुरुषाः, ते बटुसमरलब्धविजयाः, अन्पदा तैरत्वन्तविपमो दुर्गो गृहीतः, तेभ्वसाटो राजा ईप्सितं नगरे प्रचार ददाति, यचे किनिदशनादि या वचाविक वा जनस्य गृहन्ति तस्य वेतनं सर्व राजा प्रयच्छति । तेषां पन्जानां पुरुषाणामेकेन तोपिरातः, तम गृहापणस्थानेषु सर्वप्सितं प्रचार प्रयच्छति, व एनाभू दत्तप्रचारान् आशातयेत् तस्य राजा वदं करोति, पुष हटान्तोऽयमुपसंहार:-यथा पत्र पुरुषास्तधा पञ्चविधास्वाध्याथिक, यथा स एकोऽयधिकतर पुरुष एवं प्रथम संयमोपपातिक सबै तत्र स्थानासनादि, सस्मिन् वर्तमाने न स्वाध्यायो भव SASALARSA दीप अनुक्रम [२९] ~155 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३२९] भाष्यं [२१६], प्रत सूत्रांक आवश्यक- पंडिलेहणादिकावि चेट्टा कीरइ, इयरेसु चउसु असज्झाइएसु जहा ते चउरो पुरिसा रत्थाइसु चेव अणासाइणिज्जा तहा४ प्रतिक्रहारिभ- तेसु सम्झाओ चेव न कीरइ, सेसा सवा चेहा कीरइ आवस्सगादि उकालियं च पढिजद । महियाइतिविहस्स संजमोव-17 मणाध्य. द्रीया घाइस्स इमं वक्खाणं पञ्चविधामहिया उ गम्भमासे सचित्तरओ अ ईसिआयंबो। वासे तिन्नि पयारा बुन्बुअतब्बज फुसिए य ॥२१॥(भा०) स्वाध्यायिक ॥७३३॥ । व्याख्या-'महिय'त्ति धूमिया, सा य कत्तियमग्गसिराइसु गम्भमासेसु हवइ, सा य पडणसमकालं चेव सुहुमत्तिणओ सर्व आउकायभावियं करेति, तत्थ तकालसमयं चेव सबचेट्ठा निरंभति, ववहारसश्चित्तो पुढविकाओ अरणो वाउम्भूओ आगओ रओ भन्नइ, तस्स सचित्तलक्खणं वण्णओ ईसि आयंबो दिसंतरे दीसइ, सोषि निरंतरपारण तिण्हं-तिदिणाणं परओ सर्व पुढवीकायभावियं करेति, तत्रोत्पातशङ्कासंभवश्च । भिन्नवासं तिविहं-बुद्दादि, जत्थ वासे पडमाणे उदगे बुद्बुदा भवन्ति तं बुद्धयवरिस, तेहिं वज्जियं तवज, सुहुमफुसारेहिं पडमाणेहि फुसियवरिसं, एतेसिं जहासंख प्रतिलेखनादिकाऽपि चेष्टा क्रियते, इतरेषु चतुएं अस्वाध्यापिकेषु यथा ते चत्वारः पुरुषा रण्यादिवेवानाशाननीयास्तथा तेषु स्वाध्याय एवं न कियते | IFIशेषा सर्वा चेष्टा क्रियते आवश्यकादि कालिकच पक्ष्यते । महिकादिविविधस्य संयमोपघातिकखेद व्याख्या-मदिति भूमिका, सा च कार्तिकमार्गशिर-IN२शा आदिषु गर्भमासेषु भवति, सा च पतनसमकालमेव सूक्ष्मवात् सर्वमकायभावितं करोति, तत्र तत्काल समयमेव सर्वा चेष्टा निरुणदि, पवहारसविता पृथ्वीकाप आरण्यं चावूतं आगतं रजो भव्यते, तस्य सचित्तलक्षणं वर्णत ईषदातानं दिगन्तरे रश्यते, तदपि निरम्रपातेन विदिन्याः परतः सर्व पृथ्वीकावभानितं करोति । भिन्नवर्षः विविधः, यत्र वर्षे पतति उदके पडदा भवन्ति स बुहुदवर्षः, जितः तर्जः, सूक्ष्मैबिन्दुभिः पतन्द्रिः बिन्दुवर्षः। एतेषां यथासंख्य दीप अनुक्रम CREAK [२९] पञ्चविध: अस्वाध्यायिकम् दर्शयते ~156~ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३२९] भाष्यं [२१७], S प्रत सूत्रांक तिहपंचसत्तदिणपरओ सर्व आउकायभावियं भवइ ॥ १३२९ ॥ संजमघायस्स सबभेदाणं इमो चउविहो परिहारोदिवे खेत्ते' पच्छद्धं, अस्य व्याख्यादव्ये तं चिय दवं खिंते जहियं तु जचिरं कालं । ठाणाइभास भावे मुनु उस्सासउम्मेसे ॥२१७॥ (भा०) व्याख्या--दवओ तं चेव दर्व महिया सचित्तरओ भिण्णवास वा परिहरिजइ। खेत्ते जहिं पडइत्ति-जहिं खेत्ते तमहिना याइ पडइ तर्हि चेव परिहरिजइ, 'जच्चिरं काल'न्ति पडणकालाओ आरम्भ जच्चिरं कालं भवति 'ठाणाइभास भावे'त्ति भावओ 'ठाणे'त्ति काउस्सरगं न करेति, न य भासइ, आइसद्दाओ गमणपडिलेहणसज्झायादि न करेति, 'मोनुं उस्सासउम्मेसे'त्ति 'मोत्तुं ति ण पडिसिझंति उस्सासादिया, अशक्यत्वात् जीवितव्याघातकत्वाच्च, शेषाः क्रियाः सर्वा| निषिध्यन्ते, एस उस्सग्गपरिहारो, आइण्णं पुण सश्चित्तरए तिणि भिण्णवासे तिपिण पंच सत्त दिणा, अओ परं सम्झायादि दीप अनुक्रम ANSACARD +LORCAMKARAASCA [२९] विपत्रसप्तदिनेभ्यः परतः सर्व मायभावितं भवति, संयमघातकानां सर्वभेदानामयं चतुर्विधः परिहार:-प्रयतसादेव द्रव्यं महिका सचिचरनो मित्रवर्षी वा परिहिवते, क्षेचे यत्र पतति-पत्र क्षेत्रे तत् महिकादि पतति तत्रैव परिट्रियते, यावचिरं कालमिति पतनकालादारभ्य थावचिरं काले भपति, खानादिभाषा भाव इति भावतः स्थानमिति कायोत्सर्ग न करोति, न च भाषते, आदिवादात् गमनप्रतिलेखनास्वाध्यायादि न करोति, मुक्योच्छ्रासोन्मेषा| निति मुग्वेति न प्रतिविध्यन्ते उपहासादयः । एष आसर्गपरिहारः, आचरणा पुनः सचित्तरजसि श्रीणि भिन्नवर्षे त्रीणि पज्ञ सप्त दिनानि, अतः परं खाध्यायादि *"ले जहि पद चिरं कालं" इत्यपि पुसकान्तरे। +"मोतुं उस्सासम्मेस" इति पाठान्तर । ~157. Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [२९] आवश्यक हारिभ या ॥७३४॥ [भाग-३१] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १/४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], निर्युक्तिः [१३३०] भाष्यं [२१७], सव्वं न करेति, अण्णे भणति बुब्बुवरिसे बुब्बुयवजिए य अहोरता पंच, फुसियवारिसे सत्त, अओ परं आउकायभाविए सवा चेडा निरंभंतित्ति गाथार्थः ॥ २१७ ॥ कहें ?-- वासत्ताणावरिया निक्कारण ठंति कल्लि जयणाए । हत्थस्थंगुलि सन्ना पुत्तावरिया व भासति ॥ १३३० ।। व्याख्या -निकारणे वासाकप्पं- कंबली (ता) ए पाउया निहुया सवन्तरे चिडंति, अवस्तकायवे वत्तवे वा कज्जे इमा जयणा- हत्थेण भमुहादिअच्छिवियारेण अंगुलीए वा सन्नत्ति इमं करेहित्ति, अह एवं णावगच्छइ, मुहपोत्तीय अंतरियाए जयणाए भासंति, गिलाणादिकज्जे वासाकष्पपाउया गच्छेति ति ॥ १३३० || संजमधापत्ति दारं गवं । इयाणिं उप्पाएत्ति, तत्थ पंसू अ मंसरुहिरे केससिलाबुद्वि तह रउम्याए । मंसरुहिरे अहोरत अवसेसे जबिरं सुतं ॥ १३३१ ॥ व्याख्या -- धूलीवरिसं मंसवरितं रुहिरवरिसं 'केस'त्ति केसवरिसं करगादि सिलावरिसं रयुग्घायपडणं च, एएसिं इमो १ सर्व न करोति, अम्बे भगन्ति दवर्षे ववर्जितेच अहोरात्राणि पञ्च विन्दुवर्षे सप्त, अतः परमन्कायभावितत्वात् सर्वानिद्धि । कथं निष्कारणे वर्षाकल्पः कम्बलः तेन प्रावृता निभृताः सर्वाभ्यन्तरे विहन्ति आवश्यकर्त्तव्ये अवश्य वा कार्ये इवं यतना-हस्तेन प्रकुव्याक्षिविकारेणाल्या या संज्ञयन्ति इदं कुर्विति अथैवं नावगच्छति सुखवियाऽभ्वरितया यततया भाषन्ते जानादिकार्ये कल्पप्रावृता गच्छन्तीति । संयमघातक इति द्वारं गतं इदानीमीत्पातिकमिति तत्र धूटिवर्षो मांसव रुविश्वर्षः केशेति केशवर्षः करकादिः शिलावर्षः रजउद्यापनं च एतेषाम ~ 158 ~ ४ प्रतिक्र मणाध्य० पञ्चविधास्वाध्यायिकं ॥७३४ ॥ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३३१] भाष्यं [२१७], -4-550 6 प्रत सूत्रांक 4-१०- परिहारो-मंसरुहिरे अहोरत्तं सज्झाओ न कीरइ, अवसेसा पंसुमाइया जञ्चिरं कालं पडंति तत्तियं कालं सुत्तं नंदिमाइयं न पतित्ति गाथार्थः ॥ १३३१ ॥ पंसुरयुग्धायाण इमं वक्खाणेपंसू अचित्तरओ रयस्सिलाओ दिसा रउग्घाओ । तत्थ सवाए निब्वायए य सुत्तं परिहरति ।। १३३२॥ व्याख्या-धूमागारो आपंडुरो रओ अञ्चिचो य पंसू भणइ, महास्कन्धावारगमनसमुदत इव विक्षसापरिणामतः | समन्ताद्रेणुपतनं रजउद्घातो भण्यते, अहवा एस रओ उग्घाडउ पुण पंसुरिया भण्णइ । एपसु वायसहिएसु निवाएसु वा सुत्तपोरिसिं न करेतित्ति गाथार्थः॥ १३३२ ॥ किं चाभ्यत्-... साभाविय तिति दिणा सुगिम्हए निक्खिचंति जइ जोगं तो तंमि पडतंमी करंति संवच्छरजनायं ॥१३३३॥ व्याख्या-एए पंसुरउउग्घाया साभाविया हवेजा असाभाविया वा, तत्थ असम्भाविया जे णिग्धायभूमिकंपचदोपरागादिदिवसहिया, एरिसेसु असाभाविएसु कएवि उस्सग्गे न करेंति सज्झायं, 'सुगिम्हए'त्ति यदि पुण चित्तसुद्धपक्खदसमीए अबरण्हे जोगं निखिवंति दसमीओ परेण जाव पुण्णिमा एत्वंतरे तिण्णि दिणा उवरुवरि अचित्तरउग्घाडावर्ण परिहारः मांसरुधिरयोरहोरात्र खापायो न क्रियते, अवशेषाः पाश्वादिका यावचिरं कालं पतन्ति तापत काल सूत्र-नन्यादिकं न पठन्तीति । पांशुरजजद्धातबोरिदं व्याख्यान-भूमाकार आपाण्टुब रजः अचित्तश्च पांशु ण्यते अथष व उबातस्तु पुनः पांगुरिका मण्यते, एतेषु धातसहितेषु निवातेषु वा सूत्रपौरुषी न करोतीति । एती पांसुरजउद्धाती स्वाभाविको भवेतामस्वाभाविको वा, नत्रास्त्राभाविको यो निर्धात भूमिकम्पचन्द्रोपरागादि दिव्यसहितौ, ईशयोरस्वाभाविकयोः कृतेऽपि कायोत्सर्ग न कुर्नन्ति खाध्याय, सुग्रीष्मक इति यदि पुन चैत्र शुद्धपक्षदशम्या अपराह्ने योग निक्षिपन्ति ४ादनामीतः परतः यावत् पूर्णिमा अत्रान्तरे बीन् दिवसान उपर्युपरि अचित्तरजातातना दीप अनुक्रम [२९] ~159 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३३३] भाष्यं [२१७...], हारिभ- द्रीया प्रत सूत्रांक ॥७३५॥ [सू.] म दीप अनुक्रम काउस्सगं करेंति तेरसिमादीसु वा तिसु दिणेसु तो साभाविगे पडतेऽवि संवच्छरं सज्झायं करेति, अह उस्सग्गं नाप्रतिक्रकरेंति तो साभाविए य पड़ते सज्झायं न करेतित्ति गाथार्थः ।।१३३३ ।। उप्पाएत्ति गये, इदाणिं सादिवेत्ति दारं, तच्च- मणाध्य. गंधब्बदिसाविजुकगजिए जूअजक्खालित्ते । इकिक पोरिसी गजियं तु दो पोरसी हणइ ॥ १३३४॥ पञ्चविधा व्याख्या-धर्व-नगरविउवण, दिसादाहकरणं विजुभवणं उक्कापडणं गजियकरणं, जूवगो वक्खमाणलक्षणो, जक्खा- स्वाध्यायिक |दित्तं-जक्खुदितं आगासे भवइ । तत्थ गंधवनगरं जक्खुदितं च एए नियमा दिवकया, सेसा भयणिजा, जेण फुडं न नजति तेण तेसिं परिहारो, एए पुण गंधवाइया सबे एकेक पोरिसिं उवहणंति, गजियं तु दो पोरिसी उवहण इत्ति गाथार्थः॥ १३३४ ॥ मादिसिदाह छिन्नमूलो उक्क सरेहा पगासजुत्ता वा । संझाछेयावरणो उ जवओ सुकि दिण तिन्नि ॥ १३३५ ।। व्याख्या-अन्यतमदिगन्तरविभागे महानगरप्रदीप्तमिवोद्योतः किन्तूपरि प्रकाशोऽधस्तादन्धकारः इंटक छिन्न-| मूलो दिग्दाहः, उकालक्खणं-सदेहवण रेहं करेंती जा पडइ सा उक्का, रेहविरहिया वा उज्जोयं करेंती पडइ सावि उका।। कायोत्सर्ग कुर्वन्ति त्रयोदश्यादिषु वा त्रिषु दिवसेषु तदा स्वाभाविकयोः पततोरपि संवत्सर स्वाध्यायं कुर्वन्ति, अयोसगै न कुर्वन्ति तदा ससाभाविक ||७३५॥ पतति स्वाध्यायं न करोति । औत्पातिकमिति गतं, इदानी साविब्यमिति द्वार, ता-गान्धर्व नगरविकुर्वणं दिनदाहकरणं विद्युभवनं उरकापतनं गर्जितकरणं, यूपको-वक्ष्यमाणलक्षणः यक्षादीक्ष-यशोदीप्तमाकाशे भवति, तत्र गान्धर्वनगर यशोहीप्तं च एते नियमात् देवकृते, शेषाणि भजनीयानि, येन स्फुट न ज्ञायन्ते तेन तेषां परिहारः । एते गान्धर्वादिकाः पुनः सबै एकैकां पौरुषीमुपान्ति, गर्जितं तु पौभायात्रुपहन्ति । उकालक्षण-खदेहपर्णी रेखां कुर्वन्ती या पतति । सोल्का रेसानिरहिता वोधोतं कुर्वन्ती पतति साप्युल्का । [२९] ~160 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१३३५] भाष्यं [२१७...], 56456544 प्रत सूत्रांक [सू.] जवगोत्ति संझप्पहा चंदप्पहा य जेणं जुगवं भवंति तेण जूवगो, सा य संझप्पहा चंदप्पभावरिया णिप्फिडती न नजइ सुक्कपक्लपडिवगादिसु दिणेसु, संझाछेयए अणजमाणे कालवेलं न मुणंति तो तिन्नि दिणे पाउसियं कालं न ४| गण्डंति-तिसु दिणेसु पाउसियसुत्तपोरिसिं न करेंति त्ति गाथार्थः ॥ १३३५॥ केसिंचि हुंतिऽमोहाउ जुवओ ता य हुंति आइन्ना । जेसिं तु अणाइना तेसिं किर पोरिसी तिन्नि ॥ १३३६ ॥ व्याख्या-जगस्स सुभासुभकम्मनिमित्तुष्पाओ अमोहो-आइच्चकिरणविकारजणिओ, आइचमुदयत्थमआयतो(बो)। किण्हसामो वा सगडुद्धिसंठिओ दंडो अमोहत्ति स एव जुबगो, सेसं कंठ ॥१३३६ ॥ किं चाम्यत्चंदिमसूरुवरागे निग्घाए गुंजिए अहोरत्तं । संझा चउ पाडिएया जं जहि सुगिम्हए नियमा ॥ १३३७ ॥ व्याख्या-चंदसूरूवरागो गहणं भन्नइ-एयं वक्खमाणं, साने निरभ्र वा गगने व्यन्तरकृतो महागर्जितसमो ध्वनिनिर्घातः, तस्यैव वा विकारो गुञ्जावद्गुञ्जितो महाध्वनिगुञ्जितं । सामण्ण ओ एएसु चउसुवि अहोरत्तं सज्झाओ न कीरइ, निग्धायगुंजिपसु विसेसो-वितियदिणे जाव सा वेला णो अहोरत्तछेएण छि जइ जहा अन्नेसु असझाएसु, 'संझा चउत्ति _ यूपक इति सन्ध्याममा चन्द्रप्रभा च येन युगपद् भवतलेन यूपका, सा च सन्ध्याममा चन्द्रप्रभावृता गच्छन्ती न ज्ञायते शुक्लपक्षप्रतिपदादिषु, ४ दिनेषु, सन्ध्यादेज्ञायमाने काल वेलां न जानन्ति ततस्त्रीन् दिवसान प्रादोषिर्क कालं न गृह्णन्ति त्रिषु दिवसेषु प्रादोषिकसूत्रपरिषीं न कुर्वन्तीति । जगतः शुभाशुभकर्म निमित्त उत्पातोऽमोवा-आदिल्यकिरण विकारजनितः आदित्योद्गमनास्लमयने आताम्रः कृष्णश्यामो वा शकटोदिसंस्थितो दण्डोऽमोष इति स |एव चूपक हति, शेष कार्य । चन्द्रसूर्योपरागो प्रहणं भव्यते, एतत् वरुपमाण, सामान्यत एतेषु चतुर्वपि अहोरात्रं स्वाध्यायो ग क्रियते, निपीत गुञ्जियोर्वि| शेष:-द्वितीयदिने यावत् सा वेला नाहोरात्रच्छेदेन छियते यथाऽन्येवस्वाध्यापिके', 'सन्ध्याचतुष्क मिति दीप अनुक्रम [२९] ~161 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३३७] भाष्यं [२१७...], प्रत आवश्यक- हारिभ द्रीया ॥७३६॥ प्रतिकमणाध्य. पञ्चविधास्वाध्यायिक सूत्रांक दीप अनुक्रम [२९] अणुदिए सूरिए मज्झण्हे अस्थमणे अहुरत्ते य, एयासु चउसु सज्झायं न करेंति पुखुत्तं, 'पाडिवए'त्ति चउण्डं महामहाणं चउसु पाडिवएसु सज्झाय न करेंतित्ति, एवं अन्नपि जंति-महं जाणेज्जा जहिंति-गामनगरादिसु तपि तत्थ बज्जेजा, सुगिम्हए पुण सवत्थ नियमा असज्झाओ भवति, एत्थ अणागाढजोगा निक्खिवंति नियमा आगाढा न निक्खिवंति,न पतित्ति गाथार्थः ॥ १३३७ ॥ के य ते पुण महामहाः १, उच्यन्ते आसाढी इंदमहो कत्तिय सुगिम्हए य बोडव्वे । एए महामहा खलु एएसिं चेव पाडिवया ॥ १३३८॥ व्याख्या-आसाढी-आसाढपुन्निमा, इह लाडाण सावणपुतिमाए भवति, इंदमहो आसोयपुन्निमाए भवति, 'कत्तियत्ति कत्तियपुन्निमाए चेव सुगिम्हओ-चेत्तपुण्णिमा, एए अंतिमदिवसा गहिया, आई उ पुण जत्थ जत्थ विसए जओ | ४ दिवसाओ महमहा पवतंति तओ दिवसाओ आरभ जाव अंतदिवसो ताव साझाओ न काययो, एएसिं चेव पुण्णिमाणतरं जे बहुलपडिवया चउरो तेवि वज्जियत्ति गाथार्थः ॥ १३३८ ॥ पडिसिद्धकाले करेंतस्स इमे दोसा अनुदिते सू मध्याहे असमबने अधराने च, एतासु घतमषु स्वाध्यायं न कुर्वन्ति पूति, प्रविपद' इति चतुणा महामहानो चतम् प्रतिपस्सु स्वाध्याय न फुर्वन्तीति, एवमन्यमपि यमिति मह जानीयात् यत्रेति ग्रामनगरादिषु तमपि तन वर्जयेत्, सुधीष्मके पुनः सर्वत्र निषमादखायायो। भवति, अनानागादयोगा निक्षिप्यन्ते नियमान भागाडान् न निक्षिपति, न पठन्तीति । के च पुनस्ते महामहाः', अच्यन्ते-आषाढीभाषापूर्णिमा इद लाटान | श्रावणापूर्णिमायाँ भवति, इन्दमद अश्श्युपूर्णिमायां भवति, कार्तिक इति कार्तिकपूर्णिमायामेच सुग्रीष्मका-चैत्र पूर्णिमा, एतेऽन्यदिवसा गृहीताः आदिस्तु पुनर्यत्र यत्र देशे यतो दिवसात् महामहाः प्रवर्तन्ते ततो दिवसादारभ्य यावदन्त्यो दिवसम्तावत् स्वाध्यायो न कर्तव्यः, एतासामेव पूर्णिमानामनन्तरा वाः कृष्णप्रतिश्ववनम्रता अपि वर्जिता इति । प्रतिषिद्धकाले कुर्वत हमे दोषाः P ॥७३६॥ CHSS ~162~ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [२९] [भाग-३१] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १/४ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १३३९ ] भाष्यं [२१७... ], कामं सुअवओगो तवोवहाणं अणुत्तरं भणियं । पडिसेहियंमि काले तहावि खलु कम्मबंधाय ।। १३३९ ।। छलया व सेसएणं पाडियएसुं छणाणुसनंति । महवाउलत्तणेणं असारिआणं च संमाणो ॥ १३४० ॥ | अन्नयरपमायजुयं छलिज्ज अप्पिडिओ न उण जुत्तं । अडोदहिडिह पुण छलिज जयणोवउत्तंपि ॥ १३४१ ।। व्याख्या—संरागसंजओ सरागसंजयत्तणओ इंदियविसयाअन्नयरपमायजुत्तो हविज्ज स विसेसओ महामहेसु तं |पमायजुत्तं पडणीया देवया छलेज्ज । अपिडिया खेत्तादि छलणं करेज, जयणाजुत्तं पुण साहुं जो अप्पिडिओ देवो अद्धोदहीओ ऊगठिईओ न चए छलेउ, अद्धसागरोवमठितीओ पुण जयणाजुत्तंपि छलेजा । अस्थि से सामत्थं जं तंपि | पुधावर संबंघसरणओ कोइ छलेज्जत्ति गाथार्थः ॥ १३३९- १३४० - १३४१ ॥ 'चंदिमसूरुवरागत्ति' अस्या व्याख्याउक्कोसेण दुवालस चंदु जहस्रेण पोरिसी अट्ठ । सरो जहन्न बारस पोरिसि उक्कोस दो अट्ठ ॥ १३४२ ॥ व्याख्या— चंदो उदयकाले गहिओ संदूसियराईए चउरो अण्णं च अहोरतं एवं दुवाउस, अहवा उष्पायगहणे सवराइथं गहणं सग्गहो चैव निबुड्डो संदूसियराईए चउरो अण्णं च अहोरत्तं एवं बारस अहवा अजाणओ, ३ सरागसंयतः सरागसंयतत्वादिन्द्रियविषयाद्यन्यतरप्रमादयुक्तो भवेत् स विशेषतो महामहेषु तं प्रमादयुक्तं प्रत्यनीका देवता छलेत्-भपर्दिका क्षिप्तादिच्छन कुर्यात् यतमायुक्तं पुनः साधुं योऽपको देवोऽधित जनस्थितिको न शक्नोति उडवितुं अर्धसागरोपमस्थितिकः पुनर्वसनायुक्तमपि उत् अस्ति तस्य साम्रध्यं यत्तमपि पूर्वापरसम्बन्धस्मरणतः कश्चित् छलेदिति । चन्द्र उदयकाले गृहीतः संदूषितत्रेश्रः वारः अम्यच्चाहोरात्रमेवं द्वादश, अथवा उत्पातग्रहणे सर्वशत्रिकं ग्रहणं, सग्रह एवं मूडितः संदूषितरात्रेश्वत्वारः अन्यबाहोरात्रमेवं द्वादश, अथवा अजानत: ~ 163~ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१३४२] भाष्यं [२१७...], प्रत सत्राक CSAX अभछण्णे संकाए न नजइ, केवलं ग्रहणं, परिहरिया राई पहाए दि8 सग्गहो निबुडो अण्णं च अहोरत्तं एवं दुवालस। ४ प्रतिकहारिभ-15 एवं चंदरस, सूरस्स अस्थमणगहणे सग्गहनिब्बुडो, उवहयरादीए चतरो अण्णं च अहोरत्तं एवं वारस । अह उदयंतोमणाध्य. द्रीया गहिओ तो संदूसिए अहोरत्ते अह अण्णं च अहोरत्तं परिहरइ एवं सोलस, अहवा उदयवेलाए गहिओ उप्पाइयगह- पश्चविधा णेण सधं दिणं गहणं होउं सग्गहो चेव निबुडो, संदूसियस्स अहोरत्तस्स अट्ट अण्णं च अहोरत्तं एवं सोलस । अहवा। स्वाध्यायिक ll૭૨બી. अन्भच्छन्ने न नजइ, केवलं होहिति गहणं, दिवसओ संकाए न पढियं, अस्थमणवेलाए दिह गहणं सग्गहो निब्बुडो, संदूसियरस अह अण्णं च अहोरत्तं एवं सोलसत्ति गाथार्थः॥१३४२॥ सग्गहनिब्बुड एवं सूराई जेण हुंतिऽहोरत्ता । आइन्नं दिणमुक्के सुचिय दिवसो अ राई य॥ १३४३ ।। व्याख्या-सग्गहनिबुढे एग अहोरत्तं उवयं, कहं , उच्यते, सूरादी जेण होतिऽहोरत्तं, सूरउदयकालाओ जेण अहो-R रत्तस्स आदी भवति तं परिहरितुं संदूसिअं अण्णपि अहोरत्तं परिहरिया । इमं पुण आइन्नं-चंदो रातीए गहिओ राई अनन्छने पाणायां न ज्ञायते, केवळ ग्रहणं, परिहता रात्रिः, प्रभाते ए, सग्रहो बुद्धितः, अभ्यच्चाहोरात्रमेव द्वादश, एवं चन्द्रख, सूर्यस्य तु अस्तमयनग्रहणे साहो भूद्धितः, उपहतराभ्याश्चत्वारोऽम्बवाहोरात्रमेव द्वावा, अयोद्च्छन् गृहीतः ततः संदूषिताहोरात्रस्याष्टौ अन्यच्चाहोरात्र परिधियते एवं षोडश, अथवोदयवेलायां गृहीतः औत्पातिकग्रहणेन, सवै दिन ग्रहणं भूत्वा सग्रह एव मूढिता, संदूषितस्याहोरात्रपाटी अन्षचाहोरात्रमेवं षोडश, ||७३७॥ कंवल भविष्यति ग्रहणं, दिवसे सड़या न पठितं, असमवनवेलायां रटं ग्रहणं सग्रही भूदिता, संदृषितवाट अन्य चाहोरात्र. मेचं पोडशेति । सग्रहे महिते एकमहोरात्रमुपहन, कथं ? उच्यते, सूर्यादीनि वेन भवभयहोरात्राणि-सूर्योदयकालात् येनाहोरावस्यादिर्भवति, तत् परिहत्य | संदूषितमन्यदप्यहोरात्र परिहर्तव्यं, इदं पुनराचीन-चन्द्रो रात्री गृहीतो रात्रा दीप अनुक्रम [२९] RI 18 ~164 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३४३] भाष्यं [२१७...], प्रत सूत्रांक चेवं मुक्को तीसे राईइ सेसं वजणीयं, जम्हा आगामिसूरुदए अहोरत्तस मत्ती, सूरस्सवि दियागहिओ दिया चेव मुक्को तस्सेव दिवसस्स मुक्कसेसं राई य वजणिज्जा । अहवा सग्गहनिब्बुडे एवं विही भणि ओ, तओ सी सो पुच्छइ-कह चंदे दुवालस सूरे सोलस जामा ?, आचार्य आह-सूरादी जेण होतिऽहोरत्ता, चंदस्त नियमा अहोरत्तद्धे गए गहणसंभवो, अण्णं च अहोरत्तं, एवं दुवालस, सूरस्स पुण अहोरत्तादीए संदूसिएयर अहोरत्तं परिहरिजइ एए सोल सत्ति गाथार्थः ॥१३४३॥ सादेवत्ति गये, इयाणि बुग्गहेत्ति दारं, तत्थवोग्गह दंडियमादी संखोभे दंडिए य कालगए । अणरायए य सभए जचिर निहोचऽहोरत्तं ॥१३४४ ॥ अस्या एव व्याख्यानान्तरगाथासेणाहिई भोइय मयहरपुंसित्थिमल्लजुढे य । लोहाइभंडणे वा गुज्झग उड्डाहमचियत्तं ॥१३४५ ॥ इमाण दोण्हवि वक्खाणं-इंडियस्स चुग्गहो, आदिसहाओ सेणाहिबस्स, दोण्ह भोइयाणं दोहं मयहराणं दोण्ह CEOCOC-56 CHANNECRERA/45% दीप अनुक्रम - [२९] वेव मुक्तस्तस्था रात्रेः शेषं वर्जनीयं, यस्मादागामिनि सूर्योदयेहोरात्रसमातिः, सूर्यस्यापि दिया गृहीतो दिव मुक्तस्तस्यैव दिवसस्य मुक्तशेष रात्रिश्च वर्जनीया । अथवा साहेबूद्धिते एवं विधिर्भणितः, ततः शिष्यः पृच्छति-कथं चन्द्रे द्वादश सूर्य षोडश यामाः?, सूर्यादीनि येनाहोरामाणि भवन्ति, चन्द्रस्य [नियमावहोराने गते प्रहणसंभवः भन्यवाहोरात्र मेवं द्वादश, सूर्यस्ख पुनरहोरानादित्वात् संदूषितेतरे अहोराले परिणयेते, एते पोडया । सादिन्यमिति ४ गतं, इदानीं व्युद्धद इति द्वारं, तत्र-अनयोईयोरपि व्याण्यानं दण्डिकस्य व्युहवः, आदिशब्दात् सेनाधिपतेः, द्वयोमाजिकयोईयोमहत्तरयोयोः ~165 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३४५] भाष्यं [२१७...', प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यक- पुरिसाणं दोण्हं इत्थियाणं दोण्डं मल्लाणं वा जुद्धं, पिट्टायगलोभंडणे वा, आदिसद्दाओ विसयापसिद्धासु भंसलासु। प्रतिक है। विग्रहाः प्रायो व्यन्तरबहुलाः । तस्थ पमत्तं देवया छलेज्जा, उड्डाहो निहुक्खत्ति, जणो भणेजा-अम्हं आवइपत्तार्ण इमेमणाध्य सझार्य करेंति, अचिय हवेजा, विसहसंखोहो परचक्कागमे, दंडिओ कालगओ भवति, 'अणरायए'त्ति रण्णा कालगएपञ्चविधानिभएवि जाव अन्नो राया न ठविजइ, 'सभए'त्ति जीवंतस्सवि रणो वोहिगेहिं समंतओ अभिदुर्य, जचिरं भयं तत्तियं स्वाध्यायिक ॥७३८॥ कालं सज्झायं न करेंति, जद्दिवसं सुयं निद्दोच्चं तस्स परओ अहोरत्तं परिहरइ।एस दंडिए कालगए विहित्ति गाथार्थः ॥१३४५।। सेसेसु इमो विहीतद्दिवसभोइआई अंतो सत्तण्ह जाव सज्झाओ। अणहस्स य हत्थसयं दिहि विवित्तमि सुद्धं तु ॥१३४६ ।। अस्या एव व्याख्यानगाथामयहरपगए बहुपक्खिए य सत्तघर अंतरमए वा निहुक्रवत्तिय गरिहा न पढंति सणीयगं वावि ॥१३४७॥ इमीण दोण्हवि वक्खाणं-गामभोइए कालगए तद्दिवसंति-अहोरत्तं परिहरंति, आदिसहाओ गामरहमयहरो अहिगार ॥७३८॥ पुरुषयोहयोः स्त्रियोईयोमडयो युद्ध, पृष्ठायतलोडभण्डने वा, आदिशब्दाद्विषयप्रसिद्धासु भैसलासु (कलहविशेषेषु) । तत्र प्रमत्तं देवता उल-18 बेत् । यहाहो निर्युःया इति, जनो भणेत्-अस्मासु आपरप्राप्तेषु इमे खाध्यायं कुर्वन्ति, अभीतिकं भवेत् , वृषभसंक्षोभः परचकागमे, दणिक कालगती भवति, राशि कालगते निवेऽपि वापत् अन्यो राजा न खाप्यते, सभव इति जीवतोऽपि राज्ञो बोधिः समातोभित, पाथिर भयं तावन्तं कालं | स्वाध्यायं न कुर्वन्ति, पदिवसे एतं नित्यं तमापरतोऽदोरानं परिहियते । एष दण्डिके कालगते विधिः । शेपेच विधिः । भगयोहयोपल्यानं-ग्रामभोजिके कालगते सविसमिति अहोरात्रं परिहरन्ति, मादिशब्दात् प्रामराहमहत्तरोऽपिकार CRICAGRA दीप अनुक्रम [२९] 4 * ~166~ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [२९] [भाग-३१] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १/४ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], निर्युक्तिः [१३४७] भाष्यं [२१७...], निउत्तो बहुसम्मओ य पगओ बहुपक्खिउत्ति बहुसयणो, वाडगरहिए अहिबे सेज्जायरे अण्णंमि वा अण्णयरघराओ आरम्भ जाव सत्तधरंतरं एएस मएस अहोरतं सज्झाओ न कीरइ, अह करेंति निद्दुक्खत्तिकाउं जणो गरहति अकोसेज वा निच्छुकभेज वा अप्पसद्देण वा सणियं करेंति अणुपेर्हति वा, जो पुण अणाहो मरति तं जइ उम्भिण्णं हत्थसयं वज्जेयवं, अणुभिन्नं असझायं न हवइ तहवि कुच्छियंतिकाउं आयरणाओडवडियं हत्थसयं वज्जिज्जइ । विवित्तंमिपरिद्ववियंमि 'सुद्धं तु' तं ठाणं सुद्धं भवइ, तत्थ सज्झाओ कीरइ, जइ य तस्स न कोइ परिठवेंतओ ताहे ॥। १२४७ ॥ सागारियाइ कहणं अणिच्छ रतिं वसहा विगिंचति । विकिन्ने व समता जं दिट्ठ सढेयरे सुद्धा ।। १३४८ ।। व्याख्या - जदि नस्थि परिहवेंतओ ताहे सागारियस्व आइसदाओ पुराणसगुस्स अहाभदगस्स इमं छह अम्ह १ नियुको बहुमत प्रकृतः, बहुपाक्षिक इति बहुखजनो, वाटकरहितेऽधिपे ना शय्यातरे अम्यस्मिन् वा अन्यतरगृहादारभ्य यावत् सप्तगृहान्तरं एतेषु मृतेषु अहोरात्रं स्वाध्यायो न क्रियते, अथ कुर्वन्ति निर्दुःखा विकृत्या जनो गते आक्रोशेहा निष्काशेहा, अल्पशब्देन वा शनैः कुर्वन्ति अनुप्रेशन्ते वा यः पुनरनाथो नियते तस्य यदि पुनरुद्भिनं स्वशतं वर्जवितच्यं, अनुद्भिनं अस्याध्यापिकं न भवति तथापि कुतमिति कृत्वा आवरणासो ऽवस्थितं हस्तशतादू वर्जथितव्यं, विविके परिष्ठापिते शुद्धमिति तद् स्थानं युद्धं भवति तत्र स्वाध्यायः क्रियते, यदि च तत्र व कोऽपि परिष्ठापकस्तदा यदि नाति परिहापकता सागारिकस्य आदिशब्दात् पुराणवादस्य यथाभकरमं त्यज अस्माकं ~ 167~ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३४८] भाष्यं [२१७...], प्रत सूत्रांक आवश्यक- सज्झाओ न सुज्झइ, जदि तेहिं छडिओ सुद्धो, अह न छहुँति ताहे अण्णं वसहि मग्गति, अह अण्णा वसही न लभडा हारिभ- ताहे वसहा अप्पसागारिए विर्गिचंति । एस अभिण्णे विहीं, अह भिनं ढंकमादिएहि समता विकिण्णं दिमि विवि. द्रीया सामि मडा. अदिताव गवेसेंतेहिं जं दिहतं सवं विवित्तति छड्डिये, इयरंमि अदिमि तत्थस्थेवि सद्धा-सम्मायं करें-11 अस्वाध्या॥७३९॥ IN ताणविन परिछत्त, एस्थ एवं पसंगओ भणियति गाथाधेः ॥ १३४८॥ बुग्गहेत्ति गयं, इयाणिं सारीरेत्ति दारं, तत्थ- यिकनि.शा सारीरपिय दुविहं माणुस तेरिच्छियं समासेणं । तेरिच्छं तत्थ तिहा जलथलखहर्ज चउद्धा उ॥१३४९ ॥ *रीरास्वा० । व्याण्या-सारीरमवि असज्झाइयं दुविह-माणुससरीररुहिरादि तेरिच्छ असज्झाइयं च । एत्थ माणुसं ताव चिहउ, तेरिन्छ ताव भणामि, तं तिविह-मच्छादियाण जलजं गवाइयाण थल मयूराइयाण खहयरं । एएसिं एकेक दवाइयं । Iचउषिह, एकेकस्स वा दधादिओ इमो चउद्धा परिहारोत्ति गाथार्थः ॥ १२४९॥ पंचिंदियाण ब्वे खेत्ते सहिहत्य पुग्गलाइन्नं । तिकुरत्य महंतेगा नगरे याहिं तु गामस्स ॥१३५०॥ खाण्यायो मध्यति, यदि स्त्यिक्तः शुद्धः, अथ न खजन्ति तदाऽन्यो पसति मार्गचम्ति, अथान्या वसतिने सभ्यते तथा पुषमा अल्पसागारिके। | त्यजन्ति, एपोऽभिविधिा, भय मिर्च कादिभिः समन्तात विकीर्ण रहे विविक्त शुद्धाः अहटे तावत् गधेषयमियदृष्टं तत् सर्व परिष्ठापितं, इतरयान्-अर ॥७३९॥ तत्रोऽपि शुदा स्वाध्यायं कुर्वतामपि न पायनित, अतत् प्रसङ्गातो भणितं । व्युह इति गतं, पानी शारीरमिति द्वार तत्र-शारीरमपि भस्वाध्यायिक | द्विविध मानुष्यशारीररुधिरादि तैरथमस्वाध्यायं च, अब मानुष्यं तावत्तिटत तर तावद्रणामि-तविविध-मस्यादीनां जल गयादीनां स्थानं मयूरादीना सचरर्ज, एतेषामे के हुन्यादिकं चतुर्विध, एकैकस्म का म्यादिकोऽयं चर्चा परिहार इति । दीप अनुक्रम सारिक [२९] ~168 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [स्.-] दीप अनुक्रम [२९] [भाग-३१] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १/४ ( मूलं+निर्युक्तिः वृत्तिः) अध्ययन] [४] मूलं [स्] / [गाथा-] निर्बुक्तिः [ १३५० ] भष्यं [२१७... व्याख्या- 'पंचिंदियाण रुहिराइदबं असज्झाइयं, खेत्तओ सहित्थभंतरे असज्झाइयं, परओ न भवइ, अहवा खेत्तओ पोग्गलादिष्णं पोग्गलं मंसं तेण सर्व आकिण्णं व्याप्तं, तस्सिमो परिहारो - तिहिं कुरत्थाहिं अंतरियं सुज्झइ, आरओ न सुज्झइ, अणंतरं दूरद्वियं न सुझइ । महंतरत्था - रायमग्गो जेण राया बलसमग्गो गच्छ देवजाणरहो वा विविहा य आसवाहणा गच्छति, सेसा कुरत्था, एसा नगरे विही, गामस्स नियमा वाहिं, एत्थ गामो अविसुद्धणेगमनयदरिसणेण सीमापतो, परगामे सीमाए सुज्झइत्ति गाथार्थः ॥ १३५० ॥ काले तपोरसि व भावे सुत्तं तु नंदिमाईयं । सोणिय मंसं चम्मं अडी विय हुंति चत्तारि ॥ १३५१ ॥ व्याख्या - तिरियमसज्झायं संभवकालाओ जाव तइया पोरुसी ताव असज्झाइयं परओ सुज्झइ, अहवा अड जामा असज्झाइयंति - ते जस्थाघायणद्वाणं तत्थ भवंति । भावओ पुण परिहरति सुत्तं तं च नंदिमणुओगदारं तंदुल । fe 1 पञ्चेन्द्रियाणां रुचिरादिव्यं अस्वाध्यायिक क्षेत्रतः परिहस्ताभ्यन्तरेऽस्वाध्यायिकं परतो न भवति, अथवा क्षेत्रतः पुलाकीर्ण-पु-मांसं तेन सर्वमाकीर्ण, तस्यायं परिहारः तिसृभिः कुरभ्याभिरन्तरितं शुध्यति, आरात् न शुध्यति, अनन्तरं दूरस्थितेऽपि न शुध्यति, महद्रच्या राजमार्गः येन राजा बलसमग्र गच्छति देवयानस्थो वा विविधान्यश्ववाहनानि गच्छन्ति, शेषाः कुरथ्याः, एष नगरे विधिः, प्रामात् नियमतो वहिः अत्र आमोऽपिशुन्दनैगमनवदर्शनेन सीमापर्यन्तः परप्रामे सीमनि शुध्यति । तैरश्यमस्वाध्यायिकं संभवकालात् यावतृतीया पौरवी तावदस्वाध्याविकं परतः शुध्यति, अथवा म यामान् अस्वाध्याविकमिति ते पत्रायातस्थानं न भवन्ति भावतः पुनः परिहरन्ति सूत्रं तथ नन्दी अनुयोगद्वाराणि तदु ~ 169 ~ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१३५१] भाष्यं [२१७...], आवश्यक- हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥७४०॥ वेयालियं चंदगविज्झयं पोरुसिमंडलमादी, अहवा असज्झायं चउधिहं इम-मंसं सोणियं चम्म अछि यत्ति गाथार्थः प्रतिक्र॥१३५१ ॥ मसासिणा उक्खित्ते मंसे इमा विही मणाध्य अस्वाध्या__ अंतो बहिं च धो सट्ठीहत्थाउ पोरिसी तिन्नि । महकाएँ अहोरत्तं रद्धे वुढे अ सुद्धं तु ॥ १३५२॥ यिनि-शा व्याख्यानगाथा शरीरास्वा० बहिघोयरद्धपक्के अंतो धोए उ अवयवा हुंति । महकाय बिरालाई अविभिन्ने केह इच्छति ॥ १३५३ ॥ | इमीण वक्खाणं-साह षसहीओ सहीहत्याण अंतो बहिं च धोअन्ति भंगदर्शनमेतत् , अंतोधोय अंतो पर्क, अंतोधोयं वहिपकं । बाहिं धोयं अंतो पर्क, अंतग्गहणाउ पढमबितिया भंगा वहीग्गहणाउ ततिओभंगो, एएसु तिसुवि असज्झाइयं, जमि पएसे | धोयं आणेत्तु वा रद्धं सोपएसो सहिहत्थेहिं परिहरियबो, कालओ तिन्नि पोरुसिओ। तथा द्वितीयगाथायां पूर्वार्द्धन यदुक्तं 'वहिधोयरद्धपके एस चउत्थभंगो, एरिसं जइ सट्ठीए हत्थाणं अभंतरे आणीयं तहावितं असझाइयंन भवइ, पढमवितियभंगे *35.5- दीप अनुक्रम [२९] ७४०॥ पैचारिक चबायेयक पौरुषीमण्डलादि, मधवा अस्वाभ्यायिक चतुर्विधमिद-मांसं शोणितं धर्म परिथ चेति । मांसाविशनोरिक्ष मासेऽयं विधिः, R अनयोम्पोक्यान-साधु घसतेः परिहानामन्त दिव पौत मिति, अन्तधात अम्तःपर्क मन्तधात बहि: पर्क पहिौतमतः पक, अन्तहणात् प्रथमाहितीयौ भी गहीती बहिणात सूतीयो भाः। एतेषु विपस्वाध्यायिक यामिन् प्रदेशे पीतं मानीय वा राईस प्रदेषाः पहिस्ताभ्यन्तरे परिहर्सया, काखत. स्तिषः पौरुषीः, पहिचाँतपर्क, पुष चतुर्थी भगः, ईद यदि पष्टेईस्तेम्पोछन्तरमानीतं तथाऽपि तदस्वाध्यापिकं न भवति, प्रथमद्वियीयभार ~170 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३५३] भाष्यं [२१७...], *5RXX प्रत सूत्रांक C24XCCANCY अंतो धोविनु तीए रद्धे या संमि ठाणे अवयवा पडंति तेण असज्झाइयं, तइयभंगे बहिं धोविनु अंतो पणीए मंसमेव | असज्झाइयंति, तं च उक्खित्तमंसं आइण्णपोग्गलं न भवइ, जं कालसाणादीहिं अणिवारियविष्पइन्ने निजातं आइन्नपोग्गलं भाणिवपं । 'महाकाए'त्ति, अस्या व्याख्या-जो पंचिंदिओ जत्थ हओ त आघायठाणं वज्जेयवं, खेत्तओ सहिहत्था, कालओ अहोरत्त, एस्थ अहोरसओ सूरुदएण,रद्धं पक्कं वा मंसं असम्झाइयं न हबइ, जस्थ य धोर्य तेण पएसेण| | महंतो उदगवाहो बूढो तं तिपोरिसिकाले अपुनेवि सुद्ध, आघायणं न सुज्झइ, 'महाकाए'त्ति अस्य व्याख्या-महा|काएत्ति पच्छा, मूसगादि महाकाओ सोऽवि बिरालाइणा आहओ, जदि तं अभिन्नं चेव गलिज घेतुं वा सठ्ठीए हत्थाणं बाहिं गच्छद तं केइ आयरिया असम्झाइयं नेच्छति । गाथायां तु यदुक्कं केइ इच्छति, तत्र स्वाध्यायोऽभिसंबध्यते, थेरपक्सो पुण असम्झाइयं वत्ति गाथार्थः॥ १३५३ ॥ अस्यैवार्थस्य प्रकटनार्थमाह भाष्यकार: दीप अनुक्रम 5- [२९] 95%- घोरता प्रक्षाल्य तत्र राबे वा तमिन् स्थानेऽवयवा। पतन्ति तेगास्वाध्याबिक, तृतीयभने बदि। प्रक्षास्यान्तराजीते मांसभेवास्वाध्यापिकमिति, तचोरिक्षप्तमसिं भाकीजपुरलं न भवति, यत् कालवादिभिरनिवारितं विप्रकीर्ण नीयते तत् भाकीर्णपुरल मनितव्यं । महाकाय इति, यः पहियो यन्त्र इतस्तत् भाघातस्थानं वर्जवितब्ध, क्षेत्रतः पष्टेभ्या काळतोहोरात्र, अत्राहोरात्रच्छेद। सूबोनमेन, रायं पर्क वा मांस अखाध्यापिकं न भवति, वन च धोतं तेन प्रदेशेन महान् उदकप्रवाहो न्यूटलाई त्रिपौरुषीकाले पूर्णेऽपि शुदं, आघातनं न शुभपति, महाकाय इत्यस्य व्याख्या महाकाय इति पना, मूष | कादिर्महाकायः सोऽपि माजोरादिनाऽइतः परितमभिन्नामेव गृहीत्वा गिहिया वा पटेई सेभ्यो बहिर्गच्छति तत् केविदाचार्या अस्वाभ्यायिक नेन्ति । केचिदिन्ति स्थविरपक्षः पुनरस्वाध्यायिकमेवेति । % ~171 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३५३] भाष्यं [२१८], आवश्यक- हारिभ द्रीया प्रत सूत्रांक प्रतिकमणाध्य | अस्वाध्यायिकनि.शा रीरावा. १७४१॥ - मूसाइ महाकायं मज्जाराईहयाघयण केई । अविभिन्ने गिण्हेउं पढंति एगे जइऽपलोओ ॥ २१८ ॥ (भा०) गतार्थेवेयं ॥ 'तिरियमसज्झाइयाहियागार एवं इमं भन्नइअंतो बहिं च भिन्न अंडग विंदूतहा विआया य । रायपह बूढ सुद्धे परवयणे साणमादीणं ॥१३५४ ॥ दारं॥ । व्याख्या त्वस्या भाष्यकार एवं प्रतिपदं करिष्यति । लाघवार्थ विह न व्याख्यायते 'अंतो वहिं च भिन्नं अंडग बिंदु'त्ति अस्य गाथाशकलस्य व्याख्या अंडगमुज्यिकप्पे न य भूमि खणंति इहरहा तिनि । असज्झाइयपमाणे मच्छियपाओ जहि न बुड्ढे ॥२१९॥ (भा०) | साहुवसहीए सकीए हस्थाणतो भिन्ने अंडए असज्झाइयं बहिभिन्ने न भवइ । अहवा साहुस्स वसहिए अंतो बहिं च अंडयं भिन्नंति वा उज्झियंति वा एगई, तं च कप्पे वा उज्झियं भूमीए वा, जइ कप्पे तो कप्पं सट्ठीए हस्थाणं बाहिं नीणेऊण धोवंति तओ सुद्धं, अह भूमीए भिन्नं तो भूमी खणे ण छडिजइ, न शुध्यतीत्यर्धः। 'इयरह'त्ति तत्थरथे सहिहत्या तिन्नि य पोरुसीओ परिहरिजइ, 'असन्झाइयस्स पमाण'ति, किंबिंदुपरिमाणमेत्तेण हीणेण अहिययरेण वा असज्झाओ। भवइ ?, पुच्छा, उच्यते, मच्छियाए पाओ जहिं [न] बुड्डुइ तं असल्झाइयपमाणं । 'इयाणि वियायत्ति' तस्थ रश्चास्वाध्यायिकाधिकार एवेई भण्यते । साधुवसतेः पोईस्तेभ्योऽर्वाग मिनेपदेऽस्वाध्याधिकं वहिभिनेन भवति, मधवा साधोर्वसतेरमतबंहिता उपई भिन्न मिति घोजिनसंवैकार्थी, वध कल्पे घोविझतं भूमी वा, वदि कल्पे तर्हि कार्य पछेहोभ्यो बहिनीया धोवन्ति ततः शुद्ध, अब भूमौ भिनं तर्हि भूमिः निस्वा न खजयते । इतरथेति तनये षष्टिहलाः तिसश्च पौरभ्यः परिहियन्ते, अस्वाभ्यायिकस्य प्रमाणमिति-कि बिन्दुमात्रपरिमाणेग होनेनाधिकतरेण वास्वाध्यायो भवति', पृच्छा, उच्यते, मक्षिकायाः पादो यत्र न अडते तदखाध्यायिकप्रमाण । इदानी प्रसूतेति, तत्र । दीप अनुक्रम [२९] X CAMACHCOOCALCASS ७४१॥ ~172 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३५४] भाष्यं [२२०], प्रत EXA4%%* सूत्रांक अजराउ तिन्नि पोरिसि जराउआणं जरे पडे तिन्निरायपह बिंदु पडिए कप्पड बूढे पुणऽन्नत्थ॥२२०॥(भा) व्याख्या-जर जेसिं न भवति तेसिं पसूयाणं वग्गुलिमाइयाणं, तासिं पसूइकालाओ आरम्भ तिणि पोरुसीओ। असमझाओ मुत्तुमहोरत्तं छेदं, आसन्नपसूयाएवि अहोरत्तछेदेण सुज्झइ, गोमादिभराउजाणं पुण जाव जरूं लंबइ ताव असमझाइयं 'जरे पडिए'त्ति जाहे जरूं पडियं भवइ ताहे ताओ पडणकालाओ आरम्भ तिन्नि पहरा परिहरिजंति । 'राय-1 पह बूढ सुद्धे'त्ति अस्या व्याख्या-रायपह बिंदु' पच्छद्धं साहुवसही आसपणेण गच्छमाणस्स तिरियस्स जदि रुहिरबिंदु गलिया ते जइ रायपहंतरिया तो सुद्धा, अह रायपहे चेय बिंदू पडिओ तहावि सज्झाओ कप्पतित्तिकाउं, अह अण्णपहे अपणस्थ वा पडियं तो जइ उदगवुहबाहेण हियं तो सुद्धो, 'पुणो'त्ति विशेषार्थप्रतिपादकः, पलीवणगेण वा दढे सुज्झ| इत्ति गाथार्थः ॥ २२० ।। मूल गाथायां परवयर्ण साणमादीणि'त्ति परोत्ति चोयगो तस्स वयणं जइ साणो पोग्गलं समुदिसित्ता जाव साहुवसहीसमीबे चिइ ताव असञ्झाइयं, आदिसहाओ मंजारादी। आचार्य आह दीप अनुक्रम [२९] जरायुर्वेषां न भवति तेषां प्रभूताना वाल्यादीना, सासा प्रसूतिकालात् आरभ्य तिसः पौरुषीरस्वाध्यायः, मुक्याम्होरावच्छे-माखनमसूतानामपि भदो| रात्रच्छेदेन शुभवति, गवादीनां जरायुनान पुगोवत् जरायुलंबते तावदस्वाभ्यायिक जरायो पतिते इति यदा जरायुः पतितो भवति सदा तस्मात् पसनकासात् । भारम्य प्रयः प्रहरा। परियन्ते । राजपचन्यूटे शुद्धमिति राजपथे बिन्दवः । पश्चाध । साधुवसतेरासनेन गच्छसिरमो यदि रुधिरबिन्दयो गलिता यदि। | राजपथान्तरिताम्साहि शुद्धाः अथ राजपथ एब बिन्दुः पतितः तथापि स्वाध्यायः कल्पते इतिकृत्वा, अधान्यपथेऽन्यत्र चापतितः सहि यधुदकवेगेन ब्यूई तर्हि शुखः प्रदीपनकेन वा दग्धे शुध्यतीति । पर इति नोएका तख वचनं यदि भा पुल भुक्त्वा यावत् साधुवसतिसमीपे तिष्ठति तावदस्खाध्याथिकं, आदिवाब्दात् मातारादयः। ~173 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३५४] भाष्यं [२२१], आवश्यकहारिभद्रीया प्रत सूत्रांक प्रतिकमणाध्य अस्वाध्याविकनि.शा रीरावा. ७४२॥ जह फुसइ तहिं तुंड अहवा लिच्छारिएण संचिक्खे । इहरा न होइ चोयग! वंतं वा परिणयं जम्हा ।। २२१॥ (भा०) व्याख्या-साणो भोनुं मंसं लिच्छारिएण मुहेण वसहिआसपणेण गच्छंतो तस्स जइ तोड रुहिरेण लित्तं खोडादिसु फुसति तो असम्झाइयं, अहया लेच्छारियतुंडो वसहिआसन्ने चिठइ तहवि असज्झाइयं, 'इयरह'त्ति आहारिएण चोयग! असज्झाइयं ण भवति, जम्हा तं आहारियं वंतं अवंत वा आहारपरिणामेण परिणय, आहारपरिणयं च असझाइयं न भवइ, अण्णपरिणामओ, मुत्तपुरीसादिवत्ति गाथार्थः ॥ २२१ ॥ तेरिच्छसारीरयं गयं, इयाणि माणुससरीरं, तत्थ माणुस्सयं चउद्धा अहि मुशूण सयमहोरत्तं । परिआवन्नविवन्ने सेसे तियसत्त अहेव ॥ १३५५॥ व्याख्या-तं माणुस्ससरीरं असज्झाइयं चउबिहं चमं मंसं रुहिरं अहियं च, (तत्थ अडियं) मोतुं सेसस्स तिविहस्स इमो परिहारो-खेत्तओ हत्यसयं, कालओ अहोरतं, जं पुण सरीराओ चेव वणादिसु आगच्छइ परियावणं विवणं या था भुक्त्या मांस लिन मुसेन बसल्यासनेन गरछन् (स्थान), तस्य मुलं यदि रुचिरेण लिप्तं स्तम्भकोणादिषु स्वाति तदाऽखाण्यापिक, अथवा (लिप्तमुखो वसत्यासचे तिष्ठति तथापि भस्वाध्यायः, इत्तरथेति आहारितेन धोदक ! अखाध्यापिकं न भवति, यस्मात् तदादारितं वान्तमवान्तं चाऽमहारपरिणामेन परिणतं, आहारपरिणामपरिणतं पास्वाध्यायिक न भवति, अन्यपरिणामात्, सूधपुरीषादिवत् । तैरवं शारीरं गतं, इदानीं मानुषशरीरं, रात्र-तत् मानुषशारीरमस्वाध्यायिकं चतुर्विध-धर्म मांसं रुधिरं अस्थि च, तत्रास्थि मुक्वा शेषस्य त्रिविधस्थावं परिहार:-क्षेवतो इस्त्रशतं कालतोहोरात्र, यत् पुनः शरीरादेव प्रणादिप्वागच्छति पर्यापनं विवर्ण वा दीप अनुक्रम [२९] ॥७४२॥ K ~174. Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.-] दीप अनुक्रम [२९] [भाग-३१] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १/४ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन] [४] मूलं [.] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १३५५] भाष्यं [२२१] 'तं असम्झाइयं न होति, परियावण्णं जहा रुहिरं चैव पूयपरिणामेणं ठियं विवणं खइरककसमाणं रसिगाइयं, सेसं असज्झाइयं हवइ । अहवा सेसं अगारीड संभवति तिण्णि दिया, वियाए वा जो सावो सो सत्त वा अट्ठ वा दि असज्झाओ भवतित्ति । पुरुसपसूयाए सत्त, जेण सुक्कुकडा तेण तस्स सत्त, जं पुण इत्थीए अट्ठ एत्थ उच्यते ॥ १३५५ ॥ रतुकडा उ इत्थी अट्ठ दिणा तेण सत्त सुकहिए। तिन्नि दिणाण परेणं अणोउग्रं तं महोरन्तं ॥ १३५६ ॥ व्याख्या - निसेगकाले रतुकडयाए इत्थि पसवइ, तेण तस्स अड दिणा परिहरणिजा, सुकाहियत्तणओ पुरुसं पसवइ तेण तस्स सत्त दिणा । जं पुण इत्थीए तिन्हं रिउदिणाणं परओ भवइ तं सरोगजोणित्थीए अणोउयं तं महोरतं परओ भण्णइ, तस्सुस्सग्गं काउं सझायं करेंति । एस रुहिरे विह्नित्ति गाथार्थः ॥ १३५६ ॥ जं पुत्तं ' अहिं मोत्तूर्ण' ति तस्सेदाणीं विही भण्णइ दंते दिवि विचिण सेसट्ठी बारसेव वासाई । झामिय वूढे सीआण पाणरुद्दे य मायहरे ।। १३५७ ॥ व्याख्या - जइ दंतो पडिओ सो पयत्तओ गवेसियबो, जइ दिट्ठो तो हत्थसया उपरि विगिंचिज्जइ, अह न दिट्ठो तत् अस्वाध्यायिकं न भवति, पर्यापनं यथा रुधिरं धूपपरिणामेन स्थितं विवर्णं खदिरकएकसमानं रसिकादिकं शेषमस्वाध्यायिकं भवति अथवा शेषमगारिणीतः संभवति श्रीन् दिवसान् प्रसूतायां वा वः श्रादः स सप्ताष्टी वा दिनान् अस्वाध्यादिकं (करोतीति । पुरुषे प्रसूते सप्त, येन शुक्रोका तेन तस्य सप्त, यत् पुनः स्त्रिया अष्ट, अत्रोच्यते-निषेककाले एकोत्कटतायां च मसूते, तेन तथा अष्टी दिनाः परिष्ट्रियन्ते, शुकाधिकत्वात् पुरुषं प्रसूते तेन तस्य सप्त दिनाः । यत् पुनः शिवाविभ्यः ऋतुदिनेभ्यः परतो भवति तत् सरोगयो निकायाः खिया अनुकं तत् अहोरात्रं परतो भव्यते तस्योत्सर्गं कृत्वा स्वाध्यायं कुर्वन्ति पुष रुधिरे विधिरिति । यत्पूर्वमुकं 'अस्थि मुक्तचे 'ति तस्येदानीं विधिः-यदि दन्तः पतितः स प्रयलेन गवेषणीयो यदि दृष्टलाई हलतात् उपरि त्यज्यते, अथ नष्ट ~ 175 ~ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [२९] आवश्यक हारिभ द्रीया ॥७४३ ॥ * [भाग-३१] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १/४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], निर्युक्तिः [१३५७] भाष्यं [२२२], तो उघडकाउस्सगं कार्ड सझायं करेंति । सेसट्टिए जीवमुकदिणाऽऽरम्भ व हत्थसतम्भतरठिएसु बारसचरिसे असज्झाइयं, गाथापूर्वार्द्ध, पश्चार्द्धस्य तु भाष्यकार एव व्याख्यां कुर्वन्नाह - सीयाणे जं दिहं तं तं मुत्तूण नाहनिहयाणि । आडंबरे य रुद्दे माहस हिडिया बारे ॥ २२२ ॥ ( भा० ) । व्याख्या- 'सीयाणे'त्ति सुसाणे जाणिऽट्टियाणि दाणि उदगवाहेण बूढाणि न ताणि अडियाणि असज्झाइयं करेंति, जाणि पुण तत्थ अण्णत्थ वा अणाहकडेवराणि परिडवियाणि सणाहाणि वा इंधणादिअभावे 'नियति निक्खित्ताणि ते असज्झाइयं करेंति । पाणत्ति मायंगा, तेसिं आडंबरो जक्खो हिरिमेकोऽवि भण्णइ, तस्स हेट्ठा सज्जोमयहीणि ठविअंति, एवं रुदघरे मादिघरे य, ते कालओ बारस वरिसा, खेत्तओ हत्थसयं परिहरणिजा इति गाथार्थः ॥ २२२ ॥ आवासिय च वूढं सेसे दिडंमि मग्गण विवेगो । सारीरगाम वाडग साहीइ न नीणियं जाव ॥ १३५८ ॥ एताए पुबद्धस्स इमा विभासाअसिवोमाघयणेसुं वारस अविसोहियंमिन करंति । झामिय बूढे कीरइ आवासिय सोहिए चैव ।। १३५९ ॥ १ स्तदोद्घाटकायोत्सर्गं कृत्वा स्वाध्यायं कुर्वन्ति । शेषास्थिषु जीवमोचनदिनादारभ्य तु इस्तशताभ्यन्तरस्थितेषु द्वादश वर्षाण्यस्वाध्याथिर्क, सीवाणमिति श्मशाने याम्यस्थीले दग्धानि उदकवाहेन व्यूढानि न तान्यस्थीनि अस्वाध्यायिकं कुर्वन्ति, यानि पुनस्तन्नान्यत्र यानायकलेवराणि परिष्ठापितानि सनाधानि या इन्धनाद्यभावे निक्षिताले तान्यस्वाध्यायिकं कुर्वन्ति । पाणा इति मातङ्गास्तेषामाडम्बरो यक्षो ड्रीमकोऽपि भण्यते तखाधस्तात् सयो मृतास्थीनि स्वाप्यन्ते, एवं रुद्रगृहे मातृगृहे च तानि कालतो द्वादश वर्षाणि, क्षेत्रतो हस्तशतं परिहरणीयानि । एतस्याः पूर्वार्धस्येयं विभाषा । ~ 176~ ४ प्रतिक मणाध्य० अस्वाध्यायिकनि.शा रीराखा० ॥७४३॥ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३५९] भाष्यं [२२२], प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम अस्य गाथाद्वयस्य व्याख्या- सीयाणं जत्थ वा असिवोमे मताणि बहूणि छड्डियाणि, आघातणति जत्थ वा महासंगामे मया बहू, एएसु ठाणेसु अविसोहिएम कालओ बारस वरिसे, खेत्तओ हत्यसयं परिहरंति, सम्झायं न करतीत्यर्थः । अह एए ठाणा दवग्गिमाइणा दड्डा उदगवाहो वा तेणंतेण बूढो गामनगरेण वा आवासंतेण अप्पणो घरहाणा सोहिया, सेपि जे गिहीहिं न सोहियं, पच्छा तत्थ साहू ठिया अप्पणो वसही समतेण मग्गिन्ता जं दिडं तं विर्गिचित्ता अदिढे वा तिणि दिणा उग्पाडणकाउस्सगं करेत्ता असढभावा सज्झायं करेंति । 'सारीरगाम' पच्छद्धं, इमा विभासा सरीरेत्ति मयस्स सरीरयं जाव डहरग्गामे ण निम्फिडियं ताव सज्झायं ण करेंति, अह नगरे महंते वा गामे तत्थ वाड|गसाहीउ जाव न निष्फेडियं ताव सज्झायं परिहरंति, मा लोगो निहुक्खत्ति भणेजा ॥ तथा चाह भाष्यकार:डहरगगाममए वा न करेंति जाव ण नीणियं होइ। पुरगामे व महंते वाडगसाही परिहरंती ॥२२३॥ (भा०) यत् श्मशानं यन्त्र धाऽशिवावमयोर्मुतकानि बहूनि त्यक्तानि, आघातन मिति यत्र वा महासङ्गामे मृतानि बहू नि, एतेषु स्थानेश्वविशोधितेषु काळतो द्वादश वर्षाणि क्षेत्रको हस्तशतं परिहरन्ति-स्वाध्यायं न कुर्वन्तीत्यर्थः । अवैतानि स्थानानि दयाझ्यादिना दानि उदकवाहो वा तेनाभ्यना न्यूडः ग्रामनगरेण वाऽऽवसत्ताऽस्मनो गृहस्थानानि शोधितानि शेषमपि यौन शोधितं पश्चात् तत्र साधवः स्थिताः, आत्मनो वसतिः समन्तात् मार्गयन्तो यदृष्टं तत् यतवाडष्टे वा श्रीन दिवसान् उद्घाटनकायोत्सर्ग कृत्वाध्याउभायाः स्वाध्यायं कुर्वन्ति । शारीरग्राम पार्थ, इचं विभाषा-शरीरमिति मृतस्य शरीरं यावल| धुमामे न निष्काशितं तावत् स्वाध्यायं न कुर्वन्ति, अथ नगरे महति वा प्रामे तन्त्र वाटकात शाखाया वा यावत्र निष्काशितं तावत् स्वाध्यायं परिहरन्ति, मा लोको निर्तुःखा इति भणेत् । [२९] ~177 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३५९] भाष्यं [२२३], आवश्यक हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥७४४॥ al [सू.] उक्तार्थेय, चोदक आह-साहुवसहिसमीवेण मयसरीरस्स निजमाणस्स जइ पुष्फवत्यादि पडइ असज्झाइयं, १४ प्रतिक्रआचार्य आह लमणाध्य. निर्जतं मुत्तूणं परवयणे पुष्फमाइपडिसेहो । जम्हा चउप्पगारं सारीरमओ न वजंति ॥१३६० ॥ अस्वाध्या यिकनि.शा व्याख्या-मयसरीरं उभओ वसहीए हत्थसतम्भंतरं जाव निजइ ताव तं असज्झाइयं, सेसा परवयणभणिया पुष्फाई। जारीरास्वा० पडिसेहियबा-असज्झाइयं न भवति, जम्हा सारीरमसज्झाइयं चउबिह-सोणिय मंसं चम्म अद्वियं च तओ तेसु सज्झाओ न बजणिज्जो इति गाथार्थः ॥ १३६०॥ एसो उ असज्झाओ तव्वजिउऽझाउ तत्थिमा मेरा । कालपडिलेहणाए गंडगमरुएहिं दिलुतो ॥ १३६१॥ व्याख्या-एसो संजमघाताइओ पंचविहो असज्झाओ भणिओ, तेहिं चेव पंचहिं वजिओ सज्झाओ भवति, 'तत्थ'त्ति तिमि सज्झायकाले 'इमा' वक्ष्यमाणा 'मेर'त्ति सामाचारी-पडिकमित्तु जाव वेला न भवति ताव कालपडिलेहणाए कयाए । *स दीप अनुक्रम [२९] साधुवसतेः समीपे मुन्नकशरीरस्य नीयमानस्य यदि पुष्पववादि पते अस्वाध्यायिक, मृतकशरीरं बसतेरुभवतः हस्तशताभ्यन्तरं बावन्नीयते साव- K७४४॥ चदस्थाध्यायिक, शेषाः परवचनभणिताः पुष्पादयः प्रतिषेवग्या:-अस्यास्यायिकं न भवति, यस्मात् शरीरमस्वाभ्यायिकं चतुर्विषं-शोणितं मांसं चर्म अस्थि च, सतस्तेषु स्वाभ्यायो न वर्जनीयः । एतत् संयमप्रातादिकं पञ्चविषमस्वाभ्यायिकं भणितं, तैरेव पञ्चभिर्जितः स्वाध्यायो भवति, वेति तस्मिन् स्वाध्यायकाले इव-वक्ष्यमाणा मेरेति-समाचारी-प्रतिक्रम्य यावदेखा न भवति तावत् कालप्रतिलेखनायो कृतायो R ~178~ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१३६१] भाष्यं [२२३...], प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम महणफाले पत्ते गडगदितो भविस्सइ, गहिए सुद्धे काले पट्ठवणवेलाए मरुयगदिईतो भविस्सतित्ति गाथार्थः ॥ १३६१।। स्वादुद्धिः-किमर्थं कालग्रहणम् ?, अत्रोच्यतेपंचविहअसमाचस्स जाणणहाय पेहए कालं । चरिमा पसभागवसेसियाइ भूमि तओ पेहे ॥१३६२॥ व्याख्या-पंचविधः संघमघातादिकोऽस्वाध्यावा तत्परिज्ञानार्थ प्रेक्षते (काल) कालवेलां, निरूपयतीत्यर्थः । कालो निरूपणीयः, कालनिरूपणमन्तरेण न ज्ञायते पश्चविधसंयमघातादिकं । जइ अग्घेत्तुं करेंति ता चलहुगा, तम्हा कालपडि लेहणाए इमा सामाचारी-दिवसचरिमपोरिसीए चउभागावसेसाए कालग्गहणभूमिओ ततो पडिलेहियबा, अहवा तओ उच्चारपासवणकालभूमीयत्ति गाथार्थः॥ १३१२॥ अहियासियाई अंतो आसन्ने चेव मज्झि दूरे य । तिन्नेव अणहियासी अंतो छ छच्च बाहिरओ ॥१३६३॥ ___ व्याख्या-'अंतोत्ति निवेसणस्स तिन्नि-उच्चारअहियासियर्थंडिले आसपणे मज्झे दूरे य पडिलेहेइ, अणहियासियाथंडिलेवि अंतो एवं चेव तिणि पडिलेहेति, एवं अंतो थंडिल्ला छ, बाहिं पि निवेसणस्स एवं चेव छ भवंति, एत्थ अहियासिया दूरयरे अणहियासिया आसन्नयरे कायवा ॥ १३६३ ॥ महणकाले प्राले गण्टरन्तो भविष्यति, गृहीते शुदेकाले प्रस्थापनवेखायो मलाम्तो भविष्यतीति । यद्यगृहीत्या कुर्वन्ति तहि चतुर्ल घुकं, तस्मात् कालप्रतिलेखगायामियं सामाचारी-दिवसचरमपीमध्यां चतुर्भागावयोषायां कालग्रहणभूमयस्तियः प्रतिलेसितम्याः, अथवा तिखा-पचारप्रश्रवणकालभूमयः । अन्तरिति-निवेशनस्य त्रीणि उच्चारखाप्यासितस्पण्डिलानि आसने मध्ये दूरे च प्रतिलेखपति, अनभ्यासितस्थानिलाम्बपि अन्तरेवमेव पीणि प्रतिलेखयन्ति, एवमन्तःस्थन्डिलानि पद, पहिरपि निवेशनादेवमेव पटू भवन्ति, मनास्पासितानि दूरतरे मनध्यासितानि भासनतरे कर्तव्यानि । [२९] ~179 Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१३६४] भाष्यं [२२३...], प्रत सूत्रांक यकनिर्य आवश्यक- एमेच य पासवणे बारस चउचीसतिं तु पेहेत्ता । कालस्स य तिन्नि भवे अह सूरो अस्थमुवयाई ॥१३६४ ॥ ४ प्रतिकहारिभ- व्याख्या-पासवणे एएणेव कमेणं बारस एवं चउवीसं अतुरियमसंभंत उवउत्तो पडिलेहेत्ता पच्छा तिन्नि काल- मणाध्य. द्रीया गहणथंडिले पडिलेहेति । जहण्णेणं हत्वंतरिए, 'अहत्ति अनंतरं धंडिलपडिलेहाजोगाणंतरमेव सूरो अस्थमेति, ततो।। अस्वाध्या॥७४५॥ आवस्सगं करेइ ॥ १३६४ ॥ तस्सिमो बिहीअह पुण निवाघाओ आवासं तो करंति सब्वेऽवि । सहाइकहणवाधाययाइ पच्छा गुरू ठति ॥ १३६५॥ तौ काल हविधिः व्याख्या-अधेत्यानन्तये सूरथमणाणंतरमेव आवस्सयं करेंति, पुनर्विशेषणे, दुविहमावस्सगकरणं विसेसेइ-निधाVघायं वाघाइमं च, जदि निवाघायं ततो सबे गुरुसहिया आवस्सयं करेंति, अह गुरू सढेसु धम्मै कहेंति तो आवस्सगस्स |साहहिं सह करणिजस्स वाघाओ भवति, जंमि वा काले तं करणिज त हासेंतस्स वाघाओ भन्नइ, तओ गुरू निसिज्जहरो य पच्छा चरित्तातियारजाणणट्ठा काउस्सग्गं ठाहिति ।। १३६५ ॥ दीप अनुक्रम KOIRACK [२९] प्रश्रवणेऽनेनैव कमेण द्वादश, एवं चतुर्विशतिमचरितम संन्नममुपयुक्तः प्रतिलिण्य पात् पीणि कालग्रहणस्थाण्डिलागि प्रतिलेखयन्ति, जयन्येन हमतासरिते, भत्खनन्तर खण्डिलपतिले बनायोगानन्तरमेव मूर्वोऽस्तमे ति, तत आवश्यकं कुर्वन्ति । तस्यायं विधिः-सूर्यासमवनानन्तरमेवावश्यकं कुर्वन्ति, द्विविधमावश्यककरण विशेषयति-नियापातं व्याघातबच, यदि नियाघातं ततः सर्वे गुरुसहिताः आवश्यकं कुर्वन्ति, अप गुरुः श्राद्वानां धर्म कथयति । का॥७४५il तदाऽवश्वकस्य साधुभिः सह करणीयस्य व्याघातो भवति, यस्मिन् वा काले तत् कर्त्तव्यं तं हासयतो व्याधातो भषयते, ततो गुरुनिषद्याधरच पश्चात् चारि-II वातिचारज्ञानाथ कायोत्सर्ग स्थाखतः । काल ग्रहण संबंधे शास्त्रिय विधि: ~180 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३६६] भाष्यं [२२३...], प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम नासा उ जहासति आपुच्छिताण ठंति सहाणे । सुत्तत्धकरणहेर्ड आयरिऍ ठियमि देवसियं ॥१३॥ | व्याख्या-सेसा साहु गुरु आपुरिछत्ता गुरुगणस्स मग्गओ आसन्ने दूरे आधाराइणियाए जं जस्स ठाणं तं सठाण, तत्थ पडिकमंताणं इमा ठवणा । गुरू पच्छा ठायंतो मज्झेण गंतुं सठाणे ठायइ, जे वामओ ते अणंतर सवेण गंतुं सठाणे ठायन्ति, जे दाहिणओ अणंतरसदेण गंतुं ठायंति, तं च अणागयं ठायति सुत्तत्यसरणहेर्ड, तत्थ य पुवामेव ठायंता* करेमि भंते । सामाइयमिति सुत्तं करेंति, पच्छा जाहे गुरू सामाइयं करेत्ता बोसिरामित्ति भणित्ता ठिया उस्सग्ग, ताहे| देवसियाइयारं चिंतति, अन्ने भणति-जाहे गुरू सामाइयं करेंति ताहे पुवडियावि तं सामाइयं करेंति, सेस कंठं ॥ १३६६॥। जो हुज्ज उ असमत्थो बालो चुहो गिलाण परितंतो। सो विकहाइ विरहिओ अच्छिज्जा निजरापही ॥१३६७॥ | व्याख्या-परिस्संतो-पाहुणगादि सोवि सज्झायशाणपरो अच्छति, जाहे गुरू ठंति ताहे तेवि बालादिया ठायंति एएण विहिणा ॥ १३६७ ॥ शेषाः साथको गुरुमालय गुरुस्थानस्य पृछत आसको दूरे बधारातिकतया यस्य यत् स्थानं तत् स्वस्थान, तत्र प्रतिकाम्पताभियं स्थापना-गुरुः पश्चात तिष्ठन मध्येन गत्वा स्वस्थाने तिष्ठति, ये बाभतोऽनन्तर सध्येन गत्वा खस्थाने तिष्ठन्ति, ये दक्षिणतोऽनन्तरापसम्यग गरवा तिष्ठन्ति, तत्र चानागतं | तिष्ठन्ति सूत्राधस्मरणहतो, तन्त्र च पूर्वमेष तिष्ठन्तः करोमि भदन्त ! सामायिकमिति सूत्रं कर्षयन्ति, पक्षाचदा गुरवः सामायिक कृष्ट्वा व्युत्मजामीति | भणित्वा स्थिता उस तदा दैयासिकातिचारं चिन्तयन्ति, अम्बे भणन्ति-यदा गुरवः सामायिकं कुर्वन्ति तदा पूर्व स्थिता अपि तत् सामायिक कुर्वन्ति |शेष कारुपम् । परिवान्तामापूर्णकादिः सोऽपि स्वाध्यायध्यानपरस्तिष्ठति, यदा गुरवस्तिष्ठन्ति सहा तेऽपि बालाचासिन्ति एतेन विधिना । KARANGANA CROSS [२९] ~181 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१३६८] भाष्यं [२२३...], प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यकता आवासगं तु का जिणोषहह गुरूवएसेणं । तिषिण थुई पडिलेहा कालस्स हमा विही तस्थ ॥१३६८॥ 121 प्रतिकहारिभव्याख्या-जिणेहिं गणहराणं उवाई ततो परंपरपण जाव अम्हं गुरूवएसेण आगयं तं का आवस्सय अण्णे तिण्णि IXIT Mमणाध्य द्रीया थुतीओ करिति, अहवा एगा एगसिलोगिया, वितिया बिसिलोझ्या ततिया [त] तियसिलोगिया, तेसिं समत्तीए कालप-लायकनिर्य१७८६॥ 18 डिलेहणविही कायथा ॥१३६८ ॥ अच्छर ताव विही इमो, कालभेओ ताव वुच्चइ कौ कालदुविहो उ होइ कालो वाघाइम एतरो य नायब्बो । वाधातो घंघसालाएँ घट्टणं सहकहणं वा ॥ १३६९ ॥ व्याख्या-पुषद्ध केलं, पच्छद्धस्स व्याख्या-जा अतिरित्ता वसही कप्पडिगसेविया य सा घंघसाला, ताए अतिताणं घट्टणपडणाइ वाघायदोसो, सहकहणेण व वेलाइकमणदोसोत्ति । एवमादि ॥ १३६९ ॥ वाघाए तइओ सिं दिजद तस्सेव ते निषेएंति । इयरे पुच्छंति दुवे जोगं कालस्स घेच्छामो ॥ १३७॥ व्याख्या-तमि वाघातिमे दोषिण जे कालपडिवरगा ते निगच्छंति, तेसिं ततिओ पवझायादि दिजा, ते काल महविधिः दीप अनुक्रम CAKALASSES [२९] ७४६॥ मिर्गणधरेग्य उपविर कसा परम्परफेण वाचदमा गुरूपदेशेन आगतं सत् हत्याऽऽष अग्ये तिखः खलीः कुर्षन्ति, अथवा एका एकश्लोकिका द्वितीया दिलोकिका तृतीया त्रिलोकिका, ताखा समरसी कालपतिलेखनाविधिः कम्मर । लिन्त सापन विधियकाकोरलाचाप्यते । पूर्वाध कण्य। पचास्य व्याया-पासिरिता वतिः कर्मरिकारिता पसाबमाला लायो साता बाबपवादियोधातोपा, भावाने पेलातिकमणदोष इति, एममापि । तसि मावावपति की कामविचारी ती निश्चता, मोबीच साध्यापावियते, काम ~182 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३७०] भाष्यं [२२३...], प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम गाहिणो आपुण्ण संदिसाषण कालपवेयणं च सर्व तस्सेव करेंति, पत्थ गंडगदिहतो न भवाइ इयरे स्वउत्ता चिति. सुद्धे काले तत्थेव उवज्झायस्स पवेएंति । ताहे दंडधरो बाहिं कालपडिचरगो चिहा, इयरे दुयगावि अंतो पविसंति.IN ताहे उबझायस्स सभीवे सये जुगवं पट्टाति, पच्छा एगो नीति दंडधरो अतीति, तेण पडविए समायं करेंति,18 ॥ १३७० ।। निवाघाए पच्छद्धं अस्यार्थ:आपुच्छण किहकम्मे आवासिय पडियरिय वाघाते। इंदिय दिसा य तारा चासमसज्झाइयं च ॥१३७१॥ व्याख्या-निषाघाते दोभि जणा गुरुं आपुच्छंति कालं घेच्छामो, गुरुणा अणुपणाया 'कितिकम्म'ति वंदर्ण काउं दंडगं घेत्तुं उवउत्ता आवासियमासज्जं करेन्ता पमज्जन्ता य निग्गच्छंति, अंतरे य जइ पक्खलंति पहंति वा वत्थादि है वा विलग्गति कितिकम्मादि किंचि वितह करेंति ततो कालवाघाओ, इमा काल भूमीपडियरणविही, इंदिएहिं उवउत्ता |पडियरंति, 'दिस'त्ति जत्थ परोवि दिसा दीसंति, उडुमि जइ तिनि तारा दीसंति, जइ पुण न उवउत्ता अणिहो| माहिणी आपृच्छासंदिशनकामप्रवेपनानि सर्व तमै एवं कुरुतः, अत्र गण्डगष्टान्तो न भवति, इतरे उपयुकास्तिष्ठन्ति, शुतने काले तत्रैवोपाध्यायाय प्रवेदवतः, तदा दण्डधरो बहिः कालं प्रतिवरन् तिति, इतरी द्वावपि अन्तः प्रविशतः, तदोपाध्यायस्थ समीपे सर्व युगपत् प्रस्थापयन्ति, पश्चादेको निर्गच्छति दण्डधर आगच्छति, तेन प्रस्थापिते खाध्यायं कुर्वन्ति । नियाघाते द्वौ जदौ मुरुमापूच्छेते कार प्रहीष्यावः, गुरुणाऽनुज्ञाती कतिफर्मति वदनं कृाचा दण्ड गृहीत्वोपयुक्ती आपश्यिकीमा वाय्यां कुर्वन्तो प्रमार्जयन्तौ च निर्गच्छतः, अन्तश च यदि प्रस्खलतः पततो वा वखादि वा विलगति कृतिकर्मादि चा किनिद्वितधं कुरुतस्तदा काल व्याघातः, अयं कालभूमिप्रतिचरणविधिः, इन्द्रियेपूपयुक्तौ प्रतिचरतः, दिश इति या पतलोऽपि दिशो रश्यन्ते, मती यदि | तिखस्तारका रश्यन्ते, यदि पुनर्नोपयुक्तौ अनिष्टो [२९] ~183 Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [स्.-] दीप अनुक्रम [२९] आवश्यक हारिभद्वीया ॥७४७॥ [भाग-३१] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १/४ ( मूलं+निर्युक्तिः वृत्तिः) अध्ययन] [४] मूलं [स्] / [गाथा-] निर्बुक्तिः [ १३७१] भष्यं [२२३... वा इंदियविसओ 'दिस'त्ति दिसामोहो दिसाओ वा तारगाओ वा न दीसंति वासं वा पडड़, असज्झाइयं वा जायं तो कालवहोत्ति गाथार्थः ॥ १३७१ ॥ किंच जइ पुण गच्छंताणं छीयं जोई ततो नियत्तेंति । निव्वाघाए दोषिण व अच्छेति दिसा निरिक्खता ।। १३७२ ।। व्याख्या- - तेसिं चैव गुरुसमीया कालभूमी गच्छंताणं अंतरे जइ छीतं जोति या फुसइ तो नियतंति । एवमाइकारणेहिं अवाहया ते दोवि निघाघारण कालभूमी गया, संडासगादिविहीए पमज्जित्ता निसन्ना उद्घट्टिया वा एकेको दो दिसाओ निरिक्खंतो अच्छइत्ति गाथार्थः ॥ १३७२ ॥ किं च तत्थ कालभूमिए ठिया सज्झायमचितता कणगं दद्दण पडिनियत्तंति । पत्ते य दंडधारी मा बोलं गंडए उनमा ।। १३७३ ।। व्याख्या - तत्थ सज्झायं (अ) करेंता अच्छन्ति, कालवेलं च पडियरेइ, जइ गिम्हे तिष्णि सिसिरे पंच वासासु सत्त कणगारंति (पति) पेच्छेज तहा विनियत्तंति, अह निषाघारण पत्ता काल ग्गहणवेला ताहे जो दंडधारी सो अंतो पविसित्ता भणइ बहुपडिपुण्णा कालवेला मा बोलं करेह, एत्थ गंडगोवमा पुवभणिया कज्जइत्ति गाथार्थः ॥ १३७३ ॥ यो दिगिति दिग्मोहो दिशो या तारका वा न श्यन्ते वा पतति अस्वाध्यायिकं वा जातं तर्हि कालवधः । तयोरेव गुरुसमीपात् कालभूमिं गच्छतोरन्तरा यदि श्रुतं ज्योतियां स्पृशति तदा नियते, एवमादिकारणैरभ्याहतौ तौ द्वावपि नियघातेन कालभूमिं गतौ संदेशकादिविधिना प्रमृज्य निषण्णी स्थिती वा एकैको द्वे दिशे निरीक्षमाणस्तिष्ठति तत्र कालभूमी स्थिती । तत्र स्वाध्यायं कुर्वन्ती तिष्ठतः कालवे व प्रतिचरतः, यदि ग्रीष्मे त्रीन् शिशिरे पञ्च वर्षां सप्त कणकान् पश्येतां ततसदा विनिवर्त्तते, अथ निम्यांघातेन प्राप्ता कालग्रहणवेला तदा यो दण्डधरः सोऽन्तः प्रविश्य भगतिबहुप्रतिपूर्णा कालवेला मा बोलं कुरुत, अत्र गण्डकोपमा पूर्व भगिता कियते । ~ 184 ~ ४ प्रतिक मणाध्य० अस्वाध्या यक निर्युतौ कालग्रहविधिः ॥७४७॥ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१३७४] भाष्यं [२२३...], प्रत सूत्रांक आघोसिए बहहिं सुर्यमि सेसेसु निवष्टए दंडो । अह तं बहहिं न सुयं दंडिजा गंडओ ताहे ॥ १३७४ ।। व्याख्या-जहा लोए गामादिदंडगेण आघोसिए बहूहिं सुए थेवेहिं असुए गामादिठिई अकरेंतस्स दंडो भवति. बहहिं असुए गंडस्स दंडो भवति, तहा इहपि उपसंहारेयम् । ततो दंडधरे निग्गए कालग्गही उ इत्ति गाथार्थः ॥१३७४।। सो य इमेरिसो पियधम्मो ददधम्मो संविग्गो चेव वजभीरू य । खेअण्णो य अभीरू कालं पडिलेहए साह ॥ १३७९ ॥ । व्याख्या-पियधम्मो दढधम्मो य, एत्थ चउभंगो, तस्थिमो पढमभंगो, निच्चं संसारभउबिग्गो संविग्गो, बज-पावं तस्स भीरू-जहा तं न भवति तहा जयइ, एत्थ कालविहीजाणगो खेदपणो, सत्तवंतो अभीरू । एरिसो साह कालपडि- लेहओ, प्रतिजागरकच ग्राहकश्चेति गाथार्थः ॥ १३७५ ॥ ते य तं वेलं पडियरंता इमेरिसं कालं तुलेति कालो संझा य तहा दोवि समप्पंति जह समं चेव । तह तं तुलेंति कालं चरिमं च दिसं असझाए॥१३७६॥ व्याख्या-संझाए धरतीए कालग्गहणमाढतं तं कालग्गहणं सध्झाए य जं सेसं एते दोवि समं जहा समपति तहा तं AMRORSCOTC %AYARI दीप अनुक्रम [२९] यथा खोके प्रामापिदण्डनायोपिते बहुभिः भुते लोकरभुते प्रामादिस्थितिमकुर्वतो दण्डो भवति, बहुभिरथुते गण्डकप पो भवति तथे-18 हाप्युपसंहारवितव्यं, ततो पढधरे निर्माते कालग्रायुत्तिति । स च हैदश:-प्रियधर्मा वधर्मा प, भत्र प्रत्यारो भा, तवाय प्रथमो भगः, निवं संसारभयोद्विमः संविधा, वर्ज-पापं तम्मान भीरु:-यथा वन्न भवति तथा यतते, अन्न काल विधिज्ञायकः खेदशः, सत्यवान भीका, इटसः साधुः कालप्रतिचरकः, तीच ता बेला प्रतिवरम्तौ ईयां कालं सोलयतः, सन्ध्यायां विद्यमानायो काठमणमाइतं, तत् कालग्रहणं सन्ध्यायाश्च यत् शेष एते हेअपि समं यथा समामृतस्तथा तां ~185 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१३७६] भाष्यं [२२३...], प्रत सूत्रांक आवश्यक- कालबेलं तुलति, अहवा तिसु उत्तरादियासु संझाए गिण्हंति 'चरिमति अवराए अवगयसंझाएवि गेहति तहावि न प्रतिक्रहारिभ 18|दोसोत्ति गाथार्थः ॥ १३७६ ॥ सो कालग्गाही बेलं तुलेत्ता कालभूमीओ संदिसावणनिमित्तं गुरुपायमूलं गच्छति । मणाध्य द्रीया सातत्धेमा विही अस्वाध्या७४८॥ आउत्तपब्वभणियं अणपुच्छा खलियपडियवाघाओ।भासत मूढसंकिय इंदियविसएतु अमणुण्णे ॥ १३७७ ॥ALA व्याख्या-जहा निग्गच्छमाणो आउत्तो निम्तो तहा पविसंतोवि आउत्तो पविसति, पुषनिग्गओ व जइ अणा- II तौ कालपुच्छाए कालं गेहति, पविसंतोवि जइ खलइ पडइ जम्हा एत्थवि कालुद उग्धाओ, अहवा घाउत्ति लेहुईगालादिणा। प्रविधिः 'भासत मूढसंकिय इंदियविसए अमणुण्णे इत्यादि पच्छद्धं सांग्यासिकमुपरि वस्यमाणं । अहवा इत्थवि इमो अत्यो| भाणियबो-चंदणं देतो असं भासंतो देह वंदणदुर्ग उवओगेण उ न ददाति किरियासु वा मूढो आवत्तादीसु वा संका कया न कयत्ति बंदर्ण देतस्स इंदियविसओ वा अमणुण्णमागओ ।। १३७७ ॥ दीप अनुक्रम [२९] ॥४८॥ कालवेला तोकयता, अधोतराषिषु लिम सम्पयायो गृहन्ति चरमामिति अपरस्यामपगतसम्व्यायामपि गृहन्ति, तथापि न दोष हति । स काल-II माही वेलां तोशयित्वा कालभूमिसंदिशननिमिचं गुरुपादमूले गच्छति, तत्रार्य विधिः यथा निर्गच्छमायुक्तो निर्गतलथा प्रविशवपि युक्तः प्रविशति, पूर्वनिर्गत एव पचनाप का पहाति प्रविपि परिस्खलति पतति बनावनापि काळ इवोधाता, अपना धात इति नारादिना, भाषमाणेखावि, मवानाप्वयम भणितम्या-वन्दन भन्यत् भाषमाणो वाति बम्बनविषापयोगेन नदाति निवास वा मत भावांविषामताभ कृता बेति। वन्यनं वषतोऽमनोशो देवियविषण भागतः ~186 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१३७८] भाष्यं [२२३...], 75%E0%2Ckx प्रत सूत्रांक * मिसीहिया नमुकारे काउस्सग्गे य पंचमंगलए। किहकम्मं च करिता बीओ कालं तु पडियरइ ॥१३७८ ॥ व्याख्या-पविसंतो तिणि निसीहियाओ करेइ नमोखमासमणाणं च नमुक्कार करेइ, इरियावहियाए पंचउस्सासकालियं उस्सग्गं करेइ, उस्सारिए नमोअरहताणं पंचमंगलं चेव कहइ, ताहे 'कितिकम्मति यारसावत्तं बंदणं देह, भणइ य-संदिसह पाउसियं कालं गेण्हामो, गुरुवयणं गेण्हहत्ति, एवं जाव कालग्गाही संदिसावेत्ता आगच्छद ताव वितिओ दंडधरो सो कालं पडियरइ, गाथार्थः ॥ १३७८ ॥ पुणो पुवुत्तेण विहिणा निग्गओ कालग्गाही थोवावसेसियाए संझाए ठाति उत्सराहुसो । चउवीसगदुमपुफियपुष्पगमेकेकि अ दिसाए ॥१३७९॥ व्याख्या-उत्तराहुत्तो' उत्तरामुखः दंडधारीवि वामपासे ऋजुतिरियदंडधारी पुवाभिमुहो ठाति, कालगहणनिमित्तं च अहुस्सासकालियं काउस्सर्ग करेइ, अण्णे पंचुस्सासियं करेइ, उस्सारिते चउवीसत्थयं दुमपुष्फियं सामण्णपुर्व च, एते तिण्णि अक्खलिए अणुपेहेत्ता पच्छा पुवाए एते चेव अणुपेहेति, एवं दक्खिणाए अवराप इति गाथार्थः ॥१३७९ ॥ गेण्हंतस्स इमे. उबघाया जाणियथा प्रविशन् तिम्रो नैपेधिकीः करोति क्षमाश्रमणां नमस्करोति ईयोपधिक्यां पञ्चोझासकालिकमुसगं करोति, प्रसारिते नमोईजयः (कथयित्वा) पञ्चमझकमेव कथयति, सदा कृतिकर्मेति द्वादशावतं वन्दनं ददाति, भणति -संदिशत मादोषिकं कालं गृक्षामि, गुरुवचनं गृहाणेति, एवं यावत् कालमाही संदिश्यागच्छति ताबद्वितीयो दण्डधरः स कालं प्रतिचरति, पुनः पूर्वोकेन विधिना निर्गतः कालपाही । दण्दधार्थपि वामपा अजुतिर्यगूदण्डधारी पूर्वाभिमुखः तिष्ठति, कासग्रहणनिमिचमष्टोच्चासकालिकं कायोत्सर्ग करोति, अन्ये (भणन्ति)-पञ्चोच्छ्रासिकं करोति, उत्सारिते चतुर्विंशतिस्तवं दुमपुष्पिका श्रामण्यपूर्वकं च एतानि श्रीण्यस्वलितान्यनुमेश्य पश्चात् पूर्वस्यामेतान्येकानुप्रेक्षते एवं दक्षिणस्यामपरस्त्रां । गृहत इमे उपचाता ज्ञातव्या * दीप अनुक्रम * [२९] - X पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~187 Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३८०] भाष्यं [२२३...], प्रत सूत्रांक 1-960 आवश्यक- विंद्छीए[य] परिणय सगणे वा संकिए भवे तिण्हं । भासत मूढ संकिय इंदियविसए य अमणुपणे ॥१३८० प्रतिकहारिभ- व्याख्या-गेहतस्स अंगे जइ उदगविंदू पडेजा, अहया अंगे पासओ वा रुधिरबिंदू, अपणा परेण वा जदि छीया। द्रीया अस्वाध्याअज्झयणं वा करेंतस्स जइ अन्नओ भावो परिणओ, अनुपयुक्त इत्यर्थः, 'सगणे'त्ति सगच्छे तिण्हं साहूर्ण गजिए संका, यकनियु॥७४९॥ एवं विजुच्छीयाइसुवि, ।। १३८० ॥ 'भासंत' पच्छद्धस्स पूर्वन्यस्तस्य वा विभासा क्ती कालमूढो व दिसिज्झयणे भासंतो यावि गिण्हति न सुज्झे । अन्नं च दिसज्झयणे संकतोऽनिधिसए वा ॥१३८१॥ । ग्रहविधिः | व्याख्या-दिसामोहो से जामो अहवा मूढो दिसं पडुच अज्झयणं वा, कहं , उच्यते, पढमे उत्तराहतेण ठाय। सो पुण पुवहुत्तो ठायति, अजायणेसुवि पढमं चतुवीसत्थओ सो पुण मूढत्तणओ दुमपुफियं सामण्णपुवयं कहति । ४ फुडमेव बंजणाभिलावेण भासंतोवा कहुति, वुडबुडेतो वा गिण्हइ, एवं न सुज्झति, 'संकेतो'त्ति पुर्व उत्तराहुत्तेण ठातिय, है ततो पुबहुत्तेण ठातवं, सो पुण उत्तराउ अवराहुत्तो ठायति, अज्झयणेसु चि चउवीसस्थयाउ अन्नं चेव खुड्डियायारगादि गृहनोऽने ययुदकविन्दुः पतेत् अथवाजे पायो रुधिरविन्नुः, आमना परेण वा यदि शुतं, अध्ययनं वा कपडो यद्यम्यतो भावः | १ ॥७४९॥ परिणतः, स्वगच्छे प्रयाणां साधूनां गर्जिते शा, एवं विद्युक्षुतादिष्वपि, भाषमाण-पश्चाधव विभाषा । दिग्मोहस्तला जातोऽथवा मूढो दिशं प्रतीत्याध्ययन वा, कथं ?, उच्यते, प्रथममुत्तरोन्मुखेन स्थातव्यं स पुनः पूर्वोन्मुखस्तिष्ठति, अध्ययनेम्वपि प्रथमं चतुर्विंशतिस्तवः स पुनर्मूढत्वात् दुमपुपिकं श्रामण्यपूर्वकं वा कथयति । स्फुटमेव व्यसनाभिलापेन भाषमाणो वा कथयत्ति, भूलभूडायमानो पा गृह्णाति, एवं न शुभ्यति, ग्रहमान इति पूर्व| मुत्तरोन्मुखेन स्वातण्यं ततः पूर्वोन्मुखेन स्थातव्यं स पुनरुत्तरखा अपरोन्मुखतिपति, अध्ययनेष्वपि चतुर्विशतिम्तवादन्यदेव क्षुलाचारादि LOCALCAR दीप अनुक्रम [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~188 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३८१] भाष्यं [२२३...], प्रक्षेप: [१] प्रत सूत्रांक अण्झयणं संकमइ, अहवा संकइ किं अमुगिए दिसाए ठिओ ण वत्ति, अज्झयणेवि किं कड्डियं णवित्ति । 'इदियः। विसए य अमणुण्णे'त्ति अणिडो पत्तो, जहा सोइंदिएण रुइयं वंतरेण वा अट्टहासं कयं, रुवे विभीसिगादि विकृतरूपं दृष्ट, गंधे कलेवरादिगन्धो रसस्तत्रैव सर्योऽग्निज्वालादि, अह्वा इडेसु रागं गच्छइ, अणिडेसु इंदियविसएसु दोसन्ति । गाथार्थः ॥ १३८१ ॥ एवमादिउवघायवजिय कालं घेत्तुं कालनिवेयणाए गुरुसमीवं गच्छंतस्स इमं भण्णइ जो गकछतमि विही आगच्छंतमि होइ सो चेव । जे एत्थं णाणत्तं तमहं वोच्छं समासेणं ॥ १३८२ ॥ व्याख्या-एसा भड्याहुकया गाहा-तीसे अतिदेसे करवि सिद्धसेणखमासमणो पुबद्धभणियं अतिदेस वक्खाणेइ निसीहिआ आसवं अकरणे खलिय पडिय वाघाए। अपमजिय भीए वा छीए छिन्ने व कालवहो ॥१॥ (1०सिद्ध)॥ व्याख्या-जदि णितो आवस्सियं न करेइ, पविसंतो निसीहियं करेइ अहवा करणमिति (आसज्ज अकरणे इति) अध्ययन संक्राम्यति, अथवा गळते किममुकस्वां दिशि स्थितो नवेति, अध्ययनेऽपि कि कृष्ट नवेति, इन्द्रियविषयश्चामनोज्ञ इत्यनिष्टः प्राप्तः यथा श्रोग्रेग्विषेण हदितं व्यन्तरेण वाऽहासं कृतं रूपे विभीषिकादि विकृतं रूपं रष्ट गन्धे कलेवरदिगन्धः । अथवेष्टेषु राग गपछति अनिविन्दियविषयेषु द्वेषमिति । एवमायुपधातवर्जितं कालं गृहीत्वा कालनिवेदनाय गुरुसमीपं गच्छत इदं भण्यते । एपा भावाहुकता गाया एतस्यां अतिदेशे कृतेऽपि सिद्धसेन-1 क्षमाश्रमणः पूर्वार्धभणितं अति देशं व्याख्यानयति । यदि निर्गच्छन्त आवश्यकीं न कुर्वन्ति प्रविशन्तो नैषेधिकी (न) कुर्वन्ति अधवाऽऽशस्यमकरणे दीप अनुक्रम [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~189 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३८२] भाष्यं [२२३...], प्रक्षेप: [२] आवश्यक हारिभ- द्रीया प्रत प्रतिक मणाध्य अस्वाध्यायकनियु सूत्रांक ।७५०॥ को काल माम न करे । कालभूमीप गुरुसमीवं पट्टवियस्स(पडियस) जइ अंतरेण साणमज्जाराई छिदति, सेसपदा पुषभणिया, एमु सवेसु कालवधो भवति ॥१॥ गोणाई कालभूमीइ हुन संसप्पगा व खडिजा। कविहसिन विजुयंमी गल्जिय उकाइ कालवहो ॥२॥(प्र.सिद्ध०)॥ व्याख्या-पढमयाए आपुच्छित्ता गुरू कालभूमि गओ, जइ कालभूमिए गोणं निसर्ग संसष्पगादि वा उडि(हियादि पेच्छेज तो नियत्तए, जह कालं पहिलेइंतस्स गिण्हंतस्स वा निवेषणाए वा गच्छंतस्स कविहसियादि, तेहिं कालवहो भवति, कविहसियं नाम आगासे विकृतं मुखं वानरसरिसं हासं करेजा । सेसा पया गतार्धा इति गाधार्थः ॥२॥ कालगाही णिवाघातेण गुरुसमीवमागतोइरियाबहिया इत्थंतरेऽवि मंगल निवेयणा दारे । सव्वेहि वि पट्टबिए पच्छा करणं अकरणं वा ॥ १३८३ ॥ व्यास्यादिवि गुरुस्स हत्थंतरमेते कालो गहिमओ तहावि कालपवेयणाए इरियावहिया पडिकमियबा, पंचुस्सास महविधिः दीप अनुक्रम [२९] ॥७५०॥ 1-आशाम्यं न करोति कालमरणभूमे। प्रस्थितस्स गुरुसमीपं यद्यम्तरा समाजारादि हिन्दति, शेषाणि पदानि पूर्व अणितानि, पते सकाळचमो भवति । प्रथमतया आपूछय गुरु काळभूमिगतः यदि काकभूमी गो निषण्णं संसर्पकादिवा वस्थिता(डादि पश्वेत् तहिनिवत, यदि का प्रतिक्षिततो ग्रतः निवेरने वा गणता पितसितादि, सैः कालवधो भवति, कपिद्दसितं नामाकाशे वागरसदशं विकृतं मुझं हासे हुयात , शेषाणि पदानि गतानि । काममाही गुरुसमीपे निण्याचातेनागतः । मद्यपि गुरोईनान्तरमा कालो गृहीतक्षथापि कासमवेदने र्यापधिकी प्रतिकातम्या, पोषास पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~190 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३८३] भाष्यं [२२३...], प्रत सूत्रांक मेत्तकालं उस्सगं करेंति, उस्सारिएऽवि पंचमंगलयं कहृति, ताहे बंदणं दाउं निवेएंति-सुद्धो पाओसिओ कालोत्ति, ताहे दंडधरं मोतुं सेसा सधे जुगवं पढ़ति, किं कारणम् ?, उच्यते, पुवुत्तं जं मरुगदिढतोत्ति ।। १३८३॥ सन्निहियाण घडारो पट्टविय पमादि णो दए कालं । बाहि ठिए पडियरए विसई ताएऽवि दंडधरो॥१३८४ ॥ व्याख्या-वडो बंटगो विभागो एगई, आरिओ आगारिओ सारिओ वा एगढ़, बडेण आरिओ बडारो, जहा सो वडारो सन्निहियाण मरुगाण लब्भइ न परोक्खस्स तहा देसकहादिपमादिस्स पच्छा कालं न देंति, 'दारे'ति अस्य व्याख्या 'बाहि ठिए' पच्छद्धं कंठं ॥ १३८४ ॥ सबेहिवि पच्छद्धं अस्य व्याख्यापट्टविय वंदिए वा ताहे पुच्छंति किं सुयं? भंते !। तेवि य कहेंति सव्वं जं जेण सुयं व दिड वा ॥ १३८५॥ | व्याख्या-दंडधरेण पट्टविए बंदिए, एवं सबेहि वि पढविए वदिए पुच्छा भवइ-अजो ! केण किं दिलु सुर्य वा दीप अनुक्रम [२९] मात्रकालमुसगै कुर्वन्ति, वत्सारितेऽपि पचमङ्गलं कथयन्ति, ततो वन्दनं वचा निवेदयतः-भादोपिकः कालः शुद्ध इति, तदा दण्वधरं मुच्या शेषाः सर्वे युगपत् स्वाध्या प्रस्थापयन्ति, कि कारणं', उच्यते, पूर्वमुक्तं यस्मात् मरुकरात इति । बाटो बण्टको विभागः एका :, आरिक भागारिकः कासारिक इति एकार्थाः । वाटेनारिको बाटारा, बया स वाटारः सनिहितमककम्यते न परोक्षेण, तथा देशादिविधाप्रमादवतः पश्चात् काल म ददति । - मित्यख म्याण्या-बाहास्थितः पार्थ, कण्वं । सवैरपि पा दायरेण प्रस्थापिते वन्दिते, एवं संरपि प्रस्थापिले वन्दिते पृण्ठा भवति-आर्य ! केनचित | किचिद् र श्रुतं चा!, 45- पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~191~ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१३८५] भाष्यं [२२३...], प्रत सत्राक आवश्यक है दंडधरो पुच्छइ अण्णो वा, तेवि सच्च(ई)कहेंति, जति सबेहिवि भणियं-न किंचि सुयं दिई वा, तो सुद्धे करेंति सज्झायं । अहा प्रतिकहारिभ- |एगेणवि किंचि विजुमादि फुडं दिई गजियादि वा सुयं तो असुद्धे न करेंतित्ति गाथार्थः ॥ १३८५ ॥ अह संकियं- मणाध्य. द्रीया इकस्स दोण्ह व संकियंमि कीरइ न कीरती तिण्हं । सगणमि संकिए परगणं तु गंतुं न पुच्छति ॥१३८६॥ अस्वाभा दयनियुक्तिः | व्याख्या--जदि एगेण संदिद्ध-दिई सुयं वा, तो कीरइ सज्झाओ, दोण्हवि संदिरे कीरति, तिण्हं विजुमादि एग-18 ॥७५१॥ संदेहे ण कीरइ सञ्झाओ, तिण्हं अण्णाण्णसंदेहे कीरइ, सगणमि संकिए परवयणाओऽसज्झाओ न कीरइ । खेत्तविभागण तेसिं चेव असम्झाइयसंभवो ॥ १३८६ ॥ एत्थं णाणत्तं तमहं वोच्छ समासेणं'ति-अस्यार्थः कालचउक्के णाणत्सगं तु पाओसियंमि सब्वेवि । समयं पटवयंती सेसेसु समं च विसमं वा ॥ १३८७॥ व्याख्या-एयं सर्व पाओसियकाले भणियं, इयाणि च उसु कालेसु किंचि सामण्णं किंचि विसेसियं भणामि | दीप अनुक्रम दण्डधरः पृषति भन्यो वा, तेऽपि सत्यं कथयन्ति, यदि सवैरपि भणित-न किञ्चिन् पं श्रुतं चा, तदा शुद्ध कुर्वन्ति स्वाध्याय, अथैकेनापि किनिद्रियदादि। स्फुट रष्टं गर्जितादि वा श्रुतं तदाऽशुद्ध न कुर्वन्ति । अथ शक्कितं-बयेकेन संदिग्ध-रई श्रुतं वा, तहि क्रियते स्वाध्यायः, चोरपि संदेहे क्रियते, त्रयाणां [विखुदादिके एक (समान) संदेहे न कियते खाप्पाषा, त्रयाणामन्यान्यसंदेहे क्रियते, स्थगणे शहिते परवचनात् अखाध्यायो न कियते, क्षेत्रविभागेन तेषामे-। |वास्वाध्यायिकसंभवः । यदन्न नानात्वं तदहं वक्ष्ये समासेनेति । एतत् सर्व प्रादोषिककाले भणिसं, इदानी चतुर्वपि कालेषु किचिन सामान्य किनिन् । विशेषितं भणामि ROCRCTRE [२९] ।॥७५२॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~192 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१३८७] भाष्यं [२२३...], प्रत सूत्रांक पाओसियं दंडधरं एक मोत्तुं सेसा सवे जुगर्व पति, सेसेसु तिसु अद्धरत्त वेरत्तिय पाभाइए य समं वा विसमं वा पट्ठति ॥ १३८७ ॥ किं चान्यत्इंदियमाउत्ताणं हणंति कणगा उ तिन्नि उकोसं । पासासु य तिन्नि दिसा उउबद्ध तारगा तिन्नि ॥ १३८८ ॥ | व्याख्या-सुङ इंदियउवओगउवउत्तेहिं सबकाला पडिजागरियवा-घेत्तवा, कणगेसु कालसंखाको विसेसो भण्णइतिणि गिम्हे उवहणं तित्ति, तेण उक्कोस भण्णइ,चिरेण उवघाउत्ति, तेण सत्त(तिमि)जहणं सेसं मज्झिमं, अस्य व्याख्याकणगा हणंति कालं ति पंच सत्तेव गिम्हि सिसिरवासे । उक्का उ सरेहागा रेहारहितो भवे कणओ॥ १३८९॥ व्याख्या-कणगा गिम्हे तिन्नि सिसिरे पंच वासासु सत्त उवहणंति, उक्का पुणेगावि, अयं चासिं विसेसो-कणगो | सण्हरेहो पगासरहिओ य, उका महतरेहा पकासकारिणी य, अहवा रेहारहिओ विष्फुलिंगो पभाकरो उक्का चेव ॥१३८९॥ 'वासासु तिपिण दिसा' अस्य व्याख्यावासासु य तिन्नि दिसा हवंति पाभाइयंमि कालंमि।सेसेसु तीमु चउरो उटुंमि चउरो चउदिसिपि ॥१३९०॥ दीप अनुक्रम [२९] प्रादोषिक दण्डधरमेक मुफ्वा शेषाः सर्वे युगपत् प्रस्थापयन्ति, शेषेषु त्रिषु अर्धरात्रिके वैरात्रिके प्रामातिके च समं वा वियुका वा प्रस्थापयन्ति । | सुषु इन्द्रियोपयोगोषयुतिः स कालाः प्रतिजागरितम्या-भहीतव्याः, कनकविषये कामकृतः संकबाविशेषो भगवते-त्रयो ग्रीमे उपान्तीति तेनोकृष्ट मण्यते | चिरेणोपधात इति, तेन सप्त धन्यतः शेषं मध्यम । कनका भीमे प्रयः शिशिरे पन वर्षासु सप्तोपतन्ति, का पुनरेकापि, भयं चानयोपिशेषः-कनकः | अपरेखा प्रकाशर तिन, ENT महदेखा प्रकाशकारिणी च, अथवा रेखारहितो विस्फुलिङ्गः प्रभाकर छ । वर्षांसुलिसो दिशः पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~193 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३९०] भाष्यं [२२३..., आवश्यकहारिभ. द्रीया 444 प्रत सूत्रांक ॥७५२॥ दीप अनुक्रम व्याख्या-जत्थ ठिओ वासाकाले तिन्निवि दिसा पेक्खइ तत्थ ठिओ पाभाइयं कालं गेहइ, सेसेसु तिसुवि कालेसु है। वासासु (उडुबद्धे सबेसु) जत्थ ठिओ चउरोवि दिसाभागे पेच्छइ तत्थ ठिओऽवि गेहद ॥१३९०॥ 'उडुबद्धे तारगा तिन्नि । प्रतिक्र जिमणाध्य. अस्य व्याख्या अस्वाध्यातिम तिन्नि तारगाओ उर्दुमि पाभातिए अदिवि । वासासु [य] तारगाओ चउरो छन्ने निविट्ठोऽवि ॥१३९१॥ वारयनियुक्तिः व्याख्या-तिसु कालेसु पाओसिए अडरत्तिए वेरत्तिए, जति तिन्नि ताराओ जहण्णेण पेच्छंति तो गिण्डंति, उडुबद्धे चेव अम्भादिसंबडे जइवि एकंपि तारं न पिच्छंति तहावि पाभाइयं कालं गेण्हंति, बासाकाले पुण चउरोवि काला अम्भाइसंघटे तारासु अदीसंतासुवि गेण्हति ॥ १३९१ ॥ 'छन्ने निविहोत्ति अस्य व्याख्याठाणासइ बिंदूसु अगिण्हं चिहोवि पच्छिमं कालं । पडियरह बहिं एको एको [व] अंतहिओ गिण्हे ॥१३९२॥ व्याख्या-जदिवि वसहिस्स बाहिं कालरंगाहिस्स ठाओ नत्थि ताहे अंतो छण्णे उद्धडिओ गेण्हति, अह उद्धहियस्सवि. अंतो ठाओ नत्थि ताहे छपणे चेव निविहो गिण्हइ, बाहिटिओवि एको पडियरइ, वासचिंदुसु पडतीसु नियमा अंतोठिओर यत्र स्थितो वारात्रिकाले तिम्रोऽपि दिशः प्रेक्षते तत्र स्थितः प्राभातिक कालं गृहाते, शेपेषु विध्वपि कालेषु वर्षासु या स्थितनतुरो दिग्विभागान् प्रेक्षते तत्र स्थितोऽपि गृह्णाति । अतुमने तारकास्तिनः । त्रिषु कालेषु प्रादोषिके अर्धरात्रिके वैरात्रिके यदि विखसारका जघन्येन प्रेक्षेत तदा रानीपान , ७५२॥ क्लब एव अनायायादिते पचपि एकामपि तारिका न पश्यन्ति तथापि प्राभाति का गृहम्ति, वर्षाकाले पुनश्चत्वारोऽपिकाला अनायाळादिते तारास्वक्यमानास्वपि गृहन्ति । उके निविष्ट इति । यद्यपि वसत्तेबहिः कालवाहिणः स्थानं नास्ति तदाऽन्लाउने अस्थितो गृहरति, अयोध्यस्थितस्याप्यन्तः स्थान | नास्ति तदा बने एवं निविष्टो गृहाति, बहिःस्थितोऽप्येकः प्रतिचरति, वर्षाबिन्दुपु पतरसु निषमादन्तःस्थितो. [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~194 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१३९२] भाष्यं [२२३...], C+ + प्रत + सूत्रांक गिण्इ, तत्थवि उद्धडिओ निसण्णो वा, नवरं पडियरगोवि अंतो ठिओ चेष पडियरइ, एस पाभाइए गच्छुवग्गहठ्ठा अववायविही, सेसा काला ठाणासति न घेत्तवा, आइण्णतो वा जाणियचं ॥ १३९२ ॥ कस्स कालस्स कं दिसमभिमुहेहिं ठायवमिति भाष्यतेपाओसि अट्ठरत्ते उत्तरदिसि पुब्व पेहए कालं । बेरत्तिपंमि भयणा पुवदिसा पच्छिमे काले ॥ १३९३ ॥ व्याख्या-पाओसिए अहरत्तिए नियमा उत्तराभिमुहो ठाइ, 'वेरत्तिए भयण'त्ति इच्छा उत्तराभिमुहो पुषाभिमुहो वा, पाभाइए नियमा पुषा मुहो ॥ १३९३ ॥ इयाणिं कालग्गहणपरिमाणं भण्णइ कालचक उकोसएण जहन्न तियं तु पोडव्वं । बीयपएणं तु दुर्ग मायामयविप्पमुकाणं ॥ १३९४ ॥ II व्याख्या-उस्सग्गे उकोसेणं चत्तारि काला घेति, उस्सग्गे चेव जहष्णेण तिगं भवति, 'बितियपए'त्ति अववाओ, तेण कालदुगं भवति, अमायाविनः कारणे अगृह्यमाणस्वेत्यर्थः, अहवा उकोसेणं चउकं भवति, जहण्णेण हाणिपदे तिगं C+ 4 दीप अनुक्रम [२९] ew गृहाति, तवायूर्वस्थितो निषाको पा, नवरं प्रतिवरकोऽपि अन्त:स्थित एक प्रतिवाति, एष प्राभातिके गोपग्रहार्थाबापवादविधिः, पोषा। काकाः | स्थानेऽयति न महीतव्याः, आचरणानो वा हातव्यं । कमिन् काले कां दिशमभिमुखः स्वातम्यामिति । प्रादोपिके अर्धरापिके नियमादुचरोम्मुखलिष्ठति, वैरात्रिके भनेति इच्छा जतराभिमुखः पूर्वाभिमुस्रो वा, प्राभातिके नियमात् पूर्वोन्मुखः । इदानी कालपदणपरिमाणं भव्यते-जसमें उत्कृष्टतषत्वारः काला गृह्यन्ते, उत्सर्गे एव जघन्येन त्रिकं भवति, द्वितीयपदमिति अपवादः, तेन कालद्विकं भवति । अथवोत्कृष्टतचतुष्कं भवति, जघन्येन हानिपदे निक % पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~195 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३९४] भाष्यं [२२३...] आवश्यक हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ।७५शा R-660-%E भवति, एकंमि अगहिए इत्यर्थः, वितिए हाणिपदे कए दुगं भवति, द्वयोरग्रहणत इत्यर्थः, एवममायाविणो तिन्नि वा प्रतिकअगिण्हतस्स एको भवति, अहवा मायाविमुक्तस्य कारणे एकमपि कालमगृह्णतो न दोषः, प्रायश्चित्तं न भवतीति मणाध्य. गाथार्थः ॥ १३९४ ॥ कहं पुण कालचउकं ?, उच्यते अस्वाध्याफिडियंमि अहरत्ते कालं चित्तुं सुवंनि जागरिया । ताहे गुरू गुणती चउत्थि सब्वे गुरू सुअइ ॥ १३९५ ॥ सायनियुक्ति व्याख्या-पादोसियं कालं घेत्तुं सवे सुत्तपोरिसिं काउं पुन्नपोरिसीए सुत्तपाढी सुवंति, अस्थचिंतया उकालियपाढियो। य जागरंति, जाब अड्डरत्तो, ततो फिडिए अडरते कालं घेत्तुं जागरिया सुयंति, ताहे गुरू उद्वेत्ता गुणेंति, जाव चरिमो पत्तो, चरिमजामे सब उहित्ता वेरत्तियं घेत्तुं सज्झायं करति, ताहे गुरू सुवैति । पत्ते पाभाइयकाले जो पाभाइयं कालं घेच्छिहिति सो कालस्स पडिकमि पाभाइयकालं गेण्हइ, सेसा कालवेलाए पाभाइयकालस्स पडिक्कमति, ततो आवस्सय करेंति, एवं चउरो काला भवति ।। १३९५ ॥ तिषिण कह !, उच्यते, पाभाइए अगहिए सेसा तिन्नि, अहवा| गहियमि अहरसे रत्तिय अगहिए भवइ तिन्नि । बेरत्तिय अहरत्ते अइ उवओगा भवे दुषिण ॥ १३९६ ।। भवति, एकमिमगृहीते । द्वितीयस्मिन् हानिपदे कृते हिकं भवति, एवममाया विनस्त्रीन् वाऽगृहत एको भपति, अवधा, फर्थ पुनः कालचतुष्कं । प्रादीपिकं काल गृहीत्वा सवपीरुषीं कृत्वा पूर्णायो पौरुग्यां सूत्रपाठिनः स्वपति, अर्धचिन्तका उत्कालिकपाटका जागरन्ति यावर्धरात्रः ततः स्फिटितेऽधैराने कालं गृहीत्वा जागरिता स्वपन्ति, सदा गुरव अस्थाय गुणयन्ति यावञ्चरमः प्राप्तः, चरमे यामे सौ वरथाष वैरात्रिक गृहीत्वा स्वाध्याय ||७५३॥ कर्वन्ति, नदा गुरवः स्वपन्ति, प्राक्षे प्राभातिककाले यः प्राभातिक कालं प्रहीप्यति स कालं प्रतिकब प्राभातिककाळं गृह्णाति, शेषाः कालवेलायां प्रामा| तिककालस्य प्रतिकाम्बन्ति, तत आवश्यक कुर्वन्ति, एवं चत्वारः काला भवन्ति, त्रयः कर्ष', उच्यते, पाभातिकेजगृहीते शेषाखया, अथवा दीप अनुक्रम [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~196~ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.-] दीप अनुक्रम [२९] [भाग-३१] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १/४ ( मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [४] मूलं [] / [गाथा-]), निर्युक्तिः [ १३९७ ] भष्यं [२२३...] पडिग्गियमि पढमे बीयविवजा हवंति तिन्नेव । पाओसिय वेरतिय अहवओगा उ दृष्णि भवे ॥ १३९७ ॥ गाथाद्वयस्यापि व्याख्या -- बेरत्तिए अगहिए सेसेसु तिसु गहिएसु तिण्णि, अङ्कुरत्तिए वा अगहिए तिष्णि, दोण्णि कहं १, उच्यते, पाउसिय अङ्कुरत्तिएस गरिएस सेसेस अगहिएस दोणि भवे, अहवा पाउसियवेरत्तिए गहिए य दोन्नि, अहवा पाउसियाभाइरस अगहिएसु दोण्णि, एत्थवि कप्पे पाउसिए चैव अणुवहरण उवओगओ सुपडिवग्गिएण सबका लेण पदंति न दोस्रो, अहवा वेरतिय अङ्कुरत्तियेऽगहिए दोण्णि अहवा अङ्कुरत्तियपाभाइयगहिएस दोपिंग अहवा वेरत्तियपाभाइ एसु गहिएसु, जदा एको तदा अण्णतरं गेव्हइ । कालचक्क कारणा इमे कालच उक्के गहणं उस्सग्गविही चैव, अहवा पाओसिए गहिए उवहए अहरतं घेत्तुं सज्झायं करेंति, पाभाइ ओ दिवसा घेतो चेव, एवं कालचकं दिउँ, अणुवहए पाओसिए सुपडियग्गिए सबै राई पति, अङ्कुरत्तिएणवि वेरत्तियं पति, वेरत्तिएणवि अणुवहरण सुपडियग्गिएण पाभाइय असुद्धे उद्दिद्धं दिवसओवि पति | कालचके अग्गहणकारणा इमे पाउसियं न गिव्हंति असिवादिकारणओ न सुज्झति वा, अङ्कुरत्तियं न गिर्हति १ वैरात्रिगृहीते शेषेषु त्रिषु गृहीतेषु वयः, अर्धरात्रिके वाऽगृहीते त्रयः ही कथं ?, उच्यते, प्रादोषिकार्धरात्रिकयोगृहीतयोः शेषपोरगृहीतयोगी भक्तः, अथवा प्रादोषिकदेशकियगृहीतोड़ीं अथवा प्रादोषिकप्राभातिकयोरगृहीतो, अनापि कये प्रादोषिकेणानुपहतेनैवोपयोगतः सुप्र विजागरितेन सर्वकालेषु पठति न दोषः, अथवा वैरात्रिके अर्धरात्रिगृहीते ही अथवा अर्धरात्रिकप्राभातिक योगृहीतवो, अथवा वैरात्रिकप्राभातिको गृहीतयो यदेकस्तदाऽन्यतरं गृह्णाति कालचक कारणानीमानि - कालचतुष्कग्रहणं उत्सर्गविधिरेव अथवा प्रादोषिके गृहीते उपहतेऽर्धरात्रं गृहीत्वा स्वाध्यायं कुर्वन्ति प्राभाविक दिवसार्थ महोतम्य एवं एवं कालचतुष्कं दृष्टं अनुपहते प्रादोषिके सुप्रतिजागरिते सर्वां रात्रिं पठन्ति, अर्धरात्रिकेणापि वैरात्रिके पठन्ति वैरात्रि केणाप्यनुपहतेन सुप्रतिजागरितेन प्राभातिके कालेऽशुद्ध उद्दिष्टं दिवसतोऽपि पठन्ति कालकेऽग्रहणकारणानीमानि प्रादोषिक न गृह्णन्ति अशिवादिकारणतः न शुध्यति वा अर्धरात्रि न सन्ति पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः ~ 197 ~ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१३९७] भाष्यं [२२३...] प्रत सत्राक भावश्यक- कारणतो ण सुज्झति वा पाओसिएण वा सुपडियग्गिएण पढंति न गेण्हंति, बेरत्तियं कारणओ न गिण्हति न सज्झइ | ४प्रतिक्रहारिभ-18वा, पाओसिय अहरत्तेण वा पढेति, तिन्नि वा णो गेण्हंति, पाभाइयं कारणओ न गिण्हइ न सुज्झइ वा बेरत्तिएणेव दिव-1 मणाध्य द्रीया सओ पढंति ॥ १३९७ ॥ इयाणि पाभाइयकालग्गहणविहिं पत्तेयं भणामि अस्वाध्यापाभाइयकालंमि उ संचिक्खे तिन्नि छीयकनाणि । परवयणे खरमाई पावासुय एवमादीणि ॥ १३९८ ॥ दियनियुक्तिः ७५४|| व्याख्या त्वस्या भाष्यकारः स्वयमेव करिष्यति । तत्थ पाभाइयंमि काले गहणविही पट्टवणविही य, तथ। गहणविही इमानवकालवेलसेसे उबग्गहियअट्ठया पडिक्कमह । न पडिकमइ वेगो नववारहए धुवमसज्झाओ! (भा०२२४)। व्याख्या-दिवसओ सज्झायविरहियाण देसादिकहासंभवव जणहा मेहावीतराण य पलिभंगवजणवा, एवं सवेसिमणुग्गहहा नवकालग्गहणकाला पाभाइए अणुण्णाया, अओ नवकालग्गहणवेलाहिं सेसाहिं पाभाइयकालग्गाही दीप अनुक्रम [२९] ॥५४॥ कारणतो न शुध्यति वा, पादोषिकेण वा सुपतिजागरितेन पठन्ति न गृह्णन्ति, वैरात्रिक कारणतो न गृहन्धिान शुभपति वा, प्रादोविकारात्रिकाभ्यामेव पठन्ति, श्रीन् वा न गृहन्ति, प्राभातिक कारणतो न गृहाति न शुध्यति बा, बैरात्रिकेणव दिवसे पठस्ति । इदानीं प्राभातिककानप्रहणविधि पृथक भगामि-त्र प्राभातिके काले प्रहणविधिः प्रस्थापनविधिक्ष-तत्र महणविपिरय-दिवसे खाध्यायविरहितानां देशादिकथासंभववर्जनाय मेधाविनाभितरेषां काचविपर्जनार्थ, एवं सर्वेषामनुमहापांच नवकालप्राणकालाः प्राभातिकेऽनुज्ञाताः, अतो नवकासपाहणबेलामु शेषासु प्राभातिककासपाही पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~198~ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.-] दीप अनुक्रम [२९] [भाग-३१] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १/४ ( मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययनं [४] मूलं [.] / [गाथा-] नियुक्तिः [१३९८ ] भष्यं [ २२४] कालरस पडिक्कमति, सेसाबि तं वेलं पडिकमंति वा न वा, एगो नियमा न पडिक्कमइ, जइ छीयरुदिदादीहिं न सुज्झइ तो सो चैव वेरत्तिओ सुपडियग्गिओ होहितित्ति । सोवि पडिकंतेसु गुरुणो कालं निवेदित्ता अणुदिए सूरिए कालस्स पडिक्कमति, जइ घेप्पंतो नववारे वहओ कालो तो नज्जइ ध्रुवमसज्झाइयमस्थित्ति न करेंति सज्झायं ॥ २२४ ॥ नववारगहणविही इमो- 'संचिक्खे तिण्णि छीतरुण्णाणि'त्ति अस्य व्याख्या हकिक तिन्नि वारे छयाइहयंमि गिण्हए कालं । चोएइ खरो वारस अणिट्ठविसए अ कालवहो ॥ २२५ ॥ ( भा० ) ।। व्याख्या - एकस्स गिण्हओ छीयरुदादिहए संचिक्खइत्ति ग्रहणाद्विरमतीत्यर्थः, पुणो गिण्हइ, एवं तिण्णि वारा, तओ परं अण्णो अण्णंमि थंडिले तिण्णि वाराउ, तस्तत्रि उवहए अण्णो अण्णंमि थंडिले तिण्णि वारा, तिन्हं असई दोण्णि जणा णव वाराओ पूरेइ, दोपहवि असतीए एक्को चेव णववाराओ पूरेइ, थंडिलेसुवि अववाओ, तिसु दोसु वा १ कास्य प्रतिकाम्यति, शेषास्तु तस्यां वेलायां प्रतिक्राम्यन्ति वा न वा, एको नियमान प्रतिकाम्यति, यदि तरोदनादिभिर्न शुध्यति तदा स एव वैशनिक: सुप्रतिजागरितो भविष्यतीति । सोऽपि प्रतिकाम्य गुरोः कालं निवेद्यानुदिते सूर्ये कालात् प्रतिक्राम्यति, यदि गृह्यमाणो वारानुपहतः कालस्तईि ज्ञायते ध्रुवमस्वाध्यामिकमस्ति इति न कुर्वन्ति स्वाध्यायं । नववारप्रणविधिरयं एकस्मिन् गृह्णति श्रुतरुदितादिभिर्हेते प्रतीक्षते । पुनर्गृह्णाति एवं त्रीन् वारान् ततः परमन्योऽन्यस्मिन् स्थण्डिले त्रीन् वारान् तस्याप्युपद्दतेऽन्योऽन्यस्मिन् स्थण्डिले श्रीन् वारान् विम्वसत्सु द्वौ जनी नव वारान् पूरयतः, द्वयोरप्यसतोरेक एव नत्र वारान् पूरयति, स्थण्डिलेष्वप्यसत्सु अपवादः, त्रिषु द्वयोव पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः ~ 199 ~ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३९८...] भाष्यं [२२५] प्रतिकमणाध्य अस्वाध्यायनियुक्तिः हारिभद्रीया ॥७५५॥ प्रत सूत्रांक मिवागिणहंतीति॥२२५॥ परवयणे खरमाई अस्य व्याख्या'चोएइ खरोपच्छद्ध' चोदक आह-जदि रुदतिमणिले काल- हो ततो खरेणरडिते बारह वरिसे उवहमउ, अण्णेसुवि अणिहइंदियविसएसु एवं चेव कालबहो भवतु, आचार्य आहचोअग माणुसऽणिढे कालवहो सेसगाण उपहारो। पावासुआइ पुब्धि पन्नवणमणिच्छ उग्घाडे ॥२२६(भा०)। व्याख्या-माणुससरे अणिढे कालवहो 'सेसग'त्ति तिरिया तेसिं जइ अणिको पहारसद्दो सुबइ तो कालवधो, 'पावासिय'त्ति मूलगाथायां योऽवयवः अस्य व्याख्या-पावासुयाय' पच्छद्धं, जइ पाभाइयकालग्गहणवेलाए पावासियभज्जा पइणो गुणे संभरंती दिवे दिवे रोएती, रुवणवेलाए पुषयरो कालो घेत्तबो, अहवा सावि पचुसे रोवेजा ताहे दिवा गंतुं पण्णविजइ, पण्णवणमनिच्छाए उग्घाडणकाउस्सग्गो कीरइ ॥ २२६ ॥ एवमादीणि'त्ति अस्यावयवस्य व्याख्या वीसरसहअंते अब्बत्तगडिंभगमि मा गिण्हे । गोसे दपट्टबिए छीए छीए तिगी पेहे ॥ २२७ (भा०)॥ व्याख्या-अच्चायासेण रुयंत वीरसं भन्नइ, तं उवहणए, जं पुण महुरसदं घोलमाणं च तं न उवहणति, जावमपिरं दीप अनुक्रम [२९] ७५५॥ एकस्मिन् वा गृहन्ति । चोपयति खरः पनार्थ, यदि रोदत्यनिटे कालबधो रटिते ततः खरेण द्वादश वर्षाण्युपहव्यता,(काल) म्येष्यपि अनिटेन्द्रियविषये प्वयेवमेव कालवधी भवतु । मनुष्यस्वरेऽनिटे कालवधः शेषा:-तिर्थशास्तेषां यदि अनिष्टः प्रहारशब्दः भूयते तर्हि कालपधा, यदि प्राभातिककालमहणवेखायो। मोचितपतिका बी परयुगंणान् भारती दिवसे ३ रोदिति, रोदनवेलाषा: पूर्वमेव कालो ग्रहीतव्यः, अथ च साऽपि प्रत्युषसि स्थान सदा दिवसे गरबा प्रज्ञाप्यते, प्रज्ञापनामनियां उद्घाटनकायोत्सर्ग: फियते । अत्यावासेन रोदनं तत् विरस भण्यते, सदुपदन्ति, यत् पुनकिमानं मधुरशाद च तमोपहन्ति यावशल्पा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~200 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [२९] [भाग-३१] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १/४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], निर्युक्तिः [१३९८...] भाष्यं [२२७] तामवत्तं तं अप्पेणवि वीसरेण उवहण, महंत उस्सुंभरोवणेण उवहणइ, पाभाइयकालग्गहणविही गया, इयाणिं पाभाइयपटुवणविही, 'गोसे दर' पच्छद्धं, 'गोसि'त्ति, उदितमादिच्चे, दिसालोयं करेत्ता पहवेंति, 'दरपट्टविएत्ति अद्ध पडविए जइ छीतादिणा भग्गं पडवणं अण्णो दिसालोयं करेता तत्थेव पट्टवेति, एवं ततियवाराए। दिसावलोयकरणे इमं कारणं आइन पिसिय महिया पेहित्ता तिन्नि तिन्नि ठाणाई । नववारहए काले हउत्ति पढमाइ न पति ।। १३९९ ॥ व्याख्या--' आइण्णा पिसियन्ति आइण्णं-पोग्गलं तं कागमादीहिं आणियं होजा, महिया वा पडिउमारद्धा, एवमाई एगठाणे ततो वारा उवहए हत्थसयबाहिं अण्णं ठाणं गंतुं पेर्हति पडिलेहेंति, पट्टचिंतित्ति वृत्तं भवति, तत्थवि पुत्तविहिणा तिन्नि बारा पट्टवेंति, एवं वितियठाणेवि अमुद्धे तओवि हत्थसयं अन्नं ठाणं गंतुं तिन्निवारा पुत्तविहाणेण १ तावदकं तदयेनापि विस्वरेणोपहन्ति महान् भररोइनेनोपहन्ति प्राभातिककालग्रहणविधिर्मतः इदानीं प्राभातिकप्रस्थापनविधिःउदिने आदि दिगपलोकं कृत्वा प्रस्थापयन्ति, अर्धप्रस्थापित यदि सुतादिना भन्नं प्रस्थापनं अभ्यो दिगवलोकं कृत्वा तत्रैव प्रस्थापयति, एवं तृतीयवाया अपि दिगवलोककरणे इदं पुनः कारणं आकीर्ण पुलं तत् काकादिभिरानीतं भवेत् महिका वा पतितुमारब्धा, एवमादिभिरेकस्थाने उपहते त्रीन् वारान् दस्तशतात् वहिरण्यस्मिन् स्थाने गत्वा प्रतिलेखयन्ति प्रस्थापयन्ति इत्युक्तं भवति, तथापि पूर्वोक्तविधिना तिम्रो धाराः प्रस्थापयन्ति एवं द्वितीयस्थानेयशुद्धे ततोऽपि हस्तशतात्परतो ऽन्यस्मिन् स्थाने गया श्रीन् वारान् पूर्वोक्तविधानेन पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः ~ 201~ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३९९] भाष्यं [२२७...] आवश्यक हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक [सू.] ॥७५६॥ दीप अनुक्रम पति, जइ सुद्धं तो करेंति सज्झायं, नववारहए खुताइणा णियमा हओ, (ततो)पढमाए पोरिसीए न करेंति सज्झायमिति ४ प्रतिक्रगाथार्थः ॥ १३९९ ॥ मणाध्य पट्टविघमि सिलोगे छीए पडिलेह तिन्नि अन्नस्थ । सोणिय मुसपुरीसे घाणालोअं परिहरिजा ॥ १४००॥ । अस्वाध्याब्याख्या-जदा पढ़वणाए तिति अज्झयणा समत्ता, तदा उवरिमेगो सिलोगो कहिययो, तमि समत्ते पट्ठवर्ण सम-18| प्पड़, वितियपादो गयस्थो 'सोणिय'त्ति अस्य व्याख्या| आलोअंमि चिलमिणी गंधे अन्नस्थ गंतु पकरंति । वाघाइयकालंमी दंडग मरुआ नवरि नस्थि ॥ १४०१॥ | व्याख्या-जस्थ सज्झायं करेंतेहिं सोणियवञ्चिगा दीसंति तत्थ न करेंति सज्झाय, कडगं चिलिमिलिं वा अंतरे दातुं करेंति, जत्थ पुण सज्झायं चेव करेन्ताण मुत्तपुरीसकलेबरादीयाण गंधे अण्णमि वा असुभगंधे आगच्छंते तत्थ सज्झायं न करेंति, अण्णापि बंधणसेहणादिआलोयं परिहरेजा, एवं सर्व निवाघाए काले भणियं ॥ वाघाइमकालोऽपि एवं चेव, नवरं गंडगमरुगदिडता न संभवंति ॥ १४०१॥ KI||७५६॥ 1 प्रस्थापयन्ति, यदि शुई तहि कुर्वन्ति स्वाध्याय, नववारहते क्षुतादिना नियमात् इतस्ततः प्रथमायां पौरुभ्यां न कुर्वन्ति स्वाध्यायं । यदि प्रस्थापने बीयध्ययनानि समाप्तानि तदोपका सोका कवितव्यः, सस्मिन समाप्त प्रस्थापनं समाप्यते, द्वितीयपादो गताथैः, यत्र स्वाध्यायं कुर्वद्भिः मोणितपर्चिका श्यन्ते तत्र न कुर्वन्ति स्वाध्याय, कडकं चिलिमिाल वान्तरा दत्त्वा कुर्वन्ति, वत्र पुनः स्वाध्यायमेव कुर्वतो भूत्रारीपादिकलेवरादिकाना गन्धोऽन्यो वा गन्धोऽशुभ मागच्छति रात्र स्वाध्यायं न कुर्वन्ति, अन्यमपि बम्धनसेधनायालोकं परिहरेत् , एतत् सर्व नियोधाते काले भणितं, याचातकालोऽप्येव| मेय, नवरं गण्डगमरुकष्टान्तौ म संभवतः । [२९] -- पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~202 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [२९] 6444444 [भाग-३१] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ / ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १४०२ ] भाष्यं [२२७...] एएसामन्नपरेऽज्झाए जो करेइ सज्झायं । सो आणाअणवत्थं मिच्छन्त विराहणं पावे ।। १४०२ ॥ व्याख्या — निगदसिद्धा ॥ १४०२ || 'असज्झाइयं तु दुबिहं' इत्यादिमूलद्वारगाथायां परसमुत्थमस्वाध्यायिकद्वारं सप्रपञ्चं गतं इदानीमात्मसमुत्थास्वाध्यायिकद्वारावयवार्थप्रतिपादनायाहआयसमुत्थमसज्झाइयं तु एगविध होइ दुविहं वा । एगविहं समणाणं दुविहं पुण होइ समणीणं ॥। १४०३ ॥ व्याख्या - पूर्वार्द्ध कण्ठ्यं, पश्चार्द्धव्याख्या स्त्वियं-ऐगविहं समणाणं तच्च व्रणे भवति, समणीणं दुविहं-त्रणे ऋतुसंभवे चेति गाथार्थः ।। १४०३ ॥ एवं त्रणे विधानं धोयंमि उ निप्पगले बंधा तिन्नेव हुंति उक्कोसं । परिगलमाणे जयणा दुविहमि य होइ कायव्वा ॥ १४०४ ॥ व्याख्या- पढमं चिय वणो हत्थसय चाहिं धोवित्तु निप्पगलो कओ, ततो परिगर्तते तिष्णि बंधा जाव उकोसेणं गालंतो वाएइ, तत्थ जयणा वक्खमाणलक्खणा, 'दुविह' मिति दुविहं वणसंभवं उउयं च । दुविहेऽवि एवं पगजयणा कायदा ॥। १४०४ ॥ समणो उ वणिव्व भगंदरिव्व बंधं करितु वाएइ । तहवि गलते छारं दाडं दो तिन्नि बंधा उ ।। १४०५ ।। १ एकविधं श्रमणानां तथ वणे भवति, अमणीनां द्विविधं । एवं मणे विधानं प्रथममेव प्रणो इस्तशतात् बहिः प्रक्षाल्य निगहः कृतः, ततः परियकति प्रयो] बन्धाः यावदुष्कृष्टेन गलनान्वितो वाचयति, तत्र पसना यमाणलक्षणा द्विविधं बणसंभवमार्तवं च द्विविधेऽप्येवं पहुकपलना कर्तव्या पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः ~203~ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४०५] भाष्यं [२२७...] 55 भावश्यकहारिभदीया प्रत सूत्रांक ७५७|| व्याख्या-धणे धोवंमि निष्पगले हत्थसय वाहिरओ पट्टग दाउं चाएइ, परिगलमाणेण भिन्ने तमि पट्टगे तस्स उवरिं &४ प्रतिक्रछारं दाउं पुणो पट्टगं देह वाएइ य, एवं तइयपि पट्टगं बंधेज वायणं देजा, तओ परं गलमाणे हत्थसय बाहिर गंतुं व्रण- मणाध्य. पट्टगे य धोविय पुनरनेनैव क्रमेण वाएइ । अहवा अण्णस्थ पढ़ति ।। १४०५॥ एमेव य समणीणं वर्णमि इअरंमि सत्त बंधा उ । तहविय अठायमाणे धोएउं अहव अन्नस्थ ॥ १४०६॥ व्याख्या-इयरं तु-उतुतं, तत्थवि एवं चेव नवरं सत्त बंधा उक्कोसेणं कायवा, तहवि अहार्यते हत्थसय बाहिरओ घोवेउ पुणो वाएति । अहवा अण्णत्व पटंति ॥ १४०६॥ एएसामन्नयरेऽसज्झाए अप्पणो उ सज्झायं । जो कुणइ अजयणाए सो पाचइ आणमाईणि ।। १४०७॥ व्याख्या-निगदसिद्धा ।। १४०७॥ न केवलमाज्ञाभङ्गादयो दोषा भवन्ति, इमे यसुअनाणमि अभत्ती लोअविरुद्धं पमत्तछलणा य । विजासाहणवइगुन्नधम्मया एव मा कुणम् ॥१४०८।। व्याख्या-सुयणाणे अणुपयारओ अभत्ती भवति, अहवा सुयणाणभत्तिरापण असम्झाइए सज्झायं मा कुणसु, . C७५७॥ व्रणे धौते निष्प्रगले हस्तशतात् बहिः पट्टकं दत्त्वा वाचयति, परिगलता मिले तस्मिन् पट्टके तस्योपरि भम वखा पुनः पट्टकं ददाति वाचयति च, एवं तृतीयमपि पार्क बानीयार पाचन पदयात. ततः परं गलति हसशतान् बहिर्गरवा मण पहकांश धाविश्वा वाचवति, अथवाऽन्यत्र पठन्ति । इतरत्त्वावं, तत्राप्येतदेव नवरं सप्स बन्धाः उत्कृष्टेन कर्तव्याः, तथाप्यतिप्रति इमपातावहिपावित्वा पुनर्वाचयति, अथवाऽन्यत्र पठन्ति, इमे च। श्रुतज्ञानेऽनुपचारतोऽभक्तिर्भवति, अथवा श्रुतशानभक्तिरामेणास्वाध्यायिके खाप्यायं मा का, दीप अनुक्रम [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~204 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१४०८] भाष्यं [२२७...] प्रत सूत्रांक उवएसो एस, जपि लोयधम्मविरुद्धं च तं न कायवं, अविहीए पमत्तो लन्भइ, तं देवया छलेज्जा, जहा विजासाहणवइगुण्णयाए विजा न सिज्झइ तहा इहपि कम्मक्खओ न होइ । वैगुण्य-वैधयं विपरीतभाव इत्यर्थः । धम्मयाते सुयधम्मस्स एस धम्मो जं असमझाइए सम्झाइयवज्जणं, करंतो य सुयणाणायारं विराहेद, तम्हा मा कुणसु ॥ १४०८ ॥ चोदक आह-जइ दंतमंससोणियाए असाझाओ नणु देहो एयमओ एव, कहं तेण सज्झायं कुणह ?, आचार्य आह| कामं देहावयवा दंताई अवज्जुआ तहवि वजा । अणवजुआ न वजा लोए तह उत्तरे चेव ॥ १४०९॥ व्याख्या-काम चोदकाभिप्रायअणुमयत्थे सच्चं तम्मओ देहो, तहवि जे सरीराओ अवजुत्तत्ति-पृथग्भूताः ते वजणिज्जा । जे पुण अणवजुत्ता-तत्थत्वा ते नोवजणिज्जा, इत्युपदर्शने। एवं लोके दृष्ट लोकोत्तरेऽप्येवमेवेत्यर्थः ॥ १४०९॥ किं चान्यत्अभितरमललित्तोवि कुणइ देवाण अञ्चणं लोए।बाहिरमललित्तो पुण न कुणइ अवणेइ य तओणं ॥१४१०॥ दीप अनुक्रम [२९] उपदेश एषः, यदपि लोकधर्मविरुद्धं च तन कर्तव्यं, अविधी प्रमत्तो जायते, तं देवता उलयेत्, यथा विद्यासाधनवैगुण्यतया विद्या न सिध्यति तयेदापि फर्मक्षयो न भवति । धर्मतवा-धुतधर्मवैष धमों पदस्वाध्यापिके स्वाध्यायस्य वर्जन, कुवश्च सुतज्ञानाचार विराधयति, तस्मात्मा का । यदि इन्तमांसयोणितादिवसाध्याविक ननु देह एतन्मय एव, कथं तेन स्वाध्यायं कुरुत, चोदकाभिप्रायानुमता, सत्यं तन्मयो देहः, तथापि ये शरीरात पृथग्भूतासे । वर्जनीयाः, ये पुनः तत्रस्थास्ते ग वर्जनीयाः। पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~205 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४१०] भाष्यं [२२७...] ४ प्रतिक मणाध्या प्रत सत्राक दीप अनुक्रम आवश्यकहारिभ व्याख्या-अभ्यंतरा भूत्रपुरीपादयः, 'तेहिं चेव बाहिरे उवलित्तो न कुणइ, अणुवलित्तो पुण अभितरगतेसुवि तेसु द्रीया है अह अञ्चणं करेइ ॥ १४१०॥ किं चान्यत् आउहियाऽवराहं संनिहिया न खमए जहा पडिमा । इह परलोए दंडो पमत्तछलणा इह सिआ उ ॥ १४११।। ॥७५८॥ ___ व्याख्या-जा पडिमा 'सन्निहिय'त्ति देवयाहिट्ठिया सा जइ कोइ अणाढिएण 'आउट्टिय'त्ति जाणतो बाहिरमल लित्तो तं पडिमं छिवइ अचणं व से कुणइ तो ण समए-खित्तादि करेइ रोग वा जणेइ मारइ वा, 'इय'ति एवं जो असज्झाइए सज्झायं करेइ तस्स णाणायारविराहणाए कम्मबंधो, एसो से परलोए उ दंडो, इहलोए पमत्तं देवया छलेजा, स्यात् आणाइ विराहणा धुवा चेव ॥१४११ ॥ कोई इमेहिं अप्पसत्थकारणेहिं असज्झाइए सज्झाय करेजारागेण व दोसेण वऽसज्झाए जोकरेह सज्झायं आसायणा व का से? को वा भणिओ अणायारो?॥ १४१२॥ व्याख्या-रागेण वा दोसेण वा करेज्जा, अहवा दरिसणमोहमोहिओ भणेज्जा-का अमुत्तस्स गाणस्स आसायणा को या तस्स अणायारो, नास्तीत्यर्थः ॥ १४१२ ॥ तेसिमा विभासा तैरेव बहिरूपकिलो न करोति, अनुपलिया पुनरम्यन्सरगतेपपि सेष्वथार्चना करोति, या प्रतिमा देवताधिषिता सापदि कोऽपि अनादरेण जानानो बारामललिप्ततां प्रतिमा स्पृशति अर्चनं वा तस्याः करोति लाईन क्षमते-क्षिसचित्तादि करोति रोग वा जनयति मारयति वा, एवं योऽस्वाध्याबिके एप तस्य पारलौकिकस्तु दण्डा, हालोके प्रम देवता छलये, आज्ञादिविराधना वैव । कबिदे। मिरप्रशस्तकारगरस्वाध्यापिके साध्यायं कुर्यात् । रामेण बाण का कुर्वान् , अथवा वर्शनमोहमोहितो भणेत्-भमूर्षस्थ ज्ञानस्य काऽऽशातमा ! को वा तखानाचार,तेषामियं विभाषा [२९] ॥७५ar पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~206~ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४१३] भाष्यं [२२७...] प्रत सूत्रांक गणिसहमाइमहिओ रागे दोसंमि न सहए सई । सव्वमसज्झायमयं एमाई हुंति मोहाओ॥ १४१३ ।। व्याख्या-महितो'त्ति दृष्टस्तुष्टो नन्दितो वा परेण गणिवायगो वाहरिजंतो वा भवति, तदभिलापी असल्झाइएवि सज्झायं करेइ, एवं रागे, दोसे किं वा गणी वाहरिजति वायगो वा, अहंपि अहिज्जामि जेण एयस्स पडिसवत्तीभूओ | भवामि, जम्हा जीवसरीरावयवो असल्झाइयं तम्हा असज्झाइयमयं-न श्रद्दधातीत्यर्थः ॥ १४१३ ॥ इमे य दोसा उम्मायं च लभेजा रोगायकं च पाउणे दीहं । तित्थयरभासियाओ भस्सइ सो संजमाओ वा ॥१४१४ ॥ | व्याख्या-खेत्तादिगो उम्माओ चिरकालिओ रोगो, आसुघाती आयको, एतेण वा पावेजा, धम्माओ भंसेज्जा-मिच्छदिही वा भवति, चरित्ताओ वा परिवडइ ॥१४१४ ॥ इहलोए फलमेय परलोऍ फलं न दिति विजाओ। आसायणा सुयस्स उ कुन्वइ दीहं च संसारं ॥ १४१५॥ __ व्याख्या-सुयणाणायारविवरीयकारी जो सो णाणावरणिज कम्मं बंधति, तदुदया य विजाओ कओवयाराओवि फलं न देति, न सिध्यन्ति इत्यर्थः । विहीए अकरणं परिभवो, एवं सुवासायणा, अविहीए वहतो नियमा अह परेण गणी वाचको प्याट्रियमाणो वा भवति। अस्वाभ्यायिकेऽपि स्वाध्यायं करोति, एवं रामे, किं वा गणी यानियले बाचको वा, अहमध्यध्येय येनेतस्थ प्रतिसपनीभूतो भवामि, यमात् जीवशरीरावययोऽस्वाध्यापिकं समावस्वाध्यायिकमयं । इमे च दोषा:-क्षिप्तचित्ताविक जम्माद: चिरकालिको रोग आशुधाती आता, एतेन वा प्राप्नुयात्, धर्मान् अश्येन्-मिथ्याष्टिची भवेत् , चारित्राहा परिपतेत् । श्रुतज्ञानाचारविपरीतकारी यः स हानावरणीय कर्म बझाति, तदुदयाच विद्याः कृतोपचारा भपि फलं न वदति, विधेरकरणं परिभवः एवं श्रुताशातना, अविधी वर्तमानो नियमात् अष्ट दीप अनुक्रम [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~207~ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४१५] भाष्यं [२२७...] % + + प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यक- पगडीओ बंधति हस्सठितियाओ य दीहठितियाओ करेइ मंदाणुभावा य तिवाणुभावाओ करेइ, अप्पपदेसाओ प्रतिकहारिभ- बहुपदेसाओ करेइ । एवंकारी य नियमा दीहकालं संसारं निवत्तेइ । अहवा नाणायारविराहणाए दसणविराहणा, णाण मणाध्य द्रीया दिसणविराहणाहिं नियमा चरणविराहणा, एवं तिह विराहणाए अमोक्खे, अमोक्खे नियमा संसारो, तम्हा असज्झाइए| ॥७५९॥ ताण सज्झाइवमिति गाथार्थः ।। १४१५ ॥ असज्झाइयनिजुत्ती कहिया भे धीरपुरिसपन्नत्ता । संजमतबगाणं निग्गंधाणं महरिसीणं ॥ १४१६ ॥ असज्झाइयनिज्जुतिं जुजंता चरणकरणमाउत्ता । साहू खवेंति कम्मं अणेगभवसंचियमणंतं ॥१४१७ ॥ असज्झाइयनिजुत्ती समत्ता ॥ व्याख्या-गाथाद्वयं निगदसिद्धं ॥ १४१६-१४१७ ।। अखाध्यापिकनियुक्तिः समाप्ता॥ तथा सज्झाए न सज्झाइयं तस्स मिच्छामिदुक्कड' तथा स्वाध्यायिके-अस्वाध्यायिकविपर्ययलक्षणे न स्वाध्यायितं । इत्थमाशातनया योऽतिचारः कृतस्तस्य मिथ्यादुष्कृतमिति पूर्ववत् । एयं सुत्तनिबद्धं अत्येणऽणपि होति विष्णेयं । तं पुण अब्बामोहत्यमोहओ संपवक्खामि ॥१॥ तेत्तीसाए उवरिं चोत्तीस बुद्धवयणअतिसेसा । पणतीस वयणअतिसय छत्तीस उत्तरज्झयणा ॥२॥ एवं जह समवाए जा सयभिसरिक्ख8 प्रकृतीक्षाति इस्वस्थितिकाल दीपस्थितिकाः करोति मन्दानुभावाश्च तीनानुभावाः करोति अल्पप्रदेशामा बहुप्रदेशामाः करोति, एवंकारी च ७५९॥ नियमात दीर्घकालिकं संसारं नियति, अथवा ज्ञानाचारविराधनायां दर्शनविराधना ज्ञानदर्शनविराधनयोर्नियमाचरणनिराधना, एवं त्रयाणां निराधनषाऽमोक्षा, अमोक्षे नियमान संसारः, समावस्वाध्यायिकेन खध्येयमिति -CASEARC दीप अनुक्रम [२९] L A पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~208~ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [३०] [भाग-३१] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ / ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १४१७] भाष्यं [ २२७...] | होइ सवतारं । तथा चोक्तं समभिसया नक्खते सएगतारे तहेव पण्णत्ते ॥ इय संखअसंखेहिं तहय अणतेहिं ठाणेहिं ॥ ३ ॥ संजममसंजमस्स य पडिसिद्धादिकरणाइयारस्स । होति पडिकमणं तू तेत्तीसेहिं तु ताई पुण ॥ ४ ॥ अवरा| हपदे सुत्तं अंतग्गय होति नियम सबेवि । सब्बो वइयारगणो दुगसंजोगादि जो एस || ५ || एगविहस्सा संजमस्सऽव दीहपज्जवसमूहो। एवऽतियारविसोहिं कार्ड कुणती णमोकारं ॥ ६ ॥ इत्यादि, अथवा प्राक्तनाशुभसेवनायाः प्रतिक्रान्तः अपुनःकारणाय प्रतिक्रामन् नमस्कारपूर्वकं प्रतिक्रमन्नाह नमो चवीसाए तिस्थगराणं उस भादिमहावीरपज्जवसाणा (सूत्रम् ) नमश्चतुर्विंशतितीर्थकरेभ्य ऋषभादिमहावीरपर्यवसानेभ्यः, प्राकृते षष्ठी चतुर्थ्यर्थ एव भवति, तथा चोक"बहुवयणेण दुवयणं विभत्तीऍ भन्नइ चउत्थी । जह हत्था तह पाया नमोऽत्थु देवाहिदेवाणं ॥ १ ॥ इत्थं नमस्कृतस्य प्रस्तुतस्य व्यावर्णनायाह इणमेव निरगंथं पावयणं सचं अणुसरं केवलियं पडिपुण्णं नेआउयं संसुद्धं सलगत्तणं सिद्धिमग्गं मुत्तिमग्गं निव्वाणमग्गं निव्वाणमग्गं अवितहमविसंधिं सव्वदुक्खप्पहीणमग्गं, इत्थं ठिया जीवा सिज्झति बुज्झति मुचंति परिनिव्वायति सव्वदुक्खाणमंत करेंति ( सूत्र ) बहुवचन द्विवचनं पट्टीविभक्त्या भण्यते चतुर्थी यथा दस्ती तथा पादौ नमोऽस्तु देवाधिदेवेयः ॥ १ ॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः अथ निर्ग्रन्थप्रवचनस्य महत्ता वर्णयते ~209~ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४१७...] भाष्यं [२२७...] मणाध्य प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम आवश्यक- 'इदमेवेति सामायिकादि प्रत्याख्यानपर्यन्तं द्वादशाङ्ग वा गणिपिटक, निर्ग्रन्थाः बाह्याभ्यन्तरग्रन्थनिर्गताः साधवः । ४प्रतिकहारिभ निर्ग्रन्थानामिदं नम्रन्थ्यं 'प्रावचन मिति प्रकर्षणाभिविधिनोच्यन्ते जीवादयो यस्मिन् तत्वावचनम् , इदमेव नम्रन्थ्य द्रीया प्रावचनं किमत आह-सतां हितं सत्यं, सन्तो-मुनयो गुणाः पदार्था वा सबूतं वा सत्यमिति, नयदर्शनमपि स्वविषये सत्यं भवत्यत आह-'अणुत्तरंति नास्योत्तरं विद्यत इत्यनुत्तरं, यथावस्थितसमस्तवस्तुप्रतिपादकत्वात् उत्तममित्यर्थः, यदि नामेदमीत्थम्भूतमन्यदप्येवम्भूतं भविष्यतीत्यत आह-केवलियं केवलमद्वितीयं नापरट्र मित्थंभूतमित्यर्थः यदि नामेदमित्थभूतं तथाप्यन्यस्याप्यसंभवादपवर्गप्रापकैर्गुणैः प्रतिपूर्ण न भविष्यतीत्यत । आह-पडिपुन्नति प्रतिपूर्णमपवर्गप्रापकैर्गुणैर्भूतमित्यर्थः, भृतमपि कदाचिदात्मभरितया न तन्नयनशीलं भविप्यतीत्यत आह-'नेयाउयति नयनशीलं नैयायिकं, मोक्षगमकमित्यर्थः, नैयायिकमप्यसंशुद्धं-सकीर्ण नाक्षेपेण नैयायिकं भविष्यति इत्यत आह-संसुद्धं ति सामस्त्येन शुद्धं संशुद्ध, एकान्ताकलङ्कमित्यर्थः, एवंभूतमपि कथञ्चित्तथास्वाभाव्यान्नालंभवति बन्धननिकृन्तनाय (इदमपि तथा) भविष्यतीत्यत आह-सल्लगत्तणं'ति कृन्ततीति कर्त्तनं शल्यानि-मायादीनि तेषां कर्त्तनं, भवनिवन्धनमायादिशल्यच्छेदकमित्यर्थः, परमतनिषेधार्थ त्वाह-A७६०॥ |'सिद्धिमग्गं मुत्तिमगं' सेधनं सिद्धिः-हितार्थप्राप्तिः सिद्धार्गः सिद्धिमार्गः, मोचन मुक्ति:-अहितार्थकर्मविच्युतिस्तस्या मार्गो मुक्तिमार्ग इति, मुकिमार्ग-केवलज्ञानादिहितार्थप्राप्तिद्वारेणाहितकर्मविच्युतिद्वारेण च मोक्षसाधकमिति भावना, अनेन च केवलज्ञानादिविकलाः सकर्मकाच मुक्ता इति दुर्नयनिरासमाह, विप्रतिपत्तिनिरा [३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~210~ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [३१] [भाग-३१] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ / ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], निर्युक्ति: [ १४१७... ] भाष्यं [ २२७...] सार्थमाह- 'निजाणमगं निवाणमग्गं यान्ति तदिति यानं 'कृत्यल्युटो बहुलं' ( पा०३ -३ - ११३ ) इति वचनात् कर्मणि ल्युट् निरुपमं यानं निर्यानं, ईषत्प्राग्भाराख्यं मोक्षपदमित्यर्थः, तस्य मार्गों निर्याणमार्ग इति, निर्याणमार्गः - विशिष्टनिवाणप्राप्तिकारणमित्यर्थः, अनेनानियत सिद्धिक्षेत्रप्रतिपादनपर दुर्णयनिरा समाह, निर्वृतिर्निर्वाण - सकलकर्मक्षयजमात्यन्तिकं सुखमित्यर्थः, निर्वाणस्य मार्गो निर्वाणमार्ग इति, निर्वाणमार्गः परमनिर्वृतिकारणमिति हृदयं, अनेन च निःसुखदुःखा मुक्तात्मान इति प्रतिपादनपरदुर्णयनिरासमाह, निगमयन्नाह इदं च "अवितहमविसंधिं सवदुक्खष्पही णमगं” अवितथं सत्यं अविसन्धि-अव्यवच्छिन्नं, सर्वदा अवरविदेहादिषु भावात्, सर्वदुःखप्रहीणमार्ग - सर्वदुःखप्रहीणो-मोक्षस्तत्कारणमित्यर्थः, साम्प्रतं परार्थकरणद्वारेणास्य चिन्तामणित्वमुपदर्शयन्नाह - "एत्थडि ( इत्थं हि ) या जीवा 'सिज्झति 'त्ति 'अत्र ' नैर्ग्रन्थे प्रवचने स्थिता जीवाः सिध्यन्तीत्यणिमादिसंयमफलं प्राप्नुवन्ति 'बुज्झती 'ति बुध्यन्ते केवलिनो | भवन्ति 'मुचंति' त्ति मुध्यन्ते भवोपग्राहिकर्मणा 'परिनिव्वायंति' त्ति परि--समन्तात् निर्वान्ति, किमुक्तं भवति ?- 'सबदुक्खाणमंतं करिंति त्ति सर्वदुःखानां शारीरमानसभेदानां अन्तं विनाशं कुर्वन्ति - निर्वर्त्तयन्ति । इत्थमभिधायाधुनाऽत्र चिन्तामणिकल्पे कर्ममलप्रक्षालनसलिलौघं श्रद्धानमाविष्कुर्वन्नाह तं धम्मं सदहामि पत्तियामि रोएमि फासेमि अणुपालेमि, तं धम्मं सहहंतो पतिअंतो रोयंतो फासंतो अणुपालतो तस्स धम्मस्स अद्विओमि आराहणाए विरओमि विराहणाए असंजमं परिणामि संजमं उवसंपजामि अवंभं परिआणामि बंभं उवसंपजामि अकप्पं परियाणामि कप्पं उवसंपज्जामि पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः निर्ग्रन्थप्रवचन लक्षण धर्मस्य श्रद्धा, रुचि आदेः कथनं ~211~ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४१७...] भाष्यं [२२७...] हारिभ- सम्मतपत प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यक-अण्णाणं परिआणामि नाणं उवसंपजामि अकिरियं परियाणामि किरियं उपसंपजामि मिच्छत्तं परियाणामिप्रतिक्र सम्मत्तं उवसंपज्जामि अचोहिं परियाणामि योहिं उचसंपज्जामि अमग्गं परियाणामि मग्गं उवसंपज्जामि (सूत्र) Xमणाध्य द्रीया य एष नर्गन्थ्यप्रावचनलक्षणो धर्म उक्तः तं धर्म श्रद्दध्महे (धे) सामान्येनैवमयमिति 'पत्तियामि'त्ति प्रतिप॥७६१॥ द्यामहे (2) प्रीतिकरणद्वारेण 'रोएमित्ति रोचयामि, अभिलाषातिरेकेणासेवनाभिमुखतया, तथा प्रीती रुचिश्च | भिन्ने एव, यतः कचिद्दध्यादौ प्रीतिसद्भावेऽपि न सर्वदा रुचिः, 'फासेमिति स्पृशामि आसेवनाद्वारेणेति 'अणुपालेमि' अनुपालयामि पौनःपुन्यकरणेन 'तं धम्म सद्दहंतो' इत्यादि, तं धर्म अद्दधानः प्रतिपद्यमानः रोचयन् स्पृशन् अनुपालयन् 'तस्स धम्मस्स अम्भुट्टिओमि आराधनाए'त्ति तस्य धर्मस्य प्रागुक्तस्य अभ्युस्थितोऽस्मि आराधनायाम्-आराधनविषये 'विरतोमि विराधनाए'त्ति बिरतोऽस्मि-निवृत्तोऽस्मि विराधनायां-विराधनाविषये, एतदेव भेदेनाह-'असंजमं परियाणामि, संजमं उवसंपज्जामि' असंयम-प्राणातिपातादिरूपं प्रतिजानामीति ज्ञपरिज्ञया विज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया प्रत्याख्यामीत्यर्थः, तथा संयम-प्रागुक्तस्वरूप उपसंपद्यामहे(ये),प्रतिपद्याम(हे)इत्यर्थः, तथा 'अभंपरियाणामि बंभं उवसंपज्जामि' अब्रह्म-वस्त्यनियमलक्षणं विपरीतं ब्रह्म, शेष पूर्ववत् , प्रधानासंयमानत्वाचाब्रह्मणो ७६शा निदानपरिहारार्थमनन्तरमिदमाह, असंयमाङ्गत्वादेवाह-'अकप्पं परियाणामि कप्पं उपसंपज्जामि' अकल्पोऽकृत्यमाख्यायते कल्पस्तु कृत्यं इति, इदानी द्वितीयं बन्धकारणमाश्रित्याह, यत उक्तं च "अस्संजमो य एको अण्णाणं अविरई य दुविह" इत्यादि । 'अण्णाणं परियाणामि नाणं उवसंपज्जामि' अज्ञान सम्यगूज्ञानादन्यत् ज्ञानं तु भगवद्वचनजं, दीप अनुक्रम CACAR [३२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~212~ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४१७...] भाष्यं [२२७...] प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम अज्ञानभेदपरिहरणार्यवाह-'अकिरियं परियाणामि किरियं उवसंपज्जामि' अक्रिया-नास्तिवादः क्रिया सम्यगवादः तृतीयं बन्धकारणमाश्रित्याह-'मिच्छत्तं परियाणामि सम्मत्तं उवसंपजामि' मिथ्यात्वं-पूर्वोक्त सम्यक्त्वमपि,एतदङ्गत्वादेवाहIPI'अबोहिं परियाणामि बोहिं जवसंपज्जामि' अबोधिः-मिथ्यात्वकार्य बोधिस्तु सम्यक्त्वस्येति, इदानीं सामान्येनाह-'अमगं| परियाणामि मग्ग उवसंपज्जामि' अमागों-मिथ्यात्वादिःमार्गस्तु सम्यग्दर्शनादिरिति । इदानी छद्मस्थत्वादशेषशुद्ध्यर्थमाह-18 संभरामिजंचन संभरामिजं पडिकमामिजं च न पडिकमामि तस्स सव्वस्स देवसियस्स अइयारस्स पडिकमामि समणोऽहं संजयविरयपडिहयपचक्खायपावकम्मो अनियाणो दिहिसंपण्णो मायामोसविवजिओ।(सूत्र) १ यत् किञ्चित् स्मरामि यच्च छद्मस्थानाभोगान्नेति, तथा 'जं पडिकमामि जं च न पडिकमामि' यत् प्रतिक्रमामि आभोगादिविदितं यच न प्रतिक्रमामि सूक्ष्ममविदितं, अनेन प्रकारेण यः कश्चिदतिचारः कृतः 'तस्स सबस्स देवसियस्स अतियारस्स पडिकमामि'त्ति कण्ठ्यं, इत्थं प्रतिक्रम्य पुनरकुशलप्रवृत्तिपरिहारायात्मानमालोचयनाह-'समणोऽहं संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मो अणियाणो दिहिसंपन्नो मायामोसविवजिओ'त्ति श्रमणोऽहं तत्रापि न चरकादिः, किं तर्हि ?, संयतः सामस्त्येन यतः इदानी, विरतो-निवृत्तः अतीतस्यैष्यस्य च निन्दासंवरणद्वारेणअत एवाह-प्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा, प्रतिहतम्-इदानीमकरणतया प्रत्याख्यातमतीतं निन्दया एष्यमकरणतयेति, प्रधानोऽयं दोष इतिकृत्वा ततशुन्यतामात्मनो भेदेन प्रतिपादयन्नाह-'अनिदानो' निदानरहितः, सकलगुणमूलभूतगुणयुक्ततां दर्शयनाह-दृष्टिसंपन्नः' सम्यग्दर्शनयुक्त इत्यर्थः । वक्ष्यमाणद्रव्यवन्दनपरिहारायाह-मायामृषाविवर्जकः (विवर्जितः)मायागभमूपा वादपरिहारीत्युक्तं भवति । एवंभूतः सन् कि ACCORESCORE-%E* [३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: अतिचार-प्रतिक्रमण अनन्तर आत्मानां आलोचना ~2134 Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४१७...] भाष्यं [२२७...] प्रत सत्राक आवश्यक अट्ठाइजेसु दीवसमुद्देसु पनरससु कम्मभूमीसु जावंति केइ साडू रपहरणगुच्छपडिग्गहधारा पंचमह-18 प्रतिकहारिभ- Mव्वयधारा । अहारसहस्ससीलंगधारा अक्खयायारचरित्ता ते सब्चे सिरसा मणसा मथएण वंदामि । (सूत्र) मणाध्य. द्रीया अद्धतृतीयेषु द्वीपसमुदेषु-जम्बूद्वीपधातकीखण्डपुष्कराद्धेषु पञ्चदशसु कर्मभूमिषु-पञ्चभरतपश्चरावतपञ्चविदेहा भिधानासु यावन्तः केचन साधवः रजोहरणगुच्छप्रतिग्रहधारिणः, निझवादिव्यवच्छेदायाह-पञ्चमहाव्रतधारिणः, ॥७६२॥ पञ्च महानतानि-प्रतीतानि, अतस्तदेकाङ्गविकलप्रत्येकबुद्धसङ्ग्रहायाह-अष्टादशशीलासहस्रधारिणः, तथाहि केचिद् भगवन्तो रजोहरणादिधारिणो न भवन्त्यपि, तानि चाष्टादशशीलासहस्राणि दयन्ते, तत्रेयं करणगाथा-जोए करणे सना इंदिय भोमाइ समणधम्मे य । सीलंगसहस्साणं अट्ठारसगस्स निष्फत्ती ॥१॥ स्थापना स्वियं इयं भावना-मणेण ण करेइ आहारम० व. का. णक०ण का०ण अ० सण्णाविप्पजढो सोतिदियसंवुडो खंतिसंपन्नो आ० भ० मै० पुढवीकायसंरक्खओ १, मणेण ण करेइ आ-3 सो० च० घा० ० फा हारसण्णाविप्पजढो सोतिदिबसंवुडो खंति- ७१२॥ पु० आ ते० तेच.पं० अ०संपन्नो आउक्कायसंरक्खओ २ एवं तेउ ३ वाउ ख. मा. मु० त० सं० स० सो० आ००४वणस्सति ५ वि०६ ति०७च० ८५०९/R जे नो करिति मणसा निजियाहारसन्नसोइदि पुढबीकायारंभे खंतिजुआ ते मुणि वन्दे ॥१॥ अनुक्रम [३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: १८००० शिलांगरथस्य वर्णनं ~2144 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-२], नियुक्ति : [१४१७...] भाष्यं [२२७...] X454 प्रत सूत्रांक ||१,२|| अजीयेसु दस भेदा, एते खंतिपयं अमुर्यतेण लद्धा । एवं मद्दवादिसु एकेके दस २ लम्भति, एवं सतं, एते सोतिंदियममुर्यतेण लद्धा, एवं चक्खिदियादियेसुवि एकेके सयं २ जाता सता ५००, एतेवि आहारसण्णाऽपरिचायगेण लद्धा, भयादिसपणादिसुवि पत्तेयं २ पंच सया, जाता दो सहस्सा, एते न करेंतित्ति एतेण लद्धा न कारवेदिएतेणवि दो करते णाणुजाणति एतेणवि दो सहस्सा २०००,जाता ६ सहस्सा, एते मणेण लद्धा ६०००,वायाएवि ६०००, काएणवि छत्ति ६०००, जाता अट्ठारसत्ति १८०००। 'अक्षताचारचारित्रिणः' अक्षताचार एव चारित्रं, तान् ‘सर्वान्' गच्छगतनिर्गतभेदान् 'शिरसा' उत्तमाङ्गेन मनसा-अन्तःकरणेन मस्तकेन बन्दत(पन्दे) इति वाचा, इत्थमभिवन्द्य साधून पुनरोपतः सकलसत्त्वक्षामणमैत्रीपदर्शनायाह खामेमि सच जीचे, सब्वे जीवा खमंतु मे । मेत्ती मे सव्वभूएसु, धेरै मज्झं न केणइ ॥१॥ एवमहं आलोइय निन्दिय गरहिय दुगंछियं सम्मं । तिविहेण पडिकलो वंदामि जिणे चउवीसं ॥२॥ (सत्रा निगदसिद्धा एवेयं, सबे जीवा खमंतु मेत्ति, मा तेषामध्यक्षान्तिप्रत्ययः कर्मवन्धो भवत्विति करुणयेदमाह । समाप्ती स्वरूपप्रदर्शनपुरःसरं मङ्गलगाहा-एवेत्यादि निगदसिद्धा, एवं दैवसिकं प्रतिक्रमणमुक्त, रात्रिकमप्येवम्भूतमेव, नवरं यत्रव देवसिकातिचारोऽभिहितस्तत्र रात्रिकातिचारो वक्तव्यः । आह-यद्येवं 'इच्छामि पडिक्कमिडं गोयरचरियाए' इत्यादि सूत्रमनर्थक, रात्रावस्य असंभवादिति, उच्यते, स्वमादौ संभवादित्यदोषः । इत्युक्तोऽनुगमः, नयाः प्राग्वत् ॥ इत्याचार्यश्रीमद्धरिभद्रसूरिशकविहितायां आवश्यकवृत्तौ शिष्यहितायां प्रतिक्रमणाध्ययनं समाप्तं ॥ दीप अनुक्रम [३५,३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: अत्र अध्ययनं -४- 'प्रतिक्रमणं' परिसमाप्तं ~215 Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [-] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४१८] भाष्यं [२२७...] प्रत सत्राक दीप अनुक्रम [३६..] अथ कायोत्सर्गाध्ययनं व्याख्यात प्रतिक्रमणाध्ययनमधुना कायोत्सर्गाध्ययनमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-अनन्तराध्ययने वन्दनाद्यकरणादिना स्खलितस्य निन्दा प्रतिपादिता, इह तु स्खलितविशेषतोऽपराधमणविशेषसंभवादेतावताऽशुद्धस्य सतः प्रायश्चित्तभेषजेनापराधवणचिकित्सा प्रतिपाद्यते, यद्वा प्रतिक्रमणाध्ययने मिथ्यात्वादिप्रतिक्रमणद्वारेण कर्मनिदानप्रतिषेधः प्रतिपादितः, यथोक्तं-'मिच्छत्तपडिक्कमण' मित्यादि, इह तु कायोत्सर्गकरणतः प्रागुपात्तकर्मक्षयः प्रतिपाद्यते, वश्यते | च-"जह करगओ निकैतइ दारु जंतो पुणोऽवि वच्चंतो । इय किंतति सुविहिया काउस्सग्गेण कम्माई ॥१॥ काउस्सग्गे जह सुटियस्स भजति अंगमंगाई । इय मिदंति सुविहिया अडविहं कम्मसंघायं ॥ २॥" इत्यादि, अथवा सामायिके चारित्रमुपवर्णितं, चतुविशतिस्तवे त्वर्हता गुणस्तुतिः, सा च ज्ञानदर्शनरूपा, एवमिदं त्रितयमुक्तं, अस्य च वितथासेवनमैहिकामुष्मिकापायपरिजिहीर्पणा गुरोनिवेदनीय, तच्च वन्दनपूर्वकमित्यतस्तन्निरूपित, निवेद्य च भूयः शुभे वेव स्थानेषु प्रतीपं कमणमासेवनीयमित्यनन्तराध्ययने तन्निरूपित, इह तु तथाप्यशुद्धस्थापरापत्रणचिकित्सा प्रायश्चित्त-1 भेषजात् प्रतिपाद्यते, तत्र प्रायश्चित्तभैषजमेव तावद्विचित्रं प्रतिपादयन्नाह आलोयण पडिक्कमणे मीस विचेगे तहा बिउस्सग्गे । तब छेय मूल अणवठ्ठया य पारंचिए चेव ॥१४१८॥ _ 'आलोयणे'ति आलोचना प्रयोजनतो हस्त शताद् बहिर्गमनागमनादी गुरोबिकटना, 'पडिकमणे'त्ति प्रतीपं क्रमण यथा काचो निकृन्तति दारु यान पुनरपि नजन् । एवं कृन्तन्ति मुविहिताः कायोत्सर्गेण कर्माणि कायोत्सने यथा सुस्थितख भज्यन्ते अङ्गो. | पाहानि । एवं भिन्दन्ति सुविहिता अपविध कर्मसंघातम् ॥२॥ JanEaira पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: • अत्र अध्ययनं -4- 'कायोत्सर्ग' आरभ्यते प्रायश्चित्तस्य दशविधत्वं प्रकाश्यते ~216 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [--] दीप अनुक्रम [३६..] आवश्यकहारिभ द्रीया ॥७६४॥ [भाग-३१] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १/४ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [५], मूलं [-] / [गाथा-], निर्युक्तिः [१४१८] भाष्यं [२२७...] प्रतिक्रमणं, सहसाऽसमितादौ मिथ्यादुष्कृतकरणमित्यर्थः, 'मीस' ति मिश्र शब्दादिषु रागादिकरणे, विकटना मिथ्यादुष्कृतं चेत्यर्थः, 'विवेगे'त्ति विवेकः अनेपणीयस्य भक्तादेः कथञ्चित् गृहीतस्य परित्याग इत्यर्थः तथा 'विउस्सग्गे'त्ति तथा व्युत्सर्गः कुस्वमादौ कायोत्सर्ग इति भावना, 'तवेत्ति कर्म तापयतीति तपः पृथिव्यादिसंघट्टनादी निथिंग (कृ) तिकादि, 'छेदे 'ति तपसा दुर्दमस्य श्रमणपर्यायच्छेदनमिति हृदयं, 'मूल'त्ति प्राणातिपातादौ पुनर्ब्रतारोपणमित्यर्थः, 'अणवझ्या य'त्ति हस्ततालादिप्रदानदोषात् दुष्टतरपरिणामत्वाद् व्रतेषु नावस्थाप्यते इत्यनवस्थाप्यः तद्भावोऽनवस्थाप्यता, 'पारंचिए चेव'ति पुरुषविशेषस्य स्वलिङ्गराजपत्याद्यासेवनायां पारक्षिकं भवति, पारं प्रायश्चित्तान्तमञ्चति गच्छतीति पारचिकं, न तत ऊर्द्ध प्रायश्चित्तमस्तीति गाथार्थः ॥ १४१८ ॥ एवं प्रायश्चित्तभैषजमुक्तं, साम्प्रतं व्रणः प्रतिपाद्यते, स च द्विभेदः - द्रव्यत्रणो भावत्रणश्च द्रव्यन्त्रणः शरीरक्षतलक्षणः, असावपि द्विविध एव, तथा चाह दुविहो कार्यमि वणो तदुब्भवागंतुओ अ णायव्वो । आगंतुयस्स कारइ समुद्धरणं न इयरस्स ॥ १४१९ ॥ तणुओ अतिक्खतुंडो असोणिओ केवलं तर लग्गो । अवउज्झत्ति सल्लो सल्लो न मलिजइ वणो उ ।। १४२० ।। लग्गुद्धियंमि बीए मलिज्जइ परं अदूरगे सल्ले । उद्धरणमलणपूरण दूरयरगए तइयगंमि ।। १४२१ । मा वेअणा उ तो उद्धरित गालंति सोणिय चउत्थे । रुज्झइ लहुंति चिट्ठा वारिजइ पंचमे वणिणो || १४२२ ।। | रोहेर वर्ण छहे हियमियभोई अभुंजमाणो वा । तित्तिअमित्तं छिजह सत्तमए पूइसाई || १४२३ ।। तहविय अठायमाणो गोणसखइयाइ रुपए वावि । कीरह तयंगछेओ सभट्ठिओ सेसरक्खडा || १४२४ ॥ For Fans Only ५ कायोसर्गाध्ययनं कायनिक्षेपः ~217~ ॥७६४॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः 'व्रणस्य भेद-प्रभेदानां कथनं Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं - [गाथा-], नियुक्ति: [१४२४] भाष्यं [२२७...], प्रक्षेप [१] प्रत सत्राक दीप अनुक्रम [३६..] ROCRACCORDCk2CRACK मूलुत्तरगुणरूवस्स ताइणो परमचरणपुरिसस्स । अवराहसल्लपभवो भाववणो होइ नायवो ॥१॥ (प.)। भिक्खायरियाइ सुज्झइ अइआरो कोइ बियडणाए उाधीओ असमिओमित्ति कीस सहसा अगुत्तो वा ॥१४२५ सहाइएसु राग दोसं च मणा गओ तइयगंमि । नाउँ अणेसणिज भत्ताइबिगिचण चउत्थे ॥ १४२६ ॥ उस्सग्गेणवि सुज्झइ अइआरो कोइ कोइ उ तवेणं । तेणवि असुज्झमाणं छेयविसेसा विसोहिंति ॥ १४२७ ।। द्विविधो-द्विप्रकारः 'कायमि वणो'त्ति चीयत इति काय:-शरीरमित्यर्थः तस्मिन् व्रणः-क्षतलक्षणः, द्वैविध्यं दर्शयतितस्मादुद्भवोऽस्येति तदुद्धयो-गण्डादिः आगन्तुकश्च ज्ञातव्यः, आगन्तुकः कण्टकादिप्रभवः, तत्रागन्तुकस्य क्रियते शल्यो|द्धरणं नेतरस्य-तदुद्भवस्येति गाथार्थः॥ ययस्य यथोद्रियते-उत्तरपरिकर्म क्रियते द्रव्य व्रण एव तदेतदभिधित्सुराह-तणुओ[8 अतिक्खतुंडो' इति तनुरेव तनुकं कृशमित्यर्थः, न तीक्ष्णतुण्डमतीक्ष्णमुखमिति भावना, नास्मिन् शोणितं विद्यत इत्यशोणितं | केवलं नवरं त्वगूलग्नं, उद्धृत्य 'अवउज्झत्ति सल्लो त्ति परित्यज्यते शल्यं प्राकृतशैल्या तु पुल्लिङ्गनिर्देशः, 'सलो न मलिज्जा |वणो य' न च मृद्यते प्रणः, अल्पत्वात् शस्यस्येति गाथार्थः॥ प्रथमशल्यजे अयं विधिः, द्वितीयादिशल्यजे पुनरयं-'लग्गु-18 |द्धियमि' लममुबूत लग्नोतं तस्मिन् द्वितीये कस्मिन् ?-अदूरगते शल्य इति योग, मनाग दृढलन इति भावना, अत्र 'मलिज्जइ परं'ति मृद्यते यदि परं व्रण इति उद्धरणं शल्यस्य, मर्दनं प्रणस्य, पूरणं कर्णमलादिना तस्यैवैतानि क्रियन्ते दूरगते तृतीये शल्य इति गाथार्थः ॥'मा वेयणा उ तो उद्धरेत्तु गालति सोणिय च उत्थे । रुज्झाउ लहुंति चिट्ठा वारिज्जई। इति मा वेदना भविष्यतीति तत उद्धृत्य शल्यं गालयन्ति शोणितं चतुर्थे शल्य इति, तथा रुह्यतां शीघमिति चेष्टा-परि JAMEain पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~218~ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं ] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४२७] भाष्यं [२२७...], प्रत CAKAC+ सत्राक आवश्यक-15| स्पन्दनादिलक्षणा वार्यते-निषिध्यते, पामे शल्ये उद्धृते व्रणोऽस्यास्तीति व्रणी तस्य प्रणिनः रौद्रतरत्वाच्छल्यस्येति गाथार्थः॥ ५कायोरोहेइ वणं छठे' इति रोहयति व्रणं षष्ठे शल्ये उद्धृते सति हितमितभोजी हितं-पध्र्य मितं-स्तोकं अभुञ्जन्वेति, याव तत्सगोध्यय नं कायनिद्रीया च्छल्येन दूषितं 'तत्तियमित्तंति तावन्मात्र छिद्यते, सप्तमे शल्य उद्धृते किं-पूतिमांसादीति गाथार्थः ।। 'तहविय अठा क्षेपः येति तथापि च 'अट्ठायमाणे त्ति अतिष्ठति सति विसर्पतीत्यर्थः, गोनसभक्षितादी रक(रुम्फ)कैवापि क्रियते, तदङ्गछेदः ७६५॥ दिसहास्थिकः, शेपरक्षार्थमिति गाधार्थः ॥ एवं तावद् द्रव्यत्रणस्तञ्चिकिरसा च प्रतिपादिता, अधुना भावत्रणः प्रतिपाद्यते ___ 'मुलूत्तरगुणरूवस्स' गाहा,इयमन्यकर्तृकी सोपयोगा चेति व्याख्यायते, मूलगुणा:-प्राणातिपातादिविरमणलक्षणाः पिण्डविशुद्ध्यादयस्तु उत्तरगुणाः, एते एव रूपं यस्य स मूलगुणोत्तरगुणरूपस्तस्य, तायिनः, परमश्वासौ चरणपुरुपश्चेति समासः तस्य अपराधा:-गोचरादिगोचराः त एव शल्यानि तेभ्यः प्रभवः-सम्भवो यस्य स तथाविधः भावत्रणो भवति ज्ञातव्य इति गाधार्थः ॥ साम्प्रतमस्यानेकभेदभिन्नस्य भावत्रणस्य विचित्रप्रायश्चित्तभैषजेन चिकित्सा प्रतिपाद्यते, तत्र| "भिक्खायरियाई' भिक्षाचर्यादिः शुध्यत्यतिचारः कश्चिद्विकटनयैव-आलोचनयैवेत्यर्थः, आदिशब्दाद् विचारभूम्यादिगमनजो गृह्यते, इह चातिचार एवं व्रणः २, एवं सर्वत्र योज्यं, 'वितिज'त्ति द्वितीयो प्रणः अप्रत्युपेक्षिते खेलविवेकादी-18 हा असमितोऽस्मीति सहसा अगुप्तो वा मिथ्यादुष्कृतमिति विचिकित्सेत्ययं गाथार्थः ॥ 'शब्दादिषु इष्टानिष्टेषु राग द्वेषं वा ACC७६५॥ मनसा(मनाक) गतः अत्र 'तइओ' तृतीयो व्रणः मिश्रभैषज्यचिकित्स्यः, आलोचनाप्रतिक्रमणशोध्य इत्या, ज्ञात्वा अनेषणीयं भक्तादि विगिश्चना चतुर्थ इति गाथार्थः ॥ 'उस्सग्गेणवि सुज्झइ' कायोत्सर्गेणापि शुद्ध्यति अतिचारः कश्चित् , कश्चित् दीप अनुक्रम [३६..] टर JanEaiKI पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~219~ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं ] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४२७] भाष्यं [२२७...], प्रत सत्राक दीप अनुक्रम [३६..] AASANKRAKACHAKA तपसा पृथिव्यादिसंघटनादिजन्यो निविंगतिकादिना पण्मासान्तेन, तेनाप्यशुद्ध्यमानस्तथाभूतं गुरुतरं छेदविशेषा विशोधयन्तीति गाथार्थः ॥ १४१९-१४२७ ।। एवं सप्त प्रकारभावव्रणचिकित्सापि प्रदर्शिता, मूलादीनि तु विषयनिरूपजाणद्वारेण स्वस्थानादवसेयानि, नेह वितन्यन्ते, इत्युक्तमानुषङ्गिक, प्रस्तुत प्रस्तुमः-वमनेनानेकस्वरूपेण-सम्बन्धेनायातस्य | कायोत्सर्गाध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि सप्रपञ्चानि वक्तव्यानि, तत्र नामनिष्पन्ने निक्षेपे कायोत्सर्गाध्ययनमिति *कायोत्सर्गः अध्ययनं च, तत्र कायोत्सर्गमधिकृत्य द्वारगाथामा नियुक्तिकार: निक्खेवे १ गह२विहाणमग्गणा ३ काल ४ मेयपरिमाणे ५। असद ६ सढे ७ विहि ८ दोसा ९ कस्सत्ति १० फलं च ११ दाराई ॥१४२८ ।। 'निक्खेवेगढविहाण' निक्खेवेति कायोत्सर्गस्य नामादिलक्षणो निक्षेपः कार्यः 'एगढ'त्ति एकाधिकानि वक्तव्यानि 'विहाणमग्गण' त्ति विधानं भेदोऽभिधीयते भेदमार्गणा कार्या 'कालभेदपरिमाणे त्ति कालपरिमाणमभिभवकायोत्सर्गादीनां वक्तव्यं, भेदपरिमाणमुत्सृतादिकायोत्सर्गभेदानां वक्तव्यं यावन्तस्त इति, 'असढसढे'त्ति अशठः शठश्च कायोत्सर्गकत्ता त वक्तव्यः विहित्ति कायोत्सर्गकरणविधिर्वाच्यः 'दोस'त्ति कायोत्सर्गदोपा वक्तव्याः 'कस्सत्ति' कस्य कायोत्सर्ग इति वक्तव्यं 'फल'त्ति ऐहिकामुष्मिकभेदं फलं वक्तव्यं 'दाराईति एतावन्ति द्वाराणीति गाथासमासार्थः॥ १४२८ ॥ व्यासाथै | तु प्रतिद्वार भाष्यकृदेवाभिधास्यति । तत्र कायस्योत्सर्गः कायोत्सर्ग इति द्विपदं नामेतिकृत्वा कायस्य उत्सर्गस्य च निक्षेपः कार्य इति । तथा चाह भाष्यकार: DMoraryam पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: | कायोत्सर्गम् अधिकृत्य निक्षेप आदि ११ द्वाराणि वर्णयते ~220 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [--] दीप अनुक्रम [३६..] आवश्यक हारिभद्रीया ।।७६६ ॥ Jus Education [भाग-३१] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १/४ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [५], मूलं [-] / [गाथा-], निर्युक्तिः [१४२८] भाष्यं [२२८], काए उस्सग्गंमि य निक्खेवे हुति दुन्नि उ विगप्पा एएसिं दुहंपी पत्तेय परूवणं बुच्छं ॥ २२८ ॥ भा० ) ।। 'काए उस्सम्गंमि य' काये कायविषयः उत्सर्गे च - उत्सर्गविषयश्च एवं निक्षेपे-निक्षेपविषयौ भवतः द्वौ एव विकल्पौद्वावेव भेदौ, अनयोर्द्वयोरपि कायोत्सर्गविकल्पयोः प्रत्येकं प्ररूपणां वक्ष्य इति गाथार्थः ॥ २२८ ॥ arrer उनिक्खेवो वारसओ छकओ अ उस्सगे । एएसिं तु पयाणं पत्तेय परूवणं कुच्छं ।। १४२९ ।। नामं ठवर्णसरीरे गई निकायत्थिकार्य दविएँ य । माउय संगह पजवें मारे तह भावकीए य ॥ १४३० ॥ काओ कस्सह नाम कीरह देहोवि बुचई काओ । कायमणिओवि वुञ्चइ बद्धमवि निकायमाहं ॥ १४३१ ॥ अक्खे वराडए वा कट्ठे पुत्थे य चित्तकम्मे थे । सम्भावमसम्भावं ठेवणाकायं वियाणाहि || १४३२ || लिप्पगहत्थी हत्थित्ति एस सम्भाविया भवे ठवणा । होइ असम्भावे पुण हस्थित्ति निरागिई अक्खो ॥१४३३॥ ओरालियवेडब्बिय आहारगतेयकम्मए चेव । एसो पंचविहो खलु सरीरकाओ मुणेयो || १४३४ ॥ उवि गई देहो नेरइयाईण जो स गइकाओ । एसो सरीरकाओ विसेसणा होइ गइकाओ || १|| ( प्र० ) । जेणुवगहिओ बच्चइ भवंतरं जचिरेण कालेण । एसो खलु गइकाओ सतेयगं कम्मगसरीरं ।। १४३५ ॥ निययमहिओ व काओ जीवनिकाओ निकायकाओ य । अस्थित्तिबहुपएसा तेणं पंचत्थिकाया उ ।। १४३६ ।। जं तु पुरक्खड भावं दद्वियं पच्छाकडं व भावाओ । तं होइ दव्वदद्वियं जह भविओ दव्वदेवाई ॥ २२९॥ ( भा० ) जइ अस्थिकाय भावो अपएसो हुज अस्थिकायाणं । पच्छाकडुव्व तो ते हविज दव्वत्थिकाया व ॥ २३०॥ (भा०) || For Parts Only ५ काबोत्सर्गाध्ययनं कायनिक्षेपः ~ 221 ~ ।।७६६।। bay.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [-] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४३७] भाष्यं [२३०], प्रत सत्राक तीयमणागयभाव जमस्थिकायाण नस्थि अस्थित्तं । तेन र केवलएK नत्थी व्वस्थिकापतं ॥ १४३७ ।।। कामं भवियसुराइसु भावो सो चेव जस्ध वहति । एस्सो न ताव जायइ तेन र ते दव्यदेवुसि ॥ १४३८ ॥1 दुहओऽणंतररहिया जइ एवं तो 'भवा अणंतगुणा । एगस्स एगकाले भवा न जुज्जति उ अणेगा ॥१४३९॥ दुहओऽणंतरभवियं जह चिट्टइ आउअं तु जं बई । हुन्जियरेसुवि जइ तं दब्वभवा हुज्ज तो तेऽवि ॥ १४४०॥ संझासु दोसु सूरो अदिस्समाणोऽवि पप्प समईयं । जह ओभासह खित्तं तहेव एयंपि नायब्वं ॥१४४१॥ माउयपयंति नेयं नवरं अन्नोवि जो पयसमूहो । सो पयकाओ भन्नइ जे एगपए बहू अस्था २३१॥ (भा०) संगहकाओऽणेगावि जत्थ एगवयण घिप्पंति । जह सालिगामसेणा जाओ वसही (ति) निविट्टत्ति ॥१४४२॥ भापजवकाओ पुण हुँति पजवा जस्थ पिंटिया बहवे । परमाणुंमिविकमिवि जह बनाई अर्णतगुणा ॥ १४४३ ॥2 एगो काओ दुहाजाओ एगो चिट्ठइ एगो मारिओ।जीवंतो अमएण मारिओतं लवमाणव! केण हेउणा ॥१४४४॥ दुगलिग चउरो पंच व भावा यहुआ व जत्थ वहति । सो होइ भावकाओ जीवमजीवे विभासा उ॥१४४५ ॥ काए सरीर देहे बुंदी य चय उवचए य संघाए । उस्सय समुस्सए वा कलेवरे भत्थ तण पाणू ॥१४४६॥10 तत्र 'कायस्स उ निक्खेवो' कायस्य तु निक्षेपः कार्य इति 'वारस'त्ति द्वादशप्रकारः । 'छक्कओ य उस्सग्गे' षट्कश्चोत्सर्गविषयः षट्प्रकार इत्यर्थः, पश्चार्द्ध निगदसिद्धं तत्र कायनिक्षेपप्रतिपादनायाह-नाम ठवणा' नामकायः स्थापनाकायः शरीरकायः गतिकायः निकायकायः अस्तिकायः द्रव्यकायश्च मातृकायः संग्रहकायः पर्यायकायः भार दीप अनुक्रम [३६..] JAMEairau natorary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~222 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [--] दीप अनुक्रम [३६.. ] आवश्यकहारिभद्रीया ॥७६७॥ [भाग-३१] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ / ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [५], मूलं [-] / [गाथा-], निर्युक्ति: [ ९४४६ ] भाष्यं [२३१], कायः तथा भावकायश्चेति गाथासमासार्थः ॥ व्यासार्थं तु प्रतिद्वारमेव व्याख्यास्यामः, तत्र नामकायप्रतिपादनायाह'काओ कस्सवि'त्ति कायः कस्यचित् पदार्थस्य सचेतनाचेतनस्य वा नाम क्रियते स नामकायः, नामाश्रित्य कायो नामकायः, तथा देहोऽपि शरीरसमुच्छ्रयोऽपि उच्यते कायः, तथा काचमणिरपि कायो भण्यते, प्राकृते तु कायः । तथा बद्धमपि किचिलेखादि "निकायमाहंसु'त्ति निकाचितमाख्यातवन्तः, प्राकृतशैल्या निकायेति गाथार्थः, गतं नामद्वारं, अधुना स्थापनाद्वारं व्याख्यायते - 'अक्खे वराडए' अक्षे- चन्दनके वराटके वा - कपर्दके वा काष्ठे-कुट्टिमे पुस्ते वावस्त्रकृते चित्रकर्मणि वा प्रतीते, किमित्याह-सतो भावः सद्भावः तथ्य इत्यर्थः तमाश्रित्य तथा असतोभावः असद्द्भावः अतथ्य इत्यर्थः तं चाश्रित्य किं ? - स्थापनाकायं विजानाहीति गाथार्थ ॥ १४३१ || सामान्येन सद्भावासद्भावस्थापनो|दाहरणमाह-'लेप्पगहत्थी' यदिह लेप्यकहस्ती हस्तीति स्थापनायां निवेश्यते 'एस सम्भाविया भवे ठेवणत्ति एषा सद्भाव स्थापना भवतीति, भवत्यसद्भावे पुनहस्तीति निराकृतिः - हस्त्या कृतिशून्य एव चतुरङ्गादाविति । तदेवं स्थापनाकायोऽपि भावनीय इति गाथार्थः ।। १४३२ ॥ शरीरकायप्रतिपादनायाह - 'ओरालियवेडश्चिय' उदारैः पुद्गलैर्निर्वृत्तमोदारिकं विविधा क्रिया विक्रिया तस्यां भवं वैक्रियं प्रयोजनार्थिना आहियत इत्याहारकं तेजोमयं तैजसं कर्मणा निर्वृत्तं कार्म्मणं, औदारिकं वैक्रियं आहारकं तैजसं कार्मणं चैव एप पञ्चविधः खलु शीर्यन्त इति शरीराणि शरीराण्येव पुद्गलसङ्घातरूपत्वात् कायः शरीरकायः विज्ञातव्य इति गाथार्थः ॥ गतिकायप्रतिपादनायाह'सुवि गइ इयमप्यन्यकर्तृकी गाथा सोपयोगेति च व्याख्यायते - चतसृष्वपि गतिषु - नारकतिर्यगूनरामरलक्षणासु For Parts at Use Only ५. कायोत्सर्गाध्ययनं कायनि क्षेपः ~ 223 ~ ॥७६७॥ pbyg पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं ] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४४६] भाष्यं [२३१], प्रत सत्राक SACROCHARX देहोत्ति शरीरसमुच्छ्रयो नारकादीनां यः स गतौ काय इतिकृत्वा गतिकायो भण्यते, अत्रान्तरे आह चोदकः- एसो हसरीरकाउति नन्वेष शरीरकाय उक्तः, तथाहि-नौदारिकादिव्यतिरिक्ता नारकतिर्यगादिदेहा इति, आचार्य आह-'विसे | |सणा होति गतिकाओ'विशेषणादू-विशेषणसामाद् भवति गतिकायः, विशेषणं चात्र गतौ कायो गतिकायः, यथा द्विवि-1d धाः संसारिणः-त्रसाः स्थावराश्च, पुनस्त एव स्त्रीपुंनपुंसकविशेषेण भिद्यन्त इत्येवमनापीति गाथार्थः। अथवा सर्वसत्त्वानामपान्तरालगतौ यः कायः स गतिकायो भण्यते, तथा चाह-'जेणुवगहिओ' येनोपगृहीत-उपकृतो व्रजति-गच्छति भवादन्यो भवः भवान्तरं तत् , एतदुक्तं भवति-मनुष्यादिमनुष्यभवात् च्युतः येनाश्रयेणा(श्रितोs)पान्तराले देवादिभवं गच्छति स ग|तिकायोभण्यते, तं कालमानतो दर्शयति-यच्चिरेण 'कालेण'ति सच यावता कालेन समयादिना व्रजति तावन्तमेव कालमसौं| गतिकायोभण्यते एष खलु गतिकायः, स्वरूपेणैव दर्शयन्नाह-'सतेयर्गकम्मगसरीरं' कार्मणस्य प्राधान्यात् सह तैजसेन वर्तत इति सतैजसं कार्मणशरीरं गतिकायस्त दाश्रयेणापान्तरालगतौ जीवगतेरिति भावनी(यम)यं गाधार्थः।। निकायकायः प्रतिपाद्यते तत्र-निययत्ति गाथार्द्ध व्याख्यायते 'निययमहिओ व काओ जीवनिकाय'त्ति नियतो-नित्यः कायो निकायः, नित्यता चास्य विष्वपि काले पुभावात् अधिको वा कायो निकायः, यथा अधिको दाहो निदाह इति, आधिक्य चास्य धर्माधर्मास्ति-I कायापेक्षया स्वभेदापेक्षया वा,तथाहि-एकादयो यावदसोयाः पृथिवीकायिकास्तावत् कायस्त एव स्वजातीयान्यप्रक्षेपापेक्षया निकाय इति,एवमन्येष्वपि विभाषेत्येवं जीवनिकायसामान्येन निकायकायोभण्यते,अथवा जीवनिकायः पृथिव्यादिभेदभिन्न: पविधोऽपि निकायो भण्यते तत्समुदायः, एवं च निकायकाय इति, गतं निकायकायद्वारं। अधुनाऽस्तिकाया प्रतिपाद्यते, दीप अनुक्रम [३६..] %-- 8 %A 4 K iraryom पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~224 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं I [गाथा-], नियुक्ति: [१४४६] भाष्यं [२३१], प्रत सत्राक आवश्यक- तत्रेदं गाथाशकलं 'अस्थित्तिबहुपदसा तेणं पंचत्थिकाया उ' अस्तीत्ययं त्रिकालवचनो निपातः, अभूवन् भवन्ति ५ कायोहारिभ- भविष्यन्ति चेति भावना, बहुप्रदेशास्तु यतस्तेन पञ्चैवास्तिकायाः तुशब्दस्यावधारणार्थत्वान्न न्यूना नाप्यधिका इति, अनेन त्सगोध्ययद्रीया च धर्माधर्माकाशानामेकद्रव्यत्वादस्तिकायत्वानुपपत्तिरद्धासमयस्य च ए (अनेकत्वादस्तिकायत्वापत्तिरित्येतत् परिहृतमवग- न धन्तव्यं, ते चामी पञ्च, तद्यथा-धर्मास्तिकायोऽधर्मास्तिकायः आकाशास्तिकायः जीवास्तिकायः बुद्गलास्तिकायश्चेत्यस्ति॥७६८॥ काया इति हृदयमयं गाथार्थः ॥ साम्प्रतं द्रव्यकायावसरस्ततस्तत्प्रतिपादनायाह| जं तु पुरक्खड'त्ति यद् द्रव्यमिति योगः तुशब्दो विशेषणार्थः किं विशिनष्टि ?-जीवपुद्गलद्रव्यं, न धर्मास्तिकायादि, सततचैतदुक्तं भवति यद् द्रव्य-यद् वस्तु पुरस्कृतभावमिति-पुर:-अग्रतः कृतो भावो येनेति समासः, भाविनो भावस्य योग्यमभिमुखमित्यर्थः। 'पच्छाकडं व भावाओ'त्ति घाशब्दस्य व्यवहितः सम्बन्धः, ततश्चैवं प्रयोगः पश्चात्कृतभावं, वाशब्दो विकल्पवचनः पश्चात् कृतः प्रायोज्झितो भावः-पर्यायविशेषलक्षणो येन स तथोच्यते, एतदुक्तं भवति-यस्मिन् भावे वर्तते से द्रव्यं ततो यः पूर्वमासीद् भावः तस्मादपेतं पश्चात्कृतभावमुच्यते, 'तं होति दबदवियं तदित्थंभूतं द्विप्रकारमपि भाविनो| भूतस्य च भावस्य योग्यं 'दई ति वस्तु वस्तुवचनो ह्येको द्रव्यशब्दः, किं?-भवति द्रव्यं, भवतिशब्दस्य व्यवहितः सम्बन्धः, इत्थं द्रव्यलक्षणमभिधायाधुनोदाहरणमाह-'जह भविओ दवदेवादि' यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः भन्यो-योग्यः द्रव्यदेवा ७६८॥ दिरिति, श्यमत्र भावना-यो हि पुरूपादिम॒त्वा देवत्वं प्राप्स्यति बद्धायुष्कः अभिमुखनामगोत्रो वा स योग्यत्वाद् द्रव्य-18 देवोऽभिधीयते, एवमनुभूतदेवभावोऽपि, आदिशब्दादू द्रव्यनारकादिग्रहः परमाणुग्रहश्च, तथाहि-असावपि व्यणुकादि INKS- दीप अनुक्रम [३६..] SERIES JABERatinik पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~225 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं ] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४४६] भाष्यं [२३१], प्रत सत्राक _ काययोग्यो भवत्येव, ततश्चेत्थंभूतं द्रव्यं कायो भण्यत इति गाथार्थः ॥१४२६ ॥ आह-किमिति तुशब्दविशेषणाजीवपुदगल द्रव्यमहरीकृत्य धर्मास्तिकायादीनामिह व्यवच्छेदः कृत इति ?, अत्रोच्यते, तेषां यथोक्तप्रकारद्रव्यलक्षणायोगात्, सर्वदेवास्तिकायत्वलक्षणभावोपेतत्वाद् , आह च भाष्यकार:-'जइ अस्थिकायभावो' यद्यस्तिकाय भावः अस्तिकायत्वलक्षणः, 'इय एसो होज अस्थिकायाणं' 'इय' एवं यथा जीवपुद्गलद्रव्ये विशिष्टपर्याय इति जाएष्यन्-आगामी भवेत, केषाम् !-अस्तिकायानां-धर्मास्तिकायादीनामिति, व्याख्याना विशेषप्रतिपत्तिः, तथा पश्चात्कृतो वा यदि भवेत् 'तो ते हविज दबस्थिकाय'त्ति ततस्ते भवेयुरिति द्रव्यास्तिकाया इति गाथार्थः यतश्च'तीयमणागय' अतीतम्-अतिक्रान्तमनागतं भावं यद्-यस्मात् कारणादस्तिकायानां-धर्मास्तिकायादीनां नास्ति-न विद्यते अस्तित्व-विद्यमानत्वं, कायत्वापेक्षया सदैव योगादिति हृदयं, 'तेण रत्ति तेन किल केवलं-शुद्धं 'तेषु' धर्मास्तिकायादिषु नास्ति-न विद्यते, किं ?-'दबस्थिकाय'त्ति द्रव्यास्तिकायत्वं, सदैव तद्भावयोगादिति गाथार्थः ॥ १४३७ ॥ आह-यद्येवं द्रव्यदेवायुदाहरणोक्तमपि द्रव्यं न प्राप्नोति, सदैव सद्भावयोगात्, तथाहि-स एव तस्य भावो यस्मिन् वर्तते इति । अत्र गुरुराह-कामं भवियसुरादि' काममित्य नुमतं यथा भवियसुरादिषु' भव्याश्च ते सुरादयश्चेति विग्रहः आदिशब्दात द्रव्यना" रकादिग्रहः तेषु-तद्विषये विचारे भावः स एव यत्र वर्तते तदानीं मनुष्यादिभाव इनि, किंतु एष्यो-भावी न तावजायते तदा, 'तेण र ते दवदेव'त्ति तेन ते किल द्रव्यदेवा इति, योग्यत्वाद्, योग्यस्य च द्रव्यत्वात् ,न चैतद् धर्मास्तिकायादीनामस्ति, एष्यकालेऽपि तद्भावयुक्तत्वादेवेति गाथार्थः।।१४३८॥यथोक्तं द्रव्यलक्षणमवगम्य तद्भावेऽतिप्रसाच मनस्याधा दीप अनुक्रम [३६..] मा.१२९| पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~226 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [--] दीप अनुक्रम [३६.. ] आवश्यकहारिभद्रीया ॥७६९॥ Education [भाग-३१] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १/४ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [५], मूलं [-] / [गाथा-], निर्युक्तिः [१४४६] भाष्यं [२३१], याह चोदकः -- 'दुहओऽणंतररहिया "दुहड'त्ति वर्त्तमानभावस्थितस्य उभयत एण्यकालेऽती तकाले च 'अणंतररहिय'त्ति अन न्तरौ एष्यातीती अनन्तरौ च तौ रहितौ च वर्त्तमानभवभावेनेति प्रकरणाद् गम्यते अनन्तररहितौ तावपि 'जइ'त्ति यदि तस्योच्यते 'एवं तो भवा अनंतगुण'त्ति एवं सति ततो भवा अनन्तगुणाः, तद्भवद्वयव्यतिरिक्ता वर्तमानभवभावेन रहिता एप्या अतिक्रान्ताश्च तेऽप्युपयेरंस्ततश्च तदपेक्षयापि द्रव्यत्वकल्पना स्यात्, अधोच्येत भवश्वेवमेव का जो हानिरिति ?, उच्यते, | एकस्य पुरुषादेरेककाले पुरुषादिकाले भवा न युज्यन्ते-न घटन्ते अनेके बहव इति गाथार्थः || १४३९ ॥ इत्थं चोदकेनो के गुरुराह-'दुहओऽणंतरभवियं 'दुहउ 'त्ति वर्त्तमानभवे वर्त्तमानस्य उभयतः एष्येऽतीते चानन्तरभ विक, पुरस्कृतपश्चात् कृतभवसम्बन्धीत्युक्तं भवति, यथा तिष्ठति आयुष्कमेव तुशब्दस्यावधारणार्थत्वात्, न शेषं कर्म विवक्षितं यद् वज्रमयं गाथार्थः । १४४० ॥ पुरस्कृतभवसम्बन्धि त्रिभागावशेषायुष्कः सामान्येन तस्मिन्नेव भवे वर्तमानो वनाति, पश्चात्कृतसम्बन्धि पुनस्तस्मिन्नेव भवे वेदयति । अतिप्रसङ्गनिवृत्यर्थमाह- 'होजियरेसुवि जइ तं दवभवा होज ता तेऽवि' भवेत् इतरेष्वपि प्रभूतेष्यतीतेषु यद् बद्धमनागतेषु च यद् भोक्ष्यते यदि तस्मिन्नेव भवे वर्त्तमानस्य द्रव्यभवा भवेरंस्ततस्तेऽपि तदायुष्क कर्मसम्बन्धादिति हृदयं, न चैतदस्ति, तस्मादसच्चोदकवचनमिति गाथार्थः ॥। १४४१ ॥ अस्यैवार्थस्य प्रसाधकं लोकप्रतीतं निदर्शनमभिधातुकाम आह- 'संझासु दोसु सूरो' सन्ध्या च सन्ध्या च सन्ध्ये तयोः सन्ध्ययोर्द्वयोः प्रत्यूष प्रदोषप्रतिबद्धयोः सूर्य-आदित्यः अदृश्यमानोऽपि - अनुपलभ्यमानोऽपि प्रापणीयं प्राप्यं समतिक्रान्तं समतीतं च यथाऽवभासते - प्रकाशयति क्षेत्रं, तद्यथा- प्रत्युषसन्ध्यायां पूर्वविदेहं भरतं च प्रदोषसन्ध्यायां तु भरतमपरविदेहं च, तथैव यथा सूर्यः इदमपि प्रक्रान्तं ज्ञातव्यं विज्ञे For Funny कायोत्सर्गनिक्षेपः ~ 227 ~ ॥७६९॥ ibrary.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं I [गाथा-], नियुक्ति: [१४४६] भाष्यं [२३१], प्रत 945%8-4-5% सत्राक 84% _ यमिति, एतदुक्तं भवति-वर्तमानभवे स्थितः पुरस्कृतभवं पश्चात्कृतभवं च आयुष्ककर्म सद्रव्यतया स्पृशति,प्रकाशेनादित्यवदिति गाथार्थः ॥ १४४२ ॥ अधुना मातृकाकायः प्रतिपाद्यते, [ मातृकेऽपि ] मातृकापदानि 'उप्पण्णेति वे' त्या-15 दीनि तत्समूहो मातृकाकायः, अन्योऽपि तथाविधपदसमूहो बहथं इति, तथाचाह भाष्यकार:-'माउ-15 यपर्य'ति मातकापदमिति 'जेम' 'जेम'ति चिहं, नवरमन्योऽपि यः पदसमूहः-पदसवातः स पदकायो भण्यते | मातृकापदकाय इति भावना, विशिष्टः पदसमूहः, किं०-'जे एगपए बहू अत्था' यस्मिन्नेकपदे बहवः अर्थास्तेषां पदानां यः समूह इति, पाठान्तरं वा 'जस्सेकपदे बहू अत्यत्ति गाथार्थः ॥ १४४३ ॥ संग्रहकायप्रतिपादनायाह'संगहकाओ णेगा' संग्रहणं संग्रहः स एव कायः, स किंविशिष्ट ? इत्याह-'णेगावि जत्थ एगवयणेण घेप्पति'त्ति प्रभूता अपि यत्रैकवचनेन दिश्यन्तो गृह्यन्ते, यथा शालिग्रामः सेना जातो वसति निवित्ति, यथासङ्घर्ष, प्रभूतेष्वपि स्तम्बेषु | |सत्सु जातः शालिरिति व्यपदेशः, प्रभूतेष्वपि पुरुषविलयादिषु वसति प्रामः, प्रभूतेष्वपि हस्त्यादिषु निविष्टाई सेनेति, अयं शाल्यादिरर्थः सङ्ग्रहकायो भण्यते इति गाथार्थः ॥ १४४४ ॥ साम्प्रतं पर्याय कार्य दर्शयति 'पज्जवकाओ' पर्यायकायः पुनर्भवति, पर्याया-वस्तुधर्मा यत्र-परमाण्वादौ पिण्डिता बहवः, तथा च परमाणावपि कस्मिंश्चित् सांव्यवहारिके यथा वर्णगन्धरसस्पर्शा अनन्तगुणाः अन्यापेक्षया, तथा चोकम्-"कारणमेव तदन्त्यं सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः । एकरसवर्णगन्धो द्विस्पर्शः कार्यलिङ्गश्च ॥१॥" स चैकस्तिकादिरसस्तदन्यापेक्षया तिक्ततरतिक्ततमादिभेदादानन्त्यं प्रतिपद्यते, पञ्चवर्णादिष्वपि विभाषेत्ययं गाथार्थः ॥ अधुना भारकायस्तत्र गाथा दीप अनुक्रम [३६..] 2-% 59-2-%2543685 Indiarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~228 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं I [गाथा-], नियुक्ति: [१४४६] भाष्यं [२३१], कायोत्सर्गनिक्षेपः प्रत सत्राक ७७०1A आवश्यक-एको काओ दुहा जाओ' एकः काया-क्षीरकायः द्विधा जातः, घटद्वये न्यासात, तत्र एकस्तिष्ठति, एको मारितः, हारिभ- जीवन मृतेन मारितस्तदेतालवेति-ब्रूहि हे मानव ! केन कारणेन ?, कथानक यथा प्रतिक्रमणाध्ययने परिहरणायामिति द्रीया X गाथार्थ, भारकायश्चात्र क्षीरभृतकुम्भद्वयोपेता कापोती भण्यते, भारश्चासौ कायश्च भारकायः, अण्णे भणंति भारकायः कापोत्येयोच्यते इति ॥ १४४५ ॥ भावकामप्रतिपादनायाह 'दुगतिगचउरों' द्वौ यश्चत्वारः पञ्च वा भावा-औदयिकादयः प्रभूता वाऽन्येऽपि 'यत्र' सचेतनाचेतने वस्तुनि विद्यन्ते स भवति भावकायः, भावानां कायो भावकाय इति, 'जीवमजीवे विभासा ' जीवाजीवयोर्विभाषा खल्यागमानुसारेण कार्येति गाथार्थः ॥ १४४६ ॥ मूलद्वारगाथायां कायमधिकृत्य गतं निक्षेपद्वारम् , अधुनैकार्थिकान्युच्यन्ते, तत्र गाथाकायः शरीरं देहः बोन्दी चय उपचयश्च सहात उच्छ्रयः समुच्छ्यश्च कडेवरं भत्रा तनुः पाणुरिति गाथार्थः ॥ २३१ ॥ मूलद्वारगाथायाँ कायमधिकृत्योक्तान्येकाथिकानि, अधुना उत्सर्गमधिकृत्य निक्षेपः एकार्थिकानि चोच्यन्ते, तत्र निक्षेपमधिकृत्याहनामंठवणादविए खित्ते काले तहेव भावे य । एसो उस्सग्गस्स उ निक्वेवो छविहो होइ ॥ १४४७ ॥ H दब्बुज्मणा उ जंजेण जत्थ अवकिरह दब्बभूओ वाजं जत्थ वावि खित्ते जंजचिर जंमि वा काले ॥१४४८॥ भावे पसत्यमियरं जेण व भावेण अवकिरह जंतु । अस्संजमं पसत्थे अपसत्थे संजमं चयइ ॥ १४४९ ॥ वरफरुसाइसचेयणमचेयणं दुरभिगंधविरसाई । दवियमवि चयइ दोसेण जेण भाबुज्झणा सा उ ॥ १४५० ॥ दीप अनुक्रम [३६..] ७७०॥ JAMERIKime ainatorary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: उत्सर्ग अधिकृत्य षड़ निक्षेपा: ~229~ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं - [गाथा-], नियुक्ति: [१४५१] भाष्यं [२३१...], प्रक्षेप [१] प्रत सत्राक उस्सग्ग विउस्सरणुज्झणा य अवगिरण छडण विवेगो। सज्जण चयणुम्मुअणा परिसाडण साडणाचेव ॥१४५१॥ उस्सगे निक्खेवो चउक्कओ छकओ अ कायव्यो । निक्खेवं काऊणं परूवणा तस्स कायब्बा ॥१॥ सो उस्सग्गो दुविहो चिहाए अभिभवे य नायव्यो। भिक्वायरियाइ पढमो उवसग्गभिर्जुजणे चिइओ ॥१४५२॥ 'नामंठवणादविए' अर्थमधिकृत्य निगदसिद्धा, विशेषार्थ तु प्रतिद्वारं प्रपश्चन वक्ष्यामः, तत्रापि नामस्थापने गतार्थे,द द्रव्योत्सर्गाभिधित्सया पुनराह-'दबुझणा उजं जेण' द्रव्योज्झना तु द्रव्योत्सर्गः स्वयमेव 'जन्ति यद् द्रव्यमनेषणीयं| | 'अवकिरतित्ति योगः अवकिरति-उत्सृजति 'जेणे ति येन करणभूतेन पात्रादिनोत्सृजति,'जस्थत्ति यत्र द्रव्ये उत्सृजति द्रव्यभूतो वा-अनुपयुक्तो वा उत्सृजति एप द्रव्योत्सर्गोऽभिधीयते । क्षेत्रोत्सर्ग उच्यते 'जं जत्थ बावि खेत्ते'त्ति यत्क्षेत्रं | दक्षिणदेशाधुत्सृजति यत्र वाऽपि क्षेत्रे उत्सर्गो व्यावय॑ते एष क्षेत्रोत्सर्गः, कालोत्सर्ग उच्यते-'जं अच्चिर जम्मि वा काले'त्ति यत्कालमुत्सृजति यथा भोजनमधिकृत्य रजनी साधवः 'जचिरति यावन्तं कालमुत्सर्गः, यस्मिन् वा काले उत्सर्गो ब्यावयेते एप कालोत्सर्ग इति गाथार्थः ॥ १४४८ ॥ भावोत्सर्गप्रतिपादनायाह भावे पसत्यमियर' 'भाचे'ति द्वारपरामर्शः, भावोत्सर्गों द्विधा-प्रशस्त-शोभनं वस्त्वधिकृत्य 'इतरंति अप्रशस्तमशो- भनं च, तथा येन भावेनोत्सर्जनीयवस्तुगतेन खरादिना 'अवकिरति जन्तु' उत्सृजति यत् तत्र भावेनोत्सर्ग इति तृतीदयासमासः, तत्र असंयम प्रशस्ते भायोत्सर्गे त्यजति, अप्रशस्ते तु संयम त्यजतीति गाथार्थः ॥ १४४९ ॥ यदुक्तं येन वा दीप अनुक्रम [३६..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~230 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [५], मूलं ] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४५२] भाष्यं [२३१...], प्रक्षेप [१] प्रत सत्राक आवश्यक- भावेनोत्सृजति तत्प्रकटयन्नाह-'खरफरुसाइसचेयण' खरपरुषादिसचेतनं खरं-कठिनं परुष-दुभाषणोपेतं अचेतन कायोत्सर्गहारिभ- दुरभिगन्धविरसादि यद् द्रव्यमपि त्यजति दोषेण येन खरादिनैव 'भावुझणा सा उ' भावनोत्सर्ग इति गाथार्थः निक्षेपः द्रीया ॥ १४५० ॥ गतं मूलद्वारगाथायामुत्सर्गमधिकृत्य निक्षेपद्वारम्, अधुन कार्थिकान्युच्यन्ते, तत्रेय गाथा 'उस्सग्ग विउस्सरणु' उत्सर्गः ब्युत्सर्जना उज्झना च अवकिरणं छर्दनं विवेकः वर्जनं त्यजन उन्मोचना परिशातना ॥७७१॥ शातना चैवेति गाथार्थः ॥ १४५१ ॥ मूलद्वारगाथायामुक्तान्युत्सगैकार्थिकानि, ततश्च कायोत्सर्ग इति स्थितं, कायस्पोत्सर्गः कायोत्सर्गः । इदानी मूलद्वारगाथागतविधानमार्गणाद्वारावयवार्थव्याचिख्यासयाऽऽह--'सो उस्सग्गो दुविहों' स कायोत्सर्गो द्विविधः, 'चेट्टाए अभिभवे य नायवो' चेष्टायामभिभवे च ज्ञातव्यः, तत्र 'भिक्खायरियादि पढमो' भिक्षाचर्यादौ विषये प्रथमः कायोत्सर्गः, तथाहि-चेष्टाविषय एवासी भवति, 'उवसम्गऽभिजणे बिइओ'त्ति उपसर्गादिव्यादयस्तैरभियोजनमुपसगाभियोजनं तस्मिन्नुपसर्गाभियोजने द्वितीयः-अभिभवकायोत्सर्ग इत्यर्थः, दिव्याभिभूत एवं महामुनिस्तदेवार्य करोतीति हृदयम्, अथवोपसर्गाणामभियोजनं-सोढव्या मयोपसर्गास्तभयं न कार्यमित्येवंभूतं तस्मिन् द्वितीय इत्यर्थः । इत्थं प्रतिपादिते सत्याह चोदकः, कायोत्सर्गे हि साधुना नोपसर्गाभियोजनं कार्य इयरहवि ता न जुज्जइ अभिओगो किं पुणाइ उस्सग्गे? नणु गब्वेण परपुरं अभिरुज्झइ एवमेयंति(पि)॥१४५२७७१॥ ४|मोहपयडीभयं अभिभवितु जो कुणइ काउस्सग्गंतु भयकारणे घ तिविहे णाभिभवो नेव पडिसेहो ॥१४५४|| आगारेऊण परं रणिक जइ सो करिव उस्सगं । जुजिज अभिभवो तो तावे अभिभवो कस्स ? ॥१४५५॥ दीप अनुक्रम [३६..] CAESAKAK JABEnatural पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~231 Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-- दीप अनुक्रम [३६..] Jus Educa [भाग-३१] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १/४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [५], मूलं [-] / [गाथा-], निर्युक्तिः [१४५६] भाष्यं [२३१...]., अडविपि य कम्मं अरिभूयं तेण तज्जयट्ठाए । अन्भुडिया उ तवसंजमंमि कुव्वंति निग्गंधा ॥ १४५६ ॥ तस्स कसाया चत्तारि नायगा कम्मसन्तुसिन्नस्स । काउस्सग्गमभग्गं करंति तो तज्जयट्टाए । १४५७ ॥ संवछरमुकोसं अंतमुत्तं च (त) अभिभवुस्सग्गे । चिढाउस्सग्गस्स उ कालपमाणं उवरि वुच्छं ।। १४५८ ।। 'इरहवि ताण' इतरथापि सामान्यकार्येऽपि तावत् कचिदनवस्थानादौ न युज्यतेऽभियोगः कस्यचित् कर्तु, 'किं पुलाइ उस्सो' किं पुनः कायोत्सर्गे कर्मक्षयाय क्रियमाणे, स हि सुतरां गर्वरहितेन कार्यः, अभियोगश्च गर्यो वर्त्तते, नन्वित्यसूयायां गर्वेण अभियोगेन परपुरं शत्रुनगरमभिरुध्यते, यथा तद्गर्वकरणमसाधु एवमेतदपि कायोत्सर्गाभियोजनमशोभनमेवेति गाथार्थः ॥ एवं चोदकेनोके सत्याहाचार्यः -- 'मोहपयडीभयं' मोहप्रकृती भयं २ अथवा मोहप्रकृतिश्चासौ भयं चेति समासः, मोहनीय कर्मभेद इत्यर्थः तथाहि - हास्यरत्यरतिभयशोकजुगुप्ताषट्कं मोहनीयभेदतया प्रतीतं, तत् अभिभवतु अभिभूय यः कश्चित् करोति कायोत्सर्ग तुशब्दो विशेषणार्थः नान्यं कञ्चन बाह्यमभिभूयेति, 'भयकारणे तु तिविहे' बाह्ये भयकारणे त्रिविधे द्रव्यमनुष्य तिर्यग्भेदभिन्ने सति तस्य नाभिभवः, अथेत्थंभूतोऽप्यभियोग इत्यत्रोच्यते- 'नेव पडिसेहो' इत्थंभूतस्याभियोगस्य नैव प्रतिषेध इति गाथार्थः ॥ १४५४॥ किन्तु'आगारेऊण परं' 'आगारेऊण'त्ति आकार्य रे रे क्क यास्यसि इदानीं एवं परम्-अन्यं कथन 'रणेब' संग्रामे इव यदि स कुर्यात् कायोत्सर्गे युज्येत अभिभवः, तदभावे-पराभिभवाभावेऽभिभवः कस्य?, न कस्यचिदिति गाथार्थः ॥ १४५५ ।। तत्रैतत् स्यात् भयमपि कर्मशो वर्त्तते, कर्मणोऽपि चाभिभवः खल्वेकान्तेन नैव कार्य इत्येतच्चायुक्तम्, यतः -- For Funny incibrary.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः ~ 232~ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं ] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४५६] भाष्यं [२३१...], प्रत सत्राक भावश्यक- अट्ठविहपि व कम्म' अष्टविध-अष्टप्रकारमपि, चशब्दो विशेषणार्थः तस्य च व्यवहितः सम्बन्धः, अट्टविहंपि य कम्म कायोत्सर्गहारिभ अरिभूतं च, ततश्चायमर्थः-यस्मात् ज्ञानावरणीयादि अरिभूतं-दात्रुभूतं वर्तते भवनिवन्धनत्वाचशब्दादचेतनं च तेन निक्षेपः द्रीया कारणेन तजयार्थ-कर्मजयनिमित्तं 'अन्भुडिया उत्ति आभिमुख्येन उत्थिता एव एकान्तगर्वविकला अपि तपो द्वादश॥७७२॥ प्रकारं संयमं च सप्तदशप्रकारं कुर्वन्ति निर्ग्रन्थाः-साधव इत्यतः कर्मक्षयार्थमेव तदभिभवनाय कायोत्सर्गः कार्य एवेति गाथार्थः ॥ १४५६ ॥ तथा चाह-तस्स कसाया इति 'तस्य' प्रक्रान्तशत्रुसैन्यस्य कषायाः प्रागनिरू-14 पितशब्दार्थाश्चत्वारः क्रोधादयो नायकाः-प्रधानाः, 'काउस्सग्गमभग्गं करेंति तो तज्जयहाएत्ति काउस्सग्गअभिभवकायोत्सर्ग अभन्न-अपीडितं कुर्वन्ति साधवस्ततस्तजयार्थ-कर्मजयनिमित्तं तपःसंयमवदिति गाथार्थः | ॥ १४५७ ॥ गतं मूलद्वारगाथायां विधानमार्गणाद्वारम्, अधुना कालपरिमाणद्वारावसरः, तत्रेयं गाधा| संवत्सरमुतकृष्टं कालप्रमाण, तथा च बाहुबलिना संवत्सरं कायोत्सर्गः कृत इति, 'अन्तोमुहुत्तं च' अभिभवकायो|त्सर्गे अन्त्य-जघन्य कालपरिमाणं, चेष्टाकायोत्सर्गस्य तु कालपरिमाणमनेकभेदभिन्नं 'उबरि वोच्छति उपरिष्टाद् । ४ वक्ष्याम इति गाथार्थः ॥ १४५८ ॥ उक्तं तावदोघतः कालपरिमाणद्वारं, अधुना भेदपरिमाणद्वारमधिकृत्याह उसिउस्सिओ अतह उस्सिओ अ उस्सियनिसन्नओ चेवानिसनुस्सिओ निसन्नो निस्सन्नगनिसन्नओचेच १४५९॥ ७७२॥ निवणुस्सिओ निवन्नो निवन्ननिवन्नगो अ नायव्यो । एएर्सि तु पयाणं पत्तेय परूवर्ण चुच्छं ॥ १४६०।। उस्सिअनिसन्नग निवन्नगे य इकिकागंमि उ पयंमि । दब्वेण य भावेण य चउक्नभयणा उ कायव्वा ॥१४६१॥ दीप अनुक्रम [३६..] JAMERIEma पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~233 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं ] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४६१] भाष्यं [२३१...], प्रत सत्राक |'उस्सिउस्सिओं' उच्छ्रितोच्छ्रितः उत्सृतश्च उत्सृतनिषण्णश्चैव निषण्णोत्सृतः निषण्णो निषण्णनिषण्णश्चैवेति गाथार्थः॥ | निसणुस्सिओ निवन्नो' निषण्णोत्सृतः निष(व)ण्णः निषण्ण निषण्णश्च ज्ञातव्यः, एतेषां तु पदानां प्रत्येकं प्ररूपणां वक्ष्य इति |P | गाथासमासाः , अवयवार्थं तु उपरिष्टाद्वक्ष्यामः 'उस्सिय' उत्सृतो निषण्णः निषण्णनिपण्णेषु एकैकस्मिन्नेव पदे 'दबेण य भावेण य चउक्कभयणा उ कायवा' द्रव्यत उत्सृत ऊर्द्ध स्थानस्थःभावत उत्सृत धर्मध्यानशुक्लध्यायी, अभ्यस्तु द्रव्यत उत्सृतः ऊर्द्धस्थानस्थः न भावतः उत्सृतः ध्यानचतुष्टयरहितः कृष्णादिलेश्यागतपरिणाम इत्यर्थः, अन्यस्तु न द्रव्यत उत्सृतः नोर्द्ध-18 स्थानस्थः भावत उत्सृतः, शुक्लध्यायी अन्यस्तु न द्रव्यतो नापि भावत इत्ययं प्रतीतार्थ एवमन्यपद चतुर्भङ्गिका अपि वक्तव्याः ॥१४५९-१४६१॥ इत्थं सामान्येन भेदपरिमाणे दर्शिते सत्याह चोदका, ननु कार्योत्सर्गकरणे कः पुनर्गुण इत्याहाचार्य:देहमइजडसुद्धी सुहदुक्खतितिक्खया अणुप्पेहा । झायइ य सुहं झाणं एयग्गो काउसग्गंमि ॥ १४६२ ।। अंतोमुहु त्तकालं चित्तस्सेगग्गया हबइ झाणं । तं पुण अहूं रुई धम्म सुकं च नायब्वं ॥ १४६३ ॥ 13 तत्थ य दो आइल्ला झाणा संसारवडणा भणिया। दुन्नि य विमुक्खहेऊ तेसिऽहिगारो न इयरेसिं ॥१४६४ ॥ संवरियासबदारा अव्वाबाहे अकंटए देसे । काऊण धिरं ठाणं ठिओ निसन्नों निवन्नो वा ॥ १४६५ ॥ चेयणमचेषणं चा वधु अवलंपिउं घणं मणसा । झायइ सुअमत्थं वा दधियं तप्पज्जए बावि ॥ १४१६॥ तत्थ उ भणिज्ज कोई झाणं जो माणसो परीणामो । तं न हवइ जिणदिढ झाणं तिविहेवि जोगंमि ॥१४६७॥ दीप अनुक्रम [३६..] SC-५. JanEaiau Satarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~2344 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [५], मूलं ] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४६८] भाष्यं [२३१...], प्रत सत्राक आवश्यक- वायाईधाऊणं जो जाहे होइ उक्कडो धाऊ । कुविओत्ति सो पञ्चइ न य इअरे तत्थ दो नत्थि ॥१४६८॥ कायोत्सर्गहारिभ- 18 एमेव य जोगाणं तिण्हवि जो जाहि उक्कडो जोगो । तस्स तहिं निद्देसो इअरे तत्थिक्क दो व नवा ॥ १४६९॥ निक्षेपः द्रीया काएविय अजमपं चायाइ मणस्स चेव जह होइ । कायवयमणोजुत्तं तिविहं अजनप्पमाहंसु ॥१४७०॥ जह एगग्गं चित्तं धारयओ वा निमओ वावि । झाणं होइ नणु तहा इअरेसुवि दोसु एमेव ॥१४७१॥ १७७३॥ देसियदंसियमग्गो वचंतो नरवई लहइ सई । रायत्ति एस बच्चइ सेसा अणुगामिणो तस्स ॥ १४७२ ॥ पढमिल्लुअस्स उदए कोहस्सिअरे वि तिन्नि तत्वन्थि । नय ते ण संति तहियं न य पाहन्नं तहेयंमि ॥१४७३ ।। मा मे एजउ काउत्ति अचलओ काइअं हवइ झाणं । एमेव य माणसियं निरुद्धमणसो हवइ झाणं ॥ १४७४ ॥ वजह कायमणनिरोहे झाणं वायाइ जुन्नइ न एवं । तम्हा वई उ झाणं न होइ को वा विसेसुत्थ? ॥१४७५॥ मा मे चलउत्ति तणू जह तं झाणं निरेइणो होइ । अजयाभासविवजस्स वाइअं झाणमेवं तु ॥ १४७६ ॥ एवंविहा गिरा मे वत्तव्वा एरिसा न वत्तब्वा । इय वेयालियवकस्स भासओ वाइयं झाणं ॥ १४७७ ॥ मणसा वावारंतो कायं वायं च तप्परीणामो। भंगिअसुअं गुणतो बइ तिबिहेवि झामि ॥ १४७८॥ 'देहमतिजडसुद्धी'ति देहजाड्यशुद्धिः-श्लेष्मादिप्रहाणतः मतिजाज्यशुद्धिः तथावस्थितस्योपयोगविशेषतः, 'सुहदुक्खति-IA७७॥ तिक्खय'त्ति सुखदुःखतितिक्षा सुखदुःखातिसहनमित्यर्थः, 'अणुप्पेहा' अनित्यत्वाद्यनुप्रेक्षा च तथाऽवस्थितस्य भवति, तथा| शायद य सुहं झाणं ध्यायति च शुभं ध्यान धर्मशुक्ललक्षणं, एकाग्रा-एकचित्तः शेषव्यापाराभावात् कायोत्सर्ग इति,15 दीप अनुक्रम [३६..] REain A sanayam पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: 'ध्यान' शब्दस्य अर्थ, भेद-आदीनाम वर्णनं ~235 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं ] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४७८] भाष्यं [२३१...], प्रत सत्राक हाइहानुप्रेक्षा ध्यानादौ ध्यानोपरमे भवतीतिकृत्वा भेदेनोपन्यस्तेति गाथार्थः ॥ १४६२ ॥ इह ध्यायति च शुभं ध्यानमि युक, तत्र किमिदं ध्यानमित्यत आह-'अंतोमुत्तकालं' द्विघटिको मुहूर्तः भिन्नो मुहत्तॊऽन्तर्मुहूर्त इत्युच्यते, अन्तर्मुहर्तकालं चित्तस्यैकाग्रता भवति ध्यानं एकाग्रचित्तनिरोधो ध्यान (तत्त्वार्थे अ० सूत्र ९२७) मितिकृत्वा, तत् पुनरात रौद्रं धर्म शुक्लं च ज्ञातव्यमित्येषां च स्वरूपं यथा प्रतिक्रमणाध्ययने प्रतिपादितं तथैव द्रष्टव्यमिति गाथार्थः ॥१४६२-१४६३॥ तत्थ उदो आइल्ला' गाथा निगदसिद्धा । साम्प्रतं यथाभूतो यत्र यथावस्थितो यच्च ध्यायति तदेतदभिधित्सुराह-x संवरियासवदार'त्ति संवृतानि-स्थगितानि आश्रवद्वाराणि-प्राणातिपातादीनि येन स तथाविधः, क ध्यायति ?अन्यावाधे अकंटए देसे त्ति' अव्यावाधे-गान्धर्वादिलक्षणभावव्यावाधाविकले अकण्टके-पाषाणकण्टकादिद्रव्यकण्टकविकले 'देशे भूभागे, कथं व्यवस्थितो ध्यायति ?-'काऊण धिरं ठाणं ठितो निसण्णो निवन्नो वा' कृत्वा स्थिर-निष्कम्प | अब स्थान-अवस्थितिविशेषलक्षणं स्थितो निषण्णो निवण्णो वेति प्रकटाथै, चेतनं-पुरुषादि अचेतन-प्रतिमादि वस्तु अवलम्ब्य-विषयीकृत्या(त्य) घन-रदं मनसा-अन्तःकरणेन यत् ध्यायति, किं तदाह-झायति सुयमत्थं वा ध्यायतीति || सम्बध्यते, सूत्र-गणधरादिभिर्वजं अर्थ वा-तदूगोचरं, किंभूतमर्थमत आह-'दपियं तप्पज्जवे यावि' द्रध्यं तत्पर्यायान वा, इह च यदा सूत्रं ध्यायति तदा तदेव स्वगतधमैरालोचयति, न त्वर्थ, यदा त्वर्थ न तदा सूत्रमिति गाथार्थः ॥ १४६४-१४६६ ॥ अधुना प्रागुक्तचोद्यपरिहारायाह-तत्र भणेत्-ब्रूयात् कश्चित्, किं ब्रूयादित्याह-'झाणं जो माणसो परीणामो' ध्यान यो मानसः परीणामः, 'ध्यै चिन्ताया मित्यस्य चिन्तार्थत्वात् , इत्थमाशयोत्तरमाह-तं दीप अनुक्रम [३६..] SCR7-%* पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~236~ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं ] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४७८] भाष्यं [२३१...], प्रत सत्राक आवश्यक- न भवति जिणदिई झाणं तिविहेवि जोगमि' तदेतन भवति यत् परेणाभ्यधायि, कुतः १, यस्मानि-18| कायोत्सर्ग हारिभ- नदृष्टं ध्यानं त्रिविधेऽपि योगे-मनोवाकायव्यापारलक्षण इति गाथार्थः ॥ १४६७ ॥ किं तु ?, कस्यचित् &ा निक्षेपः द्रीया कदाचित् प्राधान्यमाश्रित्य भेदेन व्यपदेशः प्रवर्तते, तथा चामुमेव न्यायं प्रदर्शयन्नाह-'वायाईधाऊण ॥७७४॥ वातादिधातूनां आदिशब्दात् पित्तश्लेष्मणोर्यों यदा भवत्युत्कट:-प्रचुरो धातुः कुपित इति स प्रोच्यते उत्कटत्वेन प्राधान्यात् , 'न य इतरे तत्थ दो नस्थित्ति न चेतरौ तत्र द्वौ न स्त इति गाथार्थः ॥ १४६८ ।। 'एमेव य जोगाणं' एवमेव च योगाना-मनोवाक्कायानां त्रयाणामपि यो यदा उत्कटो योगस्तस्य योगस्य तदा-तस्मिन् काले निर्देशः, 'इयरे तत्थेक दो व णवा' इतरस्तत्रैको भवति द्वौ वा भवतः, न वा भवत्येव, इयमत्र भावना-केवलिनः। ४|वाचि उत्कटायां कायोऽप्यस्ति अस्मदादीनां तु मनः कायो न वेति, केवलिनः शैलेश्यवस्थायां काययोगनिरोधकाले स एवं ह केवल इति, अनेन च शुभयोगोत्कटत्वं तथा निरोधश्च द्वयमिति(मपि) ध्यानमित्यावेदितव्य]मिति गाथार्थः ॥१४६९॥इत्वं य उत्कटो योगः तस्यैवेतरसद्भावेऽपि प्राधान्यात सामान्येन ध्यान स्वमभिधायाधुना विशेषेण त्रिप्रकारमयुपदर्शयन्नाह-* 'काएविय' कायेऽपि च अध्यात्म अधि आत्मनि वर्तत इति अध्यात्म ध्यानमित्यर्थः, एकाग्रतया एजनादिनिरोधात्, I ७७४॥ 'वायाए'त्ति तथा वाचि अध्यात्म एकाग्रतयैवायतभाषानिरोधात्,'मणस्स चेव जह होइ'त्ति मनसश्चैव यथा भवत्यध्यात्म एवं | कायेऽपि वाचि चेत्यर्थः, एवं भेदनाभिधायाधुनकादावपि दर्शयन्नाह-कायवाङमनोयुक्तं त्रिविधं अध्यात्ममाख्यातवन्त दीप अनुक्रम [३६..] CARROCA ॐRS 24CES - M arayan - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~237 Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं ] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४७८] भाष्यं [२३१...], - प्रत सत्राक -564 दीप अनुक्रम [३६..] RASACRE है स्तीर्थकरा गणधराश्च, वक्ष्यते च-भंगिअसुतं गुणतो वहृति तिबिहेवि झाणमित्ति गाथार्थः॥ १४७० ॥ पराभ्युपगतध्या नसाम्यप्रदर्शनेनानभ्युपगतयोरपि ध्यानतां प्रदर्शयन्नाह-'जइ एगग्गं' गाहा, हे आयुष्मन् ! यदप्येकाग्रं चित्तं क्वचिद् वस्तुनि धारयतो वा स्थिरतया देहव्यापिविषवत् डंक इति 'निरंभओ वावित्ति निरुन्धानस्य वा तदपि योगनिरोध इव केवलिनः किमित्याह-ध्यानं भवति मानसं यथा ननु तथा इतरयोरपि द्वयोवाक्काययोः, एवमेव-एकामधारणादिनैव प्रकारेण तल्लक्षणयोगाद् ध्यानं भवतीति गाथार्थः ॥ १४७१ ॥ इत्थं त्रिविधे ध्याने सति यस्य यदोत्कटत्वं तस्य तदेतरसद्भावेऽपि प्राधान्याद् व्यपदेश इति, लोकलोकोत्तरानुगतश्चार्य न्यायो वत्तेते, तथा चाह-'देसिय' गाहा, देशयतीति देशिका-अग्रयायी देशिकेन दर्शितो मार्गः-पन्था यस्य स तथोच्यते प्रजन्-गच्छन् नरपती-राजा लभते शब्द-ग्रामोति शब्द, किंभूतमित्याह-रायत्ति एस वञ्चति' राजा एष व्रजतीति, न चासी केवलः, प्रभूतलोकानुगतत्वात्, न च तदन्यव्यपदेशः, तेपामप्राधान्यात, तथा चाह- सेसा अणुगामिणो तस्स'त्ति शेषाः-अमात्यादयः अनुगामिनःअनुयातारस्तस्य-राज्ञ इत्यतःप्राधान्याद्राजेतिव्यपदेश इति गाथार्थः॥१४७२।। अयं लोकानुगतो न्यायः, अयं पुनर्लोकोत्तरानुगतः-'पढमिल्लु'प्रथम एव प्रथमिछुकः,प्राथम्यं चास्य सम्यग्दर्शनाख्यप्रथमगुणघातित्वात् तस्य प्रथमिल्लुकस्य उदये, कस्या, क्रोधस्य अनन्तानुवन्धिन इत्यर्थः 'इतरेधि तिणि तत्थरिथ' शेषा अपि त्रयः-अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणसमलनादयस्तत्र-जीवद्रव्ये सन्ति, न चातीताद्यपेक्षया तत्सद्भावः प्रतिपाद्यते, यत आह-नय तेण संति तहियं न च ते-अप-IN त्याख्यानप्रत्याख्यानावरणादयो न सन्ति, किंतु सन्त्येव, न च प्राधान्यं तेषामतो न व्यपदेशः, आद्यस्यैव व्यपदेशः पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~238~ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [--] दीप अनुक्रम [३६..] आवश्यकहारिभ द्वीया 'तहेयंपि' तथा एतदपि अधिकृतं वेदितव्यमिति गाथार्थः ॥ १४७३ || अधुना स्वरूपतः कायिकं मानसं च ध्यानमावेदयनाह-'मा मे एजड काउ'ति एजतु कम्पतां 'कायो' देह इति, एवं अचलत एकाग्रतया स्थितस्येति भावना, किं १, कायेन निर्वृत्तं कायिकं भवति ध्यानं, एवमेव मानसं निरुद्धमनसो भवति ध्यानमिति गाथार्थः ॥ १४७४ ॥ इत्थं प्रतिपादिते ॥७७५॥। ४१ सत्याह चोदकः - 'जह कायमणनिरोहे' ननु यथा कायमन सोर्निरोधे ध्यानं प्रतिपादितं भवता 'बायाइ जुज्जइ न एवं ति वाचि युज्यते नैवेति कदाचिदप्रवृत्यैव निरोधाभावात्, तथाहि न कायमनसी यथा सदा प्रवृत्ते तथा वागिति 'तम्हा वती उ झाणं न होइ तस्माद् वागू ध्यानं न भवत्येव, तुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् व्यवहितप्रयोगाच्च, 'को वा विसेसोऽत्थ'त्ति को वा विशेषोऽत्र ? येनेत्थमपि व्यवस्थिते सति वागू ध्यानं भवतीति गाथार्थः || १४७५ ।। इत्थं चोदकेनोचे सत्याह गुरुः'मा मे चलउ 'ति मा मे चलतु- कम्पतामितिशब्दस्य व्यवहितः प्रयोगः तं च दर्शयिष्यामः, तनुः- शरीरमिति एवं चलनक्रियानिरोधेन यथा तद् ध्यानं कायिकं 'निरेइणो' निरेजिनो- निष्प्रकम्पस्य भवति 'अजताभासविवज्जिस्स वाइयं झाणमेवं तु' अयताभापाविवर्जिनो दुष्टवाक्परिहर्तुरित्यर्थः, वाचिकं ध्यानमेव यथा कायिकं, तुशब्दोऽवधारणार्थ इति गाथार्थः ।। १४७६ ॥ साम्प्रतं स्वरूपत एव वाचिकध्यानमुपदर्शयन्नाह - 'एवंविहा गिरा' एवंविधेति निरवद्या गीः- वागुच्यते 'मे'ति मया वक्तव्या 'एरिस'त्ति ईदृशी सावया न वक्तव्या, एवमेकाग्रतया विचारितवाक्यस्य सतो भाषमाणस्य वाचिकं ध्यानमिति गाथार्थः ॥ १४७७ || एवं तावद् व्यवहारतो भेदेन त्रिविधमपि ध्यानमावेदितं, अधुनैकदैव एकत्रैव त्रिवि धमपि दर्श्यते - 'मणसा वावारंतो' मनसा - अन्तःकरणेनोपयुक्तः सन् व्यापारयन् कार्य- देहं वाचं भारतीं च 'तप्परी [भाग-३१] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १/४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [५], मूलं [-] / [गाथा-], निर्युक्तिः [१४७८] भाष्यं [२३१...]., Education For Parts Only ५ कायोत्सगाध्य० ध्यानत्रैविध्यं योगवत् ~239~ ॥७७५॥ org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं ] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४७८] भाष्यं [२३१...], % *-*-490 प्रत सत्राक दीप अनुक्रम [३६..] णामो' तत्परिणामो विवक्षितश्रुतपरीणामः, अथवा तत्परिणामो-योगत्रयपरिणामः स तथाविधः शान्तो योगत्रयपरिणामो! यस्यासी तत्परिणामः, भङ्गिकश्रुतं-दृष्टिवादान्तर्गतमन्यद् वा तथाविधं 'गुणंतो'त्ति गुणयन् वर्तते त्रिविधेऽपि ध्याने मनोवाक्कायव्यापारलक्षणे इति गाथार्थः ॥१४७८ ॥ अवसितमानुषङ्गिक, साम्प्रतं भेदपरिमाणं प्रतिपादयताऽध 3 उत्सृतोच्छ्रितादिभेदो यो नवधा कायोत्सर्ग उपन्यस्तः स यथायोगं व्याख्यायत इति, तत्रधम्म सुफ च दुवे झायइ झाणा: जो ठिओ संतो। एसो काउस्सग्गो उसिउसिओ होइ नायब्बो ॥१४७९॥ धम्म सुकं च दुवे नवि झायइ नविय अहरुद्दाई । एसो काउस्सग्गो दवुसिओ होइ नायब्वो ॥१४८०॥ पयलायंत सुसुत्तो नेव सुहं झाइ झाणमसुहं वा । अव्वावारियचित्तो जागरमाणोवि एमेव ॥ १४८१॥ अचिरोववन्नगाणं मुच्छियअव्वत्तमत्तसुत्साणं । ओहाडियमव्वत्तं च होइ पाएण चित्तंति ॥ १४८२॥ गाढालवणलग्गं चित्तं वुत्तं निरयणं झाणं । सेसं न होइ झाणं मउअमवत्तं भमतं वा ॥१४८३ ॥ |उम्हासेसोवि सिही होउं लद्धिंधणो पुणो जलइ । इय अवत्तं चित्तं होउं वत्तं पुणो होइ ॥ १४८४ ॥ पुव्वं च जं तदुत्तं चित्तस्सेगग्गया हवह झाणं । आवन्नमणेगग्गं चित्तं चिय तं न तं झाणं ॥ १४८५॥ आ० मणसहिएण उ कारण कुणइ वायाइ भासई जं च। एयं च भावकरणं मणरहियं दब्वकरणं च ॥१४८६॥ चो. जइते चित्तं झाणं एवं झाणमवि चित्तमावन्नं । तेन र चित्तं झाणं अह नेवं झाणमन्नं ते ॥१४८७॥ आ०नियमा चित्तं झाणं झाणं चित्तं न यावि भइयव्वं । जह खइरो होइ दुमो दुमो य खइरो अखयरो वा ॥१४८८ ACCORGANS Jantaintime parorary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~240 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [--] दीप अनुक्रम [३६.. ] आवश्यकहारिभद्रीया ॥७७६। Educato [भाग-३१] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ / ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [५], मूलं [-] / [गाथा-], निर्युक्तिः [१४८९] भाष्यं [२३१...], अहं रुदं च दुवे शायर झाणाई जो ठिओ संतो। एसो काउसरगो दब्बुसिओ भावज निसतो ॥ १४८९ ॥ धम्मं सुकं च दुवे झाप झाणाई जो निसन्नो अ । एसो काउस्सग्गो निसनुसिओ होइ नायव्वो । १४९० ॥ धम्मं सुकं च दुवे नवि झाय नवि य अहरुद्दाई। एसो काउस्सग्गो निसण्णओ होइ नायव्वो । १४९१ ।। अहं रुदं च दुवे झायह झाणाएँ जो निसन्नो य । एसो काउस्सग्गो निसन्नगनिसन्नओ नामं ॥ १४९२ ॥ धम्मं सुकं च दुवे शायद झाणाइँ जो निवन्नो उ। एसो काउस्सग्गो निवनुसिभ होइ णायच्चो ।। १४९३ ।। धम्मं सुकं च दुबे नवि झाय नवि य अहरुद्दाई। एसो काउस्सग्गो निवण्णओ होइ नायव्वो ।। १४९४ ।। अहं रुदं च दुबे झायह झाणाइँ जो निवन्नो उ। एसो काउस्सग्गो निवन्नगनिवन्नओ नाम ।। १४९५ ॥ अतरंतो उ निसन्नो करिज तहवि यसह निवन्नो । बाहुवस्सए वा कारणियसहूवि य निसन्नो ।। १४९६ ।। उ धर्मे च शुकं च प्राकूप्रतिपादितस्वरूपे ते एव द्वे ध्यायति ध्याने यः कश्चित् स्थितः सन् एष कायोत्सर्ग उत्सृतोत्सृतो भवति ज्ञातव्यः यस्मादिह शरीरमुत्सृतं भावोऽपि धर्मशुक्लध्यायित्वादुत्सृत एवेति गाथार्थः ॥ गतः खल्वेको भेदोऽधुना द्वितीयः प्रतिपाद्यते- 'धम्मं सुकं' धर्म शुक्लं च द्वे नापि ध्यायति नापि आर्त्तरौद्रे एष कायोत्सर्गो द्रव्योत्सृतो भवतीति ज्ञातव्य इति गाथार्थः ॥ १४७९-१४८० ॥ आह- कस्यां पुनरवस्थायां न शुभं ध्यानं ध्यायति नाप्यशुभमिति १, अत्रोच्यते - 'पयलायंत' प्रचलायमान ईषत् स्वपन्नित्यर्थः, 'सुसुप्त'ति सुष्ठु सुप्तः स खलु नैव शुभं ध्यायति ध्यानं धर्मशुद्धलक्षणं अशुभं वा आर्चरीद्रलक्षणं न व्यापारितं क्वचिद् वस्तुनि चित्तं येन सोऽव्यापारितचित्तः जाग्रदपि एवमेव-नैव For Funny ५कायोत्स गध्य० उत्सृतादि ~ 241~ काः कायोत्सर्गभेदाः ॥७७६ ॥ bryog पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं ] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४९६] भाष्यं [२३१...], प्रत सत्राक दीप अनुक्रम [३६..] श* ध्यायति ध्यान नाशुभमिति गाथार्थः ।। १४८१ ॥ किंच-'अचिरोववनगाणं' 'न चिरोपपन्नका अचिरोपपन्नकाः तेषामचिरोपपन्नकानामचिरजातानामित्यर्थः, मूच्छिताव्यक्तमत्तसुप्तानां-मूच्छितानामभिधातादिना अव्यक्तानाम्-अव्यक्तचेतसा मत्तानां मदिरादिना सुप्तानां निद्रया, इहाव्यक्तानामिति यदुक्तं तत्राव्यक्तचेतसः अव्यक्ताः, तत् पुनरव्यक्त कीहगित्याह-'ओहाडियमवत्तं च होइ पाएण चित्तं तु' 'ओहाडियन्ति स्थगितं विषादिना तिरस्कृतस्वभावं अव्यक्त च-17 अव्यक्तमेव चशब्दोऽवधारणे भवति प्रायश्चित्तमपि, प्रायोग्रहणादन्यथाऽपि सम्भवमाहेति गाथार्थः ॥१४८२॥ स्यादे-18 तत्-एवंभूतस्यापि चेतसो ध्यानताऽस्तु को विरोध इति ?, अत्रोच्यते, नैतदेवं, यस्मात्-आलम्बने लग्नं २ गाढमालम्बने लग्नं २ एकालम्बने स्थिरतया व्यवस्थितमित्यर्थः, चित्तं अन्तःकरणं उक्तं-भणितं, निरेजन-निष्पकम्पं ध्यानं, यतश्चैवमतः शेष-यदस्मादन्यत् तन्न भवति ध्यानं, किंभूतं ?-'मदुयमवत्तं भमन्तं वा मृदु-भावनायामकठोरं अव्यक्तं पूर्वोतं धमन्या-अनवस्थितं वेति गाथार्थः॥१४८॥ आह-यदि मृद्वादि चित्तं ध्यानं न भवति वस्तुतः अव्यक्तत्वात् तत् कथमस्य पश्चादपि व्यक्ततेति ?, अत्रोच्यते-'उम्हासेसोवि'उष्मावशेषो मनागपि उष्णमात्र इत्यर्थः, शिखी-अग्निर्भूत्वा लब्धेन्धनः-प्राप्तकाष्ठादिः सन् पुनर्मलति, इय' एवं अव्यक्तं चित्तं मदिरादिसम्पर्कादिना भूत्वा व्यक्तं पुनर्भवत्यग्निवदिति र गाथार्थः ॥ १४८४ ॥ इत्थं प्रासङ्गिक कियदप्युक्तं, अधुना प्रक्रान्तवस्तुशुद्धिः क्रियते, किंच प्रक्रान्ती, कायिकादि त्रिविध ध्यान, यत उक्त-भंगियसुयं गुणतो वट्टइ तिविहेऽवि झाणमि' इत्यादि, एवं च व्यवस्थिते 'अन्तोमुहुत्तकालं चित्तस्सेगगया भवति झाण' यदुक्तमस्माद् विनेयस्य विरोधशङ्कया सम्मोहः स्यादतस्तदपनोदाय शङ्कामाह-'पुर्व च जं तदुत्त' ननु| CO-CA JAmEajan पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~242 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-] / [गाथा-], नियुक्ति : [१४९६] भाष्यं [२३१...., प्रत सत्राक दीप अनुक्रम [३६..] आवश्यक-त्रिविधे ध्याने सति पूर्व यदुक्तं चित्तस्यैकाग्रता भवति ध्यानं 'अन्तोमुहुत्तकालं चित्तस्सेगग्गया भवति झाणं ति वचनात् ५कायोत्सहारिभ-1 चशब्दाद्यच्च तदूर्वमुक्तं-'भंगियसुयं गुणंतो वट्टइ तिविहेवि झाणमि तदेतत् परस्परविरुद्धं कथयतस्त्रिबिधे ध्याने सति गोध्य० उद्रीया आपन्नमनेकविषयं ध्यानमिति, तथा च मनसा किश्चिद्ध्यायति वाचाऽभिधत्ते कायेन क्रियां करोतीति अनेकाग्रता | त्सृतादि 18काः कायो॥७७७॥ आचार्य इदमनात्य सामान्येनैकाग्रं चित्तं हृदि कृत्वा काकाऽऽह-चित्तं चिय तं न तं झाणं यदनेका तच्चित्तमेव न नसर्गभेदाः ध्यानमिति गाथार्थः ॥१४८५ ॥ आह-उक्तन्यायादनेकामं त्रिविधं ध्यानं तस्य तर्हि ध्यानत्यानुपपत्तिः, न, अभिप्रायापरिज्ञानात्, तथाहि-आ०-'मणसहिएण' मनःसहितेनैव कायेन करोति, यदिति सम्बध्यते, उपयुक्तको यत् करोतीत्यर्थः वाचा भाषते यच मनःसहितया, तदेव भावकरणं वत्तेते, भावकरणं च ध्यानं, मनोरहितं तु द्रव्यकरणं भवति, ततश्चैतदुक्तं भवति--इहानेकाग्रतैव नास्ति सर्वेषामेव मनःप्रभृतीनामेकविषयत्वात्, तथाहि-स यत् मनसा ध्यायति तदेव वाचाऽभिधत्ते तत्रैव च कायक्रियेति गाथार्थः ॥१४८६॥ इत्थं प्रतिपादिते सत्यपरस्त्वाह-जह ते चित्तं झाणं'यदि ते-तव चित्तं ध्यानं 'अन्तोमुत्तकालं चित्तस्सेगग्गया हवइ झाणं ति वचनात् , एवं ध्यानमपि चित्तमापन्न, ततश्च कायिकवाचिक-12 ध्यानासम्भव इत्यभिप्रायः, तेन किल चित्तमेव ध्यानं नान्यदिति हृदयं, अथ नैवमिष्यते-मा भूत, कायिकवाधिके ध्यानेन भविष्यत इति, इत्थं तर्हि ध्यानमन्यत्ते-तव चित्तादिति गम्यते, यस्मान्नावश्यं ध्यानं चित्तमिति गाथार्थः॥१४८७॥अत्र चाचार्य 11७७७॥ आह-अभ्युपगमाददोषः, तथाहि-नियमा चित्तं झाणं' नियमात्-नियमेन उक्तलक्षणं चित्तं ध्यानमेव, 'झाणं चित्तं न यावि भइयवं' ध्यानं तु चित्तं न चाप्येवं भक्तव्यं-विकल्पनीयं, अत्रैवार्थे दृष्टान्तमाह-'जह खइरो होइ दुमो दुमो य खइरो HIMorayan पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~2434 Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं ] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४९६] भाष्यं [२३१...], 29 प्रत -50 सत्राक 16-0-% दीप अनुक्रम [३६..] अखइरो वा' यथा खदिरो भवति दुम एव, दुमस्तु खदिरः अखदिरो वा-धवादिर्वेत्ययं गाथार्थः ॥ १४८८ ॥ अन्ये पुनरिदं गाथाद्वयमतिकान्तगाथावयवाक्षेपद्वारेणान्यथा व्याचक्षते, यदुक्तं 'चित्तं चिय तं न तं झाणंती' त्येतदसत्, कथं?, यदि ते 'चित्तं झाणं एवं झाणमवि चित्तमावन्नं' सामान्येन 'तेन र चित्तं झाणं' किमुच्यते 'चित्तं चित्तं न झाणं'ति 'अह नेयं झाणमन्नं ते' चित्तात्, अत्र पाठान्तरेणोत्तरगाथा 'नियमा चित्तं झाणं झार्ण चित्तं न यावि भइयवं' यतोऽव्यक्तादि-| चित्तं न ध्यानमिति, 'जह खदिरों' इत्यादि निदर्शनं पूर्व, अलं प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः, प्रकृतश्च द्वितीयः उच्छ्रिताभिधानः कायोत्सर्गभेद इति, स च व्याख्यात एव, नवरं तत्र ध्यानचतुष्टयाध्यायी लेश्यापरिगतो वेदितव्य इति, अथेदानी तृतीयः कायोत्सर्गभेदः प्रतिपाद्यते-निगदसिद्धव, अधुना चतुर्थः कायोत्सर्गभेदः प्रदश्यते तत्रेयं गाथा-निगदसिद्धैव, नवरं कारणिक एव ग्लानस्थविरादिनिपण्णकारी वेदितव्यः, वक्ष्यते च-'अतरंतो उ' इत्यादि, अधुना पश्चमः कायोत्स|गभेदः प्रदश्यते, तत्रेयं गाथा-निगदसिद्धा, नवरं प्रकरणानिषण्णः स धर्मादीनि न ध्यायतीत्यवगन्तव्यम्, अधुना षष्ठः कायोत्सर्गभेदः प्रदीते, तत्रेयं गाथा-निगदसिद्धा, अधुना सप्तमः कायोत्सर्गभेदः प्रतिपाद्यते, इह च-निगदसिद्धा, नवरं कारणिक एव ग्लानस्थविरादियों निषण्णोऽपि कर्तुमसमर्थः स निष(व)ण्णकारी गृह्यते, साम्प्रतमष्टमः कायोत्सर्गभेदः प्रदश्यते, | निगदसिद्धा, इहापि च प्रकरणान्निष(व)ण्णः,स च धर्मादीनि न ध्यायतीत्यवगन्तव्यम् ,अधुना नवमः कायोत्सर्गभेदःप्रदश्यते, इह च-'अ९ रुदं च दुवे' गाहा निगदसिद्धा। अतरतो' गाहा निगदसिद्धव, नवरं 'कारणियसहूविय निसण्णोति यो हि गुरुवयावृत्यादिना व्यापृतः कारणिकः स समर्थोऽपि निषण्णः करोतीति ॥१४९५-१४९६।। इत्थं तावत् कायोत्सर्ग उक्तः, पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~244 Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४९६] भाष्यं [२३१...], प्रत सूत्रांक कायोत्स| गाँध्य० इच्छामिठाइ र व्याख्या दीप अनुक्रम आवश्यक- अनान्तरे अध्ययनशब्दार्थों निरूपणीयः, स चान्यत्र न्यक्षेण निरूपितत्वान्नेहाधिकृतः, गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं हारिभ सूत्रालापकनिष्पन्नस्य निक्षेपस्यावसरः, स च सूत्रे सति भवति, सूत्रं च सूत्रानुगम इत्यादिप्रपश्चो वक्तव्यः यावत् तच्चेदं द्रीया सूत्र-करेमि भंते ! सामाइयमित्यादि यावत् अप्पाणं वोसिरामि' अस्य संहितादिलक्षणा व्याख्या यथा सामायिकाध्ययने ७७८॥ तथा मन्तब्या पुनरभिधाने च प्रयोजनं वक्ष्यामः, इदमपरं सूत्रbइच्छामि ठाइ काउस्सग्गं जो मे देवसिओ अइआरो कओ काइओ वाइओ माणसिओ उस्मुत्तो| उम्मग्गो अकप्पो अकरणिज्जो दुज्झाओ दुन्विचिंतिओ अणायारो अणिच्छिअव्वो असमणपाउग्गो नाणे दसणे चरिते सुए सामाइए तिण्हं गुत्तीणं चउण्हं कसायाणं पंचण्हं महब्वयाणं छहं जीवनिकायाणं सत्तण्ह पिंडेसणाणं अट्ठण्हं पवयणमाऊणं नवण्हं बंभचेरगुत्तीणं दसविहे समणधम्मे समणाणं जोगाणं जं खंडिअं द विराहिलं तस्स मिच्छामि दुक्कडं ॥ (सूत्रम् ) IPI अस्य व्याख्या-तलक्षणं चेदं-संहितेत्यादि, तत्र इच्छामि स्थातुं कायोत्सर्ग यो मे दैवसिकोऽतिचारः कृत इत्यादि संहिता, पदानि तु इच्छामि स्थातुं कायोत्सर्ग मया दैवसिकोऽतिचारः कृत इत्यादीनि, पदार्थस्तु 'इषु इच्छाया मित्यस्योत्तमपुरुषस्यैकवचनान्तस्य 'इपुगमिष्यमा छ' इति (पा०७-३-७७) छत्वे इच्छामि भवति, इच्छामि-अभिलपामि स्थातुमिति ठा गतिनिवृत्ती' इत्यस्य तुम्प्रत्ययान्तस्य स्थातुमिति भवति, कायोत्सर्ग मिति 'चि चयने अस्य घअन्तस्य 'निवाससमिति(चिति)शरीरोपसमाधानेष्वादेश्च क इति (पा० ३-३-४१) चीयते इति कायः देह इत्यर्थः 'सृज विसर्गे' इत्यस्य उत्पूर्वस्य [३७] ॥७७८॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: | कायोत्सर्गस्थापना सूत्र-अर्थ, व्याख्यादि ~245 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [9], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४९६...] भाष्यं [२३१...', प्रत 56-5- ACROSC सूत्रांक घजि उत्सर्ग इति भवति, शेषपदार्थों यथा प्रतिकमणे तथैव, पदविग्रहस्तु यानि समासभाञ्जि पदानि तेषामेव भवति | नान्येषामिति, तत्र इच्छामि स्थातुं, कं?-कायोत्सर्ग-कायस्योत्सर्गः कायोत्सर्गः तमिति, शेषपदविग्रहो यथा प्रति माक्रमणे, एवं चालना प्रत्यवस्थानं च यथासम्भवमुपरिष्टाद् वक्ष्यामः । तथेदमन्यत्तु सूत्रbतस्मुत्तरीकरणेणं पायच्छित्तकरणेणं विसोहीकरणेणं विसल्लीकरणेणं पावाणं कम्माणं निग्घायणढाए ठामि काउस्सग्गं अन्नत्य ऊससिएणं नीससिएणं खासिएणं छीएणं जंभाइएणं उडुएणं वायनिसग्गेणं भमलिए |पित्तमुच्छाए सुहुमेहिं अंगसंचालेहिं सुहुमेहिं खेलसंचालहि मुहुमेहिं दिहिसंचालहिं एवमाइपहिं आगारेहिं अभग्गो अविराहिओ हुज्ज मे काउस्सग्गो जाव अरिहंताणं भगवंताणं नमुक्कारेणं न पारेमि ताच कायं ठाणेणं मोणेणं झाणेणं अप्पाणं वोसिरामि ॥ (सूत्रम्)॥ १ अस्य व्याख्या-'तस्योत्तरीकरणेन तस्येति तस्य-अनन्तरं प्रस्तुतस्य श्रामण्ययोगसङ्घातस्य कथञ्चित् प्रमादात् खण्डि-13 तस्य विराधितस्य वोत्तरीकरणेन हेतुभूतेन 'ठामि काउस्तम्ग मिति योगः, तत्रोत्तरकरणं पुनः संस्कारद्वारेणोपरिकरण-11 मुच्यते, उत्तरं च तत् करणं च इत्युत्तरकरणं अनुत्तरमुत्तरंक्रियत इत्युत्तरीकरण, कृतिः-करणमिति, तच्च प्रायश्चित्तद्वारेण | भवति अत आह-पायच्छित्तकरणेणं' प्रायश्चित्तशब्दार्थ वक्ष्यामः तस्य करणं प्रायश्चित्तकरणं तेन, अथवा सामायिकादीनि प्रतिक्रमणावसानानि विशुद्धी कर्तव्यायां मूलकरणं, इदं पुनरुत्तरकरणमतस्तेनोत्तरकरणेन-प्रायश्चित्तकरणेनेति, क्रिया पूर्ववत्, पायश्चित्तकरणं च विशुद्धिद्वारेण भवत्यत आह-'विसोहीकरणेणं'विशोधनं विशुद्धिः अपराधमलिनस्यात्मनःप्रक्षालन दीप अनुक्रम SAC2%AC- O [३८] PE JANEairatna Proo पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: तस्य 'उत्तरीकरण' आदि तथा 'अन्नत्थ' मूलसूत्र एवं तयो: व्याख्या ~246 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१४९६...] भाष्यं [२३१...', आवश्यकहारिभद्रीया न्यत्रोच्छु प्रत सूत्रांक ॥७७९|| 9-8-05 मित्यर्थः तस्याः करणं तेन हेतुभूतेन, विशुद्धिकरणं च विशल्यकरणद्वारेण भवत्यत आह-'विसल्लीकरणेणं' विगतानिकायोत्सशल्यानि-मायादीनि यस्यासी विशल्यस्तस्य करणं विशल्यकरणं तेन हेतुभूतेन, 'पावाणं कम्माणं णिग्घायणवाए ठामि गोध्य० अकाउस्सग्गं' पापानां संसारनिबन्धनानां कर्मणां-ज्ञानावरणीयादीनां निर्घातार्थ-निर्घातननिमित्तं ब्यापत्तिनिमित्तमित्यर्थः, मत्तामत्व किं ?-तिष्ठामि कायोत्सर्ग' कायस्योत्सर्ग:-कायपरित्याग इत्यर्थः तं, एतदुक्तं भवति-अनेकार्थत्वाद् धातूनां तिष्ठामीति सित. करोमि कायोत्सर्ग, व्यापारवतः कायस्य परित्यागमिति भावना, किं सर्वथा नेत्याह-'अन्नत्थूससिएणं'ति अन्यत्रोच्छ|सितेन, उच्छुसितं मुक्ता योऽन्यो व्यापारस्तेन ब्यापारवत इत्यर्थः, एवं सर्वत्र भावनीयं, तत्रोष प्रबलं वाश्वसितमुच्छृसितं तेन,'नीससिएण'ति अधःश्वसितं निःश्वसितं तेन निःश्वसितेन, 'खासिएण'ति कासितं प्रतीतं, 'छीएणं'ति क्षुतं प्रतीतमेव तेनैतदपि, 'जभाइएणति जृम्भितेन, विवृतवदनस्य प्रबलपवननिर्गमो जृम्भितमुच्यते, उद्दएण'ति उद्गारितं प्रतीतं, वायनिसग्गेणति अपानेन पवननिर्गमो वातनिसर्गो भण्यते तेन, भमलीए'त्तिभ्रमल्या,इयमाकस्मिकी शरीरभ्रमिलक्षणा प्रतीतैव पित्तसंमूर्छया' पित्तमूर्च्छयाऽपि, पित्तप्राबल्यात् मनाग मूर्छा भवति, 'सुहुमेहिं अंगसंचालेहि सूक्ष्मैरङ्गसञ्चारैर्लक्ष्यालक्ष्यैात्रविचलनप्रकारै रोमोद्गमादिभिः, 'सुहुमेहिं खेलसंचालेहि सूक्ष्मः खेलसञ्चारैर्यस्मात् सयोगिवीर्यसद्व्यतया ते खस्यन्तर्भवन्ति 'सुहुमेहिं दिहिसंचालेहि' सूक्ष्मदृष्टिसञ्चारैः-निमेषादिभिः, 'एषमाइपहिं आगारेहिं अभग्गो अविराहिओ होज मे काउस्सग्गों ७७९॥ एवमादिभिरित्यादिशब्दं वक्ष्यामः, आक्रियन्त इत्याकारा आगृह्यन्त इति भावना, सर्वथा कायोत्सर्गापवादप्रकारा इत्यर्थः, तैराकारैर्विद्यमानैरपि न भग्नोऽभग्नः, भग्नः सर्वथा नाशितः, न विराधितोऽविराधितो, बिराधितो देशभग्नोऽभिधीयते, भवेत्। दीप अनुक्रम JAMEain8 miarayan पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~2474 Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [9], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४९६...] भाष्यं [२३१...', प्रत सूत्रांक सू.] दीप अनुक्रम मम कायोत्सर्गः, कियन्तं कालं यावदित्याह-जाव अरहताणं भगवंताणं नमोकारेणं न पारेमि' यावदर्हतां भगवतो नमस्कारेण न पारयामि, यावदिति कालावधारणं, अशोकाधष्टमहापातिहादिरूपां पूजामहन्तीत्यर्हन्तस्तेषामहतां भगः-ऐश्व-४ र्यादिलक्षणः स विद्यते येषां ते भगवन्तस्तेषां भगवतां सम्बन्धिना नमस्कारेण 'नमो अरहताण'इत्यनेन न पारयामि-न पारं गच्छामि, तावत् किमित्याह-'ताव कार्य ठाणेणं मोणेणं झाणेणं अपाणं वोसिरामि'त्ति तावच्छब्देन कालनिर्देश-18 माह, कार्य-देहं स्थानेन-उर्वस्थानेन तथा मौनेन-वागनिरोधलक्षणेन, तथा ध्यानेन शुभेन, 'अप्पाणं'ति प्राकृतशैल्या आत्मीयं, अन्ये न पठन्त्येवनमालापक, व्युत्सृजामि-परित्यजामि, इयमत्र भावना-कार्य स्थानमौनध्यानक्रियाव्यतिरेकेण क्रियान्तराध्यासद्वारेण ब्युत्सृजामि, नमस्कारपाठं यावत् प्रलम्बभुजो निरुद्धवाक्प्रसरः प्रशस्तध्यानानुगतस्तिष्ठामीति, तथाच कायोत्सर्गपरिसमाप्ती नमस्कारमपठतस्तद्भङ्ग एव द्रष्टव्य इत्येष तावत् समासार्थः, अवयवार्थं तु भाष्यकारो वक्ष्यति, तत्रेच्छामि स्थातुं कायोत्सर्गमित्याचं सूत्रावयवमधिकृत्याह-कायोत्सर्गस्थानं न कार्य, प्रयोजनरहितत्वात् , | तथाविधपर्यटनवदिति, अत्रीच्यते, प्रयोजनरहितत्वमसिद्धं, यतःकाउस्सगंमि ठिओ निरेयकाओ निरुद्धवइपसरो। जाणइ सुहमेगमणो मुणि देवसियाइअइयारं॥१॥ (प्र०) परिजाणिऊणय जओ संमं गुरुजणपगासणेणं तु। सोहेइ अप्पगं सो,जम्हा य जिणेहिं सो भणिओ॥२॥(प्र०) काउस्सगं मुक्खपहदेसियं जाणिऊण तो धीरा । दिवसाइयारजाणणट्ठयाइ ठायंति उस्सगं ॥ १४९७ ।।।। व्याख्या-दह च सम्बद्धगाथाद्वयमन्यकर्तृक तथापि सोपयोगमितिकृत्या व्याख्यायते, कायोत्सर्गे उक्तस्वरूपे स्थितः | - 667 Shorary om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~248 Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१४९७] भाष्यं [२३१...], प्रक्षेप [१-२] प्रत द्रीया सूत्रांक आवश्यक- सन् निरेजकायो-निष्प्रकम्पदेह इति भावना, निरुद्धवाक्प्रसरः-मौनव्यवस्थितः सन् जानीते सुखमेकमना-एकाग्रचित्त, ५कायोत्सहारिभ- दिसन् कोऽसौ -मुनि:-साधुः, किं ?-देवसिकातिचारं आदिशब्दादात्रिकग्रह इति गाथार्थः ।। ततः किमित्याह-यस्मात् गाध्य कारणात् सम्यग-अशठभावेन गुरुजनप्रकाशनेन-गुरुजननिवेदनेनेति हृदयं, तुशब्दात् तदादिअष्टप्रायश्चित्तकरणेन चः। कायोत्सर्ग प्रयोजनं ॥७८०॥ शोधयत्यात्मानमसी, अतिचारमलिनं क्षालयतीत्यर्थः, तच्चातिचारपरिज्ञानमविकलं कायोत्सर्गव्यवस्थितस्य भवत्यतः कायो-131 दिसर्गस्थानं कार्यमिति, किंच-यस्माजिनभगवद्भिरय कायोत्सर्गो भणित-उक्तः, तस्मात् कायोत्सर्गस्थानं कार्यमिति गाथार्थः ॥१-२॥ यतश्चैवमतः 'काउस्सगं मुक्खपहदेसिय'ति मोक्षपन्थास्तीर्थकर एष भण्यते तत्प्रदर्शकत्वात्, कारणे कार्योपचारात् , तेन मोक्षपथेन देशितः-उपदिष्टः मोक्षपथदेशितस्तं, 'जाणिऊणं ति दिवसाद्यतिचारपरिज्ञानोपायतया विज्ञाय ततो धीराः-साधवः, दिवसातिचारज्ञानार्थमित्युपलक्षणं रायतिचारज्ञानार्थमपि, 'ठायति उस्सग्गं'ति तिष्ठन्ति कायोत्सर्गमित्यर्थः, ततश्च कायोत्सर्गस्थानं कार्यमेव, सप्रयोजनत्वात् , तथाविधवैयावृत्यवदिति गाथार्थः ॥१४९७॥ साम्प्रतं यदुक्तं 'दिवसातिचारज्ञानार्थ मिति, तत्रौघतो विषयद्वारेण तमतिचारमुपदर्शयन्नाह सयणासणण्णपाणे चेइय जइ सेन्ज काय उच्चारे । समितीभावणगुत्ती वितहायरणमि अइयारो॥१४९८ ॥ व्याख्या-शयनीयवितथाचरणे सत्यतिचारः, एतदुक्तं भवति-संस्तारकादेरविधिना ग्रहणादौ अतिचार इति, आसण'त्ति, M ॥७८०॥ आसनवितथाचरणे सत्यतिचारः पीठकादेरविधिना ग्रहणादतिचार इति भावना, 'अण्णपाण'त्ति अन्नपानवितथाचरणे सत्यतिचारः अन्नपानस्याविधिना ग्रहणादावतिचार इत्यर्थः, 'चेतियत्ति चैत्यवितथाचरणे सत्यतिचारः, चैत्यविषयं दीप अनुक्रम पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: शयन, आसन आदीनाम् अतिचाराणां वर्णनं ~249~ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [३९] [भाग-३१] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १/४ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा-], निर्युक्तिः [१४९८] भाष्यं [२३१...], वितथाचरणमविधिना वन्दनं अकरणे चेत्यादि, 'जइ'त्ति यतिवितथाचरणे सत्यतिचारः, यतिविषयं च वितथाचरणं यथार्ह विनयाद्यकरणमिति, 'सेज'ति शय्यावितथाचरणे सत्यतिचारः, शय्या वसतिरुच्यते, तद्विषयं विराधाचरणमविधिना प्रमार्जनादी ख्यादिसंसक्तायां वा बसत इत्यादि, 'काय' इति कायिकवितथाचरणे सत्यविचारः, वितथाचरणं चास्थण्डिले कायिकं व्युत्सृजतः स्थण्डिले वाऽप्रत्युपेक्षितादावित्यादि, 'उच्चारे'त्ति उच्चारवितथाचरणे सत्यतिचारः उच्चार:- पुरीषं भण्यते वितथाचरणं चैतद्विषयं यथा कायिकायां, 'समिति'त्ति समितिवितथाचरणे सत्यतिचारः, समितयश्चेर्यासमितिप्रमुखाः पञ्च यथा प्रतिक्रमणे, वितथाचरणं चासामविधिनाऽऽसेवनेऽनासेवने चेत्यादि, 'भावने 'ति भावनावितथाचरणे सत्यतिचारः, भावनाश्चानित्यत्वादिगोचरा द्वादश, तथा चोक्तम्- 'भावयितव्यमनित्यत्वम शरणत्वं तथैकतान्यत्वे । अशुचित्वं संसारः कर्माश्रवसंवरविधिश्च १ || निर्जरण लोकविस्तर धर्मस्वाख्याततत्त्वचिन्ताश्च । बोधेः सुदुर्लभत्वं च भावना द्वादश विशुद्धाः ॥ २ ॥" अथवा पञ्चविंशतिभावना यथा प्रतिक्रमणे, वितथाचरणं चासामविधिसेवनेनेत्यादि, 'गुत्ति'ति गुप्तिवितथाचरणे सत्यतिचारः, तत्र मनोगुप्तिप्रमुखास्तिस्रो गुप्तयः यथा प्रतिक्रमणे, वितथाचरणमपि गुप्तिविषयं यथा समिति| ष्विति गाथार्थः ॥ १४९८ ॥ इत्थं सामान्येन विश्यद्वारेणातिचारमभिधायाधुना कायोत्सर्गगतस्य मुनेः क्रियामभिधित्सुराह गोसमुहणंतगाई आलोए देखिए य अइयारे । सबै समाणइत्ता हियए दोसे टविज्जाहि ॥ १४९९ ॥ कार्ड हिअए दोसे जहकमं जा न ताव पारेछ । ताव सुहुमाणुपाणू धम्मं सुकं च शाहजा ॥ १५०० ।। गोषः प्रत्यूषो भण्यते, 'मुहणंतर्ग' मुखवस्त्रिका आदिशब्दाच्छेषोपकरणग्रहः, ततश्चैतदुक्तं भवति - गोपादारभ्य मुखवस्त्रि 70 121 पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः For Parts at Use Only ~250~ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५००] भाष्यं [२३१...', आवश्यक- हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक -- ॥७८१॥ -- कादौ विषये आलोए देसिए य अतिचारे'त्ति अवलोकयेत्-निरीक्षेत दैवसिकानतिचारान्-अविधिप्रत्युपेक्षिताप्रत्युपेक्षिता- कायोत्सदीनिति, ततः 'सबे समणाइत्ता' सर्वानतिचारान मुखवस्त्रिकाप्रत्युपेक्षणादारभ्य यावत् कायोत्सर्गावस्थानमत्रान्तरे य इति गोध्या समाण इत्ता' समाप्य बुझ्यवलोकनेन समाप्तिं नीत्वा एतावन्त एत इति, नातः परमतिचारोऽस्ति ततो 'हृदये' चेतसि दोषान् अतिचारप्रतिषिद्धकरणादिलक्षणान् आलोचनीयानित्यर्थः, स्थापयेदिति गाधार्थः ॥ १४९९ ॥ कृत्वा हृदये दोषान् यथाक्रममिति कायोत्स० प्रतिसेवनानुलोम्येन आलोचनानुलोम्येन च, प्रतिसेवनानुलोम्यं नाम ये यथाऽऽसेविता इति, आलोचनानुलोम्यं तु पूर्व | लघव आलोच्यन्ते पश्चाद् गुरव इति, 'जा न ताव पारेति'त्ति यावन्न तावत् पारयति गुरुर्नमस्कारेण, 'ताव सुहुमाणु-18 पाणु'त्ति तावदिति कालावधारणं, सूक्ष्मप्राणापानः, सूक्ष्मोच्छासनिश्वास इत्यर्थः, किं ?-'धम्म सुकं च झापज्जा' धर्मध्यानं| प्रतिक्रमणाध्ययनोक्तस्वरूपं शुक्कै ध्यानं च ध्यायेदिति गाथार्थः ॥ १५००॥ एवंदेसिय राइय पक्खिय चाउम्मासे तहेव वरिसे य । इकिक्के तिन्नि गमा नायव्वा पंचसेएसु ॥१५०१॥ | व्याख्या-'देवसिय'त्ति देवसिके प्रतिक्रमणे दिवसेन निवृत्तं देवसिक, 'राइय'त्ति रात्रिके, 'पक्खिए'त्ति पाक्षिके : 'चाउम्मासे'त्ति चातुर्मासिके तथैव 'वरिसि'त्ति तथैव वार्षिके च, वर्षेण निवृत्तं वार्षिक-सांवत्सरिकमिति भावना, एकैकस्मिन् प्रतिक्रमणे देवसिकादौ त्रयो गमा ज्ञातव्याः, पञ्चस्वेतेषु दैवसिकादिषु, कथं त्रयो गमाः, सामायिकं कृत्वा ॥७८१॥ कायोत्सर्गकरणं, सामायिकमेव कृत्वा प्रतिक्रमणं, सामायिकमेव कृत्वा पुनः कायोत्सर्गम् , इह च यस्माद् दिवसादि तीर्थ | दिवसप्रधानं च तस्माद् दैवसिकमादाविति गाथार्थः ॥ १५०१॥ अत्राह चोदकः दीप अनुक्रम - JAMERatin PAIDrary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~251 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५०२] भाष्यं [२३१...], प्रत सूत्रांक सू.] आइमकाउस्सग्गे पडिकमणे ताव काउ सामइयं । तो किं करेह बीयं तइ च पुणोऽवि उस्सग्गे? ॥ १५०२॥1 समभावमि ठियप्पा उस्सग्गं करिय तो पडिक्कमइ । एमेच य समभावे ठियस्स तइयं तु उस्सग्गे ॥१५०३ ॥ सज्झायझाणतवओसहेसु उपएसथुइपयाणेसु । संतगुणकित्तणेसु अ न हुंति पुणरुत्सदोसा उ ॥ १५०४।। ____ व्याख्या-'आदिमकायोत्सर्गेइति प्रथमकायोत्सर्ग कृत्वा सामायिकमिति योगः 'पडिकमणे ताव बितियं का सामाइय'ति योगः, ता किं करेह तइयं च सामाइयं पुणोऽवि उस्सग्गो' यः प्रतिक्रान्तोपरीति गाथार्थः॥ १५०२॥ चालना चेयम्, अत्रोच्यते-'समभावंमि' गाहा व्याख्या-इह समभावस्थितस्य भावप्रतिक्रमणं भवति नान्यथा, ततश्च सम-18 भावे-रागद्वेषमध्यवर्तिनि स्थित आत्मा यस्यासौ स्थितात्मा, 'उस्सग्गं काउ (करिय) तो पडिक्कमति' दिवसातिचारपरिज्ञानाय कायोत्सर्ग कृत्वा गुरोरतिचारं निवेद्य तत्पदत्तप्रायश्चित्तं समभावपूर्वकमेव प्रपद्य ततः प्रतिकामति, 'एमेव य समभावे | | ठितस्स ततियं तु उस्सग्गे' एवमेव च समभावे व्यवस्थितस्य सतश्चारित्रशुद्धिरपि भवतीतिकृत्वा तृतीयं सामायिकं कायोत्सर्गे प्रतिक्रान्तोत्तरकालभाविनि क्रियत इति गाथार्थः ॥ १५०३ ॥ प्रत्यवस्थानमिदम्-'सज्झायझाण' गाहा व्याख्या निगदसिद्धा, इदानीं 'जो मे देवसिओ अइयारो कओं' इत्यादि सूत्रमधो व्याख्यातत्वादनादृत्य 'तस्स मिच्छामि दुकडंति सूत्रावयवं व्याचिख्यासुराहमित्ति मिउमद्दवत्से छत्ति अ दोसाण छायणे होइ। मित्ति य मेराइ ठिओ दुत्ति दुगुंछामि अप्पाणं ॥ १५०५ ।। कत्ति कहं मे पावं इत्तिय डेवेमि तं उसमेणं । एसो मिच्छाउकडपयक्खरस्थो समासेणं ॥१५०६॥ दीप अनुक्रम Jantairat पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: | 'मिच्छामिदुक्कड' शब्दस्य नियुक्ति तथा व्याख्या ~252 Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) ཝལླཱསྶ [सू.] अनुक्रम [३९] आवश्यकहारिभद्वीया ॥७८२ ॥ [भाग-३१] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ / ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा-], निर्युक्तिः [१५०६ ] भाष्यं [२३१...], इत्थं(दं) गाथायुगलं यथा सामायिकाध्ययने व्याख्यातं तथैव द्रष्टव्यमिति, साम्प्रतं 'तस्योत्तरीकरणेने 'ति सूत्रावयवं विवृण्वन्नाह खंडियविराहियाणं मूलगुणाणं सउत्तरगुणाणं । उत्तरकरणं कीरs जह सगडर हंगगेहाणं ।। १५०७ ॥ पावं छिंदह जम्हा पायच्छिन्तं तु भन्नई तेणं । पाएण वावि चित्तं विसोहए तेण पच्छन्तं ॥ १५०८ ।। दब्बे भावे य दुहा सोही सलं च इकमिकं तु । सव्वं पार्व कम्मं भामिज जेण संसारे ॥ १५०९ ॥ व्याख्या- 'खण्डित विराधितानां खण्डिता:- सर्वथा भग्ना बिराधिताः - देशतो भग्ना मूलगुणानां प्राणातिपातादिविनिवृत्तिरूपाणां सह उत्तरगुणैः- पिण्डविशुध्यादिभिर्वर्तत इति सोत्तरगुणास्तेषामुत्तरकरणं क्रियते, आलोचनादिना पुनः संस्करणमित्यर्थः दृष्टान्तमाह-यथा शकटरथाङ्गगेहानां गन्त्री चक्रगृहाणामित्यर्थः तथा च शकटानां खण्डितविराधितानां अक्षावलकादिनोत्तरकरणं क्रियत इति गाथार्थः ॥ १५०७ ॥ अधुना 'प्रायश्चित्त करणेने 'ति सूत्रावयवं व्याचिख्यासुराह-'पाव' गाहा, व्याख्या- पापं कर्मोच्यते तत् पापं छिनत्तियस्मात् कारणात् प्राकृतशैल्या 'पायच्छित्तं'ति भण्यते, तेन कारणेन, संस्कृते तु पापं छिनत्तीति पापच्छिदुच्यते, प्रायसो वा चित्तं जीवं शोधयति कर्ममलिनं विमलीकरोति तेन कारणेन प्रायश्चित्तमुच्यते, प्रायो वा बाहुल्येन चित्तं स्वेन स्वरूपेण अस्मिन् सतीति प्रायश्चित्तं प्रायोग्रहणं संवरादेरपि | तथाविधचित्तसद्भावादिति गाथार्थः ।। १५०८ ॥ अधुना 'विशोधिकरणे' त्यादिसूत्रावयवव्याचिख्यासयाऽऽह - 'दवे भावे य दुहा सोही गाहा द्रव्यतो भावतश्च द्विविधा विशुद्धिः, शल्यं च, 'एकमेकं तुति एकैकं शुद्धिरपि द्रव्यभावभेदेन For Funny ५कायोत्सगोध्य० अतिचारकायोत्स० ~253~ ॥७८२॥ bay.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५०९] भाष्यं [२३१...], प्रत सूत्रांक सू.] द्विधा, शल्यमपीत्यर्थः । तत्र द्रव्यशुद्धिः रूपादिना वस्त्रादेर्भावशुद्धिः प्रायश्चित्तादिनाऽऽत्मन एव, द्रव्यशल्यं कण्टकशिलीमुखफलादि, भावशल्यं तु मायादि, सर्व ज्ञानावरणीयादि कर्म पापं वर्तते, किमिति -भ्राम्यते येन कारणेन तेन कर्मणा जीवः संसारे-तिर्यग्नारकामरभवानुभवलक्षणे, तथा च दग्धरजुकल्पेन भवोपग्राहिणाऽल्पेनापि सता केवलिनो|ऽपि न मुक्तिमासादयन्तीति दारुणं संसारभ्रमणनिमित्तं कर्मेति गाथार्थः ॥ १५०९ ॥ साम्प्रतम् 'अन्यत्रोच्छ्रसितेने-16 | त्यवयवं विवृणोतिहै उस्सासं न निरंभइ आभिग्गहिओवि किमुअचिट्ठा उसजमरणं निरोहे सुहुमुस्सासंतु जयणाए॥१५१०॥ कासखुअजंभिए माहु सत्यमणिलोऽनिलस्स तिब्बुहो। असमाहीय निरोहेमा मसगाई अतो हत्थो॥१५१२॥ [४ाचायनिसरगुडोए जयणासहस्स नेव य निरोहो । उड्डोए वा हत्थो भमलीमुच्छासु अ निवेसो ॥१५१२॥ वीरियसजोगयाए संचारा मुहुमबायरा देहे । बाहिं रोमंचाई अंतो खेलाणिलाईया ॥ १५१३ ॥ आ(अव)लोअचलं चक्खू मणुव्व तं दुकरं थिरं काउं । स्वेहिं तयं खिप्पड सभावओ वा सयं चलइ ॥१५१४॥ न कुणइ निमेसजुत्तं तस्थुवओगेण झाण झाइजा। एगनिसिंतु पवनो झायइ साहू अणिमिसच्छोऽपि ॥१५१५॥ अगणीओ छिदिज व बोहियखोभाइ दीहडको वा । आगारेहिँ अभग्गो उस्सग्गो एवमाईहिं ॥१५१६ ॥ ऊर्व प्रबलः श्वास उच्च्टासः तं 'न निरुभइत्ति न निरुणद्धि, 'आभिम्गहिओवि' अभिगृह्यत इति अभिग्रहः अभिग्रहेण निवृत्त आभिग्रहिकः-कायोत्सर्गस्तदव्यतिरेकात् तत्कर्ताऽप्याभिग्रहिको भण्यते, असावप्यभिभवकायोत्सर्गकार्य दीप अनुक्रम SANEairat पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~254 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५१६] भाष्यं [२३१...], आवश्यक- हारिभ- द्रीया प्रत सूत्रांक ॥७८॥ [सू.] पीत्यर्थः, 'किमुत चेढा उत्ति किं पुनश्चेष्टाकायोत्सर्गकारी, स तु सुतरां न निरुणद्धि इत्यर्थः, किमित्यत आह-सज्जमरणं कायोत्सनिरोहे'त्ति सद्योमरणं निरोधे उच्छासस्य, ततश्च 'सुहुमुस्सासं तु जयणाए'त्ति सूक्ष्मोच्छासमेव यतनया मुञ्चति, नोल्बणं, गाध्य. मा भूत् सत्त्वघात इति गाथार्थः ॥ १५१० ॥ अधुना 'कासिते त्यादिसूत्रार्थप्रचिकटिपयेदमाह-कासखुयजंभिए' अतिचारगाहा व्याख्या-इह कायोत्सर्गे कासक्षुतजम्भितादीनि यतनया क्रियन्ते, किमिति !-'मा हु सत्थमणिलोऽणिलस्स कायोत्स० तिवुण्हो त्ति मा शस्त्रं भविष्यति कासितादिसमुद्भवोऽनिलो-वायुरनिलस्य-बाह्यस्य वायोः, किंभूतः?-तीब्रोष्णः, बाह्यानिलापेक्षया अत्युष्ण इत्यर्थः । न च न क्रियन्ते न च निरुध्यन्त एव न 'असमाही य निरोहे 'त्ति (सर्वधारोधे) असमाधिश्च चशब्दात् मरणमपि सम्भाव्यते कासितादिनिरोधे सति, 'मा मसगाई 'त्ति मा मसकादयश्च कासितादिसमुद्भवपधनश्लेमाभिहतामरिष्यन्ति जम्भिते च वदनप्रवेश करिष्यन्ति ततो हस्तोऽग्रतो दीयत इति यतनेयमिति गाथार्थः ॥१५११॥ आह-निःश्वसितेनेति सूत्रावयवो न व्याख्यायते इति किमत्र कारणम् , उच्यते, उच्छुसितेन तुल्ययोगक्षेमत्वादिति, इदानीम् 'उद्गारितेने त्यादिसूत्रावयवव्याचिख्यासयाऽऽह-वातनिसर्गः-उक्तस्वरूप उद्गारोऽपि, तत्रायं विधिः-यतना शब्दस्य क्रियते न निसृष्टं मुच्यत इति, 'नेव य निरोहो'त्ति नैव च निरोधः क्रियते, असमाधिभावादेव, उद्गारे वा हस्तोऽन्तरे दीयत इति 'भमलीमुच्छासु य निवेसो' मा सहसापतितस्यात्मविराधना भविष्यतीति गाथार्थः ॥ १५१२॥18॥७८३॥ साम्प्रतं 'सूक्ष्मैरङ्गसखारै रित्यादिसूत्रावयवव्याचिख्यासयाऽऽह-वीर्यसयोगतया कारणेन संचाराः सूक्ष्मवादरा देहे | अवश्यंभाविनो, वीर्य वीयान्तरायक्षयोपशमक्षयर्ज खल्वात्मपरिणामो भण्यते योगास्तु-मनोवाक्कायास्तत्र वीर्यसयोग दीप अनुक्रम AN 20-34-2564 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~255 Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५१६] भाष्यं [२३१...], प्रत सूत्रांक सू.] तयैवातिचाराः सूक्ष्मवादरा भवन्ति न केवलात् वीर्यादिति देह एव च भवति नादेहस्य, तत्र वही रोमश्चादय आदि-15 शब्दादुत्कम्पग्रहः 'अन्तो खेलानिलादीया' अन्तः-मध्ये श्लेष्मानिलादयो विचरन्तीत्यर्थः, इति गाथार्थः॥१५१३।। अधुना 'सूक्ष्मदृष्टिसञ्चारै रिति सूत्रावयवं व्याख्यानयति-अवलोकनमालोकस्तस्मिन्नवलोके चलं अवलोकचलं दर्शनलालसमि त्यर्थः, किं ?-चक्षुः-नयनं, यतश्चैवमतो मनोवद्-अन्तःकरणमिव तच्चक्षुर्दुष्करं स्थिरं कर्तुं न शक्यत इत्यर्थः, यतो रूपैतस्तदाक्षिप्यते स्वभावतो वा-स्वभावेन वा नैसर्गिकेण स्वयं चलति, आत्मनैव चलतीति गाथार्थः॥१५१४॥ यस्मादेवं तस्मात् न करोति निमेष(रोध)यल कायोत्सर्गकारी, किमिति', 'तत्थुवओगेण झाण झाएजत्ति तत्र-निर्निमेषयले य उपयोगस्तेन सता मा न ध्यानं ध्यायेत् अभिप्रेतमिति, 'एगनिसं तु पयानो झायइ साहू अणि मिसच्छोऽवि' एकरात्रिकी तु प्रतिमा प्रतिपन्नो महासत्वोध्यायति समर्थः अनिमेषाक्षोऽपि-अनिमिषे अक्षिणी यस्य सः अनिमिषाक्षः निश्चलनयन इति गाथार्थः ॥१५१५॥ अधुना एवमादिभिराकाररित्यादिसूत्रावयवव्याचिख्यासयाह-'अगणि'त्ति यदा ज्योतिः स्पृशति तदा प्रावरविणाय कल्पग्रहणं कुर्वतोन कायोत्सर्गभङ्गः, आह-नमस्कारमेवाभिधाय किमिति तद्ग्रहण न करोति येन तद्भङ्गो न भवति, उच्यते, नात्र नमस्कारपारणमेवाविशिष्टं कायोत्सर्गमानं क्रियते, किं तु यो यत्परिमाणो यत्र कायोत्सर्ग उक्तस्तत ऊर्य परिसमाप्तेऽपि तस्मिन्नमस्कारमपठतो भङ्ग इत्यादि, अपरिसमाप्तेऽपि च पठतो भङ्ग एव, स चात्र न भवतीति, एवं सर्वत्र दभावनीयं, 'छिदिज वत्ति मार्जारीमूषकादिभिवा पुरतो यायात् , अत्राप्यग्रतः सरतो न कायोसर्गभङ्गः, 'बोहियखोभाइ'सि बोधिका-स्तेनकास्तेभ्यः क्षोभा-संभ्रमः, आदिशब्दाद्राजादिक्षोभः परिगृह्यते, तत्रास्थानेऽप्युच्चारयतो(ऽनुमचारयतो)वा न BACCRACK दीप अनुक्रम JAMERI पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~256 Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५१६] भाष्यं [२३१..., आवश्यक- हारिभद्रीया % प्रत सूत्रांक ॥७८४॥ -6 -56 दीप अनुक्रम कायोत्सर्गभङ्गो 'दीहडको वेति सर्पदष्टे चात्मनि परे वा सहसा-अकाण्ड एवोच्चारयतः, तथैव आक्रियन्त इत्याकारा- कायोत्सस्तैराकारैरभन्नः स्यात् कायोत्सर्ग एवमादिभिरिति गाथार्थः ॥ १५१६ ॥ अधुनौषतः कायोत्सर्गविधिप्रतिपादनायाह- गोध्य. ते पुण ससूरिए चिय पासवणुचारकालभूमीओ । पेहित्ता अस्थमिए ठंतुस्सग्गं सए ठाणे ।। १५१७॥ अतिचारजइ पुण निवाघाए आवासं तो करिति सब्वेवि । सहाइकहणवाघाययाइ पच्छा गुरू ठति ॥१५१८॥ | कायोत्स० सेसा उ जहासति आपुछित्ताण ठंति सहाणे । सुत्तत्थसरणहे आयरिऐं ठियंमि देवसियं ॥ १५१९॥ जो हुज उ असमत्थो बालो वुडो गिलाण परितंतो।सो विकहाइविरहिओ झाइजा जा गुरू ठति ॥१५२०॥ जा देवसिझं दुगुणं चिंतइ गुरू अहिंडओऽनिहूँ । बहवाबारा इअरे एगगुणं ताव चिंतंति ॥ १५२१ ॥ पब्वइयाण व चिट्ठ नाऊण गुरू पहुं बहुविहीअं । कालेण तदुचिएणं पारेई थोवचिट्ठोऽवि ॥ (प्र०१) नमुकारचवीसगकिइकम्मालोअणं पडिकमणं । किइकम्मदुरालोइअ दुप्पडिकते य उस्सग्गो ॥१५२२॥ एस चरितुस्सग्गो दसणसुद्धीइ तइयओ होह । सुअनाणस्स चउत्थो सिहाण धुई अकिइकम्मं ॥ १५२३ ॥12 | व्याख्या-ते पुन:-कायोत्सर्गकारः ससूर्य एव दिवसे प्रश्रवणोच्चारकालभूमयः (मीः) प्रत्युपेक्षन्ते, द्वादश प्रश्रवण-18 भूमयः आलयपरिभोगान्तः पटू पटू पहिः, एवमुच्चारभूमयो द्वादश, प्रमाणं चासां तियर जपन्येन हस्तमात्रमधश्चत्वार्य-16 लानि यावत् अचेतनं, उत्कृष्टतस्तु स्थण्डिलं द्वादश योजनमानं,न च तेनेहाधिकारः, तिनस्तु कालभूमय:-कालमण्डलाख्याः ,। यावश्चैनमन्यं च श्रमणयोगं कुर्वन्ति कालवेलायां तावत् प्रायसोऽस्त मुपयात्येव सविता ततश्च 'अथमिए ठंति उस्सग्गं R MEaina पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: कायोत्सर्गस्य विधि: प्रतिपाद्यते ~257 Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५२३] भाष्यं [२३१...], प्रक्षेप [१] 405 प्रत सूत्रांक सू.] सए ठाणे ति उक्तमन्यथा यस्य यदैव व्यापारपरिसमाप्तिर्भवति स तदैव सामयिकं कृत्वा तिष्ठतीति गाथार्थः ॥१५१७॥ | अयं च विधिः केनचित् कारणान्तरेण गुरोयाघाते सति। 'जइ पुण निवाघाओ' व्याख्या-यदि पुनर्नियाघात एव सर्वे-| पामावश्यक-प्रतिकमणं ततः कुर्वन्ति सर्वेऽपि सहैव गुरुणा 'सड्डादिकहणवापाते पच्छा गुरू ठंति'त्ति निगदसिद्धमिति गाधार्थः ॥ १५१८॥ यदा च पश्चाद् गुरवस्तिष्ठन्ति तदा-'सेसा उ जहासत्ती' गाहा व्याख्या-शेषास्तु साधवो यथाशक्ति-शक्त्यनुरूपं यो हि यावन्तं कालं स्थातुं समर्थः 'आपुछित्ता गुरू ठंति सट्टाणे सामायिकं काऊण, किंनिमित्तं ?-'सुत्तस्थसरणहे सूत्रार्थस्मरणनिमित्तं-'आयरिए ठियंमि देवसिय आयरिए पुरओ ठिए तरस सामाझ्यावसाणे देवसियं अइयारं चिंतेति, अण्णे भणंति-जाहे आयरिओ सामाइयं कहइ ताहे तेवि तयडिया चेव सामाइयसुत्तमणुपेहंति गुरुणा सह पच्छा देवसिय'ति गाथार्थः ॥ १५१९ ॥ शेषाश्च यथा शक्तिरित्युक्त, यस्य कायोत्सर्गेण स्थातुं शक्तिरेव नास्ति स किं कुर्यादिति तद्गतं विधिमभिधित्सुराह-'जो हुज उ असमत्थों' गाहा व्याख्या-यः कश्चित् साधु वेदसमर्थः कायोदात्सर्गेण स्थातुं, स किंभूत इत्याह-वालो वृद्धो ग्लानः 'परितंतो'त्ति परिश्रान्तो गुरुवयावृत्यकरणादिना असावपि विकथादिविरहितः सन् ध्यायेत् सूत्रार्थ 'जा गुरू ठति'त्ति यावद् गुरवस्तिष्ठन्ति कायोत्सर्गमिति गाथार्थः ॥ १५२०॥ दीप अनुक्रम आपृच्छय गुरून तिष्ठन्ति स्वस्थाने सामायिक कृपा, किनिमित, सूत्रार्थस्मरणहेतोः । भाचार्य स्थिते देवक्षिक-आचार्य पुरतः स्थिते तस्य सामा-1 यिकावसाने देवसिकमतिचारं चिन्तयन्ति, अम्बे भणन्ति-बदाऽऽचार्याः सामायिक कथयन्ति तदा तेऽपि तदवस्थिता एवं सामायिकसूत्रमनुप्रेक्षन्ते गुरुणा | सह पश्चावसिक, JANEasa n पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~258~ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५२३] भाष्यं [२३१...], प्रक्षेप [१] प्रत सूत्रांक ૭૮ [सू.] दीप अनुक्रम आवश्यक- आचार्य स्थिते दैवसिकमित्युक्तं तद्गतं विधिमभिधित्सुराह-जा देवसियं दुगुणं चिंतइ' गाहा व्याख्या-निगदसिद्धा, कायोत्सहारिभ- नवरं चेष्टा व्यापाररूपाऽवगन्तव्या ॥१५२१॥ नमोकारच उवीसग' गाहा व्याख्या-'नमोकारे'ति कोउस्सग्गसमत्तीए नमोका-18] गाध्यक द्रीया रेण पारेंति नमो अरहंताणंति, 'चउवीसग'त्ति पुणो जेहिं इमं तित्थं देसियं तेसिं तित्थगराणं उसभादीणं चवीसत्थएणं, प्रतिकाउक्त्तिर्ण करेंति, लोगस्सुजोयगरेणंति भणियं होति, "कितिकम्मे ति तओ वंदिउकामा गुरुं संडासयं पडिलेहिता उववि-12 18|न्तिविधिः संति, ताहे मुहणंतगं पडिलेहिय ससीसोवरियं कार्य पमजति, पमजित्ता परेण विणएण तिकरणविसुद्धं कितिकम्मं करेंति, वन्दनकमित्यर्थः, उक्तं च-"आलोयणवागरणासंपुच्छणपूयणाए सज्झाए । अवराहे य गुरूणं विणओमूलं च बंदणग॥शा" मित्यादि 'आलोयणे ति एवं च वंदित्ता उत्थाय उभयकरगहियरओहरणाद्धावणयकाया पुवपरिचिंतिए दोसे जहारायणियाए संजयभासाए जहा गुरू सुणेइ तहा पवहमाणसंवेगा भयविप्पमुक्का अप्पणो विशुद्धिनिमित्तमालोयंति, उक्कं च"विणएण विणयमूलं गंतूणायरियपायमूलंमि । जाणाविज सुविहिओ जह अप्पाणं तह परंपि॥१॥ कयपावोवि मणुस्सो . १कागोरखगसमाप्ती नमस्कारेण पारयति नमोहंजय इति, चतुर्विंशतिति, पुनरित तीर्थ देशितं तेषां तीर्थकराणामुपमादीनां चतुर्विंशतिस्तनोकी-1 सनं कुर्वन्ति, लोकस्योद्योतकरेणेति भणितं भवति, कृतिकर्मेति ततो बन्दितुकामा गुरु संबंशकान् प्रमाण्यापविशन्ति, ततो मुखामस्तक प्रतिलिरुष सशीमु- परितर्न कार्य प्रमार्जपन्ति, प्रसूम परेण विनयेन त्रिकरणविशुद्ध कृतिकर्म कुर्वन्ति । भालोचनाम्याकरणसंप्रभपूजनासु स्वाध्याये । अपराधे च गुरूणां विनयो ॥७८५|| मूलं च वन्दनकं । एवं च वन्दित्वोत्यायोभयकरगृहीतरजोहरणा अर्धावनतकायाः पूर्वपरिचिन्तितान् दोषान् वधारवाधिक संवतभाषषा यथा गुरुः शृणोति तथा प्रवर्धमानसंवेगा भयविषमुका मारमनो विशुद्धिनिमित्तमालोचन्ति-विनयेन विनयमूलं गत्वाचायपादमूले । शापयेत् सुविहितो यथाश्रमानं तथा परमपि ॥१॥ कृतपापोऽपि मनुष्य --9-484-5 natorary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~259~ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५२३] भाष्यं [२३१...], प्रक्षेप [१] प्रत आलोइजनिंदिउ गुरुसयासे । होइ अइरेगलहूओ ओहरियभरोब भारवहो ॥२॥ तथा-उप्पण्णाणुप्पन्ना माया अणुम-16 ग्गओ निहतषा । आलोयणनिंदणगरहणाहिं ण पुणो सिया वितिथं ॥३॥ तस्स य पायच्छित्तं जं मग्गविऊ गुरू उव-14 इसति । तं तह अणुचरियवं अणवत्थपसंगभीएणं ॥ ४॥ 'पडिकमण'ति-'आलोइऊण दोसे गुरुणा पडिदिण्णपायच्छित्ता उ । सामाइयपुवगं समभा(वा)वठिया पडिकमंति ॥१॥ सम्ममुवउत्ता पयंपएण पडिकमणं कडेति, अणवस्थपसंगभीया, अणवत्थाए पुण उदाहरणं तिलहारगकप्पडगोत्ति, 'कितिकम्मति तओ पडिकमित्ता खामणानिमित्तं पडितायवत्तनिवेयणत्थं च वंदंति, तओ आयरियमादी पडिकमणत्यमेव दंसेमाणा खाति, उक्तं च-आयरिउवझाए सीसे साहमिए कुलगणे य । जे मे केऽवि कसाया सबे तिविहेण खामेमि ॥१॥ सबस्स समणसंघस्त भगवओ अंजलिं करिय सीसे । सबं: समावइत्ता खमामि सबस्स अपि ॥२॥ सबस्स जीवरासिस्स भावओ धम्मनिहियनियचित्तो । सर्व खमावइत्ता ४ ॐॐॐॐ9515 सूत्रांक सू.] दीप अनुक्रम CRORRCH -%ॐ भालोप निन्दित्वा गुरुसकायो । भवत्यतिशयेन लघुरुदतभर इव भारवाहः ॥२॥ अपनाउनुपजा माया प्रतिमार्ग निहन्तया । मालोचना निम्दना-४ गहनाभिन खान द्वितीयवारम् ॥३॥ तस्य चप्रायश्रितं यन्मार्गविदो गुरव उपदिशन्तिा तत्तथाऽनुचरितव्यमनवस्थाप्रसहभीतेन ॥४॥ आलोग्य दोषान् गुरुया प्रतिदासायश्रित्तास्तु । सामाविकपूर्व समभावावस्थिताः प्रतिकाम्यन्ति ॥१॥ सम्यगुपयुक्ताः पदंपदेन प्रतिक्रमणसूत्रं कधयन्त्वनवस्थामसमभीताः, अन-T वस्थायां पुनसदाहरणं तिलहारकशिशुरिति । ततः प्रतिक्रम्य क्षामणानिमिर्च प्रतिकान्ताआत्मवृत्तनिवनाथ चवन्दन्ते, तत भाचार्यादीन् प्रतिक्रमणार्थमेष दर्श वन्तः क्षमयन्ति । आचार्योपाध्यान् शिष्यान् सार्मिकान् कुलगणांश्च । ये मया केऽपि कथायिताः सर्वान् विविधेन अमयामि ॥1॥सर्वत्रमणस तस्य भगवते कृत्वा शीर्षे । सर्व क्षमविवा क्षमे सर्वस्वाहमपि ॥२॥ सर्वस्मिन् जीवराशी भावतो धर्म निहितनिचितः । सर्व क्षमयित्वा 7 InHIDram.org पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~260 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [9], मूलं [सू.] / [गाथा १-७], नियुक्ति : [१५२३] भाष्यं [२३१...', प्रक्षेप [१] गांध्य द्रीया प्रत सूत्रांक ||गा.|| आवश्यक- खमामि सबस्स अयपि ॥३॥" इत्यादि 'दुरालोइयदुप्पडिकते य उस्सग्गेत्ति एवं खामित्ता आयरियमादी ततो दुरालो-18|कायोत्सहारिभ- हैं इयं वा होज्जा दुप्पडिकंतं वा होजा अणाभोगादिकारणेण ततो पुणोवि कयसामाइया चरित्तविसोहणत्थमेव काउस्सगं प्रतिकाकरेंतित्ति गाथार्थः ॥ १५२२ ।। 'एस चरित्तुस्सग्गो' गाहा व्याख्या-एस चरितुसग्गोत्ति चरित्तातियारविसुद्धिनिमि-11 |न्तिविधिः दत्तोत्ति भणिय होइ, अयं च पंचासुस्सासपरिमाणो॥१५२३॥ ततो नमोक्कारेण पारेत्ता विशुद्धचरित्ता विशुद्धदेसयाणं दंसण-14 ॥७८६॥ विसुद्धिनिमित्तं नामुक्त्तिणं करेंति, चरित्तं विसोहियमियाणिं दसणं विसोहिज्जतित्तिकछु, तं पुण णामुक्त्तिणमेवं करंति, लोगसमुज्जोयगरे त्यादि, अयं चतुर्विंशतिस्तवे न्यक्षेण व्याख्यात इति नेह पुनव्याख्यायते, चतुर्विंशतिस्तवं चाभिधाय मूलसूत्र - लोगस्म दर्शनविशुद्धिनिमित्तमेव कायोत्सर्ग चिकीर्षवः पुनरिद सूत्रं पठन्ति MOसव्वलोए अरिहंतचेइयाण करेमि काउस्सरगं वंदणवत्तियाए पूअणवत्तियाए सकारवत्तियाए सम्माणवत्ति याए बोहिलाभवत्तियाए निरुवसग्गवत्तियाए साए मेहाए धिइए धारणाए अणुप्पहाए बहुमाणीए ठामि | काउस्सगं (सूत्रं)॥ क्षमे सर्वस्याहमपि ॥ ३ ॥ एवं क्षमयित्वाऽऽचाबांदीन ततो दुरालोचितं वा भवेत् दुष्प्रतिकान्त वा भवेत् अनाभोगादिकारणेन ततः पुनरपि कृत ७८६॥ सामाबिकाश्चारित्रपिशोधनामेव कायोत्सग कुर्वन्ति । एष चारित्रोत्सर्ग इति चारित्रातिचारविशुद्धिनिमित्त इति भन्वितं भवति, अयं च पञ्चाशदुशासपरिमाणः, ततो नमस्कारेण पारयित्वा विशुद्धचारित्रा विशुद्धदेशकानां दर्शनशुद्धिनिमित्तं नामोत्कीर्तनं कुर्वन्ति, चारित्रं विशोधितमिदानी दर्शनं विशुष्यस्वितिकृत्वा, तायुननामोत्कीर्तनमेवं कुर्वन्ति । दीप अनुक्रम [४०-४६]] Jantaintml Satarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: सर्वलोके स्थित अर्हत्चैत्य-आश्रित कायोत्सर्ग: ~261 Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [9], मूलं [सू.] / [गाथा १-७], नियुक्ति : [१५२३...] भाष्यं [२३१...., प्रत सूत्रांक है। अस्य व्याख्या-सर्वलोकेऽहंच्चैत्यानां करोमि कायोत्सर्गमिति, तत्र लोक्यते-दृश्यते केवलज्ञानभास्वतेति लोकः-चतु दशरज्ज्वात्मकः परिगृह्यते इति, उक्तं च-"धर्मादीनां वृत्तिव्याणां भवति यत्र तत् क्षेत्रम् । तैव्यैः सह लोकस्तद्धिपरीतं ह्यलोकाख्यम् ॥१॥" सर्वः खल्वस्तिर्यगूलभेदभिन्नः, सर्वश्चासौ लोकश्च २ तस्मिन् सर्वलोके, त्रैलोक्ये इत्यर्थः, तथाहि-अधोलोके चमरादिभवनेषु तिर्यग्लोके द्वीपाचलज्योतिष्कविमानादिषु सन्त्येवार्हचैत्यानि ऊ लोके सौधर्मा|दिषु सन्त्येवाईचैत्यानि, तत्राशोकायष्टमहापातिहार्यरूपां पूजामहन्तीत्यहन्तः-तीर्थकरास्तेषां चैत्यानि-प्रतिमालक्षणानि अर्हच्चत्यानि, इथमत्र भावना-चित्तम्-अन्तःकरणं तस्य भावे कर्मणि या वर्णदृढादिलक्षणे व्यभि कृते चैत्यं भवति, तत्रार्हतां प्रतिमाः प्रशस्तसमाधिचित्तोत्पादनादर्हच्चैत्यानि भण्यन्ते, तेषां किं-करोमीत्युत्तमपुरुषैकवचननिर्देशनात्माभ्युपगमं दर्शयति, किमित्याह-काय:-शरीरं तस्योत्सर्गः-कृताकारस्य स्थानमौनध्यानकियाव्यतिरेकेण क्रियान्तराध्या-ID समधिकृत्य परित्याग इत्यर्थः, तं कायोत्सर्ग, आह-कायस्योत्सर्ग इति षष्ट्या समासः कृतः, अर्हच्चैत्यानामिति प्रागुक्त, तत् किमर्हचैत्यानां कायोत्सर्ग करोति !, नेत्युच्यते, षष्ठीनिर्दिष्टं तत्पदं पदद्वयमतिक्रम्य मण्डूकप्लुत्या वन्दनप्रत्ययमित्या-1 [दिभिः सम्बध्यते, ततोऽहं चैत्यानां वन्दनप्रत्ययं करोमि कायोत्सर्गमिति द्रष्टव्यम्, तत्र बन्दनम्-अभिवादनं प्रशस्तका-12 यवाङमनःप्रवृत्तिरित्यर्थः, तत्प्रत्यय-तन्निमित्तं, तत्फलं में कथं नाम कायोत्सर्गादित्यतोऽर्थमित्येवं सर्वत्र भावना कार्या, तथा 'पूयणवत्तियाए'त्ति पूजनप्रत्ययं-पूजानिमित्तं,तत्र पूजन-गन्धमास्यादिभिरभ्यर्चनं,तथा 'सकारवत्तियाए'त्ति सत्कारप्रत्यय-सत्कारनिमित्तं, तत्र प्रवरवस्त्राभरणादिभिरभ्यर्चनं सत्कारः, आह-यदि पूजनसत्कारप्रत्ययः कायोत्सर्गः क्रियते | दीप अनुक्रम [४७] मा० १३२ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~262 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा १-७], नियुक्ति : [१५२३...] भाष्यं [२३१..., I आवश्यक- हारिभद्रीया प्रत % स सूत्रांक ॥७८७॥ AREERS ततस्तावेव कस्मान्न क्रियेते ?, उच्यते, द्रव्यस्तववादप्रधानत्वाद्, उक्त च-दवत्थउ भावत्थर' इत्यादि, अतः श्रावकाः पूज- कायोत्सनसत्कारावपि कुर्वन्त्येव,साधवस्तु प्रशस्ताध्यवसायनिमित्तमेवमभिदधति,तथा सम्माणवत्तियाए'त्ति सन्मानप्रत्ययं-सम्मान-IN |निमितं, तत्र स्तुत्यादिभिर्गुणोन्नतिकरण सम्मानः, तथा मानसः प्रीतिविशेष इत्यन्ये, अथ वन्दनपूजनसत्कारसन्माना एप प्रतिक्रमण * विधिः किंनिमित्तमित्यत आह-'बोहिलाभवत्तियाएं बोधिलाभप्रत्ययं-बोधिलाभनिमित्त प्रेत्य जिनप्रणीतधर्मप्राप्तिबोंधिलाभो भण्यते, अथ बोधिलाभ एव किंनिमित्तमित्यत आह 'निरुवसग्गवत्तियाए' निरुपसर्गप्रत्ययं-निरुपसर्गनिमित्त, निरुपसर्गो-मोक्षः, अयं च कायोत्सर्गः क्रियमाणोऽपि श्रद्धा(दि)विकलस्य नाभिलषितार्थप्रसाधनायालमित्यत आह-'सद्धाए मेहाए घिईए धारणाए अणुप्पेहाए बद्धमाणीप ठामि काउस्सगं'ति श्रद्धया हेतुभूतया तिष्ठामि कायोत्सर्ग न बलाभियोगा|दिना श्रद्धा-निजोऽभिलापः, एवं मेधया-पटुत्वेन, न जडतया, अन्ये तु व्याचक्षते-मेधयेति मर्यादावर्तित्वेन नासमञ्जसतयेति, एवं धृत्या-मनःप्रणिधानलक्षणया न पुना रागद्वेषाकुलतया, धारणया-अर्हद्गुणाविष्करणरूपया न तच्छून्यतया, अनुप्रेक्षया-अर्हद्गुणानामेव मुहुर्मुहुरविच्युतिरूपेणानुचिन्तनया न तवैकल्येन, बर्द्धमानयेति प्रत्येकमभिसम्बध्यते, श्रद्धया वर्द्धमानया एवं मेधयेत्यादि, एवं तिष्ठामि कायोत्सर्गम् , आह-उक्तमेव प्राकरोभि कायोत्सर्ग साम्प्रतं तिष्ठामीति किमर्थमिति', उच्यते, 'वर्तमानसामीप्ये वर्तमानवद्वा (पा०३-३-१३१) इति कृत्वा करोमि करिष्यामीति क्रियाभिमुख्यमुक्तमिदानी ७८७॥ वासन्नतरत्वात् क्रियाकालनिष्ठाकालयोः कथचिदभेदात् तिष्ठाम्येव, आह-किं सर्वथा ?, नेत्याह-'अन्नत्थूससिएणमित्यादि पूर्ववत् यावद्वोसिरामिति, एयं च सुर्स पढित्ता पणवीसूसासपरिमाणं काउस्सग्गं करेंति, 'दसणविसुद्धीय तइउत्ति, दीप अनुक्रम ESENCESS [४७] JAMERAMMA पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~263 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [सू.] / [गाथा १-४], नियुक्ति: [१५२३...] भाष्यं [२३१...., प्रत सूत्रांक ||गा.|| तृतीयत्वं चास्यातीचारालोचनविषयप्रथमकायोत्सर्गापेक्षयेति, तओ नमोकारेण पारेत्ता सुयणाणपरिहिनिमित्त अतियारवि सोहणत्थं च सुयधम्मस्स भगवओ पराए भत्तीए तप्परूवगनमोकारपुवयं थुई पति, तंजहाROपुक्खरवरदीवड्डे धायइसंडे य जंबुद्दीवे य । भरहेरवयक्देिहे धम्माइगरे नमसामि ॥१॥ तमतिमिरपडल-18 विडंसणस्स सुरगणनरिंदमहिअस्स । सीमाधरस्स वंदे पप्फोडियमोहजालस्स ॥२॥ जाईजरामरणसोगप णासणस्स, कल्लाणपुक्खल विसालमुहावहस्स । को देवदानवनरिंदगणश्चिअस्स, धम्मस्स सारमुचलब्भ करे सपमायं ॥३॥ सिद्धे भो ! पयओ णमो जिणमए नंदी सया संजमे, देवनागसुवण्णकिण्णरगणस्सन्भूजभाक चिए । लोगो जत्थ पइटिओ जगमिणं तेलुकमचासुरं, धम्मो बहुउ सासओ विजयऊ धम्मुत्तरं बलज ॥ ४॥ 18सुअस्स भगवओ करेमि काउस्सग्गं वंदण अन्नत्य (सूत्रम्) | अस्य व्याख्या-पुष्कराणि-पद्मानि तैर्वरः-प्रधानः पुष्करवरः २ श्चासौ द्वीपश्चेति समासः,तस्याधैं मानुषोत्तराचलार्वाग्वर्ति तस्मिन, तथा धातकीनां खण्डानि यस्मिन् स धातकीखण्डो द्वीपस्तस्मिंश्च, तथा जम्बोपलक्षितस्तरप्रधानो वा द्वीपो। जम्बदीपस्तस्मिंच, एतेवतृतीयेषु द्वीपेषु महत्तरक्षेत्रप्राधान्याङ्गीकरणतः पश्चानुपूर्योपन्यस्तेषु यानि भरतैरावतविदेहानि प्राकृतशैल्या वेकवचननिर्देश द्वन्द्वैकवद्भावाद् भरतैरावतषिदेह इत्यपि भवति, तत्र धर्मादिकरणान्नमस्यामि-'दुर्गति-18 प्रसृतान् जीवान्, यस्मादू धारयते ततः । धत्ते चैतान् शुभस्थाने, तस्माद् धर्म इति स्मृतः॥१॥ स च द्विभेद:श्रुतधर्मश्चारित्रधर्मश्च, श्रुतधर्मेणेहाधिकारः, तस्य भरतादिष्वादौ करणशीलास्तीर्थकरा एवातस्तेषां स्तुतिरुक्का, साम्प्रतं | दीप अनुक्रम [४८-५२] Jantaintiman पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: श्रुतस्तव रूप 'पुष्करवरद्वीप' सूत्र, मूल एवं व्याख्या ~264 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [सू.] / [गाथा १-४], नियुक्ति: [१५२३...] भाष्यं [२३१...., आवश्यक- हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ||गा.|| ॥७८८॥ दीप अनुक्रम [४८-५२] श्रुतधर्मस्य प्रोच्यते-'तमतिमिरपडलविद्धसणस्स सुरगणे त्यादि, तम:-अज्ञानं तदेव तिमिरं अथवा तमः-बद्धस्पृष्टनि- कायोत्स| धत्तं ज्ञानावरणीयं निकाचितं तिमिरं तस्य पटलं-वृन्दं तमस्तिमिरपटलं तद् विध्वंसयति नाशयतीति तमस्तिमिरपट- गोंध्य. लविध्वंसनः तस्य, तथा चाज्ञाननिरासेनैवास्य प्रवृत्तिः, तथा सुरगणनरेन्द्रमहितस्य, तथा चागममहिमानं कुर्वन्त्येव पतिक्रमणसुरादयः, तथा सीमां-मर्यादां धारयतीति सीमाधरः, सीम्नि वा धारयतीति तस्येति, तृतीयाथै षष्ठी, तं वन्दे, तस्य वा विध: यत् माहात्म्यं तद् वन्दे, अथवा तस्य वन्द इति वन्दनं करोमि, तथाहि-आगमवन्त एवं मर्यादां धारयन्ति, किंभूतस्य ?-प्रकर्षण स्फोटितं मोहजालं-मिथ्यात्वादि येन स तथोच्यते तस्य, तथा चास्मिन् सति विवेकिनो मोहजालं विलयमुपयास्येव, इत्थं श्रुतधर्ममभिवन्द्याधुना तस्यैव गुणोपदर्शनद्वारेण प्रमादागोचरतां प्रतिपादयन्नाह-'जाईजरामरणे त्यादि, जाति:-उत्पत्तिः जरा-क्योहानिः मरण-प्राणत्यागः शोकः-मानसो दुःखविशेषः, जातिश्च जरा च मरणं च शोकश्वेति द्वन्द्वः, जातिजरामरणशोकान् प्रणाशयति-अपनयति जातिजरामरणशोकप्रणाशनस्तस्य, तथा च श्रुतधर्मो कानुछानाज्जात्यादयः प्रणश्यन्त्येव, अनेन चास्यानर्थप्रतिघातित्वमाह, कल्यम्-आरोग्यं कल्यमणतीति कल्याणं, कल्यं शब्दयतीत्यर्थः, पुष्कलं-सम्पूर्ण न च तदल्प किं तु विशालं-विस्तीर्ण सुख-प्रतीतं कल्याणं पुष्कलं विशालं सुखमावहतिप्रापयतीति कल्याणपुष्कलविशालसुखावहस्तस्य, तथा च श्रुतधर्मोक्तानुष्ठानादुक्तलक्षणमपवर्गसुखमवाप्यत एव, अनेन चास्य ॥७८८॥ विशिष्टार्थप्रसाधकत्वमाह, कःपाणी देवदानवनरेन्द्रगणार्चितस्य श्रुतधर्मस्य सारं-सामर्थ्यमुपलभ्य-दृष्ट्वा विज्ञाय कुर्यात् प्रमाद, सचेतनः चारित्रधर्म प्रमादः कर्तुं न युक्त इति हृदयम्, आह-सुरगणनरेन्द्रमहितस्येत्युक्तं पुनर्देवदानवनरेन्द्रगणार्चि-17 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~265 Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा १-४], नियुक्ति : [१५२३...] भाष्यं [२३१..., 4-059-4 प्रत सूत्रांक ||गा.|| दीप तस्येति किमर्थमिति !, अत्रोच्यते, तनिगमनत्वाददोषः, तस्यैवंगुणस्य धर्मस्य सारमुपलभ्य कासकर्णः प्रमादी भवेच्चारित्रधर्म इति, यतश्चैवमतः 'सिद्धे भो पयओ नमो जिणमये इत्यादि, सिद्धे-प्रतिष्ठिते प्रख्याते भो इत्येतदतिशयिनामामन्त्रर्ण पश्यन्तु भवन्तः प्रयतोऽहं-यथाशक्योधतःप्रकर्षेण यतः, इत्थं परसाक्षिकं भू(कृ)स्वा पुनर्नमस्करोति-नमो जिनमते' अर्थाद विभ[क्तिपरिणामो नमो जिनमताय, तथा चास्मिन् सति जिनमते नन्दिः-समृद्धिः सदा-सर्वकालं, क ?-संयमे-चारित्रे, | यथोक्तं-पढम णाणं तओ दये'त्यादि, किंभूते संयमे -देवनागसुवर्णकिन्नरगणैः सद्भूतभावेनाचिंते, तथा च संयम वन्तः अय॑न्त एव देवादिभिः, किंभूते जिनमते ?-लोक्यतेऽनेनेति लोकः-ज्ञानमेव स यत्र प्रतिष्ठितः, तथा जगदिदं Pाज्ञयतया, केचित् मनुष्यलोकमेव जगत् मन्यन्ते इत्यत आह-त्रैलोक्यमनुष्यासुरं, आधाराधेयरूपमित्यर्थः, अयमिस्थंभूतः15 श्रुतधर्मो वर्द्धतां-वृद्धिमुपयातु शाश्वतः-द्रव्यार्थादेशान्नित्यः, तथा चोक्तं-'द्रव्यार्थादेशात् इत्येषा द्वादशाङ्गी न कदाचिद् नासीदित्यादि, अन्ये पठन्ति-धर्मों बर्बतां शाश्वतं इति, अस्मिन् पक्षे क्रियाविशेषणमेतत्, शाश्वतं वर्द्धता अप्रयु-1 त्येति भावना, विजयतां कर्मपरप्रवादिविजयेनेति हृदयं, तथा धर्मोत्तर-चारित्रधर्मोत्तरं वर्द्धतु, पुनवयभिधानं मोक्षा-1 थिंना प्रत्यहं ज्ञानवृद्धिः कार्येति प्रदर्शनार्थ, तथा च तीर्थकरनामकर्महेतून् प्रतिपादयतोतं-"अप्पुवणाणगहणे"त्ति, 'सुयस्स भगवओ करेमि काउस्सग्गं बंदणवत्तियाए' इत्यादि प्रागवत् , यावद्वोसिरामि । एयं सुर्त पढित्ता पणुवी|सुस्सासमेव काउस्सर्ग करेमि, आह च-'सुयणाणस्स चउत्थोत्ति, तओ नमोकारेण पारिता विसुद्धचरणदसणसुयाइयारा मंगलनिमित्तं चरणदसणसुयदेसगाणं सिद्धाणं थुई कडेति, भणियं च-सिद्धाण थुई यत्ति, सा चेयं स्तुतिः + अनुक्रम [४८-५२] + P JamEajal saram पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~266~ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [सू.] / [गाथा १-५], नियुक्ति: [१५२३...] भाष्यं [२३१...., प्रत सूत्रांक ||गा.|| आवश्यक- सिहाणं बुद्धाणं पारगयाणं परंपरगयाणं । लोयग्गमुवगयाणं नमो सया सव्वसिद्धाणं ॥१॥जो देवा-पकायोत्सहारिभ- वि देवो जं देवा पंजली नमसंति । तं देवदेवमहिअंसिरसा वंदे महावीरं ॥२॥इकोऽवि नमुकारो जिण-16 गोध्य द्रीया |वरवसहस्स बद्धमाणस्स । संसारसागराओ तारेह नरं व नारिं वा ॥३॥ उर्जितसेलसिहरे दिक्खा नाणं प्रतिक्रमण विधिः ॥७८९|| निसीहिआ जस्स । तं धम्मचकवहिं अरिहनेमि नमसामि ॥ ४॥ यत्सारि अह दस दो य वंदिआ जिणवरा चउव्वीसं । परमट्टनिहिअट्ठा सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु॥५॥ (सूत्रं) ___ अस्व व्याख्या-सित ध्मातमेषामिति सिद्धा निर्दग्धकर्मेन्धना इत्यर्थस्तेभ्यः सिद्धेभ्यः, ते च सामान्यतो विद्यासिद्धा अपि ४ भवन्त्यत आह-बुद्धेभ्यः, तत्रावगताशेषाविपरीततत्त्वा बुद्धा उच्यन्ते, तत्र कैश्चित् स्वतन्त्रतयैव तेऽपि वतीर्थोज्ज्वलनाय, द इहागच्छन्ति इत्यभ्युपगम्यन्ते अत आह-पारगतेभ्यः पार-पर्यन्तं संसारस्य प्रयोजनवातस्य च गताः पारगताः तेभ्यः, तेऽपि चानादिसिद्धैकजगत्पतीच्छावशात् कैश्चित् तथाऽभ्युपगम्यन्ते अत आह-'परम्परगतेभ्यः परम्परया एकेनाभिव्यतार्थीदागमात् (कश्चित्) प्रवृत्तोऽन्येनाभिव्यक्तादादन्योऽन्येनाप्यन्य इत्येवंभूतया गताः परंपरगतास्तेभ्यः, आह-प्रथमएक केनाभिव्यक्तार्थादागमात् प्रवृत्त इति ?, उच्यते, अनादित्वात् सिद्धानां प्रथमत्वानुपपत्तिरिति, अथवा कथश्चित् कर्मक्षयोपशमात् दर्शनं दर्शनात् ज्ञानं ज्ञानाचारित्रमित्येवभूतया परम्परया गतास्तेभ्यः, तेऽपि च कैश्चित् सर्वलोकापन्ना एवेष्यन्त इत्यत आह-'लोकाप्रमुपगतेभ्यः' लोकायम्-ईषत्याग्भाराख्यं तमुपगताः तेभ्यः, आह-कथं पुनरिह सकलकर्मविनमुक्तानां लोकायं यावद्गतिर्भवति , भावे वा सर्वदैव कस्मान्न भवतीति !, अत्रोच्यते, पूर्वावधवशाद् दण्डादिच दीप अनुक्रम [५३-५७]] ॥७८९ा natorary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: सिद्धस्तव रूप 'सिद्धाणं बुद्धाणं' सूत्र एवं तस्य व्याख्या ~267 Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा १-५], नियुक्ति : [१५२३...] भाष्यं [२३१..., प्रत सूत्रांक ||गा.|| भ्रमणवत् समयमेवैकमवसेयेति, नमः सर्वदा-सर्वकालं 'सर्वसिद्धेभ्यः' तीर्थसिद्धादिभेदभिन्नेभ्यः, अथवा सर्व साध्यं सिद्ध येषां ते तथा तेभ्यः, इत्थं सामाग्येन सर्वसिद्धनमस्कारं कृत्वा पुनरासन्नोपकारित्वाद् वर्तमानतीर्थाधिपतेः श्रीमन्महा-14 वीरवर्द्धमानस्वामिनः स्तुतिं कुर्वन्ति-'जो देवाणवि देवो जं देवा पंजली'त्यादि, यो भगवान् महावीरः देवानामपि-भवन-1 वास्यादीनां देवः, पूज्यत्वात् , तथा चाह-यं देवाः प्राञ्जलयो नमस्यन्ति-विनयरचितकरपुटाः सन्तः प्रणमन्ति, तं 'देवद देवमहिय' देवदेवाः-शकादयः तैः महितं-पूजितं शिरसा उत्तमाङ्गेनेत्यादरमदर्शनार्थमाह, वम्दे, त के ?-'महावीर' 'ईर गतिप्रेरणयो रित्यस्य विपूर्वस्य विशेषेण ईरयति-कर्म गमयति याति वा शिवमिति वीरः, महांश्चासौ वीरश्च महावीरः तं, इत्थं |स्तुतिं कृत्वा पुनः फलप्रदर्शनार्थमिदं पठति-'एकोऽवि नमोकारो जिणवरवसहस्से'त्यादि, एकोऽपि नमस्कारो जिनवर वृषभस्य वर्द्धमानस्य संसारसागरात्तारयति नरं वा नारी वा, इयमत्र भावना-सति सम्यग्दर्शने परया भावनया क्रिय-18 हमाण एकोऽपि नमस्कारः तथाभूताध्यवसायहेतुर्भवति यथाभूताच्छ्रेणिमवाप्य निस्तरति भवोदधिमित्यतः कारणे काकार्योपचारादेतदेवमुच्यते, अन्यथा चारित्रादिवैफल्यं स्यात् । एतास्तिस्रः स्तुतयो नियमेनोच्यन्ते, केचिदन्या अपि ४ पठन्ति, न च तत्र नियमः, 'कितिकम' पुणो संडसयं पडिले हिय उवविसंति, मुहपोत्तियं पडिलेहंति ससीसोवरिय कार्य दपडिलेहित्ता आयरियस्स बंदणं करेंति'त्ति गाथार्थः॥ १५२३ ॥ आह-किनिमित्तमिदं वन्दनकमिति !, उच्यते सुकयं आणति पिव लोगे काऊण सुकयकिइकम्मं । वहृतिया थुईओ गुरुथुइगहणे कए तिनि ॥ १५२४ ॥ दीप अनुक्रम [५३-५७]] SaintainmRE onary on पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~268~ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा १-५], नियुक्ति: [१५२४] भाष्यं [२३१..., प्रत सूत्रांक ||गा.|| आवश्यक- सुकयं आणत्तिपिव लोए काऊणति जहा रपणो मणुस्सा आणत्तिगाए पेसिया पणाम काऊण गच्छंति, तं च काऊण कायोत्सहारिभ-13/पुणो पणामपुवर्ग निवेदेति, एवं साहुणोऽवि सामाइयगुरुवंदणपुवर्ग चरित्तादिविसोहि काऊण पुणो सुकयकिति- गोध्य. द्रीया कम्मा संतो गुरुणो निवेदंति-भगवं! कयं ते पेसणं आयविसोहिकारगति, वंदणं च काऊण पुणो उक्कडुया आयरिया- प्रतिक्रमणभिमुहा विणयरतियंजलिपुडा चिहति, जाव गुरू धुइगहणं करेंति, ततो पच्छा समत्ताए पढमथुतीए थुई कर्हिति विण-2 | विधिः ॥७९०॥ उत्ति, तओ थुई वहुँतियाओ कहुँति तिण्णि, अहवा बढुतिया थुइओ गुरुथुतिगहणे कए तिण्णित्ति गाथार्थः ॥ १५२४ ॥ तओ पारसियं करेंति, एवं ताव देवसिय करेंति, गतं देवसियं, राइयं इदाणिं, तत्थिमा विही, पढम चिय सामाइयं कहि ऊण चरित्तविसुद्धिनिमित्तं पणुवीसुस्सासमित्तं काउस्सग्गं करेंति, तओ नमोकारेण पारित्ता दसणविसुद्धीनिमित्तं चउ-12 8वीसत्थयं पति, पणुवीसुस्सासमेत्तमेव काउस्सग्गं करेंति, एत्थवि नमोकारेण पारेत्ता सुयणाणविसुद्धीनिमित्तं सुयणाणत्थर्य, दीप अनुक्रम [५३-५७]] यथा राज्ञा मनुष्या मावस्या प्रेषिताः प्रणाम कृत्वा गच्छन्ति, सच कृप्या पुनः प्रणामपूर्वकं निवेदयन्ति, एवं साधवोऽपि सामायिकगुरुवन्दनपूर्व Gचारित्रादिविशुदि कृत्या पुनः सुरुतकृतिकर्माणः सन्तो गुरुभ्यो निवेदयन्ति-भगवन् ! कृतं तव प्रेषणमात्मविशुनिकारकमिति, वन्य वकृत्वा पुनस्कदुका | आचार्याभिमुखा विनयरचिताअलिपुटास्तिम्ति बावरवः स्तुतिग्रहणं कुर्वन्ति, ततः पश्चात् समाप्तायां प्रथमस्तुती स्तुतीः कथयन्ति विनय इति, ततः स्तुतीर्वधमानाः कथयन्ति तिमोऽथवा वर्धमानाः स्तुतयः । ततः प्रादोपिकं काळं कुर्वन्ति, एवं तावदेवसिकं कुर्वन्ति, गतं देवसिक, रात्रिकमिदानी, बनायं तविधिः-प्रथममेव सामायिक कथयित्वा चारित्रविशुद्धिनि मिर्च पचविंशत्युच्चालमान कायोत्सर्ग कुर्वन्ति, ततो नमस्कारेण पारविरवा दर्शनविशुद्धिनिमित्र चतुर्विंशतिस्तवं पठन्ति पञ्चविंशत्युच्यासमात्रमेव कायोत्सर्ग कुर्वन्ति, अनापि नमस्कारेण पारविल्या श्रुतज्ञानविशुद्धिनिमितं श्रुतज्ञानस्तवं. ॥७९॥ JABERatinik Tharorary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~269 Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा १-५], नियुक्ति: [१५२४] भाष्यं [२३१..., प्रत सूत्रांक ||गा.|| दीप कट्ठति, काउस्सग्गं च तस्सुद्धिनिमित्तं करेंति, तत्थ य पाओसियथुइमादीयं अधिकयकाजस्सग्गपजतमइयारं चिंतेइ, आह-किंनिमित्तं पढमकाउस्सग्गे एव राइयाइयार ण चिंतेति ?, उच्यते, मानिमत्तो न सरा अइआरं मा य घट्टणं ऽणोऽन्नं । किइअकरणदोसा वा गोसाई तिन्नि उस्सग्गा ॥१५२५॥15॥ हा निद्दामत्तो-निहाभिभूओन सरह-न संभरद मुष्ठ अइयारं मा घट्टणं णोऽण्णं अंधयारे बंदतयाणं, कितिअकरणहैदोसा वा, अंधयारे अदसणाओ मंदसद्धा न वंदंति, एएण कारणेणं गोसे-पचूसे आइए तिणि काउस्सग्गा भवन्ति, न पुण पाओसिए जहा एक्कोत्ति ॥ १५२५ ॥ एत्य पढ़मो चरित्ते दसणसुडीऍ बीयओ होइ । सुपनाणस्स य ततिभो नवरं चितंति तत्व इमं ॥१५२६ ॥ दतइए निसाइयारं चिंतइ चरमंमि किं तवं काहं । छम्मासा एगदिणाइहाणि जा पोरिसि नमो वा ॥१५२७॥ अहमवि भे खामेमी तुम्भेहिं समं अहं च वंदामि। आयरियसंतियं नित्थारगा उ गुरुणो अ वयणाई॥१५२८॥ I ततो चिंतिऊण अइयारं नमोकारेण पारेत्ता सिद्धाण थुई काऊण पुषभणिएण विहिणा वंदित्ता आलोएति, तओ-2 कर्षयन्ति, कायोत्सर्ग च सपछुशिनिमित्त कुर्वन्ति, तत्र च प्रादोषिकस्तुत्यादिकं अधिकृतकायोत्सर्गपर्यन्तमतिचार चिन्तयन्ति । बाह-किनिमित्तं प्रथदमकायोत्सर्ग एवं रात्रिकातिचारं न चिन्तयन्ति !,-निद्रामत्त:-निजाभिभूतो न समरति मुवतिचार मा घट्टनमन्योऽन्य बन्दमानानामन्धकारे कृतिकमाकरण दोपा वा-मकारेश्दर्शमात् मन्दश्रद्धा म वन्दन्ते, एतेन कारणेन प्रत्यूचे भादी प्रयः कायोत्सगा भवन्ति, न पुनः प्रादोपिके यक इति, सतश्चिन्तयित्वा तिचारान् नमस्कारेण पारयित्या सिदाणमिति स्तुति कृत्वा पूर्वभणितेन विधिना वन्दित्वाऽहोचन्ति, ततः अनुक्रम [५३-५७]] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~270 Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा १-५], नियुक्ति: [१५२८] भाष्यं [२३१..., कायोत्सगांध्य० प्रतिक्रमणविधिः प्रत सूत्रांक ||गा.|| आवश्यक- सामाइयपुवर्य पडिक्कमति, तओ वंदणापुवयं खाति, वंदर्ण काऊणं तओ सामाइयपुवयं काउस्सगं करेंति, तत्थ हारिभ- चिंतयंति-कम्मि य निउत्ता वयं गुरुहिं , तो तारिसर्य तवं पवज्जामो जारिसेण तस्स हाणि न भवति, तओ चिंतेति- दीया छम्मासखमणं करेमो, न सकेमो, एगदिवसेण ऊणं, तहवि न सकेमो, एवं जाव पंच मासा, तओचत्तारि तओं तिन्नि ॥७९॥ तओ दोन्नि, ततो एक ततो अद्धमासं चउत्थं आयंबिलं एगठाणयं पुरिमहूं निविगइयं, नमोकारसहियं वत्ति, उक्तं च चरिमे किं तर्व काह'ति, चरिमे काउस्सग्गे छम्मासमेगूण (दिणादि ) हाणी जाव पोरिसि नमो वा, एवं जं समत्था कार्ड है तमसढभावा हिअए करेंति, पच्छा वंदित्ता गुरुसक्खयं पवजंति, सबे य नमोकारइत्तगा समर्ग उडेति वोसिरावेंति निसीयंति य, एवं पोरिसिमादिसु विभासा, तओ तिणि थुई जहा पुर्व, नवरमपसर्ग देति जहा परकोइलादी सत्ता न उडेति, तओ देवे वंदंति, तओ बहुवेलं संदिसावेंति, ततो रयहरणं पडिलेहंति, ततो उवधि संदिसावेंति पडिलेहंति य, दीप अनुक्रम [५३-५७]] सामायिकपूर्वक प्रतिकाम्यन्ति, सती बन्दनकपूर्व क्षमयन्ति, वन्दनं कृत्वा ततः सामायिकपूर्वकं कायोत्सर्ग कुर्वन्ति, तत्र चियम्ति-कसिलिदायुक्ताह वयं गुरुभिः ततमाशं तपः प्रपद्यामहे यादोन तस्स हानिन भवति, तश्चिन्तयन्ति-पण्मासक्षपर्ण कुर्मः १, मामा, एकदिवसेनोनं ,यापिन सशक्नुमः, एवं यावत् पञ्च मासाः, ततधतुरा, ततस्त्रीन् ततो दी तत एक ततोऽईमासं चतुर्थभक्तमाचामाम्ल एकस्थानक पूर्वाध निर्विकृतिक नमस्कारसहितं वैति, चरमे कायोत्सर्गे षण्मासा एकदिनादिहानियांवत् पौरुषी नमस्कारसहितं वा, एवं यत् समर्थाः कं तदशठभावा हदि कुर्वन्ति, पश्चात् वन्दित्वा गुरुसाक्षिक प्रतिपद्यन्ते, सर्वे च नमस्कारसहिते पारकाः समकमुत्तिहस्ति ब्युरसृजन्ति निषीदन्ति च, एवं पौरुष्यादिषु विभाषा, सतस्तिस्रः स्तुतीर्यया पूर्व, नवरमरुपशब्द दति यथा गृहकोकिलायाः सवा नोतिष्ठन्ति, सतो देवान् वन्दन्ते, ततो बहुचेलं संदिशन्ति, ततो रजोहरण प्रतिलिसन्ति, तत उपधि संदिशान्ति प्रतिलिसन्ति । ॥७९शा Drary on पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~271 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा १-१], नियुक्ति: [१५२८] भाष्यं [२३१...., प्रत सूत्रांक तो वसहि पडिलेहिय कालं निवेदेति, अण्णे य भणंति-धुइसमणंतरं कालं निवेएंति, एवं तु पडिकमणकालं तुलेति जहा पडिकमंताणं धुइअवसाणे व पडिलेहणवेला भवति, गय राइयं, इयाणिं पाक्खियं, तस्थिमा विही-जाहे देवसियन परिकता भवंति निबट्टगपडिकमणेणं ताहे गुरू निविसति, तओ साहू वंदित्ता भणंति इच्छामि खमासमणो! उवडिओमि अभितरपक्खियं खामेज, पन्नरसण्हं दिवसाणं पन्नरसह राईणं ज किंचि अपत्तियं परपत्तियं भत्ते पाणे विणए वेयावच्चे आलावे संलावे उच्चासणे समासणे अंतरभासाए उवरिभासाए जं किंचि मज्झ विणयपरिहीणं सुहुमं वा वायरं वा तुम्भे जाणह अहं न याणामि तस्स मिच्छामि दुष्कर्ड (सूत्रं) तै| इदं च निगदसिद्धमेव, नवरमन्तरभाषा-आचार्यस्य भाषमाणस्यान्तरे भाषते, उपरिभाषा तूत्तरकालं तदेव किलाधिक भाषते, अत्राचार्यों यदभिधत्ते तत् प्रतिपादयन्नाह 'अहमवि खामेमि गाहा व्याख्या-अहमवि खामेमि तुम्भेत्ति दीप अनुक्रम 4%95% ETr [५८] ततो वसति प्रतिलिख्य काल निवेदयन्ति, अन्ये च भणन्ति-स्तुतिसमनन्तर कार्ल निवेदयन्ति, एवं तु प्रतिक्रमणकाल तोकयन्ति यथा प्रतिकाम्यता सुखवसाग एप प्रतिलेखनावेला भवति । गत रात्रिक वानी पाक्षिकं, तन्नार्य विधिः-पदा देवसि प्रतिकाता भवन्ति निर्वसितप्रतिक्रमणेन तदा पुरषो। निपीदन्ति, ततः साधवो बन्दिया भणन्ति-1 अहमपि क्षमयामि युष्मान् इति भणितं भपति, एवं जघन्येन त्रय फुटतः सर्वे. JANEaining पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: 'पाक्षिक क्षमापना' सूत्राणि एवं तेषाम् व्याख्या: ~272 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [५], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५२८...] भाष्यं [२३१...', C%AC कायोत्स। | गोध्या प्रतिक्रमणविधिः प्रत सूत्रांक आवश्यक- भणियं होति, एवं जहणेणं तिण्णि उक्कोसेणं सबे खामिजति, पच्छा गुरू उठेऊणं जहाराइणियाए उद्धडिओ चेव खामेति, हारिभ- इयरेवि जहाराइणियाए सबेवि अवणउत्तमंगा भणंति-देवसियं पडिकंतं पक्खियं खामेमो पण्णरसहं दिवसाणमित्यादि द्रीया एवं सेसगावि जहाराइणियाए खाति, पच्छा वंदित्ता भणति-देवसियं पडिकंतं पक्खियं पडिकमावेह, तओ गुरू गुरु- ७९२॥ संदिहो वा पक्खियपडिक्कमणं कहुति, सेसगा जहासत्ति काउस्सग्गादिसंठिया धम्मझाणोवगया सुर्णेति, कहिए मुलुत्तरगुणेहिं जं खंडियं तस्स पायच्छित्तनिमित्तं तिणि उसाससयाणि काउस्सगं करेंति, बारसउज्जोयकरेत्ति भणियं होति, पारिए उज्जोयकरे थुई कटुंति, पच्छा उवविद्या मुहर्णतगं पडिलेहित्ता वंदति पच्छा रायाण पूसमाणवा अतिकते मंगलिजे कजे बहुमन्नंति, सनुपरक्कमेण अखंडियनियबलस्स सोभणो कालो गओ अण्णोऽवि एवं चेव उवडिओ, एवं पक्खियहै विणओवयारं खामेति वितियखामणासुत्तेणं, तञ्चेदं सू.] दीप अनुक्रम CASCARSA [५८] || ७९ ॥ क्षाम्पन्ते, पश्चात् गुरुत्थाय यथारातिकमूस्थित एव क्षमपति, इतरेऽपि पधारात्रि सत्यवनतोत्तमाना भणन्ति-देवसिकं प्रतिकान्तं पाक्षिक क्षमयामः पञ्चदशसु दिवसेषु, एवं शेषा अपि यधाराति क्षमयन्ति, पश्चाद् वन्दित्वा भणन्ति-देवसिकं प्रतिकात पाक्षिकं प्रतिकामयत, ततो गुरुप्रुसंदिटो वा पाक्षिकप्रतिक्रमणं कथयति, शेषा यथाशक्ति कायोत्सर्गादिसंस्थिता धर्मध्यानोपगताः शुबन्ति, कथिते मूलोत्तरगुणेषु यत् खण्डितं तस्य प्रायश्चित्त-1 निमित्तं त्रीप्युच्चासशतानि कायोत्सर्ग कुर्वन्ति, द्वादशोद्योतकरानिति भणितं भवति, पारिते उद्योतकरे स्तुति कथयन्ति, पत्रादुपविष्टा मुखामस्तकं प्रतिलिण्य चन्दन्ते, पचात् राजानं पुष्पमाणवा पतिकाम्ते मालिके कार्ये बहुमन्यन्ते-शत्रुपराक्रमणेनाण्डिसनिजबकसा शोभना कासो गत। एवमेवाभ्योऽपि उपस्थिता, एवं पाक्षिकविनयोपचारं क्षमयन्ति द्वितीयक्षामणासूत्रेण, M arayan पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~273~ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५२८...] भाष्यं [२३१..., -% प्रत ERRC सूत्रांक दीप अनुक्रम इच्छामि खमासमणो पियं च मे जंभे हहाणं तुट्ठाणं अप्पार्यकाणं अभग्गजोगाणं सुसीलाणं सुब्बयाणं सायरियउबहायाणं णाणेणं दंसणेणं चरित्रोणं तवसा अप्पाणं भावेमाणाणं बहुसुभेणं भे दिवसो पोसहो पक्खो बतिकतो, अण्णो य भे कल्लाणेणं पजुवडिओ सिरसा मणसा मत्वरण वंदामि (सूत्रम्) IHI निगदसिद्धं, आयरिआ भणंति-साहहिं समं जमेयं भणियंति, तओ चेइयवंदावणं साधुवंदावणं च निवेदितुकामा भणन्ति इच्छामि खमासमणो! पुचि चेइयाई वंदित्ता नमंसित्ता तुझं पायमूले बिहरमाणेणं जे के बहुदेवसिपा साहुणो दिट्ठा सम(मा)णा वा वसमाणा वागामाणुगाम दुइजमाणा वा, राइणिया संपुच्छति ओमराकाइणिया वदंति अज्जा वंदंति अज्जियाओ वंदति सावया वंदति सावियाओ बंदंति अहंपि निस्सल्लो निक साओ (तिकट्ट) सिरसा मणसा मथएण वंदामि ॥ अहमपि वंदावेमि चेदयाई (सूत्रम्) - निगदसिद्ध. नवरं समणो-हवासी वसमाणो-णवविगप्पविहारी, बुहवासी जंघाचलपरिहीणोणव विभागे खेतं काऊण विहरति, नवविगप्पविहारी पुण उउबद्धे अढ मासा मासकप्पेण विहरति, एए अट्ट विगप्पा, वासावासं एगमि चेव ठाणे आचाची भणम्ति-साधुभिः समं यदेवत् भणित मिति, ततधैत्यवन्दनं साधुवन्दनं च निवेदयितुकामा भणन्ति-भवरं श्रमणोद्धावासः वैश्रमणो G(वसन्)-नवविकल्पबिहारः, वृद्धावासः परिक्षीणजवावलो नव विभागान् क्षेत्रं कृत्वा विहरति, नवकल्पविहारा पुनः रतुबद्धेट मासान् मासकल्पेन विरति, एते विकरूपाः वर्षायासमेकस्मिन् स्थाने, [५९] मा. 10 JIREDuration पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~2744 Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५२८...] भाष्यं [२३१...', गोंध्या प्रत सूत्रांक ACCE आवश्यक- करेंति, एस णवविगप्पो, अत्राचार्यो भणति-मत्थएण वंदामि अहंपि तेसिंति, अण्णे भणंति-अहमवि वंदावेमित्तिसकायोत्सहारिभ तओ अप्पगं गुरूणं निवेदंति चउत्थखामणासुत्तेणं, तवेदद्रीया KI इच्छामि खमासमणो! उवडिओमि तुन्भण्हं संतियं अहा कप्पं वा वत्थं वा पडिग्गहंवा कंबलं याप्रतिक्रमण विधिः ॥७९ पायपुच्छणं वा (रयहरणं वा) अक्खरं वा पर्य वा गाई वा सिलोग वा (सिलोगह वा)अई वा हे वा पसिणं ॥ Pावा वागरणं चा तुम्भेहिं (सम्म) चियत्तेण दिपणं मए अविणएण पडिच्छियं तस्स मिच्छामि दुफळ (सूत्रम) निगदसिर्ज, आयरिभा भणति-'आयरियसंतिय'ति य अहंकारवजणत्थं, किं ममात्रेति, तो जं विणझ्या तमणु-10 सहि बहु मन्नति पंचमखामणासुत्तेण, तच्चेदंPइच्छामि खमासमणो ! कयाई च मे कितिकम्माई आयारमंतरे विणयमंतरे सेहिओ सेहाविओ संगहिओ ४ उवगहिओ सारिओ वारिओ चोइओ पडिचोइओ अन्भुडिओऽहं तुन्भण्हं तवतेयसिरीए इमाओ चातुरंत-12 संसारकताराओ साह९ नित्थरिस्सामित्तिकद्दु सिरसा मणसा मथएण वन्दामि (सूत्र) निगदसिद्धं, संगहिओ-णाणादीहिंसारिओ-हिए पवत्तिओवारिओ-अहियाओनिवत्तिओ चोइओ-खलणाए पडिचोइओ 1 करोति, एष नवमो विकल्पः । मस्तकेन वन्देऽहमपि तेषामिति, अन्ये भजन्ति-अहमपि बन्दयामीति, तत आत्मानं गुरुम्यो निवेदयन्ति चतुर्थक्षामणासूत्रेण, आचार्या भणन्ति-आचार्यसत्कमिति चाहकारवर्जनार्थ, ततो यत् विनायितासामनुशासि बहु मन्यन्ते पजमक्षामणासूोग, संगृहीतः-ज्ञानादिभिः सारितः-हिते प्रवर्तितः वारितोऽहितात् निवर्तितः चोदितः स्खलनायां प्रतिचोदितः दीप अनुक्रम [६०] JAMEairatna Darau पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~275 Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [9], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५२८...] भाष्यं [२३१...', ॐ प्रत सूत्रांक पणो २ अवस्थं उवविउत्ति, पच्छा आयरिओ भणइ-'नित्थारगपारगति नित्थारगपारगा होहत्ति, गुरुणोत्ति, एयाई वयणाइति वकसेसमय गाथार्थः ॥ १५२९ ॥ एवं सेसाणवि साहूर्ण खामणावंदणं करेंति, अह वियालो वाघाओ वा ताहे सत्तण्हं पंचण्डं तिण्हं वा, पच्छा देवसिय पडिकमंति, केइ भणंति-सामण्णेणं, अन्ने भणति-खामणाइयं, अण्णे चरितुस्सग्गाइयं, सेजदेवयाए य उस्सग्गं करेंति, पडिकंताणं गुरूसु वंदिपसु वड्डमाणीओ तिण्णि थुइओ आयरिया भणंति, इमेवि अंजलिमउलियग्गहत्था समत्तीए नमोकारं करेंति, पच्छा सेसगावि भणंति, तद्दिवस नवि सुत्तपोरिसी नवि अस्थपोससी ईओ भणति जस्स जत्तियाओ एंति, एसा पक्खियपडिकमणविही मूलटीकाकारेण भणिया, अण्णे पुण आयरणाणुसारेण भणति-देवसिए पडिकंते खामिए य तओ पढ़मं गुरू चेव उहित्ता पक्खियं खामेंति जहाराइणियाए, तओ उवविसंति, एवं सेसगावि जहाराइणिया खामेत्ता उपविसंति, परछा वंदित्ता भणंति-देवसिय पडिकतं पक्खियं दीप अनुक्रम [६२] पुनः पुनश्वस्थामुपस्थापितः, पादाचाया भगन्ति-निस्तारकपारगा भवतेति, गुरूणामिति एतानि वचनानीति वाक्यशेषः। एवं शेषाणामपि साधूनां | क्षामणावन्दन कुर्वन्ति, अथ विकालो व्याघातो वा तदा सप्तानो पनानां त्रयाणां वा, पश्चाईवसिकं प्रतिकाम्यन्ति, केचित् भणन्ति-सामान्येन, अन्ये भणन्तिक्षामणादिक, अन्ये चारित्रोत्सगोंदिक, शय्यादेवतायाश्चोत्सर्ग कुर्वन्ति, प्रतिक्राम्पत्सु गुरुषु वन्दितेषु (च) वर्धमानास्तिनः स्तुतीगुरवो भणन्ति, इमेऽपि मजलिमुकुलिताप्रहस्ताः समाप्ती नमस्कारं कुर्वन्ति, पक्षाच्छपा अपि भणन्ति, तदिवसे नैव सूत्रपौरुषी नैवार्थपरिषी, सुतीभणन्ति वेन यादयोऽधीताः, एष पाक्षि कातिकमणविधिमूलटीकाकारेण भाणितः, अन्ये गुनः आचरणानुसारेण भणन्ति-दैवसिके प्रतिकान्ते क्षामिते च ततः प्रथमं गुरुरेवोत्थाय पाक्षिक क्षमयन्ति सायथाशनिक, तत उपविशन्ति, एवं शेषा अपि यथाराविक क्षमषित्वोपविशन्ति, पचाइन्दिावा भणन्ति-दैवसिकं प्रतिक्रान्तं पाक्षिक पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~276 Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५२८...] भाष्यं [२३१..., कायोत्स ध्य० प्रतिक्रमण प्रत सूत्रांक ॥७९४॥ आवश्यक- पडियमावेह, इत्यादि पूर्ववत्, एवं चाउमासियपि, नवरं काउस्सगे पंचुस्साससयाणि, एवं संवच्छरियपि नवरं काउ- हारिभ- 12स्सग्गो अहसहस्सं उस्सासाणं, चाउमासियसंवच्छरिएम सवेवि मूलगुणउत्तरगुणाणं आलोयणं दाङ पडिकमंति, खेत्तद्रीया द्र देवयाए उस्सगं करेंति, केई पुण चाउमासिगे सिजदेवयाएवि उस्सगं करेंति, पभाए य आवस्सए कए पंचकल्लाणगं| MIगिहंति, पुषगहिए य अभिग्गहे निवेदेति, अभिग्रहा जइ संमं णाणुपालिया तो कुइयककराइयस्स अस्सगं करेंति, पुणोऽवि अण्णे गिण्हंति, निरभिग्गहाण न वट्टइ अच्छिउँ, संवच्छरिए य आवस्सए कए पाओसिए पज्जोसवणा कप्पो | कड्डिजति, सो पुण पुषिं च अणागयं पंचरत्तं कहिजइ य, एसा सामायारित्ति, एनामेव कालतः उपसंहरन्नाह भाष्यकार:|चाउम्मासियवरिसे आलोअण नियमसोहुदायब्बा। गहणं अभिग्गहाण य पुब्वगहिए निवेएउं॥२३२॥ (भा०) चाजम्मासिषवरिसे उस्सग्गो खित्तदेवयाए उ । पक्खिय सिजसुरीए करिति चउमासिए वेगे ॥२३३॥ (भा०) गाथाद्वयं गतार्थ । अधुना नियतकायोत्सर्गप्रतिपादनायाह दीप अनुक्रम [६२] HNA ७९४।। प्रतिकामयत, एवं चातुर्मासिकमपि, पर कायोत्सर्ग पयोमासशतानि, एवं सांवत्सरिकमपि गबरं कायोत्सर्गोऽसहसमुच्छालानां । चातुर्मासिकसांवत्सरिकयोः सर्वेऽपि मूलोत्तरगुणानामालोचना दवा प्रतिकाम्यन्ति क्षेत्रदेवताया ऋत्सर्ग कुर्वन्ति, केचित् पुनश्चातुर्मासिके पापादेवताया अपि कायो- VIसर्ग कुर्वन्ति, प्रभाते चावश्यके कृते पाकल्याणकं गृहन्ति, पूर्वगृहीतांश्चाभिग्रहान् निवेदयन्ति, अभिप्रहा यदि पुनः सम्पम् नानुपालितास्तदा कूजितक रायिततयोत्सर्गन्ति , पुनरपि अन्यान् गृहन्ति, निरभिमहर्न वर्त्तते स्थातुं, सांवत्सरिके चावपके रुते प्रदोपे पर्युषणाकपः कन्यते, स पुनः पूर्वमेवानागते पञ्चरात्रे कथ्यते च, एषा सामाचारीति । arorary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~277 Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५२९] भाष्यं [२३३], प्रत सूत्रांक 2064-560%ASSACSCGOCCASS देसिय राइय पक्खिय चउमासे या तहेव वरिसे य। एएसु हुंति नियया उस्सग्गा अनिअया सेसा ॥ १५२९॥ साय सयं गोसद्धं तिन्नेव सया हवंति पक्खंमि । पंच य चाउम्मासे असहस्सं च वारिसए ॥ १५३० ॥ |चत्तारि दो दुवालस वीसं चत्ताय हुंति उज्जोआ। देसिय राइय पक्खिय चाउम्मासे अ वरिसे य॥१५३१॥ पणवीसमद्धतेरस सिलोग पन्नतरि च बोडव्वा । सयमेगं पणवीसं बे बावन्ना य वारिसिए ॥१५३२॥ निगदसिद्धाः, नवरं शेषा-गमनादिविषया इति, साम्प्रतं नियतकायोत्सर्गाणामोघत उच्छासमानं प्रतिपादयन्नाह'सायत्ति सायं-प्रदोषः तत्र शतमुच्छासानां भवति, चतुभिरुद्योतकरैरिति, भावित एवायमर्थः प्राक्, 'गोसद्धति प्रत्यूषे पञ्चाशद्यतस्तत्रोद्योतकरद्वयं भवति, शेष प्रकटार्थमिति गाथार्थः ॥१५३०॥ उच्छासमान चोपरिष्टाद् वक्ष्यामः 'पायसमा उस्सासा' इत्यादिना । साम्प्रतं दैवसिकादिषूद्योतकरमानमभिधित्सुराह-'चत्तारित्तिगाहा भावितार्था ॥१५३१॥ अधुना श्लोकमानमुपदर्शयन्नाह-पणवीसे'तिगाहा निगदसिद्धैव, नवरं चतुर्भिरुच्छासैः श्लोकः परिगृह्यते ॥ १५३२ ॥ इत्युक्ता नियतकायोत्सर्गवक्तव्यता, इदानीमनियतकायोत्सर्गवक्तव्यतावसरः, तत्रेयं गाथागमणागमणविहारे सुत्ते वा सुमिणदसणे राओ । नावानइसंतारे इरियाव हियापडिकमणं ॥ १५३३ ॥ भत्ते पाणे सयणासणे य अरिहंतसमणसिज्जासु । उच्चारे पासवणे पणवीसं हुंति उस्सासा ॥२३४॥ बारम् (भा) नियआलयाओ गमणं अन्नस्थ उ सुत्तपोरिसिनिमित्तं । होइ विहारो इत्थवि पणवीसं हुंति ऊसासा ॥१॥(प०) उद्देससमुद्देसे सत्तावीसं अणुनवणियाए । अद्वैव य ऊसासा पठ्ठवण पडिकमणमाई ॥ १५३४ ॥ दीप अनुक्रम [६२] photorary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~278~ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [9], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५३५] भाष्यं [२३४], प्रक्षेप [१] प्रत सूत्रांक आवश्यक-18जुला अकालपढियाइएसु दुहु अ पडिच्छियाईसु । समणुनसमुदसे काउस्सग्गस्स करणं तु ॥ १५३५॥॥५कायोत्सहारिभ-1 पुण उदिसमाणा अणइकतावि कुणह उस्सग्गं। एस अकओथि दोसो परिधिप्पड किं मुहा भंते ! ॥१५३६॥ गोध्या द्रीया पावुग्घाई कीरइ उस्सग्गो मंगलंति उहेसो । अणुवहियमंगलाणं मा हुज कहिंचि णे विग्धं ॥ १५३७ ॥ | अनियतपाणवहमुसावाए अदत्तमेहुणपरिग्गहे चेव । सयमेगं तु अणूणं ऊसासाणं हविजाहि ॥ १५३८॥ कायोत्स० ॥७९५016 नावा(ए) उत्तरि वहमाई तह नई च एमेव । संतारेण चलेण व गंतुं पणवीस ऊसासा ॥१॥ (प्र.) का गमण भिक्षादिनिमित्तमन्यग्रामादी, आगमणं तत्तो चेव, इत्थ इरियावहियं पडिकमिऊण पंचवीसुस्सासो काउस्सग्गो काययो॥१५३३॥ तथा चामुमेवावयवं विवृण्वन्नाह भाष्यकार:-भत्ते पाणे सयणासणे' गाहा, भत्तपाणनिमित्तमन्नगामा-1 दिगया जइ न ताव बेलेति ता ईरियावहियं पडिक्कमिऊण अच्छंति । आगयावि पुणोऽवि पडिकमंति, एवं सयणासणनि| मित्तंपि, सयण-संथारगो वसही वा, आसण-पीढगादि, 'अरहंतसमणसेज्जासुत्ति चेइघरं गया पडिक्कमिऊणं अच्छंति, एवं समणसेजभि-साहुवसतिमित्यर्थः, 'उच्चारपासवणे'त्ति उच्चारे वोसिरिए पासवणे य जतिवि हत्यमेत्तं गया द्र गमनं भिक्षादिनिमित्तमन्यनामादौ आगमनं तत एवात्रेयापधिको प्रतिक्रम्ब पचविंशत्युच्छासः कायोरसर्गः कर्तव्यः, भक्तपान निमित्तमन्यमामादि*गता यदि तावन्न वेलेति तदेर्यापधिकी प्रतिक्रम्य तिष्ठन्ति, आगता अपि पुनरपि प्रतिक्राम्यन्ति, एवं शयनासननिमितमपि, शयनं संस्तारको बखतिर्वा, आसनं ७९५॥ पीठादि 'बई रमणशय्यास्विति चैत्यगृहं गताः प्रतिक्रम्प तिष्ठन्ति, एवं श्रमणशय्यास्विति साधुवसतौ 'उच्चारप्रश्रवण'इति उचारं व्युत्सृज्य प्रश्रवणं च यद्यपि हसमा गता दीप अनुक्रम [६२] -%-4 SACH Jantaintm N arayan पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~279 Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५३८] भाष्यं [२३४], प्रक्षेप [१] प्रत सूत्रांक ततोsवि आगया पडिकमंति, अह मत्तए बोसिरिय होज ताहे जो तं परिठवेति सो पडिकमति, सठाणेसु पुण जइ हत्थ-x सयं नियत्तस्स बाहिं तो पडिकमंति, अह अंतो न पडिकमंति, एतेसु ठाणेसु काउस्सग्गपरिमाणं पणुवीस होति ऊसासत्ति गाथार्थः "बिहारे'त्ति विहारं व्याचिख्यासुराह-निययालयाउ गमण'गाहा [गाथा ]ऽन्यकर्तकी सोपयोगाच निगदसिद्धा च । 'सुत्ते वत्ति सूत्रद्वारं व्याचिख्यासुराह-'उद्देससमुद्देसे' गाहा व्याख्या-मुत्तस्स उद्देसे समुद्देसे य जो 8 काउस्सग्गो कीरइ तस्थ सत्तावीसमुस्सासा भवंति, अणुण्णवणयाए य, एत्थ जइ असढी सर्व चेव पारेइ, अद्द सढो |ताहे आयरिया अद्वेच ऊसासा, 'पवणपडिकमणमाई' पट्टविओ कजनिमित्तं जइ खलइ अगुस्सासं उस्सग्गं करिय| गच्छइ, वितियवारं जति तो सोलस्सुस्सासं, ततियवारं जइ तो न गच्छति, अण्णो पहविज्जति, अवस्सकज्जे वा देवे वं-18 ६ दिय पुरओ साहू ठवेत्ता अण्णण समं गच्छति, कालपडिक्कमणेवि अहउस्सासा, आदिसहाओ कालगिहण पठ्ठवणे य ACCESS दीप अनुक्रम [६२] १ स्तदाऽपयागताः प्रतिकाम्यन्ति, अर्थ मात्रके व्युत्पष्टं भवेत् तदा पसं परिछापयेत् स प्रतिकाम्येत्, स्वस्थानात् पुनदि हस्तात निवृत्तासहितदा प्रतिकाम्यन्ति, भयातनं प्रतिकाम्यन्ति, एतेषु स्थानेषु कायोत्सर्गपरिमाणं पजविघातिरुच्छ्रासा इति । सूत्रसोदेशे समुदेशे च यः कायोत्सर्गः क्रियते तत्र सप्तविंशतिरुच्यासा भवन्ति, मनुज्ञायां च, अत्र ययातः स्वयमेष पारपति, अथ शउस्तादाचार्या अटैचोच्छवासान् , प्रस्थापनप्रतिक्रमणादी-प्रस्थापितः कार्य| निमित्तं यदि स्खलनि अटोवालमुत्सर्ग कृत्वा गच्छति, द्वितीयवार यदि तवा पोदशोख़ास, तृतीयवार यदि तदा न गच्छति, अन्यः प्रस्थाप्यते, अवश्यकायें | सेवा देवान् बन्दिया पुरतः साधून स्थापयित्वाम्येन सर्म गच्छति, कालपतिक्रमणेऽप्यष्टोक्लासाः, आदिशब्दात् कालपणे प्रस्थापनेच. N arayam पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~280 Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५३८] भाष्यं [२३४], प्रक्षेप [१] प्रत सूत्रांक ७९६॥ आवश्यक- गोवरचरियाए सुयखंधपरियट्टणे अह चेव, केसिंचि परियट्टणे पंचवीस, तथा चाह-'सुयखंधपरियट्टणं मंगलस्थं (उज्जोय कायोत्सहारिभ-15 काउस्सग्ग काऊण कीरइत्ति गाथार्थः॥१५३४॥ अत्राह चोदक:-'जुज्जइ अकालपढियाई' गाथा, युज्यते-संगच्छते घटतेगाध्य. द्रीया अकालपठितादिषु कारणेषु सत्सु अकालपठितमादिशब्दात् काले न पठितमित्यादि, दुष्टु च प्रतीच्छितादि-दुष्टविधिना अनियतप्रतीच्छितं आदिशब्दात् श्रुतहीलनादिपरिग्रहः, 'समणुण्णसमुद्देसे'त्ति समनुज्ञासमुद्देशयोः, समनुज्ञायां च समुद्देशे च कायो-| | कायोत्स० दत्सर्गस्य करणं युज्यत एवेति योगः, अतिचारसम्भवादिति गाथार्थः॥१५३५ ॥ यत् पुनरुद्दिश्यमानाः श्रुतमनतिकान्ता अपि निर्विषयत्वादपराधमप्राप्ता अपि 'कुणह उस्सम्गति कुरुत कायोत्सर्ग एपः अकृतोऽपि दोषः कायोत्सर्गशोध्यः परिगृह्यते ॥ किं मुधा भदन्त !, न चेत् परिगृह्य(ते) न कर्त्तव्यः तयुदेशकायोत्सर्ग इति गाथाभिप्रायः॥१५३६ ॥ अत्राहाचार्यः-'पावुग्धाई कीरई' गाहा निगदसिद्धा ॥१५३७॥ सुमिणदसणे राउ'त्ति द्वारं व्याख्यानयन्नाह-'पाणवहमुसावाए' गाहा, सुमिणमि पाणवहमुसावाए अदत्तमेहुणपरिग्गहे चेव आसेविए समाणे सयमेगं तु अणूणं उस्सासाणं भविजाहि, मेहुणे दिडिविपरियासियाए सयं इत्थीविप्परियासयाए अट्ठसयति ॥ उक्तं च-"दिहीविपरियासे सय मेहुन्नंमि थीविपरियासे । ववहारेणह-13 सयं अणभिरसंगरस साहुस्स ॥१॥"गाथार्थः॥१५३८॥णावाणतिसंतार'त्ति द्वारत्रयं व्याचिख्यासुराह-'नावाए उत्तरि ॥७९६॥ बहगाई गाहा, गाथेयमन्यकर्तृकी सोपयोगा च निगदसिद्धा, इदानीमुच्छ्रासमानप्रतिपादनायाह गोचरचर्यायां धुतस्कन्धपरावनेच, पोयाबिन परावर्तने पञ्चविंशतिः, श्रुतस्कम्पपरानं मनलार्य कायोत्सर्ग कृत्वा कियते । २ स्वमे प्राणयधमृषाबादावनमधुनपरिग्रहेष्वासे वितेषु सत्सु शतमेकमनूनमुच्छ्रासानां भवेत, मधुने दृष्टिविपर्यासे शतं खीविपर्यासे अष्टपातमिति. दीप अनुक्रम [६२] Janorary on पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~281 Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५३९] भाष्यं [२३४], प्रक्षेप [१] प्रत सूत्रांक पायसमा ऊसासा कालपमाणेण हुंति नायव्वा । एवं कालपमाणं उस्सग्गेणं तु नायब्वं ॥१५३९ ।।। 'पायसमा उरसासा काल' गाहा व्याख्या-नवरं पादः-श्लोकपादः ॥ १५३९ ।। व्याख्याता गमनेत्यादिद्वारगाथा, ४ अधुनाऽऽद्यद्वारगाधागतमशठद्वारं व्याख्यायते, इह विज्ञानवता शायरहितेनात्महितमितिकृत्वा स्वबलापेक्षया कार्य होत्सर्गः कार्यः, अन्यथाकरणेऽनेकदोषप्रसङ्गः, तथा चाह भाष्यकार: जो खलु तीसइवरिसोसत्तरिवरिसेण पारणाइसमो। विसमे व कृडवाही निम्विन्नाणेह से जड़े ॥२३५॥(भा) समभूमेवि अइभरो उजाणे किमुअ कूडवाहिस्स?। अइभारेणं भजइ तुत्तयघाएहि अमरालो॥२३६॥ (भा०)15) एमेव बलसमग्गो न कुणइ मायाइ सम्ममुस्सग्गं । मायावडिअं कम्मं पावह उस्सग्गकेसं च ॥१॥(प्र.) |मायाए उस्सग्ग सेसं च तवं अकुवओ सहुणो । को अन्नो अणुहोही सकम्मसेसं अणिज्जरियं ॥१५४०॥ |निकडं सविसेसं चयाणुरूवं बलाणुरूवं च । खाणुव्व उहदेहो काउस्सगं तु ठाइज्जा ॥ १५४१ ।। व्याख्या-यः कश्चित् साधुः, खलुशब्दो विशेषणार्थः, त्रिंशद्वर्षः सन् खलुशब्दाद् बलवानातङ्करहितश्च सप्ततिवर्षेPणान्येन वृद्धेन साधुना पारणाइसमो-कायोत्सर्गप्रारम्भपरिसमाया तुल्य इत्यर्थः । विषम इव-उमुकादाविव कूटवाही बली वई इव निर्विज्ञान एवासौ 'जड' जड़े, स्वहितपरिज्ञानशून्यत्वात् , तथा चात्महितमेव सम्यक्कायोत्सर्गकरणं स्वकर्मक्षयफलत्वादिति गाथार्थः ॥ २३५ ॥ अधुना दृष्टान्तमेव विवृण्वन्नाह-'समभूमेवि अइभरो'गाहा व्याख्या-समभूमा-| वपि अतिभरविषमवाहित्यात् 'उज्जाणे किमुत कूडवाहिस्स'उद्धे यानमस्मिन्नित्युद्यानम्-उदकं तस्मिन्नुद्याने किमुत?, सुत दीप अनुक्रम [६२] 0-5545 gionary.org पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~282 Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [9], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५४१] भाष्यं [२३६], प्रक्षेप [१] ་ द्रीया ཀླུ ཙྩཾ, ཟླ प्रत सूत्रांक आवश्यक- रामित्यर्थः, कस्य ?-कूटवाहिनो-बलीवर्दस्य, तस्य च दोषद्वयमित्याह-'अतिभारेणं भजति तुत्तयघाएहि य मरालोकायोत्सहारिभ गोध्या त्ति अतिभारेण भज्यते यतो विषमवाहिन एवातिभारो भवति, तुत्तयघातैश्च विषमवाहोऽथ पीच्यते, तुत्तगो-पाइणगो| अशठद्वारं I मरालो-गलिरिति गाधार्थः ॥ २३६ ॥ साम्प्रतं दार्शन्तिकयोजनां कुर्वन्नाह-एमेव वलसमग्गो'गाहा व्याख्या-इयमन्य॥७९॥ 1कर्तृकी सोपयोगा च व्याख्यायते, 'एमेव'मरालवलीवदेवत् बलसमग्रः सन्(यो)न करोति मायया करणेन सम्यक्-साम४ थ्यानुरूपं कायोत्सर्ग स मूढः मायाप्रत्ययं कमें पामोति नियमत एव, तथा कायोत्सर्गक्लेशं च निष्फलं प्रामोति, तथाहिनिर्मायस्यापेक्षारहितस्य स्वशक्त्यनुरूपं च कुर्वत एव सर्वमनुष्टानं सफलं भवतीति गाथार्थः ।। अधुना मायावतो दोषानुपदर्शयन्नाह-मायाए उस्सर्ग'गाहा, मायया कायोत्सर्ग शेषं च तपः-अनशनादि अकुर्वतः 'सहिष्णोः'समर्थस्य कश्च तस्मादन्योऽनुभविष्यत्ति ?, किं-स्वकर्म[विशेषमनिर्जरितं, शेषता चास्य सम्यक्त्वप्रायोत्कृष्टकर्मापेक्षयेति, उक्त च"सत्तण्हं पगडीणं अम्भितरओ उ कोडीकोडीए । काऊण सागराणं जइ लहइ चउण्हमण्णयरं ॥१॥" अन्ये पठन्ति'एमेवय उस्सग्गे'ति, न चायमतिशोभनः पाठ इति गाधार्थः॥१५४०॥ यतश्चैवमत:-'निकूडं सविसेसंगाहा, 'निष्कूट'-17 मित्यशठं 'सविशेष'मिति समवलादन्यस्मात् सकाशात्, न चाहमहमिकया, किंतु वयोऽनुरूपं, स्थाणुरिवोदेहो|४॥ ॥७९७॥ |निष्कम्पः समशत्रुमित्रः कायोत्सर्ग तु तिष्ठेत् , तुशब्दादन्यच्च भिक्षाटनाद्येवंभूतमेवानुतिष्ठत(छेत्) इति गाथार्थः ॥१५४१॥ इदानी वयो बलं चाधिकृत्य कायोत्सर्गकरणविधिमभिधत्ते सप्लाना प्रकृतीनामभ्यन्तरे तु कोटीकोव्याः । कृत्वा सागरोपमाणां यदि लभते चतुणांमन्यतरत् (तहिं लभते ) ॥१॥ दीप अनुक्रम [६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~283 Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५४२] भाष्यं [२३६...], प्रत सूत्रांक SADCASRC%ESEX तरुणो बलवं तरुणो अ सुब्बलो धेरओ बलसमिद्धो। धेरो अबलो चउसुवि भंगेसु जहायलं ठाई ॥१५४२॥ तरुणो बलवान् १ तरुणश्च दुर्बलः २ स्थविरो बलसमृद्धः ३ स्थविरो दुर्बलः ४ चतुर्वपि भङ्गकेषु यथावलं तिष्ठति चलानुरूपमित्यर्थः, न त्वभिमानतः, कथमनेनापि वृद्धेन तुल्य इत्यवलवतापि स्थातव्यम्, उत्तरत्रासमाधानग्लानादावधिकरणसम्भवादिति गाथाथैः ॥ १५४२ ॥ गतं सप्रसङ्गमशठद्वारं, साम्प्रतं शठद्वारावसरस्तत्रेय गाथा पथलायइ पडिपुच्छइ कंटययवियारपासवणधम्मे । नियडी गेलनं वा करेइ कूडं हवइ एयं ॥१५४३ ॥ M कायोत्सर्गकरणबेलायां मायया प्रचलयति--निद्रां गच्छति, प्रतिपृच्छति सूत्रमर्थ वा, कण्टकं अपनयति, 'वियार'त्ति पुरीपोत्सर्गाय गच्छति, 'पासवणे'त्ति कायिका व्युत्सृजति, 'धम्मे'त्ति धर्म कथयति, "निकृत्या' मायया ग्लानत्वं वा करोति कूटं भवत्येतद्-अनुष्ठानमिति गाथार्थः ॥ १५४३ ॥ गतं शठद्वारम्, अधुना विधिद्वारमाख्यायते, तत्रेयं गाथापुवं ठंति य गुरुणो गुरुणा उस्सारियंमि पारेति । ठायंति सविसेसं तरुणा उ अनूणविरिया उ ॥ १५४४ ॥ |चवरंगुल मुहपत्ती उज्जए डब्बहत्य रयहरणं । बोसट्टचत्तदेहो काउस्सग्गं करिज्जाहि ॥ १५४५ ॥ बाघोग लयाइ खंभेकडे माले असथरिवह नियले ।लंबुसर थण उद्धी संजय खलिणे य] वायसकविढे ॥१५४६॥ सीमुकंपिय सई अंगुलिभमुहा य वारुणी पहा । नाहीकरयलकुप्पर उस्सारिय पारियंमि थुई ।। १५४७ ॥ दीप अनुक्रम [६२] -96-- niorary on पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~2840 Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [१], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५४७] भाष्यं [२३६...], आवश्यक हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥७९८॥ | पुव्वं ठंतिय गुरुणो' गाहा प्रकटार्था ॥१५४४ ॥ 'चउरंगुल'त्ति चत्तारि अंगुलाणि पायाणं अंतरं करेयवं, मुहपोतिं|४| ५कायोत्स'उजुएत्ति दाहिणहत्येण मुहपोत्तिया घेत्तवा, डब्बहत्थे रयहरणं कायवं, एतेण विहिणा 'वोसठ्ठचत्तदेहो त्ति पूर्ववत गोध्य० काउस्सग करिजाहित्ति गाथार्थः ॥ १५४५ ॥ गतं विधिद्वारम् , अधुना दोषावसरः, तत्रेदं गाथाद्वयं-'घोडगे'त्यादि कायोत्सआसुध विसमपार्थ गायं ठावितु ठाइ उस्सग्गे । कंपइ काउस्सग्गे लयन्व खरपवणसंगणं ॥१॥ खंभे वा कुडे या अवठंभिय ठाइ |र्गदोषाः काउसम्गं तु । माले य उत्तमंग अवठंभिय ठाइ उस्सगं ॥२॥ सबरी वसणविरहिया करेहि सागारियं जह ठवेइ । ठइऊण गुज्झदेसं करेहि तो कुणइ उस्सग ॥ ३॥ अवणाभिउत्तमंगो काउस्सर्ग जहा कुलवहुन्छ । निबलियओविध चलणे वित्थारिय अहव मेलविउँ ॥॥काऊण चोलपट्ट अविधीए नाभिमंडलस्सुवरि । हिट्ठा य जाणुमित्तं चिट्ठई लंबुत्तरस्सगं ॥ ५॥ उच्छाईऊण य थणे चोलगपट्टेण ठाइ उस्सम्गं । बसाइरक्खणट्ठा *अहवा अन्नाणदोसेणे ॥६॥ मेलितु पण्डियाओ चलणे विस्थारिऊण बाहिरओ। ठाउस्सम्म एसो बाहिरउद्धी मुणेयन्वो॥७॥ अंगुहे मेलविउ विस्थारिय पण्हियाओ बाहिं तु। ठाउस्सगं एसो भणिओ अभितरुद्धित्ति ॥८॥कप्पं वा पट्टे वा पाइणि संजइत्य उस्सगं । ठाइ य स्खलिणं व जहा रयहरणं अग्गओ काउं ॥९|| भामेइ तहा दिढि चलचित्तो वायसुच उस्सग्गे । छप्पइआण भएणं कुणई अ पहुं कविट्ठ व ॥ १०॥ सीसं | कपमाणो जक्खाइव्व कुणइ उस्सम्गं । भूयच हुअहुअंतो तहेव छिर्जतमाईसु ॥ ११ ॥ अंगुलिभमुहाओपि य चालतो तय कुणइ | ७९८॥ उस्सगं । आलावगगणणट्ठा संठवणथं च जोगाणं ॥ १२ ॥ काउस्सगंमि ठिओ सुरा जह बुडबुडेइ अन्यत् । अणुपेहतो तह वानरुज्व चालेद ओढउडे ॥ १३ ॥ एए काउस्सग कुणमाणेण विबुहेण दोसा उ । सम्न परिहरियन्वा जिणपडिकुट्ठचिकाऊणं ॥ १४ ॥ 'नाभीकरयलकुप्पर उस्सारे पारियमि थुइ'त्ति नियुक्तिगाथाशकलं लेशतोऽदुष्टकायोत्सर्गावस्थानप्रदर्शनपरं विध्य-1 दीप अनुक्रम [६२] KCXCCCACAD ॐA5%80-95%ty SAMEaiahinx पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: कायोत्सर्ग-संबंधी दोषाणां वर्णनं ~285 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५४७] भाष्यं (२३६...], प्रत सूत्रांक न्तरसंग्रहपरं च, तत्र 'नाभित्ति नाभीओ हेटो चोलपट्टो काययो, करयलेत्तिसामण्णेणं हेवा पलंवकरयले 'जाव कोप्परे'त्ति सोऽविय कोप्परेहिं धरेयबो, एवंभूतेन कायोत्सर्गः कार्यः, उस्सारिए य-काउस्सग्गे पारिए नमोकारेण अवसाणे लिथुई दायवेति गाथार्थः ॥ १५४७ ॥ गतं प्रासङ्गिक, साम्प्रतं कस्येति द्वारं व्याख्यायते, तत्रोकदोषरहितोऽपि यस्यायं कायोत्सर्गो यथोक्तफलो भवति तमुपदर्शयन्नाहदवासीचंदणकप्पो जो मरणे जीविए य समसपणो। देहे य अपडिबद्धो काउस्सग्गो हबह तस्स ॥ १५४८ ॥ तिविहाणुवसग्गाणं दिव्वाणं माणुसाण तिरियाणं । सम्ममहियासणाए काउस्सग्गो हवइ सुद्धो ॥१५४९॥ इहलोगंमि सुभद्दा राया उइओद सिटिभजा य । सोदासखग्गथंभण सिद्धी सग्गो य परलोए ॥१५५० ।। BI 'वासीचंदनकप्पो'गाहा व्याख्या-वासीचन्दनकल्पः-उपकार्यपकारिणोर्मध्यस्था, उच-"जो चंदणेण बाह आलिंपइ वासिणा व तच्छेइ । संथुणइ जो व निदइ महरिसिणो तत्थ समभावा ॥१॥" अनेन पर प्रति माध्यस्थ्यमुक्कं ही भवति, तथा मरणे-प्राणत्यागलक्षणे जीविते च-प्राणसंधारणलक्षणे चशब्दादिहलोकादौ च समसज्ञः तुल्यबुद्धिरित्यर्थः, अनेन चात्मानं प्रति माध्यस्थ्यमुक्तं भवति, तथा देहे च-शरीरे चाप्रतिवद्धः चशब्दादुपकरणादौ च, कायो दीप अनुक्रम [६२] नाभितोश्वस्तात् चोलपट्टका कर्तव्यः, करतलेति सामान्बेन मधस्सात् प्रलम्बकरतलः बावत् पूर्वराभ्या-सोऽपि च कूपराभ्यां धारयितम्या, तबस्सारिते च-कायोत्सर्गे पारिते नमस्कारेणावसाने स्तुतिदातम्या । २ यनन्दनेन बाहुमालिम्पति वास्या वा तक्षयति । संसौति को वा निन्दति महर्षयतत्र समभावाः॥१॥ आ०१३ arorary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~286 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५५०] भाष्यं [२३६...], प्रत सूत्रांक सू.] आवश्यक-18 सगों यथोक्तफलो भवति तस्येति गाथार्थः ॥ १५४८ ॥ तथा-'तिविहाणुवसग्गाण गाहा, त्रिविधानां-त्रिप्रकाराणां कायोत्सहारिभ दिव्यानां-व्यन्तरादिकृतानां मानुषाणां-म्लेच्छादिकृतानां तैरश्चाना-सिंहादिकृतानां सम्यक्-मध्यस्थभावेन अतिसहनायां द्रीया सत्यां कायोत्सर्गों भवति शुद्धः-अविपरीत इत्यर्थः। ततश्चोपसर्गसहिष्णोः कायोत्सर्गो भवतीति गाथार्थः॥१५४९॥द्वार। कायोत्सर्ग॥७९९॥ साम्प्रतं फलद्वारमभिधीयते, तच्च फलमिहलोकपरलोकापेक्षया द्विधा भवति, तथा चाह अन्धकारः-'इहलोगमि' गाहा दिव्याख्या-इहलोके यत् कायोत्सर्गफलं तत्र सुभद्रोदाहरणं-कथं ,वसंतपुरं नगरं, तत्थ जियसत्तुराया, जिणदत्तो सेट्ठी संजय सडओ, तस्स सुभद्दा दारिया धुया, अतीवरूवस्सिणी ओरालियसरीरा साविगा य, सो तं असाहमियाणं न देइ, तच्च-द नियसहेणं चंपाओ वाणिज्जागएण दिवा, तीए रूवलोभेण कवडसडओ जाओ, धम्म सुणेइ, जिणसाह पूजेइ, अण्णया भावो । समुप्पण्णो, आयरियाणं आलोएड, तेहिवि अणुसासिओ, जिणदत्तेण से भावं नाऊण धूया दिण्णा, वित्तो विवाहो, मला केचिरकालस्सवि सो तं गहाय पं गओ, नणंदसासुमाइयाओ तवण्णियसहिगाओ तं खिंसंति, तओ जुयर्ग घर कयं,x tar दीप अनुक्रम [६२] ७९९॥ वसन्तपुर नगर, तत्र जिता राजा, जिनदत्तः श्रेष्ठी संयतश्राद्धः, तस्य सुभद्रा बालिका दुहितानीव रूपिणी बहारशरीरा श्राविका घ, स ताम-18 N साधार्मिकाय न ददाति, तनिकलादेन चम्पासो वाणिज्यागतेन दृष्टा, तस्या रूपलोभेन पटवाखो जातः, धर्म शृणोति, जिनसाधून पूजयति, अन्यदा भावः समुत्पाः, आचार्याणां कथयति, तैरप्यनुशिष्टः, जिनदसेन तस्य भावं ज्ञात्वा दुहिता दत्ता, वृत्तो विवाहः, किबधिरेण कालेन सोऽपि ता गृहीत्वा चम्पां गतः, ननन्दनचादिकास्तबनिकायमा निन्दन्ति, ततः पृथग्गृहं कृतं, Ve494 oraryam पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: | कायोत्सर्ग-फलस्य कथा एवं भावना कथयते ~287 Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५५०] भाष्यं [२३६...], प्रत सूत्रांक तत्थाणेगे समणा समणीओ य पाउम्गनिमित्तमागच्छंति, तदण्णिगसहिया भणंति, एसा संजयाणं दर्द रत्तत्ति, भत्तारोह सेन पत्तियइत्ति, अण्णया कोई वण्णरूवाइगुणगणनिष्फणो तरुणभिक्ख पाउग्गनिमित्तं गओ, तस्स य वाउदय अपिछमि कणगं पविई, सुभदाए तं जीहाए लिहिऊण अवणीयं, तस्स निलाडे तिलओ संकेतो, तेणवि वक्खित्तचित्तण ण जाणिओ, सो नीसरति ताव तच्चणिगसहिगाहिं अथकागयस्स भत्तारस्स सदसिओ,पेच्छ इमं वीसत्थरमियसंकंतं भजाए। संगतं तिलगंति, तेणवि चिंतियं-किमिदमेवंपि होजा?, अहवा बलवंतो विसया अणेगभवम्भरथगा य किन्न होइत्ति ?, मंदनहो जाओ, सुभद्दाए कहवि विदिओ एस वुत्तंतो, चिंतियं च णाए-पावयणीओ एस उडाहो कह फेडिउ (डेमि) ति. पवयणदेवयमभिसंधारिऊण रयणीए काउस्सग्गं ठिया, अहासंनिहिया काइ देवया तीए सीलसमायारं नाऊण आगया, भणियं च तीए-किं ते पियं करेमित्ति, तीए भणिय-उड्डाई फेडेहि, देवयाए भणिय-फेडेमि, पञ्चूसे इमाए नयरीए दीप अनुक्रम [६२] तत्रानेके श्रमणाः श्रम यश्च प्रायोग्यानिमितमागच्छन्ति, तनिकनायो भणन्ति-एषा संबतेषु डर्ब रकेति, भत्ता तथा न प्रत्येतीति, अन्पदा कोऽपि वर्णरूपादिगुणगणयुक्तमतरूण भिक्षुः प्रायोग्यनिमित्तं गतः, तस्य च वायूछतं रजोऽक्षिण प्रविष्ट, सुभद्रा तजिहयोतिस्थापनीतं, तस्त्र ललाटे तिलकः संक्राम्तः, हतेनापि ग्याक्षिप्तचिम न शातः, स निस्सरति तावसनिकवादीभिरकाण्डागताय भने स दर्शितः, पश्येदं विश्वस्तरमणसंकान्त भार्यायाः संगतं तिलकमिति, तेनापि चिन्तितं-किमिदमेवमपि भवेत् ।, अथवा बलवन्तो विषया अनेकभवाभ्यस्तकावेति किं न भवतीति, मन्दनेहो जातः, सुभद्या कथमपि ज्ञात एष वृत्तान्तः, चिन्तितं चानया-भावनिक एष अड्डाहः कथं स्फेटयामीति', प्रवचनदेवतामभिसंधार्य रजनौ कायोत्सर्गे स्थिता, यथासचिहिता काचिदेवता तस्याः शीलसमाचार ज्ञावाऽज्ञाता, माणितं च तया-किं ते प्रियं करोमीति, तथा भणितं-उढाई स्फेटय, देवतया भणितं-स्फेटयामि, प्रत्यूपेऽस्या नगाँ M arayan पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~288 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५५०] भाष्यं [२३६...], प्रत सूत्रांक आवश्यकहारिभद्रीया ।।८००॥ [सू.] दीप अनुक्रम [६२] दाराणि थंभेमि,तओ आलग्गे(अद्दण्णे)सु नागरेसु आगासत्था भणिस्सामि-जाए परपुरिसोमणेणाविन चिंतिओसा इधिया कायोत्सचालणीए पाणियं छोढणं गंतूणं तिणि वारे छंटेउं उग्घाडाणि भविस्संति, तओ तुम विष्णासि सेसनागरिएहिं बाहिं ध्य० पच्छा जाएज्जासि, तओ उग्घाडेहिसि, तओ फिट्टिही उड्डाहो, पसंसं च पाविहिसि, तहेव कयं पसंसं च पत्ता, एवं ताव कायोत्सर्गइहलोइयं काउस्सग्गफलं, अन्ने भणंति-वाणारसीए सुभदाए काउस्सग्गो कओ, एलगच्छुप्पत्ती भाणियवा। राया 'उदिओ- फले कथाः दए'त्ति, उदितोदयस्स रण्णो भज्जा(धम्म) लाभागय णिवरोहियस्स उवसम्गए व समणजायं, कहाणगं जहा नमोकारे । 'सेहिभजा यत्ति पाए सुदसणो सेडिपुत्तो, सो सावगो अहमिचाउद्दसीसु चच्चरे उवासगपडिमं पडिवजइ, सो महादेवीए पस्थिज्जमाणो णिच्छइ, अण्णया वोसहकाओ देवपडिमत्ति वत्थे चेडीए वेदिई अंते उरं अतिणीओ, देवीए निब्बधेवि कए नेच्छइ, पउहाए कोलाहलो कओ, रण्णा वज्झो आणत्तो, निजमाणे भजाए से मित्तवतीए सावियाए सुतं, द्वाराणि स्थगिण्यामि, ततोऽतिमापनेषु नागरेषु आकाशस्था भणियामि-थया परपुरुषो मनसाऽपि न चिन्तितः सा श्री चालिन्यामुद लिया गरवा श्रीन् चारान् उपयति उद्धाटानि भविष्यन्ति, सतस्वं परीक्ष्य शेषनागरैः सह बहिः पलायायाः, तत उद्घाटयिष्यसि, ततः स्फेटिष्पापुडाहः प्रशंसां च प्राप्स्यसि, तथैव कृत, प्रशंसां च प्राप्ता, एवत्तानदेहली किकं कायोत्सर्गफलं, मन्ये भणन्ति-वाराणस्यां सुभदया कायोत्सर्गः कृतः, एकानोत्पत्तिमणितम्या । राजा | उदितोदय इति, उदितोदयस्य राज्ञः भाषा धर्मकाभागतं अन्तः पुररुवं श्रमणमुपसर्गपति कथानकं यथा नमस्कारे । श्रेनिभायां चेति चम्पायां सुपर्शनः श्रेलिपुत्रःK11८००। सभापकोटमीचतुर्दश्योखत्वरे उपासकमतिमा प्रतिपद्यते, स महादेच्या प्राय॑मानो नेपछति, अन्यदा म्युमाकायो देवप्रतिमेति चेव्या पौष्टयित्वा अन्तःपुरमानीता, देव्या निबन्धे कृतेऽपि नेच्छति, प्रद्विष्टया कोलाहलः कृतः, राहा वय आज्ञप्तः, नीयमानो मायया तस्य मित्रवत्या प्राधिकया श्रुतः, JABERJEEM पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~289~ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५५०] भाष्यं [२३७], प्रत सूत्रांक MARCARDok | सच्चाणजलस्सासवण्णा काउस्सग्गे ठिता, सुदंसणस्सावं अहखंडाण कीरंतुति खंध असी वाहितो, सचाणजक्खेण पुप्फदाम कतो, मुको रक्षा पूइतो, ताधे मित्तवतीए पारियं तथा 'सोदास'त्ति सोदासोराया, जहा नमोकारे, 'खग्गधभणे त्ति कोई विराहियसामण्णो खग्गो समुप्पण्णो, बट्टाए मारेति साहू, पहाविया, तेण दिहा आगओ, इयरवि काउस्सग्गेण |ठिया, न पहवइ, पच्छा तं दङ्गण उपसंतो । एतदैहिकं फलं, 'सिद्धी सम्गो य परलोए सिद्धिः-मोक्षः स्वर्गो-देवलोकः चशब्दात् चक्रवर्तित्वादि च परलोके फलमिति गाथार्थः ॥ १५५० ॥ आह-सिद्धिः सकलकर्मक्षयादेवाप्यते, 'कृत्स्त्रकर्मक्षयान्मोक्षः' इति वचनात , स कथं कायोत्सर्गफल मिति !, उच्यते, कर्मक्षयस्यैव कायोत्सर्गफलत्वात् , परम्पराकारणस्यैव |विवक्षितत्वात् , कायोत्सर्गफलत्वमेव कर्मक्षयस्य कथं ?, यत आह भाष्यकार:जह करगओ निकितइ दारु इंतो पुणोविवचंतो। इअ कंतति सुविहिया काउस्सग्गेण कम्माई॥२३७॥(भा) काउस्सग्गे जह सुट्टियस्स भजति अंगमंगाई । इय भिंदंति सुविहिया अट्टविहं कम्मसंघायं ॥ १५५१ ॥ अन्नं इमं सरीरं अन्नो जीबुसि एव कयवुद्धी। दुक्खपरिकिलेसकरं छिंद ममत्तं सरीराओ ॥ १५५२॥ जावइया किर दुक्खा संसारे जे मए समणुभूया । इत्तो दुब्विसहतरा नरएम अणोवमा दुक्खा ॥ १५५३ ॥ दीप अनुक्रम [६२] सवाणयक्षस्य माश्रवणाय (असपना) कायोत्सर्ग स्थिता, सुदर्शनस्थाप्यष्ट खण्डा भवन्विति स्कन्धेऽसिः प्रहृतः, सत्वाणयक्षेण पुष्पदामीकृतः, मुक्तो राज्ञा पूजितः, सदा मित्रवत्या पारितः । सीदासेति सौदासो राजा, यथा नमस्कारे, खगस्तम्भन मिति, कविशिराजश्रामण्यः समः समुत्पनः, वर्तन्यां | मारपति साधून, साधयः प्रधाविताः, तेन रष्टा आगतः, इतरेऽपि कायोत्सर्जेग स्थित प्रभवति । पचास वोपशान्तः, JAmEajal पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~290 Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५५४] भाष्यं [२३७], ་ प्रत सत्राक R [सू.] आवश्यक- तम्हा उ निम्ममेणं मुणिणा उवलडसुत्तसारणं । लोकायोत्सहारिभ काउस्सग्गो जग्गो कम्मखयट्ठाय कायब्बो ॥ १५५४ ॥ काउस्सग्गनिजुत्ती समत्ता (ग्रन्थान २५३९) । गोध्य० द्रीया व्याख्या-यथा 'करगतो'त्ति करपत्रं निकृन्तति-छिनत्ति विदारयति दारु-काष्ठं, किं कुर्वन् ?-आगच्छन् पुनश्च कायोत्सर्गे ॥८०२॥ वजन्नित्यर्थः, 'इय' एवं कृन्तन्ति सुविहिताः-साधवः कायोत्सर्गेण हेतुभूतेन कर्माणि-ज्ञानावरणादीनि, तथाऽन्यत्राप्युक्तं- फलं भाव"संवरेण भवे गुत्तो, गुत्तीए संजमुत्तमे। संजमाओ तवो होइ, तबाओ होइ निजरा ॥१॥ निजराएऽसुभं कर्म, खिज्जई| ना च कमसोसया। आवस्सग(गेण)जुत्तस्स,काउस्सग्गो विसेसओ॥२॥"इत्यादि, अयं गाथार्थः।।२३७।। अत्राह-किमिदमित्थमित्यत आह-'काउस्सग्गे'गाहा व्याख्या-कायोत्सर्गे सुस्थितस्य सतः यथा भज्यन्ते अङ्गोपाङ्गानि 'इय' एवं चित्तनिरोधेन 'भिन्दन्ति'। विदारयन्ति मुनिवरा:-साधवः अष्टविध-अष्टप्रकार कर्मसङ्घात-ज्ञानावरणीयादिलक्षणमिति गाथार्थः॥१५५१|आहयदि कायोत्सर्गे सुस्थितस्य भण्यन्ते अङ्गोपाङ्गानि ततश्च दृष्टापकारत्वादेवालमनेनेति !,अत्रोच्यते, सौम्य ! मैव-'अन्न इम' गाहा व्याख्या-अन्यदिदं शरीरं निजकर्मोपात्तमालयमात्रमशाश्वतम् , अन्योजीवोऽस्याधिष्ठाता शाश्वतः स्वकृतकर्मफलोद्रपभोक्ता य इदं त्यजत्येव, एवं कृतबुद्धिः सन् दुःखपरिक्लेशकर छिन्द्धि ममत्वं शरीरात्, किंच-पद्यनेनाप्यसारेण कश्चिदर्थे। सम्पद्यते पारलौकिकस्ततः सुतरां यतः कार्य इति गाथार्थः॥१५५२||किं चैवं विभावनीयम्-'जावइया'गाहा व्याख्या-याव- ८०१॥ संवरेण भवेदप्तो गुल्या संयमोलमो भवेत् । संयमात्तपो भवति तपसो भवति निर्जरा ॥ ३ ॥ निर्जरयाशुभं कर्म क्षीयते क्रमशः सवा । भाव४ श्षकेन युक्ता कायोत्सर्गे विशेषतः ॥२॥ दीप अनुक्रम [६२] ECRMALS NEaran पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~291 Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५५४] भाष्यं [२३७], ***** प्रत नित्यकृतजिनप्रणीतधर्मेण किलशब्दः परोक्षाप्तागमवादसंसूचकः दुःखानि शारीरमानसानि संसारे-तिर्यगनरनारका-15 मरभवानुभवलक्षणे यानि मयाऽनुभूतानि तत:-तेभ्यो दुर्विषहतराण्यप्रतोऽप्यकृतपुण्यानां नरकेषु-सीमन्तकादिषु अनुप-14 मानि-उपमारहितानि दुःखानि, दुर्विषहत्वमेतेषां शेषगतिसमुत्थदुःखापेक्षयेति गाथार्थः ॥ १५५३ ॥ यतश्चैवं 'तम्हा'। गाथा, तस्मात् तु निर्ममेन-ममत्वरहितेन मुनिना-साधुना, किंभूतेन !-उपलब्धसूत्रसारण-विज्ञातसूत्रपरमार्थेनेत्यर्थः, किंकायोत्सर्ग:-उक्तस्वरूपः उग्रः--शुभाध्यवसायप्रबलः कर्मक्षयार्थ नतु स्वर्गादिनिमित्तं कर्तव्य इति गाथार्थः॥१५५४॥ उक्तोऽनुगमः, नयाः पूर्ववत् ।। शिष्यहितायां कायोत्सर्गाध्ययनं समाप्तम् । कायोत्सर्गविवरणं कृत्वा यदवातमिह मया पुण्यम् । तेन खलु सर्वसत्त्वाः पञ्चविध कायमुज्झन्तु ॥१॥ सूत्रांक दीप अनुक्रम [६२] *****HARGA ആ മായാജാ ॥ इत्याचार्यश्रीहरिभद्रकृतायां शिष्यहिताख्यायामावश्यकवृत्ती कायोत्सर्गाध्ययन समाप्तं ॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: अत्र अध्ययनं -५- 'कायोत्सर्ग' परिसमाप्तं ~292 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं -1 / [गाथा-], नियुक्ति: [१५५४...] भाष्यं [२३७..., प्रत सूत्रांक सू.] 2014 दीप अनुक्रम आवश्यक ॥ अथ प्रत्याख्यानाध्ययनं । कायोत्सहारिभव्याख्यातं कायोत्सर्गाध्ययन, अधुना प्रत्याख्यानाध्ययनमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्ध:-अनन्तराध्ययने स्खल-13 |गांध्य.. द्रीया प्रत्याख्यानविशेषतोऽपराधवणविशेषसम्भवे निन्दामात्रेणाशुद्धस्यौषतः प्रायश्चित्तभेपजेनापराधनणचिकित्सोक्ता, इह तु गुणधा त्राचाभेदार 11८०२॥ भरणा प्रतिपाद्यते, भूयोऽपि मूलगुणोत्तरगुणधारणा कायेंति, सा च मूलगुणोत्तरगुणप्रत्याख्यानरूपेति तदत्र निरूप्यते, यद्वा कायोत्सर्गाध्ययने कायोत्सर्गकरणद्वारेण प्रागुपात्तकर्मक्षयः प्रतिपादितः, यथोक-'जह करगओ नियंतईत्यादि, 'काउस्सग्गे जह सुडियस्से'त्यादि, इह तु प्रत्याख्यानकरणतः कर्मक्षयोपशमक्षयजं फलं प्रतिपाद्यते, वक्ष्यते च-'इहलोइयपरलोइय दुविह फलं होइ पञ्चखाणस्स । इहलोए धम्मिलादी दामण्णगमाइ परलोए॥१॥ पश्चक्खाणमिणं सेविऊण भावेण जिणवरुद्दिई । पत्ता अणंतजीवा सासयसोक्ख लहुं मोक्खं ॥२॥ इत्यादि, अथवा सामायिके चारित्रमुपवर्णितं,क्षी चतुर्विशतिस्तवेऽर्हता गुणस्तुतिः, सा च दर्शनज्ञानरूपा, एवमिदं त्रितयमुक्त, अस्य च वितथासेवनमैहिकामुष्मिकापायपरिजिहीर्षुणा गुरोनिवेदनीयं, तच्च बन्दनपूर्वकमित्यतस्तन्निरूपितं, निवेद्य च भूयः शुभेष्वेव स्थानेषु प्रतीपं क्रमण-10 मासेवनीयमिति तदपि निरूपित, तथाऽप्यशृद्धस्य सतोऽपराधवणस्य चिकित्सा आलोचनादिना कायोत्सर्गपर्यवसान-15 ॥८०२॥ प्रायश्चित्तभेषजेनानन्तराध्ययन उक्ता, इह तु तथाप्यशुद्धस्य प्रत्याख्यानतो भवतीति तन्निरूप्यते, एवमनेकरूपेण सम्बन्धेनायातस्य प्रत्याख्यानाध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि सप्रपञ्च वक्तव्यानि, तत्र नामनिष्पने निक्षेपे प्रत्याख्यानाध्ययनमिति प्रत्याख्यानमध्ययनं च, तत्र प्रत्याख्यानमधिकृत्य द्वारगाथामाह नियुक्तिकार: [६२..] JAMERail पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: |. अत्र अध्ययनं -६- 'प्रत्याख्यानं' आरभ्यते ~293 Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [६२..] Education [भाग-३१] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ / ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [६], मूलं [-] / [गाथा-], निर्युक्ति: [१५५५ ] भाष्यं [२३८], पञ्चक्खाणं पञ्चखाओ पञ्चक्खेयं च आणुपुब्बीए । परिसा कहणविही या फलं च आईइ छन्भेया ॥ १५६५ ।। अस्या व्याख्या--'ख्या प्रकथने' इत्यस्य प्रत्याङ्पूर्वस्य ल्युडन्तस्य प्रत्याख्यानं भवति, तत्र प्रत्याख्यायते - निषिध्यतेऽनेन मनोवाक्कायक्रियाजालेन किञ्चिदनिष्टमिति प्रत्याख्यानं क्रियाक्रियावतोः कथञ्चिदभेदात् प्रत्याख्यानक्रियैव प्रत्याख्यानं प्रत्याख्यायतेऽस्मिन् सति वा प्रत्याख्यानं " कृत्यल्युटो बहुलमिति ( पा० ३-३-१२ ) वचनादन्यथाऽप्यदोषः प्रति आख्यानं प्रत्याख्यानमित्यादौ तथा प्रत्याख्यातीति प्रत्याख्याता गुरुर्विनेयश्च तथा प्रत्याख्यायत इति प्रत्याख्येयं प्रत्याख्यानगोचरं वस्तु, चशब्दस्त्रयाणामपि तुल्यकक्षतोद्भावनार्थं, आनुपूर्व्या परिपाठ्या कथनीयमिति वाक्यशेषः, तथा परिषद् वक्तव्या, किंभूतायाः परिषदः कथनीयमिति, तथा कथनविधिश्व कथनप्रकारश्च वक्तव्यः, तथा फलं चैहिकामुष्मिकभेदं कथनीयं, आदावेते पड् भेदा इति गाथासमासार्थः । व्यासार्थं तु यथावसरं भाष्यकार एव वक्ष्यति, तत्राद्यावयवच्यासार्थप्रतिपिपादयिपयाह नामंठवणादविए अइच्छ पडिसेहमेव भावे य । एए खलु छन्भेया पचक्खाणंमि नायव्वा ॥ २३८ ॥ ( भा० ) दव्वनिमित्तं दब्वे दव्वभूओ व तत्थ रायसुआ । अइच्छापञ्चक्खाणं बंभणसमणान (अ) इच्छति ॥ २३९ ॥ (भा० ) अमुगं दिज्जउ मज्झं नत्थि ममं तं तु होइ पडिसेहो । सेसपयाण य गाहा पञ्चकखाणस्स भावंमि ॥ २४० ॥ (भा० ) तं दुविहं सुअनोसुअ सुयं दृहा पुव्वमेव नोपुव्वं । पुत्र्वसुय नवमपुत्र्वं नोपुव्वसुर्य इमं चैव ॥ २४१ ॥ ( भा० ) नोसुअपच्चक्खाणं मूलगुणे चैव उत्तरगुणे य। मूले सबं देसं इतरियं आवकहियं च ॥ २४२ ॥ ( भा० ) For Parts at Le Only by org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः प्रत्याख्यानम् अधिकृत्य द्वाराणि प्रकाश्यते ~ 294~ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [-] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५५५...] भाष्यं [२४३], प्रक्षेप [१] प्रत सूत्रांक आवश्यक मूलगुणावि यदुविहा समणाणं चेव सावयाणं च । ते पुण विभत्रमाणा पंचविहाहुंति नायव्वा ॥१॥(प्र.) ६प्रत्याख्या हारिभ- पाणिवहमुसावाए अदत्तमेहुणपरिग्गहे चेव । समणाणं मुलगुणा तिविहंतिविहेण नायव्वा ।। २४३॥ (भा०) नाध्य० द्रीया व्याख्या-नामप्रत्याख्यानं स्थापनाप्रत्याख्यानं 'दविए'त्ति द्रव्यप्रत्याख्यानं, 'अदिच्छ'त्ति दातुमिच्छा दित्सा न प्रत्याख्यान AP निक्षेपाः ॥४०॥ दादित्सा अदित्सा सैव प्रत्याख्यानमदित्साप्रत्याख्यानं पडिसेहे'त्ति प्रतिषेधप्रत्याख्यान, एवं भावे'ति एवं भावप्रत्याख्यानं च, 'एए खलु छन्भेया पञ्चक्खाणंमिनायब'त्ति गाथादलं निगदसिद्धमयं गाथासमुदायार्थः । अवयवार्थ तु यथावसरं वक्ष्यामः, ४ तब नामस्थापने गतार्थे ।। २३८ ॥अधुना द्रव्यप्रत्याख्यानप्रतिपादनायाह-दवनिमित्तं' गाथाशकलम्, अस्य व्याख्या-द्रव्यनिमित्तं प्रत्याख्यानं वस्त्रादिद्रव्यार्थमित्यर्थः, यथा केषाञ्चित् साम्प्रतक्षपकाणां, तथा द्रव्ये प्रत्याख्यानं यथा भूम्यादौ व्यवस्थितः करोति, तथा द्रव्यभूतः-अनुपयुक्तः सन् यः करोति तदप्यभीष्टफलरहितत्वात् द्रव्यप्रत्याख्यानमुच्यते, तुशब्दाद् द्रव्यस्य द्रव्याणां द्रव्येण द्रव्यैर्द्रव्येष्विति, क्षुण्णश्चार्य मार्गः, 'तत्थ रायसुय'त्ति अत्र कथानक-ऐगस्स रण्णो धूया अण्णस्स हरणो दिण्णा, सो य मओ, ताहे सा पिउणा आणिया, धम्म पुत्त! करेहि त्ति भणिया, सा पासंडीणं दाणं देति, अण्णया कत्तिओ धम्ममासोत्ति मंस न खामित्ति पञ्चक्खायं, तत्थ पारणए अणेगाणि सत्तसहस्साणि मंसत्थाए उवणीयाणि, ताहे ॥३॥ हा एकस्य राज्ञो दुहिताऽन्य राशे दत्ता, सच मृतः, तदा सा पित्रानीता, धर्म पुनि ! कुर्विति भपिता, सा पापण्डिभ्यो बानं ददाति, अन्यदा कार्तिको धर्ममास इति मांस न खादामीति प्रत्याख्यातं, तंत्र पारणकेऽनेकाः शतसहखाः (पशवो) मांसाधमुपनीताः, तदा 4-364% दीप अनुक्रम [६२..] SANEastin पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत्याख्यानस्य भेदानाम वर्णनं ~295 Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [-] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५५५...] भाष्यं [२४३], प्रक्षेप [१] SOC प्रत सूत्रांक % भत्तं दिजति, तत्थ साहू अदूरेण वोलेंता निमंतिया, तेहिं भत्तै गहियं, मंस नेच्छति, सा य रायधूया भणइ-किं तुझं न ताव कत्तियमासो पूरही, ते भणंति जावज्जीवाए कत्तिउत्ति, किं वा कह वा, ताहे ते धम्मकहं कहेंति, मंसदोसे य परिकहति, पच्छा संबुद्धा पवतिया, एवं तीसे दबपञ्चक्खाणं, पच्छा भावपञ्चक्खाणं जातं, अधुना अदित्साप्रत्याख्यानं प्रतिपाद्यते, तत्रेदंगाथाई, अदित्साप्रत्याख्याने 'बंभणसमणा अदिच्छ'त्ति हे ब्राह्मण हे श्रमण अदित्सेति-न मेदातुमिच्छा, न तु नास्ति यद् भवता याचितं, ततश्चादित्सैव वस्तुतः प्रतिषेधात्मिकेति प्रत्याख्यानमिति गाथार्थः ॥ २३९ ।। अधुना प्रतिषेधप्रत्याख्यानव्याचिख्यासयेदं गाथाशकलमाह-'अमुगं दिजउ मसंगाहा व्याख्या-अमुकं घृतादि दीयतां मां, इतरस्वाह-नास्ति मे तदिति, न तु दातुं नेच्छा, एष इत्थंभूतो भवति प्रतिषेधः, अयमपि वस्तुतः प्रत्याख्यानमेव, प्रति४षेध एव प्रत्याख्यानं २ ।।। २४० ॥ इदानीं भावप्रत्याख्यानं प्रतिपाद्यते, तत्रेदं गाथाई 'सेसपयाण य गाहा पच्चक्खा णस्स भावंमि' शेषपदानामागमनोआगमादीनां साक्षादिहानुक्तानां प्रत्याख्यानस्य सम्बन्धिनां गाथा कायेति योगवाक्य शेषौ, इह गाथा प्रतिष्ठोच्यते, निश्चितिरित्यर्थः, 'गाथ प्रतिष्टालिप्सयोग्रन्धे चेति धातुवचनात्, 'भावमिति द्वारपरा४ मर्शः, भावप्रत्याख्यान इति । तदेतद्दर्शयन्नाह-'तं दुविहं सुतणोसुय'गाहा, 'त'भावप्रत्याख्यानं द्विविध-द्विप्रकारं 'सुत भक दीयते, तन्त्र साधवोऽतूरे पतिजन्तो निमश्रिताः, नैर्भक्तं गृहीतं, मांसं नेच्छन्ति, सा च राजदुहिता भणति-किं युष्मा न तावत् कार्तिकमासः पूर्णः १, भणस्ति-यापनी कार्तिक इति, किंवा कवा , तदा ते धर्मकथा कथयन्ति, मांसपोषांश परिकथयति, पक्षात संबुदा प्रमजिता, एवं तस्या द्रव्यप्रत्यावानं पश्चादू भावप्रल्याण्यानं जातं CASEASEARS दीप अनुक्रम [६२..] EAA5 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~296~ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं ] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५५५...] भाष्यं [२४३], प्रक्षेप [१] प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [६२..] आवश्यक- नोसुत'त्ति श्रुतप्रत्याख्यानं नोश्रुतप्रत्याख्यानं च 'सुयं दुहा पुबमेव नोपुवं' श्रुतप्रत्याख्यानमपि द्विधा भवति-पूर्वश्रुतप्रत्या- प्रत्याख्या हारिभ ख्यानं नोपूर्वश्रुतप्रत्याख्यानं च, 'पुषसुय नवमपुर्व' पूर्वश्रुतप्रत्याख्यानं नवमं पूर्व, 'नोपुषसुयं इमं चेव' नोपूर्वश्रुतप्रत्या- नाध्य. दीया ख्यानमिदमेव-प्रत्याख्यानाध्ययनमित्येतच्चोपलक्षणमन्यच्चातुरप्रत्याख्यानमहाप्रत्याख्यानादि पूर्ववाद्यमिति गाथार्थः 4॥२४१॥ अधुना नोश्रुतप्रत्याख्यानप्रतिपादनायाह-'नोसुयपञ्चक्खाणं' गाहा 'णोसुयपञ्चक्खाणं'ति श्रुतप्रत्याख्यानं न नभेदाः ॥८०४॥ * भवतीति नोश्रुतप्रत्याख्यान, 'मूलगुणे चेव उत्तरगुणे य' मूलगुणांश्चाधिकृत्योत्तरगुणांश्च, मूलभूता गुणाः २ त एव प्राणातिपातादिनिवृत्तिरूपत्वात् प्रत्याख्यानं वर्तते, उत्तरभूता गुणाः २ त एवाशुद्धपिण्डनिवृत्तिरूपत्वात् प्रत्याख्यानं तद्विषयं वा अनागतादि वा दशविधमुत्तरगुणप्रत्याख्यानं, 'सर्व देस'ति मूलगुणप्रत्याख्यानं द्विधा-सर्वमूलगुणप्रत्याख्यान देशमूलगुणप्रत्याख्यानं च, सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानं पञ्च महाव्रतानि, देशमूलगुणप्रत्याख्यानं पशाणुव्रतानि, इदं चोपलक्षणं वर्तते यत उत्तरगुणप्रत्याख्यानमपि द्विधैव-सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यानं देशोत्तरगुण प्रत्याख्यानं च, तत्र सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यानं दशविधमनागतमतिक्रान्तमित्याद्युपरिष्टादू वश्यामा, देशोत्तरगुणप्रत्याटि.ख्यानं सप्तविध-त्रीणि गुणवतानि चत्वारि शिक्षाब्रतानि, एतान्यप्यूर्व वक्ष्यामः, पुनरुत्तरगुणप्रत्याख्यानमोघतो! द्विविध-'इत्तरियमावकहियं च' तत्रेवर-साधूनां किश्चिदभिग्रहादिः श्रावकाणां तु चत्वारि शिक्षाप्रतानि, याव-12 कधिकं तु नियन्त्रितं, यत् कान्तारदुर्भिक्षादिष्वपि न भज्यते, श्रावकाणां तु त्रीणि गुणवतानीति गाथार्थ ८०४॥ ॥ २४२ ॥ साम्प्रतं स्वरूपतः सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानमुपदर्शयन्नाह-'पाणिवहमुसावाए' गाहा, प्राणा-इन्द्रि 8454546456 JAmEatinine Ghorary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~297 Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [-] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५५५...] भाष्यं [२४३], प्रक्षेप [१] प्रत सूत्रांक यादयः तथा चोक्तम्-'पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च, उछासनिश्वासमथान्यदायुः । प्राणा दशैते भगवनिरुका, एषां । वियोगीकरणं तु हिंसा ॥१॥" तेषां वधः प्राणवधो [न] जीववधस्तस्मिन् , मृषा वदनं मृषावादस्तस्मिन्, असदभिधान | दात्यर्थः, 'अदत्तति उपलक्षणत्वाददत्तादाने परवस्त्वाहरण इत्यर्थः, 'मेहुण'त्ति मैथुने अग्रह्मसेवने यदुक्तं भवति. 'परिभागहे चेव'त्ति परिग्रहे चैव, एतेषु विषयभूतेषु श्रमणानां-साधूनां मुलगुणाः त्रिविधत्रिविधेन योगत्रयकरणत्रयेण नेतन्या: अनुसरणीयाः, इयमत्र भावना-श्रमणाः प्राणातिपाताद्विरतास्त्रिविधं त्रिविधेन तत्थ 'तिविधीन्ति न करेति न कारवेइ |३ करतंपि अण्णं णाणुजाणेति, 'तिविहं'ति मणेणं वायाए कापणं, एवमन्यत्रापि योजनीयमिति गाथार्थः ॥ २४३ ॥ इत्थं | तायदुपदर्शितं सर्वमूलगुणप्रत्याख्यान, अधुना देशमूलगुणप्रत्याख्यानावसरः, तच्च धावकाणां भवतीतिकृत्वा विनेयानुग्रहाय तद्धर्मविधिमेवौषतः प्रतिपिपादयिषुराहसावयधम्मस्स विहिं बुच्छामी धीरपुरिसपन्नत्तं । जं चरिऊण सुविहिया गिहिणोवि सुहाई पावंति ॥ १५५६ ॥ साभिग्गहा या निरभिग्गहा य ओहेण सावधा दुविहा। ते पुण विभजमाणा अट्टविहाहुँति नायव्वा ॥ १५५७॥ दुविहतिविहेण पढमो दुविहं दुविहेण वीयओ होइ । दुविहं एगविहेणं एगविहं चेव तिविहेणं ॥ १५५८ ॥ एगविहं दुविहेणं इकिकविहेण छट्टओ होइ । उत्तरगुण सत्तमओ अविरयओ चेव अहमओ ॥ १५५९।। पणय चकच तिगं दुगं च एगं च गिण्हा वयाई। अहवाऽवि उत्तरगुणे अहवाऽवि नगिहई किंचि ॥ १५६०॥ || निस्संकियनिफेखिय लिब्वितिगिच्छा अमूढदिट्टी य । वीरवयणमि एए बत्तीसं सावया भणिया ॥१५६१ ॥ 140-50 -- दीप अनुक्रम [६२..] CRACHANA मा०1३५ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~298~ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं ] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१] भाष्यं [२४३...], आवश्यक हारिंभद्रीया प्रत सूत्रांक सू.] दीप अनुक्रम व्याख्या-तत्राभ्युपेलसम्यक्त्वः प्रतिपन्नाणुव्रतोऽपि प्रतिदिवस यतिभ्यः सकाशात् साधूनामगारिणां च सामाचारी प्रत्याख्या शृणोतीति श्रावक इति, उक्त च-"यो ह्यभ्युपेतसम्यक्त्वो, यतिभ्यः प्रत्यहं कथाम् । शृणोति धर्मसम्बद्धामसौ श्रावक नाध्य उच्यते ॥१॥" श्रावकाणां धर्मः २ तस्य विधिस्तं वक्ष्ये-अभिधास्ये, किंभूतं ?-धीरपुरुषप्रज्ञप्तं' महासत्त्वमहाबुद्धि श्रावकत्र तभङ्गाः तीर्थकरगणधरप्ररूपितमित्यर्थः, यं चरित्त्वा सुविहिता गृहिणोऽपि सुखान्यहिकामुष्मिकाणि प्राप्नुवन्तीति गाथार्थः॥१५५६॥3 तत्र-'साभिग्गहा य निरभिग्गहा य' गाहा, अभिगृह्यन्त इत्यभिग्रहा:-प्रतिज्ञाविशेषाः सह अभिग्रहवर्तन्त इति साभिग्रहाल दाते पुनरनेकभेदा भवन्ति, तथाहि-दर्शनपूर्वकं देशमूलगुणोत्तरगुणेषु सर्वेष्वेकर्मिश्च (स्मिन) वा भवन्त्येव तेषामभिग्रहः, निर्गता-अपेता अभिग्रहा येभ्यस्ते निरभिग्रहाः, ते च केवलसम्यग्दर्शनिन एव, यथा कृष्णसत्यकिश्रेणिकादयः, | इत्थं ओधेन-सामान्येन श्रावका द्विधा भवन्ति, ते पुनर्द्विविधा अपि विभज्यमाना अभिग्रहग्रहणविशेषेण निरूप्यमाणा अष्टविधा भवन्ति ज्ञातव्या इति गाथार्थः॥१५५७॥ तत्र यथाऽष्टविधा भवन्ति तथोपदर्शयन्नाह-'दुविहतिविहेण' गाहा, इह योऽसौ कञ्चनाभिग्रहं गृह्णाति स ह्येवं-'द्विविध मिति कृतकारितं 'त्रिविधेनेति मनसा वाचा कायनेति, एतदुक्तं भवति-स्थूल-४ प्राणातिपातं न करोत्यात्मना न कारयत्यन्यैर्मनसा वचसा कायेनेति प्रथमः, अस्यानुमतिरप्रतिषिद्धा, अपत्यादिपरिग्रह-I ||८०५॥ सभावात्, तद्व्यापृतिकरणे च तस्यानुमतिप्रसङ्गा, इतरथा परिग्रहापरिग्रहयोरविशेषेण प्रत्रजिताप्रबजितयोरभे-12 है दापत्तेरिति भावना, अबाह-ननु भगवत्यामागमे त्रिविधं त्रिविधेनेत्यपि प्रत्याख्यानमुक्तमगारिणः, तच्च श्रुतोकत्वादन-8 वद्यमेव, तदिह कस्मान्नोक्तं नियुक्तिकारेणेति ?, उच्यते, तस्य विशेषविषयत्वात् , तथाहि-किल यः प्रविजिपुरेव प्रतिमा [६२..] JAMERuratinAR Batorary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: श्रावकव्रतस्य भेदा: उच्यते ~299 Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं ] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१] भाष्यं [२४२...], 96-2 प्रत सूत्रांक सू.] प्रतिपद्यते पुत्रादिसन्ततिपालनाय स एव त्रिविधं त्रिविधेनेति करोति, तथा विशेष्यं वा किश्चित् वस्तु स्वयम्भूरमणमरस्यादिक तथा स्थूलप्राणातिपातादिकं चेत्यादि, न तु सकलसावधव्यापारविरमणमधिकृत्येति, ननु च नियुक्तिकारेण स्थूलप्राणातिपातादावपि त्रिविधंत्रिविधेनेति नोक्तो विकल्पः, 'वीरवयणमि एए बत्तीस सावया भणिया' इति वचनाद-18|| न्यथा पुनरधिकाः स्युरिति ?, अत्रोच्यते, सत्यमेतत् , किंतु बाहुल्यपक्षमेवाङ्गीकृत्य तियुक्तिकारेणाभ्यधायि, यत् पुनः कचिदवस्थाविशेषे कदाचिदेव समाचर्यते न सुष्टु समाचार्यनुपाति तनोक्त, बाहुल्येन तु द्विविध त्रिविधेनेत्यादिभिरेव पद्दभिर्विकल्पैः सर्वस्यागारिणः सर्वमेव प्रत्याख्यानं भवतीति न कश्चिद् दोष इत्यलं प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः, 'दुविह लिविहेण बितियओ होति'त्ति 'द्विविध मिति स्थूलपाणातिपात न करोति न कारयति 'द्विविधेने ति मनसा वाचा, यद्वा मनसा कायेन, यद्वा वाचा कायेन, इह च प्रधानोपसर्जनभावविवक्षया भावार्थोऽवसेयः, तत्र यदा मनसा वाचा दन करोति न कारयति तदा मनसैवाभिसन्धिरहित एव वाचापि हिंसकमब्रुवन्नेव कायेनैव दुश्चेष्टितादिना करोत्यसंज्ञि|वत्, यदा तु मनसा कायेन च न करोति न कारयति तदा मनसाभिसन्धिरहित एव कायेन च दुश्चेष्टितादि परिहरन्नेव है अनाभोगाद्वाचैव हिंसकं ब्रूते, यदा तु वाचा कायेन च न करोति न कारयति तदा मनसैवाभिसन्धिमधिकृत्य करोतीति, अनुमतिस्तु त्रिभिरपि सर्वत्रैवास्तीति भावना, एवं शेषविकल्पा अपि भावनीया इति, 'दुविहं एगविहेणं'ति द्विविधमेकविधेन, 'एकविहं चेव तिविहेण ति एकविधं चैव त्रिविधेनेति गाथार्थः ।। १५५८ ॥ 'एगविहं दुविहेण तिल एकविध द्विविधेन 'एकेक्कविहेण छडओ होई' एकविधमेकविधेन षष्ठो भवति भेदः, 'उत्तरगुण सत्तमओ'त्ति प्रतिपक्षोत्तरगु दीप अनुक्रम [६२..] NEna पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~300 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१] भाष्यं [२४२...], प्रत्याख्या नाध्यक श्रावकत्रतभद्दाः प्रत सूत्रांक सू.] आवश्यक-बाणः सप्तमः, इह च सम्पूर्णासम्पूर्णोत्तरगुणभेदमनाइत्य सामान्येनैक एव भेदो विवक्षितः, 'अविरयओ चेव अहमओ'त्ति अवि- हारिभ- भरतश्चैवाष्टम इति अविरतसम्यग्दृष्टिरिति गाथार्थः ।। १५५९ ॥ इत्थमेते अष्टौ भेदाः प्रदर्शिताः, एत एव विभज्यमाना द्रीया द्वात्रिंशद् भवन्ति, कथमित्यत आह-'पणग'त्ति पश्चाणुव्रतानि समुदितान्येव गृह्णाति कश्चित् , तत्रोक्तलक्षणाः षडू भेदा 11८०६॥ भवन्ति, 'चउकं च'त्ति तथाऽणुनतचतुष्टयं गृह्णात्यपरस्तत्रापि पडेव, 'तिगन्ति एवमणुव्रतत्रयं गृह्णात्यन्यस्तत्रापि षडेव, 'दुर्ग च'त्ति इत्थमणुव्रतद्वयं गृह्णाति, तत्रापि पडेव, 'एक वत्ति तथाऽन्य एकमेवाणुव्रतं गृह्णाति, तत्रापि पडेव, 'गिण्हइ ४ वयाईति इत्थमनेकधा गृह्णाति व्रतानि, विचित्रत्वात् श्रावकधर्मस्य, एवमेते पञ्च पटुकात्रिंशद् भवन्ति, प्रतिपन्नोत्तर|गुणेन सहैकत्रिंशत् , तथा चाह-'अबावि (य) उत्तरगुणे'त्ति अथवोत्तरगुणान्-गुणवतादिलक्षणान् गृह्णाति, समुदितान्येव | गृह्णाति, केवलसम्यग्दर्शनिना सह द्वात्रिंशद् भवन्ति, तथा चाह-'अह्वावि न गिण्हती किंचित्ति अथवा न गृह्णाति || तानप्युत्तरगुणानिति, केवलं सम्यगहृष्टिरेवेति गाथार्थः ॥ १५६०॥ इह पुनर्मूलगुणोत्तरगुणानामाधारः सम्यक्त्वं वर्त्तते तथा चाह-'निस्संकियनिकखिय'गाहा, शङ्कादिस्वरूपमुदाहरणद्वारेणोपरिष्टाद वक्ष्यामः 'वीरवचने' महावीरवर्द्धमानस्वामिप्रवचने 'एते' अनन्तरोक्ता द्वात्रिंशदुपासका:-श्रावका भणिताः-उक्ता इति गाथार्थः ॥ १५६१ ॥ एते चेव बत्तीसतिविहा करणतियजोगतियकालतिएणं विसेसेजमाणासीयालं समणोवासगसयं भवति, कह, पाणाइवायं न करेति मणेणं, अथवा पाणातिपातं न करेइ वायाए, अहवा पाणातिपातं न करेइ कारणं ३, अथवा पाणातिवातं न करेतिमणेणं पायाए य, अथवा पाणातिवायं न करेति मणेणं काएण य, अथवा पाणातिपातं न करेति वायाए कारण य ६, अथवा पाणातिपातं न करेति दीप अनुक्रम [६२..] ८०६॥ JamEastatinian पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~ 301 Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [-] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५६१] भाष्यं [२४२...., प्रत सूत्रांक 18मणेणं वायाए कारण य', एते सत्त भगा करणेणं, एवं कारवणेणवि एए चेव सत्त भंगा १४, एवं अणुमोयणेणवि सत्त भंगा २१, अहवा न करेइ न कारवेइ मणसा १ अहवा न करेइन कारवेइ वचसा, २ अहवान करेइ न कारवेइ कारण। | ३ अहवा न करेइन कारवेइ मणसा वयसा ५ अहवान करेइन कारवेइ मणसा कायेणं ५ अहवा न करेइन कारवेइ वयसा कायसा ६ अहवा न करेइ न कारवेइ मणसा वयसा कायसा ७, एते करणकारावणेहिं सत्तभंगा ७ एवं करणाणुमोयणेहिवि | सत्तभंगा ७, एवं कारावणाणुमोयणेहिवि सत्त भंगा, एवं करणकारावणाणुमोयणेहिवि सत्त भंगा ७, एवेते सत्त सत्तभंगाणं एगणपण्णासं विगप्पा भवन्ति, एत्थ इमो एगूणपन्नासइमो विगप्पो-पाणातिवायं न करे न कारवेद करेंतंपि| अन्न न समणुजाणइ मणेणं वायाए कारणंति, एस अंतिमविगप्पो पडिमापडिवन्नस्स समणोवासगस्स तिविहंतिविहेणं | भवतीति, एवं ताव अतीतकाले पडिक्कमंतस्स एगूणपण्णा भवन्ति, एवं पडुपण्णेवि काले संवरेतस्स एगूणपण्णा भवन्ति, एवं अणागएवि काले पच्चक्खायंतस्त एगूणपन्नासा भवन्ति, एवमेता एगूणपण्णासा तिषिण सीयालं सावयसयं भवति सीयालं भंगसयं जस्स विसोहीऍ होति उबलद्धं । सो खलु पञ्चक्खाणे कुसलो सेसा अकुसला उ ॥ १ ॥ एवं पुण पंचहिं अणुचएहिं गुणियं सत्तसयाणि पंचतीसाणि सावयाणं भवन्ति, सीयालं भंगसयं गिहिपञ्चवाणभेयपरिमाणं । जोगत्तियकरणशिवकालतिएणं गुणेयव्व | ॥२॥सीयालं मंगसयं पञ्चक्खाणंमि जस्स उक्लद्धं । सो खलु पञ्चक्खाणे कुसलो सेसा अकुसला य ॥ ३ ॥ सीवालं भंगसयं गिहिपञ्चक्खाणभेयपरिमाणं । तं च विहिणा इमेणं भावेयव्वं पयत्चेण ॥ ४ ॥ तिनि तिया तिन्नि दुया तिन्निकिका य हुँति जोगेसुं । तिदुइकं ४ तिदुइके तिदुएगं चेक करणाई ॥ ५॥ पढमे लब्भह एगो सेसेसु पएसु तिय तिय तियंति । दो नव तिय दो नवगा तिगुणिय सीवाल भंग-ट दीप अनुक्रम [६२..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~302 Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं I [गाथा-], नियुक्ति : [१५६१...] भाष्यं [२४२...], प्रत्याख्या नाध्यक श्रावकत्रतभकाः प्रत सत्राक सू.] आवश्यक-६ सयं ॥ ६ ॥ अहवा अणुव्वए चेव पडुच्च एकमादिसंजोगदुबारेण पभूयतरा भेदा निदंसिर्जति, तत्रेयमेकादिसंयोगपरिमाणप्रदर्शनपरा-15 हारिभ- यकर्तृकी गाथा ॥ द्रीया पंचण्हमणुवयाणं इक्कगदुगतिगचउकपणएहिं । पंचगदसदसपणइक्कगे यू संजोग कायब्वा ॥१॥ 1८०७॥ एतीए वखाणं-पंचण्हमणुबयाणं युवभणियाणं 'एक्कगदुगतिगचउक्कपणएहिं चिंतिजमाणाणं 'पंचगदसदसपणगए-10 है कगो य संजोग णातबा' एक्केण चिंतिजमाणाणं पंच संजोगा, कह!, पंचसु घरएसु एगेण पंचेव भवन्ति, दुगेण चिंतिज-४ माणाणं दस चेव, कह !, पढमबीयघरेण एक्को १ पढमततियघरेण २ पढमचउत्थघरेण ३ पढमपंचमघरेण ४ वितियततिय घरेण ५ बीयचउत्थघरेण ६ बीयपंचमघरेण ससमो ७ ततियचउत्थधरेण ८ ततियपंचमघरेण ९ चउत्थपंचमघरेण १०॥ त तिगेण चिंतिज्जमाणाणं दस चेव, कह १, पढमबियततियघरेण एको १ पढमबितियचउत्थघरेण २ पढमबितियपंचमघरेण पढमतईयचउत्थघरेण ४ पढमततियपंचमघरेण ५ पढमचउत्थपंचमघरेण ६ वितियततियचउत्थघरएण ७ वितियततियपंचमघरेण ८ वितियचउत्थपंचमघरेण ९ ततियचउत्थपंचमघरेण १०१चउक्कगेण चिंतिज्जमाणाणं पंच हवंति, कह , पढमबिदतियततियचउत्थघरेण एक्को पढमबितियततियपंचमघरेण २ पढमबितियचउत्थपंचमघरेण ३ पढमततियचउत्थपंचमघरेण ४ बितियततियचउत्थपंचमघरेण ५, पंचगेण चिंतिजमाणाण एगो चेव भवतित्तिगाथार्थः॥१॥ एत्थ य एकगेण य जे पंच संजोगा दुगेण जे दस इत्यादि, एएसिं चारणीयापओगेण आगयफलगाहाओ तिणिवयमिकगसंजोगाण हुंति पंचण्ह तीसई भंगा। दुगसंजोगाण दसह तिन्नि सट्टा सया हुंति ॥१॥ दीप अनुक्रम [६२..] ॥८०७॥ Jaintainina M orary om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~303 Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं I [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४३...], प्रक्षेप [१-४] प्रत सूत्रांक सू.] संजोगाण बसण्ह भंग सयं इकषीसई सट्ठा । उसंजोगाण पुणो चउसहिसयाणिऽसीयाणि ॥२॥ सत्नुत्तरि सयाई छसत्तराइं च पंच संजोए । उत्सरगुण अविरयमेलियाण जाणाहि सव्वग्गं ॥३॥ सोलस चेव सहस्सा अट्ठसया चेव होति अहहिया । एसो उचासगाणं वयगहणविही समासेणं ॥४॥(प्र०) व्याख्या---एताश्चतस्रोऽप्यन्यकृताः सोपयोगा इत्युपन्यस्ताः, एतासिं भावणाविही इमा-तत्र तावदियं स्थापना, प्रा०म० अ०० | ५० थूलगपाणातिवातं पञ्चक्खाइ दुविहं तिविहेण १ दुविहं दुविहेणं २ दुविहं एकविहेणं ३ एग |विहं तिविहेणं ४ एगविहं दुविहेण ५ एगविहं एगविहेण ६, एवं धूलगमुसाधायअदत्तादाण| मेहुणपरिग्गहेसु, एकेके छभेदा, एए सबेवि मिलिया तीसं हवंतित्ति, ततश्च यदुक्तं प्राक 'वयएकगसंजोगाण होती पंचण्ह तीसई भंग'त्ति तद् भाषितं, इयाणि दुगचारणिया-थूलगपाणाइ-1 वायं थूलगमुसावायं पञ्चक्खाति दुविहंतिविहेण १थूलगपाणाइवाय दुविहंतिविहेण धूलगमुसा १२२ वायं पुण दुविहं दुविहेण २ धूलगपाणाइवायं २-३ धूलगमुसावायं पुण दुविहं एगविहेण ३ शशशशश११।११।१] थूलगपाणाइवायं २-३ थूलगमुसाबार्य पुण एगविहंतिविहेण ४ थूलगपाणाइवायं २-३ थूलगमुसावायं पुण एगविहं दुविहेण ५ थूलगपाणातिवायं २-३ थूलगमुसावायं पुण एगविहंएगविहेण ६, एवं धूलगअदत्तादाणमेहुणपरिग्गहेसु एकेके छम्भंगा, सबेवि मिलिया चउबीस, एए य धूलगपाणाइवायं पढमघरगममुंचमाणेण लद्धा, एवं वितियादिपरएसु पत्तेयं चउबीस हवंति, एए य सदेवि मिलिया चोयालं सर्य, चालिओ धूलगपाणाइवाओ, इयाणि धूलगमुसा दीप अनुक्रम [६२..] Finatorary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~304 Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [८], मूलं I [गाथा-], नियुक्ति : [१५६१...] भाष्यं [२४३...], प्रक्षेप [१-४] प्रत श्रायकत्रतभङ्गाः सूत्रांक [सू.] वायाइ चिंतिजइ-तत्थ थूलगमुसावायं थूलगअदत्तादाणं पच्चक्खाति दुविहं तिविहेणं १ थूलगमुसावायं दुविहं तिविहेण प्रत्याख्या हारिभ नाध्यक अदत्तादाणं पुण दुविहं दुविहेण २ एवं पुवकमेण छन्भंगा नायवा, एवं मेहुणपरिग्गहेसु पत्तयं पत्तेयं छ २, सबेवि मिलिया 4 द्रीया टिअट्ठारस, एते मुसावायं पढमघरगममुंचमाणेण लद्धा १८, एवं बीयादिघरेसुवि पत्तेयं २ अट्ठारस २ भवन्ति, एए 1८०८॥ सवेवि मेलिया अट्टत्तरं सयंति, चारिओ धूलगमुसाबाओ, इयाणिं थूलगादत्तादाणादि चिंतिजति, तत्थ थूलगादत्तादाणं| थूलगमेहुणं वा पञ्चक्खाति दुविहंतिविहेण १, थूलगअदत्ताणं २-३ थूलगमेहुणं पुण दुविई दुविहेण २-२ एवं पुषकमेण छब्भंगा नायवा, एवं थूलगपरिग्गहेणवि छभंगा, मेलिया वारस, एए य धूलगअदत्तादाणं पढमघरममुंचमाणेण लद्धा, एवं | बितियाइसुषि पत्तेयं छ २ हवंति, एते सबेवि मेलिया बावत्तरि हवंति, चारितं थूलगादत्तादाणं, इदाणिं धूलगमे थुणादि चिंतिजति, तत्थ थूलगमेहुणं धूलगपरिगहं च पञ्चक्खाति दुविधं तिविधेण १ थूलगमेथुणं थूलगपरिग्गह & पुण दुविधं दुविधेण २ एवं पुषकमेण छन्भंगा, एते थूलगमेधुणपढमघरममुंचमाणेण लद्धा, एवं बीयादिसुवि पत्तेयं २ छ २ हवंति, सबेवि मेलिया छत्तीसं, एते य मूलाओ आरम्भ सबेवि चोतालसयं अछुत्तरसयं बावत्तरि छत्तीसं मेलिता द्र तिणि सताणि सहाणि हवंति, ततश्च यदुक्तं प्राक् 'दुगसंजोगाण दसह तिन्नि सठ्ठा सता होति'त्ति तदेतद् भावितं, इदाणिं तिगचारणीयाए थूलगपाणातिवातं थूलगमुसावायं 0लगादत्तादाणं पञ्चखाति दुविधं तिविधेण १ थूलग-IN ||८०८॥ पाणातिवातं थूलगमुसावादं २-३ थूलगादत्तादाणं पुण दुविधं दुविधेण २ थूलगपाणातिवायं धूलगमुसावायं २-३|| धूलगादत्तादाणं पुण दुविहं एगविहेणं ३ एवं पुवकमेण छन्भंगा, एवं मेहुणपरिग्गहेसुवि पत्तेयं २ छ २, सवेवि मेलिया दीप अनुक्रम [६२..] arorary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~305 Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं I [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४३...], प्रक्षेप [१-४] प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम अठारस, एते य थूलगमुसावादपढमघरकममुंचमाणेण लद्धा, एवं वीयादिसुवि पत्तेयं २ अट्ठारस २ हवंति, सवि मेलिया अहत्तरं सयं, एवं च थूलगपाणाइवायपढमघरममुंचमाणेण लद्धा, एवं बीयाइसुवि पसेयं २ अइत्तरं २ सयं हवंति, एए य सबेवि | मिलिया छ सयाणि अडयालाणि, एवं थूलगपाणातिवाओ तिगसंजोएण थूलगमुसावारण सह चारिओ, एवं अदत्तादाणेण सह चारिज्जति, तत्थ थूलगपाणाइवायं थूलगादत्तादाणं थूलगमेहुणं च पञ्चक्खाइ दुविहंतिविहेण १ थूलगपाणाइवायं थूलगादत्तादाणं २-३ थूलगमेहुणं पुण दुविहं दुविहेण २ एवं पुषकमेण छब्भंगा, एवं धूलगपरिग्गहेणवि छ मेलिया | |दुवालस, एते य अदत्तादाणपढमघरगममुचमाणेण लद्धा, एवं बीयाइसुधि पत्तेयं २ दुवालस २, सबेवि मेलिया पावत्तरिं|| हवंति, एते य पाणाइवायपढमघरममुंचमाणेण लद्धा, एते वितियाइसुवि पत्तेयं बावत्सरि २, सवेऽवि मिलिया चत्तारि | सया बत्तीसा हवंति, एवं थूलगपाणाइवाओ तिगसंजोगेण थूलगादत्तादाणेण सह चारिओ, इंयाणि धूलमेहुणेण परिग्ग हेण सह चारिजइ, तत्थ थूलगपाणाइवायं धूलगमेहुणं थूलगपरिग्गहं २-३ पाणातिवायं मेहुणं २-३ परिग्गडं दुविहं दुविदहेण २ एवं पुषकमेण छन्भंगा, एए उथूलगमेहुणपढमघरगममुंचमाणेण लद्धा, बितियादिसुवि पत्तेयं २ छ छ,सवेऽपि मेलिया छत्तीस, एते य थूलगपाणातिवायपदमपरगममुंचमाणेण लद्धा, बितियादिसु पत्तेयं छत्तीस, सबेवि मेलिया सोलमुत्तरा दोस-1 या। एवं थूलगपाणातिवाओ तिगसंजोएणं मेहुणेण सह चारिओ, चारिओ यतिगसंजोएणे पाणातिवाओ, इदाणिं मुसाबाओ चितिजइ, तत्थ धूलगमुसावायं थूलगादत्तादाणं थूलगमेहुणं च पञ्चक्खाति दुविहं तिविहेण १ थूलगमुसावायं धूलगा-15 दत्तादाण २-३ धूलगमेहुणं पुण दुविहं दुविहेण २ एवं पुबक्कमेण छन्भंगा, एवं धूलगपरिग्गहेणवि छ, मेलिया दुवालस, [६२..] 50+ Grorary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~306~ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [८], मूलं I [गाथा-], नियुक्ति : [१५६१...] भाष्यं [२४३...], प्रक्षेप [१-४] प्रत सूत्रांक आवश्यक- एते य थूलगादत्तादाणपढमघरगममुंचमाणेण लद्धा, वितियादिसुवि पत्तेयं दुवालस २, सवेऽवि मेलिया बावत्तरि, एते य प्रत्याख्या हारिभ- धूलगमुसापायपढमघरगममुंचमाणेण लद्धा, वितियादिसु पत्तेयं बावत्तरि २, सवेवि मेलिया चत्तारि सया बत्तीसा, एवं नाध्य द्रीया साथूलगमुसाबाओ तिगसंजोएण धूलगादत्तादाणेण सह चारिओ इयाणिं थूलगमेहुणेण सह चारिजइ, तत्थ थूलगमुसावायं 4|| |श्रावकत्र तभङ्गाः ॥८०९॥ थूलगमेहुर्ण थूलगपरिग्गहं च पञ्चक्खाति दुविहंतिविहेण १थूलगमुसावायं धूलगमेहुणं २-३ थूलगपरिग्गहं पुण दुविहंदुविहेण २एवं पुक्षकमेण छन्भंगा, एए थूलगमेहुणपढमघरगममुंचमाणेण लद्धा, बितियादिसुषि पत्तेयं रछ २ हवंति, सवेऽवि मेलिदिया छत्तीसं, एते याथूलगमुसावादपढमघरगमच्चमाणेण लद्धा, बितियादिसुवि पत्तेयं छत्तीसं २ हवंति, सधेऽवि मेलिया दोस-18 या सोलसुत्तरा, चारिओ तिगसंजोएण थूलगमुसाबाओ, इयाणि थूलगादत्तादाणादि चिंतिजइ, तत्थ थूलगादत्तादाण मेहुणं परिग्गहं च पञ्चक्खाइ दुविहंतिविहेण १थूलगादत्तादाणं थूलगमेहुणं २-३ थूलगपरिग्गह पुण दुविहंदुविहेण २,एवं पुषकमेण छभंगा, एते य थूलगमेहुणपढमघरममुंचमाणेण लद्धा, बितियादिसुवि पत्तेयं छ २,सबेऽवि मेलिया छत्तीस, एते यथूलगादत्तादाणपढमघरगममुचमाणेण लद्धा, वितियाइसु पत्तेयं छत्तीसं २,सधेऽवि मेलिया दोसया सोलसुत्तरा, पते य मूलाओ आरम्भ सोऽविअडयाला छ सया बत्तीसा चउसया सोलसुत्तरा दो सया य बत्तीसा चउसया सोलसुसरा दो सया, एए सवेऽवि मेलिया इगवीससयाई साई भंगाणं भवंति, ततश्च यदुक्तं प्रारतिगसंजोगाण दसण्ह भंगसया एकवीसई सहा तदेतद्भावित, इयाणि ८०९॥ चसकचारणिया, तत्थ थूलगपाणाइवायं थूलगमुसावायं धूलगादत्तादाणं थूलगमेहुणं च पञ्चक्खाति दुविहंतिविहेण १थूलमपाणातिवायाइ २-३ थूलगमेहुणं पुण दुविहंदुविहेण २, एवं युवकमेण छब्भंगा, थूलगपरिग्गहेणवि छ, एएवि मेलिया दीप अनुक्रम [६२..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~307~ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [८], मूलं I [गाथा-], नियुक्ति : [१५६१...] भाष्यं [२४३...], प्रक्षेप [१-४] प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम विषालस, एते' य धूलगादत्तादाणपढमघरगममुंचमाणेण लद्धा, वितियादिसुकि पत्तेयं दुवालस २, सोषि मेलिया पाव-12 तरि, एते उ थूलगमुसाबायपढमघरममुंचमाणेण लद्धा, वितिधासुवि पत्तेयं बावत्तरि २, सवि मेलिया चत्तारि सया बत्तीसा, एते य थूलगपाणातिवायपढमघरगममुंचमाणेण लह्वा, वितियादिसुषि पत्तेयं चत्तारि २ सया बत्तीसा, सबेवि। मेलिया दो सहस्सा पंच सया बाणउया, इदाणि अण्णो विगप्पो-थूलगपाणाइवायं धूलगमुसावायं धूलगमेहुणं थूलगपरिग्गहं च पञ्चकुलाति दुविहं दुबिहेण २, एवं पुवकमेण छन्भंगा, एते उ थूलगमेहुणपढमघरगममुंचमाणेण लद्धा, वितियादिसु पत्तेयं २ छछ सवे मेलिया छत्तीस, पते उ थूलगमुसावायपढमघरगममुंचमाणेण लद्धा, वितियादिसुवि पत्तेयं छत्तीस २, सवेवि मेलियां दो सया सोलसुत्तरा, पए धूलगपाणाइवायपढमघरगममुंचमाणेण लद्धा, बितियादिसुवि पत्तेयं २ दो २ सया सोलसुत्तरा, सबेवि मेलिया दुवालस सया छन्नउया, इयाणि अण्णो विगप्पो-थूलगपाणाइवायं थूलगअदत्तादाणं धूलगमेहुणं धूलगपरिग्गहं च पचक्खाति दुविहंतिविहेण १, धूलगपाणातिवातं धूलगादत्तादाणं धूलगमेहुणं २-३ धूलगप-। रिग्गहं च पुण दुविहंदुबिहेण २, एवं पुबक्कमेण छभंगा, एते य धूलगमेहुणस्स पढमघरममुचमाणेण लद्धा, वितियादिसुवि, दछ २, मेलिया छत्तीसं, एते य धूलगादत्तादाणपढमघरममुंचमाणेण लद्धा, वितियादिसुवि पत्तेयं छत्तीसं २, सोऽवि मेलिया दोसया सोलमुत्सरा, एतेय धूलगपाणाइवायपढमघरगममुंचमाणेण लद्धा, वितियादिसुवि पत्तेयं दो दो सया मोलसुत्तरा, सोऽवि मेलिया दुवालस सया छण्णउया, इदाणिमष्णो विगप्पो-थूलगमुसावायं थूलगादत्तादाणं धूलगमेहुणं थूलगपरि: ग्गहं च पञ्चक्खाति दुविहंतिविहेणं १ थूलगमुसावायाति २-३ थूलगपरिग्गहं पुण दुविहंदुविहेण २, एवं पुषकमेण 31 [६२..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~308~ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [८], मूलं I [गाथा-], नियुक्ति : [१५६१...] भाष्यं [२४३...], प्रक्षेप [१-४] प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम आवश्यक- छभंगा, एते य थूलगमेहुणपढमघरगममुंचमाणेण लद्धा, वितियादिसुवि पत्तेयं छ २, मेलिया छत्तीस, एते य थूलगाद- प्रत्याख्या हारिभ- त्तादाणपढमघरममुंचमाणेण लद्धा, वितियाइसुवि घरेसु पत्तेयं २ छत्तीसं २, मेलिया दोसया सोलसुत्तरा, एते थूलगमुसा नाध्य० द्रीया श्रावकत्रवायपढमघरगममुंचमाणेण लद्धा, वितियाइसुवि पत्तेयं दो दो सया सोलसुत्तरा, सचेवि मिलिया दुवालस सयां छणज्या, तभङ्गाः ८१०॥ एए यमूलाओ आरम्भ सवेवि दो सहस्सा पंचसया वाणउया, दुवालससया छण्णउया ३, मिलिया छसहस्सा चत्तारि सया असीया, ततश्च यदुक्तं प्राक् 'चनसंजोगाण पुण चउसद्धिसयाणऽसीयाणि'त्ति, इयाणि पंचगचारणिया, तत्थ थूलगपाणाइवार्य थूलगमुसावार्य धूलगादत्तादाणं थूलगमेहुणं थूलगपरिग्गहं च पञ्चक्खाइ दुविहंतिविहेण १ पाणातिवायाति २-३ धूलगपरि गह दुविहं दुविहेण २ एवं पुवकमेण छन्भंगा, एए थूलगमेहुणपढमघरगममुंचमाणेण लद्धा, बीयाइसुवि पत्तेयं २ छ छ, ६ मेलिया छत्तीसं, एते य थूलगादत्तादाणपढमघरगममुंचमाणेण लद्धा, बीयादिसुवि पत्तेयं २ छत्तीसं २, मिलिया दो सया दासोलसुत्तरा, एए य धूलगभुसावायपढमघरगममुंचमाणेण लद्धा, वितियाइसुवि पत्तेयं २ दो सया सोलमुत्तरा २, मेलिया दुवालस सया छन्नज्या, एए य थूलगपाणातिवायपढमघरममुंचमाणेग लद्धा, वितियाइसुवि पत्तेयं २ दुवालस सया छपणउया, सवेषि मेलिया सत्तसहस्सा सत्तसया छावुत्तरा, ततश्च यदुक्तं प्राक् 'सत्ततरीसयाई छसत्तराई तु पंचसंजोए' एतद् भावितं, 'उत्तरगुणअविरयमेलियाण जाणाहि सबग्ग ति उत्तरगुणगाही एगो चेव भेओ, अविरयसम्मदिवी बितिओ, G८१०॥ एएहिं मेलियाण ससि पुषभणियाण भेयाण जाणाहि सबग्ग इमं जातं, परूवर्ण पडुच्च तं पुण इम-तोलस चेवेत्यादि | [६२..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~309~ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५६१...] भाष्यं [२४३...', प्रत सूत्रांक गाथा भाविताऽधैवेत्यभिहितमानुपङ्गिक, प्रकृतं प्रस्तुमः, तत्र यस्मात् श्रावकधर्मस्य तावत् मूलं सम्यक्त्वं तस्माद् तद्गतमेव विधिमभिधातुकाम आह तत्व समणोवासओ पुवामेव मिच्छताओ पडिकमइ, संमत्तं उघसंपज्जा, नो से कप्पद अजप्पभिई अन्नउत्धिए घा अन्नउत्थिअदेवयाणि वा अन्नउत्थियपरिग्गहियाणि अरिहंतचेइयाणि वा वंदित्तए वा नम सित्तए चा पुब्धि अणालत्तएणं आलवित्तए चा संलवित्तए वा तेसिं असणं चा पाणं वा खाइम वा 18 साइमं वा दाउं वा अणुप्पयाउं बा, नन्नत्य रायाभिओगेणं गणाभिओगेणं बलाभिओगेणं देवयाभिओगेणं गुरुनिग्गहेणं वित्तीकतारेणं, से य संमत्ते पसत्थसमत्तमोहणियकम्माणुवेयणोवसमखयसमुत्थे पसमसंवेगाइलिंगे सुहे आयपरिणामे पन्नत्ते, सम्मत्तस्स समणोवासएणं इमे पंच अइयारा जाणियच्या न समायरिपब्वा, तंजहा-संका कंखा वितिगिच्छा परपासंडपसंसा परपासंडसंथवे (सूत्रम् ॥ अस्य व्याख्या-श्रमणानामुपासकः श्रमणोपासकः श्रावक इत्यर्थः, श्रमणोपासकः 'पूर्वमेव' आदावेव श्रमणोपासको भवन मिथ्यात्वातू-तत्त्वार्थानद्धानरूपात् प्रतिक्रामति-निवत्तते, न तन्निवृत्तिमात्रमत्राभिप्रेतं, किं तर्हि १, तन्निवृत्तिद्वारेण सम्यक्त्वं-तत्त्वार्थश्रद्धानरूपं उप-सामीप्येन प्रतिपद्यते, सम्यक्त्वमुपसम्पन्नस्य सतः न 'से' तस्य 'कल्पते' युज्यते अद्यप्रभृति। सम्यक्त्वप्रतिपत्तिकालादारभ्य, किंन कल्पते ?-अन्यतीथिकान्-चरकपरिव्राजकभिक्षुभौतादीन अभ्यतीर्थिकदेवतानि दीप अनुक्रम [६३] बा.३१ JaimEairam LLMiDaram पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: | सम्यक्त्व-प्रतिज्ञाया: सूत्र एवं विवेचनं ~310~ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४३..., आवश्यक- हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक 8धिकार: 1८१॥ रुद्रविष्णुसुगलादीनि अभ्यतीर्थिकपरिगृहीतानि वा(अईत्)चैत्यानि-अर्हत्प्रतिमालक्षणानि यथा भौतपरिगृहीतानि वीरभ- प्रत्याख्या द्रमहाकालादीनि वन्दितुंचा नमस्कर्तुवा, तत्र वन्दनं-अभिवादनं, नमस्करणं-प्रणामपूर्वकं प्रशस्तध्वनिभिर्गुणोत्कीर्तनं, कोयनाध्य. दोषः स्यात् ?, अन्येषां तद्भक्तानां मिथ्यात्वादिस्थिरीकरणादिरिति, तथा पूर्व-आदी अनालप्तेन सता अन्यतीर्थिकस्ता- सम्यक्त्वानेवालप्तुं वा संलप्तुं वा, तत्र सकृत् सम्भाषणमालपनं पौनःपुन्येन संलपनं, को दोषः स्यात् ?, ते हि तप्ततरायोगोलकल्पाः खल्यासनादिक्रियायां नियुक्ता भवन्ति, तत्प्रत्ययः कर्मबन्धः, तथा तेन वा प्रणयेन गृहागमनं कुर्युः, अथ च श्रावकस्य | स्वजनपरिजनोऽगृहीतसमयसारस्तैः सह सम्बन्धं यायादित्यादि, प्रथमालप्तेन त्वसम्भ्रमं लोकापवादभयात् कीदृशस्वमित्यादि वाच्यमिति, तथा तेपामन्यतीथिकानां अशनं-घृतपूर्णादि पानं-द्राक्षापानादि खादिमंत्रपुषफलादि स्वादिम |ककोठलवङ्गादि दातुं वा अनुप्रदातुं वा न कल्पत इति, तत्र सकृद् दानं पुनः पुनरनुप्रदानमिति, किं सर्वथैव न कल्पत इति ?, न, अन्यथा राजाभियोगेनेति-राजाभियोगं मुक्त्वा बलाभियोग मुक्त्वा देवताभियोग मुक्त्वा गुरुनिग्रहेणगुरुनिग्रहं मुक्त्या वृत्तिकान्तारं मुक्त्वा, एतदुक्तं भवति-राजाभियोगादिना दददपि न धर्ममतिकामति । इह चोदाहरणानि, 'कहं रायाभिओगेण देंतो णातिचरति धम्म ?, तत्रोदाहरणम्-हथिणाउरे नयरे जियसत्तू राया, कत्तिओ सेट्टी नेगमसहस्सपढमासणिओ सावगवण्णगो, एवं कालो बच्चइ, तत्थ य परिचायगो मासंमासेण खमइ. १॥ क राजाभियोगेन दरवातिचरति धर्म हस्तिनापुरे नगरे जितशबू राजा, कार्तिकः श्रेष्टी निगमसहस्रप्रधमासनिकः श्रावकवर्णकः, एवं कालो बजति, तत्र च परिवाजको मासमासेन क्षपयति, दीप अनुक्रम [६३] MORCE Martaneiorary on पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~311 Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५६१...] भाष्यं [२४३...], प्रत सूत्रांक त सबलोगो आढाति, कत्तिओ नाढाति, ताहे से सो गेरुओ पओसमावण्णो छिद्दाणि मग्गति, अण्णया रायाए निम-16 तिओ पारणए नेच्छति, बहुसो २ राया निमंतेइ ताहे भणइ-जइ नवरं मम कत्तिओ परिवेसेइ तो नवरं जेमेमि. राया भणइ-एवं करेमि, राया समणूसो कत्तियस्स घरंगओ, कत्तिओभणइ-संदिसह, राया भणति–ोरुयस्स परिवेसेहि, कत्तिओ भणति-न वह अम्हं, तुम्ह विसयवासित्ति करेमि, चिंतेइ-जइ पपइओ होतो न एवं भवंत, पच्छा णेण परि वेसियं, सो परिवेसेजतो अंगुलिं चालेति, किह ते ?, पच्छा कत्तिओ तेण निधेषण पवइओ नेगमसहस्सपरिवारो मुणिसुवयसमीये, वारसंगाणि पढिओ, वारस वरिसाणि परियाओ, सोहम्मे कप्पे सको जाओ, सो परिवायओ तेणाभिओगेण आभिओगिओ एरावणो जाओ, पेच्छिय सकं पलाओ, गहि सको विलग्गो, दो सीसाणि कयाणि, सक्कावि दो जाया, एवं जावइयाणि सीसाणि विउबति तावतियाणि सको विउबति सक्करूवाणि, ताहे नासिउमारद्धो, सर्वलोक सादियते, कालिको नायिते, तदा तसौ स गैरिकः प्रदूषमापाभिमागि मार्गपति, अन्यथा राक्षा निमश्रितः पारण छति, यहशोर राजा निमन्त्रयति तदा भणति-यदि पर कार्तिक मा परिवेषयति सहि नवरं जेमाभि, राजा भणति-एनं करोमि, राजा समनुष्यः कार्तिकस्य गृहं गतः। कार्तिको भति-संदिषा, राजा भणति-गरिक परिवेषय, कात्तिको भणति- वर्ततेऽस्माकं, युष्मद्विपवधासीति परोमि, चिन्तयति-यदि प्रमजितोऽभविष्य नवमभविष्यत, पबादनेन परिवेषितं, स परिवेष्यमाणोऽनुलिपालपति, कथं तय, पचात् कार्तिकस्सेन निवेदन प्रमजितो नैगमसहसपरिवारो मुनिसुव्रत, समीपे, द्वादशाकानि पठितः, हाया वर्षाणि पर्यायः, सौधर्मे करूपे पाको जातः, स परिवाद तेनाभियोगेनानियोगिक ऐरावणो जाता, रष्ट्राचा पला. यित्ता गृहीत्वा शको जिलमा शीर्ष कृते, शकौ अपि ही जाती, एवं थावन्ति शीपाणि विकृर्वति तावन्तिः शक्ररूपाणि विकृर्षति भाका, सदानंष्टमारम्भः, दीप अनुक्रम [६३] JABERamARI Indinrayog पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~312 Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५६१...] भाष्यं [२४३...', प्रत सूत्रांक आवश्यक- सकेणाहओ पच्छा ठिओ, एवं रायाभिओगेण देतो नाइकमति, केत्तिया एयारिसथा होहिंति जे पवइस्संति, तम्हा न हारिभदायगो । गणाभिओगेण वरुणो रहमुसले निउत्तो, एवं कोऽवि सावगो गणाभिओगेण भत्तं दवाविजा दिवोवि सोय नाध्य द्रीया नाइचरइ धम्म, बलाभिओगोवि एमेव, देवयाभिओगेण जहा एगो निहत्थो सावओ जाओ, तेण वाणमंतराणि चिरपरि- सम्यक्त्वा चियाणि उशियाणि, एगा तत्थ वाणमंतरी पओसमावण्णा, गावीरक्खगो पुत्तो तीए वाणमंतरीए गाबीहिं समं अवहरिओ, |धिकरा: ८१२॥ ताहे उइण्णा साहइ तज्जती-किं ममं उज्झसि न वत्ति ?, सावगो भणइ, नवरि मा मम धम्मविराहणा भवतु, सा भणइममं अञ्चेहि, सो भणइ-जिणपडिमाणं अबसाणे ठाहि, आम ठामि, तेण ठविया, ताहे दारगो गावीओ आणीयाओ, एरिसा केत्तिया होहिंति तम्हा न दायचं, दवाविजतो णातिचरति । गुरुनिग्गहेण भिक्खुवासगपुत्तो सावगंधूयं मग्गति, ताणि न देंति, सो कवडसहत्तणेण साधू सेवेति, तरस भावओ उवगर्य, पच्छा साहेइ-एएण कारणेण पुचिं दुक्कोमि, [सू.] दीप अनुक्रम [६३] राणाहता पक्षात् स्थितः, एवं राजाभियोगेन वपत नातिकामति, कियन्त एतादशो भविष्यन्ति ये प्रमजिव्यन्ति तमासा दातम्यः । गणाभियोगेन वरुणो स्थाशले नियुक्का, एवं कोऽपि श्रावको गणाभियोगेन भकं दाप्यते ददपि स नातिधरति धर्म । पहाभियोगोऽप्येवमेव । देवताभियोगेम बंधको। | गृहस्थः श्रावको जाता, तेन भन्यन्तराचिरपरिचिता उज्झिताः, एका वा यन्तरी प्रदेषमापना, गोरक्षका पुस्तया व्यन्तर्या गोभिः सममपहता, तदाऽवतीणों कथयति तर्जयन्ती-कि मामुमति न येति , आपको भणति-नवरं मा मे धर्मनिराधना भूत् , सा भणति-मामचंय, स भणति-जिनप्रतिमान पातिए, ओ तिष्ठामि, तेन स्थापिता, दारको गावातदानीताः, इरशाः कियस्तो भविष्यन्ति तस्मान दातव्यं, चाप्यमानो नातिचरति । गुरु निग्रहेण भिक्षुपास(कपुत्रः श्रावकं दुहितरं याचते न तो दसा, स कपटवाइवषा साधुन सेयते, तस्त्र भावेनोपगतं, पक्षात् कथयति-तेन कारणोन पूर्वमागतोऽसि ८ १शा JamEajatal पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~313 Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५६१...] भाष्यं [२४३...], प्रत सूत्रांक याणिं सम्भावसावओ, सावओ साहू पुच्छइ, तेहिं कहियं, ताहे दिण्णा धूया, सो सावओ जुयगं घरं करेइ, अण्णया| तस्स मायापियरो भत्तं भिक्खुगाण करेंति, ताई भणंति-अज्ज एक्कसि वञ्चाहि, सो गओ, भिक्खुएहिं विज्ञाए मंतिऊण काफलं दिण्णं, ताए वाणमंतीरए अहिडिओ घरं गओ तं सावयधूयं भणइ-भिक्खुगाणं भत्तं देमो, सा नेच्छइ, दासा णि| सयणो य आरद्धो सजेज, साविया आयरियाण गंतुं कहेति, तेहिं जोगपडिभेओ दिण्णो, सो से पाणिएण दिग्णो, सा| दवाणमंतरी नहा, साभाविओ जाओ पुच्छइ कहं वत्ति , कहिए पडिसेहेति, अण्णे भणंति-तीए मयणमिजाए वमाविओ, सो तो साभाविओ जाओ, भणइ-अम्मापिउछलेण मणा विवंचिउत्ति, तं किर फासुगं साहूणं दिण्णं, एरिसा केत्तिया आयरिया होहिंति तम्हा परिहरेजा। वित्तीकतारेणं देजा, सोरहो सडओ उज्जेणि वच्चइ दुकाले तच्चपिणदिएहिं सम, तस्स पत्थयणं, खीणं भिकूखुएहिं भण्णइ-अम्हएहिं वहाहि पत्थयणं तो तुज्झवि दिजिहित्ति, तेण पडिवणं, दीप अनुक्रम [६३] - इदानी सजावत्रावकः, भापका साधन पृच्छति, सैः कधित, तदा वत्ता दुहिता, स श्रावकः पृथगृहं करोति, अन्यदा तस्य मातापितरौ भक्तं भिक्षुकाणां कुरुतः, ती भणता-अकया भागठ, सगतः, मिर्षियषा मन्त्रयित्वा फलं दत्त, तया पतविधिष्ठितो गृहं गतः तो भाबक हितर भणति-भिक्षुकेभ्यो भक्तं ददः, सा नेच्छति, दासाः स्वमा आरब्धः सज्जयितुं, श्राविकाचार्यान् गत्वा कथयति, नैः योगप्रतिभेदो दत्तः, स ती पानीयेन दत्तः, सा प्यन्तरी Xना , स्वाभाविको जातः पूछति-क वेति', कथिते प्रतिषेधति, अन्ये भणम्ति-तया मदनबीजेन पमिता, स ततः स्वाभाविको जातो, भणति-मातापितू उलेन मनाए विवादित इति, तकिल प्रामुकं साधुभ्यो दनं, ईशा कियन्त आचार्या भविष्यन्ति तस्मात् परिहरेत् । वृत्तिकाम्तारण दद्यात् , सौराष्ट्रः आयक उजयिनी अजति दुष्काले तचनिकैः सम, तस्य पध्यदनं क्षीण, भिक्षुर्भग्यते-अस्मदीयं वह पध्वदनं तहि तुभ्यमपि दीयते इति, तेज प्रतिपन्न, - - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~3144 Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५६१...] भाष्यं [२४३...], आवश्यक- हारिभ- द्रीया प्रत ॥८१३॥ सुत्राक -2-3 अण्णया तस्स पोट्टसरणी जाया, सो चीवरेहिं वेदिओ तेहिं अणुकंपाए, सो भट्टारगाणं नमोक्कार करेंतो कालगओ देवो। प्रत्याख्या नाध्य० माणिओ जाओ, ओहिणा तच्चणियसरीरं पेच्छइ, ताहे सभूसणेण हत्थेण परिवेसेति, सहाण ओहावणा, आयरियाण सम्यक्त्तवाआगमणं, कर्ण च, तेहिं भणिय-जाह अग्गहत्थं गिहिऊण भणह-नमो अरहताणंति, बुज्झ गुज्झगा २, तेहिं गंतूणी धिकारः भणिओ संबुद्धो वंदित्ता लोगस्स कहेइ-जहा नस्थि एत्थ धम्मो तम्हा परिहरेजा ॥ | अत्राह-इह पुनः को दोषः स्याद् येनेत्थं तेषामशनादिप्रतिषेध इति?, उच्यते, तेषां तद्भक्तानांच मिथ्यात्वस्थिरीकरणं, धर्मबुद्ध्या ददतः सम्यक्त्वलाञ्छना, तथा आरम्भादिदोषश्च, करुणागोचरं पुनरापन्नानामनुकम्पया दद्यादपि, यदुक्तं"सेबेहिपि जिणेहिं दुजयजियरागदोसमोहेहिं । सत्ताणुकंपणहा दाणं न कहिंचि पडिसिद्धं ॥१॥" तथा च भगवन्तस्तीर्थकरा अपि त्रिभुवनैकनाथाः प्रविब्रजिषवः सांवत्सरिकमनुकम्पया प्रयच्छन्त्येव दानमित्यलं विस्तरेण । प्रकृतमुच्यते'संमत्तस्स समणोवासएण'मित्यादि सूत्र, अस्य व्याख्या 'सम्यक्त्वस्य प्रागनिरूपितस्वरूपस्य श्रमणोपासकेन-श्रावकेण 'एते' वक्ष्यमाणलक्षणाः अथवाऽमी ये प्रक्रान्ताः पञ्चेति सङ्ख्यावाचकः अतिचारा मिथ्यात्वमोहनीयकर्मोदयादात्मनोऽशुभाः परिअन्यदा तस्यातीसारो जातः, स चीवरैर्वेष्टितौरनुकम्पबा, स भट्टारकेभ्यो नमस्कारं कुर्वन् कालगतो देवो वैमानिको जातः, अवधिना तथनिकशरीर ॥८१३॥ | प्रेक्षते, सदा सभूषणेन हस्तेन परिवेषयत्ति, श्राद्धानामपभ्राजमा, आचार्याणामागमनं, कपनं च, तैर्भणितं-याताप्रहसं गृहीत्वा भगत-नमोऽहंगा इति, बुध्यस्व गुलक!२, तैर्गला भणितः संपदो वंदित्वा लोकाव कथयति-यथा नास्त्यत्र धर्मलम्मात्परिहरेत् ॥२॥ सर्वैरपि जिनैर्जितदुर्जपरागहेपमोहैः । सवानुकम्पना दानं न कुत्रापि प्रतिषिद्धम् ॥1॥ C दीप अनुक्रम [६३] % A 4 * Jamtarai पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~315 Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५६१...] भाष्यं [२४३...', प्रत णाम विशेषा इत्यर्थः, थैः सम्यक्त्वमतिचरति, ज्ञातव्याः परिज्ञया न समाचरितव्याः, नासेव्या इति भावार्थः । तद्यथे'लत्युदाहरणप्रदर्शनार्थी, शङ्का काला विचिकित्सा परपापण्डप्रशंसा परपापण्डसंस्तवश्चेति, तत्र शङ्कन शङ्का, भगवदर्हत् प्रणीतेषु पदार्थेषु धमोस्तिकायादिष्वत्यन्तगहनेषु मतिदोल्यात् सम्यगनवधार्यमाणेषु संशय इत्यर्थः, किमेयं स्यात् नैव-12 समिति, संशयकरणं शङ्का, सा पुनर्दिभेदा-देशशङ्का सर्वशङ्का च, देशशङ्का देशविषया, यथा किमयमात्माऽसयेयप्रदे-18 शात्मकः स्यादथ निष्प्रदेशो निरवयवः स्यादिति, सर्वशङ्का पुनः सकलास्तिकायजात एव किमेवं नैवं स्यादिति । मिथ्यादर्शनं च त्रिविधम्-अभिगृहीतानभिगृहीतसंशयभेदात् , तत्र संशयो मिथ्यात्वमेव, यदाह-"पवमक्खरं च एकं जो न रोएइ सुत्तनिदिठं । सेस रोयंतोवि हु मिच्छद्दिडी मुणेयबो ॥१॥" तथा-"सूत्रोक्तस्यैकस्याप्यरोचनादक्षरस्य भवति नरः। मिथ्यादृष्टिः सूत्रं हि नःप्रमाणं जिनाज्ञा च(जिनाभिहितं)॥१शा एकस्मिन्नप्यर्थे सन्दिग्धे प्रत्ययोऽर्हति हि नष्टः । मिथ्यात्वदर्शनं तत्संचादिहेतुर्भवगतीनाम् ॥२॥" तस्मात् मुमुक्षुणा व्यपगतशङ्केन सता जिनवचनं सत्यमेव सामन्यतः प्रतिपत्तव्यं, संशयास्पदमपि सत्यं, सर्वज्ञाभिहितत्वात् , तदन्यपदार्थवत् , मतिदौर्बल्यादिदोषातु कात्न सकलपदार्थस्वभावावधारणम शक्यं छद्मस्थेन, यदाह-"न हि नामानाभोग छद्मस्थस्येह कस्यचिन्नास्ति । ज्ञानावरणीयं हि ज्ञानावरण प्रकृति कर्म ॥१॥" इह चोदाहरणं-जो संकं करेइ सो विणस्तति, जहा सो पेज्जायओ, पेजाए मासा जे परिभज्जमाणा ते छूढा, अंधगारए पदमक्षरं चैकं यो न रोषयति सूयनिर्विष्टम् । शेपं रोचयन्नपि मिष्याटिशांतम्यः ॥ १॥२यः श करोति स विनश्यति वथा स पेयापायी, पेयायो माषा ये परिभृमन्यमानास्ते क्षिप्ताः, अन्धकारे -599%89%E5%9564640 सूत्रांक दीप अनुक्रम [६३] 6 JamEaja पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~316 Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४३..., प्रत सूत्रांक आवश्यक- लेहसालाओ आगया दो पुत्ता पियंति, एगो चिंतेति-एयाओ, मच्छियाओ संकाए तस्स बग्गुलो वाउ जाओ, मओय, विहओ प्रत्याख्या हारिभ चिंतेइ-न मम माया मच्छिया देह जीओ, एते दोसा । काङ्गणं काला-सुगतादिप्रणीतदर्शनेषु माहोऽभिलाप इत्यर्थः, नाध्य. द्रीया तथा चोक्तं-कंखा अन्नन्नदसणग्गाहो'सा पुनर्दिभेदा-देशकाडा सर्वकाङ्क्षा च, देशकाङ्घकदेशविपया, एकमेव सौगतं सम्यक्त्वा ॥८१४॥ दर्शनं कालति, चित्तजयोऽत्र प्रतिपादितोऽयमेव च प्रधानो मुक्तिहेतुरित्यतो घटमानकमिदं न दूरापेतमिति, सर्वकासा) |तु सर्वदर्शनान्यवकाति, अहिंसादिप्रतिपादनपराणि सर्वाण्येव कपिलकणभक्षाक्षपादादिमतानीह लोके च नात्यन्तक्लेश-18 दाप्रतिपादनपराण्यतः शोभनान्येवेति, अर्धयहिकामुष्मिकफलानि काति, प्रतिपिद्धा चेयमहद्भिरतः प्रतिषिद्धानुष्ठानादेना। कुर्वतः सम्यक्त्वातिचारो भवति, तस्मादेकान्तिकमव्याबाधमपवर्ग विहायान्यत्र काला न कार्येति, एत्थोदाहरणं, राया कुमारामच्चो य आसेणावहिया अडविं पविटा, छुहापरद्धा वणफलाणि खायंति, पडिनियत्ताण राया चिंतेइ लग्यपूयलगमादीणि सबाणि खामि, आगया दोवि जणा, रण्णा सूयारा भणिया-जंलोए पयरइ तं सर्व सबे रघेहत्ति, उवद्ववियं च रन्नो, सो राया पेच्छणयदिहतं करेइ, कप्पडिया बलिपहिं धाडिजइ, एवं मिट्ठस्स अवगासो होहितित्ति कणकुंडगमंडगादीणिवि लेखशालाया आगती ही पुत्री पिवतः, एकश्चिन्तयति-एता मक्षिकाः, शया तस्स वल्गुलो वायुजातो मतम, द्वितीयश्चितपति-ज मह्यं माता मक्षिका दबान् जीविता, एते दोपाः । १मत्रोदाहरणं राजा कुमारामात्पश्चाधेनापढ़ताबटवी प्रविधी, क्षुधापरिगती बनफलानि यादता, प्रतिनिवृनयो राजा ॥८१४॥ चिन्तयति कापूपादीनि सर्वाणि खादामि, आगती द्वायपि जना, राज्ञा सूदा भणिया:-यहोके प्रचरति तत् सर्व सर्वे राध्यतेति, उपस्थापितं च राजे, Bास राजा प्रेक्षणकाधान्तं करोति, कार्पटिका बहिभिर्धामन्ते, एवं मिटस्थावकाशो भविष्यतीति कणकुषटकमण्डकादीन्यपि दीप अनुक्रम [६३] hiraram पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~317~ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५६१...] भाष्यं [२४३...], 25-2540 प्रत R-50 सूत्रांक खइयाणि, तेहिं सूलेण मओ, अमोण वमणविरेयणाणि कयाणि, सो आभागी भोगाण जाओ, इयरो विणहो । चिकित्सा |मतिविभ्रमः, युक्त्यागमोपपत्रेऽप्यर्थे फलं प्रति सम्मोहः, किमस्य महतस्तपःक्लेशायासस्य सिकताकणकवलनादेराय त्यां मम | फलसम्पद् भविष्यति किं वा नेति, उभयथेह क्रियाः फलवत्यो निष्फलाश्च दृश्यन्ते कृषीवलानां, न चेयं शङ्कातो न भिद्यते | 18| इत्याशङ्कनीयं, शङ्का हि सकलासकलपदार्थभाक्त्वेन द्रव्यगुणविषया इयं तु क्रियाविषयैव, तत्त्वतस्तु सर्व एते प्रायो | मिथ्यात्वमोहनीयोदयतो भवन्तो जीवपरिणामविशेषाः सम्यक्त्वातिचारा उच्यन्ते, न सूक्ष्मेक्षिकाऽत्र कार्येति, इयमपि न कार्या, यतः सर्पज्ञोक्तकुशलानुष्ठानाद् भवत्येव फलप्राप्तिरिति, अत्र चौरोदाहरण-सावगो नंदीसरवरगमणं दिवगंधाण(त) देवसंघरिसेण मित्तस्स पुच्छणं बिजाए दाणं साहणं मसाणे चउपाय सिकगं, हेडा इंगाला खायरो य सूलो, अट्ठसयं वारा परिजवित्ता पाओ सिकगस्स छिज्जइ एवं वितिओ तइए चउत्थे य छिण्णे आगासेणं बच्चति, तेण विजा गहिया, | किण्हचउद्दसिरति साहेइ मसाणे, चोरो य नगरारक्खिएहिं परिरब्भमाणो तत्थेव अतियओ, ताहे घेढेउं सुसाणे ठिया| दीप अनुक्रम [६३] A CCASEARC खादितानि, तः शूरटेन मुता, भमास्येन वमनविरेचनानि कृतानि, स भोगानामाभागी जातः, इतरो विनष्टः। २ चीरोदाहरणं श्रावको नन्दीधरवरम. | मनं देवसंघर्षण दिष्पगन्धा मित्रस्य पृच्छा विद्याया दानं साधनं श्मशाने चतुष्पादं सिककमधस्तादू अङ्गाराः खादिरा सम्भः अष्टशतं वारान् परिजज्य पाय:सिककप छेदाते एवं द्वितीयः तृवीये चतुयेंच डिसे आकाशेन गम्यते, तेन विद्या गृहीता, कृष्णपुर्वशी रात्री साधयति माने, चौरक्ष नगरारक्षक रुभ्यमानस्तत्रैवातिगतस्तदा चेष्टयित्वा श्मशानं (ते) स्थिताः JanEaintin phorary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~318~ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५६१...] भाष्यं [२४३...], प्रत सूत्रांक आवश्यक- पभाए घिप्पिहितित्ति, सोय भमंतोतं विज्जासाहयं पेच्छइ, तेण पुच्छिओ भणति-विज साहेमि, चोरोभणति-केण दिण्णा , हारिभ- सो भणति-सावगेण, चोरेण भणियं--इमं दवं गिण्हाहि, विज देहि, सो सड्डो वितिगिच्छति-सिज्झेजा न वत्ति, तेण नाध्य द्रीया दिण्णा, चोरो चिंतेइ-सावगो कीडियाएवि पावं नेच्छइ, सच्चमेयं, सो साहिङमारद्धो, सिद्धा, इयरो सड्डो गहिओ, तेण सम्यक्त्वा आगासगएण लोभो भेसिओ ताहे सो मुको, सहावं दोवि जाया, एवं निवित्तिगिच्छेण होयर्ष, अथवा विद्वज्जुगुप्सा, विद्वांसः। धिकारः ॥८१५|| 3I-साधवः विदितसंसारस्वभावाः परित्यक्तसमस्तसङ्गाः तेषां जुगुप्सा-निन्दा, तथाहि-तेऽस्तानात्, प्रस्वेदजलक्तिन्नमलत्वात | दुर्गन्धिवपुषो भवन्ति तान् निन्दति-को दोषः स्यात् यदि प्रासुकेन वारिणाऽङ्गाक्षालनं कुर्वीरन् भगवन्तः ?, इयमपि न कार्या, देहस्यैव परमार्थतोऽशुचित्वात् , एत्थे उदाहरणं-एको सहो पञ्चंते बसति, तस्स धूयाविवाहे कहवि साह्वो आगया, सा पिउणा, भणिया-पुत्तग! पडिलाहेहि साहुणो, सा मंडियपसाहिया पडिलाभेति, साडूण जलगद्धो तीए अग्घाओ, चिंतेइअहो अणवजो भट्टारगेहिं धम्मो देसिओजइ फासुगण हाएजा, को दोसो होज्जा?, सा तस्स ठाणस्स अणालोइयपटिकता प्रभाते गृहीप्यते इति, सच आम्बन सं विद्यासाधकं प्रेक्षते, तेन पृटो भति-विद्या साधयामि, पीरो भणति-केन दचा ', स भणति-आपकेण, धीरेण भणित-इदं वयं गृहाण विद्या देहि स भाडो विचिकित्सति सिध्येन वेति, तेन दत्ता, चीरभिस्तयति-भावका कीटिकाया अपि पार्य मेच्छति।। सत्यमेतत् , स साधयितुमारब्धः, हिर, इतरः बाही गृहीतः, तेनाकाशागतेन छोको भाषितः, सदा स मुका/बदावन्ती हायपि जाती, एवं नियचिकित्सेन । ८१५|| भावतम्य । २ अनादाहरण एका आव: प्रखम्ते वसति, उस दहितविवाहे कथमपि साधका आगता, सावित्रा भणिता-पुषिके! प्रतिलम्भय साधन, सात मण्डितप्रसाधिता प्रतिलम्भवति, साधूनां जलगन्धलयामाता, चिन्तयति-अहरे अनवधो भारी देपितः यदि मासुकेन सायात को दोषो भवेत् , सा| तस्य स्थानस्याचालोचितमतिकान्ता दीप अनुक्रम [६३] REainme SAIDrary on पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~319~ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५६१...] भाष्यं [२४३...', प्रत सूत्रांक कालं किच्चा रायगिहे गणियाए पोट्टे उववन्ना, गभगता चेव अरई जणेति, गब्भपाडणेहि य न पडइ, जाया समाणी उज्झिया, सा गंधेण तं वणं वासेति, सेणिओ य तेण पएसेण निग्गच्छइ सामिणो वंदगो, सो खंधावारो तीए गंध न सहइ, रण्णा पुच्छियं-किमेयंति, कहियं दारियाए गंधो, गंतूण दिडा, भणति-एसेव पढमपुच्छति, गओ सेणिओ, पुबुदिडचुत्तंते कहिते भणइ राया-कहिं एसा पच्चणुभविस्सइ सुहं दुक्खं वा!, सामी भणइ-एएण कालेण वेदियं, सा तव चेव भज्जा भविस्सति अग्गमहिसी, अट्ट संवच्छराणि जाव तुझं रममाणस्स पुट्ठीए हंसोवल्लीली काही तं जाणिज्जासि, वंदित्ता गओ, सो य अवहरिओ गंधो, कुलपुत्तएण साहरिया, संवटिया जोवणत्था जाया, कोमुइवारे अम्मयाए समं आगया, अभओसेणिओ (य)पच्छण्णा कोमुइवारं पेच्छंति, तीए दारियाए अंगफासेण अज्झोववण्णो णाममुदं दसियाए तीए बंधति, अभयस्स कहियं-णाममुद्दा हारिया, मग्गाहि, तेण मणुस्ता दारेहिं ठविया, एकेक माणुस्सं पलोएज नीणिज्जइ, सा -RA दीप अनुक्रम [६३] 1556 Re कालं कृया राजगृहे गणिकाया उदरे उत्पन्ना, गर्भगतवारति जनयति, गर्भपातरपि च न पतति, जाता समयुज्झिता, सा गन्धेन तानं बासयति, |श्रेणिकश्च तेन प्रदेशेन निर्गति, स्वामिनो वन्दनाय, स स्कन्धावारतस्था गन्धं न सहते, राज्ञा पृष्टं-किमेतदिति ?, कथितं बारिकाया गन्धः, गत्या दृष्टा, भणति-एव प्रथमपूण्डेति, गतः श्रेणिका, पूर्वोदिऐ वृत्तान्ते कथिते भणति राजा-कैषा प्रत्यनुभविष्यति सुखं दुःखं वा', स्वामी भणति-एतेन कालेन बेदितं, सा तवैव भार्या भविष्यति अग्रमहिषी, अष्ट संवत्सरान् यावतच रममाणस्थ पृष्ठौ हंसोली करिष्यति तां जानीयाः, वन्दिरवा गतः, स चापहतो गन्धः कलपुत्रकेण सहता संवृद्धा च बीवनश्या जाता, कौमुदीचासरेऽम्बया सममागता, अभवः अणिय प्रच्छनौ कौमुदीवासरं प्रेक्षेते, तसा दारिकाया भनसरोंनाभ्युपपनो नाममुद्रा तस्या दशायां बनाति, अभयाव कवितं-नाममुना हारिता, मार्गय, तेन मनुष्पा हारि स्थापिताः, एकैको मनुष्षः प्रलोक्य निष्काश्यते, सा 4 JanEai Panasonamom पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~320 Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५६१...] भाष्यं [२४३...], ་ ཀླུ , ཟླ प्रत सूत्रांक आवश्यक-४ादारिया दिहा चोरोत्ति गहिया, परिणीया य, अण्णया य वझुकेण रमंति, रायाणिज तेण पोत्तेण वाहेंति, इयरा पोतं प्रत्याख्या हारिभ- दादेति, सा विलग्गा, रण्णा सरियं, मुका य पवइया, एयं विउदुगुंछाफलं । परपापंडाना-सर्वज्ञपणीतपापण्डव्यतिरिक्तानां नाध्य द्रीया प्रशंसा प्रशंसनं प्रशंसा स्तुतिरित्यर्थः । परपापण्डानामोघतस्त्रीणि शतानि त्रिषष्ट्यधिकानि भवन्ति, यत उक्तम्-11 सम्यक्त्तवा अधिकारः ॥८१६॥ "असीयसयं किरियाणं अकिरियवाईण होइ चुलसीती । अण्णाणिय सत्तही वेणइयाणं च बत्तीसं ॥१॥ गाहा", इयमपि गाथा विनेयजनानुग्रहार्थ ग्रन्धान्तरप्रतिबद्धाऽपि लेशतो व्याख्यायते-'असियसंयं किरियाण'ति अशीत्युत्तरं शतं क्रियावादिनां, तब न कर्तारं विना क्रिया सम्भवति तामात्मसमवायिनी वदन्ति ये तच्छीलाश्च ते क्रियावादिनः, ते पुनरा-IN माद्यस्तित्वप्रतिपत्तिलक्षणाः अनेनोपायेनाशीत्यधिकशतसङ्ख्या विज्ञेयाः, जीवाजीवाश्रववन्धसंवरनिर्जरापुण्यापुण्यमोक्षाख्यान नव पदार्थान् विरचय्य परिपाट्या जीवपदार्थस्याधः स्वपरभेदावुपन्यसनीयौ, तयोरधो नित्यानित्य भेदौ, तयोरप्यधः कालेश्वरात्मनियतिस्वभावभेदाः पञ्च न्यसनीयाः, पुनश्चेत्थं विकल्पाः कर्तव्या-अस्ति जीवः स्वतो नित्यः कालत इत्येको विकल्पः, विकल्पार्थश्चायं-विद्यते खल्वयमात्मा स्खेन रूपेण नित्यश्च कालतः, कालवादिनः, उक्तेनैवाभिलापेन द्वितीयो विकल्पः ईश्वरवादिनः, तृतीयो विकल्प आत्मवादिनः 'पुरुष एवेदं सर्व'मित्यादि, नियतिवादिनश्चतुर्थो विकल्पः,13 ॥८१६॥ पञ्चमविकल्पः स्वभाववादिनः, एवं स्वत इत्यत्यजता लब्धाः पश्च विकल्पाः, परत इत्यनेनापि पञ्चैव लभ्यन्ते, नित्यत्वा दारिका रहा चौर इति गृहीता परिणीता च, अम्पादा च बानीया रमन्ते, रायतं पोतेन वाहयन्ति, इतराः पोतं ददति, सा विलशा, राज्ञा स्मृतं, मुक्का च प्रनजिता, एतत् विलुगुप्साफलं । अनुक्रम [६३] JABERatinni notorary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~321 Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४३..., प्रत सूत्रांक परित्यागेन चैते दश विकल्पाः एवमनित्यत्वेनापि दशैव, एकत्र विंशतिजीवपदार्थेन लब्धाः, अजीवादिष्वप्यष्टस्वेवमेव प्रतिपदं विंशतिर्विकल्पानामतो विंशतिर्नवगुणा शतमशीत्युत्तर क्रियावादिनामिति । 'अकिरियाणं च भवति चुलसीति'त्ति अक्रियावादिनां च भवति चतुरशीतिर्भेदा इति, न हि कस्यचिदवस्थितस्य पदार्थस्य क्रिया समस्ति, तद्भाव एवावस्थितेरभावादित्येवं वादिनोऽक्रियावादिनः, तथा चाहुरेके-"क्षणिकाः सर्वसंस्काराः, अस्थितानां कुतः क्रिया। भूतियेषां क्रिया सैव, कारकं सैव चोच्यते ॥१॥" इत्यादि, एते चारमादिनास्तित्वप्रतिपत्तिलक्षणा अमुनोपायेन चतुरशीतिर्द्रष्टव्याः, एतेषां हि पुण्यापुण्यवर्जितपदार्थसप्तकन्यासस्तथैव जीवस्याधः स्वपरविकल्पभेदद्वयोपन्यासः, असत्त्वादात्मनो नित्यानित्यभेदी न स्तः, कालादीनां तु पञ्चानां षष्ठी यदृच्छा न्यस्यते, पश्चाद्विकल्पभेदाभिलापः, नास्ति जीवः स्वतः कालत इत्येको विकल्पः, एवमीश्वरादिभिरपि यहच्छावसानैः, सर्वे च षडू विकल्पाः, तथा नास्ति जीवः परतः कालत इति पडेव विकल्पाः, एकत्र द्वादश, एवमजीवादिष्वपि पटसु प्रतिपदं द्वादश विकल्पाः एकत्र, सप्त द्वादशगुणाश्चतुरशीतिर्विकल्पा नास्तिकानामिति । 'अण्णाणिय सत्तहित्ति अज्ञानिकानां सप्तपष्टिर्भेदा इति, तब कुत्सितं ज्ञानमज्ञानं तदेषामस्तीति अज्ञानिकाः, नन्वेवं लघुत्वात् प्रकमस्य प्राक् बहुव्रीहिणा भवितव्यं ततश्चाज्ञाना इति स्यात् , नैष दोषः, ज्ञानान्तरमेवाज्ञानं मिथ्यादर्शनसह चारित्वात् , ततश्च जातिशब्दत्वाद गौरखरवदरण्यमित्यादिवदज्ञानिकत्वमिति, अथवा अज्ञानेन चरन्ति तत्प्रयोजना था अज्ञानिका:-असंचित्य कृतवैफल्यादिप्रतिपत्तिलक्षणा, अमुनोपायेन सप्तपष्टिज्ञातव्याः, तत्र जीवादिनवपदार्थान् पूर्ववत् व्यवस्थाप्य पर्यन्ते चोत्पत्तिमुपन्यस्याधः सप्त सदादयः उपन्यसनीयाः, दीप अनुक्रम [६३] आ०१३७ AmEairatna पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~322 Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५६१...] भाष्यं [२४३...], प्रत सूत्रांक आवश्यक- Iसक्वमसत्त्वं सदसत्त्वं अपाच्यत्वं सहवाय्यत्वं असदवाच्यत्वं सदसदवाय्यत्वमिति चैकख जीपाये। सस ससक्किापत्याख्य हारिभ- एते नव सप्तकाःत्रिषष्टिः, उत्पत्तेस्तु चत्वार एवाचा विकल्पातद्यथा-सस्वमसत्वं सदसवं अपाच्यत्त्वं चेति त्रिषष्टिमध्ये नाध्य. द्रीया क्षिप्ताः सक्षषष्टिर्भवम्ति, को जानाति जीवः सन्नित्येको विकल्पः, ज्ञातेम वा किं, एषमसदादयोऽपि वाच्यार, उत्पत्ति- श्रावकन ताधिक नरपि किं सतोऽसतः सदसतोऽवाच्यस्येति को जानातीति, एतन्न कश्चिदपीत्यभिप्रायः । 'वेणइयाणं च बत्तीसत्ति 1८१७॥ वैनयिकानां च द्वात्रिंशदू भेदाः, विनयेन चरन्ति विनयोचा प्रयोजनमेषामिति वैनयिकाः, एते चानवधृतलिशाचारशाखा लाविनयप्रतिपत्तिलक्षणा अमुनोपायेग द्वात्रिंशदवगन्तव्याः-सुरनृपतियतिज्ञातिस्थविराधममासृपितॄणां प्रत्येक कायेन || वचसा मनसा दानेन च देशकालोपपन्नेन विनयः कार्य इत्येते चत्वारो भेदाः सुरादिष्वष्टसु स्थानकेषु, एकत्र मिलिता द्वात्रिंशदिति, सर्वसङ्ख्या पुनरेतेषां त्रीणि शतानि त्रिषष्ट्याधिकानि, न चैतत् स्वमनीषिकाव्याख्यानं, यस्मादन्यैरप्युक्त-11 "आस्तिकमतमात्माद्या नित्यानित्यात्मका नव पदार्थाः। कालनियतिखभावेश्वरात्मकृताः (तकाः) स्वपरसंस्थाः॥१॥ कालय छानियतीश्वरस्वभावात्मनश्चतुरशीतिः । नास्तिकवादिगणमतं न सन्ति भावाः स्वपरसंस्थाः ॥२॥ अज्ञानिकवादिमत, ४|नव जीवादीन् सदादिसप्तविधान् । भावोत्पत्तिं सदसद्वैतावाच्यां च को वेत्ति ॥३॥ वैनयिकमतं विनयश्चेतोवाक्का यदानतः कायें। सुरनृपतियतिज्ञातिस्थविराधममातृपितृषु सदा ॥४॥" इत्यलं प्रसङ्गेन प्रकृतं प्रस्तुमा, एतेषां प्रशंसा ८१७॥ न कार्या-पुण्यभाज एते सुलब्धमेभिर्यद् जन्मेत्यादिलक्षणा, एतेषां मिथ्वादृष्टित्वादिति । अत्र चोदाहरणं-पाडलिपुत्ते चाणको, पाटलीपुत्रे चाणक्यः, दीप अनुक्रम [६३] RECEREGIOGRA JanEairatna पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~323 Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-१] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४३...], प्रत सूत्रांक चंदगुत्तेणं भिक्खुगाणं वित्ती हरिता, ते तस्स धम्म कहेंति, राया तूसति चाणकं पलोएति, ण य पसंसति ण देति. तेण चाणकभजा ओलग्गिठा,ताए सो करणि गाहितो, ताधे कथितेण भणितं तेण-सुभासियंति, रण्णा तं अण्णं च दिण्णं, बिदियदिवसे चाणको भणति-कीस दिन्नं, राया भणइ-तुझेहिं पसंसितं, सो भणइ-ण मे पसंसितं, सबारंभपवित्ता कई लोग पत्तियाविंतित्ति !, पच्छा ठित्तो, केत्तिया परिसा तम्हा ण कायबा ।परपापण्डै:-अनन्तरोतस्वरूपैः सह संस्त्रवः परपाषण्डसंस्तवः, इह संवासजनितः परिचयःसंवसनभोजनालापादिलक्षणः परिगृह्यते, न स्तुतिरूपः, तथा च लोके प्रतीत एव संपूर्वः स्तौतिः परिचय इति, 'असंस्तुतेषु प्रसभ कुलेष्वि'त्यादाविति, अयमपि न समाचरणीयः, तथा हि एकत्र संवासे तत्प्रक्रियाच णात् तक्रियादर्शनाच तस्यासकृदभ्यस्तावादवाप्तसहकारिकारणात् मिथ्यात्वोदयतो दृष्टिभेदः संजायते अतोऽतिचार हेतुत्वान्न समाचरणीयोऽयमिति । अत्र चोदाहरणं-सोरेसहगो पुवभणितो।एवं शङ्कादिसकलशल्यरहितः सम्यक्त्ववान् शेषाणुव्रतादिप्रतिपत्तियोग्यो भवति, तानि- चाणुव्रतानि स्थूलपाणातिपातादिनिवृत्तिरूपाणि प्राक् लेशतः। सूचितान्येव 'दुविधन्तिविधेण पढमो' इत्यादि(ना) अधुना स्वरूपतस्तान्येवोपदर्शयन्नाह थूलगपाणाइवायं समणोवासओ पचक्खाइ, से पाणाइवाए दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-संकप्पओ अ आरंभओ दीप अनुक्रम [६३] चधरान भिक्षुकाणां वृत्तिता, ते तमै धर्म कथयन्ति, राजा तुष्यति, चाणक्य प्रलोकयति, तान् न प्रशंसति न ददाति, वैश्वाणक्यभायों से चितुमारब्धा, तथा स करणि प्राहिता, तथा कवितेन भणितं तेन-सुभाषितमिति, राजा तदन्यच दचं, द्वितीयदिवसे चाणक्यो भणति-कथं दत्तं ?, राजा भणनि-युप्माभिः | प्रशंसितं, स भणति- मया प्रकासितं सारम्भमवृत्ताः कथं लोकं प्रत्याययन्ति ?, पश्चात् स्थितः, कियन्त इरमास्तम्मान कर्तण्या। २ सौराष्ट्रभावकः पूर्वभणितः Jantaintin ANDramom पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: अथ स्थूल प्राणातिपात व्रतस्य वर्णनं क्रियते ~324 Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-१] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४३...], मा प्रत सूत्रांक [सू.१] आवश्यक- अ, तस्थ समणोवासओ संकप्पओ जायजीवाए पञ्चक्खाइ, नो आरंभओ, धूलगपाणाडवायवेरमणस्सामयाख्या नाध्य. हारिभसमणोवासएक इमे पंच अइयारा जाणियचा, तंजहा-धंधे वहे छविच्छेए अइभारे भत्तपाणवुच्छेए १३ (सूत्रं) श्रावकत्रद्रीया अस्य व्याख्या-स्थूला:-द्वीन्द्रियादयः,स्थूलत्वं चैतेषां सकललौकिकजीवत्वप्रसिद्धे, एतदपेक्षयकेन्द्रियाः (णां) सूक्ष्माधिग मेना(न)जीवत्वसिद्धेरिति, स्थूला एव स्थूलकास्तेषां प्राणाः-इन्द्रियादयः तेषामतिपातः स्थूलप्राणातिपातः तं श्रमणोपासकः श्रा ताधिक ॥८१८॥ INवक इत्यर्थः प्रत्याख्याति, तस्माद् विरमत इति भावना । स च प्राणातिपातो द्विविधः प्रज्ञप्तः, तीर्थकरगणधरैद्धिविधःप्ररूपित इत्यर्थः, 'तद्यथे खुदाहरणोपन्यासार्थः, सङ्कल्पजश्चारम्भजश्च, सङ्कल्पाजातः सङ्कल्पजः, मनसः सङ्कल्पाद् द्वीन्द्रियादिप्राणिनः15 मांसास्थिचर्मनखवालदन्ताद्यर्थ व्यापादयतो भवति, आरम्भाजातः आरम्भजः, तत्रारम्भो-हलदन्तालखननस्तत(लवन)|| प्रकारस्तस्मिन् शचन्दणकपिपीलिकाधान्यगृहकारकादिसट्टनपरितापापद्रावलक्षण इति, तत्र श्रमणोपासका सङ्कल्पतो | यावजीवयापि प्रत्याख्याति, न तु यावज्जीवयव नियमत इति, 'नारम्भज'मिति, तस्यावश्यतयाऽऽरम्भसद्भावादिति, आह-II एवं सङ्कल्पतः किमिति सूक्ष्मप्राणातिपातमपि न प्रत्याख्याति ?, उच्यते, एकेन्द्रिया हि प्रायो दुष्परिहाराः सद्मवासिना | सङ्कल्प्यव सचित्तपृथ्ब्यादिपरिभोगात , तेस्थ पाणातिपाते कज्जमाणे के दोसा? अकर्जते के गुणा 1, तत्थ दोसे उदाहरण | कोंकणगी, तस्स भजा मया, पुत्तो य से अस्थि, तस्स दारगस्स दाइयभएण दारियंण लभति, ताघे सो अन्नलक्खेण रमंती|Se१८ प्राणातिपाते क्रियमाणे के दोषाः १ अप्रियमाणे च के गुणाः, तत्र दोघे अदाहरणं कोणका, तस्य भार्या मृता, पुत्रश्च तस्य अति, तस्य दारकस्य दायादभवेन दारिकां न लभते, तदा सोऽम्पलक्ष्येण रममाणो दीप अनुक्रम [६४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~325 Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-१] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४३...], प्रत सूत्रांक [सू.१] विधति। गुणे उदाहरणं सत्तवदिओ। विदियं उज्जेणीए दारगो, मालवेहिं हरितो सावगदारगो, सूतेण कीतो, सो तेण भणितो-1 लावगे ऊसासेहि, तेण मुक्का, पुणो भणिओ मारेहित्ति, सो णेच्छति, पच्छा पिद्देत्तुमारद्धो, सो पिट्टिजंतो कूवति, पच्छा रण्णा सुतो, सद्दावेतूण पुच्छितो, ताधे साहति, रण्णावि भणिओ णेच्छति, ताघेहत्थिणा तासितो तथावि णेच्छति, पच्छा रण्णा सीसरक्खो ठवितो, अण्णता थेरा समोसड्डा, तेसिं अंतिए पवइतो। ततियं गुणे उदाहरणं-पाडलिपुत्ते नगरे जियसत्तू राया, खेमो से अमच्चो चउविधाए बुद्धीए संपण्णो समणोवासगो सावगगुणसंपण्णो, सो पुण रण्णो हिउत्तिकाउं अण्णेसि | दिंडभडभोइयाणं अपितो, तस्स विणासणणिमित्तं खेमसंतिए पुरिसे दाणमाणेहिं सकारिंति, रणो अभिमरए पति, गहिता य भणंति हम्ममाणा-अम्हे खेमसंगता तेण चेव खेमेण णिउत्ता, खेमो गहितो भणति-अहं सबसत्ताणं खेम करेमि किं पुण रणो सरीरस्सत्ति, तथावि वज्झो आणत्तो, रपणो य असोगवणियाउ(ए) अगाहा पुक्खरिणीसंछण्णपत्तभि % 4584% दीप अनुक्रम [६४] १विध्यति । गुणे उदाहरणं सम्पदिकः द्वितीय, बजयिन्या दारको, मालवहतः श्रावकदारकः, सूतेन कीतः, स तेन भाणितः-लावकान् मारय, तेन मुक्काः, पुनर्भणित:-भारयेति, स नेति, पश्चारिपट्टयितुमारब्धः, स पिवमानः कूजति, पनाच राज्ञा श्रुतः, कादवित्वा पृष्टः, सदा कवयति, राज्ञाऽपि मणितो नेच्छति, तदा हसिना त्रासितस्तथापि नेच्छति, पश्चाद्वाज्ञा शीर्षरक्षकः स्थापितः, अन्यदा स्थविरः समवस्तास्तेषामन्तिके प्रश्रजितः । तृतीयमुदाहरणं गुणे-- जितक्ष राजा, क्षेमलस्य अमात्यश्चतुर्विधया बुळ्या संपन्नः श्रमणोपासकः श्रावकगुणसंपन्नः, स पुना राज्ञे हित इतिवाऽन्येषां दण्डभटमोजि-IN | कानामप्रिया, तख विनाशननिमित्त क्षेमसाकान् पुरुषान् दानसन्मानाभ्यां साकारयन्ति, राज्ञोऽभिमरकान् प्रयुजन्ति, गृहीतान भगन्ति हन्यमाना-वयं क्षेमसरकाः तेनैव क्षेमेण नियुक्ताः, क्षेमो गृहीतो भयति-अहं सबसचाना क्षेमं करोमि किं पुना राज्ञः शरीरस्पेति !, तथापि वध्य आज्ञप्तः, राज्ञाशोकवनिकायामगाधा पुष्करिणी संछापत्रधि JABERatinidin पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~326 Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-१] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४३...], आवश्यकहारिभ- द्रीया प्रत ॥८१९॥ - S सूत्रांक [सू.१] समुणाला उप्पलपउमोपसोभिता, सा य मगरगाहेहिं दुरवगाहा, ण य ताणि उप्पलादीणि कोइ उच्चिणि समत्थो, जो य ४ प्रत्याख्या नाध्य० वझो रण्णा आदिस्सति सो चुच्चति-एत्तो पुक्खरिणीतो पउमाणि आणेहित्ति, ताधे खेमो उद्देऊण नमोऽथु णं अरहंताणं |श्रावकत्रभणितु जदिहं निरावराधी तो मे देवता साणेज्झं देंतु, सागार भत्तं पञ्चक्खायितुं ओगाढो, देवदासापणेझेणं मगरपुट्ठी ताधि० ठितो बहूणि उप्पलपउमाणि गेमिहत्तुत्तिण्णो, रण्णा हरिसितेण खामितो उवगूढो य, पडिपक्खणिग्गहं कातूण भणितो-किं| ते वरं देमि?, तेण णिरुंभमाणेणवि पवजा चरिता पवइतो, एते गुणा पाणातिपातवेरमणे । इदं चातिचाररहितमनुपालनीयं, तथा चाह-'थूलगे'त्यादि, स्थूलकप्राणातिपातविरमणस्य विरतेरित्यर्थः श्रमणोपासकेनामी पञ्चातिचाराः 'जाणियबा' ज्ञपरिज्ञया न समाचरितव्याः-न समाचरणीयाः, तद्यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः, तत्र धर्म बन्धः-संयमन रज्जुदामनकादिभिहननं वधः ताडनं कसादिभिः छविः-शरीरं तस्य छेदः-पाटनं करपत्रादिभिः भरणं भारः अतीव भरणं अतिभार:प्रभूतस्य पूगफलादेः स्कन्धपृष्ठ्यादिष्यारोपणमित्यर्थः, भक्त-अशनमोदनादि पानं-पेयमुदकादि तस्य च व्यवच्छेदः-निरोधोऽदानमित्यर्थः, एतान् समाचरन्नतिचरति प्रथमाणुव्रतं, तदत्रायं तस्य विधिः कन ERIES दीप अनुक्रम [६४] ८१९॥ समृणाला अस्पलपोपशोभिता, सा च मकरमाहेरवगाहा, नप ताभ्युत्पलादीनि कोऽप्युबेतुं समर्थः, यश्च वथ्यो राज्ञाऽऽदिश्यते स उच्यते-हतः पुष्करिणीतः पान्यानयेति, तदा क्षेम अस्थाय नमोऽस्तु बनयो भणिया यद्यहं निरपराधलदा मयं देवता सान्निध्य ददानु, साकारं भक्तं प्रत्याख्यायावगाः देवतासानिध्येन मकरपृष्ठिस्थितो बहून्युरपळपमानि गृहीत्वोत्तीर्णः, राज्ञा हटेन क्षामितः उपगूध, प्रतिपक्षनिग्रहं कृत्वा भणितः-किते वरं ददामि , तेन | निरुध्यमानेनापि प्रवज्या चीर्णा प्रअजितः, एते गुणाः प्राणातिपातविरमणे। JAMERIEmiN पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~327 Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-१] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४३...], प्रत सूत्रांक [सू.१] RSSES बन्धो दुविधो-दुप्पदाणं चतुप्पदाणं च, अड्डाए अणहाए य, अणहाए न बद्दति बंधेत, अहाए दुविधो-निरवेक्खोला सावेखो य, णिरवेक्खो णेच्चलं धणितं जं बंधति, सावेक्खो जं दामगंठिणो जं व सकेति पलीवणगादिसुं मुंचितुं छिंदितुं चा तेण संसरपासएण बंधेतवं, एवं ताव चतुष्पदाणं, दुपदाणंपि दासो वा दासी वा चोरोवा पुत्तो वा ण पढ़तगादि जति बज्झति तो सावेक्खाणि बंधितवाणि रक्खितवाणि य जधा अग्गिभयादिसु ण विणसंति, ताणि किर दुपदचतुप्पदाणि सावगेण गेण्हितवाणि जाणि अबद्धाणि चेव अच्छति, बहो तधा चेव, वधो णाम तालणा, अणहाए णिरवेक्खो णिद्दयं तालेति, सावेक्खो पुण पुवमेव भीतपरिसेण होतबं, मा हणणं कारिजा, जति करेज ततो मम्मं मोत्तूर्ण ताधे लताए दोरेण वा एक दो तिण्णि घारे तालेति, छविछेदो अणडाए तधेव हिरवेक्खो हत्थपादकण्णणकाई णियत्ताए छिदति, सावेक्खो गंडं वा अरुयं वा छिंदेज वा डहेज्ज वा, अतिभारो ण आरोवेतषो, पुर्व चेव जा वाहणाए जीविया सा मोत्तबा, दीप अनुक्रम [६४] १ चम्चो हिविधी-द्विपदानां चमुपदानां च, मायानाथ च, अनर्थाय न वर्तते बर्दू, अर्धाय द्विविधा--निरपेक्षस्सापेक्षा, निरपेक्षा पनि बाति बाद, सापेक्षो यहामन्धिना यच शक्रोति प्रदीपनकाविषु मोचयितुं तं वा तेन संसरस्पाशकेन बच्च, एवं तावत् चतुष्पदाना, द्विपदानामपि दासो वा दासी वा चौरो वा पुत्रो वाऽपठदादिदि बध्यते तदा सापेक्षाणि बदल्यानि रक्षितभ्यानि च यथाऽग्निभयाविषु न विनश्यन्ति, ते किल हिपदचतुप्पदाः श्रावकेण प्रहीतच्या येऽवद्या एवं तिष्ठन्ति, वघोऽपि तथैव, वयो नाम ताटनं, अनर्थाय निरपेक्षो निर्दय ताइयति, सापेक्षा पुनः पूर्वमेय भीतपदा भवितव्यं मा घातं कुर्या, यदि कुर्यात् ततो मम भुक्त्वा तदा सतया ववरकेण वा एकशो निखिोरान् साउथति, विच्छेदोऽनर्थाय तथैव निरपेक्षो इसपायकनासिकादि निर्दयतया छिनति, सापेक्षो गण्ई या अरुवा छिन्याहा दहेजा, अतिभारो नारोपवितव्यः, पूर्वमेव या वाहनेमाजीविका सा मोक्तव्या, पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~328~ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-१] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४३...], प्रत्याख्या नाध्य. श्रावकत्रताधि० प्रत सूत्रांक [सू.१] श्यक- ण होजा अण्णा जीविता ताधे दुपदोजं सयं उक्खिवति उत्तारेति वा भारं एवं वहाविज्जति, पइलाणं जधा साभाविया- हारिभ- ओवि भारातो ऊणओ कीरति, हलसगडेसुवि वेलाए मुयति, आसहत्थीसुवि एस विही, भत्तपाणवोच्छेदो ण कस्सइ द्रीया कातबो, तिबछुद्धो मा मरेज, तधेव अणद्वाए दोसा परिहरेज्जा, सावेक्खो पुण रोगणिमित्तं वा वायाए वा भणेज्जा अज ते ण देमित्ति, संतिणिमित्तं वा उववासं कारावेजा, सबस्थवि जतणा जधा थूलगपाणातिवातस्स अतिचारोण, 1८२०॥ | भवति तथा पयतितवं, णिरवेक्खबंधादिसु य लोगोवधातादिया दोसा भाणियबा । उक्तं सातिचारं प्रथमाणुव्रतं, अधुना द्वितीयमुच्यते, तत्रेदं सूत्रW थूलगमुसावायं समणोवासओ पञ्चक्खाइ, से य मुसावाए पंचविहे पन्नत्ते, तंजहा-कन्नालीए गवालीए भोमालिए नासावहारे कूडसकिखज्जे । थूलगमुसावायवेरमणस्स समणोवासएणं इमे पंच०, जहा-सहस्सदाभक्खाणे रहस्सन्मक्खाणे सदारमंतभेए मोमुवएसे कृडलेहकरणे २॥ अस्य व्याख्या-मृपावादो हि द्विविधः-स्थूलः सूक्ष्मश्च, तत्र परिस्थूलवस्तुविषयोऽतिदुष्टविवक्षासमुद्भवः स्थूलो, विपरीत १न भन्या जीविका वदा द्विपदो यं यमुक्षिपति उत्तारयति वा भारं एवं वागते, बलिवानां यथा स्वाभाविकादपि भारावूनः क्रियते, हलशकरे। वपि चेलायां मुञ्चति, अश्वहस्त्यादिवप्येष एवं विधिः, भक्तपानव्यवच्छेदो न कस्यापि कम्पः R तीवक्षुम्मा मृत, तथैवानथाप दोषाव (तस्मात्) परिहरेत् सापेक्षः पुना रोगनिमित्तं वा वाचा वा भणे-अब तुभ्यं न दहामीति, शान्सिनिमित्तं वोपवासं कारयेत् , सर्वत्रापि यतमा यथा स्थूलमायातिप्रातस्याति चारो | न भवति तथा प्रयतितम्ब, निरपेक्षवधादिषु च लोकोपघातादयो दोषा भाषितम्या।। दीप अनुक्रम [६४] ॥८२०॥ JAMERamNE haiarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: अथ स्थूल मृषावाद व्रतस्य वर्णनं क्रियते ~329~ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४३...], प्रत सूत्रांक [सू.२] स्त्वितरः, तत्र रधूल एव स्थूलका २ श्वासौ मृषावादश्चेति समासः, तं श्रमणोपासकः प्रत्याख्यातीति पूर्ववत्, स च मृपावादः पश्चविधः प्रज्ञप्तः-पञ्चप्रकारः प्ररूपितस्तीर्थंकरगणधरैः, तद्यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः, कन्याविषयमनृतं अभिन्नकन्यकामेव भिन्नकन्यका वक्ति विपर्ययो वा, एवं गवानृतं अल्पक्षीरामेव गां बहुक्षीरां वक्ति विपर्ययो वा, एवं भूम्यनृतं परसत्कामेवात्म सत्का वक्ति, व्यवहारे वा नियुक्तोऽनाभवव्यवहारस्यैव कस्यचिद् भागाद्यभिभूतो वक्ति-अस्येयमाभवतीति, न्यस्यते-निक्षिआध्यत इति न्यासारूप्यकाद्यर्पणं तस्थापहरणं न्यासापहारः, अदत्तादानरूपत्वादस्य कथं मृपावादत्वमिति ?, उच्यते, अपल पतो मृषावाद इति, कूटसाक्षित्वं उत्कोचमात्सर्याद्यभिभूतः प्रमाणीकृतः सन् कूटं वक्ति, अविधवाद्यनृतस्यात्रैवान्तर्भावो वेदितव्यः । मुसावादे के दोसा ? अकर्जते वा के गुणा !, तत्थ दोसा कण्णगं चेव अकण्णगं भणते भोगंतरायदोसा पदुहा वा आतघात करेज कारवेज वा, एवं सेसेसुवि भाणियबा । णासावहारे य पुरोहितोदाहरणम्-सो जधा णमोकारे, गुणे उदाहरणं-कोंकणगसावगोमणुस्सेण भणितो, घोडए णासंते आणाहित्ति, तेण आहतोमतो य करणं णीतो, पुच्छितोको ते सक्खी ?, घोडगसामिएण भणिय, एतस्स पुत्तो मे सक्खी, तेण दारएण भणितं-सच्चमेतन्ति, तुहा पूजितो सो, लोगेण सृपावादे के दोषाः ? अक्रियमाणे वा के गुणाः !, तत्र दोषाः कन्यकामेवाकन्यका भणति भोगान्तरायदोषाः प्रविष्टा वापसमधानं कुर्यास्कारयेहा, एवं शेपेयपि भणितम्याः । ग्यासापदारे च पुरोहितोदाहरण-स वथा नमस्कारे, गुणे उदाहरण-कोकणकश्नावको मनुष्येण भणित:-पोटकं नश्यन्तं भाजहि | इति, तेनाइतो मृत करणं नीतः, पृष्टः-कस्लव साक्षी!, घोटकस्वामिकेन भणित-एतस्य पुत्रो मे साक्षी, तेन दारकेण भणित-सत्यमेतदिति, तुष्टाः | (सभ्याः) पूजितः सः, लोकेन दीप अनुक्रम [६५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~330 Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४३...], PAGr प्रत सूत्रांक [सू.२] आवश्यक- IIय पसंसितो, एवमादिया गुणा मुसाचादवेरमणे । इदं चातिचाररहितमनुपालनीयम् , तथा चाह-'थूलगमुसावादवेरम- प्रत्याख्या हारिभ-G णस्स' व्याख्या-स्थूलकमृषावादविरमणस्य श्रमणोपासकेनामी पञ्चातिचाराः ज्ञातव्याः ज्ञपरिज्ञया न समाचरि-18 नाध्य. द्रीया । तव्याः, तद्यथेति पूर्ववत्, सहसा-अनालोच्य अभ्याख्यानं सहसाऽभ्याख्यानं अभिशंसनम्-असदध्यारोपणं, तद्यथा-1 |श्रावकत्र चौरस्त्वं पारदारिको वेत्यादि, रह:-एकान्तस्तत्र भवं रहस्यं तेन तस्मिन् वा अभ्याख्यानं रहस्याभ्याख्यानं, एतदुक्तं ॥८२२॥ ताधिक भवति-एकान्ते मन्त्रयमाणान् वक्ति-एते हीदं चेदं च राजापकारित्वादि मन्त्रयन्ति, स्वदारे मन्त्रभेदः स्वदारमन्त्रभेदःस्वदारमन्त्र[भेदप्रकाशनं स्वकलत्रविश्रन्धविशिष्टावस्थामन्त्रितान्यकथनमित्यर्थः, कूटम्-असद्भूतं लिख्यत इति लेखः तस्य करणं-क्रिया कूटलेखक्रिया-कूटलेखकरणं अन्यमुद्राक्षरबिम्बस्वरूपलेखकरणमित्यर्थः, एतानि समाचरमतिचरति ६ द्वितीयाणुव्रतमिति, तत्रापायाः प्रदर्श्यन्ते, 'सहसऽभक्खाणं खलपुरिसो सुणेजा सो वा इतरोवा मारिजेज वा, एवं गुणो, |वेसित्ति भएणं अप्पाणं तं घा विरोधेजा, एवं रहस्सन्भक्खाणेऽवि, सदारमतभेदे जो अप्पणो भजाए सद्धिं जाणि रहस्से बोलिताणि ताणि अण्णेसिं पगासेति पच्छा सा लज्जिता अप्पाणं परं वा मारेजा, तत्थ उदाहरणम्-मथुरावाणिगो दिसीयदत्ताए गतो, भज्जा सो जाधे ण एति ताधे बारसमे वरिसे अण्णेण समं घडिता, सो आगतो, रत्तिं अन्नायवेसेण ||८२१॥ पाच प्रशंसितः, एवमादिका गुणा मुषावादविरमणे । २ सहसाभ्याख्यान खलपुरुषः शुशुवात स वेतरो वा मारयेत् एवं गुणः, पीति भयेनात्मानं तिं वा विराधयेत्, एवं रहोऽभ्याख्यानेऽपि, स्वबारमबभेदे व भारमनो भाचया समं यानि रहसि उक्तानि तान्यन्येषां प्रकाशयति पश्चात् , सा लज्जियामानं परवा मारयेत् , तत्रोदाहरणं-मधुरामणि दिग्यात्रायै गतः, भार्या तस्य यदा नावाति तदा द्वादशे वर्षेऽन्येन समं स्थिता. स आगतः, रात्री अज्ञातवेषेण SASURUMAR दीप अनुक्रम [६५] JAMEDIUM पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~331 Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४३...], प्रत %25 % सूत्रांक [सू.२] 18| कप्पडियसणेण पविसति, ताणं तदिवसं पगतं, कप्पडिओ य मम्गति, तीए य घहितवर्ग खजगादि, ताघे णियगपति। वाहेति, अण्णातच जाए ताधे पुणरवि गंतुं महता रिद्धीए आगतो सयणाण समं मिलितो, परोवदेसेण वयस्साण सवं कषेति. ताए अप्पा मारितो। मोसुवतेसे परिवायगो मणुस्सं भणति-कि किलिस्ससि ?, अहं ते जदि रुच्चति णिसण्णो चेव दवं विढवायेमि, जाहि किराडयं उच्छिण्णं मग्गाहि, पच्छा कालुद्देसेहिं मग्गेजासि, जाधे य बाउलो जणदाणगहणेण ताधे भणिज्जासि, सो तधेव भणति, जाधे विसंवदति ताधे मर्म सक्खि उदिसेज्जत्ति, एवं करणे उ हारितो जितो(नोदवावितो य, कूडलेहकरणे भइरधी अण्णे य उदाहरणा । उक्तं सातिचारं द्वितीयाणुव्रतं, अधुना तृतीयं प्रतिपादयन्नाह थूलगअदत्तादाणं समणो०, से अदिन्नादाणे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-सचित्तादत्तादाणे अचित्तादत्तादाणे अ । धृलादत्तादाणवेरमणस्स समणोवासएणं इमे पंच अइयारा जाणियब्वा, तंजहा-तेनाहडे तकरप-1 ओगे विरुद्धरजाइक्कमणे कूडतुलकूडमाणे तप्पडिरूवगववहारे ३ ॥ 5% 9 दीप अनुक्रम [६५] कारिकत्येन प्रविशति, तयोस्तदिवसे प्रकृतं, कार्पटिका मार्गवति, तस्वाक्ष बहनीयं बायकादि, तदा निजकपत्ति बाहपति, अशातचया सदा पुनरपि गत्वा महत्वा ऋजा भागतः स्वजनैः समं मिलति, पोपदेशेन वयस्थानां कथयति सर्व, तथाऽमा मारितः । स्पोपदेशे परिवाजको मनुष्य भणतिकिकाम्यसि , आईते यदि रोचते निषण्ण एवं द्रव्यमुपार्जचामि, याहि किराटकं (इम्पसमूर) उधतकं मार्गय, पक्षात् कालोदेवो भार्थसे, पाचव्याकुलो जनदानग्रहणेन तदा भणे, स तथैव भणति, यदा विसंवदति तदा मा साक्षिणमुदिशेरिति, एवं करणेऽपि पराजितो जितो न दापितत्र, कूटलेखकरणे भगिरथी अन्ये चोदाहरणानि R-564% Jantaintinue KHorary.org पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: अथ स्थूल अदत्तादान व्रतस्य वर्णनं क्रियते ~332 Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-३] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४३...], आवश्यक हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक [सू.३] ८२२॥ दीप अनुक्रम [६६] व्याख्या-अदत्तादानं द्विविध-स्थूल सूक्ष्मं च, तत्र परिस्थूलविषयं चौर्यारोपणहेतुस्खेन प्रतिषिद्धमिति, दुष्टाध्यव-1 प्रत्याख्या | सायपूर्वक स्थूल, विपरीतमितरत् , स्थूलमेव स्थूलकं स्थूलकं च तत् अदत्तादानं चेति समासः, तामणोपासका प्रत्या-| नाध्य. ख्यातीति पूर्ववत् , सेशब्दः मागधदेशीप्रसिद्धो निपातस्तच्छब्दार्थः, तन्नादत्तादानं द्विविधं प्रज्ञप्त--तीर्थकरगणधरैद्धि बाश्रावकत्र ताधिक प्रकार प्ररूपितमित्यर्थः, तद्यथेति पूर्ववत , सह चित्तेन सचित्त-द्विपदादिलक्षणं वस्तु तस्य क्षेत्रादौ सुन्यस्तदुर्व्यस्तविस्मृतस्य | स्वामिनाऽदत्तस्य चीर्यबुद्धयाऽऽदानं सचित्तादत्तादानं,आदानमिति ग्रहणं,अचित्तं वस्त्रकनकरलादि तस्यापि क्षेत्रादी सुन्यस्तदुयस्तविस्मृतस्य स्वामिनाऽदत्तस्य चौर्यबुध्ध्याऽऽदानमचिसादत्तादानमिति, अदत्तादाने के दोषाः?, अकर्जते वा के गुणा ?, एत्य इमं योदाहरणम्-जधा एगा गोही, सावगोऽवि ताए गोट्ठीए, एगस्थ य पगरणं वट्टति, जणे गते गोहील्लएहिं घरं पेल्लितं, थेरीए एकेको मोरपुत्तपाएसु पहंतीए अंकितो, पभाए रण्णो णिवेदितं, राया भणति-कथं ते जाणियबा ?, थेरी भणति-एते पादेसु अंकिता, णगरसमागमे दिहा, दो तिष्णि चत्तारि सबा गोडी गहिता, एगो सावगोभणति-ण हरामिण | लंछितो य, तेहिंवि भणितं-ण एस हरति मुको, इतरे सासिता, अविय सावयेण गोडिंण पविसितवं, किंचिवि पयोयणेण अक्रियमाणे वा के गुणाः १, अदमेवोदाहरण-पका गोष्टी, श्रावकोऽपि तस्यां गोच्यो, एकत्र प्रकरण परते, जने गते गोष्टीकैई सुटितं, 1८२२ स्थविरपैकको मयूरघुत्रपादः प्रतिष्ठन्लयाऽतितः, प्रभात राज्ञो निवेदितं, राजा भणति-कथं ते ज्ञातव्याः, स्थविरा भणति-पुते पादेवदिताः, नगरसमागमे दष्टाः द्वौ त्रयः सर्वा गोष्ठी गृहीता, एकः श्रावको भणति-न मुगामि न च लाञ्छितः, तरपि भणि-मैप मुष्णाति मुक्का, इतरे शासिताः अपि च श्रावकेण गोष्टयां न प्रयेटम्ब, यत् केनापि प्रयोजनेन JAMERaut पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~333 Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-३] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४३...], प्रत सूत्रांक [सू.३] पिविसति ता ववहारगहिंसादि ण देति, ण य तेसिं आयोगठाणेसु ठाति । इदं चातिचाररहितमनुपालनीयं, तथा चाह-17 'धूलगे'त्यादि स्थूलकादत्तादानविरमणस्य श्रमणोपासकेनामी पश्चातीचारा ज्ञातव्याः, न समाचरितव्याः, तद्यथा-स्तेना६ हृतं, स्तेना:-चौरास्तैराहत-आनीतं किश्चित् कुङ्कमादि देशान्तरात् तेनाहतं तत् समर्पमिति लोभाद् गृहृतोऽतिचारः, तस्कराः-चौरास्तेषां प्रयोगः-हरणक्रियायां प्रेरणमभ्यनुज्ञा तस्करप्रयोगः, तान् प्रयुक्ते-हरत यूयमिति, विरुद्धनृपयोयेंद् राज्यं तस्यातिक्रम:-अतिलहनं विरुद्धराज्यातिक्रमः, न हि ताभ्यां तत्र तदाऽतिक्रमोऽनुज्ञातः, 'कूटतुलाकूटमानं तुला प्रतीता मान-कुडयादि, कूटत्वं-न्यूनाधिकत्व, न्यूनया ददतोऽधिकया गृहृतोऽतिचारः, तेन-अधिकृतेन प्रतिरूपक-IN &सदृशं तत्पतिरूपक तस्य विविधमवहरणं व्यवहारः-प्रक्षेपस्तत्प्रतिरूपको व्यवहारः, यद्यत्र घटते प्रीह्यादि घृतादिषु पलञ्जीवसादि तस्य प्रक्षेप इतियावत् , तत्प्रतिरूपकेण वा वसादिना व्यवहरणं तत्प्रतिरूपकव्यवहारः, एतानि समाचरबन्नतिचरति तृतीयाणुव्रतमिति । दोसा पुण तेणाहडगहिते रायावि हणेज्जा, सामी वा पञ्चभिजाणेजा ततो दंडेज वा दमारेज वा इत्यादयः, शेषा अपि वक्तव्याः । उक्तं सातिचारं तृतीयाणुनतं, इदानी चतुर्थमुपदर्शयन्नाह परदारगमणं समणो पचवाति सदारसंतोसं वा पडिवजह से य परदारगमणे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-I दीप अनुक्रम [६६] प्रविशति तदा व्यवहारकदिसादि न ददाति न प सेषामायोगस्थानेषु तिष्ठति । २ दोषाः पुनः स्तेनाहते गृहीते राजाऽपि हन्यात् , स्वामी वा प्रत्यभिजानीयात् ततो दण्डवेत् मारयेद्रा, भा.१३८ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: अथ परदारागमनविरमणं व्रतस्य वर्णनं क्रियते ~3344 Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-४] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४३..., प्रत आवश्यक हारिभ- द्रीया ॥४२॥ सूत्रांक [सू.४] दीप अनुक्रम [६७]] ओरालियपरदारममणे वेउवियपरदारगमणे, सदारसंतोसस्स समणोवा इमे पंच०, तंजहा-अपरिगहि- प्रत्याख्या यागमणे इत्सरियपरिग्गहियागमणे अणंगकीडा परवीवाहकरणे कामभोगतिब्याभिलासे ४॥ (सू०) हैनाध्य ल श्रावकन| आत्मव्यतिरिक्तो योऽन्यः स परस्तस्य दारा:-कलत्रं परदारास्तस्मिन् (वेष)गमन परदारगमनं, गमचमासेवनरूपतया द्रष्टव्यं,श्रमणोपासकः प्रत्याख्यातीति पूर्ववत् , स्वकीया दारा:-स्वकलत्रमित्यर्थः, तेन (तैः) तस्मिन् (तेषु) वा संतोषः स्वदारसन्तोषः तं वा प्रतिपद्यते, इयमत्र भावना-परदारगमनप्रत्याख्याता यास्वेव परशब्दःप्रवर्तते, स्वदारसन्तुष्टस्त्वेकानेकस्वदारव्यतिरिक्ताभ्यःसर्वाभ्य एवेति, सेशन्दः पूर्ववत्, तच परदारगमनं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथेति पूर्ववत्, औदारिकपरदारगमन-d ख्यादिपरदारगमनं वैक्रियपरदारगमनं-देवाङ्गनागमनं, तथा चउत्थे अणुबते सामण्ण अणियत्तस्स दोसा-मातरमवि गच्छेजा, उदाहरण-गिरिणगरे तिपिण वयंसियाओ, ताओ उज्जतं यताओ, चोरेहिं गहिताओ, णेत्तुं पारसकले विकी तातो, ताण पुत्ता डहरगा परेमु उज्झियता, तेवि मित्ता जाता, मातासिणेहेण वाणिजेणं गवा पारसलं, ताओ य गणियाओ सहदेसियाउत्ति भाडि देंति, तेवि संपत्तीए सयाहि सयाहि गया, एगो सावगो, ताहि वऽप्पणीयाहि मालमिस्सियाहिं समं । ८२३॥ चतुर्थेऽणुनते सामान्यनानिवृत्तस्य दोषा मातरमपि गच्छेत् , उदाहरण-गिरिनगरे तिखो वपस्याः, ता उज्जयवं गताऔरहीताः, नीत्वा पारसकूले (विक्रीताः, तासां पुत्राः शुलका गृहेषु उमिता।, तेऽपि मित्राणि जाताः, मातृवेहेन वाणिज्येन गताः पारसफूल, तान गणिकाः सदेशीया इति भार्टी ददति, | वेऽपि भक्तिम्यतया स्वकीयायाः १(मातुः पामे) गताः, एकः श्रावकः, साभिनास्नीयाभिमतिमिमाभिः सम JABERatardia पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~335. Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-४] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४३..., प्रत सूत्रांक [सू.४] -- - होणाति, महिला अणिच्छणातुं तुणिका अच्छति, कातो तुझे आणीता?, ताए सिह, तेण भणित-अम्हे! चव तुम्हे पुत्ता, इयरेसि सि मोइया पचइता, एते अणिवित्ताणं दोसा। विदियं-धूताएवि समं वसेजा, जधा गुबिणीए भजाए। दिसागमणं, पेसितं जधा ते धूता जाता, सोऽवि ता ववहरति जाव जोवणं पत्ता, अण्णा (अण्ण)णगरे दिण्णा सोण याणति जधा दिग्णत्ति, सो पडियंतो तम्मि णगरे मा भंड विणस्सिहितित्ति चरिसारत्तं ठितो, तस्स तीए धूताए समं घडित, तहवि ण याणति, वत्ते वासारते गतो सणगरं, धूतागमणं, दट्टणं विलियाणि, नियतु ताए मारितो अप्पा, इयरोऽवि पतितो। ततियं-गोडीए समं चेडो अच्छति, तस्स सा माता हिंडति, सुण्हा से णियगएत्ति णो साहद पति, सा तस्स माता देवकलठितेहिं धुत्तेहिं गच्छंती दिद्य, तेहिं परिभुत्ता, मातापुत्ताणं पोत्ताणि परियत्तिताणि, तीए भण्णति-महिलाए कीस ते उवरिल पोत्तं गहितं, हा पाव ! किं ते कतं ?, सो णडो पचइतो। चउत्थं-जमलाणि गणियाए उज्झिताणि, मपिताः, सो नेपछति, महेला अनिच्छा ज्ञात्वा तूगीका तिष्ठति, कुतो यूवमानीता, तयोर्क, तेन भणित-वयमेव युष्माकं पुयाः, इतरेषां शिष्ट, मोषिताप्रमजिताः, एतेऽनिवृत्तानां दोपाः । द्वितीय-दुहिनाऽपि समं बसेन, यथा गर्भिण्या भार्या दिग्गमन, प्रेषितं यथा ते दुहिता जाता, सोऽपि तावत् मबहरति वावचौवनं प्राप्ता, अन्यान्यस्मिन् नगरे दत्ता स न जानाति यथा दति, स प्रत्यागउन् तस्मिन्नगरे मा भादं विनेशदिति पारा स्थितः, तस्य तया दुहित्रा समं संयोगो जातः, तथापि न जानाति, मृत्ते अपाराने गतः स्वनगरं, दुहिवागमन, दृष्ट्वा विलजिती, निवृत्य तया मारित चेटनिति, तब सा माता हिपडते, स्नुषा तथा निजकेति न कथयति पत्र, सा तय माता देवकुलस्थिवैनर्गठम्ती या तैः परिभुक्ता, मातृपुत्रयोषने परावृत्ते, तया भण्पते-महेलायाः कथं स्वयोपरितनं पश्यं गृहीतं , दा पाप ! पिया कृतं ?, स नष्टः प्रवजितः । चतुर्थ-यमलं गणिकयोविझतं, दीप अनुक्रम [६७]] Manmiarary om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~336~ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-४] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४३..., + -2 आवश्यक- हारिभद्रीया प्रत्याख्या नाध्या प्रत ताधिक ॥८२४|| सूत्रांक [सू.४] पत्तेहिं मित्तेहिं गहिताणि वटृति, तेसिं पुषसंठितीए संजोगो कतो, अण्णदा सो दारगो ताए गणियाए पुश्वमाताए सह लग्गो, सा से भगिणी धम्म सोतुं पाइता, ओहीणाणमुप्पण्णं, गणियाघरं गता, तेण गणियाए पुत्तो जातो, अज्जा गहाय परियंदाइ, कह?,पुत्तोऽसि मे भत्तिजओऽसि मे दारगा देवरोऽसि मे भायासि मे, जो तुझ पिता सो मज्झ पिया पती य ससुरो य भाता य मे, जा तुझ माया सा में माया भाउज्जाइया सवत्तिणी सासू य, एवं नाऊण दोसे बजेयवं । एते इहलोए दोसा परलोए पुण णपुंसगत्तविरूवपियविप्पयोगादिदोसा भवन्ति, णियत्तस्स इहलोए परलोए य गुणा, इहलोए कच्छे कुलपुत्तगाणि सहाणि आणंदपूरे, एगो य धिज्जातिओ दरिदो, सो थूलेसरे उववासेण वरं मग्गति, कोवे (र) चाउवेजभत्तस्स मोल देहि,जा पुण्णं करेमि, तेण वाणमंतरेण भणितं-कच्छे सावगाणि कुलपुत्ताणि भजपतियाणि, एयाणं भत्तं करेहि, ते महष्फलं होहिति, दोषिण वारा भणितो गतो कच्छ, दिण्णं दाणं सावयाणं भत्तं दक्खिणं च, भणति-साहध किं तुझं तवचरणं जेण तुझे | SAC-% दीप अनुक्रम [६७]] % प्राप्तमित्रगृहीतं वर्तते, तयोः पूर्वसंस्थित्या संयोगः कृता, अन्यदा स दारकमाया गणिकया पूर्षमात्रा सहनमा, सा तस्य भगिनी धर्म श्रुत्वा प्रय | जिता, अवधिज्ञानमुत्पर्य, गणिकागृहं गता, तेन गणिकायां पुत्रो जातः, आर्या गृहीत्वा क्रीडति (ग्लापयति), कथं १, पुत्रोऽसि मे भ्रातृश्योऽसि मे दारक! देवाऽसि मे प्रावाऽसि मे, यसव पिता स मम पिता पतिःवशरो प्राता च में, या तव माता सा मे माता भ्रातृजाया का सपनी च, एवं ज्ञात्वा दोषान् वर्जयितव्यं । एते इहलोक दोपा परलोके पुनर्नपुंसकत्व विरूपत्वप्रियविषयोगादयो दोषा भवन्ति, निवृत्तसेहकोके परलोके व गुणा, इहलो के कच्छे कुलपुत्री शाही आनन्दपुरे, एका धिरजाशीयो दरिमः स स्कूलेश्वर (म्यन्तर) उपवासेनाराज्य वरं मार्गयति-कुबेर ! चानुयभक्कम मूल्यं देहि यतः पुण्यं करोमि, तेन च्यन्तरेण कथितं-कच्छे भावकी कुलपुत्री भार्यापती, एताभ्यां भक्त देहि, तव महत्फलं भविष्यति, दिर्भणितो यतः कच्छ, दचं दानं श्रावकाम्यां भक्तं दक्षिणां च, भणति-कथयतं किं युजयोस्तपश्चरणं येन युवा ||८२४॥ % SSSS JABERamS ainatorary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~337 Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-४] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४३...], प्रत सूत्रांक [सू.४] 20 देवस्स पुजाणि ?, तेहिं भणित-अम्हे बालभावे एगंतरं मेथुणं पचक्खायं, अण्णदा अम्हाणं किहवि संजोगो जातो, तेच विवरीयं समावड़ियं, जद्दिवसं एगस्स बंभचेरपोसधो तदिवसं विइयस्स पारणगं, एवं अम्ह घरंगताणि चेव कुमारगाणि, धिज्जातितो संबुद्धो । एते इहलोए गुणा, परलोए पधाणपुरिसत्तं देवत्ते पहाणातो अच्छराओ मणुयत्ते पधाणाओ माणुसीतो बिउला य पंचलक्खणा भोगा पियसंपयोगा य आसण्णसिद्धिगमणं चेति । इदं चातिचाररहितमनुपालनीयं, तथा चाह-'सदारसंतोसस्स' इत्यादि, स्वदारसन्तोषस्य श्रमणोपासकेनामी पञ्चातिचारा ज्ञातव्याः न समाचरितव्यास्तद्यथा| इत्वरपरिगृहीतागमनं अपरिगृहीतागमनं अनङ्गक्रीडा परविवाहकरणं कामभोगतीब्राभिलाषः, तत्रेवरकालपरिगृहीता ४ कालशब्दलोपादित्वरपरिगृहीता, भाटिप्रदानेन कियन्तमपि कालं दिवसमासादिक ववशीकृतेत्यर्थः, तस्या गमनम्है अभिगमो मैथुनासेवना इत्वरपरिगृहीतागमनं, अपरिगृहीताया गमनं अपरिगृहीतागमनं, अपरिगृहीता नाम वेश्या अभ्य सत्कगृहीतभाटी कुलाङ्गना वाऽनाथेति, अनङ्गानि च-कुचकक्षोरुवदनादीनि तेषु कीडनमनङ्गक्रीडा, अथवाऽनङ्गो मोहो-12 ४दयोद्भूतः तीवो मैथुनाध्यवसायाख्यः कामो भण्यते तेन तस्मिन् वा क्रीडा कृतकृत्यस्यापि वलिङ्गेन आहायः काष्ठ-12 फलपुस्तकमृत्तिकाचादिघटितप्रजननयोंषिदवाच्यप्रदेशासेवनमित्यर्थः, परविवाहकरणमितीह स्वापत्यव्यतिरिक्तमपत्य देवखापि फूल्यो', साभ्यो भणित-आधाभ्यो बाल्ये एकान्तरित मैथुनं प्रत्यास्वातं, अन्यदाऽऽथयो। कथमपि संयोगो जाता, तब विपरीतमापतितं, | यदिपसे एकस्य ब्रह्मचर्थपोषधः तहिचसे द्वितीयस्थ पारणकमेवमा गृहगताव कुमारी, धिम्जातीयः संबुद्धः । एते ऐहलौकिका गुणाः, परलोके प्रधानपुरुषवं देवरवे प्रधाना अप्सरसो मनुजावे प्रधाना मानुष्यो विपुलाच पञ्चलक्षणा भोगाः प्रियसंप्रयोगाश्वासनसिद्धिगमनं च। दीप अनुक्रम [६७]] - - -- - - - - dhorary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~338~ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-४] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४३...], (४०) आवश्यक --- द्रीया प्रत ॐ ॥८२५॥ % सूत्रांक [सू.४] ACAN परशब्देनोच्यते तस्य कन्याफललिप्सया स्नेहबन्धेन या विवाहकरणमिति, अवि य-उस्तग्गे णियगावच्चाणवि वरणसंवरणं प्रत्याख्या ण करेति किमंग पुण अण्णेसि ?, जो वा जत्तियाण आगारं करेइ, तत्तिया कप्पंति, सेसा ण कप्पति, ण बद्दति महती नाध्य० दारिया दिजउ गोधणे वा संडो छुपेज्जेति भणि । काम्यन्त इति कामाः-शब्दरूपगन्धा भुज्यन्त इति भोगा-रसस्पर्शाः। श्रावकाकामभोगेषु तीब्राभिलाषः, तीवाभिलापो नाम तदध्यवसायित्वं, तस्माचेदं करोति-समाप्तरतोऽपि योपिन्मुखोपस्थकर्णकक्षा ताधिक न्तरेवतृप्ततया प्रक्षिप्य लिङ्ग मृत इव आस्ते निश्चलो महती वेलामिति, दन्तनखोपलपत्रकादिभिर्वा मदनमुनेजयति, वाजीकरणानि चोपयुक्ते, योषिदवाच्यदेशं वा मृदुनाति । एतानीत्वरपरिगृहीतगमनादीनि समाचरन्नतिचरति चतुर्थाणुव्रतमिति । एत्थ य आदिला दो अतियारा सदारसंतुहस्स भवंति णो परदारविवज्जगस्स, सेसा पुण दोण्हवि भवन्ति, दोसा पुण इत्तरियपरिगहितागमणे विदिएण सद्धिं वरं होज मारेज तालेज वा इत्यादयः, एवं सेसेसुवि भाणियवा । उकं सातिचार चतुर्थाणुव्रतं । अधुना पञ्चमं प्रतिपाद्यते, तत्रेदं सूत्रम् - अपरिमियपरिग्गहं समणो० इच्छापरिमाणं उपसंपजह से परिग्गहे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-सचित्तपरिग्गहे अचित्तपरिग्गहे य, इच्छापरिमाणस्स समणोवा इमे पंच०-वणवन्नपमाणाइकमे खित्तवत्थुपमाणाइकमेर |हिरनमुवन्नपमाणाइक्कमे दुपयचउप्पयपमाणाइकमे कुबियपमाणाइकमे ५॥ (सू०) 11८२५॥ अपि च उत्समें निजफापखानामपि घरणसंवरणं न करोति किंपुनरम्येषां ?, यो पा पावतामाकारं करोति तावन्तः कल्पम्ते, शेषा न कापन्ते, न बुज्यते महती दारिका ददातु गोधने वा पण्डः क्षिपरिवति भणितुं । २ अब चाची हावतिचारी स्वदारसंतुष्टस्य भवतः न परदारविवर्जस्य, शेषाः पुनईयोरपि |भवन्ति, दोषाः पुनरिवरपरिगृहीतागमने द्वितीयेन सार्थ वैर भवेत् मारयेत् ताब्वेदा, एवं शेषेवपि भणितष्पाः, दीप अनुक्रम [६७]] Jantaintime पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: अथ परिग्रहपरिमाणं व्रतस्य वर्णनं क्रियते ~339~ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-१] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४३..., प्रत सूत्रांक [सू.५] CARE 'अपरिमितपरिग्गहं समणोवासतो पञ्चक्खाति' परिग्रहणं परिग्रहः अपरिमितः-अपरिमाणः तं श्रमणोपासका प्रत्याख्याति, सचित्तादेः अपरिमाणात् परिग्रहादू बिरमतीति भावना, इच्छायाः परिमाणं २ तदुपसम्पद्यते,सचित्तादिगोचरेछापरिमाणं करोतीत्यर्थः । स च परिग्रहो द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथेत्येतत् प्राग्वत्, सह चित्तेन सचित्तं-द्विपदचतुष्पदादि तदेव परिग्रहः अचित्त-रत्नवस्त्रकुष्यादि तदेव चाचित्तपरिग्रहः । एत्थ य पंचमअणुषते अणियत्तस्स दोसे नियत्तस्स य गुणे, तत्थोदाहरणम्-लुनंदो कुसीमूलिय लडु विणहो नंदो सावगो पूइतो भंडागारवती ठवितो, अहवावि वाणिणी रतणाणि विकिणति बुद्धाए मरंती, सडेण भणिता-एत्तिअपरिक्खओ णस्थि, अण्णस्स णीताणि, ताए भण्णति-जं जोग्गं तं देहि, सो पत्थं देव, सुभक्खे तीए भत्तारो आगतो, पुच्छति-रतणाणि कहिं , भणति-विकियाणि मए, कह ?, सा भणइ-गोहमसेइयाए एकेक दिन्नं अमुगरस वाणियगस्स, सो वाणियगो तेण भणिओ-रयणा अप्पेह पूरं वा मोल देहि, सो नेच्छा, तो रणो मूलं गतो एरिसे अग्धे वट्टमाणे एतस्स एतेण एत्तियं दिण्णं, सो विणासितो, पढम पुण ताणि १ अन च पञ्चमायुक्ते अनिवृत्तस दोषा निवृत्तस्य च गुणाः, तन्त्रोदाहरण-लोभनन्दः कुशीमूलिका ला विनष्टः, नन्दः श्रावका पूजितो भाण्डागारपतिः | स्थापिता, अधयाऽपि वजिम्माय खानि विक्रीणाति क्षुधा त्रियमाणा, मावेन भण्यते-ऐयस्परीक्षको नाभि, अम्बस्स पार नीतानि, सपा भण्य-योग्य तदहि, स प्रस्थं ददाति सुभिक्षे तथा भाडातः, पृच्छति-रखानि १, भणति-विक्रीतानि मथा, कथं', सा भणति-गोधूमसेलिपिक दत्तममुकरमै पणिजे, स पणिक वेन भणिता-रखान्यर्पय पूर्ण वा मूल्यं देहि, स नेपछति, ततो राज्ञो मूलं गतः-देशे वर्तमाने एततेनेवारी, सविनाशितः प्रथमं पुनस्तानि दीप अनुक्रम [६८] ** * JABERating Angionary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~340 Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-१] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४३..., प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यक-रतणाणि सावगस्स विकिणियाणि तेण परिग्गहपरिमाणाइरित्ताइंतिकाउं न गहियाणि, सावगेण णेच्छितं, सो पूइतो प्रत्याख्या हारिम- | इदं चातिचाररहितमनुपालनीयं, तथा चाह-इच्छापरिमाणस्स समणोवासएणं०' इच्छापरिमाणस्य श्रमणोपासकेनामी। |माध्य द्रीया पञ्चातिचारा ज्ञातव्याः न समाचरितव्याः, तद्यथेति पूर्ववत् , क्षेत्रवास्तुप्रमाणातिक्रमः तत्र शस्योत्पत्तिभूमिः क्षेत्रं, तच्च श्रावक८२६॥ सेतुकेतुभेदाद् द्विभेदं, तत्र सेतुक्षेत्र अरघट्टादिसेक्य, केतुक्षेत्रं पुनराकाशपतितोदकनिष्पाय, वास्तु-अगारं तदपि विविधखातमुत्सृतं खातोच्छ्रितं च, तत्र खातं-भूमिगृहकादि उच्छ्रतं-प्रासादादि, खातोछूित-भूमिगृहस्योपरि प्रासादः, एतेषां क्षेत्रवास्तूनां प्रमाणातिक्रमः, प्रत्याख्यानकालगृहीतप्रमाणोल्लहनमित्यर्थः । तथा हिरण्यसुवर्णप्रमाणातिक्रमस्तत्र हिरण्यंरजतमघटितं घटितं वा अनेकप्रकारं द्रम्मादिः, सुवर्ण प्रतीतमेव तदपि घटिताघटित, एतद्ग्रहणाच्येन्द्रनीलमरकताधुप-| लग्रहः, अक्षरगमनिका पूर्ववदेव, तथा धनधान्यप्रमाणातिक्रमः, तत्र धनं-गुडशर्करादि, गोमहिष्यजाषिकाकरभतुरगा-1 द्यन्ये, धान्य-श्रीहिकोद्रवमुद्गमापतिलगोधूमयवादि, अक्षरगमनिका प्रागवदेव, तथा द्विपदचतुष्पदप्रमाणातिक्रमः, तत्र द्विपदादीनि-दासीमयूरहंसादीनि, चतुष्पदानि-हस्त्यश्वमहिष्यादीनि, अक्षरगमनिका पूर्ववदेव, तथा कुप्यप्रमाणातिक्रमः, तत्र कुप्यं-आसनशयनभण्डककरोटकलोहाद्युपस्करजातमुच्यते, एतद्ग्रहणाच्च वस्त्रकम्बलपरिग्रहः, अक्षरगमनिका पूर्ववदेव, तान् क्षेत्रवास्तुप्रमाणातिक्रमादीन् समाचरन्नतिचरति पञ्चमाणुव्रतमिति । एस्थ य दोसा जीवघातादि। भणितया । उक्तं सातिचारं पञ्चमाणुव्रतम् इत्युक्तान्यणुव्रतानि, साम्प्रतमेतेषामेवाणुव्रतानां परिपालनाय भावनाभूतानि | | रत्नानि श्रावकाय विक्रेतुं नीतानि, तेन परिप्रहप्रमाणातिरिक्तानीतिकृत्वा न गृहीतानि, श्रावकेण नेष्टं, स पूजितः, २ अब च दोषा जीवधातादयो भणितव्याः || दीप अनुक्रम [६८] ॥८२६॥ JABERatini M aroo पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~341 Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-५] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४३...', प्रत सूत्रांक [सू.५] -CHICK5 गुणवतान्यभिधीयन्ते-तानि पुनस्त्रीणि भवन्ति, तद्यथा-दिगनतं उपभोगपरिमाणं अनर्थदण्डपरिवर्जनमिति, तत्राद्यगुणवतस्वरूपाभिधित्सयाऽऽह दिसिवए तिविहे पन्नत्ते-अदिसिवए अहोदिसिवए तिरियदिसिवए, दिसिवयस्स समणो इमे पञ्चतंजहादिउहदिसिपमाणाइकमे अहोदिसिपमाणाइक्कमे तिरियदिसिपमाणाइकमे खित्तवुड्डी सइअंतरद्धा ६॥ (सूत्र) AI दिशो ह्यनेकप्रकाराः शास्त्रे वर्णिताः, तत्र सूर्योपलक्षिता पूर्वा शेषाश्च पूर्वदक्षिणादिकास्तदनुक्रमेण द्रष्टव्याः, तत्र दिशां। संवन्धि दिक्षु वा ब्रतमेतावत्सु पूर्वादिविभागेषु मया गमनाद्यनुष्ठेयं न परत इत्येवंभूतं दिगवतं, एतचौघतः त्रिविधं प्रज्ञष्ट तीर्थकरगणधरैः, तद्यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः, ऊध्वादिग् ऊचे दिग् तत्सम्बन्धि तस्यांबा व्रतं ऊर्ध्व दिग्वतं,पतावती दिगूद्ध पर्वताचारोहणादवगाहनीया न परत इत्येवंभूतं इति भावना, अधो दिग अधोदिक तत्सम्बन्धि तस्यां वा प्रतं अधोदिगव्रतं-अर्वाग्दिगत्रतम् , एतावती दिगध इन्द्रकूपाद्यवतरणादवगाहनीया न परत इत्येवंभूतमिति हृदयं, तिर्यक् दिशस्तिर्यग्दिशः-पूर्वादिकास्तासां सम्बन्धि तासु वा व्रतं तिर्यग्वतं, एतावती दिन पूर्वेणावगाहनीया एतावती दक्षिणेनेत्यादि, न परत इत्येवंभूतमिति भावार्थः । अस्मिंश्च सत्यवगृहीतक्षेत्राद् बहिः स्थावरजङ्गमप्राणिगोचरो दण्डः परित्यक्तो भवतीति गुणः । इदमतिचाररहितमनुपालनीयमतोऽस्यैवातिचारानभिधित्सुराह-'दिसिवयस्स समणो' दिग्बतस्य उक्तरूपस्य श्रमणोपासकेनामी पञ्चातिचारा ज्ञातव्याः न समाचरितव्याः, तद्यथा-ऊर्ध्वदिममाणातिक्रमः यावत्पमाणं परिगृहीतं तस्यातिलानमित्यर्थः, एवमन्यत्रापि भावना कार्या, अधोदिक्प्रमाणातिक्रमः, तिर्यगदिममाणातिक्रमः, क्षेत्रस्य वृद्धिः। दीप अनुक्रम [६८] - %- -56--56-0- JAMEairabina Satarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: अथ दिक्परिमाणं व्रतस्य वर्णनं क्रियते ~342 Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-६] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४३...], प्रत्याख्या नाध्य० प्रत ताधिक सूत्रांक [सू.६] आवश्यक-क्षेत्रवृद्धिः [इति -एकतो योजनशतपरिमाणमभिगृहीतमन्यतो दश योजनानि गृहीतानि तस्यां दिशि समुपन्ने कार्य हारिभ- योजनशतमध्यादपनीयान्यानि दश योजनानि तत्रैय स्वबुद्ध्या प्रक्षिपति, संवर्द्धयत्येकत इत्यर्थः, स्मृतेर्धश:-अन्तान। द्रीया स्मृत्यन्त नं किं मया परिगृहीतं कया मर्योदया प्रतमित्येवमननुस्मरणमित्यर्थः, स्मृतिमूलं नियमानुष्ठानं, तभ्रंशे तु निय॥८२७॥ मत एव नियमभ्रंश इत्यतिचारः । एत्थ य सामाचारी-उहं जं पमाणं गहितं तस्स उवरि पचतसिहरे रुक्खे बा मकडो पक्खी वा सावयस्स वत्थं आभरणं वा गेण्हितुं पमाणातिरेकं उवरि भूमि बच्चेज्जा, तत्थ से ण कप्पति गंतुं, जाधे तु पडितं अण्णेण वा आणितं ताधे कप्पति, इदं पुण अद्यावय हेमकुडसम्मेयसुपतिउज्जतचित्तकूडअंजणगमंदरादिसु।। पवतेसु भवेजा, एवं अधेवि कूवियादिसु विभासा, तिरियं जंपमाणं गहितं तं तिविधेणवि करणेण णातिक्कमितवं, खेत्तवुड्डी सावगेण ण कायबा, कथं !, सो पुबेण भंडं गहाय गतो जाव तं परिमाणं ततो परेण भंडं अग्पतित्तिकातुं अवरेण आणि जोयणाणि पुबदिसाए संछुभति, एसा खेतवुड्डी से ण कप्पति कातुं, सिय जति वोलीणो होजा णियत्तियवं, विस्तारिते य दीप अनुक्रम [६९] %20-0-70 ८२७॥ अत्र च सामाचारी ऊर्य यत् प्रमाणं गृहीतं तस्योपरि पर्वतशिखरे वृक्षे वा मर्कटः पक्षी या श्रावकस वसमाभरणं वा गृहीत्वा प्रमाणातिरेकामुपरिभूमि ब्रजेत् , तन्त्र तस्य न कल्पते गन्त, यदा तु पतितं अन्येन वा मानीतं तदा कल्पते, इदं पुनरष्टापदहेमकुण्डसमेतमुप्रतिष्ठोजवन्तचित्रकूटाअनकमन्द || रादिषु पर्वतेषु भवेत्, एवमधोऽपि कूपिकादिषु विभाषा,तिर्यग् यत् प्रमाणं गृहीतं तत् निविधेनापि करणेन तनातिकान्तव्यं, क्षेत्रवृद्धिः श्रावकेण न कर्तपा,11 १ का ?, स पूर्वस्वां भाण्वं गृहीत्वा गतो यावत्तत्प्रमाणं ततः परतो भाण्डमपंतीतिकृत्वाऽपरस्यां यानि योजनानि (तानि) पूर्वस्यां दिशि क्षिपति, एपा क्षेत्र | वृद्धिस्तस्य न कापते कर्त, स्थायधतिकान्तो भवेत् निपतितव्य, विस्मतेच Farorary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~343 Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-६] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४३...], प्रत सूत्रांक [सू.६] Mण गंतवं, अण्णोवि ण विसज्जितयो, अणाणाए कोवि गतो होज जं विसुमरियखेत्तगतेण लद्धं ते ण गेहेजत्ति। [० २१००० ] उक्तं सातिचारं प्रथमं गुणवतं अधुना द्वितीयमुच्यते, तत्रेदं सूत्र उवभोगपरिभोगवए दुविहे पन्नत्ते तंजहा-भोअणओ कम्मओ अ । भोअणओ समणोचा इमे पञ्चसचित्ताहारे सचित्तपडियद्धाहारे अप्पउलिओसहिभक्खणया तुच्छोसहिभ० दुप्पउलिओसहिभक्खणया ७॥ | उपभुग्यत इत्युपभोगः, उपशब्दः सकृदर्थे वर्तते, सकृद्रोग उपभोग:-अशनपानादि, अथवाऽन्तर्भोगः उपभोगः-14 आहारादि, उपशब्दोऽत्रान्तर्वचनः, परिभुज्यत इति परिभोगः, परिशब्दोऽत्रावृत्तौ वर्त्तते, पुनः पुनर्भोमा बस्खादेः परिभोग: इति, अथवा पहिोगः परिभोग एवमेव वसनालङ्कारादेः, अत्र परिशब्दो बहिर्वाचक इति, एतदूविषयं प्रत-उपभोवपरिभोग-18 व्रतं, एतत् तीर्थकरगणधरैदिविध प्रज्ञप्त, तद्यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः, भोजनतः कर्मतश्च, तब भोजनत उत्सर्गेण निरवद्याहारहा भोजिना भवितव्यं, कर्मतोऽपि प्रायो निरवद्यकर्मानुष्ठानयुक्तनेत्यक्षरार्थः ।ह चेवं सामाचारी-भोयेणतो सागो उस्सग्गेण फासुगं आहारं आहारेजा, तस्सासति अफासुगमवि सचित्तवज, तस्स असती अर्णतकायबहुवीयमागि परिहरितबाणि, दीप अनुक्रम [६९] न गन्तव्यं, अन्धोऽपि न विसर्जनीयः, अनाज्ञया कोऽपि गतो भवेत् यझिस्मृतक्षेत्रे च गतेन कन्धं तत्र गृतीयात् इति । २ भोजनतः श्रावक उत्सगंग प्रानुकनाहारमाहरेत् , तक्षिासति अप्रासुकामपि सचिवर्ण, तखितसति मनन्तकापपीजकानि परिएसंग्यानि, AISEastin Enatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: अथ उवभोग-परिभोग परिमाणं व्रतस्य वर्णनं क्रियते ~3444 Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-७] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४३...], आवश्यक हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥८२८॥ [सू.७] | इमं च अण्णं भोयणतो परिहरति-असणे अणतकार्य अल्लगमूलगादि मंसं च, पाणे मंसरसमज्जादि, खादिमे उदुंबरका- ६प्रत्याख्य उंबरवडपिप्पलपिलखुमादि, सादिमं मधुमादि, अचित्तं च आहारेयचं, जदा किर ण होज अचित्तो तो उस्सग्गेण भत्तं । | नाध्य पच्चक्खातितर्वण तरति ताधे अवधाएण सचित्तं अणंतकायबहुवीयगवज्ज, कम्मतोऽवि अकम्मा ण तरति जीवितुं ताधे| श्रावकत्रद अचंतसावजाणि परिहरिजति । इदमपि चातिचाररहितमनुपालनीयमित्यतस्तस्यैवातिचारानभिधित्सुराह-भोयणतो ताधिक समणोवासएण' भोजनतो यदूतमुक्तं तदाश्रित्य श्रमणोपासकेनामी पश्चातिचारा ज्ञातव्या न समाचरितव्याः, तद्यथासचित्ताहारः' सचित्तं चेतना संज्ञानमुपयोगोषधानमिति पर्यायाः,सचित्तश्चासौ आहारश्चेति समासः, सचित्तो वा आहारो यस्य सचित्तमाहारयति इति वा मूलकन्दलीकन्दकाकादिसाधारणप्रत्येकतरुशरीराणि सचित्तानि सचित्तं पृथिव्याद्या-11 हारयतीति भावना । तथा सचित्तप्रतिवद्धाहारो यथा वृक्षे प्रतिबद्धो गुन्दादि पक्कफलानि वा । तथा अपक्कौषधभक्षणत्वमिदं प्रतीतं, सचित्तसंमिश्राहार इति वा पाठान्तरं, सचित्तेन संमिश्र आहारः सचित्तसंमिश्राहारः, वल्यादि पुष्पादि| वा संमिश्र, तथा दुष्पकौषधिभक्षणता दुष्पका:-अस्विन्ना इत्यर्थः तभक्षणता, तथा तुच्छीपधिभक्षणता तुच्छा हि असारा मुद्गफलीप्रभृतयः, अत्र हि महती विराधना अल्पा च तुष्टिः, बहिभिरप्यहिकोऽप्यपायः सम्भाव्यते । ऐस्थ इई चान्यत् भोजनतः परिहरति-अशनेऽनन्तकार्य भाईकमूलकादि मांसं च, पाने मांसरसमजादि, खाये उदुम्बरकाकोन्दुवरवटपिप्पललक्षादि खाये मध्वादि, अपित्तं चाहतंय, यदा किल न भवेत् अचित्त उत्सर्येण भक्तं प्रत्याख्यातव्यं न शक्नोति तदाऽपवादेन सचिचं अनन्तकायवहुपीजकन, कर्मतोऽप्य|कर्मा न शक्नोति जीवितुं तदात्यन्तसावधानि परिडियन्ते । २ अत्र दीप अनुक्रम [७०] -IX JAMEaurahim Indiarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~345 Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-७] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५६१...] भाष्यं [२४३...], प्रत सूत्रांक [सू.७] सिंगाखायकोदाहरण-खेत्तरक्खगो सिंगातो खाति, राया णिग्गच्छति, मझण्हे पडिगतो, तधावि खायति, रण्णा कोउएण नापोट्ट फालावितं केत्तियाओ खइताओ होजत्ति, पवरि फेणो अन्नं किंचि णस्थि, एवं भोजन इति गतं । अधुना कर्मतो।। यत् प्रतमुक्तं तदप्यतिचाररहितमनुपालनीयं इत्यतोऽस्थातिचारानभिधिरसुराह कम्मओ णं समणोवाइमाई पन्नरस कम्मादाणाई जा, तंजहा-इंगालकम्मे वणकम्मे साडीकम्मे | भाडीकम्मे फोडीकम्मे, दंतवाणिज्जे लक्खवाणिजे रसवाणिज्जे केसवाणिज्जे विसवाणिज्जे, जैतपीलणकम्मे निर्दछणकम्मे दवग्गिदावणया सरदहतलायसोसणया असईपोसणया ७॥ (सूत्रं)॥ X कर्मतो यद् व्रतमुक्त णमिति वाक्यालङ्कारे तदानित्य श्रमणोपासकेनामूनि-प्रस्तुतानि पञ्चदशेतिसक्या कर्मादानानी त्यसावद्यजीवनोपायाभावेऽपि तेषामुत्कटज्ञानावरणीयादिकमहेतुत्वादादानानि कर्मादानानि ज्ञातव्यानि न समाचरितव्यानि । तद्यथेत्यादि पूर्ववत् , अङ्गारकर्म-अङ्गारकरणविक्रयक्रिया, एवं वनशकटभाटकस्फोटना दन्तलाक्षारसविषकेशवाणिज्यं च यंत्रपीडननिर्बाञ्छनदवदापनसरोहदादिपरिशोषणासतीपोषणास्वपि द्रष्टव्यमित्यक्षरार्थः । भावार्थस्वयं-'गालकमंति, इंगाला निद्दहितुं विक्किणति, तत्थ छहं कायाणं वधो तं न कप्पति, वणकर्म-जो वर्ण किणति, दीप अनुक्रम [७०] शिम्बासादक उदाहरणं क्षेत्ररक्षकः शिम्बा: खादति, राजा निर्गरछति, मध्याहे प्रतिगतः, तत्रापि खादति, राज्ञा कौतुकेनोदरं पाटितं कियवः सादिता भवेयुरिति, नवरं फेनः, अन्यरिकमपि नाति । २ अङ्गारकर्मति-महारान् निर्दश विक्रीजाति तत्र पपणां कायानां वधमान्न कल्पते, वनकर्म यो वनं क्रीणाति, मा०128 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~346 Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-७] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४३..., प्रत सूत्रांक [सू.७] आवश्यक पच्छा रुक्खे छिंदित्तुं मुल्लेण जीवति, एवं पणिगादि पडिसिद्धा हवंति, साडीकम्म-सागडीयत्तणेण जीवति, तत्थ बंधवधमाई प्रत्याख्या हारिभ- दोसा, भाडीकम्म-सएण भंडोवक्खरेण भाडएण वहइ, परायगं ण कप्पति, अण्णेसिं वा सगडं बलदेय न देति, एवमादी । नाध्य दीदा कातुंण कप्पति, फोडिकम्म-उदत्तेणं हलेण वा भूमीफोडणं, दंतवाणिज-पुषिं चेव पुलिंदाणं मुलं देति दंते देजा वत्ति, श्रावकत्र जापच्छा पुलिंदा हत्थी घातेति, अचिरा सो वाणियओ एहिइत्तिकात, एवं धीम्मरगाणं संखमुलं देंति, एवमादी ण कप्पति. ताधिक ॥२९॥ पुवाणीतं किणति, लक्खवाणिजेऽवि एते चेव दोसा-तत्थ किमिया होति, रसवाणिज-कल्लालसणं सुरादि तत्थ पाणे बहुदोसा मारणअकोसवधादी तम्हा ण कप्पति, विसवाणिज्ज-विसविकयो से ण कप्पति, तेण बहूण जीवाणं विराधणा, केस-18 वाणिज-दासीओ गहाय अण्णस्थ विकिणति जत्थ अग्घंति, एत्थवि अणेगे दोसा परवसत्तादयो, जैतपीलणकम्म-तेल्लिय |जंतं उच्छुजन्तं चकादि तंपि ण कप्पते, जिल्लंछणकम्म-बद्धेउं गोणादि ण कप्पति, दवग्गिदावणताकर्म-वणदवं देति पश्चाक्षान् विधा मूल्येन जीपति, पूर्व पण्याचा प्रतिषिद्धा भवन्ति, शाकटिककर्म-शाकटिकस्येन जीवति, तन्त्र बन्धपधादिका दोषाः, भाटीकर्म|स्वकीयेन भाण्डोपस्करण भाटकेन वहति परकीयं न कल्पते, अन्येभ्यो वा शकट बलीवदी चन ददाति, एवमादि कर्तुं न कल्पते, स्फोटिकर्म-तुदण हलेनर वा भूमिस्फोटनं, दन्तवाणिज्य-पूर्वमेव पुलिन्द्रेन्यो मूल्यं ददाति, दन्तान् दद्यातेति, पश्चात् पुलिन्दा हस्तिनो घातयन्ति अचिरात् स वणिक् आवास्यतीतिकृत्वा, एवं धीवराणां शङ्खमूल्यं ददाति, एवमादिन कल्पते, पूर्वानीतं कीणाति, लाक्षावाणिज्येऽपि एत एव दोषास्तत्र कृमयो भवन्ति, रखवाणिज्य-कोला IM८२९॥ लावं सुरादि तत्र पाने बहवो दोषाः मारणाको शवधादयस्तस्मान्न कल्पते, विषवाणिज्यं विषविक्रयतस्य न कल्पते, तेन बहनो जीवानां विराधना, केशवापाणिज्यं दासीसीरवाऽम्पन्न विक्रीणाति यत्रान्ति, अत्राप्यनेके दोषाः परवशत्वादयः, यन्त्रपीडनकर्म-तैलिक बन्न इक्षुयन्त्र चादि तदपि न कल्पते, नि छनकर्म-पर्धयितुं गवादीन् न कल्पते, दवाधिदापनताकर्म वनवं ददाति दीप - अनुक्रम - [७१] JanEairat antarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~347 Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-८] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४३..., प्रत सूत्रांक [सू.७] छेत्तरक्षणणिमित्तं जघा उत्तरावहे पच्छा दहे तरुणगं तणं उद्वेति, तत्थ सत्ताणं सत्तसहस्साण वधो, सरदहतलागपरिसो-IN सणताकम्म-सरदहतलागादीणि सोसेति पच्छा वाविजंति, एवं ण कप्पति, असदीपोसणताकम्म-असतीओ पोसेति जधा गोलविसए जोणीपोसगा दासीण भाडि गेण्हेंति, प्रदर्शनं चैतदू बहुसावद्यानां कर्मणां एवंजातीयानां, न पुनः परिगण-द नमिति भावार्थः । उक्तं सातिचारं द्वितीयं गुणवतं, साम्पतं तृतीयमाह●अणत्थदंडे चउब्बिहे पन्नते, तंजहा-अवज्झाणायरिए पमत्तायरिए हिंसप्पयाणे पावकम्मोबएसे, अण-15 स्थदंडवेरमणस्स समणोवा० इमे पञ्च० तंजहा-कंदप्पे कुकुइए मोहरिए संजुत्ताहिगरणे उपभोगपरिभो गाइरेगे ८॥ (सूत्रम्) दिा अनर्थदण्डशब्दार्थः, अर्थ:-प्रयोजन, गृहस्थस्य क्षेत्रवास्तुधनशरीरपरिजनादिविषय तदर्थ आरम्भो-भूतोपमर्दोऽर्थ-18 दण्डः, दण्डो निग्रहो यातना विनाश इति पयर्यायाः, अर्थेन-प्रयोजनेन दण्डोऽर्थदण्डः स चैप भूतविषयः उपमईनलक्षणो दण्डः क्षेत्रादिप्रयोजनमपेक्षमाणोऽर्थदण्ड उच्यते, तविपरीतोऽनर्थदण्डः-प्रयोजननिरपेक्षः, अनर्थः अप्रयोजनमनुपयोगो निष्कारणतेति पर्यायाः, विनैव कारणेन भूतानि दण्डयति सः, तथा कुठारेण प्रहाटस्तरुस्कन्धशाखादिषु प्रहरति | कृकलासपिपीलिकादीन् व्यापादयति कृतसङ्कल्पः, न च तद्व्यापादने किञ्चिदतिशयोपकारि प्रयोजनं येन विना गार्हस्थ्य है प्रतिपालयितुं न शक्यते, सोऽयमनर्थदण्डः चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-'अपध्यानाचरित' इति अपध्यानेनाचरितः अप । क्षेत्ररक्षणनिमित्वं यथोत्तरापथे, पश्चात् दग्धे तरुणं तृणमुत्तिष्ठते, तन्त्र सावानां शतसहस्रागा वधः, सरोदतटाकपरिशोषणताकर्म-सरोहुदत्तटाकादीन् शोषयति, पादुष्यन्ते, एवं न कल्पते, असनीपोषणताकर्म-असतीः पोषयति यथा गौडविपये योनिपोषका दासीनो भा गृहन्ति दीप अनुक्रम [७१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: अथ अनर्थदण्डविरमणं व्रतस्य वर्णनं क्रियते ~348~ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-८] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४३...], प्रत सूत्रांक [सू.८] दा ध्यानाचरितः समासः, अप्रशस्तं ध्यान अपध्यानं, इह देवदत्तश्रावककोणकसाधुप्रभृतयो ज्ञापक, 'प्रमादाचरितः' प्रमाहारिभ- देनाचरित इति विग्रहः, प्रमादस्तु मद्यादिः पञ्चधा, तथा चोक्तम्-"मजं विसयकसाया विकथा णिद्दा य पंचमी भणिया" नाध्य द्राया अनर्थदण्डत्वं चास्योक्तशब्दार्थद्वारेण स्वबुद्ध्या भावनीयं, 'हिंसाप्रदान' इह हिंसाहेतुत्वादायुधानलविषादयो हिंसोच्यते,31 श्रावकत्र ताधिक कारणे कार्योपचारात, तेषां प्रदानमन्यस्मै क्रोधाभिभूतायानभिभूताय वा न कल्पते, प्रदाने त्वनर्थदण्ड इति, 'पापकों-13 ॥८३०॥ बापदेशः पातयति नरकादाविति पापं तत्प्रधानं कर्म पापकर्म तस्योपदेश इति समासः, यथा-कृष्यादि कुरुत, तथा चोक्त-"छित्ताणि कसध गोणे दमेध इच्चादि सावगजणस्स । णो कप्पति उवदिसि जाणियजिणवयणसारस्स ॥१॥" इदमतिचाररहितमनुपालनीयमित्यतोऽस्यैवातिचाराभिधित्सयाऽऽह-'अणहदंडे 'त्यादि,अनर्थदण्डविरमणस्य श्रमणोपासकेनामी पञ्चातिचारा ज्ञातव्याः न समाचरितव्याः, तद्यथा-कन्दर्पः-कामः तद्धेतुर्विशिष्टो वाक्प्रयोगः कन्दर्प उच्यते, रागोद्रेकात् प्रहासमिश्रो मोहोद्दीपको नर्मेति भावः । इह सामाचारी-सावगस्स अट्टहासो न कप्पति, जति णाम हसिहैयब तो इसिं चेव विहसितवंति। कौकुच्यं-कुत्सितसंकोचनादिक्रियायुक्तः कुचः कुकुचः तद्भावः कौकुच्च-अनेकप्रकारा मुख नयनोष्ठकरचरणधूविकारपूर्विका परिहासादिजनिका भाण्डादीनामिव विडम्बनक्रियेत्यर्थः । ऐत्थ सामायारी-तारिस-121 गाणि भासितुं ण कप्पति जारिसेहिं लोगस्स हासो उप्पजति, एवं गतीए ठाणेण वा ठातितुन्ति । मौखर्य-धायप्रायमसत्या-16 1८३०॥ क्षेत्राणि कृष गा वमय इत्यादि श्रावकजनस्य । न कल्पते उपदेष्टुं ज्ञातजिनवचनसारस्थ ॥ १ ॥२ श्रावकस्वाहासो न करूपते, यदि नाम हसितव्यं INतर्हि इंपदेव विहसितव्यमिति । ३ भन्न सामाचारी-तादेशि भाषितुं न कश्पते बायीलॉकस हास्वमुत्पखते, एवं गल्या स्थानेन पाखामिति दीप अनुक्रम [७२] natorary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~349 Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-८] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४३..., प्रत सूत्रांक सम्बद्धप्रलापित्वमुच्यते, मुंहेण वा अरिमाणेति, जधा कुमारामचेणं सो चारभडओ विसज्जितो, रण्णा णिवेदितं, ताए जीविकाए वित्ति दिण्णा, अण्णता रुडेण मारितो कुमारामच्चो । संयुक्ताधिकरण-अधिक्रियते नरकादिष्वनेनेत्यधिकरण-111 वास्तूदूपलशिलापुत्रकगोधूमयन्त्रकादि संयुक्त अर्थक्रियाकरणयोग्यं संयुक्तं च तदधिकरणं चेति समासः । एत्थ समा-11 चारी-सावगेण संजुत्ताणि चेव सगडादीनिन धरेतबाणि, एवं वासीपरसुमादिविभासा। 'उपभोगपरिभोगातिरेक' इति उप-11 भोगपरिभोगशब्दार्थों निरूपित एव तदतिरेकः । ऐथवि सामायारी-उवभोगातिरित्तं जदि तेल्लामलए बहुए गेहति ततो 81 दाबहुगा व्हायगा वच्चंति तस्स लोलियाए, अण्डविण्हायगा व्हायंति, एस्थ पूतरगााउक्कायवधो, एवं पुष्फर्तयोलमादिवि भासा, एवं ण बद्दति, का विधी सावगस्स उवभोगे पहाणे !, घरे व्हायचं णस्थि ताधे तेल्लामलएहिं सीस घंसित्ता सचे साडेतूणं ताहे तडागाईतडे निविट्ठो अंजलिहि हाति, एवं जेसु य पुफेसु पुष्फकुंथुताणि ताणि परिहरति । उक्तं सातिचार [सू.८] दीप अनुक्रम [२] 296- 14 मुखेन वारिमानयति, यथा कुमारामात्येन स चारभटो विसष्टः, राज्ञो निवेदितं, तथा जीविकया वृत्तिदत्ता, अन्यदा रुष्टेन मारितः कुमारामात्यः । MR अत्र सामाचारी श्रावकेण संयुक्तानि कटादीनि न धारणीयानि, एवं वासीपादिविभाषा । ३ अत्रापि सामाचारी-उपभोगातिरिक्त यदि तैलामलकादीनि | |बहूनि गृह्णाति ततो बहवः खानकारका प्रजन्ति तस्य लौल्येन, भन्येऽनायका अपि नाति, अन पूतरकायकायवधा, एवं पुष्पांबूलादिविभाषा, एवं में | वर्तते, को विधिः श्रावकयोपभोगे माने -गृहे सातयं नासि तदा तलामलकैः शीर्ष पृष्टा सर्वाणि शारयिया ततखडाकादीनां तटे निवेश्याअलिभिः | वाति, एवं येषु पुप्पेषु पुष्पकुन्धवसानि परिहरति । vdiorary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~350 Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-८] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४३...], दीया प्रत नाध्य श्रावकन सूत्रांक [सू.८] आवश्यक तृतीयाणुव्रतं, व्याख्यातानि गुणव्रतानि, अधुना शिक्षापदव्रतानि उच्यन्ते, तानि च चत्वारि भवन्ति, तद्यथा-सामा प्रत्याख्या हारिभदायिक देशावकाशिक पौषधोपवासः अतिथिसंविभागश्चेति, तत्राद्यशिक्षापदव्रतप्रतिपादनायाह सामाइअं नाम सावजजोगपरिवजणं निरवजजोगपडिसेवणं च । सिक्खा दुविहा गाहा उववायठिई ॥४३॥ गई कसाया या बंधता वेयंता पडिवजाइकमे पंच॥१॥ सामाइअंमि उ कए समणो इव सावओ हवह जम्हा । ताधि० एएण कारणेणं बहुसो सामाइयं कुजा ॥२॥ सवंति भाणिऊणं बिरई खलु जस्स सब्विया नस्थि । सो सम्वविरइबाई चुक्का देसं च सव्वं च ॥३॥ सामाइयस्स समणो० इमे पश्च०, तंजहा-मणदुप्पणिहाणे वइदुप्पणिहाणे कायदुप्पणिहाणे सामाइयस्स सइअकरणया सामाइयस्स अणवडियस्स करणया९॥ (सूत्रम् ॥ समो-रागद्वेषवियुक्तो यः सर्वभूतान्यात्मवत् पश्यति, आयो लाभः प्राप्तिरिति पर्यायाः, समस्यायः समायः, समो हिर प्रतिक्षणमपूर्वैर्ज्ञानदर्शनचरणपर्यायैर्निरुपमसुखहेतुभिरधःकृतचिन्तामणिकल्पद्रुमोपमैयुज्यते, स एव समायः प्रयोजन|मस्य क्रियानुष्ठानस्येति सामायिकं समाय एव सामायिक, नामशब्दोऽलङ्कारार्थः, अवयं-हितं पापं, सहावयेन सावद्यः। है योगी-व्यापारः कायिकादिस्तस्य परिवर्जन-परित्यागः कालावधिनेति गम्यते, तत्र मा भूत् सावद्ययोगपरिवर्जनमात्रमपा पव्यापारासेवनशून्यमित्यत आह-निरवद्ययोगप्रतिसेवनं चेति, अत्र सावद्ययोगपरिवर्जनवनिरवद्ययोगप्रतिसेवनेऽप्यहर्निशं ॥८३शा यत्नः कार्य इति दर्शनार्थ चशब्दः परिवर्जनप्रतिसेवन क्रियाद्वयस्य तुल्यकक्षतोद्भावनार्थः। एत्थ पुण सामाचारी-सामाइयं १ अत्र पुनः सामाचारी सामायिक दीप अनुक्रम [७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: अथ सामायिक व्रतस्य वर्णनं क्रियते ~351 Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-९] / [गाथा १-३), नियुक्ति : [१५६१...] भाष्यं [२४३...', -0 4 प्रत -2- सूत्रांक 2 [सू.९] गाथा सावएण कथं कायचंति १, इह सावगो दुविधो-इडीपत्तो अणिहिपत्तो य, जो सो अणिद्विपत्तो सो चेतियघरे साधुससमीपे वा घरे या पोसधसालाए वा जत्थ वा विसमति अच्छते वा निवावारो सपथ करेति तस्थ, चउस ठाणेसु णियमा ४ काय-चेतियघरे साधुमूले पोषधसालाए घरे आवासगं करेंतोत्ति, तत्थ जति साधुसगासे करेति तत्थ का विधी 2.5 जति परं परभयं नथि जतिवि य केणइ समं विवादो णत्थि जति कस्सइ ण घरेइ मा तेण अंछवियछियं कजिहिति, जति य धारणगं दहण न गेण्हति मा णिज्जिहित्ति, जति वावारंण बावारेति, ताधे घरे चेव सामायिक कातूणं बच्चति, पंचसमिओ तिगुत्तो ईरियाउवजुत्ते जहा साहू भासाए सावज परिहरंतो एसणाए कई लेटुं वा पडिलेहि पमजेतुं, एवं आदाणे णिक्खेवणे, खेलसिंघाणे ण विगिचति, विगिचंतो वा पडिलेहेति य पमज्जति य, जत्थ चिट्ठति तत्थवि गुत्तिणिरोध करेति । एताए विधीए गत्ता तिविधेण णमित्तु साधुणो पच्छा सामाइयं करेति, 'करेमि भन्ते । सामाइयं सावज जोगं पञ्चक्खामि दुविधं तिविधेणं जाव साधू पजुवासामित्ति कातूणं, पच्छा इरियावहियाए श्रावकेण कथं कर्तव्यमिति १,इह श्रावको द्विविधा-अद्धिमाशोऽनृद्धिमाप्तध, यः सोऽनृद्धिमासः स चैत्यगृहे साधुसमीपे था गृहे वा* पौषधशालायां वा यन्त्र वा विशाम्यति तिष्ठति वा निम्यापारः सर्वत्र करोति तन्त्र, चतुर्ष स्थानेषु नियमात कर्त्तव्यं-पैत्यगृढे साधुमूले पौषधशालायां गृहे या-12 | ऽवश्यकं कुर्वनिति, तत्र यदि साधुसका करोति तन्न को विधिः-पदि परं परभयं नास्ति यदि च केनापि सा विषादो गास्ति यदि कसैविच धारयति मा | तेनाकपैविकर्ष भूदिति, यदि पाधम नान गृहोष मा नीयेयेति, यदि व्यापार न करोति, सदा गृह एव सामायिकं कृत्वा मजति, पचसमितत्रिगुप्त ईयाँधुपयुक्तो। यथा साधु: भाषायां सावचं परिहरन् एषणायलेष्टुं का; या प्रतिलिख्य प्रमृज्य एवमादाने निक्षेपे, लेगमासिकाने न खमति, स्वजन् वा प्रतिलिसति च प्रमार्टि शाचयत्र तिष्ठति तत्रापि गुमिनिरोधं करोति, एतेन विधिना गत्वा निविधेन नत्या साधून पश्चात् सामाविकं करोति-करोमि भइन्त ! स है प्रत्यारवामि द्विविधं निविधेन यावत् साधून पर्युपासे इतिकरया, पश्चात् ऐयोपविकी ||१-३|| दीप अनुक्रम [७३-७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~352 Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-९] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४३...], प्रत प्रत्याख्या श्रावकत्रताधि० नाध्य सूत्रांक [स.९] आवश्यक- पडिकमति, पच्छा आलोएत्ता वंदति आयरियादी जधारातिणिया, पुणोवि गुरुं बंदित्ता पडिलेहित्ता णिविहो हारिभ-IIपुच्छति पढति वा, एवं चेतियाइएसुवि, जदा सगिहे पोसधसालाए वा आवासए वा तत्थ णवरि गमणं णस्थि, जो द्रीया इहीपत्तो(सो) सबिड्डीए एति, तेण जणस्स उच्छाहोवि आडिता य साधुणो सुपुरिसपरिग्गहेणं, जति सो कयसामाइतो एति १३शताधे आसहत्थिमादिणा जणेण य अधिकरणं वट्टति, ताधे ण करेति, कयसामाइएण य पादेहिं आगंतवं, तेणं ण करेति, आगतो साधुसमीवे करेति, जति सो सावओ तो ण कोइ उडेति, अह अहाभद्दओ ता पूता कता होतुत्ति भण(ग्ण)ति,8 ताधे पुवरइतं आसणं कीरति, आयरिया उहिता य अच्छंति, तत्थ उडेतमणुढेंते दोसा विभासितवा, पच्छा सो इड्डी|पत्तो सामाइयं करेइ अणेण विधिणा-करेमि भन्ते ! सामाइयं सावज जोगं पञ्चक्खामि दुविधं तिविधेण जाव नियम पजुवासामित्ति, एवं सामाइयं काउं पडिकतो वंदित्ता पुच्छति, सो य किर सामाइयं करेंतो मउडं अवणेति कुंडलाणि णाममुई। गाथा ||१-३|| दीप अनुक्रम [७३-७७] प्रतिकामति, पश्चात् आलोच्य बन्यते भाचायादीन पधारालिक, पुनरपि गुरु वन्दित्वा प्रतिकिल्या निविष्टः पृच्छति पति पा, एवं चत्वादिष्यपि, यदा खगोल | पोपधशालायां चा आपासके वा तदा नवरं गमनं नास्ति, य विमानः स सर्वोऽध्याति, तेन जनस्सोप्साहः अपि च साधव भारताः सुपुरुषपरिप्रदेण, यदि | स कृतसामायिक भायाति तदाऽवहस्त्यादिना जनेन चाधिकरणं वर्चते सतो न करोति, कृतसामायिकेन च पादाभ्यामागन्तव्यं तेन न करोति, भागतः साधु-II | समीपे करोति, यदि स श्रावस्तदान कोऽपि अम्युत्तिष्ठति, भय यथाभनकलवाहतो भवत्विति भण्यते, तदा पूर्वरचितमासनं क्रियते, आचार्याबोस्थिताति-XIIदरसा अस्ति, तनोतिहत्वभूतिहति च दोषा विभाषितम्या, पश्चात् समातिप्राप्तः सामायिक करोयनेन विधिना-करोमि भवन्त ! सामाविक सावध योग प्रस्थाण्यामि विविध विविधेन यावनियमं पर्युपासे इति, एवं सामायिकं कृत्वा प्रतिक्रान्तो बन्दिरवा पृच्छत्ति, स किल सामाणिकं कुर्वन् मुकुट अपनपति कुण्डले नाममुद्रा antarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~353 Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-९] / [गाथा १-३), नियुक्ति : [१५६१...] भाष्यं [२४३...', प्रत सूत्रांक [सू.९] गाथा SANSAE%ACASSENCE पुष्फतंबोलपावारगमादी वोसिरति। एसा विधी सामाइयस्स। आह-सावद्ययोगपरिवर्जनादिरूपत्वात् सामायिकस्य कृतसा-1 मायिकः श्रावको वस्तुतः साधुरेव, स कस्माद् इत्वरं सर्वसावद्ययोगप्रत्याख्यानमेव न करोति त्रिविधं त्रिविधेनेति?, अनोच्यते, ४ सामान्येन सर्वसावद्ययोगप्रत्याख्यानस्यागारिणोऽसम्भवादारम्भेष्वनुमतेरव्यवच्छिन्नत्वात,कनकादिषु चाऽऽत्मीयपरिग्रहादहै निवृत्तः, अन्यथा सामायिकोत्तरकालमपि तदग्रहणप्रसङ्गात् ,साधुश्रावकयोश्च प्रपश्चन भेदाभिधानात्। तथा चाह ग्रन्धकार:-18 सिक्खा दुविधा गाहा, उपचातठिती गती कसाया य । बंधता वेदेन्ता पडिवजाइक्कमे पंच ॥१॥ इह शिक्षाकृतः साधुश्रावकयोमहान विशेषः, सा च शिक्षा द्विधा-आसेवनाशिक्षा ग्रहणशिक्षा च, आसेवना-प्रत्युपे-18 क्षणादिक्रियारूपा, शिक्षा-अभ्यासः, तत्रासेवनाशिक्षामधिकृत्य सम्पूर्णामेव चक्रवालसामाचारी सदा पालयति साधुः, श्रावकस्तु न तत्कालमपि सम्पूर्णामपरिज्ञानादसम्भवाच, ग्रहणशिक्षा पुनरधिकृत्य साधुः सूत्रतोऽर्थतश्च जघन्येनाष्टी| 18|प्रवचनमातर उत्कृष्टतस्तु बिन्दुसारपर्यन्तं गृह्णातीति, श्रावकस्तु सूत्रतोऽर्थतश्च जघन्येनाष्टी प्रवचनमातर उत्कृष्टतस्तु पडूजीवनिकायां यावदुभयतोऽर्थतस्तु पिण्डैपणां यावत् , नतु तामपि सूत्रतो निरवशेषामर्थत इति । सूत्रप्रामाण्याच विशेषः, तथा चोक्तम्-"सामाइयंमि तु कते समणो इव सावओ हवइ जम्हा । एतेण कारणेणं बहुसो सामाइयं कुज्जा॥१॥” इति, गाथासूत्रं प्राग् व्याख्यातमेव, लेशतस्तु व्याख्यायते-सामायिके प्रागनिरूपितशब्दार्थे, तुशब्दोऽवधारणार्थः, सामायिकएव कृते न शेषकालं श्रमण इव-साधुरिय श्रावको भवति यस्मात् , एतेन कारणेन बहुशः-अनेकशः सामायिक कुर्यादि १ पुष्पताम्बूलपावारकादि व्युत्सृजति, एष विधिः सामायिकस्य । ||१-३|| SAMROKAR दीप अनुक्रम [७३-७७] notorary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~354 Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-९] / [गाथा १-३), नियुक्ति : [१५६१...] भाष्यं [२४३...', प्रत आवश्यकहारिभद्रीया सूत्रांक नाध्य श्रावकत्रताधिक [सू.९]] ॥८३३ ॥ - गाथा -- त्यत्र श्रमण इव चोक्तं न तु श्रमण एवेति यथा समुद्र इव तडागः न तु समुद्र एवेत्यभिप्रायः । तथोपपातो विशेषका | साधुः सर्वार्थसिद्ध उत्पद्यते श्राघकस्त्वच्युते परमोपपातेन जघन्येन तु द्वावपि सौधर्म एवेति, तथा चोक्त-"अविराधित-| सामण्णस्स साधुणो सावगस्स उ जहण्णो । सोधम्मे उववातो भणिओ तेलोकर्दसीहिं ॥१॥” तथा स्थितिभैदिका, साधोरुत्कृष्टा बयखिंशतसागरोपमाणि जघन्या तु पल्योपमपृथक्त्वमिति, श्रावकस्य तूत्कृष्टा द्वाविंशतिः सागरोपमाणि जघन्या तु पल्योपममिति । तथा गतिदिका, व्यवहारतः साधुः पञ्चस्वपि गच्छति, तथा च कुरटोत्कुरुटी नरकं गैती कुणाला| दृष्टान्तेनेति श्रूयते, श्रावकस्तु चतसृषु न सिद्धगताविति, अन्ये च व्याचक्षते-साधुः सुरगती मोक्षे च, श्रावकस्तु चत| सृष्वपि । तथा कषायाश्च विशेषकाः, साधुः कषायोदयमाश्रित्य सवलनापेक्षया चतुखियेककषायोदयवानकषायोऽपि भवति छद्मस्थवीतरागादिः, श्रावकस्तु द्वादशकपायोदयवान् अष्टकषायोदयवांश्च भवति, यदा द्वादशकपायवांस्तदाऽनन्तानुवन्ध-I वर्जा गृह्यन्ते, एते चाविरतस्य विज्ञेया इति, यदा स्वष्टकषायोदयवान् तदाऽनन्तानुवन्धिअप्रत्याख्यानकषायवर्जा इति, | एते च विरताविरतस्य । तथा बन्धश्च भेदकः, साधुर्मूलप्रकृत्यपेक्षया अष्टविधवन्धको वा सप्तविधवन्धको वा षविधबन्धको वा एकविधबन्धको वा, उक्तं च-"सत्तविधबंधगा हुंति पाणिणो आउवजगाणं तु । तह सुहमसंपरागा छबिहबंधा विणिदिडा ॥१॥ मोहाउयवज्जाणं पगडीणं ते उ बंधगा भणिया । उवसंतखीणमोहा केवलिणो एगविधवंधा ॥२॥ ते पुण अविराधामण्यस्य साधोः श्रावकस्थापि अन्यतःसिधिमें अपपातो भणितबेलोक्यर्षिभिः ॥१॥२ सप्तविधवग्धका भवन्ति प्राणिन वायुपंजानां तु । तथा सूक्ष्मसंपरायाः पविधयन्धा विनिर्दिष्टाः॥१॥मोहायुर्वजानां प्रकृतीनां ते तु बन्धका भणिताः । उपशान्तक्षीणमोही केवलिन एकविधवम्धकाः॥२॥ ते पुन ||१-३|| ८३२॥ दीप अनुक्रम [७३-७७] JABERDER पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~355 Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Detai आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.९] + गाथा ||१-३|| दीप अनुक्रम [७३-७७] Educato [भाग-३१] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ / ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-९] / [गाथा १-३], निर्युक्ति: [ १५६१...] भाष्यं [ २४३...], दुसमयठितीयस्स बंधगा ण पुण संपरागस्स । सेलेसीपडिवण्णा अबंधगा होंति विष्णेया ॥ ३ ॥ श्रावकस्तु अष्टविधबन्धको वा सप्तविधबन्धको वा । तथा वेदनाकृतो भेदः, साधुरष्टानां सप्तानां चतसृणां वा प्रकृतीनां वेदकः, श्रावकस्तु नियमादष्टानामिति । तथा प्रतिपत्तिकृतो विशेषः, साधुः पश्च महाव्रतानि प्रतिपद्यते, श्रावकस्त्वेकमणुत्रतं द्वे त्रीणि चत्वारि पञ्च वा, अथवा साधुः सकृत् सामायिकं प्रतिपद्य सर्वकालं धारयति, श्रावकस्तु पुनः २ प्रतिपद्यत इति । तथाऽतिक्रमो विशेषकः, साधोरेकतातिक्रमे पञ्चत्रातिक्रमः, श्रावकस्य पुनरेकस्यैव, पाठान्तरं वा, किं च-इतरच सर्वशब्दं न प्रयुङ्क्ते मा भूद्देशविरतेरप्यभाव इति, आह च- 'सामाइयंमि उ कए' 'सवंति भाणिऊर्ण' गाहा, सर्वमित्यभिधाय - सर्व सावधं योगं परित्यजामीत्यभिधाय विरतिः खलु यस्य 'सर्वा' निरवशेषा नास्ति, अनुमतेर्नित्यप्रवृत्तत्वादिति भावना, स एवंभूतः सर्वविरतिवादी 'चुकई'त्ति भ्रश्यति देशविरतिं सर्वविरतिं च प्रत्यक्षमृषावादित्वादित्यभिप्रायः । पर्याप्तं प्रसङ्गेन प्रकृतं प्रस्तुमः । इदमपि च शिक्षापदत्रतमतिचाररहितमनुपालनीयमित्यत आह-'सामाइयस्स समणो' [गाहा ], सामायिकस्य श्रमणोपासकेनामी पञ्चातिचारा ज्ञातव्या न समाचरितव्याः, तद्यथा-मनोदुष्प्रणिधानं, प्रणिधानं प्रयोगः दुष्टं प्रणिधानं दुष्प्रणिधानं मनसो दुष्प्रणिधानं मनोदुष्प्रणिधानं, कृतसामायिकस्य गृहसत्केति कर्त्तव्यतासुकृतदुष्कृत परिचिन्तनमिति, उक्तं च--"सामाइयंति (तु) का घरचिन्तं जो तु चिंतये सहो । अट्टवसट्टमुबगतो निरत्थयं तस्स सामइयं ॥ १ ॥ । हिंसमयस्थितिकस्य बन्धका न पुनः सत्परायिकस्य । शैलेशीप्रतिपन्ना अबन्धका भवन्ति विज्ञेया ॥ ३ ॥ २ सामायिकं (तु) कृत्वा गृह (कार्य) यस्तु चिन्तयेच्छ्राद्धः । आर्त्तवशानमुपगतो निरर्थकं तस्य सामायिकम् ॥ १ ॥ For Funny incibrary.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि रचिता वृत्तिः ~356~ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-९] / [गाथा १-३], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४३...., (४०) प्रत सूत्रांक [सू.९] गाथा आवश्यक- वागूदुष्प्रणिधानं कृतसामायिकस्यासभ्यनिष्ठुरसावद्यवाक्प्रयोग इति, उक्त च-"कडसामइओ पुर्व बुद्धीए पेहिण भासेजा। प्रत्याख्या हारिभ- सहणिरवज वयणं अण्णह सामाइयं ण भवे ॥२॥" कायदुष्प्रणिधानं कृतसामायिकस्याप्रत्युपेक्षितादिभूतलादौ करच-15 नाध्य द्रीया शरणादीनां देहावयवानामनिभृतस्थापनमिति, उक्तं च-“अणिरिक्खियापमज्जिय थंडिल्ले ठाणमादि सेवेन्तो। हिंसाभावेविश्रावकत्रद्रण सो कडसामइओपमादाओ॥१॥" सामायिकस्य स्मृत्यकरणं-सामायिकस्य सम्बन्धिनी या स्मरणा स्मृतिः-उपयोगलक्षणा ताधि० ॥८३४॥ तस्या अकरणम्-अनासेवनमिति, एतदुक्तं भवति-प्रबलप्रमादवान् नैव स्मरत्यस्यां वेलायां मया यत्सामायिक कर्तव्यं कृतं न कृतमिति वा, स्मृतिमूलं च मोक्षसाधनानुष्ठानमिति, उक्तं च-"ण सरइ पमादजुत्तो जो सामइयं कदा तु कातवं । कतमकतं वा तस्स हु कयंपि विफलं तयं णेयं ॥१॥” सामायिकस्यानवस्थितस्य करणं अनवस्थितकरणं, अनवस्थितमल्पकालं वा करMणानन्तरमेव त्यजति, यथाकथशिवाऽनवस्थितं करोतीति, उक्तं च-"कातूण तक्खणं चिय पारेति करेति वा जधिच्छाए। अणवठियं सामइयं अणादरातो न तं सुद्धं ॥१॥" उक्तं सातिचारं प्रथमं शिक्षापदव्रतमधुना द्वितीय प्रतिपादयन्नाह दिसिव्वयगहियस्स दिसापरिमाणस्स पइदिणं परिमाणकरणं देसावगासियं, देसावगासियरस समणो० इमे पश्च०, तंजहा-आणवणप्पओगे पेसवणप्पओगे सद्दाणुवाए रूवाणुवाए बहिया पुग्गलपक्वेवे ॥१०॥(सूत्रं) ८३४॥ कृतसामायिकः पूर्व मुखमा मेश्य भाषेत । सदा निरवचं वचनमन्यथा सामायिकं न भवेत् ॥1॥ २ अनिरीक्षषाप्रमुग्य स्थपिलान् स्थानादि सेषमानः । हिंसाऽभावेऽपि न स कृतसामाधिक प्रमादात् ॥1॥३न स्मरति प्रसादयुक्तो यः सामायिकंतु कदा कम्यं । कृतमतं वा तस्य हु कृतमपि विफलं तक ज्ञेयं ॥1॥४ करवा ताक्षणमेव पास्यति करोति वा यहाछया । अनवरिषतं सामायिकमनादरात् न तत् शुद्धम् ॥१॥ E- 1 ||१-३|| 0 दीप अनुक्रम [७३-७७] FRIDAryam पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: अथ दिशा-व्रतस्य वर्णनं क्रियते ~357 Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-१०] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४३...], - -- - प्रत - सूत्रांक [सू.१०] दीप । दिगणतं प्रागू व्याख्यातमेव तद्गृहीतस्य दिपरिमाणस्य दीर्घकालस्य यावज्जीवसंवत्सरचतुर्मासादिभेदस्य योजनशतादिरूपत्वात् प्रत्यहं तावत्परिमाणस्य गन्तुमशक्तत्वात् प्रतिदिन-प्रतिदिवसमित्येतच्च प्रहरमुहर्ताद्युपलक्षणं प्रमाणकरण-दिवसादिगमनयोग्यदेशस्थापन प्रतिदिनप्रमाणकरणं देशावकाशिक, दिगवतगृहीतदिकूपरिमाणस्यैकदेश:-अंशः तस्मिन्नवकाशः-गमनादिचेष्टास्थानं देशावकाशस्तेन निवृत्तं देशावकाशिकं, एतचाणुव्रतादिगृहीतदीर्घतरकालावधिविरतेरपि प्रतिदिनसझेपोपलक्षणमिति पूज्या वर्णयन्ति, अन्यथा तविषयसलेपाभावाद भावे वा पृधशिक्षापदभावप्रसङ्गादित्यलं विस्तरेण । एत्थ य सप्पदितं आयरिया पण्णवयंति, जधा सप्पस्स पुर्व से बारसजोयणाणि विसओ आसि, पच्छा बिज्जाधादिएण ओसारेंतेण जोयणे दिहिविसओ से ठवितो, एवं सावओवि दिसिबतागारे बहुयं अवरझियाउ, पच्छा देसावगासिएणं तंपि ओसारेति । अथवा विसदिईतो-अगतेण एकाए अंगुलीए ठवितं, एवं विभासा । इदमपि शिक्षाब्रतमतिचाररहितमनुपालनीयमित्यत आह-'देसा० देशावकाशिकस्य-प्रागनिरूपितशब्दार्थस्य श्रमणोपासकेनामी पञ्चातिचारा ज्ञातव्या न समाचरितव्याः, तद्यथा-'आनयनप्रयोगः' इह विशिष्टे देशाधि(दि)के भूदेशाभिग्रहे परतः स्वयं गमनायोगाद्यदन्यः सचित्तादिद्रव्यानयने प्रयुज्यते सन्देशकप्रदानादिना त्वयेदमानेयमित्यानयनप्रयोगः, बलात् | विनियोज्यः प्रेष्यः तस्य प्रयोगः यथाऽभिगृहीतपरविचारदेशव्यतिकमभयात् त्वयाऽवश्यमेव गत्वा मम गवाद्यानेयमिदं वा तत्र कर्तव्यमित्येवंभूतः प्रेष्यप्रयोगः। तथा शब्दानुपातः स्वगृहवृत्तिप्राकारकादिव्यवच्छिन्नभूदेशाभिग्रहेऽपि बहिः प्रयोजनो. अनच सर्पदष्टान्तमाचार्या। महापयन्ति, यथा पूर्व तख सर्पस्य द्वादश योजनानि विषय आसीत , पश्चाद्वियावाविनाअवसारवता योजने तख रष्टिविषयः स्थापितः, एवं श्रावकोऽपि दिग्नताकारे चपरावान् पश्चात् देशावकाक्षिकेन तदप्यपसारपति । अथवा विपस्टान्तः-अगदेनैकस्यामडली स्थापित, एवं विभाषा अनुक्रम [७८] ainatorary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~358~ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.१०] दीप अनुक्रम [ ७८ ] आवश्यकहारिभ द्वीया ॥८३५॥ Educato [भाग-३१] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १/४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-१०] / [गाथा-], निर्युक्तिः [१५६१...] भाष्यं [२४२...], त्पत्तौ तत्र स्वयं गमनायोगात् वृत्तिमाकारप्रत्यासन्नवर्तिनो बुद्धिपूर्वकं क्षुत् कासितादिशब्दकरणेन समवासितकान् बोधयतः शब्दस्यानुपातनम् - उच्चारणं तादृग् येन परकीयश्रवणविवरमनुपतत्यसाविति, तथा रूपानुपातः - अभिगृहीतदेशाद् बहिः प्रयोजनभावे शब्दमनुच्चारयत एव परेषां समीपानयनार्थं स्वशरीररूपदर्शनं रूपानुपातः, तथा बहिः पुद्गलप्रक्षेपः अभिगृहीत| देशाद् बहिः प्रयोजनभावे परेषां प्रबोधनाय लेष्ट्वादिक्षेपः पुद्गलप्रक्षेप इति भावना, देशावकाशिकमेतदर्थमभिगृह्यते मा भूद्र बहिर्गमनागमनादिव्यापारजनितः प्राण्युपमर्द इति, स व स्वयं कृतोऽन्येन वा कारित इति न कश्चित् फले विशेषः प्रत्युत गुणः स्वयंगमने ईर्यापथविशुद्धेः परस्य पुनरनिपुणत्वादशुद्धिरिति कृतं प्रसङ्गेन || व्याख्यातं सातिचारं द्वितीयं शिक्षापदवतं, अधुनां तृतीयमुच्यते, तत्रेदं सूत्रम् पोसहोववासे चव्विहे पन्नत्ते, तंजहा- आहारपोसहे सरीरसकारपोसहे बंभचेरपोसहे अब्बावारपोस हे, पोसहोववासस्स समणो० इमे पञ्च, तंजहा- अप्पडिले हियदु प्पडिले हियसिज्ञा संचारए अपमज्जियदुष्पमज्जियसिज्जासंवारए अप्पडिले हियदुपपडिलेहि पउच्चार पासवण भूमीओ अप्पमज्जियदुष्पमजिय उच्चारपासवणभूमीओ पोसहोववासस्स सम्म अणणुपाल (ण) या ॥ ११ ॥ ( सूत्र ) इह पौषधशब्दो या पर्वसु वर्त्तते, पर्वाणि चाष्टम्यादितिथयः, पूरणात् पर्व, धर्मोपचय हेतुत्वादित्यर्थः, पौषधे उपवसनं पौषधोपवासः नियमविशेषाभिधानं चेदं पोषधोपवास इति, अयं च पोपधोपवासश्चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- 'आहारपोषधः' आहारः प्रतीतः तद्विषयस्तन्निमित्तं पोषध आहारपोषधः, आहारनिमित्तं धर्मपूरणं पर्वेति भावना, एवं शरीरसत्कार For Parts Only ६प्रत्याख्या नाध्य० श्रावकत्र ताधि० ~359~ ||८३५|| incibrary.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः अथ पौषधोपवास व्रतस्य वर्णनं क्रियते Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-११] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४२...', प्रत सूत्रांक [सू.११] 48 पोषधः ब्रह्मचर्यपोषधा, अत्र चरणीयं चयै 'अवो यदि'त्यस्मादधिकारात् 'गदमदचरयमश्चानुपसगात्' (पा०३-१-१००) दाइति यत्, ब्रह्म-कुशलानुष्ठान, यथोक्तं-"ब्रह्म वेदा ब्रह्म तपो, ब्रह्म ज्ञानं च शाश्वतम् ।" ब्रह्म च तत् चर्य चेति समासः | माशेष पूर्ववत् । तथा अव्यापारपोपधः । एत्थ पुण भावत्थो एस-आहारपोसधो दुविधो-देसे सबे य, देसे अमुगा विगती आयंबिलं वा एकसि वा दो घा, सबे चतुविधोऽवि आहारो अहोरत्तं पच्चक्खातो, सरीरपोषधो हाणुवणवण्णगविले-| वणपुष्फगंधतंबोलाणं वत्थाभरणाणं च परिच्चागो य, सोवि देसे सबे य, देसे अमुगं सरीरसकारं करेमि अमुर्ग न करेमित्ति, सबे अहोरत, बंभचेरपोषधो देसे सबे य, देसे दिवारत्तिं एकसिं दो वा बारेत्ति, सबे अहोरत्तिं बंभयारी भवति, अबावारे पोसधो दुविहो देसे सवे य, देसे अमुगं वावारं ण करेमि, सचे सयलवाबारे हलसगडधरपरकमादीओ ण करेति, एस्थ जो| देसपोसधं करेति सामाइयं करेति वा ण वा, जो सबपोसधं करेति सो णियमा कयसामाइतो, जति ण करेति तो णियमा |वंचिजति, त कहिं , चेतियघरे साधूमूले वा घरे वा पोसघसालाए वा उम्मुकमणिसुवण्णो पढतो पोत्थगं वा वायतो अन पुनर्भावार्थ एषा-आहारपोषधो द्विविधा-येशतः सर्वतश्न, देशे अमुका विकृतिः आचामाम्लं वा एकको हिवा, सर्वतश्चतुर्विधोऽप्याहारोऽहोरात्रं प्रत्याख्याता, शरीरपोषधा सानोदर्शनवर्णकविलेपन पुष्पगन्धतामूलाना बखाभरणानां च परित्यागात, सोऽपि देशतः सर्वतश्च देशतोऽमुकं पारीरसत्कार करोम्यमकं ।। न करोमि, सर्वतोऽहोरात्रं, ब्रह्मचर्यपोषधो देशतः सर्वतश्र, देशतो दिवा रात्री वा एकशो द्विा, सर्वतोऽहोरात्रं ब्रह्मचारी भवति, अध्यापारपोषधो द्विविधा देशसः सर्वतच, देशवोऽमुकं व्यापार न करोमि सर्वतः सकलग्यापारान् हलशकटगृहपराक्रमादिकान् न करोति, अन यो देशपोवध करोति सामायिकं करोति वा नं वा, या सर्वपोष4 करोति स निमात् कृतसामायिका, यदि न करोति तवा नियमान्यते, तत्क, चैत्यगृहे साधुमूले बा गृहे वा पोषधशालायां वा। उन्मुक्तमणिमुवर्णः पठन पुस्तकं वा वाचयन् दीप अनुक्रम [७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~360 Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.११] दीप अनुक्रम [७९] [भाग-३१] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १/४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-११] / [गाथा-], निर्युक्तिः [१५६१...] भाष्यं [२४२...], आवश्यक ॥८३६॥ धम्मं शाणं झायति, जधा एते साधुगुणा अहं असमत्थो मंदभग्गो धारेतुं विभासा । इदमपि च शिक्षापदत्रतमतिचाररहारिभ- 4 हितमनुपालनीयमित्यत आह-'पोसघोववासस्स समणो'० पोषधोपवासस्य निरूपितशब्दार्थस्य श्रमणोपासकेनामी पश्चातिचारा द्रीया ज्ञातव्या न समाचरितव्याः, तद्यथा अप्रत्युपेक्षितदुष्प्रत्युपेक्षितशय्यासंस्तारी, इह संस्तीर्यते यः प्रतिपन्नपोषधोपवासेन दर्भकुशकम्बलीयस्त्रादिः स संस्तारः शय्या प्रतीता प्रत्युपेक्षणं-गोचरापन्नस्य शय्यादेश्चक्षुषा निरीक्षणं न प्रत्युपेक्षणं अप्रत्युपेक्षणं दुष्टम् उद्भ्रान्तचेतसा प्रत्युपेक्षणं दुष्प्रत्युपेक्षणं ततश्चाप्रत्युपेक्षित दुष्प्रत्युपेक्षितौ शय्यासंस्तारौ चेति समासः शचैव वा संस्तारः शय्यासंस्तारः, इत्येवमन्यत्राक्षरगमनिका कार्येति, उपलक्षणं च शथ्यासंस्ताराद्युपयोगिनः पीठ (फल) कादेरपि । एत्थं पुणमायारी कडपोसधो णो अप्पडिलेहिया सर्ज दुरुहति, संचारगं वा दुरुहर, पोसहसा वा सेवइ, दग्भवत्थं वा सुद्ध *वस्थं वा भूमीए संधरति, काइयभूमितो वा आगतो पुणरवि पडिलेहति, अण्णधातियारो, एवं पीढगादिसुवि विभासा । ॐ तथा अप्रमार्जितदुष्प्रमार्जितशय्यासंस्तारी, इह प्रमार्जनं शय्यादेरासेवनकाले वस्त्रोपान्तादिनेति दुष्टम् अविधिना प्रमार्जनं शेषं भावितमेव, एवं उच्चारप्रश्रवणभूमावपि, उच्चारप्रश्रवणं निष्ठचूतखेलमलाद्युपलक्षणं, शेषं भावितमेव । तथा पोपधस्य सम्यक् प्रवचनोक्तेन विधिना निष्प्रकम्पेन चेतसा अननुपालनम् - अनासेवनम् । एत्थ भावना-कतपोसधो Education १ धर्मध्यानं ध्यायति यथा सानुगुणानेतानहं मन्दभाग्योऽसमय धारयितुं विभाषा । २ अत्र पुनः सामाचारी कृतशेषवो नातिल राज्यमारोहति संस्तारकं वारोहति पोषधशालां वा सेवते दर्भवनं वा शुद्धवखं वा भूमौ संस्तृणाति कायिकी भूमित आगतो वा पुनरपि प्रतिलिखति, अन्यथाऽतिचारः, एवं पीठकादिष्वपि विभाषा ३ अत्र भावना कृतपोषधो For Fans Only ६प्रत्याख्या 'नाध्य० श्रावकत्रताधि० ~361~ ||८३६॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-११] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४२...', प्रत सूत्रांक [सू.११] दीप अथिरचित्तो आहारे ताव सर्व देस वा पत्थेति, विदियदिवसे पारणगस्स वा अप्पणो अट्ठाए आढत्ति कारेइ, करेइ वा इम २ वत्ति कहे धणिय बट्टइ, सरीरसकारे सरीरं बट्टेति, दाढियाउ केसे वा रोमराई वा सिंगाराभिप्पायेण संठवेति, दाहे वा सरीरं सिंचति, एवं सवाणि सरीरविभूसाकरणाणि(ण)परिहरति बंभचेरे, इहलोए परलोए वा भोगे पत्थेति संवाधेति वा, अथवा सद्दफरिसरसरूवगंधे वा अहिलसति, कइया बंभचेरपोसहो पूरिहिइ, चइत्ता मो चंभचेरेणंति, अवाबारे | सावजाणि धावारेति कतमकतं वा चिंतेइ, एवं पंचतियारसुद्धो अणुपालेतघोत्ति । उक्तं सातिचारं तृतीयशिक्षापदव्रतं, अधुना चतुर्धमुच्यते, तत्रेदं सूत्रम् अतिहिसंविभागो नाम नायागपाणं कप्पणिज्जाणं अन्नपाणाईणं दवाणं देसकालसद्धासकारकमजुअं पराए भत्तीए आयाणुग्गहबुद्धीए संजयाणं दाणं, अतिहिसंविभागस्स समणो० इमे पञ्चतंजहासचित्तनिवेवणया सचित्तपिहणया कालइक्कमे परवधएसे मच्छरिया य १२॥ (सत्र) इह भोजनार्थ भोजनकालोपस्थाव्यतिथिरुच्यते, तत्रात्मार्थ निष्पादिताहारस्य गृहिनतिनः मुख्यः साधुरेवातिथिस्तस्य | स्थिरचित आहारे तावत् सर्व देश धा प्रार्थयते द्वितीयदिवसे वाऽऽत्मनः पारणकसा आइति करोति कुन वेदमिदं पति कथायामपन्य वर्तते, शरीरसाकारे शरीरं वर्तवति इमभुकेशान वा रोमराज वा शाराभिप्रायेण संस्थापयति, निदाये वा शरीर सिथति, एवं सर्वाणि शरीरविभूषाकारणानि न |परिहरति ब्रह्मचर्य पेहली किकान् पारलौकिकान् वा भोगान् प्रार्थयते संयाधयति वा, अथवा शब्दसरसरूपगन्धास्वामिलष्यति, कदा अह्मचयपोषधः पूर|विष्यति खाजिताः को महाचर्येणेति । अव्यापारे सावधान् व्यापारयति कृतमकृतं वा चिम्तयति, एवं पनातिचारशुदोऽनुपालनीयः । अनुक्रम [७९] CAMEaintin HOTaram पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: अथ अतिथिसंविभाग व्रतस्य वर्णनं क्रियते ~362 Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-१२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४२..., प्रत सूत्रांक AGAR [सू.१२] दीप आवश्यक- संविभागोऽतिथिसंविभागः, संविभागग्रहणात् पश्चात्कर्मादिदोपपरिहारमाह, नामशब्दः पूर्ववत् , 'न्यायागताना मिति प्रत्याख्या हारिभ- * न्यायः द्विजक्षत्रियविशूदाणां स्ववृत्त्यनुष्ठानं स्वस्ववृत्तिश्व प्रसिद्धैव प्रायो लोकहेयो तेन ताहशा न्यायेनागतानां-पाप्तानाम् , नाध्य० द्रीया अनेनान्यायागतानां प्रतिषेधमाह, कल्पनीयानामुद्गमादिदोषपरिवर्जितानामनेमाकल्पनीयानां निषेधमाह, अन्नपानादीनां | श्रावकत्र ताधिक द्रव्याणाम् , आदिग्रहणाद् वखपात्रीपधभेषजादिपरिग्रहः, अनेनापि हिरण्यादिव्यवच्छेदमाह, 'देशकालश्रद्धासत्कार॥८३७|| क्रमयुक्तं' तत्र नानाव्रीहिकोद्रवकडगोधूमादिनिष्पत्तिभार देशः सुभिक्षदुर्भिक्षादिः कालः विशुद्धश्चित्तपरिणामः श्रद्धा अभ्युत्थानासनदानवन्दनानुवजनादिः सत्कारः पाकस्य पेयादिपरिपाच्या प्रदानं क्रमः, एभिर्देशादिभिर्युक्तं-समन्वितं, दअनेनापि विपक्षब्यवच्छेदमाह, 'परया' प्रधानया भक्त्येति, अनेन फलप्राप्ती भक्तिकृतमतिशयमाह, आत्मानुग्रहवुद्ध्या न पुनयंत्यनुग्रहबुद्ध्येति, तथाहि-आत्मपरानुग्रहपरा एव यतयः संयता मूलगुणोत्सरगुणसम्पन्ना साधवस्तेभ्यो दानमिति: सूत्राक्षरार्थः । एस्थ सामाचारी-सावगेण पोसधं पारेंतेण णियमा साधूणमदातुंण पारेयवं, अन्नदा पुण अनियमो-दातुं वा पारेति पारितो वा देइति, तम्हा पुर्व साधूणं दातुं पच्छा पारेतवं, कधं ?, जाधे देसकालो ताघे अप्पणो सरीरस्स विभूसं काउं साधुपडिस्सयं गंतु णिमंतेति, भिक्खं गेहधत्ति, साधूण का पडिवत्ती?, ताधे अण्णो पडलं अण्णो मुहर्णतयं In८३७॥ अन सामाचारी-धावण पोषधं पारयता नियमात् साधुम्योपचान पारपित्तव्यं अन्यथा पुनरनियमः इत्वा वा पारयति पारविश्वा वा ददातीति, तस्मात् पूर्व साधुभ्यो वा पारवितब्य, कथं !, बदा देशकालमादाऽऽत्मनः शारीरय विभूषां कृत्वा साधुप्रतिश्रवं गत्वा निमन्त्रयते मिक्षा गृहीतेति, साधूनां | का प्रतिपत्तिः -तदाऽन्यः पटलं अन्थो मुखानन्तर्क अनुक्रम [८०] JABERatni natorary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~363 Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-१२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४२...', ***** प्रत 中 सूत्रांक अण्णो भाणं पडिलेहेति, मा अंतराइयदोसा ठविंतगदोसा य भविस्संति, सो जति पढमाए पोरुसीए णिमंतेति। अत्थि णमोकारसहिताइतो तो गेज्झति, अधव णस्थि ण गेज्झति, ते वहितवयं होति, जति घणं लगेजा ताधे गेन्झति। संचिक्खाविजति, जो वा उग्घाडाए पोरिसिए पारेति पारणइत्तो अण्णो वा तस्स दिजति, पच्छा तेण सावगेण समग गम्मति, संघाडगो बच्चति, एगो ण वदृति पेसितुं, साधू पुरओ सावगो मग्गतो, घरं णेऊण आसणेण उवणिमंतिजति. जति णिविहगा तो लट्ठयं, अध ण णिवेसंति तधावि विणयो पउत्तो, ताधे भत्तं पाणं सयं चेष देति, अथवा भाणं धरेति। भजा देति, अथवा ठितीओ अच्छति जाव दिण्णं, साधूवि सावसेसं दर्ष गेण्हति, पच्छाकम्मपरिहारणहा, दातूण वंदिनु विसज्जेति, विसजेत्ता अणुगच्छति, पच्छा सयं भुंजति, जं च किर साधूण ण दिणं तं सावगेण ण भोत्सर्व, जति पुण साधू णत्थि ता देसकालवेलाए दिसालोगो कातवो, विसुद्धभावेण चिंतिय-जति साधुणो होता तो णिस्थारितो [सू.१२] ***** दीप अनुक्रम [८०] भन्यो भाजन प्रतिलिखति माऽऽन्तरायिका दोषा भूवन् स्थापनादोषान, स यदि प्रथमाषां पौरुषां निमन्वयते अस्ति नमस्कारसदितस्तदा पृथते. थच नातिन गृयते तद्वोदण्यं भवेत, यदि धनं होत तदा गृह्यते संरक्ष्यते, यो बोदूघाटपारुष्यो पारयति पारणवानन्यो वा ती दीपते, पक्षाप्रोन श्रावकेण समं गम्यते संघारको बजति एको भ वर्तते प्रेषित, साधुः पुरतः पावकः पृष्टतः, गुहं नीरवासनेन निमन्त्रयति, यदि लिमिटर कई नाथ निविशम्ति तथापि बिनयः प्रयुक्तो (भवति), तदा भक्तं पानं वा स्वयमेव ददाति अथवा भाजनं धारयति भार्या ददाति, अथवा स्थित एव तिष्ठति बाबरर्स, साधुरपि सापशेष जन्य गृह्णाति पक्षाकर्मपरिहरणार्थाथ, दया पन्दित्वा विसर्जयति विसृज्यानुगति, पचान खयं भुङ, बच किल साधुभ्यो न द न तथापकेग भोक्तब्ध, यदि पुनः साधुन ति तदा देशकालवेलायां दिगालोकः कर्त्तव्यः, विशुद्धभावेन चिन्तयितर्ष-यदि साधवोऽभविष्यन् तदा निस्तारितोड. *** पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~364 Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-१२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४२...', प्रत सूत्रांक [सू.१२] आवश्यकता होतोसि विभासा । इदमपि च शिक्षापदनतमतिचाररहितमनुपालनीयमिति, अत आह-अतिथिसंविभागस्य-प्रागनिरू-15 प्रत्याख्या हारिभपितशब्दार्थस्य श्रमणोपासकेनामी पञ्चातिचारा ज्ञातव्याःन समाचरितव्याः, तद्यथा-'सचित्तनिक्षेपणं' सचित्तेषु-बीह्या-2 नाध्य द्रीया दिषु निक्षेपणमन्नादेरदानबुद्ध्या मातृस्थानतः, एवं 'सचित्तपिधान' सचित्तेन फलादिना पिधान-स्थगनमिति समासः, श्रावकत्र1८३८॥ भावना प्राग्वत् , 'कालातिक्रम' इति कालस्यातिक्रमः कालातिक्रम इति उचितो यो भिक्षाकालः साधूनां तमतिक्रम्यानागतं | ताधिक वा भुलेऽतिक्रान्ते वा, तदा च किं तेन लब्धेनापि कालातिकान्तत्वात् तस्य, उक्तं च-"काले दिण्णस्स पधेयणस्स अग्धो ण तीरते काउं। तस्सेव अकालपणामियस्स गेण्हतया णस्थि ॥१॥" 'परव्यपदेश' इत्यात्मव्यतिरक्को योऽन्यः स परस्तस्य व्यपदेश इति समासः, साधोः पोषधोपवासपारणकाले भिक्षायै समुपस्थितस्य प्रकटमन्नादि पश्यतः श्रावकोऽभिधत्तेपरकीयमिदमिति, नास्माकीनमतो न ददामि, किश्चिद्याचितो वाऽभिधत्ते-विद्यमान एवामुकस्वेदमस्ति, तत्र गत्वा मार्गवत यूयमिति, 'मात्सर्य' इति याचितः कुप्यति सदपि न ददाति, परोन्नतिवैमनस्यं च मात्सर्य'मिति, एतेन तावद् द्रमकेण याचितेन | दत्तं किमहं ततोऽप्यून इति मात्सर्याद् ददाति, कषायकलुषितेनैव चित्तेन ददतो मात्सर्यमिति, व्याख्यातं सातिचारं चतुर्थं | शिक्षापदनतं, अधुना इत्येष श्रमणोपासकधर्मः। आह-कानि पुनरणुप्रतादीनामित्वराणि यावत्कथिकानीति ?, अत्रोच्यते इत्थं घुण समणोवासगधम्मे पंचाणुव्वयाई तिन्नि गुणब्वयाई आवकहियाई, चत्तारि सिक्खावयाई इत्तरियाई, एयस्स पुणो समणोवासगधम्मस्स मूलवत्थु सम्मत्तं, तंजहा-तं निसग्गेण वा अभिगमेण वा पंच-11 ॥८३८॥ भविष्यदिति विभाषा । २ काले दत्तस्य प्रहेणकस्या! न पाक्यते कर्तुम् । तस्वैचाकालदत्तस्य प्राहका न सन्ति ॥ १॥ दीप *CASA अनुक्रम [८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~365 Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-१३] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४२...', प्रत सूत्रांक [सू.१३] दीप अनुक्रम [८१] अईयारविमुख अणुव्वयगुणब्बयाई च अभिग्गहा अन्नेऽवि पडिमादओ विसेसकरणजोगा, अपसिछमा मारणंतिया संलेहणाझसणाराहणया, इमीए समणोवासएर्ण इमे पश्च०, तंजहा-इहलोगासंसप्पओगे परलोगासंसप्पओगे जीवियासंसप्पओगे मरणासंसप्पओगे कामभोगासंसप्पओगे ॥ १३ ॥ (सूत्रं) अत्र पुनः श्रमणोपासकधर्म पुन शब्दोऽवधारणार्थः, अत्रैव न शाक्यादिश्रमणोपासकधर्मे, सम्यक्त्वाभावेनाणुव्रतायभावादिति, वक्ष्यति च-एत्थ पुण समणोवासगधम्मे मूलवत्धुं संमत्त'मित्यादि, पञ्चाणुव्रतानि प्रतिपादितस्वरूपाणि त्रीणि |गुणव्रतानि उक्तलक्षणान्येव 'यावत्कधिकानी'ति सकृद्गृहीतानि यावज्जीवमपि भावनीयानि, चत्वारीति सङ्ख्या 'शिक्षा-18 पदव्रतानी'ति शिक्षा-अभ्यासस्तस्य पदानि-स्थानानि तान्येव व्रतानि शिक्षापदन्नतानि, 'इत्वराणी'ति तत्र प्रतिदिवसानु-12 ये सामायिकदेशावकाशिके पुनः पुनरुचायें इति भावना, पौषधोपवासातिथिसंविभागौ तु प्रतिनियतदिवसानुष्ठेयौ न । प्रतिदिवसाचरणीयाविति । आह-अस्य श्रमणोपासकधर्मस्य किं पुनर्मूलवस्विति ?, अत्रोच्यते, सम्यक्त्वं, तथा चाह ग्रन्थकार:- एतस्स पुणो समणोवासग' अस्य पुनः श्रमणोपासकधर्मस्य, पुनःशब्दोऽवधारणार्थः अस्यैव, शाक्यादि-11 श्रमणोपासकधर्मे सम्यक्त्वाभावात् न मूलवस्तु सम्यक्त्वं, वसन्त्यस्मिन्नणुव्रतादयो गुणास्तद्भावभावित्वेनेति वस्तु मूलभूतं द्वारभूतं च तत् वस्तु च मूलवस्तु, तथा चोक्तम्-"द्वारं मूलं प्रतिष्ठानमाधारो भाजन निधिः। द्विषट्कस्यास्य धर्मस्य, सम्यक्त्वं है परिकीर्तितम्॥१॥"सम्यक्त्वं-प्रशमादिलक्षणं, उक्तं च-"प्रशमसंवेगनिर्वेदानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणं सम्यक्त्व"(तत्त्वा० भाष्ये अ०१सू०२)मिति, कथं पुनरिदं भवत्यत आह-'तन्निसम्गेण 'तत्-वस्तुभूतं सम्यक्त्वं निसर्गेण वाऽधिगमेन वा भवतीति JanEajatinain पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~366~ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-१३] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४२...', प्रत सूत्रांक [सू.१३] आवश्यक-क्रिया, तत्र निसर्गः-स्वभावः अधिगमस्तु यथावस्थितपदार्थपरिच्छेद इति,आह-मिथ्यात्वमोहनीयकर्मक्षयोपशमादेरिदं भवति । प्रत्याख्या हारिभ- कथमुच्यते निसर्गेण वेत्यादि !, उच्यते, स एव क्षयोपशमादिनिसर्गाधिगमजन्मेति न दोषः, उक्तं च-"ऊसरदेस दहिलयं नाध्य द्रीया च विझाइ धणदवो पप्प । इय मिच्छस्स अणुदये उवसमसम्म लभति जीवो ॥१॥जीवादीणमधिगमो मिच्छत्तस्स तु श्रावका ताधिक खयोवसमभावे । अधिगमसम्म जीवो पाइ विसुद्धपरिणामो ॥२॥"त्ति, अलं प्रसङ्गेन, इह भवोदधौ दुष्पापां सम्य॥८३९|| क्वादिभावरलावाप्ति विज्ञायोपलब्धजिनप्रवचनसारेण श्रावकेण नितरामप्रमादपरेणातिचारपरिहारवता भवितव्यमि-15 दत्यस्याथेस्योक्तस्यैव विशेषख्यापनायानुक्तशेषस्य चाभिधानायेदमाह ग्रन्थकार: 'पञ्चातिचारविसुद्ध'मित्यादि सूत्र, इदं च सम्यक्त्वं प्रागनिरूपितशङ्कादिपश्चातिचारविशुद्धमनुपालनीयमिति शेषः, तथा अणुव्रतगुणत्रतानि-पानिरूपितस्वरूपाणि दृढमतिचाररहितान्येवानुपालनीयानि, तथाऽभिग्रहाः-कृतलोचघृतप्रदानादयः शुद्धा-भगाद्यतिचाररहिता एवानुपालनीयाः, अन्ये च प्रतिमादयो विशेषकरणयोगाः सम्यक्परिपालनीयाः, तत्र प्रतिमा:-पूर्वोक्ताः 'दसणवयसामाइय' इत्यादिना ग्रन्थेन, आदिशब्दादनित्यादिभावनापरिग्रहः, तथा अपश्चिमा मारणान्तिकी संलेखनाजोपणाराधना चातिचाररहिता पालनीयेत्यध्याहारः, तत्रैव पश्चिमैवापश्चिमा मरणं-प्राणत्यागलक्षणं, इह यद्यपि प्रतिक्षणमावीचीमरणमस्ति तथापि ॥८३९॥ ऊपरदेश दग्धं च विध्यायति वनदवः प्राप्य । एवं मिथ्यात्वस्थानुदये औपशमिकसम्पनवं लभते जीवः ॥1॥ जीवादीनामधिगमो मिथ्यात्वस्य || क्षयोपशमभावे । अधिगमसम्बक्तवं जीवः प्रामोति विशुपरिणामः ॥२॥ दीप अनुक्रम [८१] 4-9424495 Indinrary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~367~ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-१३] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४२...', प्रत । सूत्रांक [सू.१३] दीप अनुक्रम [८१] SAKACONGRAHR 81न तद् गृह्यते, किं तर्हि १, सर्वायुष्कक्षयलक्षणमिति मरणमेवान्तो मरणान्तः तत्र भवा मारणान्तिकी बहुच (पूर्वपदात) दाइति ठम् (पा०४-४-६४) संलिख्यतेऽनया शरीरकषायादीति संलेखना-तपोविशेषलक्षणा तस्याः जोपर्ण-सेवनं सातस्याराधना-अखण्डकालस्य करणमित्यर्थः, चशब्दः समुच्चयार्थः। एत्थ सामायारी-आसेवितगिहिधम्मेण किल सावगेण: पच्छा णिक्खमितवं, एवं सावगधम्मो उज्जमितो होति, ण सक्कति ताघे भत्तपञ्चक्खाणकाले संथारसमणेण होतबंति है विभासा । आह उक्तम्-'अपश्चिमा मारणान्तिकी संलेखनाझोषणाऽऽराधना'ऽतिचाररहिता सम्यक् पालनीयेति वाक्यशेषः, अथ के पुनरस्या अतिचारा इति तानुपदर्शयन्नाह-'इमीए समणोवासएणं०' अस्था-अनन्तरोदितसंलेखनासेवनाराध|नायाः श्रमणोपासकेनामी पवातिचारा ज्ञातव्याःन समाचरितव्याः, तद्यथा-दहलोकाशंसाप्रयोगः, इहलोको-मनुष्य लोकस्तस्मिन्नाशंसा-अभिलाषस्तस्याः प्रयोग इति समासः श्रेष्ठी स्याममात्यो वेति, एवं 'परलोकाशंसाप्रयोगः' परलोकेमदेवलोके, एवं जीविताशंसाप्रयोगः, जीवितं-प्राणधारणं तत्राभिलाषप्रयोगः-यदि बहुकालं जीवेयमिति, इयं च लवस्त्रमाल्यपुस्तकवाचनादिपूजादर्शनात् बहुपरिवारदर्शनाच, लोकश्लाघाश्रवणाच्चैवं मन्यते-जीवितमेव श्रेयः प्रत्याख्या ताशनस्यापि, यत एवंविधा मदुद्देशेनेयं विभूतिर्विद्यत इति, 'मरणाशंसाप्रयोग न कश्चित्तं प्रतिपन्नानशनं गवेषयति न सपर्ययाऽऽद्रियते नैव कश्चित् श्लाघते, ततस्तस्यैवंविधश्चित्तपरिणामो जायते-यदि शीघ्रं बियेऽहमपुण्यकर्मेति, भोगाशंसाप्रयोगः' जन्मान्तरे चक्रवर्ती स्याम् वासुदेवो महामण्डलिकः शुभरूपवानित्यादि । उक्तः श्रावकधर्मः, व्याख्यातं समभेदं देशो अत्र सामाचारी-मासेवितगृहिधर्मेण किल श्रावकेन पश्चानिष्कान्तव्यं, एवं श्रावकधो भवत्युवतः, न शक्रोति तदा भकप्रत्याख्यानकाले संस्तारश्रमणेन भवितव्य, विभाषा। AMERMIDrary on पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~368 Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.१३] दीप अनुक्रम [Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६५] भाष्यं [२४२...', प्रत सूत्रांक मनाकारं, परिमाणकृत'मिति दत्त्यादिकृतपरिमाणमिति भावना निरवशेष'मिति समग्राशनादिविषय इति गाथार्थः ॥ १५६४ ॥ 'सङ्केतं चैवेति केत-चिवमङ्गुष्ठादि सह केतेन सङ्केतं सचिह्नमित्यर्थः, 'अद्धा यत्ति कालाख्या, अद्धामाश्रित्य पौरुष्यादिकालमानमपीत्यर्थः, 'प्रत्याख्यानं तु दशविध प्रत्याख्यानशब्दः सर्वत्रानागतादी सम्बध्यते, तुशब्दस्यैवकारार्थत्वाद् व्यवहितोपन्यासाद् दशविधमेव, इह चोपाधिभेदात् स्पष्ट एव भेद इति न पौनरुक्त्यमाशङ्कनीयमिति । आह-इदं प्रत्याख्यानं प्राणातिपातादिप्रत्याख्यानवत् किं तावत् स्वयमकरणादिभेदभिन्नमनुपालनीय आहोश्विदन्यथा !, अन्यथैवेत्याह-स्वयमेवानुपालनीयं, न पुनरन्यकारणे अनुमती वा निषेध इति, आह च-दाणुवदेसे जध समाधित्ति अन्याहारदाने यतिप्रदानोपदेशे च 'यथा समाधिः यथा समाधानमात्मनोऽप्यपीडया प्रवर्तितव्यमिति वाक्यशेषः, उक्तं च-भांवितजिणवयणाणं ममत्तरहियाण णस्थि हु विसेसो। अप्पाणमि परंमि य तो वजे पीडमुभओवि॥१॥"त्ति | गाथार्थः ॥ १५६५ ॥ साम्प्रतमनन्तरोपन्यस्तदशविधप्रत्याख्यानाद्यभेदावयवार्थाभिधित्सयाऽऽह होही पजोसवणा मम य तया अंतराइयं हुना। गुरुवेयावच्चेणं तवस्सिगेलनयाए वा ॥ १५६६॥ सो दाइ तवोकम्म पडिबजे तं अणागए काले । एवं पञ्चक्खाणं अणागय होइ नायब्ध ॥१५६७ ।। भविष्यति पर्युषणा मम च तदा अन्तरायं भवेत् , केन हेतुनेत्यत आह-गुरुवयावृत्त्येन तपस्विग्लानतया वेत्युपलक्षणमिदमिति गाथासमासार्थः ॥ १५६६ ॥स इदानीं तपःकर्म प्रतिपद्येत तदनागतकाले तत्प्रत्याख्यानमेवम्भूतमनागत...भावितजिनवचनानां ममत्वरहितानां नारत्येव विशेषः । आत्मनि परमिश्च ततो वर्जयेत् पीडाभुभयोरपि ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम [८१..] CCCCCCCCC मा०1ST पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: | दशविध प्रत्याख्यानस्य स्वरुपम् वर्णयते ~370 Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५६७] भाष्यं [२४२...], आवश्यक- हारिभ- प्रत्याख्या नाध्य १० ख्यानानि प्रत दीया सूत्रांक ३८४२॥ करणादनागतं ज्ञातव्यं भवतीति गाथार्थः॥१५६७॥ इमो पुण एत्थ भावस्थो-अणागतं पञ्चक्खाणं, जधा अणागतं तवं करेजा, पज्जोसवणागहणं एत्थ विकिह कीरति, सबजहन्नो अहम जधा पज्जोसवणाए, तथा चातुम्मासिए छटुं पक्खिए अब्भत्त। अण्णेसु य पहाणाणुजाणादिसु तहिं ममं अंतराइयं होजा, गुरू-आयरिया तेसिं कातवं, ते किं ण करेंति ?, असर होजा, अथवा अण्णा काइ आणत्तिगा होज्जा कायविया गामंतरादि सेहस्स चा आणेयवं सरीरवेयावडिया वा, ताधे सो उववास करेति गुरुवेयावच्चं च ण सकेति, जो अण्णो दोण्हवि समत्थो सो करेतु, जो वा अण्णो समत्थो उववासस्स सो करेति । णस्थि ण वा लभेजा न याणेज वा विधिं ताधे सो चेव पुवं उबवासं कातूणं पच्छा तद्दिवस मुंजेज्जा, तवसी णाम खमओ तस्स कातवं होज्जा, किं तदा ण करेति !, सो तीरं पत्तो पजोसवणा उस्सारिता, असहुत्ते वा सयं पारावितो, ताधे सयं, हिंडेतुं समत्थो जाणि अन्भासे तत्थ बच्चड, णस्थि ण लहति सेसं जथा गुरूणं विभासा, गेलणं-जाणति जथा तहिं। [सू.] % - दीप अनुक्रम [८१..] -0-58 अयं पुनरत्र भावार्थ:-अनागतं प्रत्याश्यानं यथाऽनागतं तपः कुर्यात् , पर्युषणामहणमत्र चिकृष्ट कियते, सर्व जघन्य मष्टमं यथा पर्युषणायां, तथा | चतुर्मास्यो षष्ठं पाक्षिकेऽभक्तार्थ, अन्येषु वा मानानुयानादिषु तदा ममान्तराषिकं भविष्यति, गुरवः-आचार्यास्तेषां कर्तब्ध, वे किन कुर्वन्तिं ?, असहिष्णवो वा स्युः, अथवा अन्या पा काचिदाशप्तिः कःच्या भवेत् प्रामान्तरगमनादिका शैक्षकस्य वाऽऽनेतव्यं शरीरवैयादृश्यं चा, तदास उपवासं करोति गुरुवैयावृश्यं चन शकोति, योऽन्यो द्वयोरपि समर्थः स करोतु, अम्यो वा यः समर्थ अपवासाब स करोति नास्ति न वा समेत न जानीयादा विर्षि तदा स चैवोपवासं पूर्व कृत्वा | पश्चात् तद् (पर्व) दिवसे भुजीत, तपस्वी नाम क्षपकस्तस्य कर्तव्यं भवेत् , किं तदा न करोति ?, स तीरं प्राप्तः पर्युषणा उत्सारिता, असहिष्णुत्वाद्वा स्वयं पारितवान्, तदा वर्ष हिपिडतुं समर्थो यानि समीपे तत्र बजतु, नास्ति न लभते शेषं यथा गुरूणां विभाषा, ग्लानव-जानाति यथा तत्र -१ X niorary on पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~371 Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५६७] भाष्यं [२४२...], प्रत सूत्रांक दिवसे असर होति, विजेण वा भासितं अमुग दिवसं कीरहिति, अथवा सयं चेव सो गंडरोगादीहिं तेहिं दिवसेहिं असहू। भवतित्ति, सेसविभासा जथा गुरुम्मि, कारणा कुलगणसंघे आयरियगच्छे वा तथैव विभासा, पच्छा सो अणागतकाले काऊणं पच्छा सो जेमेज्जा पज्जोसवणातिसु, तस्स जा किर णिजरा पज्जोसवणादीहि तहेव सा अणागते काले भवति । गतमनागतद्वारम् , अधुनाऽतिक्रान्तद्वारावयवार्थप्रतिपादनायाह पजोसवणाइ तवं जो खलु न करेह कारणजाए। गुरुवेयावचेणं तवस्सिगेलन्नयाए वा ॥१५६८॥ दिसो दाइ तबोकम्म पडिवज्जतं अइच्छिए काले। एवं पञ्चक्खाणं अइकंतं होइ नायब्वं ॥१५६९ ॥ पट्ठवणओ अदिवसोपचक्खाणस्स निट्ठवणओ अ। जहियं समिति दुन्निवि तं भन्नइ कोडिसहियं तु ॥ १५७०॥ मासे २ अ तबो अमुगो अमुगे दिणंमि एवइओ । हटेण गिलाणेण व कायव्वो जाव ऊसासो ।। १५७१ ॥ दाएयं पचक्खाणं नियंटियं धीरपुरिसपत्नत् । जं गिण्हंतऽणगारा अणि स्सि(भि)अप्पा अपडियद्धा ॥१५७२।। चउदसपुवी जिणकप्पिएसु पढमंमि चेव संघयणे । एयं विच्छिन्नं खलु धेरावि तया करेसी य ॥१५७३ ।। है। पर्युषणायां तपो यः खलु न करोति कारणजाते सति, तदेव दर्शयति गुरुवैयावृत्त्येन तपस्विग्लानतया घेति गाथासमा-19 दिवसेऽसहिष्णुर्भवति, वैयेन वा भाषितं अमुग्मिन् दिवसे करिष्यते, अथवा खयमेव स गण्डरोगादिभिस्तेषु दिवसेषु असहिष्णुभांगीति, शेषविभाषा यथा गुरौ, कारणात् कुलमणस क्षेषु आचायें गच्छे वा तथैव विभाषा, पश्वासोऽनागतकाले कृत्वा पश्चात् स जेमेत् पर्युषणादिपु, तसा था किल निर्जरा पर्युप| णादिभिस्तथैव साऽनागते काले भवति । दीप अनुक्रम [८१..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~372 Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५७३] भाष्यं [२४२...], - आवश्यकहारिंभद्रीया प्रत्याख्या नाध्य १०प्रत्या. प्रत सूत्रांक ख्यानानि ॥८४शा [सू.] सार्थः ॥ १५६८ ॥ स इदानी तपाकर्म प्रतिपद्यते तदतिक्रान्ते काले एतत् प्रत्याख्यान-एवंविधमतिक्रान्तकरणादति- क्रान्तं भवति ज्ञातव्यमिति गाथासमासार्थः ॥१५६९ ॥ भावत्यो पुण पज्जोसवणाए तवं तेहिं चेव कारणेहिं न करेइ, जो वा न समस्थो उधवासस्स गुरुतवस्सिगिलाणकारणेहिं सो अतिकते करेति, तथैव विभासा । व्याख्यातमतिक्रान्तद्वारं, अधुना कोटीसहितद्वारं विवृण्वन्नाह-प्रस्थापकश्च-प्रारम्भकश्च दिवसः प्रत्याख्यानस्य निष्ठापकश्च-समाप्तिदिवसश्च यत्र-प्रत्याख्याने 'समिति' त्ति मिलतः द्वावपि पर्यन्तौ तद् भण्यते कोटीसहितमिति गाथासमासार्थः ॥ १५७॥ भावत्थो पुण जत्थ पञ्चक्खाणस्स कोणो कोणो य मिलति, कधी-गोसे आवस्सए अभत्तहो गहितो अहोरत्तं अच्छिऊण पच्छा पुणरवि अभत्तई करेति, बितियस्स पडवणा पढमस्स निवणा, एते दोऽवि कोणा एगट्ठा मिलिता, अहमादिसु दुहतो कोडिसहितं जो चरिमदिवसे तस्सवि एगा कोडी, एवं आयंबिलनिवीतियएगासणा एगहाणगाणिवि, अथवा इमो अण्णो विही-अभत्तडं कत आयंबिलेण पारित, पुणरवि अभत्तह करेति आयंबिलं च, एवं एगासणगादीहिवि संजोगो कातबो, णिषीतिगादिसु ससु सरिसेसु विसरिसेसु य । गतं कोटिसहितद्वारं, इदानीं नियन्त्रितद्वारं न्यक्षेण निरूपयन्नाह-मासे २ भावार्थः पुनः पर्युषणाय उपसरेव कारण करोति, यो वा न समर्थ उपवासाय गुरुतपखिलानकारणः सोऽतिकात करोति, तथैव विभाषा। |२ भावार्थः पुनयंत्र प्रत्याख्यानस्य कोण कोण मिलतः, कथं, प्रत्यूपे आवश्यकेभकार्थो गृहीतः अहोरात्रं स्थित्या पत्रात पुनरपि अभकाय करोति, द्वितीयस्थ प्रस्थापना प्रथम निष्ठापना, एती द्वावपि कोणी एकत्र मिलिती, अष्टमादिषु विधातः कोटीसहितं यक्षरमदिवसः (स) तथाप्येका कोटी, एवमाचामाम्ल निर्विकृतिककासनकस्थानकाम्यपि, अथवाऽयमन्यो विधि:-अमक्कार्थः कृत आचामाग्लेन पारयति, पुनरयभकार्य करोति भागामार च, एवं एकासनादिभिरपि संयोगः कर्तव्यः, निर्विकृत्यादिषु सर्वेषु सटशेषु विसदृशेषु च । दीप अनुक्रम [८१..] ॥८४२॥ JanEairal पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~3730 Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५७३] भाष्यं [२४२...], प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम [८१..] च तपः अमुकं अमुके-अमुकदिवसे एतावत् षष्ठादि हृष्टेन-नीरजेन ग्लानेन वा-अनीरुजेन कर्त्तव्यं यावदुच्छ्रासो यावदायुरिति गाथासमासार्थः ॥ १५७१ ।। एतत् प्रत्याख्यानमुक्तस्वरूपं नियन्त्रितं धीरपुरुषप्रज्ञप्त-तीर्थकरगणधरमरूपितं यद् गृह्णन्ति-प्रतिपद्यन्ते अनगारा-साधवः 'अनिभृतात्मानः' अनिदाना अप्रतिवद्धाः क्षेत्रादिष्विति गाथासमासार्थः ॥ १५७२ ॥ इदं चाधिकृतप्रत्याख्यानं न सर्वकालमेव क्रियते, किं तर्हि ?, चतुर्दशपूर्विजिनकल्पिकेषु प्रथम एव वज़क्रषभनाराचसंहनने,(अधुना तु)एतद् व्यवछिन्नमेव, आह-तदा पुनः किं सर्व एव स्थविरादयः कृतवन्तः आहोश्विजिनकल्पिकादय एवेति?, उच्यते, सर्व एव,तथा चाह-स्थविरा अपि तथा(दा-)चतुर्दशपूादिकाले, अपिशव्दादन्ये च कृतवन्त इति गाथासमासार्थः॥१५७३॥ भावत्थो पुण नियंटितं णाम णियमितं, जथा एत्थ कायचं, अथवाऽच्छिण्णं जथा एत्थ अवस्सं कायचंति, मासे २ अमुगेहिं दिवसेहिं चतुत्थादि छहादि अठ्ठमादि एवतिओ छठेण अट्टमेण वा, हठो ताव करेति चेव, जति गिलाणो हवति तथावि करेति चेव, णवरि ऊसासधरो, एतं च पञ्चक्खाणं पढमसंघतणी अपडिबद्धा अणिस्सिता इत्थ य परस्थ य, अवधारणं मम असमस्थस्स अण्णो काहिति, एवं सरीरए अप्पडिबद्धा अष्णिस्सिता कुवंति, एतं पुण चोदसपुवीसु भावार्थः पुननियन्त्रितं नाम नियमित यथाऽन्न कर्तव्यं, अथवाऽपिछन यथावावश्यं कर्तव्य मिति, मासे २ अमुस्मिन् दिवसे चतुयादि षठादि अष्ट मादि एतावत्, षष्ठेनारमेन वा, एसावत् करोत्येच, यदि ग्लानो भवति तथापि करोत्येच, परं पासधर, एसथ प्रवाण्यानं प्रथम संहून निनोऽप्रतिबद्धा अनिश्रिताः, अन्न चामुत्र च, अवधारणं ममासमर्थवान्यः करिष्यति, एवं शरीरे प्रतिपदा अनिश्रिताः कुर्वन्ति, एतत् पुनधनुशपूर्षिभिः JanEainmA natorary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~374 Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५७३] भाष्यं [२४२...], प्रत्याख्या नाध्य० १०प्रत्या प्रत द्रीया ख्यानानि सूत्रांक आवश्यक- पढमसंघतणेण जिणकप्पेण य समं वोच्छिण्ण, तम्हि पुण काले आयरियपजंता थेरा तदा करता आसत्ति । व्याख्यातं हारिभ- नियन्त्रितद्वारं, साम्प्रतं साकारद्वारं व्याचिख्यासुराह मयहरगागारेहिं अन्नस्थवि कारणमि जायंमि । जो भत्सपरिचायं करेह सागारकडमेयं ॥ १५७४ ॥ ॥८४३॥ । अयं च महानयं च महान् अनयोरतिशयेन महान् महत्तरः, आक्रियन्त इत्याकाराः, प्रभूतैवंविधाकारसत्ताख्यापनार्थं दाबहुवचनमतो महत्तराकारैर्हेतुभूतैरन्यत्र वा-अन्यस्मिंश्चानाभोगादी कारणजाते सति भुजिक्रियां करिष्येऽहमित्येवं यो भक्त परित्यागं करोति सागारकृतमेतदिति गाथार्थः ॥१५७४॥ अवयवत्थो पुण सह आगारेहिं सागारं, आगारा उपरि सुत्ताणुगमे | भणिहिंति, तस्थ महत्तरागारेहि-महलपयोयणेहिं, तेण अभत्तहो पञ्चक्खातो ताथे आयरिएहि भण्णति-अमुगं गार्म गंतवं, तेण निवेइयं जथा मम अज अब्भत्तहो, जति ताव समत्थो करेतु जातु य, ण तरति अण्णो भत्तहितो अभत्तडिओ वा जो तरति सो वचतु, णस्थि अण्णो तस्स वा कज्जरस असमत्थो ताथे तस्स चेव अभत्तद्वियस्स गुरू विसजयन्ति, एरि४ सस्स तं जेमंतस्स अणभिलासस्स अभत्तहितणिज्जरा जा सा से भवति गुरुणिओएण, एवं उस्सूरलंभेवि विणस्सति अञ्चतं. दीप अनुक्रम [८१..] | |८४३॥ प्रथमसंहननेन जिनकल्पेन च समं गवच्छि, समिन् पुनः काले भाचायों जिनकलिपकाः खविरासदा कुषन्त बासन् २ अवयवार्थः पुनः सदाकारी साकारं, आकारा उपरि सूत्रानुगमे मणिष्यन्ते, तत्र महाराकार:-महत्वयोजनैः, तेमाभकार्थः प्रत्याख्यातः सदाचार्भपयते-अमुकं प्रामं गम्तयं, तेन निवेदितं यथा ममाचाभकार्थः, यदि तावत्समर्थः करोतु बानु च न शक्नोति बन्यो भक्कार्थोऽभक्ताओं वा यः शक्रोति स बजतु, नास्त्वम्यस्तस्य या कार्यस्य उसमर्थः तदा तमेवाभक्काधिकं गुरवो विस्जन्ति, इरशास्य तं जेमतोऽनभिलाषस्थान कार्थ निरा या सा तस्य भवति गुरुनियोगेन, एवमुत्सूरलाभेऽपि विनरूपति बावन्तं JAmEajau पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~375 Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५७४] भाष्यं [२४२...], प्रत सूत्रांक विभासा, जति थोवं ताथे जे णमोकारइत्ता पोरुसिइत्ता वा तेसिं विसजेजा जे ण वा पारणइत्ता जे वा असहू विभासा, एवं गिलाणकजेसु अण्णतरे वा कारणे कुलगणसंघकज्जादिविभासा, एवं जो भत्तपरिचार्ग करेति सागारकडमेतति । गतं | साकारद्वारं, इदानीं निराकारद्वारं व्याचिख्यासुराहनिजायकारणंमी मयहरगा नो करंति आगारं । कतारवित्तिदुभिक्खयाइ एवं निरागारं ॥ १५७५ ॥ निश्चयेन यात-अपगतं कारणं-प्रयोजनं यस्मिन्नसी निर्यातकारणास्तस्मिन् साधी महत्तराः-प्रयोजनविशेषास्तत्फला-18 भावान्न कुर्वन्त्याकारान् कार्याभावादित्यर्थः, को-कान्तारवृत्ती दुर्भिक्षतायां च-दुर्भिक्षभावे चेति भावः, अत्र यत् क्रियते | तदेवभूतं प्रत्याख्यानं निराकारमिति गाथार्थः ॥१५७५ ॥ भावत्थो पुण णिज्जातकारणस्स तस्स जधा णत्थि एत्थ किंचिवि वित्ति ताहे महत्तरगादि आगारे ण करेति, अणाभोगसहसक्कारे करेज, किं निमित्तं !, कहं वा अंगुलिं वा मुधे छुहेज अणाभोगेणं सहसा वा, तेण दो आगारा कजंति, तं कहिं होजा, कंतारे जथा सिणपलिमादीसु, कतारेसु वित्ती ण दीप अनुक्रम [८१..] *-*-%% -- विभाषा, यदि सोकं तदा ये नमस्कारसहितका पौरुपीयावा तेषां विसर्जयेत् ये न वा पारणवन्तो ये वाऽसहिष्णवाविभाषा:, एवं ग्लान कार्येषु अन्यतरमिन् वा कार्थे कुलगणसंघकार्यादिविभाषा, एवं यो भवपरित्यागं करोति साकारकृतमेतत् । २ भावार्थः पुननियोतकारणस्य तस्य यथा नास्ति पत्र काचित्तिः तदा महतरादीनाकारान् न करोति, अनाभोगसहसाकारी कुर्यात् , किंनिमित्तं ?, काई पाङ्गुलिं वा मुखे क्षिपेत् अनाभोगेन सहसा वा, तेन हावाकारी कियेते, तत् क भवेत् !, कान्तारे यथा शणपक्ष्यादिषु, कान्तारेषु वृधि न -*- + * -+ REaamana Janorary on पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~376 Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [८१..] आवश्यकहारिभद्वीया १८४४॥ Jus Educato [भाग-३१] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १/४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], निर्युक्तिः [१५७५] भाष्यं [२४२..] लहति, पडिणीएण वा पडिसिद्धं होज्जा, दुब्भिक्खं वा वट्टर हिंडतस्सवि ण लम्भति, अथवा जाणति जधा ण जीवामिति ताथे णिरागारं पञ्चकखाति । व्याख्यातमनाकारद्वारम् अधुना कृतपरिमाणद्वारमधिकृत्याह ६प्रत्याख्या नाध्य० दत्तभिर्वा ख्यानानि दत्तीहि उ कवलेहि व घरेहिं भिक्खाहिं अहव दध्वेहिं । जो भत्तपरिचायं करेइ परिमाणकडमेयं । १५७६ ।। 4 १० प्रत्यागृर्भिक्षाभिरथवा द्रव्यैः-ओदनादिभिराहारायामितमानैर्यो भक्तपरित्यागं करोति 'परिमाणकडमेतं'ति कृतपरिमाणमेतदिति गाथासमासार्थः ॥ १५७६ || अवैयवत्थो पुण दत्तीहिं अज भए एगा दत्ती दो वा ३-४-५ दत्ती, किं वा दत्तीए परिमाणं, बच्चगंपि ( सित्थगंपि ) एकसिं छुम्भति एगा दत्ती, डोवलियंपि जतियाओ बारातो पष्फोडेति तावतियाओ ताओ दत्तीओ, एवं कवले एकेण २ जाव बत्तीस दोहि ऊणिया कवलेहिं, घरेहिं एगादिएहिं २ ३४ । भिक्खाओ एगादियाओ २ ३ ४, दबं अमुगं ओदणे खज्जगविही वा आयंबिलं वा अमुगं वा कुसणं एवमादिविभासा। गतं कृतपरिणामद्वारं, अधुना निरवशेषद्वारावयवार्थ अभिधातुकाम आह सव्वं असणं सव्वं पाणगं सव्वखभुजविहं । वोसिरइ सव्वभावेण एवं भणियं निरवसेसं ।। १५७७ ।। १ लभते प्रत्यनीकेन वा प्रतिषिद्धं भवेत्, दुर्भिक्षं या वर्त्तते हिंडमानेनापि न लभ्यते, अथवा जानाति यथा न जीविष्यामीति तदा निराकारं प्रत्याख्याति २ अवयवार्थः पुनतिभिः अद्य मया एका दत्ति वा ३ ४ ५ दत्तयः, किं वा दत्तेः परिमाणं ? सिक्थकमध्येकशः क्षिपति एका दक्षिः दर्षीमपि यावतो वारान् प्रस्फोटपति तावत्यस्ता दत्तयः, एवं करले एकेन यावत् द्वात्रिंशता द्वाभ्यामूना कवलाम्यां गृहेरेकादिभिः भिक्षा एकादिकाः २ ३४ यम मुकमोदनः खाद्यकविधिर्वा आयामाम्लं वा अमुकं वा द्विदलं एवमादि विभाषा । For Funny ॥८४४॥ ~377~ org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५७७] भाष्यं [२४२..] प्रत सूत्रांक सर्वमशनं सर्व वा पानकं सर्वखाद्यभोज्यं-विविध खाद्यप्रकार भोज्यप्रकारं च व्युत्सृजति-परित्यजति सर्वभावेन-सर्वप्रकारेण भणितमेतन्निरवशेष तीर्थकरगणधरैरिति गाथासमासार्थः॥ १५७७ ।। विस्थरस्थो पुण जो भोअणस्स सत्तरविधस्स वोसिरति पाणगस्स अणेगविधस्स खंडपाणमादियस्स खाइमरस अंबाइयस्स सादिम अणेगविध मधुमादि एतं सर्व जाव वोसिरति एतं णिरवसेस । गतं निरवशेषद्वारम् , इदानी सङ्केतद्वारविस्तरार्थप्रतिपादनायाहअंगुटमुढिगंठीधरसेउस्सासथिबुगजोइक्खे । भणियं सकेयमेयं धीरेहिं अर्थतनाणीहि ॥ १५७८ ॥ | अङ्गुष्ठश्च मुष्टिश्चेत्यादिद्वन्द्वः अङ्गुष्ठमुष्टिग्रन्धिगृहस्वेदोच्छासस्तिबुकज्योतिष्कान् तान् चिहं कृत्वा यत् क्रियते प्रत्याख्यानं तत् भणितम्-उक्तं सङ्केतमेतत् , कैः-धीरैः-अनन्तज्ञानिभिरिति गाधासमासार्थः ॥ १५७८ ॥ अवयवत्थो पुण के नाम चिंध, सह केतेन सङ्केतं, सचिह्नमित्यर्थः, साधू सावगो या पुण्णेवि पचक्खाणे किंचि चिण्हं अभिगिम्हति, जाव एवं तावाधं ण जिमेमित्ति, ताणिमाणि चिह्नानि, अंगुहमुहिगंठिघरसेऊसासथिबुगदीवताणि, तत्थ ताव सावगो पोरुसीपञ्चक्खाइतो ताथे छत्तं गतो, घरे वा ठितो ण ताव जेमेति, ताथे ण किर वद्दति अपचक्खाणस्स अच्छितुं, तदा -- दीप अनुक्रम [८१..] ARSAX विस्तरार्थः पुनर्षों भोजनं सप्तदशविध मयुरसजति पानीयमनेकविध सण्टापानीयादि खाधमानादि स्वायमनेकविध मवादि एतत् सर्व यायमुरमजति एतत् निरवशेष । २ अवधार्थः पुनः के नाम चिहं साधुः धावको वा पूर्णेऽपि प्रत्याख्याने किनिषिद्ध अभिगृद्धाति यावदेवं ताबदई म जेमामि, तानामानि चिहानि माछा मुशिमंन्धिर खेदविन्दरुच्छासाः शिवकोशीपा न तावत् भावका पौरपीप्रत्याख्यानवान तदा क्षेत्रगत वा स्थितः न तावत्। ओमति, तदा किल न वर्ततेमस्याख्यानेन स्थातुं, तदा JANEaratime C पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~378 Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५७८] भाष्यं [२४२..] प्रत सूत्रांक आवश्यक- अंगुहचिंधं करेति, जाव ण मुयामि ताव न जेमेमित्ति, जाव वा गंठिंण मुयामि, जाब घरं ण पविसामि, जाव सेओण प्रत्याख्या हारिभ-18 णस्सति जाव वा एवतिया उस्सासा पाणियमंचिताए वा जाव पत्तिया थिबुगा उस्साबिंदूधिबुगा वा, जाव एस दीवगो 31 नाध्य द्रीया १०प्रत्याजलति ताव अहंण भुंजामित्ति, न केवलं भत्ते अण्णेसुवि अभिग्गहबिसेसेसु संकेतं भवति, एवं ताव सावयस्स, ख्यानानि ॥८४५॥ साधुस्सवि पुण्णे पच्चक्खाणे किं अपचक्खाणी अच्छउ ? तम्हा तेणवि कातवं सङ्केतमिति । व्याख्यातं सङ्केतद्वारं, साम्प्रतम-11 द्धाद्वारप्रतिपिपादयिषयाहअद्धा पचक्खाणं जं तं कालप्पमाणछेएणं । पुरिमहपोरिसीए मुहुत्तमासद्धमासहिं ।। १५७१ ।। अद्धा-काले प्रत्याख्यानं यत् कालप्रमाणच्छेदेन भवति, पुरिमार्द्धपौरुषीभ्यां मुहर्तमासार्द्धमासैरिति गाथासढपार्थः ४॥ १५७९ ॥ अवयंवत्थो पुण अद्धा णाम कालो कालो जस्स परिमाणं तं कालेणावरचं कालियपचक्खाणं, तंजथा-| णमोकार पोरिसि पुरिमडएकासणग अद्धमासमासं, चशब्देन दोणि दिवसा मासा वा जाव छम्मासित्ति पञ्चक्खाणं, एतं अद्धापचक्खाणं । गतमद्धाप्रत्याख्यानं, इदानी उपसंहरन्नाह--[पं० २१५००] अष्टचिरं करोति यायन मुजामि तावन जेमामि यावा अम्धि न मुबामि बापा गृईन प्रविशामि यावदा स्वेदो न नश्यति यावद। एतावन्त ग्लासाः पानीयमशिकायां वा थावदेवावन्तः सिवका अवश्यायपिन्दवो चा यावदेष दीपको वठति तावदईन भुजे, न केवलं भक्तेऽम्वेवापि अभिग्रहवियोषेषु संकेतं भवति, एवं तावत् श्रावकस, साधोरपि पूर्णे प्रत्याख्याने किममत्यागयामी तिष्ठतु तस्मात् तेनापि कर्त्तव्यं संकेतमिति । २ अवषवार्थः पुनः | अद्धा नाम काला, कालो यस परिमाणं तत् कालेनावबई कालिकं प्रत्यास्पानं, तथथा-नमस्कारसहित पीरुपी पूर्वाधिकाशनार्धमासमासानि चशब्देन ही दिवसी मासौ वा यावत् षण्मासाः इति प्रत्याख्यान, एतदद्वाप्रत्याख्यानं RSSC दीप अनुक्रम [८१..] ॥४५॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~379 Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५८०] भाष्यं [२४२..] प्रत SACSCAR सूत्रांक भणियं दसधिहमेयं पञ्चक्खाणं गुरूवएसेणं । कयपचक्खाणविहिं इत्तो वुच्छ समासेणं ॥ १५८० ॥ FIआजह जीवघाए पचक्खाए न कारए अन्नं । भंगभयाऽसणदाणे धुव कारवणे य नणु दोसे ॥ १५८१॥ नो कयपञ्चक्वाणो, आयरियाईण दिज असणाई। न य चिरईपालणाओ यावचं पहाणयरं ॥१५८२॥ नोतिविहंतिविहेणं पचक्खा अन्नदाणकारवणं । सुद्धस्स तओ मुणिणो न होह तभंगहेउत्ति ॥ १५८३ ।। सयमेवणुपालणियं दाणुवएसो य नेह पडिसिहो । ता दिज उवइसिज्ज व जहा समाहीइ अन्नेसि ॥१५८५॥ भाकपचक्खाणोऽवि य आयरियगिलाणवालवुहाणं । दिज्जासणाइ संते लाभे कयबीरियायारो॥ १५८५॥ भणितं दशविधमेतत् प्रत्याख्यानं गुरूपदेशेन, कृतं प्रत्याख्यानं येन स तथाविधस्तस्य विधिस्तं 'अतः' ऊर्ध्व वक्ष्ये समासेन' सझेपेणेति गाधार्थः ॥ १५८० ॥ प्रत्याख्यानाधिकार एवाह परः, किमाह ?-यथा जीवघाते-प्राणातिपाते 8 प्रत्याख्याते सत्यसौ प्रत्याख्याता न कारयत्यन्यमिति-न कारयति जीवघातं अन्यप्राणिनमिति, कुतः?-भङ्गभयात् प्रत्याख्यानभङ्गभयादित्यर्थ, भावार्थ:-अश्यत इत्यशनम्-ओदनादि तस्य दानम्-अशनदानं तस्मिन्नशनदाने,अशनशब्दः पा४ नाथुपलक्षणार्थः, ततश्चैतदुक्तं भवति-कृतप्रत्याख्यानस्य सतः अन्यस्मै अशनादिदाने ध्रुवं कारणमिति-अवश्य भुजिक्रिया कारणं, अशनादिलाभे सति भोक्तु जिक्रियासद्भावात् , ततः किमिति चेत्, ननु दोषः-प्रत्याख्यानभङ्गदोप इति गाथाथः। M॥१५८१ ॥ अत:-'नो कयपच्चक्खाणो आयरियाईण दिज असणाई यतश्चैवमतः न कृतप्रत्याख्यानः पुमानाचार्या४ दिभ्य आदिशब्दादुपाध्यायतपस्विशैक्षकग्लानवृद्धादिपरिग्रहः दद्यात् , किम् ? -अशनादि, स्यादेतद्-ददतो वैयावृत्य दीप अनुक्रम [८१..] ACC3% JAMERIENDRA पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~380 Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-1, नियुक्ति: [१५८५] भाष्यं [२४२..] ་ आवश्यकता हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥८४६॥ दीप अनुक्रम [८१..] ACCC0 लाभ इत्यत आह-न च विरतिपालनाद् वैय्यावृत्यं प्रधानतरमतः सत्यपि च लाभे किं तेनेति गाथार्थः ॥ १५८२ ॥ प्रत्याख्या एवं विनेयजनहिताय पराभिप्रायमाशङ्काय गुरुराह-न 'त्रिविध करणकारणानुमतिभेदभिन्नं 'त्रिविधेन' मनोवाक्काय- नाध्यक योगत्रयेण 'प्रत्याख्याति' प्रत्याचष्टे प्रकान्तमशनादि अतोऽनभ्युपगतोपालम्भश्चोदकमते, यतश्चैवम् अन्यस्मै दानम-10 १०प्रत्याशनादेरिति गम्यते, तेन हेतुभूतेन कारणं भुजिक्रियागोचरमन्यदानकरणं तच्छुद्धस्य-आशंसादिदोषरहितस्य ततः ख्यानानि तस्मात् मुनेः-साधोः न भवति तद्भङ्गाहेतु:-प्रक्रान्तप्रत्याख्यानभङ्गाहेतुः, तथाऽनभ्युपगमादिति गाथार्थः ॥१५८ शाकिंच|स्वयमेव-आत्मनवानुपालनीयं प्रत्याख्यानमुक्तं नियुक्तिकारेण, दानोपदेशी य नेह प्रतिषिद्धी, तत्रात्मनाऽऽनीय वितरणं दानं दानश्राद्धकादिकुलाख्यानं तूपदेश इति, यस्माद् एवं तस्माद्दद्यादुपदिशेद्वा, यथासमाधिना वा यथासामर्थेन 'अन्येभ्यो बालादिभ्य इति गाथार्थः ॥ १५८४ ॥ अमुमेवार्थ स्पृष्टयन्नाह 'कय इत्यादि, निगदसिद्धा, एत्थ पुण सामायारी-सयं अ -IK जंतोवि साधूर्ण आणेत्ता भत्तपाणं देजा, संतं वीरियं ण निगृहितचं अप्पणो, संते वीरिए अण्णो णाऽऽणावेयबो, जथा अण्णो | अमुगस्स आणेदु दिति, तम्हा अप्पणो संते वीरिए आयरियगिलाणबालवुडपाहुणगादीण गरछस्स या संणायकुलेहिंतो वा असण्णातएहिं वा लद्धिसंपुण्णो आणेत्ता देज वा दवावेज वा परिचिएसुवा संखडीए वा दवावेज, दाणेत्ति गतं, उपदिसेज ८४६॥ १ अन्त्र पुनः सामाचारी-स्वपमभुलानोऽपि साधूभ्य आनीय भक्तपाने दचार सदीयं न निगृहितव्यं आत्मनः, सति वीर्येऽन्यो नाऽजापयितव्यः वधाऽन्यो| मुकमी आनीय ददातु, तस्मात् आत्मनः सति वीर्य आचायग्लानबालवृद्धमापूर्णकादिभ्यो गच्छाय वा सजातीयकुतिभ्यो वाऽसज्ञातीयेभ्यो वा लम्धिसंपूर्ण भानीय दधात वापयेहा, परिचितेभ्यो वा सङ्घया वा दापयेत् , वानमिति गतं, उपदिशेट्टा RE- JAMERIA IndiaTary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~381 Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५८५] भाष्यं [२४४] प्रत सूत्रांक वा संविग्गअण्णसंभोइयाणं जथा एताणि दाणकुलाणि सदृगकुलाणि वा, अतरंतो संभोइयाणवि उवदिसेज ण दोसो, अह पाणगस्स सण्णाभूमि वा गतेण संखडीभत्तादिगं वा होज ताहे साधूणं अमुगत्थ संलडित्ति एवं उवदिसेज्जा । उवदेसत्ति गतं । जहासमाही णाम दाणे उवदेसे अ जहासामस्थ, जति तरति आणेदुं देति, अह न तरति तो दवावेज वा उवदिसेज वा, जथा जथा साधूणं अपणो वा समाधी तथा तथा पयतित जहासमाधित्ति वक्खाणियं । अमुमेवार्थमुपदर्शयन्नाह भाष्यकार:संविग्गअण्णसंभोल्याण देसेज सङगकुलाई । अतरंतो वा संभोइयाण देजा जहसमाही ॥२४४॥(भा०) । गतार्थी, णवरमतरतस्स अण्णसंभोइयस्सवि दातबं । साम्प्रतं प्रत्याख्यानशुद्धिः प्रतिपाद्यते, तथा चाह भाष्यकार:सोही पञ्चक्खाणस्स छविहा समणसमयकेहिं । पन्नत्ता तित्थयरेहिं तमहं धुच्छ समासेणं ॥ २४५॥ (भा०) सा पुण सदहणा जाणणा यविणयाणुभासणा चेव । अणुपालणा विसोही भावषिसोही भवे छट्ठा ॥ १५८६ ॥ | शोधनं शुद्धिः, सा प्रत्याख्यानस्य-प्रागनिरूपितशब्दार्थस्य पविधा-षट्प्रकाराश्रमणसमयकेतुभिः-साधुसिद्धान्तचिह्न-1 संविभ्योऽन्यसांभोगिकेभ्यो बयैतानि दानकुलानि भाबककुलानि वा, अशक्नुवन् सांभोगिकेभ्योऽप्युपदिशेन दोषा, अथ पानकस्य संज्ञाभूमि वा गतेन संखडीभक्तादिकं या भवेत् तदा साधुभ्योऽमुकत्र संखडीत्येवमुपदिशेत , उपदेश इति पतं, यथासमाधिनाम दाने उपदेशे च यथासामर्थ्य, पदि शक्नोति मानीव ददाति अथ न पामोति तदा दापयेदोपदिशेद्रा, वथा यथा साधूनामात्मनो वा समाधिस्तथा तथा प्रयतितम्यं वधासमाधीति व्याख्यातं । २ गवरमशावतोऽन्यसांभोशिकावापि दातव्यं दीप अनुक्रम [८१..] मा.११३ IndiaTary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~382 Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५८६] भाष्यं [२४५] आवश्यकहारिभद्रीया SO प्रत सूत्रांक ॥८४७॥ [सू.] भूतैः प्रज्ञप्ता-प्ररूपिता, कैः-तीर्थकरैः-ऋषभादिभिः, तामहं वक्ष्ये, कथं ?-समासेन-सद्धेपेणेति गाथार्थः ॥ २४५ प्रत्याख्या अधुना षविधत्वमुपदर्शयन्नाह-सा पुनः शुद्धिरेवं पविधा, तद्यथा श्रद्धानशुद्धिः ज्ञानशुद्धिश्च विनयशुद्धिः अनुभापणाशुद्धिश्चैव, तथाऽनुपालनाविशुद्धिश्चैव भावशुद्धिर्भवति षष्ठी, पाठान्तरं वा 'सोहीसदहणे त्यादि, तत्र शुद्धिशब्दो १०प्रत्या ख्यिानानि द्वारोपलक्षणार्थः, नियुक्तिगाथा चेयमिति गाथासमासार्थः ॥ १५८६ ॥ अवयवार्थ तु भाष्यकार एव वक्ष्यति, तत्राद्य-४ द्वारावयवार्थप्रतिपादनायाहपचक्खाणं सब्वन्नदेसिज जहिं जया काले । तं जो सद्दाइ नरोतं जाणसु सहहणसुद्धं ॥ २४६ ॥ (भा०) पचक्खाणं जाणइ कप्पे जं जंमि होइ कायन्वं । मूलगुणे उत्तरगुणे तं जाणसु जाणणासुद्धं ॥२४७ ।। (भा०)| प्रत्याख्यानं सर्वज्ञभाषितं-तीर्थकरप्रणीतमित्यर्थः 'य'दिति यत् सप्तविंशतिविधस्यान्यतम, सप्तविंशतिविधं च पञ्चविधं| साधुमूलगुणप्रत्याख्यानं दशविधमुत्तरगुणप्रत्याख्यानं द्वादशविध श्रावकप्रत्याख्यानं 'यत्र' जिनकल्पे चतुर्यामे पशयामेवा| श्रावकधर्मे वा 'यदा' सुभिक्षे दुर्भिक्षे वा पूर्वाहे पराहे वा काल इति-चरमकाले तत् यः श्रद्धत्ते नरः तत् तदभेदोपचा-18 रात् तस्यैव तथापरिणतत्वाजानीहि श्रद्धानशुद्धमिति गाथार्थः ॥ २४६ ॥ ज्ञानशुद्ध प्रतिपाद्यते, तत्र-प्रत्याख्यानं जानाति-अवगच्छति कल्पे-जिनकल्पादौ यत् प्रत्याख्यानं यस्मिन् भवति कर्तव्यं मूलगुणोत्तरगुणविषय तज्जानीहि ज्ञानशुद्धमिति गाथार्थः ॥ २४७ ॥ विनयशुद्धमुच्यते, तत्रेय गाथाकिइकम्मस्स विसोही पउंजई जो अहीणमइरिसं।मणवयणकायगुत्तोतं जाणसुविणयओ सुद्धं ॥२४८॥ (भा०) दीप अनुक्रम [८१..] * R- SCRESSES -5 ॥८४७॥ JAMERIAL पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~3830 Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५८६...] भाष्यं [२४९] प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम [८१..] अणुभासइ गुरुवयणं अक्खरपयवंजणेहिं परिसुद्धं । पंजलिउडो अभिमुहोतं जाणणु भासणासुद्धं ॥२४९॥ (भा०) कतारे दुभिक्खे आर्यके वा महई समुप्पन्ने । जं पालियं न भग्गं तं जाणणु पालणासुद्धं ॥ २५० ॥ (भा.) दासगण व दोसेण व परिणामेण व न दुसियं जं तु।तं खलु पञ्चक्खाणं भावविसुद्धं मुणेयब्वं ॥२५१॥ (भा०) एएहिं छहिं ठाणेहि पञ्चक्खाणं न दूसियं जंतु । तं सुद्धं नायव्वं तप्पडिवक्खे असुई तु ॥ २५२ ॥ (भा०) थंभा कोहा अणाभोगा अणापुच्छा असंतई। परिणामओ असुद्धोअवाउ जम्हा विउ पमाणं ॥ २५३ ।। (भा०) पञ्चकखाणं समतं कृतिकर्मणः-वन्दनकस्येत्यर्थः विशुद्धि-निरवद्यकरणक्रियां प्रयुते यः सः प्रत्याख्यानकाले अन्यूनातिरिक्तां विशुद्धिं मनोवाक्कायगुप्तः सन् प्रत्याख्यानृपरिणामत्वात् प्रत्याख्यानं जानीहि विनयतो-विनयेन शुद्धमिति गाधार्थः ॥ २४०॥ अधुनाऽनुभाषणशुद्ध प्रतिपादयन्नाह-कृतकृतिको प्रत्याख्यानं कुर्वन् अनुभाषते गुरुवचनं, लघुतरेण शब्देन भणतीत्यर्थः, कथमनुभाषते?-अक्षरपदव्यजनैः परिशुद्ध, अनेनानुभाषणायनमाह, णवरं गुरु भणति चोसिरति, इमोवि भणति-योसिरामोत्ति, सेसं गुरुभणितसरिस भाणितवं । किंभूतः सन् , कृतप्राञ्जलिरभिमुखस्तजानीह्यनुभाषणाशुद्धमिति गाथार्थ: |॥ २४९ ।। साम्प्रतमनुपालनाशुद्धमाह-कान्तारे-अरण्ये दुर्भिक्षे-कालविभ्रमे आत वा-वरादी महति समुत्पन्ने सति | यत् पालितं यन्न भग्नं तञानीह्यनुपालनाशुद्धमिति । एत्थ उम्गमदोसा सोलस उप्पादणाएवि दोसा सोलस एसणादोसा परं गुरुर्भणति-न्युत्सुजाति, अयमपि भणति व्युत्सृजाम इति, शेषं गुरुभणितसद भवितव्यं । २ अनोहमदोषाः पोश उत्पादनाया अपि दोषाः Wषोडश एषणादोषा JABERating पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~3840 Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५८६...] भाष्यं [२५३] प्रत्याख्य नाध्य. IA १०प्रत्या. प्रत सूत्रांक ख्यानानि [सू.] दीप अनुक्रम [८१..] आवश्यक- दस एते सबे बातालीस दोसा णिचपडिसिद्धा, एते कंतारे दुर्भिक्षादिसुण भजतित्ति गाथार्थः ॥ २५० ॥ इदानीं भावशु- दस हारिभ- अमाह-रागेण वा-अभिष्वङ्गालक्षणेन द्वेषेण वा-अप्रीतिलक्षणेन, परिणामेन च-इहलोकाद्याशंसालक्षणेन स्तम्भादिना वा द्रीया वक्ष्यमाणेन न दूषित-न कलुषितं यत् तु-यदेव तत् खल्विति-तदेव खलुशब्दस्यावधारणार्थत्वात् प्रत्याख्यानं भाववि॥८४८॥ शुद्ध 'मुणेय'ति ज्ञातव्यमिति गाथासमासार्थः ॥ अवयवत्थो पुण-रागेण एस पूइज्जदित्ति अहंपि एवं करेमि तो पुजिहामि एवं रागेण करेति, दोसेण तहा करेमि जहा लोगो ममहत्तो पडति तेण एतस्स ण अहायति एवं दोसेण, परिणामेण णो इहलोगहताए णो परलोगहयाए नो कित्तिजसवण्णसहहेतुं वा अण्णपाणवत्थलोभेण सयणासणवत्थहेतुं वा, जो एवं करेति तं भावसुद्ध ॥२५१॥ एभिर्निरन्तरव्यावणितैः षभिः स्थानैः श्रद्धानादिभिः प्रत्याख्यानं न दूषितं-न हाकलुषितं यत् तु-यदेव तत् शुद्धं ज्ञातव्यं । तत्प्रतिपक्षे-अश्रद्धानादौ सति अशुद्ध तु-अशुद्धमेवेति गाथार्थः ॥ २५२॥ परिणामेन वा न प्रदूषितमित्युक्तं तत्र परिणाम प्रतिपादयन्नाह-स्तम्भात्-मानात् , क्रोधात्-प्रतीतात्, अनाभोगात्-विस्मृतः अनापृच्छातः असन्ततेः (तातः)परिणामात् अशुद्धः अपायो वा निमित्तं यस्मादेवं तस्मात् प्रत्याख्यानचिन्तायां विद्वा दश, एते स हिचत्वारिंशत् दोषा नित्य प्रतिपिडा। एते कान्तारदुर्भिक्षादिषु न भज्यन्ते इति । १ अवयवार्थः पुना रागणेष पूज्यते इत्यहमपि एवं करोमि ततः पूजयिष्ये एवं रागेण करोति, रेषण तथा करोमि बया लोको ममावती पतति तेनेनं नाझियते एवं हेपेण, परिणामेन नेहकोकाय न परलोकाथांब न कीर्तिवर्णय शम्बतोर्वा अक्षपानवनलोभेन शयनासनवखदेतोवा, व एवं करोति तत् भायशुवं । R ८४८॥ JAMERIAL ainatorary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~385 Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५८६...] भाष्यं [२५३] प्रत सूत्रांक न प्रमाणं निश्चयनयदर्शनेनेति गाथार्थः ॥ २५३ ॥ थंभेण एसो माणिजति अहंपि पञ्चक्खामि तो माणिजामि, कोघेण पडिचोदणाइ अंबाडिओ णेच्छति जेमेतुं कोहेण अन्भत्तढ करेति, अणाभोगेण ण याणति किं मम पञ्चक्खाणंति जिमिएण संभरितं भर्ग पञ्चक्खाणं, अणापुच्छा णाम अणापुच्छाए चेव भुंजति मा वारिजिहामि जहा तुमे अन्भत्तहो पञ्चक्खादोत्ति, अहवा जेमेमि तो भणिहामि वीसरितंति, 'असंतति'त्ति णस्थि एत्थ किंचि भोत्तवं वरं पञ्चक्वातंति परिणामतोऽशुद्धोत्ति दारं । सो पुववण्णितो इहलोगजसकित्तिमादि, अहवा एसेव थंभादि अवाउत्ति, अहं पञ्चक्खामि, मा णिच्छुभी-1 हामित्ति, अहवा एए ण पञ्चक्खाति । एवं ण कप्पति विदू णाम जाणगो तस्स सुद्धं भवति सो अण्णधा ण करेति जम्हा, कम्हा', जाणगो, तम्हा विदू पमाणं, जाणतो सुहं परिहरतित्ति भणितं होति, सो पमाण, तस्य शुद्धं भवतीत्यर्थः । पञ्चक्खाणं समत्त' मूलद्वारगाधायां प्रत्याख्यानमिति द्वारं व्याख्यातं । शेषाणि तु प्रत्याख्यात्रादीनि पञ्च द्वाराणि नामनिष्पन्ननिक्षेपान्तर्गतान्यपि सूत्रानुगमोपरि व्याख्यास्यामः, किमिति?, अत्रोच्यते, येन प्रत्याख्यानं सूत्रानुगमेन परमार्थतः समाप्ति स्तम्भेनैष मान्यते अहमपि प्रत्याश्यामि ततो मानयिव्ये, कोधेन प्रतिनोदनया निर्भसितो नेच्छति जिमित क्रोधेनाभतार्थ करोति, अनाभोगेन न भानाति किं मम प्रत्याख्यानमिति जिमितेन स्मृतं मा प्रत्याख्यानं, अनाच्छा नाम भनाइव भुमक्ति मा वारिपि यथा त्वयाऽभक्कार्थः प्रयाण्यास इति । अधचा जेमामि ततो भणियामि विस्मृतमिति, असदिति नास्त्यत्र किशि भोक्तव्य पर प्रत्याख्यातमिति परिणामतोऽशुद्ध इति द्वार । स पूर्ववर्णित इहलोकयशः-11 | कीर्तिवर्णादि, मधवेष एवं सम्भादिपाय इति, अहं प्रत्याश्यामि मा निधिकाशिषमिति, अथवैते मप्रसायान्ति, एवं न कल्पते, पितुनाम शायका तस्स शुर्व भवति, सोन्यथा मकरोति यस्मात् , कस्मात् , शावकः, तसाद्विदुः प्रमाण, आनानः सुखं परिहरचीति भणितं भवति, सप्रमाण । दीप अनुक्रम [८१..] Indiarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~386 Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५८६...] भाष्यं [२५३] प्रत्याख्या नाध्य १०प्रत्याख्यानानि प्रत सूत्रांक :45 दीप अनुक्रम आवश्यक-13 यास्यतीति । अत्रान्तरेऽध्ययनशब्दार्थों निरूपणीयः, स चान्यत्र न्यक्षेण निरूपितत्वान्नेह प्रतन्यते, गतो नामनिष्पन्नो हारिभ ति निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रालापकनिष्पन्नस्य निक्षेपस्थावसरः, स च सूत्रे सति भवति, सूत्रं चानुगमे, स च बिधा-सूत्रानुगमो द्रीया नियुक्त्यनुगमश्च, तत्र निर्युच्यनुगमस्त्रिविधः, तद्यथा-निक्षेपनियुक्त्यनुगम उपोद्घातनियुक्त्यनुगमः सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्य- ॥८४९।। नुगमश्चेति, तत्र निक्षेपनियुक्त्यनुगमोऽनुगतो वक्ष्यते च, उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगमस्त्वाभ्यां द्वारगाथाभ्यामवगन्तव्यः, तद्यथा-'उद्देसे णिसे य' इत्यादि, 'किं कतिविध मित्यादि, सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यनुगमस्तु सूत्रे सति भवति, सूत्रं च सूत्रानुगम इति, स चावसरप्राप्त एव, युगपच्च सूत्रादयो ब्रजन्ति, तथा चोक्त-"सुत्तं मुत्ताणुगमो सुत्तालावयगतोय णिक्खेवो। सुत्तफासियनिजुत्तिणया य समग तु वच्चंति ॥१॥" अत्राक्षेपपरिहारौ न्यक्षेण सामायिकाध्ययने निरूपितावेव नेह वितन्येते इत्यलं विस्तरेण । तत्रेदं सूत्र सूरे उग्गए णमोकारसहितं पञ्चक्खाति चउविहंपि आहारं असणं पाणं खाइमं साइम, अण्णत्व अणाभोगेणं सहसाकारेणं वोसिरामि। अस्य व्याख्या-तल्लक्षणं-'संहिता च पदं चैव, पदार्थः पदविग्रहः । चालना प्रत्यवस्थानं, व्याख्या तन्त्रस्य पविधा ॥१॥ तत्रास्खलितपदोच्चारणं संहिता निर्दिष्टैच, अधुना पदानि-सूर्ये उद्गते नमस्कारसहितं प्रत्याख्याति, चतुर्विधमपि आहारं अशनं पानं खादिम स्वादिर्म, अन्यत्रानाभोगेन सहसाकारेण व्युत्सृजति । अधुना पदार्थ उच्यते-तत्र अशूभोजने' सूत्र सूत्रानुगमः सूत्रालापकगत निक्षेपः । सूप्रस्पर्शिकनियुक्किनयाश्च युगपदेव बजन्ति ॥ १॥ [८२] 1८४१॥ JANEaia पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: अथ नमुक्कारसहितं आदि प्रत्याख्यानानि कथयते ~387 Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५८६...] भाष्यं [२५३...] प्रत AMACHAR सूत्रांक दीप अनुक्रम इत्यस्य ल्युडन्तस्य अश्यत इत्यशनं भवति, तथा 'पा पाने' इत्यस्य पीयत इति पानमिति, 'खाह भक्षणे इत्यस्य च वक्तहै व्यादिमन्प्रत्ययान्तस्य खाद्यत इति खादिम भवति, एवं 'स्वद स्वर्द आस्वादने' इत्यस्य च स्वाद्यत इति स्वादिम अथवा खाद्य स्वायं च, 'अन्यत्रे'ति परिवर्जनार्थ यथा 'अन्यत्र द्रोणभीष्माभ्यां, सर्वे योधाः पराङ्मुखा' इति, तथा आभोगनमाभोगः न आभोगोऽनाभोगः, अत्यन्तविस्मृतिरित्यर्थः, तेन, अनाभोग मुक्त्वेत्यर्थः, तथा सहसाकरणं सहसाकार:-अतिप्रवृत्तियोगादनिवर्त्तनमित्यर्थः, तेन तं मुक्त्वा च्युत्सृजतीत्यर्थः । एष पदार्थः, पदविग्रहस्तु समासभाक्पदविषय इति क्वचिदेव भवति न सर्वत्र, स च यथासम्भवं प्रदर्शित एव, चालनाप्रत्यवस्थाने च नियुक्तिकारः स्वयमेव दर्शयिष्यतीति सूत्रसमुदायार्थः ।। अधुना सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्येदमेव निरूपयशाह|असणं पाणगं चेब, खाइमं साइमं तहा । एसो आहारविही, चउब्बिहो होइ नायव्यो ॥१५८७ ॥ आसु खुहं समेई, असणं पाणाणुवग्गहे पाणं । खे माइ खाइमति य, साएद गुणे तओ साई ॥ १५८८ ॥ * अशन-मण्डकीदनादि, पानं चैव-द्राक्षापानादि, खादिम-फलादि तथा स्वादिम-गुडताम्बूलपूगफलादि, एप आहार-IN विधिश्चतुर्विधो भवति ज्ञातव्य इति गाथार्थः ।। १५८७ ॥ साम्प्रतं समयपरिभाषया शब्दार्थनिरूपणायाह-आशु-शीघ्र क्षुधा-बुभुक्षां शमयतीत्यशनं, तथा प्राणानाम्-इन्द्रियादिलक्षणानां उपग्रह-उपकारे यद् वर्तत इति गम्यते तत् पानमिति, है खमिति-आकाशं सच मुखविवरमेव तस्मिन् मातीति खादिम, स्वादयति गुणान्-रसादीन् संयमगुणान् वा यतस्ततः स्वादिम, [८२] JAmEajatnix K arayan पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~388 Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५८८] भाष्यं [२५३...] आवश्यक- हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ८५० हेतुत्वेन तदेव स्वादयतीत्यर्थः । विचित्रं निरुक्तं पाठात् , धमति च रौति च भ्रमर इत्यादिप्रयोगदर्शनात् , साधुरेवायम-IANE न्वर्थ इति गाथार्थः ॥ १५८८ ॥ उक्तः पदार्थः, पदविग्रहस्तु समासभाक्पदविषय इति नोक्तः । अधुना चालनामाहसब्वोऽविय आहारो असणं सम्वोऽवि बुचई पाणं । सव्वोऽविखाइमतिय सम्वोऽविय साइमं होई ॥१५८९॥ १० प्रत्या यद्यनन्तरोदितपदार्थापेक्षया अशनादीनि ततः सर्वोऽपि चाहारश्चतुर्विधोऽपीत्यर्थः अशनं, सर्वोऽपि चोच्यते पानं ख्यानानि सर्वोऽपि च खादिमं सर्व एव स्वादिमं भवति, अन्यथा विशेषात् , तथाहि-यथैवाशनमोदनमण्डकादि क्षुधं शमयति तथैव पानक द्राक्षाक्षीरपानादि खादिममपि च फलादि स्वादिममपि ताम्बूलपुगफलादि, यथा च पानं प्राणानामुपग्रहे वर्त्तते एवमशनादीन्यपि, तथा चत्वार्यपि खे मान्ति चत्वार्यपि वा स्वादयन्ति आस्वाद्यन्ते वेति न कश्चिद् विशेषः, तस्मादयु|क्तमेवं भेद इति गाथार्थः ॥ १५८९ ॥ इयं चालना, प्रत्यवस्थानं तु यद्यपि एतदेवं तथापि [तुल्यार्थत्वप्राप्तावपि] रूदितो नीतितः प्रयोजनं संयमोपकारकमस्ति एवं कल्पनायाः, अन्यथा दोषः, तथा चाहजइ असणमेव सब्वं पाणग अविवजणंमि सेसाणं । हवइ य सेसविवेगो तेण विहत्ताणि चउरोऽवि ॥१५९०॥ । यद्यशनमेष सर्वेमाहारजातं गृह्यते ततः शेषापरिभोगेऽपि पानकादिवजने-उदकादिपरित्यागे शेषाणामाहारभेदानां निवृत्तिने कृता भवतीति वाक्यशेषः, ततः का नोहानिरिति चेत् ? भवति शेषविवेकः-अस्ति च शेषाहारभेदपरित्यागः, न्यायोपपत्नत्वात् , प्रेक्षापूर्विकारितया त्यागपालन न्यायः स चेह सम्भवति, तेन विभक्तानि चत्वार्यपि अशनादीनि, तदेक-15 ५०॥ | भावेऽपि तत्तद्भेदपरित्यागे एतदुपपद्यत एवेति चेत्, सत्यमुपपद्यते दुरवसेयं तु भवति, तस्यैव देशस्त्यक्तस्तस्यैव नेति दीप अनुक्रम [८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~389~ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५९०] भाष्यं [२५३...] %E0%SERE प्रत सूत्रांक 'अर्ड कुकुयाः पच्यते अर्द्ध प्रसवाय कल्प्यते' इति, अपरिणतानां श्रद्धानं च न जायते, एवं तु सामान्यविशेषभेदनिरूपणायां सुखावसेयं सुखश्रद्धेयं च भवति इति गाथार्थः ॥ १५९० ॥ तथा चाह असणं पाणगं घेव, खाइम साइमं तहा। एवं परूवियंमी, सहहि जे मुहं होइ॥१५९१ ॥ ८. अशनं पानकं चैव खादिमं स्वादिम तथा, एवं प्ररूपिते-सामान्यविशेषभावेनाख्याते, तथावबोधात् श्रद्धातुं सुखं | भवति, मुखेन श्रद्धा प्रवर्तते, उपलक्षणार्थत्वाद् दीयते पाल्यते च सुखमिति गाथार्थः ॥ १५९१ ॥ आह-मनसाऽन्यथा 51 संप्रधारिते प्रत्याख्याने विविधस्य प्रत्याख्यानं करोमीति वागन्यथा विनिर्गता चतुर्विधस्येति गुरुणाऽपि तथैव दत्तमत्र का प्रमाण, उच्यते, शिष्यस्य मनोगतो भाव इति, आह चअन्नस्थ निवडिए वंजणमि जो खलु मणोगओभावोतं खलु पच्चक्खाणं न पमाणं बंजणच्छलणा ॥१५९२॥ अन्यत्र निपतिते व्यञ्जने-त्रिविधपत्याख्यानचिन्तायां चतुर्विध इत्येवमादौ निपतिते शब्दे यः खलु मनोगतो भावः। प्रत्याख्यातुः खलुशब्दो विशेषणे अधिकतरसंयमयोगकरणापहतचेतसोऽन्यत्र निपतिते न तु तथाविधप्रमादात् यो मनो गतो भावः आद्यः तत् खलु प्रत्याख्यानं प्रमाण, अनेनापान्तरालगतसूक्ष्मविवक्षान्तरप्रतिषेधमाह, आद्याया एव प्रवर्तक४खात्, व्यवहारदर्शनस्य चाधिकृतत्वाद्, अतःन प्रमाण व्यञ्जन-तच्छिष्याचार्ययोर्वचनं, किमिति !, छलनाऽसी व्यञ्ज-18 दानमात्र, तदन्यथाभावसभावादिति गाथार्थः ॥ १५९२ ॥ इदं च प्रत्याख्यानं प्रधान निजराकारणमिति विधिवदनुपा लनीय, तथा चाह X4 दीप अनुक्रम [८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~390 Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५९३] भाष्यं [२५३...] प्रत सत्राक आवश्यक- फासियं पालियं चेव, सोहियं तीरियं तहा । किहिअमाराहिअंचेच, एरिसयंमी पपइयव्वं ॥ १५९३ ।। प्रत्याख्या | स्पृष्टं-प्रत्याख्यानग्रहणकाले विधिना प्राप्त पालितं चैव-पुनः पुनरुपयोगप्रतिजागरणेन रक्षितं शोभितं-गुर्वादिप्रदा- नाध्य० द्रीया नशेषभोजनासेवनेन तीरित-पूर्णेऽपि कालावधौ किश्चित्कालावस्थानेन कीर्तित-भोजनवेलायाममुकं मया प्रत्याख्यातं १० प्रत्या तत् पूर्णमधुना भोक्ष्य इत्युच्चारणेन आराधितं-तथैव एभिरेव प्रकारैः सम्पूर्णेनिष्ठां नीतं यस्मादेवंभूतमेव तदाज्ञापा-II | ख्यानानि ॥८५१॥ लनादप्रमादाच महत्कर्मक्षयकारणं तस्माद् ईशि प्रयतितव्यमिति एवंभूत एवं प्रत्याख्याने यत्नः कायें इति गाथार्थः ॥ १५९३ ।। साम्प्रतमनन्तरपारम्पर्येण तत्प्रत्याख्यानगुणानाहपचक्खाणंमि कए आसवदाराई हुंति पिहियाई। आसववुच्छेएण तण्हायुच्छेअणं होइ ।। १५९४ ॥ तण्हावोच्छेदेण य अउलोवसमो भवे मणुस्साणं । अउलोवसमेण पुणो पञ्चक्खाणं हवइ सुद्धं ।। १५९५ ॥ दितत्तो चरितधम्मो कम्मविवेगो तओ अपुव्वं तु । तत्तो केवलनाणं तओ अ मुक्खो सपासुक्खो ॥ १५९६॥G | प्रत्याख्याने कृते--सम्यग निवृत्ती कृतायां किम् ?-आश्रवद्वाराणि भवन्ति पिहितानि-तविषयप्रतिबद्धानि कर्मबन्ध-14 द्वाराणि भवन्ति स्थगितानि, तत्रावृत्तेः, आश्रवव्यवच्छेदेन च कर्मबन्धद्वारस्थगनेन च संवरणेनेत्यर्थः, किं ?-तृड्व्यवच्छे-10 दनं भवति-तद्विषयाभिलापनिवृत्तिर्भवतीति गाथार्थः ॥१५९४ ॥ तृइन्यवच्छेदेन च तद्विपयाभिलापनिवृत्ती च ||८५१॥ अतुल:-अनन्यसदृशः उपशमो-मध्यस्थपरिणामो भवति मनुष्याणां-जायते पुरुषाणां, पुरुषप्रणीतः पुरुषप्रधानश्च धर्म इति ख्यापनार्थ मनुष्यग्रहणम् , अन्यथा खीणामपि भवत्येव, अतुलोपशमेन पुनः-अनन्यसदृशमध्यस्थपरिणामेन पुनः दीप अनुक्रम [८२] Indiarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~391 Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५९५] भाष्यं [२५३...] प्रत सूत्रांक प्रत्याख्यान-उक्तलक्षणं भवति-शुद्धं जायते निष्कलङ्कमिति गाथार्थः ॥ १५९५ ॥ ततः प्रत्याख्यानाच्छुद्धाच्चारित्रधर्मः | स्फुरतीति वाक्यशेषः, कर्मविवेकः कर्मनिर्जरा ततः-चारित्रधर्मात्, ततश्चेति द्विरावय॑ते ततश्च-तस्माच कर्मविवेकात् अपूर्व'मिति क्रमेणापूर्वकरणं भवति, ततः-अपूर्वकरणारड्रेणिक्रमेण केवलज्ञानं, ततश्च-केवलज्ञानाद् भवोपग्राहिकर्मक्षयेण मोक्षः सदासौख्यः-अपवों नित्यसुखो भवति, एवमिदं प्रत्याख्यानं सकलकल्याणककारणं अतो यत्नेन कर्त्तव्य६ मिति गाथार्थः ॥ १५९६ ।। इदं च प्रत्याख्यानं महोपाधेर्भेदाद् द्वादशविधं भवति आकारसमन्वितं वा गृह्यते पाल्यते वा, अत इदमभिधित्सुराहनमुकारपोरिसीए पुरिमोगासणेगठाणे य । आयंबिल अभत्तट्टेचरमे य अभिग्गहे विगई ॥१५९७॥ दो छच सत्स अट्ट सत्तट्ठ य पंच छच्च पाणंमि । चउ पंच अट्ट नव य पत्तेयं पिंडए नवए ॥१५९८ ।। दादोबेव नमुकारे आगारा छच्च पोरिसीए उ । सत्तेव य पुरिमड्ढे पगासणगंमि अद्वेव ।। १५९९ ॥ सत्तेगट्ठाणस्स उ अटेवायंविलंमि आगारा । पंचेच अभत्तट्टे छप्पाणे चरिमि चत्तारि ॥१६००॥ पंच चउरो अभिग्गहि निव्वीए अट्ट नव य आगारा । अप्पाउराण पंच उ हवंति सेसेसु चत्तारि ॥१६०१॥ नमस्कार इत्युपलक्षणात् नमस्कारसहिते पौरुष्यां पुरिमार्द्ध एकाशने एकस्थाने आचाम्ले अभक्तार्थे चरमे च अभिग्रहे | विकृती, किं , यथासङ्ख्यमेते आकाराः, द्वौ षट् च सप्त अष्टौ सप्ताष्टौ पञ्च पटू पाने चतुः पञ्च अष्टौ नव प्रत्येकं पिण्डको नवक इति गाथाद्वयार्थः ॥ १५९७-१५९८ ।। भावार्थमाह-द्वावेव नमस्कारे आकारी, इह च नमस्कारग्रहणान्नमस्कार दीप अनुक्रम [८२] CHR JABERatuAN natorary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~392 Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६०१] भाष्यं [२५३...] प्रत सूत्रांक आवश्यकासहितं गृह्यते, तत्र द्वाघेवाकारौ, आकारो हि नाम प्रत्याख्यानापवादहेतुः, इह च सूत्रं 'सूरे उग्गए णमोकारसहितं पच्च- प्रत्याख्या हारिभ खाई' इत्यादि सागारं व्याख्यातमेव, पट् चेति पौरुष्यां तु, इह च पौरुषी नाम-प्रत्याख्यानविशेषस्तस्यां पट् आकारानाध्य. द्रीया भवन्ति, इह चेदं सूत्रम् |१०प्रत्या ख्यानानि ॥८५२॥ पोरुसिं पचक्वाति, उगते सूरे चउब्बिहंपि आहारं असणं ४ अण्णत्यणाभोगेणं सहसाकारेणं पच्छन्न-R कालेणं दिसामोहेणं साधुवयणेणं सबसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरह । ___ अनाभोगसहसाकारसंगतिः पूर्ववत्, प्रच्छन्नकालादीनां विदं स्वरूपं-पच्छण्णातो दिसा उ रएण रेणुणा पवएण वा अण्णएण वा अंतरिते सूरोण दीसति, पोरुसी पुण्णत्तिकातुं पारितो, पच्छा णातं ताहे ठाइतब ण भग्गं, जति भुंजति तो भग्गं, एवं सबेहिवि, दिसामोहेण कस्सइ पुरिसस्स कम्हिवि खेत्ते दिसामोहो भवति, सो पुरिमं पच्छिम दिसं जाणति, एवं सो दिसामोहेण-अइरुग्गदपि सूरं दर्दू उस्सूरीभूतंति मण्णति णाते ठाति, साधुणो भणंति-उम्घाडपोरुसी ताव सो पजिमितो, पारित्ता मिणति अन्नो वा मिणइ, तेणं से भुञ्जतस्स कहितं ण पूरितंति, ताहे ठाइदबं, समाधी णाम तेण य पोरुसी प्रष्ठता दियो रजसा रेणुना पर्वतेन वाअन्येन वाऽन्तरिते सूर्यों न दृश्यते, पौरुषी पूर्गतिकृत्वा पारितवान् , पश्चात् शातं तदा स्थातम्यं, न भान का॥८५२॥ यदि मुझे तदा भग्नं, सर्वैरप्येवं, दिग्मोहेन कस्यचित् पुरुषस्य करिमपि क्षेत्रे दिग्मोहो भवति, स पूर्वा पश्चिमा दिशं जानाति, एवं स दिग्मोहेन अचिरोद्वतमाथि सूर्य दृष्ट्वा परसूर्याभूतमिति मन्यते शासे विपति, साथयो भणन्ति- बवाटा पौरुषी सावत् स प्रजिमितः पारयित्वा मिनोति भन्यो वा मिनोति, तेन तम भुजानाथ कधितं न पूरितमिति, तदा स्थातव्यं । समाधिनाम तेन च पौरुषी दीप अनुक्रम [८३] JAMEain पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~393 Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६०१...] भाष्यं [२५३...] प्रत सूत्रांक [सू.] पंचक्खाता, आसुकारितं च दुक्खं जातं अण्णस्स वा, ताहे तस्स पसमणणिमित्तं पाराविजति ओसह वा दिजति, एत्यंतरा Sणाते तहेब विवेगो, सप्तैव च पुरिमार्द्ध-पुरिमार्द्ध प्रथमप्रहरद्वयकालावधिप्रत्याख्यानं गृह्यते तत्र सप्त आकारा भवन्ति, इह | दाच इदं सूत्र-'सरे जग्गते'इत्यादि, पडाकारा गताओं, नवरं महत्तराकारः सप्तमः, असावपि सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्याने साकारे| कृताधिकारे अत्रैव व्याख्यात इति न प्रतन्यते, एकाशने अष्टावेव, एकाशनं नाम सकृदुपविष्टपुताचालनेन भोजनं, तत्राटावाकारा भवन्ति, इह चेदं सूत्र 'एकासण'मित्यादि 'अपणस्थ अणाभोगेणं सहसाकारेणं सागारियागारेणं आउंटणपसारणेणं गुरुअन्भुहाणेणं पारिडावणियागारेणं महत्तरागारेणं सबसमाहिवत्तियागारेणं चोसिरति । (सूत्रं) | अणाभोगसहसाकारा तहेब, सागारियं अद्धसमुद्दिस्त आगतं जति वोलति पडिच्छति, अह धिरं ताहे सज्झायवाघातोत्ति उद्देउं अण्णस्थ गंतूणं समुद्दिसति, हत्थं पादं वा सीसं वा(आउंटेज)पसारेज वाण भजति, अब्भुट्टाणारिहो आय|रिओ पाहुणगो वा आगतो अभुत तस्स, एवं समुद्दिवस्स परिहावणिया जति होज कप्पति, महत्तरागारसमाधि तु| -%ARCARRC दीप अनुक्रम [८४-९२] प्रत्यास्थाता, आशुकारि दुख जातमन्यस्य था, तदा तस्य प्रशमनानिमित्रं पार्यते औषधं वा दीयते, अशाम्तरे शाते तथैव विवेकः । अनाभोग-। सहसाकारी तव, सागारिकोऽधसमुद्दिष्टे आगतः यदि व्यतिकाम्यति प्रतीक्ष्यते अथ स्थिरसदा स्वाध्याययाघात इति उत्थायान्यत्र गवा समुदिश्यते, हल पाई वा कीर्ष वा आकुचयेत् प्रसारयेत् चान भापते, अभ्युत्थाना आचार्यः मापूर्णको वागतोऽभ्युस्थातव्यं तस्य, एवं समुद्दिष्ट पारिछाप निकी यदि भवत् । कल्पते, महत्ताकारसमाधी तु तथैव । था८१५३ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: मू.(८५) एगासणं मू.(८६) एगहाणं मू.(८७) आयंबिलं. मू.(८८) सूरे उग्गए अभत्तहुं० म.(८९) दिवसचरिमं पच्चक्खाई चउव्विहंपि असणं पाणं खाईमं साइमं० म.(९०) भवचरिमं पच्चक्खाइं० म.(९१) अभिग्गहं पच्चक्खाई० म,(९२) निव्विगइयं पच्चक्खाइं० ~3944 Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१६०१] भाष्यं [२५३...] प्रत्याख्या नाध्य० प्रत सूत्रांक दतहेव'त्ति गाथार्थः ॥ १५९९ ॥ 'सप्लैकस्थानस्य तु' एकस्थानं नाम प्रत्याख्यानं तत्र सप्ताकारा भवन्ति, इह चेदं सूत्रआवश्यक हारिभ- एगट्ठाण'मित्यादि एगहाणगं जहा अंगोवंगं ठवितं तेण तहावहितेणेव समुद्दिसियचं, आगारा से सत्त, आउंटणपसारणा द्रीया णस्थि, सेसं जहा एक्कासणए । अष्टवाचाम्लस्याकारा, इदं च बहुवक्तव्यमितिकृत्वा भेदेन वक्ष्यामः 'गोण्णं णामं तिविध' मित्यादिना ग्रन्धेन, असम्मोहार्थ तु गाथैव व्याख्यायते, 'पञ्चाभक्कार्थस्य तु न भक्तार्थोऽभक्तार्थः, उपवास इत्यर्थः, 11८५३|| तस्य पंचाकारा भवन्ति, इह चेदं घूत्र-सूरे उग्गते'इत्यादि, तस्स पंच आगारा-अणाभोग सहसा पारि० महत्तरा० सबसमाधि० जति तिविधस्स पच्चक्वाति तो विकिंचणिया कप्पति, जति चतुबिधस्स पचक्खात पाणं च णत्थि तदान कम्पति, तत्थ छ आगारा-लेवाडेण वा अलेवाडेण वा अच्छेण वा बहलेण वा ससित्येण वा असित्थेण वा वोसिरति, युत्तत्था एते छप्पि, एतेन पट् पान इत्येतदपि व्याख्यातमेव, 'चरिमे च चत्वार' इत्येतच्चरिमं दुविध-दिवसचरिमं भवचरिमं वा, दिवसचरिमस्स चत्तारि, अण्णस्थणाभोगेणं सहसाकारणं महत्तराकारेणं सबसमाहिवत्तियागारेणं, भवचरिमं जावजीवियं तस्सवि एते चत्तारित्ति गाथार्थः॥१६००॥पञ्च चत्वारश्चाभिग्रहे, निर्विकृती अष्टी नव वा आकारा, एकस्थानकं यथा भोपार्टी स्थापितं तेन तथावस्थितेनैव समुऐएम्ब, आकारासमिन सप्त, आकुमनप्रसारणं नालि, शेष यधैकाशनके । तख पढाकारा:-अनाभोग सहसा पारिक महत्तराकार सर्वसमाधि०, यदि त्रिविध प्रत्यावाति तदा पारिष्टापनिकी कल्पते, यदि चतुर्विधख प्रत्याख्यातं पानकं |च नाति तदा न कल्पते, तत्र पडाकारा:-हेपकता वा अपहता था अच्छेन वा बहलेन वा ससिम्येन वा असिफ्षेन वा ब्युग्मजति, उक्ताचीः एते पडपि, चरमं द्विविध-विषसचरमं भवचरमंच, दिवसचरमे चत्वारः अन्यत्राना सहसा महसरा सर्वसमाधि, भवचरम पावजीविकं तस्याप्येते चत्वारः । दीप अनुक्रम [८४-९२] ॥८५३॥ Jaintain Daroo पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~395 Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६०१] भाष्यं [२५३...] % प्रत %25-25 सूत्रांक %%%4592-% | अप्रावरण इति-अप्रावरणाभिग्रहे पञ्चैवाकारा भवन्ति,शेषेवभिग्रहेषु दण्डकपमार्जनादिषु चत्वार इति गाथाऽक्षरार्थः१६०१॥ भावार्थस्तु अभिग्गहेसु वाउडत्तर्ण कोइ पच्चक्खाति, तस्स पंच-अणाभोग०सहसागार० (महत्तरा०) चोलपट्टगागार० सबसमाहिवत्तियागार०सेसेसु चोलपट्टगागारोणत्थि, निधिगतीए अह नव य आगारा इत्युक्तं, तत्थ दस विगतीओ-खीरं दधि णवणीयं घयं तेलं गुडो मधु मज मंसं ओगाहिमगं च, तत्थ पंच खीराणि गावीणं महिसीणं अजाणं एलियाणं उट्टीणं, उद्दीगं दर्षि णत्थि, णवणीतं घतंपि, ते दधिणा विणा णस्थित्ति, दधिणवणीतघताणि चत्तारि, तेल्लाणि चत्तारिखर (तिल)अदसिकुसुंभसरिसवाणं, एताओ विगतीओ, सेसाणि तेलाणि निविगतीतो, लेवाडाणि पुण होन्ति, दो वियडा-फहणिष्फणं उच्छु|माईपिड्डेण य फाणित्ता, दोणि गुडा दवगुडो पिंडगुडो य, मधूणि तिण्णि, मच्छिय कोन्तियं भामरं, पोग्गलाणि तिण्णि, जलयर थलयर खहयरं, अथवा चम्भ भंसं सोणितं, एयाओ णव विगतीतो, ओगाहिमगं दसम, तावियाए अद्दहियाए। एग ओगाहिमेगं चलचलेंतं पच्चति सफेणं वितियततियं, सेसाणि अ जोगवाहीणं कप्पति, जति जति अह एगेण चेव अभिप्रहेषु प्रावरण कोऽपि प्रत्याख्याति, राख पन-अनाभोग० सहसा महसरा चोलपहाससमाधि०, शेषेषु चोलपहकाकारो नास्ति, निर्षिकृती आदी नव चाकाराः । तत्र विकृतयो दश-क्षीरं दधि नवनीतं घृतं तैलं गुझे मधु मर्च मार्स अवगादिम च, तत्र पक्षीराणि गवां महिषीणां अजाना पडकानामुहीणां, वीणां दधि नास्ति, नवनीत पृतमपि, ते भा जिना (मस इनि) धिनवनीतघृतानि चावारि, सैलानि घरवारि तिलाकसीकुसुम्भसर्पपाणी, एका विकृतया, कोषाणि तैलानि निर्विकृतयः, लेपकारीणि पुनर्भवन्ति, है मये-कानिष्पर्ण इक्ष्वादिपिटेन च फाणपियाही गुडौ-अवगुदः पिण्डगुडा, मभूनि श्रीणमाक्षिक कौन्तिकं भ्रामर, पुतलानि त्रीणि-जहचर स्खलवार सचर च, अथवा चर्म मांसं शोणितं, एता नव विकृतयः, अवगाहिम दशर्म, सापिकावामा भदणे एकमवणादिमं चलचलत् पच्यते सफेणे द्वितीय तृतीयं च, शेषाणि च योगवाहिनां कल्पन्ते, यदि शावते अथेनेया दीप अनुक्रम [८४-९२] R-52% JamEairat पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~396 Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६०१] भाष्यं [२५३...] आवश्यकहारिभद्रीया प्रत नाध्य आकारार्थः सूत्रांक ॥८५४॥ रह [सू.] पूअएण सबो चेव तावगो भरितो तो बितियं चेव कप्पति णिविगतियपञ्चक्खाणाइतस्स, लेवार्ड होति, एसा आयरियपरंपरागता सामायारी । अधुना प्रकृतमुच्यते, काष्टौ कवा नवाकारा इति , तन्त्र नवणीओगाहिमए अद्दबदहि (च)पिसियधयगुले चेव । नव आगारा तेसिं सेसवाणं च अडेव ॥ १६०२॥ 'नवणीते ओगाहिमके अदवदवे'निगालित इत्यर्थः, पिसिते-मांसे प्रते गुडे चैव, अद्रवग्रहणं सर्वत्राभिसम्बन्धनीयं नव आकारा अमीषां विकृतिविशेषाणां भवन्ति शेषवाणां-विकृतिशेषाणां अष्टावेवाकारा भवन्ति, उत्क्षिप्तविवे. को न भवतीति गाथार्थः ॥ १६०२ ॥ इह चेदं सूत्र 'णिब्वियतियं पञ्चक्खाती'त्यादि अन्नत्थाणाभोगेणं सहसाकारणं लेवालेवेणं गिहत्यसंसद्वेणं उक्खित्तविवेगेणं पडुचमक्खिएणं पारिट्ठावणियागारेणं महत्तरागारेणं सब्यसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरति । (सूत्र) इदं च प्रायो गतार्थमेव, विशेष तु 'पंचेव य खीराई' इत्यादिना ग्रन्थेन भाष्यकारोपन्यासक्रमप्रामाण्यादुत्तरत्र वक्ष्यामः, अधुना तदुपम्यस्तमेवाचामाम्लमुच्यतेगोनं नामं तिविहं ओअण कुम्मास सत्सुआ चेव । इकिपि य तिविहं जहन्नयं मझिमुकोसं ॥१६०३ ॥ आयामाम्लमिति गोण्णं नाम, आयाम:-अवशायनं आम्ल-चतुर्थरस ताभ्यां निर्वृत्तं आयामाम्लं, इदं चोपाधिभेदात १पकेन सर्व एवं तापकः पूरितस्तदा द्वितीयमेव कल्पते निर्विकृति प्रत्यारूपानिनः, लेपकृत् भवति । एषाऽऽचार्षपरम्परागता सामाचारी दीप अनुक्रम [८४-९२] ॥८५४॥ ainatorary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~397 Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६०३] भाष्यं [२५३...] प्रत सूत्रांक त्रिविधं भवति, ओदनः कुल्माषाः सक्तवश्चैव, ओदनमधिकृत्य कुल्माषान् सक्तूश्चेति, एकैकमपि चामीषां त्रिविधं भवति-18 जघन्यकं मध्यम उत्कृष्टं चेति । कथमित्यत्राह ब्वे रसे गुणे वा जहन्नयं मज्झिमं च उक्कोसं । तस्सेव य पाउग्गं छलणा पंचेच य कुडंगा ॥१६०४॥ [४] द्रव्ये रसे गुणे चैव द्रव्यमधिकृत्य रसमधिकृत्य गुणं चाधिकृत्येत्यर्थः, किं?-जघन्य मध्यममुत्कृष्टं चेति, तस्यैवाया माम्लस्य प्रायोग्यं वक्तव्यं, तथा आयामाम्लं प्रत्याख्यातमिति दना भुजानस्यादोषः प्राणातिपातप्रत्याख्याने तदनासेवनवदिति छलना वक्तव्या, पञ्चैव कुडङ्गा-बक्रविशेषा इति । तद्यथा लोए वेए समए अन्नाणे खलु तहेव गेलन्ने । एए पंच कुडंगा नायव्वा अंपिलंमि भवे ॥ १६०५॥ लोके वेदे समये अज्ञाने खलु तथैव ग्लानत्वे, लोकमङ्गीकृत्य कुडङ्गाः, एवं वेदान् समयान् अज्ञानं ग्लानत्वं च एते है पञ्च कुडझा ज्ञातव्याः, आयामाम्ले भवन्ति, आयामाम्लविषय इति गाथासमासार्थः॥१६०५॥ विस्तरार्थस्तु वृद्धसम्प्रदाय-8 समधिगम्यः, स चायं-पत्थ आयंबिलं च भवति आयंबिलपाउग्गं च, तत्थोदणे आयम्बिलं आयंबिलपाउग्गं च, आयबिला सकूरा, जाणि कूरविहाणाणि आयंबिलपाउग्गं, तंदुलकणियाउ कुडंतो पी पिहुगा पिडपोवलियाओ रालगा मंडगादि, कुम्मासा पुर्व पाणिएण कड्डिजति पच्छा उखलीए पीसंति, ते तिविधा-सहा मज्झिमा थूला, एते आयंबिलं, आय अत्राचामाम्लं भवति आचामाम्लप्रायोग्यं च, तनादने आचामाम्लमाचामाम्लपायोग्यं च, आयामाम्लः सकूराः, यानि कूरविधानानि । आचामाम्लप्रायोग्य, सन्दुलकणिका, कुण्द्वान्तः पिष्टेन पृथुकीकृताः, पृष्टपोलिका राळगा मण्डकायाः, फुपमाषा: पूर्व पानी येन कष्यन्ते पश्चात् उदूखल्या पिष्यमते, ते त्रिविधा:-लक्ष्णा मध्याः स्यूलाः, एते भाचामा, आचा दीप अनुक्रम [८४-९२] JABERatinintamatama पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~398~ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६०५] भाष्यं [२५३...] प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम [८४-९२] आवश्यक-बिलपाउग्गाणि पुण जे तस्स तुसमीसा कणियाउ कंकडगा य एवमादि, ससुया जवाणं गोधूमाणं विहिआणं वा, पाउग्गं प्रत्याख्या हारिभ-5 पुण गोधूमभुजियापिचुगाला य जाव भुञ्जिज्जा, जे य जंतएण ण तीरंति पिसितुं, तस्सेव णिद्दारो कणिकादि वा, एयाणिनाध्य० द्रीया आयंबिलपाउग्गाणि, तं तिविधपि आयंबिलं तिविध-उकोस मजिसमं जहन्न, दबतो कलमसालिकूरो उक्कोर्स जं वा जस्स आकारायः पत्थं रुञ्चति वा, रालगो सामागो वा जहन्नो, सेसा मज्झिमा, जो सो कलमसालीकूरो सो रस पडुच तिविधो उक्कोसं ३, त ८५५॥ दाचेव तिविधपि आयंपिलं णिजरागुणं पडुच्च तिविध-उक्कोसो णिज्जरागुणो मज्झिमोजहष्णोत्ति, कलमसालिकूरो दबतो| उकोसं दवं च उत्थरसिएण समुद्दिसति, रसओवि उकोसं तस्सच्चएणवि आयामेण कोर्स रसतो गुणतो जहणं थोवा-1 ४ाणिज्जरत्ति भणितं भवति, सो चेव कलमोदणो जदा अण्णेहि आयामेहिं तदा दबतो उक्कोसो रसतो मज्झिमो गुणतीवि : मझिमो चेव, सो चेव जदा उण्होदएण तदा दबतो उक्कोस रसतो जहण्णं गुणतो मज्झिम चेव, जेण दबतो उकोसं न मालपायोग्याणि पुनों तख तुपमित्राः कणिका कामहकाय एवमादि, सक्तको यवानां गोधूमानांनीहीणा वा, प्रायोग्यं पुनगाँधमभूएं निर्गलितं बाव भुशीत, वे च यम्बकेण पाश्यन्ते पेई, तस्यैव निर्धारः कणिकादिवा, एतानि आचाम्समायोग्याणि, तत् विविधमप्याचामाझ विविध-उत्कृष्ट मध्यम जघन्य, मम्पसः कलमशालिकूर उत्कृष्ट यहा यस्मै पथ्यं रोचते वा, रालकः श्यामाको बा जवन्यः, शेषा मध्यमाः, यः स कल मशालिकूरः स रस प्रसीप त्रिविधा दरकृष्टः । तदेव त्रिविधमप्पाचामा निरागुणं प्रतीत्य विविध-उत्कृष्टो निरागुणो मध्यमो जघन्य इति, फलमशालिफूरो दम्पत अकृष्ट । दम्ब चतुरसेन भुज्यते, रसतोऽपि तस्कृष्ट तस्य सरकेनाप्याचामाग्लेन वाकूर सतो गुणतो जघन्यं सोका निजरेति भणितं भवति, स एव कलमीदनी बदापैराचामाग्लै मतदा अन्यत उत्कृष्टो रसतो मध्यमो गुणतोऽपि मध्यम एव, स एष यदोष्णोदकेन सदा हव्यत उत्कृष्ट रसतो जघन्य गुणतो मध्यममेव, येन ब्रम्पस उस्कृष्ट ने ८५५॥ पा- JABERatinal पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~399 Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६०५] भाष्यं [२५३...] प्रत सूत्रांक रसतो, इदाणि जे मज्झिमा ते चाउलोदणा ते दबतो मग्झिमा आयंबिलेण रसतो उकोसा गुणतो मज्झिमा, तहेव च उण्होदएण दवतो ममं रसतो जद्दण्णं गुणतो मझं मज्झिमं दवंतिकाऊणं, रालगतणकूरा दबतो जहण्णं आयंबिलेण रसतो उकोसं गुणओमझं, ते चेव आयामेण दवओ जहण्णं रसओमञ्झं गुणओ मज्झं, ते चेव उण्होदएण दबओ जहण्ण रसओ जहन्नं गुणओ उकोस बहुणिजरति भणितं होति, अहवा उक्कोसे तिणि विभासा-कोसउक्कोसं उकोसमझिम उक्कोसजहण्णं, कंजियआयामउण्होदएहिं जहण्णा मज्झिमा उक्कोसा णिज्जरा, एवं तिसु विभासितबं । छलणा णाम एगेणायंबिलं पञ्चक्खातं, तेण हिंडतेण सुद्धोदणो गहितो, अण्णाणेण य खीरेण निमित्तं घेत्तूण आगतो आलोपत्तुं पजिमितो, गुरूहि भणितो-अज्ज तुझ आयंबिलं पचक्यात, भणइ-सच्चं, तो किं जेमेसि, जेण मए पञ्चक्खातं, जहा दीप अनुक्रम [८४-९२] रसतः । इदानी ये मध्यमारते तखोदनास्ते हव्यतो मध्यमा आचामाम्लेन रसत उत्कृष्ट गुणतो मध्यमाः, तथैवोष्णोदकेन द्रव्यतो मध्यमं रसतो जघन्यं गुणतो मध्यमं मध्यम दम्पमितिकृत्वा, रालगतृणपूरा प्रयतो जयन्यं आचामाग्लेन रसत उत्कृष्ट गुणतो मध्य, त एवाचामाम्लेन प्रग्यतो जयन्य रसतो मध्यं गुणतो मध्यं, त एबोष्णोदकेन व्यतो अधन्वं सतो जघन्य गुणत उत्कृष्ट, बहुनिजेरेति भणितं भवति, अथवा उत्कृष्ट तिखो विभाषा:-उस्कृष्टोस्कृष्ट उत्कृष्टमध्यमं वकृष्टजघन्यं, कालिकाचामाम्सोध्योदकै जघन्या मध्यमोटा निर्जरा, एवं त्रिशु विभाषितव्य । छलमा नाम एकेमाचामाम्लं प्रत्याख्यातं, तेन | हिण्डमानेन शुचौदनो गृहीतः अमानेन च धीरेण नियमितं गृहीत्वागत आलोच्य प्रजिमितः, गुरुमिभणित:-अय स्वयाऽऽचामाम्ले प्रत्यारापात, भणतिसवंतर्हि किंजेमसि', येन मया प्रत्यारुपातं, यथा JABERatural Indinary.org पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~400 Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६०५] भाष्यं [२५३...] प्रत द्रीया सूत्रांक [सू.] पाणातिपाते पचक्खाते ण मारिजति एवायंबिलेवि पञ्चक्खाते तंण कीरति, एसा छलणा, परिहारस्तु प्रत्याख्यान भोजने प्रत्याख्या तन्निवृत्तौ च भवति, भोजने आयामाम्लप्रायोग्यादन्यत् तत् प्रत्याख्याति आयाम्ले च धर्तते, तन्निवृत्ती चतुर्विधमप्या- नाध्य० हारं प्रत्याचक्षाणस्य, तथा लोक एवमेव प्रत्याख्यानार्थः दोसु अत्थेसु वट्टति भोजने तन्निवृत्ती च, तेण एसच्छलणाआकारार्थे। |णिरत्थया । पंच कुडंगा-लोए वेदे समए अण्णाणे गिलाणे कुडंगोत्ति, एगेणायंबिलस्स पञ्चक्खातं, तेण हिंडतेण संखडी संभाविता, अण्णं वा उक्कोस लद्धं, आयरियाण दंसेति, भणित-तुज्झ आयंबिल पञ्चक्खातं, सो भणति-खमासमणा! अम्हें बहूणि लोइयाणि सत्थाणि परिमिलिताणि, तत्थ य आयंविलसद्दो णस्थि, पढमो कुडंगो १, अहवा वेदेसु चउसु संगोवंगेसु णस्थि आयंबिलं विदिओ कुडंगो २, अहवा समए चरगचीरियभिक्खुपंडरंगाणं, तत्थवि णस्थि, ण जाणामि | पएस तुझं कतो आगतो? तइओ कुडंगो ३, अण्णाणेण भणति-ण जाणामि खमासमणा! केरिसियं आयंबिलं भवति ?, अहं | जाणामि-कुसणेहिवि जिम्मइत्ति तेण गहितं, मिच्छामिदुक्कडं, ण पुणो गच्छामि, चउत्थो कुडंगो गिलाण भणति प्राणातिपाते प्रत्याख्याते न मार्यते एवमाचामाम्लेऽपि प्रत्याख्याते तन्न क्रियते, पुषा छलना, इयोरधयोर्वर्तते तेनैषा छलना निरर्थिका । पञ्च कुटना: लोके वेदे समये अज्ञाने वळाने कुटा इति, एकेनाचामाम्लस्य प्रत्याख्यातं, तेन हिण्डमानेन संखढी संभाविता, अन्यहोरकृष्ट ला, आचार्येभ्यो | दायते, भणित-स्वयाचामाम्लं प्रत्याख्यातं, स भणति-क्षमाश्रमण! अमाभिबहूनि लौकिकानि शास्त्राणि परिमीलितानि, तन्त्र चाचामाम्लशब्दो नाति ८५६॥ प्रथमः कुटाः, अथवा वेदेषु चतुर्प साझोपानेषु नास्त्याचामाम्लं द्वितीयः कुटाः, अथवा समये चरकचीरिकभिक्षुपाण्डवाणां, तथापि नास्ति, न जानामि | युष्माकं एप कुत भागतः, तृतीयः पुनः, अशानेन भणति-न जानामि क्षमाश्रमणाः! कीयामाचामा भवति, आहे जाने कुसणैरपि नेम्यते इति तेन । गृहीतं, मिथ्या मे दुष्कृतं, न पुनर्गमिष्यामि, चतुर्धः कुडो, ग्लानो भणति दीप अनुक्रम [८४-९२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~401 Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [८४-९२] [भाग-३१] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ / ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १६०५ ] भाष्यं [२५३ ...] तरामि आयंबिलं कार्ड सूलं मे उद्धति, अण्णं वा उद्दिसति रोगं, ताहे ण तीरति करेतुं, एस पंचमो कुडंगो तस्स अट्ठ आगारा-अण्णत्वणाभोगेणं सहस्सागारेणं लेवालेवेणं गिद्दत्थसंसद्वेणं उक्तित्तविवेगेणं पारिट्ठावणियागारेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिबत्तियागारेणं बोसिरति । अणाभोगसहसकारा तहेब लेवालेवो जति भाणे पुर्व लेवाडगं गहितं समुद्दिद्धं संविहियं जति तेण आणेति ण भज्जति, उक्खित्तविवेगो जति आयंबिले पतति विगतिमाती उक्खिवित्ता विचितु मा णवरि गठतु अण्णं वा आयंबिलस्स अप्पाउ जति उद्धरितं तीरति उद्धरिते ण उवहम्मति, गिहस्थसंसद्वेवि जति गिहत्थो डोवलियं भाणियं वा लेवाडं कुमणादीहिं तेण ईसित्ति लेवाडं तं भुज्जति, जइ रसो आलिखिजति बहुओ ताहे ण कष्पति, पारिहायणितमहत्तरासमाधीओ तहेव । व्याख्यातमतिगम्भीरवुद्धिना भाष्यकारेणोपन्यस्तक्रममायामाम्लम्, अधुना तदुपन्यासप्रामाण्यादेव निर्विकृतिकाधिकारशेषं व्याख्यायते, तत्रेदं गाधाद्वयम्- पंचैव य खीरा चत्तारि दहीणि सप्पि नवणीता । चत्तारि य तिल्लाई दो बियडे फाणिए दुन्नि ।। १६०६ ॥ महुपुग्गलाई तिन्नि चलचल ओगाहिमं तु जं पक्कं । एएसिं संसद्धं बुच्छामि अहाणुपुच्चीए ॥। १६०७ ॥ १ न शक्लोम्याचामाम्लं कर्तुं शूलं मे उतिष्ठते, अन्यं वा रोगं कथयति तत्तो न शक्यते कर्त्तुं एप पञ्चमः कुः स्वष्टवाकाराः अन्यत्राना भोगसहसाकारी तथैव लेपालेपो यदि भाजने पूर्व लेपकृत् गृहीतं समुद्दिष्टं संलिखितं यदि तेनानयति न भज्यते, दक्षिसविवेको याचामाम्ले पद्धति विकृत्यादिरुक्षिप्य विवेचयतु] मा परं लावन्या भाचामामहामायोग्यं शक्यते उद्धते नोपम्यते, गृहस्थसंपि यदि गृहस्थेन इदा निवर्त भाजनं कृतं व्यञ्जनादिभियां लेपकृतं तेनेपदिति पकृत् सज्यते, यदि रस आहिस्ते बहुस्तदा न कल्पते । पारिष्ठापनिका महत्तरसमाधयखथैव । For Funny by org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः ~ 402~ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६०७] भाष्यं [२५३...] आवश्यक- हारिभ प्रत सूत्रांक ।।८५७ 'पंचेव य खीराई' गाहा 'मधुपोग्गल'त्ति गाथा, इदं विकृतिस्वरूपप्रतिपादकं गाथाद्वयं गतार्थमेव, अधुना एतदाकारा है ६प्रत्याख्या | व्याख्यायन्ते-तत्थ अणाभोगसहसकारा तहेव, लेवालेवो पुण जधा आयंबिले तहेव दबो, गिहत्थसंसहो बहुवत्तबोति नाध्य गाहाहि भण्णति, ताओ पुण इमातो आकाराः खीरदहीवियडाणं चत्तारि उ अंगुलाई संसह । फाणियतिल्लघयाणं अंगुलमेगं तु संसल ॥ १६०८ ॥ मुहपुग्गलरसपाणं अहंगुलयं तु होइ संसह । गुलपुग्गलनवणीए अद्दामलयं तु संसहूं ॥१६०९॥ गिहत्थसंसहस्स इमा विधी-खीरेण जति कुसणातिओ करो लम्भति तस्स जति कुडंगस्स उदणातो चत्तारि अंगुला|णि दुद्धं ताहे णिविगतिगस्स कप्पति पंचमं चारम्भ विगती य, एवं दधिस्सवि वियडस्सवि, केसु विसएसु विअडेण मीसि जति ओदणो ओगाहिमओ वा, फाणितगुडस्स सेल्लघताण य, एतेहिं कुसणिते जति अंगुलं उवरि अच्छति तो पट्टति, परेण न बट्टति, मधुस्स पोग्गलरसयस अद्धंगुलेण संसह होति, पिंडगुलस्स पुग्गलस्स णवणीतस्स य अद्दामलगमेतं दीप अनुक्रम [८४-९२] ८५७॥ तत्रानाभोगसहसाकारी तथैव, लेपालेपः पुनर्यधाऽऽचामाम्ले तथैव नष्टब्धः, गृहस्थसंमष्टो बहुचतन्य इति गाथाभिर्भण्यते, ते पुनरिमे-1 गृहस्थसंसूटस्य पुनस्य विधि:-श्रीरेण यदि कुसणादिका करो सभ्यते तस्मिन् कुठले यद्योदनान पत्यारि अंगुलानि दुग्धं तदा निर्विकृतिक कापते पञ्चमं चारभ्य | | विकृतिश्च, एवं वमोऽपि सुराया भपि, केषुचिपियेषु विकटेग मिष्यते ओदनोऽवगाहिम वा, फाणितगुरुस सैलभूतयोग, एताभ्यां कुसणिते याकुलमुपरि तिष्ठति | सदावते (कापते), परतोन वर्तते, मधुनः पुदलरसस्य वार्धाहुलेन संस्ष्टं भवति, पिण्डगुडस्य पुद्गलस नवनीतख चादामलकमानं पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~4030 Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६०९] भाष्यं [२५३...] A प्रत सूत्रांक संसह, जदि बहूणि एतप्पमाणाणि कप्पंति, एगमि बहुए ण कप्पदित्ति गाथार्थः ॥ १६०८-१६०९ ॥ उक्वित्तविवेगो अहा आयंबिले जं उद्धरितुं तीरति, सेसेसु णस्थि, पडुच्चमक्खियं पुण जति अंगुलीए गहाय मक्खेति तेलेण वा घतेण वा ताथे णिविगतियस्स कप्पति, अथ धाराए छुब्भति मणागपि ण कप्पति । इदाणिं पारिठावणियागारो, सो पुण एगासणेगठाणादिसाधारणेत्तिकट्ट बिसेसेण परूविज्जति, तन्निरूपणार्थमाह आयंपिलमणायंबिल चउथा बालवुहसष्टुअसहू । अणहिंडियहिंडियए पाहणयनिर्मतणावलिया ॥१६१०॥ | 'आयंबिलए' गाथा व्याख्या-यद्वाऽत्रान्तरे प्रबुद्ध इव चोदकः पृच्छति-अहो ताव भगवता एगासणगएगहाणगआयंबिलचउत्थछहमणिधिगतिएसु पारिठ्ठावणियागारो वण्णितो, ण पुण जाणामि केरिसगस्स साधुस्स पारिडावणियं दातवं वा न दातवं वा?, आयरिओ भणइ, 'आयंबिलमणायंबिले' गाथा व्याख्या-पारिद्वावणियभुंजणे जोग्गा साधू ला दुविधा-आयंबिलगा अणायंबिलगा य, अणायंविलिया आयंबिलविरहिया, एकासणेकट्ठाणचउत्थछट्ठहमणिविगतिय संसा, यदि बहून्येतस्ममाणानि सदा कल्पन्ते, एकमिन् वृहति न कल्पते । उत्क्षिप्तविवेको बधाऽऽचामाम्ले बहुदाँ शक्यते, शेषेषु नास्ति । प्रतीत्यनक्षितं पुनर्वचनुल्या गृहीत्वा म्रक्षयति तलेन वा घृतेन या सदा निर्विकृतिकसा कल्पते, अथ धारया क्षिपति मनागपिन कल्पते । इदानी पारिष्ठापनिकाकारः, स पुनरेकासनकस्थानादिसाधारण इतिकृत्वा विशेषेण प्ररूप्यते । अहो तावद् भगवता एकाशनकस्थानाचाम्लचतुर्थषष्ठाष्टम निर्विकृतिकेषु पारिष्टापनिकाकारो वर्णितो, म पुनजानामि कीरास साधो पारिशापनिक दासब्य पान दातव्यं वा ?, आचार्यों भगति-पारिशापनिकभोजने योग्याः साधयो द्विविधा:- आचामाम्लका अमाचामाम्लकास, अनाचामाम्लका आचामाम्लविरहिता, एकासनकस्थानचतुर्थपठाधम निर्षिकृति दीप अनुक्रम [८४-९२] 2 P MIDrary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~404 Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६१०] भाष्यं [२५३...] आवश्यक हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥८५८॥ [सू.] पजवसाणा, दसमभत्तियादीणं मंडलीए उद्धरित पारिद्वावणियं ग कप्पति दातुं, तेसि पेज उण्हयं वा दिजति, अहि- प्रत्याख्या द्विया य तेसिं देवतावि होज, एगो आयंबिलगो एगो चउत्थभत्तितो होज कस्स दातबं?, चउत्थभत्तियस्स, सो दुविहो- नाध्य. बालो वुहो य, बालस्स दातष, वालो दुविहो-सहू असहू य, असहुस्स दातब, असहू दुविहो-हिंडतो अहिंडेंतओ य, आकारार्थः हिंडयरस दातवं, हिंडंतओ दुविधो-वधवगो पाहुणगो य, पाहुणगस्स दातवं, एवं चउत्थभत्तो वालोऽसह हिंडतो पाहु-18 लणगो पारिहावणियं भुंजाविजति, तस्स असति बालो असहू हिंडं तो वत्थबो २ तस्स असति वालो असहू अहिंडतो पाहू णगो ३ तस्स असति बालो असहू अहिंडतो वत्थबो, एवमेतेण करणोवाएण चतुहिवि पदेहिं सोलस आवलियाभंगा विभासितवा, तस्थ पढमभंगिअस्स दातवं, एतस्स असति बितियस्त, तस्सासति तदियस्स, एवं जाव चरिमस्स दातवं, पउरपारिद्वावणियाए वा सबेसि दातयं, एवं आयंविलियस्स छडभत्तियस्स सोलसभंगा विभासा, एवं आयंविलियरस कावसानाः, वशमप्रतिभ्यो मण्डस्यामुश्तं पारितापनि नकाते दातुं, तेभ्यः पेयमुष्णं वा दीयते, अधिष्ठिता च तेषां देवता भवेत् । एक आचा| माम्लक एकातुर्थभक्तिको भवेत् की दासब, चतुर्थभकाव, स द्विविधो-यालो वृद्धश्च, बालाय दावार्थ, पालो द्विविधा सहिष्णुरसहिष्णुश, असहिष्णये दातयं, असहिष्णुविधा-हिण्डमानोऽहिण्डमानन, हिण्डमानाष दातव्यं, हिण्डमानो द्विविधः-याम्पः प्राघूर्णकन, प्राघूर्णकाय दातव्यं, एवं चतुर्थभको ८५८॥ बालोऽसहो हिपहमानः प्रापूर्णकः पारिष्ठापनीयं भोज्पते, तस्मिासति बालोऽसहो हिन्टमानो वास्तव्यः, तमिजसति वालोऽसहोऽहिण्डमानः प्राघूर्णकः तसि-6 जसति बालोऽसहोऽहिण्डमानो वासाच्या, एवमेतेन करणोपायेन चतुर्भिः पदैः पोशावलिकामा विभाषितम्या, तब प्रथमझिकाय दातम्य, एतस्मिनसति | द्वितीय, तस्मिन्नसति तृतीयसी, एवं यावशरमाय दातम्प, प्रचुस्पारिधापनिकायों वा सबभ्यो दातव्यं, एवमाचामाम्हपाठभकिकयोः पोदश भङ्गाः विभाषा, | पूवमाचामाम्ल दीप अनुक्रम [८४-९२] arorary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~405 Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६१०] भाष्यं [२५३...] *59-7-4 प्रत सूत्रांक अहमभत्तियस्स सोलस भंगा, एवं आयंबिलियस्स निवितियस्स सोलस भंगा, णवरं आयंविलियस्स दातवं, एवं आय-12 विलियस्स एक्कासणियस्स सोलस भंगा, एवं आयंविलियरस एगट्टाणियस्स सोलस भंगा, एवमेते आयंविलियउक्खेवगसंजोगेसु सबम्गेण छण्णवति आवलियाभंगा भवन्ति, आयंबिलउक्खेवो गतो, एगो चउत्थभत्तितो एगो छट्ठभत्तितो, एत्थवि सोलस, नवरं छहभत्तियस्स दातवं, एवं चउत्थभत्तियस्स सोलस भंगा, एगो एक्कासणितो एगो एगट्ठाणिओ एगहाणियस्स दातवं, एगो एक्कासणितो एगो णिवीतिओ, एकासणियस्स दातवं, एत्थवि सोलस, एगो एगठ्ठाणिओ एगो |णिवीतिओ एगहाणियस्स दातवं, एत्थवि सोलसत्ति गाथार्थः ॥ १६१०॥ तं पुण पारिद्वावणितं जहाविधीए गहितं विधिभुत्तसेसं च तो तेसिं दिजइ, तत्रविहिगहियं विहिभुतं उम्परियं जं भवे असणमाई। तं गुरुणाऽणुन्नायं कप्पा आयंबिलाईणं ॥ १६११॥ | (विहिगहिअंबिहिभुत्तं)तह गुरुहिं (जं भवे)अणुनाया ताहे बंदणपुब्वं भुंजह से संदिसावे(पाठान्तरम् )।१६११॥ कामभक्तिकयोः षोडश भङ्गाः, एक्माचामाम्लनिर्विकृतिकयोः पोदशा भङ्गाः, नवरमाचामाळकाय दातव्यं, एवमाचामाम्ल काशनयोः पोदश भंगा, एवमाचामाकरथानकयोः पोडका भङ्गाः, एवमेते आचामाम्लोरक्षेपकसंयोगेन समिण षष्णपतिरावलिकाभङ्गा भवन्ति, भाचामाम्कोरक्षेपो गतः, एकचतु भक्तिक एकः षष्ठभक्तिकः, अत्रापि षोडश, नवरं षष्ठभक्तिकाय दातम्य, एवं चतुर्थभक्तिकस्व पोदश भङ्गाः, एक एकापानिक एक एकस्थानिका एकस्थानिकाय | दातव्यं, एक एकाशनिक एको निर्विकृतिक एकाशनिकाय दातव्यं, अत्रापि पोश, एक एकस्यानिक एको निर्विकृतिका एकस्थानिकाय दातप, अत्रापि पोखमा मनाः । तत् पुनः पारिष्टापनिकं यथाविधि गृहीतं विधिभुक्तशेषं च तदा तेभ्यो दीयते । दीप अनुक्रम [८४-९२] %A8 मो०१४ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~406 Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६११] भाष्यं [२५३...] प्रत सूत्रांक आवश्यक हारिभ- द्रीया ॥८५९॥ 'विहिंगहियं विहिभुत्तं' गाहा व्याख्या-विधिगहितं णाम अलुद्धेण उग्गमितं, पच्छा मंडलीए कडपदरगसीहखइदेण प्रत्याख्या वा विधीए भुतं, एवंविधं पारिद्वावणियं, जाहे गुरू भणति-अजो इमं पारिद्वावणियं इच्छाकारेण भुजाहित्ति, ताहेमा सो कप्पति बंदणं दाउं संदिसावेत्ति भोतं, एस्थ चउभंगविभासा|चउरो य हुंति भंगा पढमे भंगमि होइ आवलिया । इत्तो अ तइयभंगो आवलिया होद नायव्वा ॥१६१२।। | 'चउरो य होंति भंगा' गाहा व्याख्या-विधिसहितं विधिभुक्तं विधिगहितं अविधिभुक्तं अविधिगहीतं विहिभुत्तं अविधिगहितं अविधिभुक्त, तत्थ पढमभंगो, साधू भिक्ख हिंडति, तेण य अलुद्धेण बाहिं संजोअणदोसे विष्पजढेण ओहारित भत्तपाणं पच्छा मंडलीए पतरगच्छेदातिसुविधीए समुद्दिई, एवंविधं पुववणियाण आवलियाणं कप्पते समुद्दिसिर, इदाणे बितियभगो तधेव विहीगहितं भुत्तं पुण कागसियालादिदोसदुई, एवं अविधिए भुतं, एत्थ जति उचरति तं| 2 [सू.] दीप अनुक्रम [८४-९२] चिधिगृहीतं नामालुब्धेनोगामितं, पश्चात् मण्डल्या कटवतरकसिंहखादितेन विधिना भुक्तं एवंविधं पारिठापनिकं, यदा गुरुर्भगति-आर्ष ! इदं पारि& छापनिक इलाकारेग भुवेति, नदास कल्पते वन्दनं दया संदिशेति भोक्तुं अन चत्वारो भङ्गाः, विभाषा, विधिगृहीतं विधिभुकं विधिगृहीतमविधिमुक्त। अविधिगृहीतं विधिभुक्तं अविधिगृहीतमविधिभुक्तं, तब प्रथमो भङ्गः, साधुर्भिक्षा हिण्डते, तेन पालुब्धेन बहिः संयोजनादोषविप्रहीनेनावर्त भक्तपान पश्चात् मण्डल्या प्रतरकच्छेदादिसुविधिना समुद्दिष्ट, एवंविधं पूर्ववर्णितानामावकिकानां करते समुदेष्टुं, इदानी द्वितीयभङ्गः तयैव विधिगृहीतं भुकं पुनः काक शूगाला दिदोषदुष्ट, पुत्रमविधिना भुक्तं, अन यदुद्धरति तत् ॥८५९॥ L ionarrow पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~407 Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक”- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६१२] भाष्यं [२५३...] प्रत सूत्रांक छडिजाति, ण कष्पति, छद्दिमादीदोसा तम्मि, एरिसं जो देति जो य भुंजति दोण्हवि विवेगो कीरति, अपुणकारए वा उव--- हितार्ण पंचकालाणयं दिजति, इदाणिं तइयभंगो, तत्थ अविधिगहितं-वीसुं वीसु उकोसगाणि दबाणि भायणि पच्छा कच्छपुडगंपिव पडिसुद्धे विरेएति, एतेसिं भोत्तबंति आगतो, पच्छा मंडलिगराइणिएण समरसं कातुं मंडलिए विधीए समुद्दिई, एवंविधे जं उचरितं तं पारिद्वावणियागार आवलियाण विधिभुत्तंतिकाउँ कप्पति, चउत्थभंगो आवलियाण ण कप्पेति भुतं, ते चेव पुवभणिता दोसा, एवमेतं भावपञ्चक्खाणं भणितमिति गाधार्थः॥१६१२॥ व्याख्यातं मूलगाथो-| पन्यस्तै प्रत्याख्यानमधुना प्रत्याख्यातोच्यते, तथा चाहपचक्खाएण कया पचक्वातिएपि सूआए (उ)। उभयमवि जाणगेअर चउभंगे गोणिदिहतो ॥१६१३ ।। 'पच्चक्खाएण' गाहा व्याख्या-प्रत्याख्याता-गुरुस्तेन प्रत्याख्यात्रा कृता प्रत्याख्यापयितर्यपि शिष्ये सूचा-उल्लिङ्गना, न हि प्रत्याख्यानं प्रायो गुरुशिष्यावन्तरेण भवति, अण्णे तु-'पञ्चक्खाणेण कय'त्ति पठन्ति, तत् पुनरयुक्तं, प्रत्या दीप अनुक्रम [८४-९२] 23645 त्यम्पते, न कल्पते, छदयो दोषासमिन ईदयां यो ददाति पश्च भुक्के योरपि विवेकः क्रियते, अपुनःकरणतया बोस्थितयोः पञ्चकम्पाणकं ४ दीयते, इदानीं तृतीयभङ्गः, तत्राविधिगृहीत-विश्वग विषवम् उस्कृष्टानि ग्याणि भाजने पश्रात्कशापुटमिव प्रतिशुद्ध विरेचयति, एतानि भोक्तव्यानि इत्या गतः, पश्चात् माण्डलिकराक्षिकेन समरसं कृत्वा मण्डल्यां विधिना समुद्दिष्ट, एवंविधे यदुद्धरति तत् पारिष्ठापनिकाकारमावलिकानां विधिभुक्तमितिकृत्वा करपते, चतुर्थो भा भावलिकाना न कल्पते भोक्तुं, त एवं पूर्वभणिता दोषाः, एवमेतत् भावमयान्यानं माणितम् JamEastanAM Indinrary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~408 Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६१२] भाष्यं [२५३...] नाध्य प्रत सूत्रांक आवश्यक-नाण्यातुर्नियुक्तिकारेण साक्षादुपन्यस्तत्वात् सूचाऽनुपपत्ते, प्रत्याख्यापयितुरपि तदनन्तरङ्गत्वादिति, अत्र च ज्ञातर्यज्ञातरिचप्रत्याख्या हारिभ- चत्वारो भेदा भवन्ति, तत्र चतुर्भझे गोणिदृष्टान्त इति गाथाक्षराधेः ॥ १६१३ ॥ भावार्थ तु स्वयमेवाहद्रीया मूलगुणउत्सरगुणे सब्वे देसे य तय सुडीए । पचक्खाणविहिनू पञ्चक्खाया गुरू होइ ।। १५१४ ॥ ॥८६॥ 'मूलगुण' गाहा व्याख्या-मूलगुणेषूत्तरगुणेषु च एवं सर्वोत्तरगुणेषु देशोत्तरगुणेषु च, तथा च शुद्धी-पविधायां श्रद्धानादिलक्षणायां प्रत्याख्यानविधिज्ञः, अस्मिन् विषये प्रत्याख्यानविधिमाश्रित्येत्यर्थः, प्रत्याख्यातीति प्रत्याख्याता गुरुः-आचार्यों भवतीति गाथार्थः॥ १६१४ ॥ किइकम्माइविहिन्न उबओगपरो अ असढभावो अ । संविग्गधिरपदन्नो पचक्खार्वितओ भणिओ ॥ १६१५ ॥1 'किइकम्मा'गाहा व्याख्या-कृतिकर्मादिविधिज्ञः-वन्दनाकारादिप्रकारज्ञ इत्यर्थः, उपयोगपरश्च प्रत्याख्यान एवं चोपयोगप्रधानश्च अशठभावश्च-शुद्धचित्तश्च संविनो-मोक्षार्थी स्थिरप्रतिज्ञा-न भाषितमन्यथा करोति, प्रत्याख्यापयतीति प्रत्याख्यापयिता-शिष्यः एवंभूतो भणितः तीर्थकरगणधरैरिति गाथार्थः ॥ १५१५॥ इत्थं पुण चउभंगो जाणगइअरंभि गोणिनाएणं । सुद्धासुद्धा पढमंतिमा उ सेसेसु अ विभासा ॥१६१६ ॥ ॥८६॥ 'इत्थं पुण'गाथा व्याख्या-एत्थ पुण पचक्खायंतस्स पञ्चक्खावेंतस्स य चउभंगो-जाणतो जाणगस्स पचक्खाति शुद्ध दीप अनुक्रम [८४-९२] RACTICHROXENCES भन्न पुनः प्रत्याश्यातुः प्रत्यायधापयितुश्च चतुर्भशी-हो शस्थ सकाशात प्रत्यायाति पुर्व natorary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~409 Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६१६] भाष्यं [२५३...] 964464 प्रत सूत्रांक पञ्चक्खाणं, जम्हा दोवि जाणंति किमपि पच्चक्खाणं णमोकारसहितं पोरुसिमादियं वा, जाणगो अयाणगस्स जाणावेर्ड पञ्चक्खा(वे)ति, जहा णमोकारसहितादीणं अमुगं ते पचक्खातंति सुद्ध अन्नहाण सुद्धं, अयाणगो जाणगस्स पचक्खाति ण सुद्ध, पभुसंदिट्ठा(ई)सु विभासा, अयाणगो अयाणगस्स पच्चक्खाति, असुद्धमेव, एत्थं दिहतो गावीतो, जति गावीण पमाणं | सामिओवि जाणति, गोवालोवि जाणति, दोण्हपि जाणगाणं भूतीमोहं सुहं सामीओ देति इतरो गेण्हति, एवं लोइयो चउभंगो, एवं जाणगो जाणगेण पञ्चक्खावेति सुद्धं, जाणगो अजाणगेण केणइ कारणेण पञ्चक्खावेन्तो सुद्धो णिकारणे ण सुद्धति, अयाणगो जाणयं पञ्चक्खावेति सुद्धो, अयाणओ अयाणए पञ्चक्खावेति ण सुद्धोत्ति गाथार्थः ॥१६१६ ॥ मूलद्वारगाथायामुक्तः प्रत्याख्याता, साम्प्रतं प्रत्याख्यातव्यमुक्तमप्यध्ययने द्वाराशून्यार्थमाह दरचे भावे य दुहा पचक्खाइब्वयं हवइ दुविहं । दव्यंमि अ असणाई अन्नाणाई य भावंमि ॥१९१७ ॥ 'दबे भावे'गाहा व्याख्या-द्रव्यतो भावतश्च द्विधा प्रत्याख्यातव्यं तु विज्ञेयं, द्रव्यप्रत्याख्यातव्यं अशनादि, अज्ञा प्रत्यास्थान, यमायपि जानीतः किमपि प्रत्याययानं नमस्कारसहितं पौरुष्यादिकंवा, शोऽयं शापविस्वा प्रत्यास्यापयति, बधा नमस्कारसहितादिवमुकं त्वया प्रत्यास्थासमिति शुदमम्पधा न शुधे, भज्ञो ज्ञस्य पा प्रत्याश्याति म शुद्ध, प्रभुसंदिष्टादिषु विभाषा, भज्ञोऽज्ञस्य प्रत्याश्याति, शुद्धमेव, अन्न दृष्टान्तो गावः, यदि या प्रमाणं स्वाम्पपि जानाति गोपालोऽपि जानाति, योरपि जानानयो तिमूल्यं सुखं स्वामी ददाति इतरो गृकाति, एवं हौकिकी चतुर्भजी, एवं शो प्रमाणपापयति शुर्व, शोऽशेन केनचित्कारणेन प्रत्याश्यापयन् शुद्धः निष्कारणे व अयति, मजो प्रत्याश्यापयति शुद्धः मज्ञोज प्रत्यास्यापयति न शुद्धः। दीप अनुक्रम [८४-९२] % % % ANI - JAMEai . Nama पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~410~ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१६१७] भाष्यं [२५३...] नाध्य प्रत सूत्रांक आवश्यक नादि तु भावे-भावप्रत्याख्यातव्यमिति गाथार्थः ॥ १६१७ ॥ मूलद्वारगाथायां गतं तृतीयं द्वारं, ईदाणि परिसा, साय पुषिप्रत्याख्या हारिभ-विष्णिता सामाइयणिजुत्तीए सेलघणकुडगादी, इत्थ पुण सविसेसं भण्णति-परिसा दुविधा, उवहिता अणुवहिता य, द्रीया उपट्टिताए कहेत, अणुवहिताए ण कहेतबं, जा सा उचहिता सा दुविधा-सम्मोवहिता मिच्छोवहिता य, मिच्छोवहिता ॥८६॥ जहा अज्जगोविंदा तारिसाए ण वद्दति कहेतुं, सम्मोवहिता दुविधा-भाविता अभाषिता य, अभाविताए ण वट्टति कहेतुं, भाविता दुविधा-विणीता अविणीता य, अविणीताए ण वद्दति, विणीताए कहेतवं, विणीता दुविधा-वक्खित्ता अवविखत्ता य, बक्षित्ता जा सुणेति कम्मं च किंचि करेति खिज्जति वा अण्णं वा वावारं करेति, अवविखत्ता ण अण्णं किंचि करेति | केवल सुणति, अवक्खित्ताए कहेयवं, अबक्खित्ता दुविधा-उपउत्ता अणुवउत्सा य, अणुवउत्ता जा सुणेति अण्णमण्णं वा चिंतेति, उवउत्ता जा निश्चिन्ता, तम्हा उवउत्ताए कहेतवं । तथा चाह [सू.] दीप अनुक्रम [८४-९२] दानी पर्वत, सा च पूर्व वर्णिता सामायिकनियुकी पीलधनकुटादिका, अन पुनः सविशेष मण्यते-पर्षद द्विविधा-पस्थिता अनुपस्थिता , अपस्थि| साये कथमितव्यं अनुपस्थितायै म कथयितम्ब, या सोपस्थिता सा द्विविधा-सम्यगुपस्थिता मिथ्योपस्थिता च, मिथ्योपस्थिता बथा भार्यगोविन्दाः, ताश्यै न युज्यते कथयित, सभ्यगुपस्थिता द्विविधा-भाविता प्रभाविता च, अभावितायै न युज्यते कथयितुं, भाविता द्विविधा-विनीता अविनीता च, भविनीतायै साम युज्यते कथयितुं, विनीतायै कथयितव्यं, बिनीता द्विविधा-व्याक्षिप्ता अम्पानिप्ता च, ग्याक्षिप्ता या शृणोति कर्म च किचित् करोति वियते वा अन्य वाद व्यापार करोति, अभ्याक्षिप्ता नाम्यत् किञ्चित् करोति केवलं गोति, अम्बाक्षिप्तायै कथयितव्यं, अव्याक्षिमा द्विविधा-अपयुक्ता अनुपयुक्ताच, अनुपयुक्ता लाया पुणोति अन्यदन्यद्वा चिन्तयति, उपयुक्ता या निमिन्ता (सोपयुक्ता), तस्मात् उपयुकार्य कवितव्यं । शा JABERatinni पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~411 Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६१८] भाष्यं [२५३...] प्रत सूत्रांक सो उबवियाए विणीयवक्खित्ततदुवउत्ताए । एवंविहपरिसाए पच्चक्खाणं कहेयव्यं ।। १६१८ ॥ बारम् ॥ 'सो उचहिताए' गाहा व्याख्या-गतार्था, एवमेसा उवहिता सम्मोवद्विता भाविता विणीयाऽवक्खित्ता उवयुत्ता य, पढमपरिसा जोग्गा कहणाए, सेसा उ तेवढी परिसाओ अजोग्गाओ, अज्जोगाण इमा पढमा-बहिता सम्मोवद्विता | भाविता विणीया अवक्खित्ता अणुवउत्ता, एसा पढमा अजोग्गा, एवं तेवढिपि भाणितवा,-'उवठियसम्मोवडियभावि-1 तविणया य होइ वक्खित्ता । उवउत्तिगा य जोग्गा सेस अजोगातो तेवहि ॥१॥ एतं पञ्चक्खाणं पढमपरिसाए कहेजति, तबतिरित्ताए ण कहेतवं,ण केवलं पञ्चक्खाणं सबमवि आवस्सयं सधमवि सुयणाणति । मूलद्वारगाथायां परिपदिति गतमधुना कथनविधिरुच्यते, तत्रायं वृद्धवादः-काए विधीए कहितवं ?, पढम मूलगुणा कडेति पाणातिपातवेरमणाति, ततो साधुधम्मे कधिते पच्छा असढस्स सावगधम्मो, इहरा कहिज्जति सत्तिहोवि सावयधम्म पढम सोतुं तत्थेव ४ दीप अनुक्रम [८४-९२] एवमेषा उपस्थिता सम्बगुपस्थिता भाविता विनीताभ्याक्षिप्ता उपयुक्ता च प्रथमा पर्षदू योग्या कयनाथ, शेषा अयोग्या: विषष्टिः पर्षदः, अयोग्यानामियं प्रथमा-उपरिषता सम्बगुपस्थिता भाविता विनीता भण्याक्षिप्ता अनुपयुक्का, एषा प्रथमा भयोग्या, एवं विषष्टिरपि भणितम्या,-पस्थिता सम्बगुप स्थिता भाविता विनीता च भवत्वव्याक्षिप्ता उपयुका योग्या शेषा अयोग्याविपष्टिः॥१॥ एतत् प्रणाख्यानं प्रथमायै पर्षदेकल्पते, तव्यतिरिक्त चिन xकथयितव्यं, न केवळ प्रत्याख्यानं सर्वमप्यावश्यकं सर्वमपि श्रुतज्ञान मिति । केन विधिना कवितव्य , प्रथम मूलगुणाः कथ्यते माणातिपातविरमणादयः, ततः साधर्म कविते पश्चात् भाठाय श्रावकधर्मः, इतस्था कथ्यमाने सावधानपि श्रावकधर्म प्रथमं धुत्वा तत्रैव १ * पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~412~ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६१८] भाष्यं [२५३...] आवश्यक हारिभद्रीया प्रत्याख्या नाध्य प्रत ॥८६२|| सत्राक [सू.] वित्ती करेइ, [उत्तरेत्ति] उत्तरगुणेसुवि छम्मासियं आदि कार्ड जं जस्स जोग्ग पञ्चक्खाणं तं तस्स असढेण कहत अथवाऽयं कथनविधिःआणागिज्झो अस्थो आणाए चेव सो कहेयव्यो। दिह्रतिउ दिहता कहणविहि विराहणा इअरा॥१६१९॥ द्वारम् ॥ ___ 'आणागिज्झो अस्थो'गाहा व्याख्या-आज्ञा-आगमस्तग्राह्यः-तविनिश्चेयोऽर्थः, अनागतातिकान्तप्रत्याख्यानादिः आज्ञयैव-आगमेनवासी कथयितव्यो, न दृष्टान्तेन, तथा दान्तिका-दृष्टान्तपरिच्छेद्यः प्राणातिपाताद्यनिवृत्तानामेते | दोषा भवन्तीत्येवमादिर्दष्टान्तात्-दृष्टान्तेन कथयितव्यः, कथनविधिः-एषः कथनप्रकारः प्रत्याख्याने, यद्वा सामान्येनैवाज्ञाग्राह्योऽर्थः-सौधर्मादिः आज्ञयवासी कथयितव्यो न दृष्टान्तेन, तत्र तस्य वस्तुतोऽसत्त्वात् , तथा दार्टान्तिका-उत्पादादिमानात्मा वस्तुत्वाद् घटवदित्येवमादिदृष्टान्तात् कथयितव्यः, एषः कथनविधिः, विराधना इतरथा-विपर्ययोऽन्यथा कथनविधेः अप्रतिपत्तिहेतुत्वाद् अधिकतरसम्मोहादिति गाथार्थः ॥ १६१२. ॥ मूलद्वारगाथोपन्यस्त उक्तः कथनविधिः, साम्प्रतं फलमाह पञ्चक्खाणस्स फलं इहपरलोए अ होइ दुविहं तु । इहलोइ धम्मिलाई दामनगमाई परलोए ॥ १६२० ।। __'पञ्चक्खाणस्स'गाहा व्याख्या-प्रत्याख्यानस्य-उक्तलक्षणस्य फलं-कार्य इहलोके परलोके च भवति द्विविध-द्विप्रकारं, तुशब्दः स्वगतानेकभेदप्रदर्शनार्थः, तथा चाह-इहलोके धम्मिलादय उदाहरणं दामनकादयः परलोके इति । त्ति करोति, उत्तरेति उत्तरगुणेष्वपि पाण्मासिकमादी करवा यद्यस्य योग्यं प्रत्याक्यार्न तत्तस्मै माडेन कथयितव्य, दीप अनुक्रम [८४-९२] ॐANC0 ॥८६॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~4134 Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६२०] भाष्यं [२५३...] प्रत ICC सूत्रांक गाथाऽक्षरार्थः । कथानकं तु धम्मिलोदाहरणं धम्मिल्लाहिंडितो णायचं, आदिसद्दातो आमोसधिमादीया घेष्यति । दामण्णगोदाहरण तु-रायपुरे णगरे एगोकुलपुत्तो जातीतो, तस्स जिणदासो मित्तो, तेण सो साधुसगासं णीतो, तेण मच्छयमंसपञ्चक्खाणं गहितं, दुभिक्खे मच्छाहारो लोगो जातो, इतरोवि सालेहिं महिलाए खिसिजमाणो गतो, उदिण्णे मच्छे दहुँ पुणरावत्ती जाता, एवं तिणि दिवसे तिण्णि वारं गहिता मुक्का य, अणसणं कातुं रायगिहेणगरे मणियारसेद्विपत्तो दामण्णगो णाम जातो, अहवरिसस्स कुलं मारीए उच्छिण्णं, तत्थेव सागरवोदसस्थवाहस्स गिहे चिहाइ, तस्थ य गिहे। भिक्खटुं साधुणो पाइहा, साधुणा संघाडइलस्स कहितं, एतस्स गिहस्स एस दारगो अधिपती भविस्सति, सुतं सस्थवाहेण, पच्छा सत्थवाहेण पच्छन चंडालाण अप्पितो, तेहिं दूरं जेतुं अंगुलिं छेत्तुं भेसि तो णिविसओ कतो, णासंतो तस्सेव गोस-| धिएण गहितो पुत्तोत्ति, जोषणस्थो जातो, अण्णता सागरपोतो तत्थ गतो तं दहूण उवाएण परियणं पुच्छति-कस्स 456-54OCOCCACANCIEOCOM -% दीप अनुक्रम [८४-९२] % धम्मिहहिपिकतो ज्ञातव्यं, गादिशब्दात् मामशापध्याद्या गृधन्ते, दामनकोदाहरण तु राजपुरे नगरे एका कुलपुत्रो आयः, तस्य जिनदासो मित्रं, | तेन स साधुसकाशं नीता, तेन मत्स्यमांसमस्याण्यानं गृहीतं, दुर्भिक्षे मत्स्याहारो लोको जातः, इतरोऽपि श्यालमहिनाभ्यां निन्यमानो गतः, पीडितान् मत्स्थान दृष्ट्वा पुनरावृत्तिांता, पूर्व श्रीन दिवसान् बीन् वारान् गृहीता मुक्ताक्ष, अनशनं कृत्वा रामगृहे नगरे मणिकार सेमिपुत्रो दामनको नाम जातः, अष्टवर्षस्य मार्या कुलमुत्सन, तत्रैच सागरपोतसार्थवाहख गृहे तिति, सत्र च गृहे भिक्षार्थ साधयः प्रविष्टा, साधुना संघाटकीयाय कथिसं-एसस्य गृहखैध दारकोऽधिपतिभावी, श्रुतं सार्थवाहेन, पश्चात् सार्थवाहन असं चाण्डालेभ्योऽपितः, तैर्दूर नीत्वानुषि छिका भापितः निषियः कृतः, नश्यन् सदैव गोसंषिकेन (गोठाधिपतिना) गृहीतः पुन इति, यौवनस्थो जासः, अन्यदा सागरपोत्तस्तन्त्र गत्तः सं रोपायेन परिजम पृच्छति-कसैषः १, * JAMERIES natorary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~414 Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६२०] भाष्यं [२५३...] आवश्यक हारिभद्रीया प्रत सत्राक ॥८६३॥ [सू.] एस?, कथितं अणाधोत्ति इहागतो, इमो सोत्ति, ता लेहं दाऊं घरं पावेहित्ति विसज्जितो, गतो, रायगिहस्स बाहिपरिसरे पत्याख्या देवउले सुवति, सागरपोतधूता विसा णाम कण्णा तीए अच्चणियवावडाए दिहो, पितुमुद्दमुदितं लेहं दई बाएति-एतस्स। दारगस्स असोइयमक्खितपादस्स विसं दातवं, अणुस्सारफुसणं, कण्णगदाणं, पुणोवि मुद्देति, णगरं पविट्ठो, विसाऽणेण विवाहिता, आगतो सागरपोतो, मातिघरअच्चणियविसज्जणं, सागरपुत्तमरणं सोतुं सागरपोतो हितयफुट्टणेण मतो, रण्णा दामण्णगो घरसामी कतो, भोगसमिद्धी जाता, अण्णया पयण्हे मंगलिएहिं पुरतो से उग्गीय-'अणुपुखमावबंतावि अणस्था तस्स बहुगुणा होति । सुहदुक्खकच्छपुडतोजस्स कतंतो वहद पक्ख ॥१॥' सोतुं सतसहस्सं मंगलियाण देति, एवं तिणि वारा तिणि सतसहस्साणि, रण्णा सुतं, पुच्छितेण सर्व रण्णो सिहं, तुडेण रण्णा सेट्ठी ठावितो, बोधिलाभो, पुणो धम्माणुहार्ण देवलोगगमणं, एवमादि परलोए । अहवा सुद्धेण पञ्चक्खाणेण देवलोगगमर्ण पुणो बोधिलाभो सुकुल कधितमनाथ इति इहागतः, अयं स इति, तसो लेखं बचा गृदं प्रापयेति विमष्टो गतः, राजगृहसा बहिः परिसरे देवकुले सुप्तः, सागरपोतदुहिता [विपानानी कम्पा, तथानिकाम्यापूतथा ए), पिवमुदामुदितं लेखं दृष्टा वाचयति, एती दारकाय अधीतामक्षितपादाय वि दातव्यं, अनुस्वारस्फेटन ८६३॥ कन्यादान, पुनरपि मुश्यति, नगरं प्रविष्टः, विषाऽनेन विवाहिता, आगतः सागरपोतः, मातृगृहार्च निकाय विसर्जन, सागरपुषमरणं श्रुत्वा सागरपोतः इवयस्फोटनेन मृता, राशा दामनको गृहस्वामी कृतः,भोगसमृदिर्जाता, भन्षदा व पादनि माङ्गलिकः पुरतसस्पोट्टीत-श्रेषया भापतम्तोषनर्यास्तस्य बहुगुणा भवन्ति । मुखदुःखकक्षपुटको यस्य कृतान्तो वहति पक्षं ॥॥ श्रुत्वा शतसहस्रं मालिकाय ददाति, एवं बीन् वारान् श्रीणि पातसहस्राणि, राज्ञा श्रुतं, पृष्टेन सर्व शिष्टं राशे, तुष्टेन राज्ञा सेठी स्थापितः, योधिकाभा, पुनर्धमानुष्ठानं देषकोकामन, एवमावि परको के । अथवा बेन अस्यास्यानेन देवलोकगमनं पुनबोंधिलाभः मुकुल दीप अनुक्रम [८४-९२] JanEairan ainatorary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~415 Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६२०] भाष्यं [२५३...] प्रत सूत्रांक पञ्चायाती सोक्खपरंपरेण सिद्धिगमणं, केसिंचि पुणो तेणेव भवग्गहणेण सिद्धिगमणं भवतीति । अत एव प्रधानफलोपदर्शनेनोपसंहरन्नाह पञ्चक्खाणमिणं सेविकण भावेण जिणवरुदिह । पत्ता अणंतजीवा सासयसुक्खं लहुं मुक्खं ॥१३२१ ॥ 'पञ्चक्खाणमिण' गाहा व्याख्या-प्रत्याख्यानमिदं-अनन्तरोक्तं आसेव्य भावेन अन्तःकरणेन जिनवरोद्दिष्ट-तीर्थकरकधितं, प्राप्ता अनन्तजीवाः, शाश्वतसौख्यं शीघ्रं मोक्षम् आह-इदं फलं गुणनिरूपणायां 'पचक्खाणम्मि कते' इत्यादिना दर्शितमेव पुनः किमर्थमिति , उच्यते, तत्र वस्तुतः प्रत्याख्यानस्वरूपद्वारेणोक्तं, इह तु लोकनीतित इति न दोषः, यद्वा इत एव द्वारादवतार्य स्वरूपकथनत एव प्रवृत्तिहेतुत्वात् तत्रोक्तं इत्यनपराध एवेत्यलं विस्तरेण । उक्तोऽनुगमः साम्प्रतं नयाः, ते च नैगमसहव्यवहारऋजुसूत्रशब्दसमभिरूद्वैवंभूतभेदभिन्नाः खल्वौषतः सप्त भवन्ति, स्वरूपं चैतेषामध-15 स्तात् सामायिकाध्ययने न्यक्षेण प्रदर्शितमेवेति नेह प्रतन्यते, इह पुनः स्थानाशून्यार्थ एते ज्ञानक्रियान्तरभावद्वारेण समासतः प्रोच्यन्ते, ज्ञाननयः क्रियानयश्च, तत्र ज्ञाननयदर्शनमिदं-ज्ञानमेव प्रधानमैहिकामुष्मिकफलप्राप्तिकारणं, युक्तियुक्तत्वात्, तथा चाहनायंमि गिण्हियब्वे अगिण्हियव्वंमि चेव अत्थंमि । जइयब्वमेव इइ जो उवएसो सो नओ नाम ॥ १६२२ ।। मस्यावातिः सौख्यपरम्परकेण सिधिगमनं, केषाञ्चित् पुनसेनेव भषग्रहणेन सिदिगम भवतीति । *RSEENERSNEKHOLESCE दीप अनुक्रम [८४-९२] JanEairato पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~416~ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६२३] भाष्यं [२५३...] - - प्रत्याख्या नाध्य प्रत सूत्रांक आवश्यक हारिभ द्रीया ॥८६॥ [सू.] सम्वेसिपि नयाणं बहुविहवत्तब्धयं निसामित्ता । तं सव्वनयविसुद्धं जं चरणगुणहिओ साहू ॥ १६२३ ॥ ॥इति पञ्चक्खाणनिजुत्ती समत्ता । श्रीभद्रबाहुखामिविरचितं श्रीमदावश्यकसूत्रं सम्पूर्णम् ॥ 'णातम्मि गेण्हितवे' गाहा व्याख्या-ज्ञाते-सम्यकपरिच्छिन्ने 'गेण्हितबे'ति ग्रहीतव्ये उपादेये 'अगिण्हितबंमित्ति अग्रहीतव्ये अनुपादेये, हेय इत्यर्थः, चशब्दः खलुभयोर्ग्रहीतव्याग्रहीतव्ययोतिस्वानुकर्षणार्थः, उपेक्षणीयसमुच्चयार्थों | वा, एवकारस्ववधारणाथें, तस्यैव च व्यवहितः प्रयोगो द्रष्टव्यः, ज्ञात एवं ग्रहीतव्ये अग्रहीतब्ये तथोपेक्षणीये च ज्ञात एव नाज्ञाते 'अत्थंमित्ति अर्थ ऐहिकामुष्मिके, तत्रैहिको ग्रहीतव्यः सचन्दनाङ्गनादिः अग्रहीतव्यो विषशख कण्टकादिः उपेक्षणीयस्तृणादिः आमुष्मिको ग्रहीतव्यः सम्यग्दर्शनादिरग्रहीतब्यो मिथ्यात्वादिरुपेक्षणीयो विपक्षाभ्युदयादिरिति, तस्मिन्न. यतितव्यमेव इति-ऐहिकामुष्मिकफलप्रात्यर्थिना सत्त्वेन यतितव्यमेव, प्रवृत्यादिलक्षणः प्रयतः कार्य इत्यर्थः । है इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यं, सम्यग्ज्ञाने वर्तमानस्य फलाविर्सवाददर्शनात् , तथा चाम्यैरप्युक्तम्-"विज्ञप्तिः फलदा पुंसां, न क्रिया फलदा मता । मिथ्याज्ञानात् प्रवृत्तस्य, फलासंवाददर्शनात् ॥१॥" तथाऽऽपुष्मिकफलप्राप्यर्थिना हि ज्ञान एवं यति-- तव्यं, तथाऽऽगमोऽप्येवमेव व्यवस्थितः, यत उक्त-"पदमणाणं ततो दया, एवं चिट्ठति सबसंजते । अण्णाणी किं काहिति किं वा णाहिति छेयपावयं ॥१॥" इतश्चैतदेवमङ्गीकर्तव्यं यस्मात् तीर्थकरगणधरैरगीतार्थानां केवलानां विहारकि धर्म ज्ञानं ततो दया एवं तिइति सर्वसंयतः । अज्ञानी किं करिष्यति किं वा शाखति के पापर्क वा ॥1॥ दीप अनुक्रम [८४-९२] ॥८६४॥ andiaray.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~417 Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६२३] भाष्यं [२५३...] प्रत सूत्रांक RESECROREOSEKEE याऽपि निषिद्धा, तथा चागमः-"गीतत्थो य विहारो बिदितो गीतस्थमीसितो भणितो । एत्तो ततियविहारो णाणुण्णातो जिणवरेहिं ॥१॥"न यस्मादन्धेनान्धः समाकृष्यमाणः सम्यकूपन्थानं प्रतिपद्यत इत्यभिप्रायः । एवं तावत् क्षायोपशमिकं ज्ञानमधिकृत्योक्तं, क्षायिकमप्यङ्गीकृत्य विशिष्टफलसाधकत्वं तस्यैव विज्ञेयं, यस्मादहतोऽपि भवाम्भोधेस्तटस्थस्य दीक्षाप्रतिपन्नस्य उत्कृष्टतपश्चरणवतोऽपि न तावदपवर्गप्राप्तिः सञ्जायते [यतो] यावजीवाद्यखिलवस्तुपरिच्छेद्यरूपं केवलज्ञानं नोत्पन्न मिति, तस्मात् ज्ञानमेव प्रधानमैहिकामुष्मिकफलप्राप्तिकारणमिति स्थितं 'इति जो उबदेसो सो णओ णाम'त्ति || इति-एवं उक्केन न्यायेन य उपदेशः ज्ञानप्राधान्यख्यापनपरः स नयो नाम ज्ञाननय इत्यर्थः । अयं च नामादौ पतिधप्रत्याख्याने ज्ञानरूपमेव प्रत्याख्यानमिच्छति, ज्ञानात्मकत्वादस्य, क्रियारूपं तु तत्कार्यत्वात् तदायतत्त्वान्नेच्छति, गुणभूतं चेच्छतीति गाथार्थः । उक्तो ज्ञाननयोऽधुना क्रियानयावसरः, तदर्शनं चेदं-क्रियैव प्रधानं ऐहिकामुष्मिकफलप्राप्तिकारण, युक्तियुक्तत्वात् , तथा चायमप्युक्तलक्षणमेव स्वपक्षसिद्धये गाथामाह-णायम्मि मेण्हितच्चे' इत्यादि, अस्याः। क्रियानयदर्शनानुसारेण व्याख्या-ज्ञाते ग्रहीतव्ये अग्रहीतव्ये चैवमर्थ ऐहिकामुष्मिकफलप्राप्त्यर्थिना यतितव्यमेव, न यस्मात् प्रवृत्त्यादिलक्षणप्रयत्नव्यतिरेकेण ज्ञानवतोऽप्यभिलषितार्थावाप्तिदृश्यते, तथा चान्यैरप्युक्त-"क्रियैव फलदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतम् । यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो, न ज्ञानात् सुखितो भवेत् ॥१॥" तथाऽऽमुष्मिकफलमात्यर्थिनाऽपि दीप अनुक्रम [८४-९२] गीतार्थश्च बिहारो द्वितीयो गीतार्थ निश्चितो भणितः । इतस्तृतीयविहारो नानुज्ञातो जिनवरैः ॥1॥ आ.१५ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~418~ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६२३] भाष्यं [२५३...] प्रत सूत्रांक 11८६५ आवश्यक- क्रियैव कर्तव्या, तथा मुनीन्द्रवचनमप्येवं व्यवस्थितं, यत उक्तम्-"चेयकुलगणसंघे आयरियाण चपवयण सुए य । स-12प्रत्याख्या हारिभ- ४ सुवि तेण कयं तवसंजममुजमतेणं ॥१॥ इतश्चैतदेवमङ्गीकर्तव्यम्-यस्मात् तीर्थकरगणधरैः क्रियाविकलानां ज्ञानमपि नाध्य० द्रीया विफलमेवोक्त, तथा चागमः-"मुंबहुंपि सुयमहीयं किं काही चरणविष्पहीणस्स? । अंधस्स जह पलित्ता दीपसयसहस्सको डीवि ॥१॥" दृशिक्रियाविकलत्वात् तस्येत्यभिप्रायः। एवं तावत् क्षायोपशमिक चारित्रमङ्गीकृत्योक्त, चारित्रं क्रिये-18 त्यनर्थान्तरं, क्षायिकमष्यङ्गीकृत्य प्रकृष्टफलसाधकत्वं तस्यैव विज्ञेयं, यस्मादहतोऽपि भगवतः समुपन्नकेवलज्ञानस्यापि न तावत् मुक्त्यवाप्तिः सञ्जायते यावदखिलकर्मेन्धनानलभूता इस्वपञ्चाक्षरोगिरणमात्रकालावस्थायिनी सर्वसंवररूपा चारित्रक्रिया नावाप्तेति, तस्मात् क्रियैव प्रधानमैहिकामुष्मिकफलप्राप्तिकारणमिति य उपदेशा-क्रियाप्राधान्यख्यापनपरः४ स नयो नाम क्रियानय इत्यर्थः । अयं च नामादी षविधे प्रत्याख्याने क्रियारूपमेव प्रत्याख्यानमिच्छति, तदात्मकत्वादस्य, ज्ञानं तु तदर्थमुपादीयमानत्वादप्रधानत्वान्नेच्छति गुणभूतं चेच्छतीति गाथार्थः । उक्त क्रियानयः, इत्थं ज्ञानक्रियानय| स्वरूपं श्रुत्त्वाऽविदिततदभिप्रायो विनेयः संशयापन्नः सन्नाह-किमत्र तत्व , पक्षद्वयेऽपि युक्तिसम्भवाद्, आचार्यः पुनराह-सब्वेसिंगाहा, अथवा ज्ञानक्रियानयमतं प्रत्येकमभिधायाधुना स्थितपक्षमुपदर्शयशाह-सव्वेसिपिगाहा व्याख्या'सर्वेषा'मिति मूलनयानां अपिशब्दात् तभेदानां च नयानां-द्रव्यास्तिकादीनां बहुविधवक्तव्यता-सामान्यमेव विशेषा ||८६५॥ चैत्यकुळगणसङ्के आचार्येषु च प्रवचने श्रुते च । सर्वेष्वपि तेन कृतं तपःसंयमयोगाच्छता ॥1॥ २ सुषकपि श्रुतमधीतं किं करिष्यति चरण| विप्रहीम । अन्धस्य यथा प्रदीसा दीपशतसहसकोव्यपि ॥1॥ दीप अनुक्रम [८४-९२] JamEajamin ainatorary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~419~ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-३१] "आवश्यक"- मूलसूत्र-१/४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१६२३] भाष्यं [२५३...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्ति: SCk पत्र प्रत सूत्रांक 1- एव उभयमेवानपेक्षं इत्यादिरूपां अथवा नामादीनां नयानां कः के साधुमिच्छतीत्यादिरूपां निशम्य-श्रुत्वा तत सर्वनयविशुद्धं-सर्वनयसम्मतं वचनं यच्चरणगुणस्थितः साधुः, यस्मात् सर्वे नया एव भावनिक्षेपमिच्छन्तीति गाथार्थः ॥११२३॥ इति शिष्यहितायां प्रत्याख्यानविवरणं समाप्तमिति । व्याख्यायाध्ययनमिदं यदवाप्तमिह शुभं मया पुण्यम् । शुद्ध प्रत्याख्यानं लभतां भव्यो जनस्तेन ॥१॥ समाप्ता चेयं शिष्यहितानामावश्यकटीका ॥ कृतिः सिताम्बराचार्यजिनभटनिगदानुसारिणो विद्याधरकुलतिलकाचार्यजिनदत्तशिष्यस्य धर्मतो जाइणीमहत्तरासूनोरल्पमतेराचार्यहरिभद्रस्य । यदिहोत्सूत्रमज्ञानाद्, व्याख्यातं तद् बहुश्रुतैः । क्षन्तव्यं कस्य सम्मोहः, छद्मस्थस्य न जायते ॥१॥ यदर्जित विरच(मंच)यता सुबोध्या पुण्यं मयाऽऽवश्यकशास्त्रटीकाम् भवे भवे तेन ममैवमेव,भूयाजिनोक्तानुमते प्रयासः॥२॥ अन्यच्च सन्त्यज्य समस्तसत्त्वा, मात्सर्यदुःखं भवबीजभूतम् । सुखात्मकं मुक्तिपदावई च, सर्वत्र माध्यस्थमवामुवन्तु ॥२॥ समाप्ता चेयमावश्यकटीका । द्वाविंशतिः सहस्राणि, प्रत्येकाक्षरगणनया(संख्यया)। अनुष्टुप्छन्दसा मानमस्या उद्देशतः | कृतम् ॥१॥ अंकतोऽपि ग्रन्थान २२००० दीप अनुक्रम [८४-९२] %A5*567 15% ... अत्र अध्ययनं -६- 'प्रत्याख्यानं' परिसमाप्तं भाग-३१[आगम-40/4], नियुक्ति:- (१२७३.अपूर्ण से १६२३) + (अध्ययन ४.अपूर्ण से ६ पूर्ण) 'आवश्यक'-मूलसूत्र [१/४] मूलं एवं मलयगिरिसूरिजी रचिता टीका परिसमाप्ता: मूल संशोधकः सम्पादकश्च पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब किंचित् वैशिष्ट्य समर्पितेन सह पुन: संकलनकर्ता मुनि दीपरत्नसागरजी M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि) । भाग ~420 Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग कलपृष्ठ ३१४ ५८६ ४९८ ३९२ ५९४ ४९४ ३३८ ५९२ ५५२ सवृत्तिक-आगम-सत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा? इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम 01 | आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति भाग-१ श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन-१,२ 02 | आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन- ३ से ९, श्रुतस्कन्ध-२ 03 | आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन- १ से १३ 04 | आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन १४ से १६, श्रुतस्कन्ध-२ 05 | आगम ०३ स्थान मुलं एवं वत्ति, भाग-१ स्थान- १ से ४ 06 | आगम ०३ स्थान मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ स्थान- ५ से १० संपूर्ण 07 | आगम ०४ समवाय मूलं एवं वृत्ति. 08 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ शतक-१ से ६ 09 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ शतक-७ से ११ 10 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-३ शतक- १२ से २० 11 | | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-४ शतक- २१ से ४१ संपूर्ण 12 | आगम ०६ ज्ञाताधर्मकथा मूलं एवं वृत्ति. 13 | आगम-७,८,९,१०उपासकदशा, अंतकृतदशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण मूलं एवं वृत्ति. 14 | आगम-११,१२, विपाक, उववाई मूलं एवं वृत्ति. 15 | आगम १३ राजप्रश्नीय मूलं एवं वृत्ति. 16 | आगम१४ जीवाजीवाभिगम भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. [प्रतिपत्ति-३-अतर्गत] सूत्र-१ से १३८ 17 | आगम१४ जीवाजीवाभिगम भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. [प्रतिपत्ति-३-अतर्गत सूत्र- १३९ से प्रतिपत्ती-१० संपूर्ण 18 | | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. पद-१ से ५ 19 | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-२ मलं एवं वृत्ति. पद-६ से २२ 20 | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-३ मुलं एवं वत्ति. पद- २३ से ३६ संपूर्ण 21 | आगम १६ सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति. ५१४ ३८४ ५२२ ५३८ ३८४ ३१४ ४८० ४८८ ૪૨૬ ५१४ ३३६ ६१० ~421 Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुलपृष्ठ ६१४ ३७६ ४२६ ३४४ ३१२ 27 ३३० ४६६ ४४२ सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा? भाग इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम आगम १७ चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति. आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- १ एवं २. | आगमा८ जंबूदविपप्रज्ञप्ति भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- ३ एवं ४. आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-३ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- ५ से ७. आगम १९-३२ निरयावलिका, कल्पवतंसिका, पुष्पिका, पृष्पचूलिका, वृष्णिदशा, चतुःशरण, आतुरपरत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, ___ भक्तपरिज्ञा, तंदलवैचारिक, संस्तारक, गच्छाचार, गणिविदया, देवेन्द्रस्तव मलं एवं छाया आगम ३३ थी ३९ मरणसमाधि मूलं एवं छाया, निशीथ, बुहत्कल्प, व्यवहार, दशाश्रुतस्कंध, जीतकल्प/पंचकल्प, महानिशीथ मूलं एव 28 आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, नियुक्ति-१ से ५२१ 29 आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-२, नियुक्ति- ५२२ से ९५१ आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-३ नियुक्ति- ९५२ से १२७३ अपूर्ण, [अध्ययन- १ से ४ अपूर्ण] आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-५ नियुक्ति- १२७३ अपूर्ण से १६२३, [अध्ययन-४ अपूर्ण से ६ संपूर्ण) | आगम ४१/१ ओघनियुक्ति मूल एवं वृत्ति. आगम ४१/२ पिंडनियुक्ति मूलं एवं वृत्ति. | आगम ४२ दशवैकालिक मूलं एवं वृत्ति. 35 आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, अध्ययन- १ से ५ 36 | आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-२, अध्ययन- ६ से २१ 37 | आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-३, अध्ययन- २२ से ३६ 38 | आगम ४४ नन्दिसूत्र मूलं एवं वृत्ति. 39 | | आगम ४५ अनुयोगद्वार मूलं एवं वृत्ति. 40 | कल्प[बारसा]सूत्र... चतुःशरण, तन्दुलवैचारिक, गच्छाचार मूलं एवं वृत्ति. ४६४ ४२६ ४७२ ३७६ ५९० ५२२ ४८२ ४६६ ५२८ ५६० ३९४ ~422 Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ਕਹਾ ਵੀ ਕਰਨ ਤੇ ਕਸ ਨ ਮਾਸ ਸ ਦ ਸ ਸ ਗਲ ਸ ਸ ਸ ਅਗਸ਼ ਸ ਸ ਸ ਸ ਮਹਾਸਲ ਸ ਕਰਨ ਸ ਹੁਸ਼ ਦੀ ਵੀ आगम चिनाशताब्दा 3 ਤ ਸ ਸ ਸ ਹਿਤ ਕਿਸ ਨੂੰ ਸ ਸ ਸ ਸ ਗੁਰੂ ਸ ਸ ਸ ਹਤ ਸ ਸ * 423 * Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदसणस्स सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि मूल संशोधक अभिनव-संकलनकर्ता HJHAR HIRO पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] Hinysteminiromisingeet प्रत प्राप्ति और पेज सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 982559885519825306275 ~4244 Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता AHA श्री आगम मंदिर RASH पालिताणा RAIHAHARASTRANEPARIHAR OETEORIA ~425 Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आजम आगम आगम आणम् आजामाआजामा मूल सशाधक पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य आ श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब रागम आजम आजम आगम आगम आगम 40 "आवश्यक” मूलं एवं वृत्ति: [4] आजम आज अभिनव-संकलनकर्ता आजम / आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी आगम् [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] आगम आगम आगम आगम आगम आगम ~426