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तुतीय जनुभागकाधिकार
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V UAM
भारतीय सानपीट
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ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला : प्राकृत ग्रन्थांक ७
सिरिभगवंतभूदबलिभडारयपणीदो
महाबंधो [ महाधवल सिद्धान्त-शास्त्र] तदियो अणुभागबंधाहियारो [ तृतीय अनुभागबन्धाधिकार ] हिन्दी भाषानुवाद सहित
पुस्तक ५
सम्पादन-अनुवाद
पं. फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री
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000
पचारतारापीठ
भारतीय ज्ञानपीठ द्वितीय संस्करण : १६६६ - मूल्य : १४०.०० रुपये
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भारतीय ज्ञानपीठ
(स्थापना : फाल्गुन कृष्ण ६, वीर नि. सं. २४७०, विक्रम सं. २०००, १८ फरवरी, १६४४)
स्व० पुण्यश्लोका माता मूर्तिदेवी की पवित्र स्मृति में स्व० साहू शान्तिप्रसाद जैन द्वारा संस्थापित
एवं उनकी धर्मपत्नी स्व० श्रीमती रमा जैन द्वारा संपोषित
मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला
इस ग्रन्थमाला के अन्तर्गत प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी, कन्नड़, तमिल आदि प्राचीन
भाषाओं में उपलब्ध आगमिक, दार्शनिक, पौराणिक, साहित्यिक, ऐतिहासिक आदि विविध-विषयक जैन-साहित्य का अनुसन्धानपूर्ण सम्पादन तथा उनका मूल और यथासम्भव अनुवाद आदि के साथ प्रकाशन हो रहा है। जैन-भण्डारों की सूचियाँ, शिलालेख-संग्रह, कला एवं स्थापत्य पर विशिष्ट विद्वानों के अध्ययन-ग्रन्थ और लोकहितकारी जैन-साहित्य ग्रन्थ भी
इसी ग्रन्थमाला में प्रकाशित हो रहे हैं।
ग्रन्थमाला सम्पादक (प्रथम संस्करण)
डॉ. हीरालाल जैन एवं डॉ. आ. ने. उपाध्ये
प्रकाशक
भारतीय ज्ञानपीठ १८, इन्स्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नयी दिल्ली-११०००३
मुद्रक : आर.के. ऑफसेट, दिल्ली-११० ०३२
© भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा सर्वाधिकार सुरक्षित
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Moortidevi Jain Granthamala : Prakrit Grantha No. 7
MAHĀBANDHO
| Third Part : Anubhāga-bandhādhikāra )
of Bhagavān Bhūtabalī
Vol. V
Editor and Translated by Pt. Phoolchandra Siddhantashastri
BHARATIYA JNANPITH
Second Edition : 1999
Price : Rs. 140.00
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BHARATIYA JNANPITH Founded on Phalguna Krishna 9, Vira N. Sam. 2470 a Vikrama Sam. 2000
18th Feb. 1944
MOORTIDEVI JAIN GRANTHAMALA
Founded by Late Sahu Shanti Prasad Jain In memory of his late Mother Smt. Moortidevi
and promoted by his benevolent wife
late Smt. Rama Jain
In this Granthamala Critically edited Jain agamic, philosophical,
puranic, literary, historical and other original texts available in Prakrit, Sanskrit, Apabhramsha, Hindi,
Kannada, Tamil etc., are being published in the respective languages with their translations in modern languages.
Also
being published are catalogues of Jain bhandaras, inscriptions, studies, art and architecture by competent scholars,
and also popular Jain literature.
General Editors (First Edition) Dr. Hiralal Jain & Dr. A.N. Upadhye
Published by
Bharatiya Jnanpith 18, Institutional Area, Lodi Road, New Delhi-110003
Printed at : R.K. Offset, Delhi-110032
© All Rights Reserved by Bharatiya Jnanpith
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प्रशस्ति
जितचेतोजातनुर्वीश्वरमकुटतटोघृष्टपादारविन्दद्वितयं वाक्कामिनीपीवरकुचकलशालकृतोदारहार-। प्रतिमं दुर्दोरसंसृत्यतुलविपिनदावानलं माघनन्दिव्रतिनाथं शारदाभ्रोज्ज्वलविशदयशो राजिताशान्तकान्तम् ॥१॥ भावभवविजयिवरवाग्देवीमुखदर्पणनानम्नावनिपालकनेसेदनिलाविश्नुतकित्ते माघनन्दिमुनीन्द्रम् ॥२॥ वरराद्धान्ताम्भोनिधितरलतरङ्गोत्करक्षालितान्तःकरणं श्रीमेघचन्द्रव्रतिपतिपदपङ्केरुहासक्तषट्-। चरणं तीव्रप्रतापोधृतविततबलोपेतपुष्पेषु मृत्संहरणं सैद्धान्तिकाग्रेसरनेने नेकळ्दं माघनन्दिव्रतीन्द्रम् ॥३॥ महनीयगुणनिधानं सहजोन्नतबुद्धिविनयनिधियेने नेगळ्दम्। महिविनुतकिन्ते कित्तितमहिमानं मानिताभिमानं सेनम् ॥४॥ विनयद शीलदो गुणदगाळिय पेंपिनपुड्डिजमनोजनरति रूपिनोळ्पनिळिसिर्द-मनोहरमप्पुदोन्दु रू-। पिन मने दानदागरमेनिप्प वधूत्तमेयप्प सन्दसेनन सति मल्लिकव्वेगे धरित्रियोळार दोरे सद्गुणङ्गळिम् ॥५॥ सकलधरित्रीविनुतप्रकटितधीयसे मल्लिकव्वे बरेसि सत्पु
ण्याकरमहाबन्धद पुस्तकं श्रीमाघनन्दिमुनिगळिगित्तळ ॥६॥ -जिन्होंने मन्मथ को जीत लिया है, जिनके दोनों पादकमलों को राजाओं के मुकुट के अग्रभाग चूमते हैं, जो सरस्वती के पीवर स्तनकलशों से अलंकृत मनोहर हार के समान हैं, जो दुर्निवार संसाररूपी विपुल कानन के लिए दावानलस्वरूप हैं, ऐसे माघनन्दिव्रतिपति शरत्कालीन मेघ के समान दिगन्तव्याप्त उज्ज्वल यश से विराजमान हैं ॥१॥
मन्मथविजयी, सरस्वती-मुख के लिए दर्पणरूप और पृथ्वीविश्रुतिकीर्ति माघनन्दि मुनीन्द्र पृथ्वीपालक हैं ॥२॥
जो श्रेष्ठ सिद्धान्तरूपी समुद्र की तरल तरंगों से प्रक्षालित अन्तःकरणवाला है, जो श्री मेघचन्द्र व्रतिपति के पादकमलों में आसक्त भ्रमर के समान है, जो तीव्र प्रतापी है, जिसने अपने विपुलबल से मन्मथ को जीत लिया है ऐसा माघनन्दि व्रतीन्द्र सैद्धान्तिकाग्रेसर के नाम से प्रख्यात था ॥३॥
जो महनीय गुणों का आकर है, जो सहज और उन्नत बुद्धि तथा विनय का निधिस्वरूप है, पृथिवी में जिसकी कीर्ति वन्दनीय है, जिसकी महिमा विख्यात है और जिसका मान-सम्मान है वह सेन प्रसिद्ध है ॥४॥
पृथ्वी में सद्गुणों में विनययुक्त, शीलवती, रति के समान मनोहर रूपवती और दानशूर ऐसी सन्दसेन की भार्या मल्लिकव्वे के समान कौन है ॥५॥
सकल पृथ्वीमण्डल द्वारा विनुत तथा प्रख्यातबुद्धि और यशवाली मल्लिकव्वे ने पुण्याकर महाबन्ध पुस्तक लिखवाकर माघनन्दि मुनीन्द्र को भेंट की ॥६॥
यह प्रशस्ति अनुभागबन्ध के अन्त में उपलब्ध होती है। स्थितिबन्ध के अन्त में भी एक प्रशस्ति आयी है। गुणभद्रसूरि के उल्लेख को छोड़कर इस प्रशस्ति में वही बात कही गयी है जिसका निर्देश स्थितिबन्ध के अन्त में पाई जानेवाली प्रशस्ति में किया गया है। मात्र इसमें मेघचन्द्र व्रतपति का विशेष रूप से उल्लेख किया है और माघनन्दि व्रतपति को इनके पादकमलों में आसक्त बतलाया है।
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विषय-सूची
२३६
३२५
२३६
२४०
२४१
६८ १२६
२४० २४१ २४४ २४४ २७६ २७८
७६ २८३
२४५ २७६
२७८
६३ १२६ १२६ १२७ १२६
२७६ २८३
१२६
२८५
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१३१
३०६
१२६ १२६
३०६ ३१२ ३१७
३१२
१३०
३१७
१३० १३१
३१८
भुजगारबन्ध
अर्थपद समुत्कीर्तना स्वामित्व काल अन्तर भंगविचय भागाभाग परिमाण क्षेत्र स्पर्शन काल अन्तर भाव
अल्पबहुत्व पदनिक्षेप
समुत्कीर्तना दो भेद उत्कृष्ट जघन्य स्वामित्व दो भेद उत्कृष्ट जघन्य अल्पबहुत्व दो भेद उत्कृष्ट जघन्य
१३१ १४२ १३७
३१८
१३१
३२५
१३७
१४२
सनिकर्षप्ररूपणा
सन्निकर्ष के दो भेद स्वस्थान सन्निकर्ष उत्कृष्ट सन्निकर्ष जघन्य सन्निकर्ष परस्थान सन्निकर्ष उत्कृष्ट सन्निकर्ष
जघन्य सन्निकर्ष भंगविचयप्ररूपणा
उत्कृष्ट
जघन्य भागाभागप्ररूपणा
उत्कृष्ट
जघन्य परिमाणप्ररूपणा
उत्कृष्ट
जघन्य क्षेत्रप्ररूपणा
उत्कृष्ट
जघन्य स्पर्शनप्ररूपणा
उत्कृष्ट
जघन्य कालप्ररूपणा
उत्कृष्ट
जघन्य अन्तरप्ररूपणा
उत्कृष्ट
जघन्य भावप्ररूपणा अल्पबहुत्वप्ररूपणा
अल्पबहुत्व के दो भेद स्वस्थान अल्पबहुत्व उत्कृष्ट जघन्य परस्थान अल्पबहुत्व उत्कृष्ट जघन्य
३२५ ३५६ ३२५ ३२५ ३२५ ३२५ ३५५
१४२
१४२
१५१ १४६ १५१ ૨૧૧
३२५
१४६ १५१ १५१
३२५
१८२
१८२
३२५ ३४० ३५६
२११
२११
२११ २१६ २१४ २१६ ૨૧૬ २१७
३४० ३५५ ३५६ ३२६ ३५६ ३७२ ३७२
२१४
२१६ २१६
३५७ ३५७ ३५६ ३५६
| वृद्धि २१६ २२०
२१८
३६१
समुत्कीर्तना स्वामित्व
२२०
३
काल
२२८
२२० २२० २२४
अन्तर भंगविचय भागाभाग परिमाण
२६१ ३६१ ३६२ ३६३ ३६४ ३६४ ३६५
२२४
३६३
२२८
क्षेत्र
२२८
२३६ २३३ २३६
३६५
३६६
स्पर्शन काल
३६८
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३६६
३७०
३८७
३८६ ३८७ ३८८
३७१
३७२
३८७ ३८८ ३८६६
३८६
३६२
३७३
३८६
अन्तर भाव
अल्पबहुत्व अध्यवसानसमुदाहार
तीन भेद प्रकृतिसमुदाहार
दो भेद प्रमाणानुगम अल्पबहुत्व दो भेद स्वस्थान अल्पबहुत्व
परस्थान अल्पबहुत्व स्थितिसमुदाहार
दो भेद प्रमाणानुगम
श्रेणिप्ररूपणा ३७१ दो भेद ३७२ अनन्तरोपनिधा ४१३
परम्परोपनिधा ३७२
अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान
दो भेद ३७३
अनन्तरोपनिधा ३७३
परम्परोपनिधा ३८६ ३७३ तीव्रमन्दता
अनुकृष्टि ३८३
तीव्रमन्द ३६२ जीवसमुदाहार ३८७
३६१ ३६२ ४१३
३७३
३६० ३६१ ३६२ ३६२ ३६६ ४१३
३७३
३७७
३६८
३७७
४१३
३८७
४१५
३८७
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सिरिभगवंतभूदबलिभडारयपणीदो
महाबंधो तदियो अणुभागबंधाहियारो
१५ सणिणयासपरूवणा १. सणियासं दुविहं-सत्थाणं परत्थाणं च । सत्थाणं दुवि०--जह० उक० । उक्कम्सए पगदं । दुवि०-ओघे आदे० । ओघे० आभिणिबोधियणाणावरणस्स उक्कस्सयं अणुभागं वंधतो चदुणाणावरणीयं णियमा बंधगो तं तु उक्कस्सा वा अणुकस्सा वा। उक्कस्सादो अणुकस्सा छटाणपदिदं वंधदि अगंतभागहीणं वा ५ । एवमण्णमण्णाणं । णिदाणिक्षाए उक्क० वं० अहदंस० णियमा वं० । तं तु छहाणपदिदं बंधदि । एवमण्णमण्णाणं । साद० उ० वं. असाद० अवंधगो । असाद • उ० बं० साद० अवंध० । एवं आउ-गोदं पि।
१५ सन्निकर्षमपणा १. सन्निकर्प दो प्रकारका है-स्वस्थान सन्निकर्ष और परस्थान सन्निकर्प। स्वस्थान सन्निकर्प दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्णका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे आमिनिवाधिकज्ञानावरणके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरणका नियमसे वन्ध करता है। किन्तु वह इनके उत्कृष्ट अनुभागका भी वन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी वन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका वन्ध करता है,तो वह उनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धकी अपेक्षा छह स्थान पतित अनुत्कृष्ट अनुभागका वन्ध करता है। या तो अनन्तभागहीन अनुभागका बन्ध करता है या असंख्यात भागहीन या संख्यातभागहीन या संख्यातगुणहीन या असंख्यातगुणहीन या अनन्तगुणहीन अनुभागका बन्ध करता है। पाँचों ज्ञानावरणोंका इसी प्रकार परस्पर सन्निकप जानना चाहिए। निद्रानिद्राके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव आठ दर्शनावरणका नियमसे बन्ध करता है, किन्तु वह इनके उत्कृष्ट अनुभाग का भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है तो वह उनके उत्कृष्ट अनुभागवन्धकी अपेक्षा छह स्थान पतित अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है। सब दर्शनावरणोंका परस्पर इसी प्रकार सन्निकर्प जानना चाहिए। सातावेदनीयके उस्कृष्ट अनुभागका वन्ध करनेवाला जीव असातावेदनीयका बन्ध नहीं करता है। असातावेदनीयक उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव सातावेदनीयका बन्ध नहीं करता है। इसी प्रकार आयु और गोत्र कर्मके विषय में भी जानना चाहिए।
१. ता० प्रती अणुभागा (गं) चदु- इति पाठः।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे २. मिच्छ० उ० बं० सोलसक० -णवूस-अरदि-सोग-भय०-दु० णिय० बं० । तं तु छट्ठाण । एवं सोलसक०-पंचणोक० । इत्थि० उ० बं० मिच्छ०-सोलसक०अरदि-सोग०-भय०-दु० णि. बं० अणंतगुणहीणं बं० । एवं पुरिस० । हस्स० उक्क० बं० मिच्छ०-सोलसक०-भय०-दु० णियमा बं० अणंतगुणहीणं बं० । इत्थि०-णqस० सिया बं० सिया अबं०। यदि बं० णि० अणु० अणंतगुणहीणं । रदि० णिय० तंतु०। एवं रदीए।
३. णिरयगदि० उ० ब० पंचिंदि०-वेवि०-तेजा-क०-वेउव्वि०अंगो०-पसत्थ० ४-अगु०३-तस०४-णिमि० णि. बं० अणंतगुणहीणं बं०। हुंड०-अप्पसत्थ०४णिरयाणु०-उप०-अप्पसत्थ०-अथिरादिछ० णि० बं०। तं तु० छहाणपदिदं । एवं णिरयाणु।
२. मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव सोलह कवाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्साका नियमले बन्ध करता है। किन्तु वह इनके उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह उनके उत्कृष्ट अनुभाग बन्धकी अपेक्षा छह स्थान पतित अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है। इसी प्रकार सोलह कपाय और पाँच नोकवायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। स्त्रीवेदके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव मिथ्यात्व, सोलह कषाय, अरति, शोक, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु बह इनके अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है। इसी प्रकार पुरुषवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। हास्यके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह इनके अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् नहीं बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है,तो नियमसे इनके अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है। रतिका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उसके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह उसके उत्कृष्ठ अनुभाग बन्धकी अपेक्षा छह स्थान पतित अनुत्कृष्ट अनुभागका वन्ध करता है। इसी प्रकार रतिको मुल्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
३. नरकगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पश्चन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु तीन, त्रसचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह इनके अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है। हुण्ड संस्थान, अप्रशस्त वर्ण चतुष्क, नरकगत्यानुपूर्वी, उपघात. अप्रशस्त विहायोगति और अस्थिर आदि छहका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह इनके उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धकी अपेक्षा छह स्थान पतित अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है। इसी प्रकार नरकगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
१. ता-श्रा०प्रत्योः 'रदि० णिय.' इत श्रारभ्य 'णिमि० णि०० अणंतगुणहीणं ०' इति यावत् पाठस्य पुनरावृत्तिः।
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बंधसण्णियासपरूवणा ४. तिरिक्खगदि० उ० बं० एइंदि०-अप्पसत्थवि'०-थावर-दुस्सर सिया तं तु० छहाणपदिदं बं० । पंचिंदि०-ओरालि०अंगो०-असंपत्त-आदाउजो०-तस० सिया अणंतगुणहीणं बं० । ओरालिय०-तेजा०-क-पसत्थ०४-अगु०३-बादर-पज्जत्त-पत्ते०-णिमि० णिय० अणंतगुणहीणं । हुंड०-अप्पसत्थ०४-तिरिक्वाणु०-उप०-अथिरादिपंच णिय० तं तु० छहाणपदिदं० । एवं तिरिक्रवाणु० ।
५. मणुसग० उ० बं० पंचिंदि-तेजा-क०-समचदु०-पसत्थापसत्थवण्ण ४अगु०४-पसत्थ०-तम०-४-थिरादिछ०-णिमि० णिय० अणंतगुणहीणं । ओरालि०ओरालि०अंगो-बज्जरिस०-मणुसाणु० णिय० ब० तं तु० छहाणपदिदं० । तित्थ सिया० अणंतगुण० बं०। एवं ओरालि०-ओरालि अंगो०-वज्जरि०-मणुसाणु० ।।
६. देवगदि० उ० बं० पंचिंदि०-वेउव्वि०-तेजा-क०-समचदु०-बेउब्विय
४. तिर्यञ्चगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव एकेन्द्रिय जाति, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर और दुःस्वरका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है तो वह उनके अपने उत्कृष्ट बन्धकी अपेक्षा छह स्थान पतित अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है। पञ्चन्द्रियजाति, औदारिक आङ्गोपाङ्ग,असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन,तप, उद्योत और त्रसका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् नहीं बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो वह इनके अपने उत्कृष्ट बन्धकी अपेक्षा अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है। औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, प्रशस्त वणचतुष्क, अगुरुलघु तीन, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो उनके अपने उत्कृष्ट बन्धकी अपेक्षा अनन्तगुणे हीन अनुकृष्ट अनुभागका बन्ध करता है । हुण्ड संस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तियञ्चगत्यानुपूर्वी, उपघात और अस्थिर आदि पाँचका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह उनके उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका सन्ध करता है तो उसका वह छह स्थान पतित हानिको लिए हुए बन्ध करता है। इसी प्रकार तियश्चगत्यानुपूर्वी की मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
५. मनुष्यगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, प्रशस्त वर्ण चतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, स्थिर आदि छह और निर्माणका नियमसे अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए बन्ध करता है । औदारिक शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराच संहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वी का नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उनके उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्द करता है तो उसका वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए बन्ध करता है । तीर्थङ्करका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचिन् नहीं करता। यदि वन्ध करता है तो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है। इसी प्रकार अर्थात् मनुष्यगतिके समान औदारिक शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराच संहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
६. देवगतिके उत्कृष्ट अनुभागका वध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर,
१. ता० श्रा० प्रत्यो० एइंदि० अप्पसत्थ. अप्पसत्थवि० इति पाठः । २. श्रा०प्रतौ पदिदं । श्राहारदुगं तित्थ० इति पाठः।
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महाबंध अणुभागबंधाहियारे
अंगो ०-पसत्य०४-देवाणु०--अगु०३-पसत्थ-तस०४-थिरादिपंच०-णिमि० णिय० बं० । तं तु० छट्ठाणपदिदं । आहारदुग-तित्थ० सिया० । तं तु० छहाणपदिदं० । अप्पसत्थ०४-उप०-जस० णिय० अणंतगुणहीणं० । एवमेदाओ पसत्थाओ ऍक्कमेकस्स । तं तु.।
७. एइंदि० उ० ब० तिरिक्वग०-हुंड-अप्पसत्थ०४-तिरिक्वाणु०-उप०-थावरअथिरादिपंच णिय० । तं तु० छहाणपदिदं०। ओरालि०-लेजा-क०-पसत्थ०४-- अगु०३-बादर-पज्जत्त-पत्ते-णिमि० णिय. अगंतगुणहीणं० । आदाउज्जो० सिया० अणंतगुणहीणं । एवं थावर० । बीइंदि० उ० बं० तिरिक्खग०-ओरालि०-तेजा०क०-हुंड ०-ओरालि०अंगो०-पसत्थापसत्थ०४-तिरिक्वाणु०-अगु०--उप०- तस०-बादर
तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रिथिक अाङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, स्थिर आदि पाँच और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह इनके उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है तो उसका वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए बन्ध करता है। आहारक द्विक और तीर्थङ्करका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है तो उसका वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए वन्ध करता है। अप्रशस्त वर्ण चतुष्क, उपघात
और यश कीर्तिका नियमसे अनन्तगुणी हानिको लिये हुए अनुत्कृष्ट बन्ध करता है। इसी प्रकार इन प्रशस्त प्रकृतियोंका एक दूसरेको मुख्यतास सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु इनका परस्पर अनुभाग बन्ध उत्कृट भी करता है और अनुत्कृष्ट भी। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध करता है तो उनका वह छह स्थानपतित हानिको लिये हुए अनुभाग बन्ध करता है।
७. एकेन्द्रिय जातिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्ण चतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, स्थावर और अस्थिर आदि पाँचका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह इनके उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्च करता है, तो उसका वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए बन्ध करता है । औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, प्रशस्त वर्ण चतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, बादर, पर्यात, प्रत्येक और निर्माणका नियमसे अनन्तगुणा हीन अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है। आतप और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् नहीं बन्ध करता । यदि वन्ध करता है तो नियमसे अनन्तगुणा हीन अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है। इसी प्रकार स्थावर प्रकृतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । द्वीन्द्रिय जातिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्डसंस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्ण चतुष्क, अप्रशस्त वर्ण चतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी. अगरुलघ, उपघात, त्रस, बादर. अपर्याप्त. प्रत्येक, अस्थिर आदि पाँच और निर्माणका नियमसे अनन्तगुणा हीन अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है। असम्प्राप्तामृपाटिका संहननका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है या अनुत्कृष्ट अनुभागका
१. ता०-श्रा०प्रत्योः समचदु० अप्पसस्थवि• अंगो• इति पाठः।
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बंधसण्णियासपरूवणा
५
2
अपज्ज० - पत्ते ० -अथिरादिपंच० - णिमि० णिय अनंतगुणहीणं । [असंप णि० तं तु ० ] |
एवं इंदि० चदुरिंदि० ।
८.
गोद० उ० ० तिरिक्खग० मणुसग ० चदुसंघ० - दोआणु० - उज्जो० सिया अनंतगुणहीणं वं० | पंचिदि० ओरालि०-तेजा० क० -ओरालि० अंगो०-पसत्यापसत्य ०४अगु०४ - [अ - ] पसत्थ ०-तस०४- अथिरादि६० - णिमि० निय० अनंतगुणहीणं । एवं सादि० | णवरि तिष्णिसंघ० ।
० क०
है. खुज्ज० उ० अणु० बं० तिरिक्ख० पंचिंदि ० - ओरालि०- तेजा ०ओरालि० अंगो०- पसत्यापसत्य ०४- तिरिक्खाणु० अगु०४ - [ अ ] पसत्थ० -तस०४अथिरादि० - णिमि० वि० अनंतगुणहीणं । दोसंघ० उज्जो० सिया० अनंतगु० । एवं वामणसंठा० । णवरि एयसंघ० ' -उज्जो० सिया अनंतगु० ।
10.
१०. हुंड० उ० बं० णिरय - तिरिक्खग ० - एइंदि० - असं प ० - दोआणु० - अप्पसत्थविहा० -[थावर० ]- दुस्सर० सिया० । तं तु ० इहाणपदिदं० । पंचिंदि० ओरालि० - वेडव्वि०दोगो० - आदाव-तस० सिया० अनंतगु० । तेजा० क० - पसत्थव ०४ - अगु०३भी बन्ध करता है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है । इसी प्रकार त्रीन्द्रियजाति और चतुरिन्द्रियजातिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । ८. न्यप्रोध संस्थानके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, चार संहनन, दो पूर्वी और उद्यतका कदाचित् अनन्तगुणा हीन अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है | पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त व चतुष्क, अप्रशस्त वर्ण चतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, अस्थिर आदि छह और निर्माणका नियमसे अनन्तगुणाहीन अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है । इसी प्रकार स्वाति संस्थानकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसके तीन संहनन कहने चाहिए।
६. कुब्जक संस्थान के उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक अङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्ण चतुष्क, प्रशस्त व चतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुक, अप्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क स्थिर आदि छह और निर्माणका नियनले अनन्तगुणा हीन अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है । दो संहनन और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है । जो अनन्तगुणा हीन अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है। इसी प्रकार वामन संस्थानकी मुख्यताले सन्निकर्ष जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि वह एक संहनन और उद्योतका कदाचित् अनन्तगुणा हीन अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है ।
१०. हुण्ड संस्थान के उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव नरकगति, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय जाति, संप्राप्तासृपाटिका संहनन, दो आनुपूर्वी, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, और दुःearer कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है तो वह इनका छह स्थान पतित हानिको लिये हुए बन्ध करता है । पंचेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, आतप और त्रसका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा
१. ता० - श्रा० प्रत्योः श्रसंघ० इति पाठः । २. ता० - श्रा० प्रत्योः श्रादावुजो तस० इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे बादर-पज्जत्त-पत्ते-णिमि० णिय. अणंतगुणः। उज्जोवं सिया अणंतगुणहीणं । अप्पसत्थ०४-उप०-अथिरादिपंच० णियः। तं तु० छटाणपदिदं० । एवं हुंड० भंगो अप्पसत्थवण्ण०४--उप०-अथिरादिपंच । यथा संठाणं तथा चदुसंघ० ।
११. असंप० उ० अणु० बं० तिरिक्ख०--हुंड०--अप्पसत्थवण्ण०४-तिरिक्खाणु०-उप०-अप्पस०-अथिरादिछ० णि०। तं तु. छहाणपदिदं० । पंचिंदि०ओरालि०-तेजा-क०-ओरालि०अंगो०-पसत्थ०४-अगु०३-तस०४-णिमि० णिय. अणंतगुणहीणं० । उज्जो० सिया० अणंतगुणहीणं ।
१२. आदाव० उ० बं. तिरिक्खग०-एइंदि०-ओरालि.-तेजा०-०-हुंड०पसत्यापसत्य०४-तिरिक्खाणु०-अगु०४-थावर-बादर-पज्जत्त-पत्ते ०-दूभ०-अणादेंणिमि० णिय० अणंतगुणहीणं । थिराथिर-सुभासुभ-जस० - अजस० सिया० अणंतगुणहीणं० । उज्जो० उ० बं०'तिरिक्ख०-पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा०-क०-समचदु०हीन अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है। तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, बादर, पयप्ति, प्रत्येक और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगु अनत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है। उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है । अप्रशस्त वर्ण चतुष्क, उपवात और अस्थिर आदि पाँच का नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह इनके उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है। इसी प्रकार हुण्डक संस्थानके समान अप्रशस्तवर्ण चतुष्क, उपघात और अस्थिर आदि पाँचकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। जिस प्रकार चार संस्थानोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष कहा है, उसी प्रकार चार संहननोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
११. असम्प्राप्तामृपाटिका संहननके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्ण चतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति और अस्थिर आदि छहका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि वह इनके अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो इनका छह स्थान पतित हानिको लिये हुए बन्ध करता है । पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्तवर्ण चतुष्क, अगुरुलवुत्रिक, त्रस चतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणेहीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है। उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणेहीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है।
१२. आतपके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति, एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, प्रशस्त वर्ण चतुष्क, अप्रशस्त वर्ण चतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, स्थावर, बादर, पर्यात, प्रत्येक, दुर्भग, अनादेय और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभाग बन्धको लिये हुए होता है। स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति और अयशः कीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है । उद्योतके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करने
१. ता-श्रा०प्रत्योःपंच णिमि.णिय० इति पाठः। २. ता. श्रा०प्रत्योः 'अणंतगुणहीणं' अतोऽने 'यथा गदितथा प्राणुपुत्रि०' इत्यधिकः पाठोऽस्ति। ३. ता.श्रा०प्रत्योः उझो० उप०तिरिक्ख इति पाठः।
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बंधसण्णियासपरूवणा ओरालि०अंगो०-वजरि०-पसत्थापसत्थ०४-तिरिक्खाणु०-अगु०४--पसत्थ०-तस०४थिरादिछ०-णिमि० णिय० अणंतगु०।
१३. अप्पसत्थ० उ० बं० णिरय-तिरिक्ख०-असंप०-दोआणु० सिया० । तं तु० छहाणपदिदं० । पंचिंदि०-तेजा-क०-पसत्थ०४-अगु०३-तस४-णिमि० णिय० अणंतगुणहीणं० । ओरालि०-वेउव्वि०-दोअंगो०-उज्जो० सिया० अणंतगुणहीणं०। हुंड०-अप्पसत्थवण्ण०४-उप०-अथिरादिछ. णिय० । तं तु. छहाणपदिदं० । एवं दुस्सर०।
१४. सुहुम० उ. बं० तिरिक्ख०-एइंदि०-ओरालि०-तेजा.-क०-हुंड०पसत्यापसत्थवण्ण०४-तिरिक्खाणु०-अगु०-उप०-यावर-अथिरादिपंच०-णिमि० णिय० अणंतगुणहीणं० । अपज्ज०-साधार० णिय० । तं तु० छटाणपदिदं० । एवं अपज्जत्त-साधारण० । पंचंतराइयाणं णाणावरणभंगो।।
१५. णिरएसु सत्तणं कम्माणं ओघं । तिरिक्ख० उ० बं० पंचिंदि०वाला जीव तिर्यञ्चगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्षभ नाराच संहनन, प्रशस्त वर्ण चतुष्क, अप्रशस्त वर्ण चतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर आदि छह और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है।
१३. अप्रशस्त विहायोगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव नरकगति, तिर्यश्चगति, असाप्राप्तामृपाटिका संहनन और दो आनुपूर्वीका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है। पश्चन्द्रिय जाति, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, प्रशस्त वर्णं चतुष्क, अगुरुलघु त्रिक, त्रसचतुष्क
और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है। औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है। हुण्ड संस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और अस्थिर आदि छहका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है। इसी प्रकार दुःस्थर प्रकृतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
१४. सूक्ष्मके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति, एकेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्ड संस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, स्थावर, अस्थिर श्रादि पाँच और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो 'अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है। अपर्याप्त और साधारणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी वन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है। इसी प्रकार अपर्याप्त और साधारणकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । पाँच अन्तरायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्षका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है।
१५. नारकियोंमें सात कर्मोका भंग ओघके समान है। तिर्यञ्चगतिके उत्कृष्ट अनुभागका
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ओरालि०- तेजा०- क०- पसत्थ०४-अगु०३-तस०४-णिमि० णिय० अणंतगुणहीणं। हुड०-असंप०-अप्पसत्थ०४-तिरिक्रवाणु०-उप०-अप्पसत्थ०-अथिरादिछ० णिय० । तं तु. छटाणपदिदं० । उज्जो० सिया० अणंतगुणहीणं० । एवं तिरिक्खगदिभंगो हुड०-असंप०-अप्पसत्थ०४-तिरिक्खाणु०-उप०-अप्पसत्थ०-अथिरादिछ ।
१६. मणुसगदि० उ० बं० पंचिदि०-ओरालि०-तेजा०-क०-समचदु०-ओरालि०अंगो०-वजरि०--पसत्थ०४-- मणुसाणु०--अगु०३- तस०४-पसत्यवि०-थिरादिछ०णिमि० णिय० । तं तु० छटाणपदिदं । अप्पसत्थ०४-उप० णिय० अणंतगुणहीणं बं० । तित्थ० सिया० । तं तु० छहाणपदिदं । एवं पसत्थाओ ऍकमेक्केण सह । तं तु० तित्थयरेण सह कादव्वं । चदुसंठा०-चदुसंघ०-उज्जो० ओघं । एवं छसु पुढवीसु । णवरि उज्जोवं उ० वं० तिरिक्ख०-पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा-क०-ओरालि०अंगो०-पसत्थापसत्थ०४
बन्धक जीव पंचेन्द्रिय जाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्तवर्ण चतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, सचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है । हुण्ड संस्थान, असम्प्राप्तामृपाटिकासंहनन, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति और अस्थिर आदि छहका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका वन्ध करता है तो वह हह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है । उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हए होता है । इसी प्रकार तिर्यञ्चगतिके समान हुण्ड संस्थान, असम्प्राप्तामृपाटिकासंहनन, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगल्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति और अस्थिर आदि छहकी मुख्यता से सन्निकर्प जानना चाहिए।
१६. मनुष्यगतिके उत्कृष्ट अनुभागका वध करनेवाला जीव पंचेन्द्रिय जाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर. कार्मणशरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, औदारिक आङ्गोपाड. बनर्यभनाराच संहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, त्रसचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, स्थिर आदि छह और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है । अप्रशस्त वर्णचतुष्क और उपघातका नियमसे वन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है । तीर्थङ्करका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट अनुभागका भी वन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी वन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है। इसी प्रकार प्रशस्त प्रकृतियोंकी मुख्यतासे एक दूसरेके साथ सन्निकर्ष कहना चाहिए। किन्तु वह तीर्थङ्कर प्रकृतिके साथ कहना चाहिए। चार संस्थान, चार संहनन, और उद्योतका भङ्ग ओघके समान है। अर्थात इन प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष ओघके समान कहना चाहिए। इसी प्रकार प्रथमादि छह पृथिवियों में जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि उद्योतके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध कनेवाला जीव तिर्यश्चगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कामणशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क,
१ श्रा० प्रतौ सिया० । छहाणपदिदं इति पाठः।
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बंधसण्णियासपरूवणा
तिरिक्खाणु०-अगु०४-तस०४-णिमि०' णिय० अणतगुणहीणं० । छस्संठा-छस्संघ०दोविहा०-छयुगल. सिया अणंतगुणहीणं । सत्तमाए णिरयोघं । णवरि दोसंठा०दोसंघ० उ० बै० तिरिक्ख०-तिरिक्वाणु० णिय. अणंतगुणहीणं ।
१७. तिरिक्खेसु सत्तण्णं कम्माणं ओघं । णिरयगदि० उ० बं० पचिंदि०वेउन्वि०-वेउव्वि०-अंगो०-पसत्य ०४-अगु०३-तस०४-णिमि० णिय० अणतगुणहीणं० । हुंड-अप्पसत्थ०४-णिरयाणु०-उप०-अप्पस०-अथिरादिछ० णिय० । तं तु० छहाणपदिदं । एवं णिरयगदिभंगो अप्पसत्याणं ।
१८. तिरिक्खग० उ० बं० एइंदि०-तिरिक्रवाणु०-थावरादि०४ णिय० । तं तु० छहाणपदिदं० । ओरालि०-तेजा०-क०-हुंड०-पसत्यापसत्य ०४-अगु०-उप०अथिरादिपंच०--णिमि० णिय० अणंतगुणहीणं० । एवं तिरिक्खगदिभंगो एइंदि०तिरिक्रवाणु०-थावरादि०४ ।
१६. मणुसग० उ० बं० पंचिंदि०-तेजा०-क-समचदु०-पसत्थापसत्थ०४अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, सचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है। छह संस्थान, छह संहनन, दो विहायोगति और छह युगलका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है। सातवीं पृथिवीमें सामान्य नारकियोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि दो संस्थान और दो संहननके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति और तिर्यश्चगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है।
१७. तिर्यश्चोंमें सात कर्मोंका भङ्ग ओघके समान है। नरकगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, सचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है। हुण्ड संस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, नरकगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति और अस्थिर आदि छहका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थानपतित हानिको लिये हुए होता है। इसी प्रकार नरकगतिकी मुख्यतासे कहे गये सन्निकर्षके समान अप्रशस्त प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
१८. तिर्यश्चगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव एकेन्द्रिय जाति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और स्थावर आदि चारका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है । औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, अस्थिर
आदि पाँच और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है । जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है। इसी प्रकार तिर्यश्चगतिकी मुख्यतासे कहे गये सन्निकर्षके समान एकेन्द्रिय जाति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और स्थावर आदि चारकी मुख्यतासे सन्निकष जानना चाहिए।
१६. मनुष्यगतिके उत्कृष्ट श्रानुभागका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चन्द्रियजाति, तैजस शरीर, २ श्रा० प्रती अगु० ४ तस० णिमि इति पाठः। २० प्रती तेजाक० पसत्यापसत्य० इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे अगु०४-पसत्य ०-तस०४-सुभग-सुस्सर-आदे--णिमि० णिय. अणंतगुणहीणं० ।
ओरालि०-ओरालि० अंगो०-वजरि०-मणुसाणु० णि० । तं तु. छटाणपदिदं । तिण्णियुग. सिया० अणंतगुणहीणं० । एवं मणुसगदिभंगो ओरालि०-ओरालि०अंगो०-वज्जरि०-मणुसाणु० ।
२०. देवगदि० उ. बं० पंचिंदि०-वेउव्वि०-तेजा०-क०-समचदु०-वेउन्वि०अंगो०-पसत्थ०४-देवाणु० अगु०३-पसत्थ०-तस०४-थिरादिछ०-णिमि० णिय० । तं तु० लहाणपदिदं० । अप्पसत्थ०४-उप० णि० अणंतगुणहीणं० । एवं पसत्थाणं देवगदीए सह ऍक्कमेक्कस्स । तं तु०।
२१. बीइंदि० उ० बं० तिरिक्ख०-ओरालि०-तेजा.-क०-हुंड०-ओरालि. अंगो०- पसत्यापसत्य ०४-तिरिक्वाणु०- अगु०- उप०- तस०- बादर- अपज्ज०- पत्ते०अथिरादिपंच०-णिमि० णिय० अणंतगुणहीणं० । असंप० णि०। तं तु. छट्ठाणपदिदं० । एवं असंप० । तीइंदि०-चदुरिंदि० ओघं । चदुसंठा०-चदुसंघ०कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है। औदारिक शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है। तीन युगलका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है। इसी प्रकार मनुष्यगतिकी मुख्यतासे कहे गये सन्निकर्षके समान औदारिक शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराच संहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वीको मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२०. देवगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर. समचतुरस्त्र संस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्ण चतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु त्रिक, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, स्थिर आदि छह और निर्माण का नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है। अप्रशस्त वर्ण चतुष्क और उपधातका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है। इसी प्रकार प्रशस्त प्रकृतियोंका देवगति के साथ विवक्षित प्रकृतिकी मुख्यतासे परस्पर सन्निकर्ष कहना चाहिए। किन्तु विवक्षित प्रकृतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव शेष प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है जो उसी प्रकार बन्ध करता है, जिस प्रकर देवगतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष कहा है।
२१. द्वीन्द्रिय जातिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति, औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क तिर्यश्वगत्यानपूर्वी, अगुरुलघ, उपघात. त्रस. बादर. अपर्याप्त प्रत्येक. अस्थिर
आदि पाँच और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है। असम्प्राप्तामृपाटिका संहननका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है या अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिको लिए हुए होता है। इसी प्रकार असम्प्राप्तास्मृपाटिका संहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। त्रीन्द्रियजाति और चतुरिन्द्रियजातिकी
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बंधसण्णियासपरूवणा आदाव० ओघं । उज्जोवं पढमपुढविभंगो। एवं पंचिंदियतिरिक्ख०३ ।
२२. तस्सेव अपज्जत्तेसु छण्णं कम्माणं ओघं । मिच्छत्तं ओघ । एवं सोलसक०. पंचणोक० । इत्यि० उ० बं० मिच्छत्त-सोलसक०-भय०-दु० णिय० अणंतगुणहीणं । हस्स-रदि-अरदि-सोग० सिया अणंतगुणहीणं० । एवं पुरिस० । हस्स० उ० बं० मिच्छ०-सोलसक०-णस०-भय-दुणिय० अणु० अणंतगुणहीणं० । रदि० णिय० तं तु. लहाणपदिदं० । एवं रदीए।
२३. तिरिक्व० उ० ब० एइंदि०-हुंड०-अप्पसत्थ०४-तिरिक्रवाणु०-उप०थावरादि०४-अथिरादि०पंचणि । तं तु. छहाणपदिदं० । ओरालि०-तेजा०क०-पसत्थ०४-अगु०-णिमि०णिय० अणंतगुणही । एवं तिरिक्खगदिभंगो एई दि०. हुंड-अप्पसत्य०४-तिरिक्खाणु०-उप०-थावरादि०४-अथिरादिपंच०।
___ २४. मणुसगदि० उ०६० पंचिंदि० ओरालि०-तेजा०-क०-समचदु०-ओरालि०अंगो०-वजरि०--पसत्थ०४-मणुसाणु०--अगु०३-पसत्थवि०--तस०४-थिरादिछ०मुख्यतासे सन्निकर्ष अोधके समान है। चार संस्थान, चार संहनन और आतपकी मुख्यतासे सन्निकर्ष अोधके समान है। उद्योतकी मुख्यतासे सन्निकर्ष पहली पृथिवीके समान है। इसी प्रकार अर्थात् सामान्य तिर्यश्चोंके समान पञ्चन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें जानना चाहिए।
२२. तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें छह कर्मोंका भङ्ग ओघके समान है। मिथ्यात्वका भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार सोलह कषाय और पाँच नोकषायोंकी मुख्यतासे जानना चाहिए। स्त्रीवेदके उत्कृष्ट अनभागका बन्ध करनेवाला जीव मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है । हास्य, रति, अरति और शोकका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुभागको लिये हुए होता है । इसी प्रकार पुरुषवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। हास्यके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव मिथ्यात्व; सोलह कषाय, नपुसकवेद, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है । रतिका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह इसके उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हीन अनुभागको लिये हुए होता है। इसी प्रकार अर्थात हास्यके समान तिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
___२३ तिर्यञ्चगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव एकेन्द्रिय जाति, हुण्ड संस्थान, अप्रशस्त वर्ण चतुष्क, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी, उपघात, स्थावर आदि चार और अस्थिर आदि पाँचका नियम से बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है। औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, प्रशस्त वर्ण चतुष्क, अगुरुलघु और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है। इसी प्रकार तिर्यश्चगतिके समान एकेन्द्रिय जाति, हुण्ड संस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, स्थावर आदि चार और अस्थिर आदि पाँचकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२४. मनुष्यगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराच संहनन
१. प्रा. प्रतौ सोलसक० भयदु० इति पाठः । २ श्रा० प्रती० अथियदिछ० इति पाठः।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे णिमि० णि । तं० तु. छहाणपदिदं। अप्पसत्थ०४-उप० णि० अणंतगुणहीणं । एवं पसत्थाणं सव्वाणं मणुसगदीए सह ऍक्कमेकॅस्स । तं तु० छहाणपदिदं । बीइंदियजादि० जोणिणिभंगो। तीइंदि०-चदुरिंदि० ओघं।।
२५. णग्गोद० उ० बं० पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा०-क०-ओरालि०अंगो०. पसत्थापसत्थ०४-अगु०४-अप्पसत्थवि०-तस०४-दूभग-दुस्सर-अणादें-णिमि० णि. अणंतगुणहीणं० । तिरिक्ख०-मणुस०-चदुसंघ०-दोआणु०-उज्जो०-थिराथिर-सुभासुभजस-अजस० सिया अणंतगुणहीणं० । एवं सादि० । णवरि तिण्णिसंघ० सिया० अणंतगुणहीणं । एवं खुजसंठा। गवरि दोसंघ० सिया० अर्णतगुणहीणं । एवं वामण । णवरि असंपत्तसे० णिय० अणंतगुणहीणं । यथा संठाणं तथा संघडणं । असंप० बीइंदियभंगो। आदाउज्जो. पंचिंदियतिरिक्खभंगो।
प्रशस्त वर्ण चतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर
आदि छह और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है। अप्रशस्त वर्ण चतुष्क और उपघातका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है । इसी प्रकार सब प्रशस्त प्रकृतियोंका मनुष्यगतिके साथ परस्पर सन्निकर्ष कहना चाहिए। किन्तु उनका परस्पर उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध भी होता है और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध भी होता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध होता है,तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है । द्वीन्द्रियजाति की मुख्यतासे सन्निकर्ष जिस प्रकार तिर्यञ्चयोनिनीके कह आये हैं,उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए । श्रीन्द्रियजाति और चतुरिन्द्रियजातिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष अोधके समान है।
२५. न्यग्रोधसंस्थानके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीवपश्चन्द्रिय जाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिकाङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है। तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, चार संहनन, दो आनुपूर्वी, उद्योत, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति और अयशःकीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है। इसी प्रकार अर्थात् न्यग्रोधसंस्थानके समान स्वातिसंस्थानकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यह तीन संहननोंका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है। इसी प्रकार कुन्जक संस्थानकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यह दो संहननोंका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है। इसी प्रकार वामन संस्थानकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यह असम्प्राप्तामृपाटिका संहननका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है। यहाँ संस्थानोंकी मुख्यतासे जिस प्रकार सन्निकर्ष कहा है, उसी प्रकार संहननोंको मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । मात्र असम्प्राप्तासृपाटिका संहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष द्वीन्द्रिय जातिकी मुख्यतासे कहे गये सन्निकर्षके समान है। आतप और उद्योतकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जिस प्रकार पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चोंके कह आये हैं, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए ।
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बंधसण्णियासपरूवणा २६. अप्पसत्थ० उ० बं० तिरिक्ख०-बीइंदि०-ओरालि०-तेजा.-क०-हुंड०ओरालि अंगो०-पसत्यापसत्थ०४--तिरिक्खाणु०-अगु०४-तस०-दूभ०-अणादेंणिमि० णि. अणंतगुणहीणं । उज्जो०-थिराथिर-सुभासुभ-जस०-अजस० सिया० अणंतगुणहीणं० । दुस्सर० णि० । तं तु छहाणपदिदं० । एवं दुस्सर० । एवं अपज्जताण सव्वविगलिंदि०-पुढवि०-आउ०-वणप्फदि-बादरपत्ते-णियोद० ।
२७. मणुसेसु खविगाणं ओघं । सेसाणं पंचिंदियतिरिक्खभंगो ।
२८. देवेसु सत्तण्णं कम्माणं ओघं। तिरिक्व० उ० बं० एइंदि०-असंप०अप्पसत्थ०-थावर०-दुस्सर० सिया० । तं तु बहाणप० । पंचिंदि०-ओरालि०अंगो०आदाउज्जो०-तस० सिया० अणंतगुणहीणं। ओरालि०-तेजा०-क० पसत्थ०४-अगु०३बादर-पज्जत-पत्ते-णिमि० णिय० अणंतगुणहीणं० । हुंड-अप्पसत्य०४-तिरिक्वाणु०-उप०-अथिरादिपंच० णिय० तं तु छहाणपदिदं। एवं तिरिक्खगदिभंगो
२६. अप्रशस्त विहायोगतिके उत्कृष्ट अनुभागका वध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, द्वीन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, औदारिकाङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क,तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, त्रस चतुष्क, दुर्भग, अनादेय और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है। उद्योत, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति और अयश कीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है। दुःस्वरका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी वन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है । इसी प्रकार अर्थात् अप्रशस्त विहायोगतिके समान दुःस्वरकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । इसी प्रकार अर्थात् पश्चन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान सब अपर्याप्तक, सब विकलेन्द्रिय, पृथिवीकायिक, जलकायिक, वनस्पतिकायिक बादर प्रत्येक और निगोद जीवोंके जानना चाहिए।
२७. मनुष्योंमें क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है और शेष प्रकृतियोंका भङ्ग पंचेन्द्रियतिर्यञ्चोंके समान है।
२८. देवोंमें सात कर्मोका भङ्ग ओघके समान है । तिर्यञ्चगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव एकेन्द्रिय जाति, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर और दुःस्वरका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है,तो वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है। पञ्चन्द्रिय जाति, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, आतप, उद्योत और त्रसका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है। औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, प्रशस्त वर्ण चतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुभागको लिये हुए होता है। हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, उपघात और अस्थिर आदि पाँचका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है। इसी प्रकार तिर्यञ्चगतिके समान हुण्ड संस्थान, अप्रशस्त वर्ण चतुष्क, तिर्यश्चगत्यानपूर्वी, उपघात और अस्थिर आदि पाँचकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए किन्तु इनमें से किसी एक प्रकृतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव इन्हींमेंसे
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे हुंड०-अप्पसत्य०४-तिरिक्खाणु०-उप०अथिरादिपंच० । मणुसगदिसंजुत्ताओ पसत्याओ णिरयभंगो । एइंदि०-आदाव-थावरं ओघं । चदुसंठा०-चदुसंघ० ओघं ।
२६. असंप उ. बं० तिरिक्ख०-हुंडस०-अप्पस०४-तिरिक्खाणु०--उप०अप्पस०-अथिरादिछ० णि । तं तु०। पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा.-क०-ओरालिअंगो०-पसत्य०४-अगु०३-तस०४-णिमि० णि० अणंतगुणहीण। उज्जो० सिया० अणंतगुणहीणं । एवं अप्पसत्यविहायगदी। दुस्सर०-उज्जोव० पढमपुढविभंगो ।
३०. भवणवासिय-वाण-०-जोदिसि०-सोधम्मीसाणं सत्तं ओघं । तिरिक्ख गदि० उ० बं० एइंदि०-हुंड-अप्पसत्थ०४-तिरिक्वाणु०-उप०-थावर०-अथिरादिपंच णियमा । तं तु० । ओरालि०-तेजा-क०-पसत्थ०४-अगु०३-बादर-पज्जत्तपत्तेग०णिमि० णि. अणंतगु० । आदाउ० सिया० अणंतगुणहीणं० ।।
३१. असंप० उ० ब० तिरिक्व०-पंचिं०-ओरालि०-तेजा०-क०-हुंड०-ओरालि०शेष प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है। जो उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है या अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है। मनुष्यगति संयुक्त प्रशस्त प्रकृतियोंका भङ्ग जिस प्रकार नरकगतिमें कह पाये हैं, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए । एकेन्द्रिय जाति, आतप और स्थावरकी मुख्यतासे सन्निकर्ष ओघके समान है। चार संस्थान और चार संहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष ओघके समान है।
२६. असम्प्राप्तामृपाटिका संहननके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, हुंडसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, और अस्थिर
आदि छहका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है । पञ्चन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर,
औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, त्रसचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुकृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है। उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है। इसी प्रकार अप्रशस्त विहायोगतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । दुःस्वर और उद्योतकी मुख्यतासे सन्निकर्ष प्रथम पृथिवीके समान जानना चाहिए।
३०. भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और सौधर्म-ऐशान तकके देवोंमें सात कर्मोंका भंग ओघके समान है । तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, स्थावर और अस्थिर आदि पाँचका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थानपतित हानिको लिये हुए होता है। औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मण शरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक और निर्माण का नियमसे बन्ध करता है जो नियमसे अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनभागको लिये हुए होता है । आतप और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणहीन अनभागको लिये हुए होता है।
३१. असम्प्राप्तामृपाटिका संहननके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति, पंचेन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्डसंस्थान, औदारिक
१. ता० प्रती सोधम्मी० तस्स श्रोध, श्रा० प्रतौ सोधम्मीसाणंतस्स श्रोघं इति पाठः ।
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बंधसण्णियासपरूवणा अंगो०-पसत्थापसत्थवण्ण०४-[ तिरिक्खाणु०- ] अगु०४-तस०४-अथिरादिपच०णिमि० णिय० अणंतगुणहीणं। उज्जो० सिया० अणंतगुणहीणं । अप्पसत्थ०दुस्सर० णिय० । तं तु० । एवं अप्पसत्थवि०-दुस्सर० । सेसं देवोघं ।
३२. सणक्कुमार याव सहस्सार त्ति विदियपुढविभंगो । आणद याव णवगेवज्जा त्ति सो चेव भंगो। वरि तिरिक्खगदिदुगं उज्जोवं वज्ज । अणुदिस याव सबह त्ति छएणं कम्माणं ओघं। अप्पचक्खाणकोप. उ. बं० ऍकारसकसाय-पुरिस०अरदि-सोग -भय-दु० णिय० । तं तु छटाणपदिदं० । एवमएणमण्णाणं । तं तु० ।
___३३. हस्स० उ० बं० बारसक-पुरिसवे०-भय-दु० णिय० अणंतगुणहीणं० । रदि० णि । तं तु०। एवं रदीए । मणुसगदि. देवोघं । एवं पसत्याओ सव्वाओ।
maana
आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, त्रसचतुष्क, अस्थिर आदि पाँच और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुभागको लिये हुए होता है। उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुभागको लिये हुए होता है। अप्रशस्त विहायोगति और दुःस्वरका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है। इसी प्रकार अर्थात् असम्प्राप्तामृपाटिका संहननके समान अप्रशस्त विहायोगति और दुःस्वरकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। शेष भङ्ग सामान्य देवोंके समान है।
३२. सनत्कुमारसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें दूसरी पृथिवीके समान भङ्ग है। आनत कल्पसे लेकर नौ अवेयक तकके देवोंमें वही भङ्ग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्चगतिद्विक और उद्योतको छोड़कर सन्निकर्ष जानना चाहिए। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें छह कर्मोंका भंग अोधके समान है। अप्रत्याख्यानावरण क्रोधके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव ग्यारह कषाय, पुरुषवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उनका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध भी करता है। यदि अनत्कृष्ट अनभाग बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है। इसी प्रकार इन प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष होता है जो उत्कृष्ट अनुभाग बन्धरूप भी होता है और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धरूप भी होता है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धरूप होता है,तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है।
३३. हास्यके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुभागको लिये हुए होता है । रतिका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभाग का भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह अनन्तगुणे हीन अनुभागको लिये हुए होता है। इसी प्रकार अर्थात् हास्यके समान रतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । मनुष्यगतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष सामान्य देवोंमें जिस प्रकार कह आये हैं,उस प्रकार जानना चाहिए। इसी प्रकार अर्थात् मनुष्यगतिके समान सब प्रशस्त प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
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murar
artictionary
महाबंधे अणुभागधाहियारे ३४. अप्पसत्यवएण. उ.' बं० मणुस-पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा.-क०समचदु०-ओरालि०अंगो०-वजरि-पसत्य०४-मणुसाणु०-अगु०-पसत्थवि०-तस०४. सुभग-सुस्सर-आदें-णिमि० णि . बं. अणंतगुणहीणं० । अप्पसत्थगंध०३-उप०अथिर-अमुभ-अजस० णि । तं तु छहाणपदिदं । एवमण्णमएणस्स । तं तु० । तित्थ० सिया० अणंतगुणहीणं।
३५. एइंदिएसु सत्तएणं कम्माणं पंचिंदि०तिरि०अपज्ज भंगो । पंचिंदि० उ० वं० तिरिक्व०-तिरिक्वाणु० सिया अणंतगुणहीणं० । मणुसग०-मणुसाणु०-उज्जो० सिया० । तं तु० । ओरालि०-तेजा-क०-समचदु०-ओरालि०-वज्जरि०-पसत्य०४अगु०३-पसत्थ०--तस० ४-थिरादिछ०-णिमि० णि. तं तु० । अप्पसत्थ०४उप० णिय० अणंतगुणहीणं० । एवं पंचिंदियभंगो पसस्थाणं सव्वाणं । मणुस०मणुसाणु बजरि०सेसाणं पंचिंदि०तिरिक्खअपज्जत्तभंगो । एवं सव्वएइंदियाएं० ।
३४. अप्रशस्त वर्णके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव मनुष्यगति पंचेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराचसंहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनभागक लिये हुए होता है। अप्रशस्त गन्ध आदि तीन, उपघात, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्तिका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है। इसी प्रकार इन अशुभ प्रकृतियांकी मुख्यतासे परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु इनमें से किसी एक प्रकृतिके उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध करनेवाला जीव उन्हीं से शेष प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट अनुभाग वन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभाग बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिको लिए हुए होता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचिन् बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुभागको लिए हुए होता है।
६५. एकेन्द्रियोंमें सात कर्मोंका भङ्ग पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान है। पञ्चन्द्रिय जातिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति और तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वीका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुभागको लिये हुए होता है। मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है। औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराचसंहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर आदि छह और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट अनुभाग बन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध करता है, तो वह छह स्थानपतित हानिको लिये हुए होता है । अप्रशस्त वर्णचतुष्क और उपघातका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुरणे हीन अनुभागको लिये हुए होता है । इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय जातिके समान सब प्रशस्त प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । मनुष्यगति, मनुष्यगत्यापूर्वी और वज्रपभनाराचसंहनन तथा शेष प्रकृतियोंकी मुख्यतासे
१ श्रा० प्रतौ-वण्ण० ४ उ० इति पाठः।
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बंधसण्णियासपरूवणा तेउ०-वाउका० एइंदियभंगो । णवरि तिरिक्वगदि०-तिरिक्खाणु० धुवभंगो। पसत्थाणं उज्जो० सिया० । तं तु.।
३६. पंचिंदि०-तस०२ ओघभंगो । एवं पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि०कोधादिष्ट-अचक्खु०-भवसि०-सण्णि-आहारग त्ति । ओरालि० मणुसभंगो ।
३७. ओरालियमि० सत्तणं कम्माणं अपज्जत्तभंगो। तिरिक्ख०-चदुजा०पंचसंठा-पंचसंघ०-अप्पसत्थ०४-तिरिक्वाणु०-उप०-आदाउज्जो०-अप्पसत्थ०-थावरादि०४-अथिरादिछ. पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो । मणुसगदिपंचगं पंचि०तिरिक्वभंगो। देवगदि उ० बं० पंचिंदि०-वेवि०-तेजा-क०-समचदु०-वेउन्वि० अंगो०-पसत्थ०४-देवाणु०-अगु०३-पसत्य-तस०४-थिरादिछ०-णिमि० णिय० । तं तु० । अप्पसत्थ०४--उप० णि. अणंतगुणहीणं । तित्थ० सिया० । तं तु.। एवमेदाओ ऍक्कमक्कस्स तं तु०।
३८. वेउव्वियका०-वेउब्वियमि० देवोघं । णवरि उज्जो० मूलोघं । आहार०सन्निकर्ष पंचेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान है। इसी प्रकार सब एकेन्द्रियोंके जानना चाहिए। अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंमें एकेन्द्रियों के समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि इनमें तिर्यश्चगति और तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी की मुख्यतासे सन्निकर्ष ध्रुवभङ्गके समान है। प्रशस्त प्रकृतियों और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है, किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थानपतित हानिको लिए हुए होता है।
___ ३६. पंचेन्द्रियद्विक और सद्विक जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है। इसी प्रकार पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, क्रोधादि चार कषायवाले, अचक्षुदर्शनी, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिए। औदारिककाययोगी जीवोंका भङ्ग मनुष्योंके समान है। .
३७. औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें सात कर्मोंका भंग अपर्याप्तकोंके समान है । तिर्यश्चगति, चार जाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी, उपघात, पातप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर आदि चार और अस्थिर आदि छहका भंग पंचेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकों के समान है। मनुष्यगतिपश्चकका भंग पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों के समान है । देवगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागवन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध करता है,तो वह छह स्थानपतित हानिको लिये हुए होता है। अप्रशस्त वर्णचतुष्क और उपघातका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुभागको लिये हुए होता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ठ अनुभागबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध करता है, तो वह छह स्थानपतित हानिको लिये हुए होता है। इसी प्रकार इन प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए।
३८. वैक्रियिककाययोगी और वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें सामान्य देवोंके समान १. श्रा० प्रतौ थिरादिछ० इति पाठः ।
स्थर आदि छह और निर्यात
। किन्तु वह उत्कृष्ट अन
भी करता है
३
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे आहारमि० छण्णं कम्माणं सव्वह भंगो। कोधसंज. उ० बं० तिण्णिसंज०-पुरिस:अरदि-सोग-भय-दु० णिय० । तं तु० । एवमेक्कमेकॅस्स । तं तु० ।
३६. हस्स० उ० बं० चदुसंज०-पुरिस०-भय०-दु० णि. अणंतगुणहीणं । रदि० णि । तं तु० । एवं रदीए ।
४०. देवगदि० उ० बं० पंचिंदि०-वेउव्वि०-तेजा०-क०-समचदु०-वेउन्वि.. अंगो०-पसत्थवण्ण०४-देवाणु०-अगु०३-पसत्य-तस०४-थिरादिछ०-णिमि० णि । तं तु० । अप्पसत्थवण्ण०४-उप० णिय. अणंतगुणहीणं० । तित्थ० सिया० । तं तु० । एवं पसत्थाओ ऍकमेकस्स । तं तु० ।
४१. अप्पसत्थवणं० उ. बं. देवगदि--पंचिंदि०-वेउव्वि-तेजा०-क०भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि उद्योतका भंग मूलोधके समान है। आहारककाययोगी और
आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें छह कर्मोंका भङ्ग सर्वार्थसिद्धिके समान है। क्रोध संज्वलनके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तीन संज्वलन, पुरुषवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थानपतित हानिको लिये हुए होता है। इसी प्रकार इन प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु इनमेंसे किसी एकके उत्कृष् अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव शेषके उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थानपतित हानिको लिये हुए होता है ।
___३६. हास्यके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है। रतिका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट अनु
व भी करता है। यदि अनुत्कृष्ठ अनुभागबन्ध करता है, तो वह छह स्थानपतित हानिको लिये हुए होता है। इसी प्रकार रतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
४०. देवगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पंवेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, वैक्रियिक प्राङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, त्रसवतुष्क, स्थिर आदि छह और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभाग का भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थानपतित हानिको लिये हुए होता है। अप्रशस्त वर्णचतुष्क और उपघातका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुभागको लिये हुए होता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थानपतित हानिको लिये हुए होता है। इसी प्रकार प्रशस्त प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु इनमेंसे किसी एकके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव इन्हींमेंसे शेषका. उत्कृष्ट अनुभागबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट अनुभाग वन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध करता है तो वह छह स्थानपतित हानिको लिये हुए होता है।। ४१. अप्रशस्त वर्णके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव देवगति, पंचेन्द्रिय जाति,
१. श्रा. प्रतौ अप्पसत्थवण्ण.४ इति पाठः।
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बंधसण्णियासपरूषणा
समचदु०-वेउव्वि०अंगो०-पसत्थ०४-देवाणु०-अगु०३-पसत्थ०-तसं०४-सुभग-सुस्सरआद-णिमि० णि० अणंतगुणहीणं० । अप्पसत्थगंध०३-उप०-अथिर-असुभ-अजस० णि । तं तु । तित्थ० सिया० अणंतगुणहीणं० । एवं अप्पसत्थगंध०३-[उप०-] अथिर-असुभ-अजस।
४२. कम्मइ० सत्तण्णं कम्माणं ओघं । तिरिक्व० उ० बं० एइंदि०-असंप०अप्पसत्थवि०-थावर-सुहुम-अपज्ज०-साधार०-दुस्सर० सिया० । तं तु० ! पंचिं०ओरालि० अंगो-पर०-उस्सा-आदाउज्जो०-तस०४ सिया० अणंतगुणहीणं० ओरालि०तेजा०-क०-पसत्थ०४--अगु०-णिमि० णिय० अणंतगु० । हुंड०-अप्पसत्थ०४-तिरिक्वाणु०-उप०-अथिरादिपंच० णि । तं तु० । एवं तिरिक्खगदिभंगो हुंड०अप्पसत्थ०४-तिरिक्वाणु०-उप०-अथिरादिपंच० । मणुसग० उ० बं० णिरयोघं । एवं ओरालि०-ओरालि०अंगो०-वज्जरि०-मणुसाणु० । देवगदि०४ ओरालियमिस्स भंगो।
वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्र संस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर,
आदेय और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है। अप्रशस्त गन्ध तीन, उपघात, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्तिका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थानपतित हानिको लिये हुए होता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनभागको लिये हए होता है। इसी प्रकार अर्थात अप्रशस्त वर्णके समान अप्रशस्त गन्ध आदि तीन, उपघात, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्तिकी गुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
४२. कार्मणकाययोगी जीवोंमें सात कर्मोंका भङ्ग ओघके समान है। तिर्यञ्चगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव एकेन्द्रिय जाति, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण और दुःस्वरका कदाचित् बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थानपतित हानिको लिये हुए होता है। पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत
और सचतुष्कका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभाग रूप होता है। औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभाग रूप होता है । हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उपघात और अस्थिर आदि पाँचका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थानपतित हानिरूप होता है। इसी प्रकार तिर्यञ्चगतिके समान हुण्डक संस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उपघात और
स्थर आदि पाँचकी मख्यताले सन्निकर्ष जानना चाहिए। मनुष्यगतिके उत्कृष्ट अनुभागबन्धकी मुख्यतासे सन्निकर्ष सामान्य नारकियोंके जिसप्रकार कह आये हैं, उस प्रकार जानना चाहिए । इसी प्रकार औदारिकशरीर, औदारिकाङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, और मनुष्यगत्यानुपूर्वीकी १ श्रा० प्रतौ श्रगु० ३ तस० इति पाठः । २ ता. प्रतौ अणादे० इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ४३. पंचिंदि० उ० बं० मणुसग०-देवग०-दोसरी०-दोअंगो०-वज्जरि०-दोआणु०-तित्थय० सिया० । तं तु । तेजा०-क०-समचदु०-पसत्थ०४-अगु०३-पसत्थ०तस०४-थिरादिछ-०णिमि० णि तु० । अप्पसत्थ०४-उप० णिय० अणंतगु० । एवं पंचिंदियभंगो पसत्थाणं ।
४४. एइंदि० उ० बं० तिरिक्खग०-हुंड०-अप्पसत्थ०४-तिरिक्वाणु०-उप०थावर-अथिरादिपंच० णि । तं तु० । ओरालि०-तेजा०क०-पसत्थ०४-अगु०-णिमि० णि. अणंतगु० । पर०-उस्सा०-आदाउज्जो०-बादर-पज्जत-पत्ते सिया० अणंतगुणहीणं० । मुहुम०-अपज्ज०-साधार० सिया० । तं तु । एवं थावर० ।
४५. सुहुम० उ० बं० तिरिक्ख०-एइंदि०-हुंड०-अप्पसत्थ०४-तिरिक्वाणु०उप०-थावर-अपज्ज०-साधार०-अथिरादिपंच० णि । तं तु. । ओरालि०-तेजा०-क०मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। देवगति चतुष्ककी मुख्यतासे सन्निकर्ष औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंके जिसप्रकार कह आये हैं, उसप्रकार जानना चाहिए।
४३. पञ्चेन्द्रिय जातिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव मनुष्यगति, देवगति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराच संहनन, दो भानुपूर्वी और तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है, तो उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थानपतित हानिको लिये हुए होता है। तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभाग का भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है। अप्रशस्त वर्णचतुष्क और उपघातका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय जातिके समान प्रशस्त प्रकृतियों की मुख्यतासे सन्निकर्षे जानना चाहिए।
४४. एकेन्द्रिय जातिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, स्थावर और अस्थिर आदि पाँचका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थानपतित हानिको लिये हुए होता है। औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है । परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, बादर, पर्याप्त और प्रत्येकका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है। सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणका कदाचित् बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट अनुभाग बन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभाग बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है। इसी प्रकार अर्थात् एकेन्द्रिय जातिके समान स्थावर प्रकृतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
४५. सूक्ष्म प्रकृतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय जाति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, स्थावर, अपर्याप्त, साधारण और
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बंधसणियासपरूवणा पसत्थ०४-अगु०-णिमि० णिय० अणंतगुणहीणं । एवं अपज०-साधार० । सेसं ओघं । तिरिक्व०-मणुस० एइंदि० सुहुम०-अपज्जत्त०-साधारणसंजुत्तसंकिलेस्स गेरइय० पंचिंदियसंजुत्तसंकिलेस्स ति ।
४६. इत्थिवेदेसु सत्तण्णं कम्माणं ओघं । णिरयग० उ० ०' पंचिंदियादिपसत्थाओ ओघं । हुंड-अप्पसत्थ०४--णिरयाणु०-उप०-अप्पसत्थ०-अथिरादिछ० णिय० । तं तु० । एवं णिरयाणु०-अप्पसत्थवि०-दुस्सर० ।
४७. तिरिक्व० उ० बं० एइंदि० हुंड०-अप्पसत्थ०४-तिरिक्वाणु०-उप०थावर०-अथिरादिपंच० गिय० । तं तु० । ओरालियादिपगदीओ देवोघं । एवं एइंदि०-[हुंड०-अप्पसत्थ०४-]तिरिक्वाणु-उप०-]थावर०-[अथिरादिपंच०] । तिण्णि जादि० पंचिं०तिरिक्खजोणिणिभंगो।
४८. सेसाणं पगदीणं ओघ । णवरि असंप० उ०० तिरिक्व०-ओरालि०-तेजा०अस्थिर आदि पाँचका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थानपतित हानिको लिये हुए होता है। औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है। इसी प्रकार अर्थात् सूक्ष्म प्रकृतिके समान अपर्याप्त और साधारण प्रकृतियों की मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । शेष ओघके समान है। तिर्यञ्च और मनुष्य जीव सूक्ष्म, अपर्यात और साधारण संयुक्त संक्लेश परिणामोंसे एकेन्द्रिय जातिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करते हैं और पञ्चन्द्रिय जाति संयुक्त संक्लेश परिणामोंसे नरकगतिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करते हैं।
४६. स्त्रीवेदी जीवों में सात कर्मोंका भङ्ग ओघ के समान है। नरकगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीवके पश्चन्द्रिय जाति आदि प्रशस्त प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। वह हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, नरकगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति और अस्थिर आदि छहका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध करता है, तो वह छह स्थानपतित हानि को लिये हुए होता है । इसी प्रकार अर्थात् नरकगतिके समान नरकगत्यानुपूर्वी, अप्रशस्त विहायो। गति और दुःस्वरकी मुख्यतासे सन्निकर्प जानना चाहिए।
४७. तिर्यश्चगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव एकेन्द्रिय जाति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उपधात, स्थावर और अस्थिर आदि पाँचका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थानपतित हानिको लिये
। औदारिक शरीर आदि प्रकृतियोंका सन्निकर्ष जिस प्रकार सामान्य देवोंमें कह आये हैं, उसी प्रकार यहाँ कहना चाहिए। इसी प्रकार एकेन्द्रिय जाति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, स्थावर और अस्थिर आदि ५ की मुख्यतासे सत्रिकर्ष जानना चाहिए। तीन जातिकी मुख्यता से सन्निकर्ष पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनीके जिस प्रकार कह आये हैं,उस प्रकार है।
४८. शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि असम्प्राप्तामृपाटिका संह१. ता० प्रती श्रोघं । उ० ब० इति पाठः ।
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महाबंध अणुभागबंधाहियारे क०-हुंड०-ओरालि०अंगो०-पसत्थापसत्थ०४-तिरिक्वाणु०-अगु०-उप०-तस०४-अथिरादिपंच-णिमि० णिय० अणंतगु० । बे० सिया० तं तु० । पंचिं०-पर०-उस्सा०-उज्जो०अप्पस०-पज्जत्तापज्ज०-दुस्सर० सिया० अणंतगुण । तिरिक्ख-मणुसिणीओ बेइंदियसंजुतं संकिलेस्सं ति । आदाउज्जो० देवोघं।
४६. चदुसंठा०-चदुसंघ०--अप्पसत्थ०--दुस्सर० ओघं । मुहुम० उ० बं० तिरिक्ख०-एइंदि०-ओरालि०-तेजा-क०-हुंड०-पसत्थापसत्थ०४--तिरिक्खाणु०-अगु०उप०-थावर-अथिरादिपंच०-णिमि० णिय० अणंतगुणहीणं । अपज्जत्त-साधार० णिय० । तं तु० । एवं अपज्जत-साधार० ।
५०. पुरिसेसु ओघं ।
५१. णqसगे सत्तण्णं कम्माणं ओघं । णिरयगदि० उ० बं० पंचिंदियादिपगदीओ सव्वाओ ओघं । हुंड-अप्पसत्थवण्ण०४--णिरयाणु०-उप०-अप्पसत्थ०-अथिरादिछ. णिय० । तं तु० । एवं णिरयाणुपु० । ननके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, हुंड संस्थान, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग,प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क,तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, सचतुष्क, अस्थिर आदि पाँच और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है। द्वीन्द्रिय जातिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है,तो उत्कृष्ट अनुभागवन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट अनुबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुबन्ध करता है,तो वह नियमसे छह स्थानपतित हानिरूप होता है । पञ्चन्द्रियजाति. परघात, उच्छवास, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, पर्याप्त, अपर्याप्त और दुःस्वरका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है । तिर्यञ्चयोनिनी
और मनुष्यनी संक्लेश परिणामयुक्त द्वीन्द्रिय जातिका बन्ध करती है । आतप और उद्योतका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है।
४६. चार संस्थान, चार संहनन, अप्रशस्त विहायोगति और दुःस्वरका भङ्ग ओघके समान है। सूक्ष्म प्रकृतिके उत्कृष्ट अनुभागका वन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति, एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्ड संस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, अपघात, स्थावर, अस्थिर आदि पाँच और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागको लिये हुए होता है । अपर्याप्त और साधारण का नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट अनुभाग बन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध करता है, तो वह छह स्थानपतित हानिको लिये हुए होता है। इसी प्रकार अपर्याप्त और साधारणकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
५०. पुरुषवेदी जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है।
५१. नपुंसकवेदी जीवोंमें सात कर्मोंका भङ्ग ओघके समान है। नरकगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीवके पञ्चन्द्रिय जाति आदि सब प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। वह हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, नरकगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति और अस्थिर आदि छहका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट अनुभाग बन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभाग बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है। इसी प्रकार नरकगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
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बंधणियासपरूवणा ५२. तिरिक्खगदि० उ० बं० पंचिंदियादिपसत्थाओ अणंतगुणहीणं० । हुंड०असंप०-अप्पसत्थ०४-तिरिक्रवाणु०-उप०-अप्पसत्थ०-अथिरादिछ० णिय० । तं तु छहाणपदिदं । एवं असंप०-तिरिक्वाणु० ।
५३. एइंदि० उ० बं० थावर-सुहुम-अपजत्त-साधार० णिय० । तं तु० । सेसं णिय० अणंतगुणहीणं । एवं एइंदियभंगो थावर-सुहुम-अपज्जत्त-साधार० । सेसं ओघं ।
५४. अवगदवेदे० आभिणि० उ० बं० चदुणा० णि. बं० णि० उक्कस्सं । एवं चदुणाणा०-चदुदंसणा०-चदुसंज०-पंचंतरा० । कोधादि०४ ओघं ।।
५५. मदि०-सुद०-विभंग०-मिच्छादि० ओरालि० उ० बं० तिरिक्खग०-तिरिक्खाणु० सिया० अणंतगुणहीणं० । मणुसगदिदुग-उज्जो० सिया० । तं तु० । पंचिंदि०तेजा०-क०-समचदु०-पसत्थापसत्थ०४-अगु०४-पसत्थ०--तस०४-थिरादिछ०-णिमि० णिय० अणंतगु० । ओरालि०अंगो०-वजरि० णिय० । तं तु० । एवं ओरालि०अंगो०
५२. तिर्यञ्चगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पश्चन्द्रिय जाति आदि प्रशस्त प्रकृतियोंका अनन्तगुणा हीन अनुत्कृष्ट अनुभाग बन्ध करता है । हुण्ड संस्थान, असम्प्राप्तामृ. पाटिका संहनन, अप्रशस्त वर्ण चतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति और अस्थिर आदि छहका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थानपतित हानिको लिये हुए होता है। इसी प्रकार असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन और तिर्यश्वगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
५३. एकेन्द्रिय जातिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है । शेष प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुभागको लिये हुए होता है। इसी प्रकार एकेन्द्रिय जातिके समान स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । शेष भङ्ग ओघके समान है।
५४. अपगतवेदी जीवोंमें अाभिनिवोधिकज्ञानावरणके उत्कृष्ट अनुभागका वन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरणका नियमसे बन्ध करता है जो नियमसे उत्कृष्ट अनुभागको लिये हए होता है। इसी प्रकार चार ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायकी मुख्यतासे सन्निकर्प जानना चाहिए। क्रोधादि चार कषायवाले जीवोंमें ओषके समान भङ्ग है।
५५. मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभङ्गज्ञानी और मिथ्यादृष्टि जीवोंमें औदारिक शरीरके उत्कृष्ट छानुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति और तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी का कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुभागको लिये हुए होता है। मनुष्यगतिद्विक और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है,तो उत्कृष्ट अनुभागवन्ध भी होता है और अनुत्कृष्ट अनुभागवन्ध भी होता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध होता है,तो वह छह स्थानपतित हानिको लिये हुए होता है। पञ्चन्द्रियजाति, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, स्थिर श्रादि छह और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुभागको लिये हुए
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महाधे अणुभागबंधाहिया रे
वज्जरि० । साणं ओघं आहारदुगं तित्थयरं च वज्ज । णवरि देवगदि० उ० बं० जस० णिय० । तं तु ० । एवं सव्वाणं पसत्थाणं ।
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५६. आभिणि० - सुद० -ओधि० सत्तण्णं क० उक्तस्स ० अणुद्दिसभंगो' । अप्पसत्थवण्ण० उ० बं० मणुसग०- देवग०-ओरालि० - वेडव्वि० [ओरालि० अंगो० वेडव्वि०अंगो०-] वज्जरि०-दोआणु ० - तित्थय • सिया० अनंतगु० । पंचिंदियादिपसत्थाओ णिय० अनंतगु० । अप्पसत्थगंध ० ३ - उप० अथिर-असुभ अजस० णिय० । तं तु ० । एवं एदाओ ऍक्कमेकस्स । तं तु० । सेसं ओघं । एवं ओधिदंस० - सम्मादि० - खड्ग ०-वेदग०-उवसम०सम्मामिच्छादि ० ।
५७. मगपज्जव ० खइयाणं ओघं । सेसाणं आहारका० भंगो। एवं संजद- सामाइ ०छो० । परिहारे आहारकायजोगिभंगो । णवरि आहारदुगं देवगदिभंगो | णवरि
होता है। श्रदारिक आङ्गोपाङ्ग और वज्रर्षभनाराच संहननका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध करता है, तो वह छह स्थानपतित हानिको लिये हुए होता है । इसी प्रकार औदारिक श्रङ्गोपाङ्ग और वर्षभनाराच संहननकी मुख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिए। शेष प्रकृतियों का भङ्ग
के समान है । किन्तु आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिको छोड़ कहना चाहिए। इतनी विशेषता है कि देवगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव यशः कीर्तिका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु उसका उत्कृष्ट बन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट बन्ध भी करता हैं । यदि अनुत्कृष्ट बन्ध करता है, तो वह छह स्थानपतित हार्निको लिये हुए होता है। इसी प्रकार सब प्रशस्त प्रकृतियोंकी मुख्यता से सन्निकर्षं जानना चाहिए ।
५६. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें सात कर्मों के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका सन्निकर्षं अनुदिशके समान है । अप्रशस्त वर्णके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव मनुष्यगति, देवगति, औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, औदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, वैक्रियिक, आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, दो श्रानुपूर्वी और तीर्थङ्करका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुभागको लिये हुए होता है । पञ्चेन्द्रिय जाति आदि प्रशस्त प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुभागको लिये हुए होता है । अप्रशस्त गन्ध आदि तीन, उपघात, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्तिका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता | यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थानपतित हानिको लिये हुए होता है। इसी प्रकार इन प्रकृतियों का परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु इनमें से किसी एकके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव इन्हीं में से शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभाग का बन्ध करता है तो वह छह स्थानपतित हानिको लिये हुए होता है। शेष कथन ओधके समान हैं। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवों के जानना चाहिए । ५७. मनः पर्ययकज्ञानी जीवों में क्षायिक प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग श्राहारकाययोगी जीवोंके समान है। इसी प्रकार संयत, सामायिकसंयत और छेदोपस्थापना संयत जीवों के जानना चाहिए । परिहारविशुद्धिसंयत जीवों में आहारकाययोगी जीवोंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि आहारकद्विकका भङ्ग देवगतिके समान है। इतनी और विशेषता है कि १. ता० प्रतौ पसत्थाणं पसत्थारणं १ इति पाठः ! २ श्रा० प्रतौ उक्कस्स श्रक्कत्सभंगो इति पाठः ।
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बंधसण्णियासपरूवणा संजदेसु अप्पसत्याणं तित्ययरं ण बंधदि । एवं सव्वाणं । सुहुमसंप० अवगतवेदभंगो । संजदासजद० परिहारभंगो। णवरि अप्पणो पगदीओ णादव्वाओ। असंजदे मदि भंगो। णवरि तित्थयरं० उ० बं० देवगदि०४ णि० बं०। तं तु । चक्खुदं० तसपज्जत्तभंगो ।
५८. किण्णाए सत्तण्णं कम्माणं ओघं । णिरयगदिदंडओ तिरिक्खगदिदंडओ एइंदियदंडओं' णqसगदंडगभंगो। मणुसगदिदंडओ गिरयो । देवगदि० उ० बं० वेउव्वि०-वेउवि०अंगो०-देवाणु० णिय० । तं तु । तित्थ० सिया। तं तु० । सेसाणं पसत्थाणं अप्पसत्थाणं च णिय० अर्णतगु० । एवं देवगदि०४-तित्थ० । सेसं ओघं ।
५६. णील-काऊणं सत्तण्णं क. ओघं । णिरय० उ० ब० णिरयाणु० णिय। तं तु० । सेसाओ पगदीओ णिय० अणंतगु०। एवं णिरयाणु । तिरिक्खग० उ० बं० हुंडसंठाणादि० णिरयोघं । सेसाणं किण्णभंगो । काऊए तित्थ० मणुसगदिभंगो । संयत जीवोंमें अप्रशस्त प्रकृतियोंके साथ तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध नहीं करता। इसी प्रकार सबके जानना चाहिए । सूक्ष्म साम्परायसंयत जीवोंमें अपगतवेदी जीवोंके समान भङ्ग है। संयतासंयत जीयोंमें परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी प्रकृतियाँ जाननी चाहिए। असंयत जीवोंमें मत्यज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि तौथङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव देवगतिचतुष्कका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो नियमसे छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है। चक्षुदर्शनवाले जीवोंमें त्रसपर्याप्त जीवोंके समान भंग है।
५८. कृष्णलेश्यावाले जीवों में सात कर्मोंका भङ्ग ओघके समान है। नरकगतिदण्डक, तिर्यश्चगतिदण्डक और एकेन्द्रिय जाति दण्डकका भङ्ग नपुंसकवेददण्डकके समान है। मनुष्यगतिदण्डकका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है। देवगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वी का नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है। तीर्थङ्करक प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है।
अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वहाट छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है। शेष प्रशस्त और अप्रशस्त प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुभागको लिये हुए होता है। इसी प्रकार देवगति चार और तीर्थङ्कर प्रकृतिकी मुख्यतासे सन्निकर्प जानना चाहिए । शेष भङ्ग ओघके समान है।
५६. नील और कापोतलेश्यावाले जीवोंमें सात कर्मोंका भङ्ग ओघके समान है। नरकगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव नरकगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह. उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है। शेष प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुभागको लिये हुए होता है। इसी प्रकार नरकगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । तिर्यश्चगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीवके हुण्डसंस्थान आदिका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग कृष्ण लेश्याके समान है । कापोत लेश्यामें तीर्थक्कर प्रकृतिका भङ्ग मनुष्यगतिके समान है।
१. ता० प्रतौ णिरयगदिदंडो:एइंदियदंडो इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ६०. तेऊए सत्तण्णं कम्माणं ओघं । तिरिक्व० उ. बं० एइंदि०-हुंडसं०सोधम्मपढमदंडओ मणुसगदिपंचगस्स ओघं । देवगदिदंडओ परिहार भंगो । असंप० उ. बं० तिरिक्ख०-पंचिंदियादि-सोधम्मदंडओ अप्पसत्य०-दुस्सर० णि । तं तु० । चदुसंठा०-चदुसंघ० सोधम्मभंगो। एवं पम्माए वि । णवरि अप्पसत्थाणं सहस्सारभंगो । मुक्काए सत्तण्णं कम्माणं मणुसगदिपंचगस्स खविगाणं च ओघं । हुंडगादीणं अप्पसत्थाणं णवगेवज्जभंगो।।
६१. अब्भवसि० सत्तणं क० ओघं। दुगदि-चदुजादि-पंचसंठा०-पंचसंघ०अप्पसत्यवण्ण०४-दोआणु०-उप०-आदाउज्जोव०-अप्पसत्य०-थावरादि०४ अथिरादिछ० ओघं। मणुसगदिपंचग०-देवगदि०४ तिरिक्खोघं। पंचिदि० उ० ब० दुगदिदोसरी०-दोअंगो००वज्जरि०-दोआणु०-उज्जो० सिया० । तं तु० । सेसाओ पगदीओ पसत्याओ णिय० । तं तु० । अप्पसत्थ०४-उप०-अप्पसत्थाणं णिय० अणंतगुणही।
६२. सासणेछण्णं कम्माणं ओघं। अणंताणुबं० कोध० उ० बं० पण्णारसक०
६० पीत लेश्यावाले जीवोंमें सात कर्मोंका भङ्ग ओघके समान है। तियश्चगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीवके एकेन्द्रिय जाति, हुण्डसंस्थान, सौधर्मकल्पसम्बन्धी प्रथम दण्डक और मनुष्यगतिपञ्चकका भङ्ग ओघके समान है। देवगतिदण्डकका भङ्ग परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंके समान है। असम्प्राप्तामृपाटिका संहननके उत्कृष्ट अनुभागको बाँधनेवाला जीव तिर्यश्चगति, पञ्चन्द्रिय जाति आदि सौधर्मदण्डक, अप्रशस्त विहायोगति और दुःस्वरका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है । चार संस्थान और चार संहननका भङ्ग सौधर्म कल्पके समान है। इसी प्रकार पद्म लेश्यामें भी जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अप्रशस्त प्रकृतियोंका भङ्ग सहस्रार कल्पके समान है। शुक्ललेश्यामें सात कर्म, मनुष्यगतिपश्चक और क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग अोघके समान है । हुण्डक संस्थान आदि अप्रशस्त प्रकृतियोंका भङ्ग नौवेयकके समान है।
६१. अभव्योंमें सात कर्मोंका भङ्ग ओघके समान है। दो गति, चार जाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त वर्णं चतुष्क, दो आनुपूर्वी, उपघात, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर आदि चार और अस्थिर आदि छहका भङ्ग ओघके समान है। मनुष्यगतिपञ्चक और देवगतिचतुष्कका भङ्ग सामान्य तिर्यश्चोंके समान है। पञ्चन्द्रिय जातिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव दो गति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराचसंहनन. दो आनुपूर्वी और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है
और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है। शेष प्रशस्त प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है। अप्रशस्त वर्ण चार, उपघात और अप्रशस्त विहायोगतिका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुभागको लिये हुए होता है।
६२. सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंमें छह कर्मोंका भङ्ग ओघके समान है। अनन्तानुबन्धी १. आ. प्रतौ-पंचग. देवगदिभंगो। देवगदि० इति पाठः।
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बंधसण्णियासपरूवणा इत्थि०-अरदि-सोग-भय-दु० णिय० । तं तु० । एवमेदाओ ऍक्कमेकस्स । तं तु० । पुरिस०-हस्स-रदि ओघं । तिरिक्वग० उ० बं० वामण०-वीलि०-अप्पसत्थ०४-तिरिक्वाणु०-उप०-अप्पसत्य-अथिरादिछ० णि० । तं तु०। पंचिंदियादि० णिय० अणंतगु० । उज्जोवं सिया० अणंतगु० । सेसं ओघं । असण्णी० तिरिक्खोघं । णवरि मोह० मणुसअपज्जत्तभंगो । अणाहार० कम्मइगभंगो।।
एवं उकस्सओ सण्णियासो समत्तो । ६३. जहण्णए पगदं । दुर्वि०-ओघे० आदे० । ओघे० आभिणिबोधियणाणावरणस्स जहण्णय अणुभागं बंधतो चदुणाणाव. णिय० वं० । णिय. जह० । एवमण्णमण्णस्स जहण्णा। एवं पंचण्णं अंतराइयाणं । णिहाणिद्दा० जह० अणु० २० पचलापचला-धीणगि० णिय० बं० । तं तु० छहाणप० । अणंतभागब्भहि०५। छदसणा० क्रोधके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पन्द्रह कषाय, स्त्रीवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है। इसी प्रकार इन सब प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए । किन्तु इनमेंसे किसी एक प्रकृतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव शेष प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभागबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनु. भागबन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है। पुरुषवेद, हास्य और रतिका भङ्ग ओघके समान है। तिर्यञ्चगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव वामन संस्थान, कीलक संहनन, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति
और अस्थिर आदि छहका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिको लिये हुए होता है। पश्चन्द्रिय जाति आदिका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुभागको लिये हुए होता है। उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुभागको लिये हुए होता है। शेष भङ्ग ओघके समान है। असंज्ञी जीवोंमें सामान्य तिर्यञ्चोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि मोहनीय कर्मका भङ्ग मनुष्य अपर्याप्तकों के समान है। अनाहारक जीवोंमें कार्मणकाययोगी जीवोंके समान भङ्ग है।
इस प्रकार उत्कृष्ट सन्निकर्ष समाप्त हुआ। ६३. जघन्यका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघकी अपेक्षा प्राभिनिबोधिक ज्ञानावरणके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानाचरणका नियमसे बन्ध करता है जो नियमसे जघन्य अनुभागको लिये हुए होता है । इसी प्रकार इन सब प्रकृतियोंका जवन्य अनुभागबन्धके साथ सन्निकर्ष जानना चाहिए। इसी प्रकार पाँच अन्तरायका सन्निकर्ष जानना चाहिए। निद्रानिद्राके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धिका नियमसे बन्ध करता है जो जघन्य भी होता है और अजघन्य भी होता है। यदि अजघन्य होता है तो छह स्थान पतित वृद्धिको लिये हुए होता है । या तो अनन्तभागवृद्धिरूप होता है या असंख्यातभागवृद्धि आदि पाँच वृद्धिरूप होता है। छह दर्शनावरणका नियमसे बन्ध
१. ता. प्रतौ जह• दुवि० इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे णिय. अणंतगुणब्भहि० । एवं पचलापचला-थीणगिद्धि । णिद्दाए जह० बं० पचला. णियः । तं तु० छहाण। चदुदंसणा० णिय० अणंतगुणब्भः । एवं पचला। चक्खुदं० ज० बं० तिण्णिदंस० णि. बं० । णि० जहण्णा । एवं तिण्णिदंस० । सादा० जह० वं. असादस्स अवं० । एवं असाद० । एवं चदुआउ०-दोगो०।
६४. मिच्छ० जह० वं० अणंताणु०४ णि० । तं तु० । वारसक० --पुरिस०हस्स-रदि-भय-दु० णिय० अणंतगुणब्भ० । एवं अणंताणु०४ । अप्पचक्खाणकोध० ज० बं० तिण्णिकसा० णिय० । तं तु० । अहक०-पंचणोक० णिय० अणंतगुणब्भ०। एवं तिण्णिक० । पञ्चक्खाणकोध० ज० बं० तिण्णिक० णिय० । तं तु० । चदुसंज०-- पंचणोक० णिय० अणंतगुणब्भः । एवं तिण्णं क० । कोधसंज० ज० बं० तिण्णिसंज० णि. अणंतगु० । माणसंज० ज. बं. दोण्णं संज. णिय० अणंतगुणब्भ० । करता है जो अनन्तगुणवृद्धिको लिये हुए होता है। इसी प्रकार प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धिकी मुख्यतासे सन्निकर्प जानना चाहिए। निद्राके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव प्रचलाका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य भी होता है और अजघन्य भी होता है । यदि अजघन्य होता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। चार दर्शनावरणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणवृद्धिको लिये हुए होता है। इसी प्रकार प्रचलाकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। चक्षुदर्शनावरणके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तीन दर्शनावरणका नियमसे बन्ध करता है जो नियमसे जघन्य होता है। इसी प्रकार तीन दर्शनावरणकी मुख्यतासे जानना चाहिए। सातावेदनीयके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव असातावेदनीयका बन्ध नहीं करता। इसी प्रकार असातावेदनीयकी अपेक्षा जानना चाहिए। इसी प्रकार चार गोत्रके सम्बन्धमें जानना चाहिए।
६४. मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव अनन्तानुबन्धी चारका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति. भय और जगप्साका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणी वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी चारकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। अप्रत्याख्यानावरण क्रोधके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तीन कषायोंका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । आठ कषाय और पाँच नोकषायका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगणवृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार अप्रत्याख्यान मान आदि तीन कषायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। प्रत्याख्यानावरण क्रोधके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव शेष तीन कषायोंका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागबन्ध भी करता है और अजघन्य अनुभागबन्ध भी करता है । यदि अजघन्य अनुभागबन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। चार संज्वलन और पाँच नोकषायका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणवृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार शेष तीन प्रत्याख्यानावरण कपायोंकी मख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। क्रोधसंज्वलनके जघन्य अनुभाग का बन्ध करनेवाला जीव तीन संज्वलनोंका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणवृद्धिरूप हाता
१. ता. श्रा० प्रत्योः छट्ठाण । चदुसंज० णिय अणंतगुणभ० । एवं इति पाठः । २. ता० श्रा. प्रत्योः तिण्णिसंज.णि अणंतगु०माणसंज० ज० बं० तिण्णिसंज.णिय. अयंतगुनमाणसंज. इति पाठः।
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बंधसणिया सपरूवणा
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मायसंज० ज० बं० लोभसंज० णिय० अनंतगुणन्भ० । लोभसंज० ज० बं० सेसाणं अबंध० ० । इत्थि० ज० बं० मिच्छ० - सोलसक० -भय-दुगुं० णिय० अनंतगुणब्भ० । हस्स - रदि० - अरदि -- सोग० सिया अनंतगुणन्भ० । एवं णवुंस० । पुरिस० ज० बं० चदुसंज० णिय० अनंतगुणब्भ० । हस्स० ज० बं० चदुसंज० - पुरिस णिय० अणंतगुणब्भ० । रदि-भय-दुगुं० णिय० । तं तु० । एवं रदि-भय-दुर्गं ० । अरदि० ज० बं० चदुसंज० -- पुरिस०--भय-दु० णिय० अनंतगुणब्भ० । सोग० निय० । तं तु० । एवं सोग० ।
।
0-
६५. णिरयगदि ज० बं० पंचिंदि० - वेडव्वि० - तेजा० क० वेडव्वि ० अंगो०पसत्थापसत्थवण्ण०४ - अगु०४-तस०४ - णिमि० णिय० अनंतगुणन्भ० । हुंड०-णिरयाणुपु० - अप्पसत्थ० -अथिरादिक० निय० । तं तु० । एवं णिरयाणु० । तिरिक्ख ० ज० बं० पंचिंदि ० - ओरालि० - तेजा० क० - समचदु० -ओरालि० अंगो० वज्जरि०-पसत्था
। मानसंज्वलनके जघन्य अनुभागका बन्ध करनवाला जीव दो संज्वलनोंका नियमसे बन्ध करता अनन्तगुणवृद्धिरूप होता है । मायासंज्वलन के जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव लोभसंज्वलनका नियम से बन्ध करता है जो अनन्तगुणवृद्धिरूप होता है । लोभसंज्वलनके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव शेष संज्वलनोंका प्रबन्धक होता है । स्त्रीवेद के जघन्य अनुभाग IT बन्ध करनेवाला जीव मिध्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणवृद्धिरूप होता है । हास्य, रति, अरति और शांकका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणवृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार नपुंसक वेदकी मुख्ातासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । पुरुषवेदसे जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव चार संज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणवृद्धिरूप होता है । हास्य के जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव चार संज्वलन और पुरुषवेदका नियम से बन्ध करता है जो अनन्तगुणवृद्धिरूप होता है । रति, भय और जुगुप्सा का नियम से बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागबन्ध भी करता है और अजघन्य अनुभागबन्ध भी करता है । यदि अजघन्य अनुभागबन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । इसी प्रकार रति, भय और जुगुप्साकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । अरतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साका नियम से बन्ध करता है जो अनन्तगुणवृद्धिरूप होता है। शोकका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागबन्ध भी करता है और अजघन्य अनुभागबन्ध भी करता है । यदि अजघन्य अनुभागबन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार शोककी मुख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
६५. नरकगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पच ेन्द्रिय जाति, वैकिथिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणवृद्धिरूप होता है । हुण्डसंस्थान, नरकगत्यानुपूर्वी, अप्रशस्त विहायोगति और अस्थिर आदि छहका नियम से बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागबन्ध भी करता है और अजघन्य अनुभागबन्ध भी करता है । यदि जघन्य अनुभागबन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । इसी प्रकार नरकगत्यानुपूर्वीकी मुख्यताले सन्निकर्ष जानना चाहिए । तिर्यञ्चगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पश्चन्द्रिय जाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, सम१. श्रा० प्रतो एवं रदीए भयदु० इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे पसत्थ०४-अगु०४-पसत्थ०-तस०४-थिरादिछ०--णिमि० णिय० अणंतगुणब्भ० । तिरिक्खाणु० णि । तं तु० । उज्जो० सिया० अणंतगुणभः । एवं तिरिक्खाणु० । मणुसगदि० ज० बं० पंचिंदि० ओरालि०-तेजा०-क०-ओरालि०अंगो०-पसत्थापसत्थ०४ अगु०-उप०-तस०-बादर०-पत्ते-णिमि० णिय० अणंतगुणब्भ । छस्संठा०-छस्संघ०दोविहा०-अपज्ज-थिरादिछयुग० सिया० । तं तु० लहाणपदिदं० । मणुसाणु० णि । तं तु० । पर०-उस्सा०-पज्ज. सिया० अणंतगुणब्भः । एवं मणुसाणु । देवगदि०-ज० बं० पंचिंदि०---वेउव्वि०- तेजा०--क०--बेउवि०अंगो०.-पसत्थापसत्थ०४-अगु०४तस०४-णिमि० णिय. अणंतगुणभ० । समचदु०--देवाणु०--पसत्थ०-सुभग-सुस्सरआर्दै णिय० । तं तु.। थिराथिर-सुभासुभ--जस०- अजस० सिया० । तं तु० । एवं देवाणु० ।
चतुरस्रसंस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणवृद्धिरूप होता है। तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागबन्ध भी करता है और अजघन्य अनुभागबन्ध भी करता है। यदि अजघन्य अनुभागबन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी की मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । मनुष्यगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पश्चन्द्रिय जाति, औदारिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, त्रप्स, बादर, प्रत्येक और निर्माणका नियम ते बन्ध करता है जो अनन्तगणा अधिक होता है। छह संस्थान, छह संहनन, दो विहायोगति, अपर्याप्त और स्थिर आदि छह युगलका कदाचित् बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। मनुष्यगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। परघात, उच्छ्वास और पर्याप्तका कदाचित वन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार मनुष्यगत्यानुपूर्वी की मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । देवगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पश्चन्द्रिय जाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क, और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। समचतुरस्रसंस्थान, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और श्रादेयका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यश:कीर्ति और अयशःकीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार देवगत्यानुपूर्वीकी मुख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिए।
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पंधसण्णियासपरूषणा ६६. एइंदि० ज० बं० तिरिक्ख०-ओरालि०-तेजा-क०--पसत्थापसत्य०४तिरिक्वाणु०-अगु०-उप०-णिमि० णि अपंतगुणब्भहियं० । हुंड०-थावर-दूभग-अणादें। णि । तं तु । पर०-उस्सा-आदाउज्जो०-बादर-पज्जत्त-पत्ते० सिया० अणंतगुणब्भः । मुहुम-अपज्ज०-साधार०-थिराथिर--सुभासुभ-जस०--अजस० सिया० । तं तु० । एवं थावरं । बीइंदि० ज० बं० तिरिक्ख०-ओरालि०-तेजा०-क०-ओरालि० अंगो०--पसत्थापसत्थ०४-तिरिक्खाणु०-अगु०-उप०--तस०--बादर०--पत्ते०--णिमि० णिय. अणंतगुणभहियं० । हुंड०-असंप०-दूभग०-अणादें णि । तं तु०। पर०-उस्सा०-उज्जो०पज्ज० सिया० अणंतगुण० । अप्पसत्थ०-अपज्ज०-थिराथिर ०-सुभासुभ-दुस्सर-जस०अजस० सिया० । तं तु० । एवं तीइंदि०--चदुरिं० । पंचिंदि० ज० बं० णिरय०-- तिरिक्खग०-असंपत्त०-दोआणु० सिया० अणंतगुणब्भ०। ओरालि०-वेउव्वि०-दोअंगो०उज्जो० सिया० । तं तु० । तेजा-क०--पसत्थ०४-अगु०३-तस०४-णिमि० णि !
६६. एकेन्द्रिय जातिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, औदारिक शरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। हुण्डसंस्थान, स्थावर, दुर्भग और अनादेयका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। परघात, उच्छवास, आतप, उद्योत, बादर, पर्याप्त और प्रत्येकका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति और अयशःकीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थानपतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार स्थावर प्रकृतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। द्वीन्द्रिय जातिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, त्रस, बादर, प्रत्येक और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। हुण्डसंस्थान, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, दुर्भग और अनादेयका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है.तो वह छह स्थान पतित प्रद्धिरूप होता है। परघात, उच्छ्वास, उद्योत और पर्याप्तका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। अप्रशस्त विहायोगति, अपर्याप्त, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुःस्वर, यशःकीर्ति और अयशःकीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार त्रीन्द्रियजाति और चतुरिन्द्रियजातिकी मुख्यतासे जानना चाहिए । पञ्चन्द्रिय जातिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव नरकगति, तिर्यञ्चगति, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन और दो अानुपूर्वाका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर, दो आङ्गोपाङ्ग और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे तं तु० । हुंड०-अप्पसत्थ०४-उप०--अप्पसत्थ०--अथिरादिछ० णि. अणंतगुणब्भ० । एवं तस० ।
६७. ओरालि. ज. बं. तिरिक्ख०-हुंड०-अप्पसत्थ०४-तिरिक्वाणु०-अथिरादिपंच० णिय० अणंतगुणब्भहियं० । एइंदि०-असंपत्त०-अप्पस०-थावर०-दुस्सर० सिया० अणंतगुणभहि० । पंचि०--ओरालि०अंगो०-आदाउज्जो०-तस० सिया० । तं तु०। तेजा०-क०-पसत्थ०४-अगु०३-बादर-पज्जत-पत्ते-णिमि० णि । तं तु० । एवं उज्जो० । वेउवि० ज० बं० णिरय०--हुंड०-अप्पसत्थ०४-णिरयाणु०--उप०अप्पसत्थ० अथिरादिछ० णियं० अणंतगुणभहियं० । पंचिंदि०-तेजा.-क०-वेउवि०अंगो०-पसत्थ०४-अगु०३-तस०४-णिमि० णि.। तं तु. छहाणपदिदं० । एवं वेउवि०अंगो०। आहार० ज० ब० देवगदि०--पंचिंदि०-वेउवि०-तेजा०--क०-समचदु०-वेउव्वि० अंगो०-पसत्थापसत्य०४-देवाणु०-अगु०४-पसत्थ०-तस०४-थिरादिछ०
पतित वृद्धिरूप होता है । तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, त्रसचतुष्क
और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है, जो तं तु-रूप होता है। हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति और अस्थिर आदि छहका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । इसी प्रकार त्रसप्रकृतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
६७. औदारिक शरीरके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्ण चतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और अस्थिर आदि पाँचका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । एकेन्द्रिय जाति, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर और दुःस्वरका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । पञ्चन्द्रियजाति,
औदारिक आङ्गोपाङ्ग, आतप, उद्योत और त्रसका कदाचित् बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है ,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूपहोता है।जो तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है, वह जघन्य व अजघन्य अनुभाग बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थानपतित वृद्धिरूप होता है । इसी प्रकार उद्योतकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। वैक्रियिक शरीरके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव नरकगति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, नरकगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति और अस्थिर आदि छहका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । पञ्चन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, सचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार वैक्रियिक आङ्गोपाङ्गकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। आहारकशरीरके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त
१. ता० प्रतौ अथिरादिछ. णिमि० णियः इति पाठः ।
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बंधसण्णियासपरूवणा णिमि० णिय. अणंतगुणब्भ०। आहार०अंगो० णि० ब०। तं तु०। तित्थय० सिया० अणंतगुणब्भः । एवं आहारअंगों' । तेजा० जह० बंध० णिरय-तिरिक्ख०एइंदि०-असंप०-दोआणु०-अप्पसत्थन्थावर-दुस्सर० सिया० अणंतगु० । पंचिंदि०दोसरी०-दोअंगो०-आदाउज्जो०-तस० सिया० । तं तु०। कम्मइ०-पसत्य०४-अगु०३बादर-पज्जत्त-पत्ते-णिमि० णिय० । तं तु० । हुंड०-अप्पसत्थवण्ण०४-उप०-अथिरादिपंच० णि. बं० अणंतगुणब्भहियं० । एवं कम्मइ०-पसत्थ०४-अगु०३-बादरपज्जत्त-पत्ते-णिमि० ।
६८. समचदु० ज० बं० तिरिक्व०-दोसरीर०-दोअंगो०-तिरिक्वाणु०-उज्जो०सिया० अणंतगु० । मणुसग०--देवग०-छस्संघ०-दोआणु०-दोविहा०-थिरादिछयुग० सिया० । तं तु०। पंचिंदि-तेजा०-क०-पसत्यापसत्थ०४-अगु०४-तस०४-णिमि० णिय० अणंतगुणब्भ० । एवं समचदुर०भंगो पसत्थ०-सुभग-मुस्सर-आदें। णग्गोद. विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर आदि छह और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। आहारक आङ्गोपाङ्गका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । इसी प्रकार आहारक अाङ्गोपाङ्गकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । तैजसशरीरके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव नरकगति, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय जाति, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, दो भानुपूर्वी, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर और दुःस्वरका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। पञ्चन्द्रिय जाति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, तप, उद्योत और त्रसका कदाचित बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थानपतित वृद्धिरूप होता है। कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्ण चार, अगुरुलघुत्रिक, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक और निर्माण का नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और अस्थिर आदि पाँचका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार कार्मणशरीर, प्रशस्त, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक और निर्माणकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
६८. समचतुरस्रसंस्थानके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । मनुष्यगति, देवगति, छह संहनन, दो भानुपूर्वी, दो विहायोगति और स्थिर आदि छह युगलका कदाचित् वन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । पञ्चन्द्रिय जाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क, और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । इसी प्रकार समचतुरस्त्रसंस्थानके समान प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और
१. ता. प्रतौ आहारभ० (अं) गो०, श्रा० प्रतो आहारभंगो० इति पाठः। २. आ. प्रतौ तेजाक बंध० इति पाठः । ३. ता० श्रा० प्रत्योः असंपत्तवण्ण ४ उप० इति पाठः।
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महाबंध अणुभागबंधाहियारे
ज० बं० तिरिक्ख० - तिरिक्खाणु० उज्जो० सिया० अांतगुणब्भ० मणुस ० लस्संघ० मणुसाणु ० दोविहा०-थिरादिछयुग० सिया० । तं तु० । पंचिंदि० - ओरालि० - तेजा ० क०ओरालि० गो०-पसत्थापसत्थ०४ - अगु०४-तस०४- णिमि० णि० अनंतगुणन्भ० । एवं तिष्णिसं ठाणं पंच संघ० । हुंडसं० ज० बं० णिरय ० - मणुस ० चदुजादि ० - वस्संघ०दोआणु ० - दोविहा० - थावरादि४ - थिरादिछयुग० सिया० । तं तु । तिरिक्ख ०पंचिदि० - दोसरीर दो अंगो०- तिरिक्खाणु० - पर० - उस्सा ० - आदा उज्जो ० -तस०४ सिया० अनंतगुणभ० | तेजा [० क० - पसत्थापसत्थ०४ - अगु० - उप० - णिमि० णिय० अणंतगुणभ० । एवं दूभग- अणादे० ।
६६. ओरालि० अंगो० ज० बं० तिरिक्ख० - हुंड० - असंप ० - अप्पसत्थ ०४ - तिरिक्खाणु० - उप० - अप्पस ० -- अथिरादि० णिय० अनंतगुणन्भ० । पंचिंदि० - ओरालि०तेजा० क० - पसत्थ०४ - अग ०३ -तस०४ - गिमि० निय० । तं तु० । उज्जीवं सिया० । तं तु० ।
श्रदेयकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थानके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । मनुष्यगति, छह संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, दो विहायोगति और स्थिर आदि छह युगलका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क,
चतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार तीन संस्थान और पाँच संहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । हुण्डसंस्थानके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव नरकगति, मनुष्यगति, चार जाति, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति, स्थावर आदि चार और स्थिर आदि छह युगलका कदाचित् बन्ध करता है । यदि वह बन्ध करता है तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । तिर्यञ्चगति, पञ्च ेन्द्रियजाति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, और त्रसचतुष्कका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होतो है । तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात और निर्माणका नियम से बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । इसी प्रकार दुर्भग और नायकी मुख्यतासे सन्निकर्षं जानना चाहिए ।
६६. औदारिक आङ्गोपाङ्गके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, हुण्डसंस्थान, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्च गत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति और अस्थिर आदि छहका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । पञ्च ेन्द्रिय जाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक,
सचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित बृद्धिरूप होता है । ज्योत का कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है
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बंधसण्णियासपरूवणा
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७०. असंप० ज० बं० तिरिक्ख ० - पंचिंदि० - तिरिक्खाणु० ०- पर० - उस्सा ० - उज्जो ०पज्ज० सिया० अनंतगुणन्भ० । मणुसगदि तिण्णिजादि संठी० मणुसाणु० - दोविहा अपज्ज० - थिरादिछयुग० सिया० । तं तु० । ओरालि० - तेजा ० क० - ओरालि० अंगो०पसत्थापसत्थ०४ - अगु० - उप० -तस० चादर - पत्ते ० णिमि० णिय० अनंतगुणभ० ।
७१. अप्पसत्थवण्ण० ज० बं० देवगदि-पंचिंदि० वेडव्वि०-तेजा० - क० - समचदु०-वेडव्वि ० अंगो०-पसत्थवण्ण०४ - देवाणु० - अगु०३ - पसत्थ० - तस ०४ - थिरादिछ०णिमि० णि० अनंतगुणन्भ० । आहारदुगं तित्थय० सिया० अनंतगुणब्भ० । अप्पसत्थगंध-रस-पस्स० - उपे० णि० । तं तु० । एवं अप्पसत्थगंध-रस-पस्स ० - उप० । यथा गदी तथा आणुपुवी ।
७२. आदाव० ज० वं० तिरिक्ख० - एइंदि० - हुंड० - अप्पसत्थवण्ण ०४ - तिरिक्खाणु ० उप० - थावर ०- अथिरादिपंच० णिय० अनंतगुणब्भ० । ओरालि० - तेजा ०
० क ०
--
तो वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है ।
७०. सम्प्राप्ता पाटिका संहननके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, पञ्च ेन्द्रिय जाति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, उद्योत और पर्याप्तका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। मनुष्यगति, तीन जाति, छह संस्थान, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, दो विहायोगति, अपर्याप्त और स्थिर आदि छह युगलका कदाचित बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है | यदि जघन्य अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । दारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, श्रदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, त्रस, वादर, प्रत्येक और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है ।
T
७१. प्रशस्त वर्णके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव देवगति, पञ्च ेन्द्रिय जाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक श्राङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छुह और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । श्राहारकद्विक और तीर्थङ्करका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । अप्रशस्त गन्ध, अप्रशस्त रस, प्रशस्त वर्ण और उपघातका नियमसे बन्ध करता है जो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है त वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । इसी प्रकार अप्रशस्त गन्ध, रस व स्पर्श और उपवातकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। गतियोंकी मुख्यतासे जिस प्रकार सन्निकर्ष कह आये हैं उसी प्रकार पूर्वियों की मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
. ७२. आतपके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय जाति, हुण्ड संस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, स्थावर और अस्थिर आदि पाँचका नियम से बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। श्रदारिकशरीर, तेजसशरीर,
१. श्रा० प्रतौ छसंघ० इति पाठः । २. ता० प्रती अप्पसत्थगंधस्स पस० उप० इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे पसत्य०४-अगु०३-बादर-पज्जत्त-पत्ते-णिमि० णिय० । तं तु० । उज्जो ओरालियमंगो०।
७३. अप्पसत्थवि० ज० बं० णिरय०-मणुस०-३जादि०-छस्संठा०-छस्संघ०-दोआणु०-थिरादिछयु० सिया० । तं तु० । तिरिक्व०-पंचिंदि०-दोसरी०-दोअंगो०-तिरिक्वाणु०-उज्जो० सिया० अणंतगुणब्भ०। तेजा०-क०-पसत्थापसत्थ०४-अगु०४तस०४-णिमि० णिय. अणंतगुणब्भ० । एवं दुस्सर० ।
७४. मुहुम० ज० बं० तिरिक्ख०-ओरालि०--तेजा०--क०-पसत्यापसत्थ०४तिरिक्खाणु०-अगु०-उप०-णिमि० णि० अणंतगुणब्भ० । एइंदि०-हुंड०-थावर०-दूभ०अणादे०-अजस० णिय। तं तु० । पर०-उस्सा-पज्जत्त०-पचे० सिया० अर्णतगुणब्भ० । अपज्ज०-साधा०-थिराथिर०-सुभासुभ० सिया० । तं तु० । एवं साधार० ।
____७५. अपज्ज० ज० बं० तिरिक्वं०-पंचिंदि०-ओरालि०अंगो०-तिरिक्व०-तस०कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । उद्योतका भङ्ग औदारिकशरीरके समान है।
७३. अप्रशस्त विहायोगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव नरकगति, मनुष्यगति, तीन जाति, छह संस्थान, छह संहनन, दो आनुपूर्वी और स्थिर आदि छह युगलका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। तिर्यश्चगति, पञ्चन्द्रिय जाति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार दुःस्वरकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
७४. सूक्ष्मप्रकृतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क; तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, स्थावर, दुर्भग, अनादेय और अयशाकीर्तिका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। परघात, उच्छ्वास, पर्याप्त और प्रत्येकका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। अपर्याप्त, साधारण, स्थिर, अस्थिर, शुभ और अशुभका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार साधारण प्रकृतिकी मुख्यतासे जानना चाहिए।
७५. अपर्याप्त प्रकृतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति, पञ्चन्द्रिय
१. श्रा० प्रतौ सुभासुभासिया०तं तु०तिरिक्व. इति पाठः।
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बंधसण्णियासपरूवरणा
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बादर-पत्ते० सिया० अणंतगुणब्भ० । मणुस०-चदुजादि०-असंप०-मणुसाणु०-थावर०सुहुम०-साधार० सिया० । तं तु०। ओरालि०-तेजा०-क०-पसत्थापसत्थ०४-अगु०उप०-णिमि० णिय० अणंतगुणब्भ० । हुंड०-अथिरादिपंच णि । तं तु० ।
७६. थिर०ज००तिरिक्ख०-पंचिंदि०-दोसरी०-दोअंगो०-तिरिक्खाणु०-आदाउज्जो०-तस०४-तित्थ० सिया० अणंतगुणब्भ० । मणुसग०-देवग०-चदुजादि-छस्संठा०छस्संघ०-दोआणु०-दोविहा०-थावर०-मुहुम०-साधार-सुभादिपंचयुग सिया०। तंतु। तेजा०-कम्म०-पसत्थापसत्थ०४-पज्ज०-णिमि० णिय० अणतगुणब्भ० । बादर-पत्तेय. सिया० अणंतगुणब्भ० । एवं सुभ०-जसगि० । णवरि जस०-सुहुम-साधारणं वज्जं ।
७७. अथिर० ज० वं० णिरय-देवगदि-मणुसगदि-चदुजादि-छस्संठा०-छस्संघ०तिण्णिआणु०-दोविहा०-थावरादि४-मुभादिपंचयुग० सिया० । तं तु०। तिरिक्ख०जाति, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, त्रस, बादर और प्रत्येकका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। मनुष्यगति, चार जाति, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, स्थावर, सूक्ष्म और साधारणका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है, तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। हुण्डसंस्थान, और अस्थिर
आदि पाँचका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है ।
७६. स्थिर प्रकृतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, पञ्चन्द्रियजाति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, त्रसचतुष्क और तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। मनुष्यगति, देवगति, चार जाति, छह संस्थान, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण और शुभादि पाँच युगलोंका कदाचित् बन्ध करता है। याद बन्ध करता है तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, पर्याप्त और निर्माणका नियमसे बन्ध करता हे जो अनन्तगुणा अधिक होता है। बादर और प्रत्येकका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार शुभ और यशःकीर्तिकी मुख्यतासे सन्निकर्प जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यशःकीर्तिके भङ्गमें स्थावर, सूक्ष्म और साधारणको छोड़ देना चाहिए।
७७. अस्थिर प्रकृतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव नरकगति, देवगति, मनुष्यगति, चार जाति, छह संस्थान, छह संहनन, तीन आनुपूर्वी, दो विहायोगति, स्थावर
आदि चार और शुभादि पाँच युगलका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है,तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। तिर्यश्चगति, पञ्चन्द्रिय
१. ता० प्रतौ णिमि० अणंतगुण० इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे पंचिंदि०-दोसरीर-दोअंगो०-तिरिक्खाणु०- पर०-उस्सा०-आदावुज्जो०-तस०४-तित्थ० सिया. अणंतगुणब्भ०। तेजा-क०-पसत्यापसत्थ०४-अगु०-उप०-णिमि० णियअणंतगुणब्भ० । एवं असुभ-अजस० ।
७८. तित्थय० ज० बं. देवगदि-पंचिंदि०-वेउवि०-तेजा-क०-समचदु०बेउचि० अंगो०-पसत्थापसत्थ०४-देवाणु०-अगु०४-पसत्थवि०-तस०.४-अथिर-असुभसुभग-सुस्सर-आदें-अजस०-णिमि० णिय० अणंतगुणब्भहियं बंधदि।
७६. णिरंएसु आभिणिबोधि० ज० अणु० बं० चदुणाणा० णिय० । तं तु० । एवमण्णमण्णस्स । एवं पंचतराइ० । णिशाणिदाए ज. बं० पचलापचला-थीणगि० णि । तं तु.। छदसणा० णि. अणंतगुणब्भः। एवं पचलापचला-थीणगि। णिदा० ज० बं० पंचदंस० णितं तु०। एवमण्णमण्णस्स । तं तु०॥ वेदणीय-आउग-गोद० ओघं । जाति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, त्रस चतुष्क और तीर्थक्करका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। तेजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगणा अधिक होता है। इसी प्रकार अशुभ और अयशःकीतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
७८. तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव देवगति, पश्चन्द्रिय जाति, वैकियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलधुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, अयशःकीर्ति और निर्माणका नियमसे बन्ध होता है जो अनन्तगुणा अधिक बाँधता है।
ह. नारकियोंमें आभिनिबोधिक ज्ञातावरणके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार इन सब प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। इसी प्रकार पाँच अन्तरायका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। निद्रानिद्राके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव प्रचलाप्रचला और स्स्यानागृद्धिका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु यह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागशा भी बन्ध करता है। यदि वह अजघन्य अनुभागका बन्ध करताहै,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। कह दर्शनावरणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। निद्राके जघन्य अनुभागका वध करनेवाला जीव पाँच दर्शनावरणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जवन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजवन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार इन सबका परस्पर सन्निकर्प जानना चाहिए। किन्तु इनमेंसे किसी एकके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीय शेषका नियमसे बन्ध करता है जो जवन्य अनुभागकाभी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । वेदनीय, आयु
१. श्रा० प्रती श्रादायुजो० तित्थ० इति पाठः। २. श्रा. प्रतौ थिणगि०३ इति पाठः ।
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वंधसणियासपरूवणा
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८०. मिच्छ० ज० बं० अणंताणु०४ णि० बं० । तं० तु.। बारसक०-पंच. णोक० णि. अणंतगुणब्भहियं० । एवं अणंताणु०४ । अपञ्चक्वा०कोध० ज० बं० ऍकारसक०-पंचणोक० णि० । तं तु० । एवमण्णमण्णस्स । तं तु० । इत्थि० ज० बं० मिच्छ०-सोलसक०-भय-दु० णिय० अणंतगुणब्भहि० । हस्स-रदि-अरदि-सोग० सिया० अणंतगुणब्भ० । एवं णवूस० । अरदि० ज० बं० बारसक०-पुरिस०-भय-दु०. णिय० अणंतगुणब्भ० । सोग० णि । तं तु० । एवं सोग० ।
८१. तिरिक्ख०-तिरिक्वाणु० ओघं । मणुसग० मणुसाणु० ओघं । णवरि अपज्जतं वज्ज । पंचिंदि० ज० बं० तिरिक्व०-हुंड०-असंप०-अप्पसत्थ०४-तिरिक्वाणु०उप०-अप्पसत्थवि०-अथिरादिछ० णिय. अणंतगुणब्भ० । ओरालि०-तेजा०-क०ओरालि० अंगो०--पसत्थ०४-अगु०३-तस०४-णिमि० णिय० । तं तु० । उज्जो. और गोत्र कर्मका भङ्ग अोधके समान है।
८०. मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव अनन्तानुबन्धी चारका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। बारह कषाय और पाँच नोकषायका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी चारकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । अप्रत्याख्यानावरण क्रोधके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव ग्यारह कषाय और पाँच नोकषायका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । इसी प्रकार इन सब प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु इनमेंसे किसी एकके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव शेषका नियमसे बन्ध करता है जो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। स्त्रीवेदके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव मिथ्यात्व, सोलह कषाय,भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । हास्य, रति, अरति और शोकका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार नपुंसक वेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। अरतिके जघन्य अनुभागका वध करनेवाला जीव बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । शोकका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थानपतित वृद्धिरूप होता है । इसी प्रकार शोककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
८१. तिर्यश्चगति.और तियश्चगत्यानुपूर्वीका भङ्ग ओघके समान है । तथा मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वी का भङ्ग श्रोधके समान है। इतनी विशेषता है कि अपर्याप्तको छोड़कर सन्निकर्ष कहना चाहिए। पञ्चन्द्रिय जातिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति, हुण्ड संस्थान, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, अप्रशस्त वर्णचतुष्क.तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी. उपघात. अप्रश विहायोगति और अस्थिर आदि छहका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है।
औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, सचतुष्क, और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी
१. ता० श्रा० प्रत्योः अणंताणु०४ णिमि. णि० इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे सिया० । तं तु० । एवं एदाओ ऍकमेक्कस्स । तं तु० । छस्संठा०-छस्संघ०-दोविहा०छयुगल०--तित्थय० ओघं । अप्पसत्थवण्ण० ज० बं० मणुस०-पंचिदि०-तिण्णिसरीरसमचदु०-ओरालि०अंगो०--वज्जरि०---पसत्थव०४-मणुसाणु०--अगु०३--पसत्य०तस०४-थिरादिछ०-णिमि० णिय० अणंतगुणब्भ० । अप्पसत्थगंध०३-उप० णिय० । तं तु० । एवं एदाओ ऍकमेक्कस्स । तं तु० । छसु उवरिमासु तिरिक्ख०-तिरिक्खाणु० मणुसगदिभंगो । सेसं णिरयोघं ।।
८२. सत्तमाए तिरिक्व०-तिरिक्वाणु० ओघं । मणुसग० ज० बं० पंचिंदि०ओरालि०-तेजा०-क०-समचदु०-ओरालि०अंगो०-वज्जरि०-पसत्थापसत्य०४-अगु०४पसत्य०--तस०४-अथिर-असुभ-सुभग-सुस्सर-आदें-अजस०--णिमि० णि अणंतगुणब्भ० । मणुसाणु० णि० । तं तु० । एवं मणुसाणु । पंचिंदियदंडओ णिरयोघं । बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभाग का बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरुप होता है। उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो जघन्य अनुभागका भी वन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थानपतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार इन प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए । किन्तु इनमेंसे किसी एक प्रकृतिका बन्ध करनेवाला जीव शेषके जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थानपतित वृद्धिरूप होता है। छह संस्थान, छह संहनन, दो विहायोगति, छह युगल और तीर्थकर प्रकृतिका भङ्ग ओघके समान है। अप्रशस्त वर्णके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव मनुष्यगति, पञ्चन्द्रियजाति, तीन शरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर आदि छह और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। अप्रशस्त गन्धत्रिक और उपघातका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धि रूप होता है। इसी प्रकार इन प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए । किन्तु इनमें से किसी एकका बन्ध करनेवाला जीव शेषका उसी प्रकार बन्ध करता है, जिस प्रकार अप्रशस्त वर्णकी मुख्यतासे कह आये हैं। ऊपरकी छह पृथिवियोंमें तिर्यश्चगति और तिर्यश्चगत्यानुपूर्वीका भङ्ग मनुष्यगतिके समान जानना चाहिए। शेष भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है।
५२. सातवीं पृथिवीमें तिर्यश्चगति और तिर्यश्वगत्यानुपूर्वीका भङ्ग ओघके समान है। मनुष्यगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, समुचतुरस्र संस्थान. औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, अयशःकीर्ति और निर्माणका नियमसे वन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। मनुष्यगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार मनुष्यंगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । पञ्चन्द्रियजाति दण्डकका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है।
१ ता० प्रा० प्रत्योः तं तु० सिया० अणंतगु० एवं इति पाठः ।
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बंधसण्णियासपरूवणा ८३. समचदु० ज० बं० तिरिक्ख०-पंचिं०-ओरालि०-तेजा०-क०--ओरालि.. अंगो०---पसत्यापसत्य०४-तिरिक्वाणु०--अगु०४-तस०४--णिमि० णिय० अणंतगुणभ० । छस्संघ०-दोविहा०-थिरादिङयुग० सिया० । तं तु । उज्जो० सिया० अणतगुणब्भ० । एवं पंचसंठा०-छसंघ०-दोविहा०-मझिल्लाणि युगलाणि । थिर० ज० बं० तिरिक्ख०-मणुस०--दोआणु०--उज्जो० सिया० अणंतगुणब्भ०। पंचिंदियदंडओ णिय० अणंतगुणब्भ०। छस्संठा०-छस्संघ०-दोविहा०-सुभगादिपंचयुग० सिया०। तं तु० । एवं अथिर-सुभासुभ-जस०-अजस० । सेसाणं णिरयोघं ।
८४. तिरिक्खेसु छण्णं कम्माणं णिरयोघभंगो। मोहणीयं ओघो। णवरि पञ्चक्खाणकोध० ज० बं० सत्तक०-पंचणोक० णिय० ! तं तु.। एवमण्णमण्णस्स । तं तु० । अरदि० ज० बं० अहक०-पुरिस-भय०-दु० णिय० अणंतगुणब्भ० । सोग णि । तं तु०। एवं सोग।
८३. समचतुरस्त्रसंस्थानके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति, पञ्चन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगणा अधिक होता है। छह संहनन, दो विहायोगति और स्थिर आदि छह युगलका कदाचित् बन्ध करता है। किन्तु यह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धि रूप होता है। उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। इसीप्रकार पाँच संस्थान, छह संहनन, दो विहायोगति और मध्यके तीन युगलोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। स्थिर प्रकृतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति, मनुष्यगति, दो आनुपूर्वी और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। पञ्चन्द्रियजातिदण्डकका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । छह संस्थान, छह संहनन, दो विहायोगति और सुभग आदि पाँच युगलका कदाचित् बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति और अयशःकीर्तिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है।
___८४. तिर्यञ्चोंमें छह कर्मोंका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है। मोहनीय कर्मका भङ्ग ओषके समान है । इतनी विशेषता है कि प्रत्याख्यानावरण क्रोधके जघन्य अनुभागका बन्ध करने वाला जीव सात कषाय और पाँच नोकषायका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार इन प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु इनमेंसे किसी एकके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव शेष प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है। जो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। अरतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव आठ कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है जो अनंतगुणा अधिक होता है। शोकका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य मनु
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ८५. चद्ग०-चदुजादि-छस्संठा०-छस्संघ०-चदुआणु०-दोविहा०-थावरादि०४थिरादिछयुग० ओघं । पंचिंदि० ज० बं० णिरय०--हुंड०--अप्पसत्थ.४-णिरयाणु०उप०-अप्पसत्थ०-अथिरादिछ० णिय० अणंतगुणब्भ० । वेउवि०-तेजा०-क०-वेउन्वि० अंगो०-पसत्य०४--अगु०३-तस०४-णिमि० णि । तं तु० । एवमेदाओ ऍक्कमेकस्स । तं तु.।
८६. ओरालि० ज० बं० तिरिक्ख०-एइंदि०-तेजा०-क०-हुंड०-पसत्थापसत्य०४तिरिक्खाणु०-अगु०-उप०-थावरादि०४-अथिरादिपंच-णिमि०णिय. अणंतगुणब्भ०।
ओरालि०अंगो० ज० बं० तिरिक्ख०--बेइंदि०--ओरालि०--तेजा०-हुंड०-असंप०पसत्यापसत्थ०४-तिरिक्खाणु०-अगु०-उप०-तस०-बादर--अपज्जा-पत्ते०-अथिरादिपंचणिमि० णिय० अणंतगुणब्भ।
८७. आदाव० ज० ब० तिरिक्व०-एइंदि०-ओरालि०-तेजा-क०-हुंड०-पसत्थापसत्थवण्ण०४-तिरिक्खाणु०-अगु०४-थावर-बादर-पज्जत्त-पत्ते०-अथिरादिपंच-णिमि० णि० अणंतगु०। एवं उज्जो० । अप्पसत्थ०४-उप० ओघं । एवं पंचिंदियतिरिक्ख०३। भागका भी बन्ध करता है। यदि आजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । इसी प्रकार शोककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
८५. चार गति, चार जाति, छह संस्थान, छह संहनन, चार आनुपूर्वी, दो विहायोगति, स्थावर आदि चार और स्थिर आदि छह युगलका भङ्ग ओघके समान है। पश्चन्द्रिय जातिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव नरकगति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, नरकगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति और अस्थिर आदि छहका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। वैक्रियिकशरीर. तेजसशरीर, कार्मणशरीर, वैक्रियिक प्राङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, त्रसचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतिल वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार इनका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु वह उसी प्रकार जानना चाहिए, जिस प्रकार पश्चन्द्रिय जातिकी मुख्यतासे कहा है।
८६. औदारिकशरीरके जघन्य अतुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कामणशरीर, हुण्डसंस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलबु, उपघात, स्थावर आदि चार, अस्थिर आदि पाँच और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। औदारिक प्राङ्गोपाङ्गके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति, द्वीन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, त्रस, बादर, अपर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर आदि पाँच और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है।
८७. आतपके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय जाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, स्थावर, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर आदि पाँच और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार उद्योतकी
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वंधसण्णियासपरूवणा
णवरि [ तिरिक्ख०- ] तिरिक्खाणु० परियत्तमाणियासु कादव्वं ।
८८. पंचिंदि०तिरिक्व० अपज्ज. पंचण्ण कम्माणं णिरयभंगो। णिहाणिदाए ज० बं० अहदं० णि० । तं तु० । एवमण्णमण्णस्स । तं तु०।
८६. मिच्छ० ज० बं० सोलसक-पंचणोक० णियः । तं तु० । एवमेदाओ ऍक्कमकस्स । तं तु० । सेसं णिरयभंगो।
६०. तिरिक्व० ज० बं० पंचजादि-छस्संठाण-छस्संघ०--दोविहा०-तस -थावरादिदसयुग० सिया० । तं तु०। ओरालि०--तेजा०-०-पसत्थापसत्थ०४-अगु०-. उप०-णिमि० अर्णतगुणब्भ० । ओरालि०अंगो०-पर०-उस्सा-आदाउज्जो० सिया० अणंतगुणब्भ० । तिरिक्वाणु० णिय० । तं तु० । एवं तिरिक्वाणु० । मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। अप्रशस्त वर्णचतुष्क और उपघातकी मुख्यतासे सन्निकर्ष श्रोघके समान जानना चाहिए। इसी प्रकार अर्थात् सामान्य तिर्यञ्चके समान पञ्चन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें तिर्यश्चगति और तिर्यश्चगत्यानुपूर्वीकी परिगणना परिवर्तमान प्रकृतियोंमें करनी चाहिए।
. पञ्चोन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें पाँच कर्मोंका भङ्ग नारकियोंके समान है। निद्रानिद्राके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव आठ दर्शनावरणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार इन सबका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए जो उसी प्रकार होता है, जैसा निद्रानिद्राकी मुख्यतासे कहा है।
८६. मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव सोलह कषाय और पाँच नोकपायका नियमसे वन्ध करता है। किन्तु यह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार इन सब प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु इनमेंसे किसी एकके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव शेषका नियमसे वन्ध करता है जो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है।
९. तिर्यञ्चगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच जाति, छह संस्थान, छह संहनन, दो विहायोगति. त्रस और स्थावर ग्रादि दस युगलका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है।
औदारिकशरीर, सैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। औदारिक आङ्गोपाङ, परघात, उच्छवास, आतप और उद्योतका पदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वीका नियमसे बंध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी यन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार तिर्यश्वगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ६१. मणुस० ज० बं० पंचिंदि०-मणुसाणु०-तस-बादर-पत्ते० णिय० । तं तु० । सेसं तिरिक्रवगदिभंगो । एवं मणुसाणु० ।
१२. एईदि० ज० बं० तिरिक्ख०-हुंड०--तिरिक्वाणु०-थावर-दूभ० अणादें णियमा० । तं तु० । ओरालि०-तेजा०-क०-पसत्थापसत्थ०४-अगु०-उप०-णिमि० णिय. अणंतगुणब्भ० । पर०-उस्सा०-आदाउज्जो० सिया० अणंतगुणब्भ०। बादर-मुहुमपज्जत्त०-अपज्ज०-पत्ते-साधार०-थिरादितिण्णियुग० सिया० । तं तु० । एवं थावर० ।
६३. बेइंदि० ज० बं० तिरिक्ख०-हुंड-असंप -तिरिक्वाणु०-तस-बादर-पत्ते ०दूभ०-अणादें णिय० । तं तु० । ओरालि०--तेजा--क०--ओरालि०अंगो०--पसत्थापसत्थ०४-अगु०-उप०-णिमि० णिय० अणंतगुणब्भ० । पर०-उस्सा०-उज्जो० सिया० अणंतगुणब्भ० । अप्पस०-पज्जत्तापज्ज०-थिराथिर ०-मुभासुभ०-दूभग०-दुस्सर०-जस०अजस० सिया० । तं तु० । एवं तीइंदि०-चदुरिंदि०।।
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६१. मनुष्यगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चोन्द्रिय जाति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, त्रस, बादर और प्रत्येकका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग तिर्यञ्चगतिके समान जानना चाहिए। इसी प्रकार मनुष्यगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
१२. एकेन्द्रिय जातिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, हुण्ड संस्थान, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, स्थावर, दुर्भग और अनादेयका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। परघात, उच्छवास, आतप और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण और स्थिर आदि तीन युगलका कदाचित बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है, तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार स्थावर प्रकृतिको मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
६३. द्वीन्द्रिय जातिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, हुण्डसंस्थान, असम्प्राप्तामृपाटिकासंहनन, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी, स, बादर, प्रत्येक, दुर्भग और अनादेयका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभाग का भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित घृद्धिरूप होता है। औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग प्रशस्त वर्णचतुष्क, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। परघात, उच्छ्वास और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। अप्रशस्त विहायोगति, पर्याप्त, अपर्याप्त, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, यशःकीर्ति और अयशाकीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध
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बंधसण्णियासपरूवणा ६४. पंचिंदि० ज० ब० तिरिक्ख०--मणुसग०--छस्संठा०-छस्संघ०-दोआणु०दोविहा०-पज्जत्तापज्ज-थिरादिछ० सिया० । तं तु० । ओरालि०-तेजा.-क०-ओरालि. अंगो०-पसत्यापसत्थवण्ण०४-अगु०--उप०-णिमि० णिय. अणंतगुणब्भ० । पर०उस्सा०-आदाउज्जो० सिया० अणंतगुणब्भ० ।
६५. ओरालि० ज० बं० तिरिक्ख०-एइंदि०-हुंड०-तिरिक्खाणु०-उप०-अप्पसत्थ०४-थावरादि०४-- अथिरादिपंच०णिय० अर्णतगुणब्भ० । तेजा०-क०-पसत्थ०४अगु०-णिमि० णि० । तं तु० । एवमेदाओ ऍक्कमेकॅस्स । तं तु० ।
६६. समचदु० ज० बं० तिरिक्ख०--मणुस.--छस्संघ०-दोआणु०--दोविहा०थिरादिछयुग० सिया० । तं तु । पंचिंदि०-तस०४ णियमा० । तं तु० । ओरालि०करता है,तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रियजातिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
६४. पञ्चन्द्रियजातिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति, मनुष्यगति, छह संस्थान, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति, पर्याप्त, अपर्याप्त और स्थिर आदि छहका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है,तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है
और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। औदारिकशरीर. तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलधु, उपघात और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। परघात, उच्छ्वास, आतप और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है।
६५. औदारिकशरीरके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति, एकेन्द्रिय जाति, हुण्ड संस्थान, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, स्थावर आदि चार और अस्थिर आदि पाँचका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार इन तैजसशरीर आदि सब प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु इनमेंसे किसी एकके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव शेषका नियमसे बन्ध करता है जो जघन्य अनुभाग का भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है।
६६. समचतुरस्त्रसंस्थानके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति और स्थिर आदि छह युगलका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है,तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। पञ्चन्द्रियजाति और सचतुष्कका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। औदारिकशरीर, तेजस
१. सा० श्रा० प्रत्यो:-पंच० णिमि० णिय० इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे तेजा-क०-ओरालि अंगो०-पसत्थापसत्थ०४-अगु०४-णिमि० णि. अणंतगुणभ०। उज्जी० सिया० अणंतगुणब्भ० । एवं समचदुरभंगो-चदुसंठा०-पंचसंघ०-पसत्थ०-सुभगसुस्सर-आदें।
६७. हुंड० ज०० तिरिक्व०-मणुस०-पंचजादि छस्संघ०-दोआणु०-दोविहा०. तस०-थावरादिदसयुगल. सिया० । तं तु । ओरालि०-तेजा०-क०-पसत्यापसत्थ०४अगु०-उप०-णिमि० णि० अणंतगुणब्भ० । ओरालि अंगो०-पर-उस्सा०-आदाउज्जो. सिया० अणंतगुणब्भ० । एवं हुंड० मंगो अथिरादिपंच०। ओरालि० अंगो० तिरिक्खोघं ।
८. असंपत्त० ज० बं० दोगदि-चदुजादि--छस्संठाण--दोआणु०---दोविहा०पज्जत्तापज्जत्त०---थिरादिछयुग० सिया० । तं तु० । सेसं हुंड भंगो। अप्पसत्थ०४उप० णिरयभंगो०।
६६. पर० ज० बं० एइंदि०-ओरालि०--तेजा०-क०-हुंड०-पसत्थापसत्थ०४-- तिरिक्खाणु०-अगु०-उप०-यावर०-मुहम०--पज्जत-साधार-दूभग०-अणादें--अजस०शरीर, कार्मणशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क और निर्माणका नियमसे वन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है नो अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार समचतुरस्त्रसंस्थानके समान चार संस्थान, पाँच संहनन, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेयकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
६७. हुण्डकसंस्थानके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति, मनुष्यगति, पाँच जाति, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति और त्रस-स्थावर आदि दस युगलका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है, तो वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी वन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छहस्थान पतित वृद्धिरूप होता है । औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। औदारिक अाङ्गोपाङ्ग, परघात, उच्छ्वास, आतप और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार हण्डसंस्थानके समान अस्थिर आदि पाँचकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। औदारिक आङ्गोपाङ्गकी मुख्यतासे सनिकर्ष सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है।
६. असम्प्राप्तामृपाटिका संहननके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव दो गति, चार जाति, छह संस्थान, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति, पर्याप्त, अपर्यात और स्थिर आदि छह युगलका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है,तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभाग का भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका वन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग हुण्ड संस्थानके समान है। अप्रशस्त वर्ण चतुष्क और उपघातका भङ्ग नारकियोंके समान है।
६६. परघातके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, प्रशस्त वर्ण चतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, साधारण, दुर्भग, अनादेय, अयश कीर्ति और
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बंधणिया सपरूवणा
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णिमि० णि० अनंतगुणन्भ० । उस्सा० णि० । तं तु० । थिराथिर - सुभासुभ० सिया० अतगुणभ० । एवं उस्सासं० ।
१००, आदाव० ज० बं० तिरिक्ख० एइंदि० - ओरालि० - तेजा ० क० - हुंडसं ०पसत्थापसत्थ०४ - तिरिक्खाणु० -- अगु०४ - थावर० - बादर० - पज्जत्त० - पत्ते ० - दूर्भागअणादे० - णिमि० णि० अनंतगुणब्भ० । थिराथिर - सुभासुभ-जस० - अजस० सिया० अणंतगु० । एवं उज्जो ० ।
०
१०१. पसत्थवि० ज० बं० दोगदि ० - चदुजादि ० - छस्संठा • वस्संघ० - दोआणु ०थिरादियुग० सिया० । तं तु० । ओरालि०-तेजा० क० - ओरालि० अंगो००-पसत्थापसत्थ०४ - अगु० - णिमि० णि० अनंतगुणब्भ० । उज्जो० सिया० अनंतगुणभ० । तस०४ सिया० । तं तु० । एवं दुस्सर० । एवं चैव तस० । णवरि पज्जत्तापज्जत्त ० सिया० । तं तु० ।
निर्माणका नियम से बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । उच्छ्वासका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । स्थिर, अस्थिर, शुभ और अशुभका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । इसी प्रकार उच्छ्वासकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
१००. तपके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, श्रदारिक शरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्ड संस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, प्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, गुरुलघु चतुष्क, स्थावर, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, दुर्भग, अनादेय और निर्माणका नियम से बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति और अयशः कीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार उद्योतकी मुख्यताले सन्निकर्षं जानना चाहिए ।
१०१. प्रशस्त विहायोगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव दो गति, चार जाति, छह संस्थान, छह संहनन, दो आनुपूर्वी और स्थिर आदि छह युगलका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है, तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है | यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है ।
दारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वचतुष्क, अगुरुलघु और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । उद्योतक कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । त्रसचतुष्कका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार दुःस्बर प्रकृतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार नस प्रकृतिकी मुख्यता से भी सन्निकर्ष जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि यह पर्याप्त और अपर्याप्ता कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है, तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थानपतित वृद्धिरूप होता है ।
१. ग्रा० प्रती छस्संठा० दोश्राणु ० इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे १०२. बादर. ज. बं. दोगदि-पंचजादि-छस्संठा०--छस्संघ०-दोआणु०दोविहा०-तस-थावर--पज्जतापज्जत्त-पत्ते०-साधार०-थिरादिछयुग० सिया० । तं तु० । ओरालि०-तेजा०-क०-पसत्थापसत्थ०४-अगु०-उप०-णिमि० णिय० अणंतगुणब्भ० । ओरालि०अंगो०--पर०-उस्सा०--आदाउज्जो० सिया० अणतगुणब्भ० । एवं पज्जत्तपत्ते । णवरि पडिपक्खा ण बंधदि।
१०३. मुहुम० ज० ब० तिरिक्ख०-एइंदि०-हुंड०-तिरिक्खाणु०-थावर०-दूभगअणादे०-अजस० णिय० । तं तु० । ओरालि०-तेजा-क०-पसत्थापसत्थ०४-अगु०उप०-णिमि० णिय० अजह० अणंतगुणब्भ० । पज्जत्तापज्जत-पत्य-साधार०-थिराथिरसुभासुभ० सिया० । तं तु० । एवं साधार० ।
१०४. अपज्ज० ज० बं० दोगदि-पंचजादि-असंप०-दोआणु०-तस०-थावर-बादरमुहुम-पत्तेय-साधार० सिया० । तं तु० । ओरालि०-तेजा०--क०-पसत्थापसत्थ०४
१०२. बादर प्रकृतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव दो गति, पाँच जाति, छह संस्थान, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति, त्रस, स्थावर, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण और स्थिर आदि छह युगलका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है,तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। औदारिकशरीर. तैजसशरीर. कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। औदारिक आङ्गोपाङ्ग, परघात, उच्छवास,
आतप और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार पर्याप्त और प्रत्येककी मुख्यतासे भी सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यह प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका बन्ध नहीं करता।
१०३. सूक्ष्मके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति, एकेन्द्रिय जाति, हुण्डसंस्थान, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, स्थावर, दुभंग, अनादेय और अयशःकीर्तिका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु,
णका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, स्थिर, अस्थिर, शुभ और अशुभका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है,तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । इसी प्रकार साधारणकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
१०४. अपर्याप्तके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव दो गति, पाँच जाति, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, दो आनुपूर्वी, त्रस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, प्रत्येक और साधारणका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है,तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थानपतित वृद्धिरूप होता है । औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क,
१. श्रा० प्रतौ णं बंधदि इति पाटः ।
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बंधसणिया सपरूवणा
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अगु०
०- उप०-- णिमि० णि० अनंतगुणन्भ० । हुंड० -- अथिरादिपंच णिय० । तं तु० । ओरालि० अंगो० सिया० अनंतगुणब्भ० ।
१०५. थिर० ज० बं० दोगदि - पंचजादि वस्संठा ० छस्संघ० - दोआणु० दोविहा०तस-थावर-बादर- मुहुम-पत्तेय-साधारण-सुभगादिपंचयुग० सिया० । तं तु० । ओरालि०तेजा०- क०-पसत्थापसत्थ०४ - अगु०४ - णिमि० णि० अणतगुणब्भ० । ओरालि० अंगो०आदाउज्जो सिया० अनंतगुणब्भ० । पज्जत्त० णि० । तं तु० । एवं सुभ-जस० । वरि जस० सुहुम--साधारणं वज्ज । एवं सव्वअपज्जत्तयाणं सव्वविगलिंदि ० -- पुढ०आउ०-- वणफदिपत्तेय-वणफदि-णियोदाणं च । तेज- वाऊणं पि तं चैव । णवरि तिरिक्खं ० - तिरिक्खाणु ० --णीचा० धुवं कादव्वं । मणुस०-- मणुसाणु० --उच्चा० वज्ज । वरि अप्पसत्थ०४ - उप० णिय० । तं तु० । सव्वएइंदियाणं पि तं चैव । णवरि तिरिक्खगदि ० ३ ते ०भंगो । अप्पसत्थवण्ण० ज० बं० तिरिक्ख० -- तिरिक्खाणु०
०
अगुरुलघु, उपघात और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । हुण्ड संस्थान और अस्थिर आदि पाँचका नियम से बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । औदारिक आङ्गोपाङ्गका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है ।
१०५. स्थिर प्रकृति के जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव दो गति, पाँच जाति, छह संस्थान, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति, त्रस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, प्रत्येक, साधारण और शुभ आदि पाँच युगलका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है, तो वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। श्रदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। श्रदारिक आङ्गोपाङ्ग, आतप और उद्योतक कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । पर्याप्तका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । इसी प्रकार शुभ और यशःकीर्तिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यशःकीर्तिका सूक्ष्म और साधारणको छोड़कर सन्निकर्ष कहना चाहिए। इसी प्रकार अर्थात् तिर्यच अपर्याप्तकों के समान सब अपर्याप्तक, सब विकलेन्द्रिय, पृथिवीकायिक, जलकायिक, वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर, वनस्पतिकायिक और निगोद जीवोंके जानना चाहिए। तेजस्कायिक और वायुकायिक जीवोंके भी यही सन्निकर्ष है । इतनी विशेषता है कि इनमें तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीच गोत्रको ध्रुव करना चाहिए। तथा मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रको छोड़कर सन्निकर्ष कहना चाहिए। इतनी और विशेषता है कि अप्रशस्त वर्ण चतुष्क और उपघातका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । सब एकेन्द्रियों के भी यही सन्निकर्ष है । इतनी विशेषता है कि इनमें तिर्यचगतित्रिकका भङ्ग अग्निकायिक जीवोंके समान है । तथा अप्रशस्त वर्णके जघन्य अनुभागका बन्ध
१. ता० प्रतौ तिरिक्ख० ३ इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे सिया० । तं तु० । मणुस०-मणुसाणु०-उज्जोव० सिया० अणंतगुणम्भ० । पंचिंदियादिधुवियाओ णिय० अणंतगुणब्भ० । अप्पसत्थगंध०३-उप० णिय० । तं तु० ।
१०६. मणुस०३ खवियाणं आहारदुगं तित्थय० ओघं। सेसं पंचिंदियतिरिक्खभंगो।
१०७. देवेसु सत्तणं कम्माणं णिरयभंगो। तिरिक्ख० ज० बं० एइंदि.. छस्संठा-छस्संघ०-दोविहा०--थावर०--थिरादिछयुग० सिया० । तं तु० । पंचिंदि०
ओरालि० अंगो०-आदाउज्जो०-तस० सिया० अणंतगुणब्भ० । ओरालि०-तेजा०-क०पसत्थापसत्थ०४-अगु०४-बादर-पज्जत्त-पत्ते-णिमि० णि० अणंतगुणब्भ० । तिरिक्खाणु० णि० । तं तु० । एवं तिरिक्खाणु०। मणुसगदि० तिरिक्खभंगो । णवरि एइंदियं आदाउज्जोवं थावरं च वज्ज । एवं मणुसाणु० ।
१०८. एइंदि० ज० बं० तिरिक्ख०-हुंड०-तिरिक्वाणु०-थावर-दूभग-अणादें णिय० । तं तु० ओरालि०-तेजा०-०-पसत्थापसत्थ०४-अगु०४-बादर-पज्जत०करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति और तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वीका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है,तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभाग का भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। मनुष्यगति. मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। पञ्चन्द्रियजाति आदि ध्रुव प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। अप्रशस्त गन्ध आदि तीन और उपघातका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है।
१०६. मनुष्यत्रिकमें क्षपक प्रकृतियाँ, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग ओघके समान है । तथा शेष प्रकृतियोंका भङ्ग पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है।
१०७. देवोंमें सात कर्मोंका भङ्ग नारकियोंके समान है। तिर्यश्चगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव एकेन्द्रिय जाति, छह संस्थान, छह संहनन, दो विहायोगति, स्थावर और स्थिर आदि छह युगलका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है,तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । पञ्चन्द्रिय जाति, औदारिक आङ्गोपाङ्ग,
आतप, उद्योत और त्रसका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । औदारिक भारीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, हादर, पर्याप्त, प्रत्येक और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी का नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है
और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार तिर्यश्चगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। मनुष्यगतिका भङ्ग तिर्यश्चगतिके समान है। इतनी विशेषता है कि एकेन्द्रिय जाति, आतप, उद्योत और स्थावरको छोड़कर यह सन्निकर्ष कहना चाहिए। इसी प्रकार मनुष्यगत्यानुपूर्वी की मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
१०८. एकेन्द्रिय जातिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, हुण्डसंस्थान, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी, स्थावर, दुर्भग और अनादेयका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु
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बंधसणियासपरूवणा णिमि० णिय. अणंतगुणब्भ० । आदाउज्जो सिया० अणंतगुणब्भ० । थिराथिर-सुभासुभ-जस०-अजस० सिया० । तं तु० । एवं थावर० ।
१०६. पंचिंदि० ज० बं० तिरिक्ख०--हुंड०--असंप०--अप्पसत्थ०४-तिरिक्वाणु०-उप०-अप्पसत्थ०- अथिरादिछ० णिय. अणंतगुणब्भ० । ओरालि०तेजा-क०--ओरालि०अंगो०--पसत्थ०४-अगु०३-तस०४-णिमि. णि । तं तु० । उज्जोव० सिया० । तं तु०। एवं ओरालि०अंगो०-तसः ।
११०. ओरालि० ज० बं० तिरिक्ख०-हुंड०-अप्पसत्थवण्ण०४-तिरिक्वाणु०उप०-अथिरादिपंच णि० अणंतगुणब्भ०। एइंदि०-असंप० अप्पसत्थ०-थावर०-दुस्सर० सिया० अणंतगुणब्भ० । ओरालि०अंगो०-आदाउज्जो०-तस० सिया । तं तु । तेजा०क०-पसत्य०४-अगु०-पर०-उस्सा०-बादर-पज्ज०-पत्ते-णिमि० णि । तं तु० । एवं वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्तवर्ण चतुष्क, अप्रशस्तवर्ण चतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, बादर, पर्याप्त और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। आतप और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यश:कीर्ति और अयशःशीतिका कदाचित् बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार स्थावर प्रकृतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
१०६. पञ्चन्द्रिय जातिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति, हुण्ड संस्थान, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति और अस्थिर आदि छहका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है।
औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, स चतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है,तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार औदारिक आङ्गोपाङ्ग और त्रस प्रकृतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
११०. औदारिकशरीरके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उपघात और अस्थिर आदि पाँचका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। एकेन्द्रिय जाति, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, अप्रशस्त विहायागति, स्थावर और दुःस्वरका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। औदारिक आङ्गोपाङ्ग, आतप, उद्योत और त्रसका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है,तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, परघात, उच्छवास, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागको भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभाग
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महाबँधे अणुभागबंधाहियारे
तेजा ० क० - पसत्थ०४ - अगु०३ – उज्जो ० - बादर - पज्जत्त - पत्ते ० - णिमिणं ति । आदावं एवं चेव । णवरि एइंदि० - थावर० णिय अनंतगुणन्भ० । चदुसंठा० चदुसंघ० दोविहा०सुभग- दोसर -अणादें पढमपुढविभंगो ।
०
[0--तस०
१११. हुंड० ज० बं० दोगदि - एइंदि० - वस्संघ० - दोआणु ०--दोविहा०-- थावरथिरादिछयुग० सिया० । तं तु० । पंचिंदि० --ओरालि० अंगो० - आदाउज्जो ० सिया० अनंतगुणभ० । ओरालि० तेजा० क० - पसत्थापसत्थ०४- अगु०४ - बादर - पज्जत्तपत्ते० - णिमि० णि० अनंतगु० । एवं हुंडभंगो दूभग-- अणादें । अप्पसत्थ०४ - उप० णिरयभंगो ।
O
११२. थिर० ज० बं० दोगदि एइंदि० छस्संठा ० - इस्संघ० - दोआणु ० दोविहा थावर० - सुभादिपंचयुग० सिया० । तं तु० । पंचिं०--ओरालि० अंगो० - आदाउज्जो०तस ० - तित्थ० सिया० अनंतगुणब्भ० । ओरालि०- तेजा ० क० - पसत्थापसत्थ०४अगु०४ - बादर ० -- पज्जत्त - पत्ते ० - णिमि० णि० अनंतगुणभ० । एवं अथिर - सुभासुभजस० - अजस० । तित्थ० णिरयभंगो ।
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का भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । इसी प्रकार तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, उद्योत, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक और निर्माणकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। श्रातपकी मुख्यता से भी सन्नि कर्ष इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि एकेन्द्रियजाति और स्थावरका नियम से बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । चार संस्थान, चार संहनन, दो विहायोगति, सुभग, दो स्वर और अनादेयका भङ्ग पहली पृथिवीके समान है।
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१११. हुण्डसंस्थानके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव दो गति, एकेन्द्रिय जाति, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति, स्थावर और स्थिर आदि छह युगलका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है, तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । पचन्द्रिय जाति, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, आतप, उद्योत और त्रसका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मण शरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार हुण्ड संस्थानके समान दुर्भग, नादेय की मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। अप्रशस्त वर्णचतुष्क और उपघातकी मुख्यता से सन्निकर्ष नारकियोंके समान है ।
११२. स्थिर प्रकृतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव दो गति, एकेन्द्रिय जाति, छह संस्थान, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति, स्थावर और शुभादि पाँच युगलका कदाचित् बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान प वृद्धिरूप होता है | पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिक आङ्गोपाङ्ग, आतप, उद्योत, त्रस और तीर्थङ्करका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । इसी प्रकार अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशः कीर्ति और अयशःकीर्तिकी मुख्यतासे सन्निकर्षं जानना चाहिए। तीर्थङ्कर
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बंधसण्णियास परूषणा
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११३. भवण०-० -- वाणवेंतर-- जोदिसि० सोधम्मीसाणं सत्तण्णं कम्माणं देवोघं । तिरिक्खग० ज० बं० दोजादि --छस्संठाण - वस्संघ०--- दोविहा०--तस - थावर--थिरादिछयुग० सिया० । तं तु० । ओरालि० - तेजा ०० -- क ०-- पसत्थाप सत्थ०४ - बादर -- पज्जतपत्ते ० - णिमि० णि० अनंतगु० । ओरालि० अंगो० --- आदाउज्जो० सिया० अणतगु० । तिरिक्खाणु० णिय० । तं तु० । एवं तिरिक्खाणु० ।
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११४. मणुसग० ज० बं० तिरिक्खगदिभंगो । णवरि पंचि ० - मणुसाणु० -तस० णि० । तं तु० । एवं मणुसाणु० । एइंदि० - थावर० देवोघं ।
०--पसत्था
११५. पंचिदि० ज० बं० दोगदि - इस्संठा ० - इस्संघ० -- दोआणु० - दोविहा०थिरादियुग० सिया० । तं तु० । ओरालि ० – तेजा०-- क० - - ओरालि० अंगो०पसत्थ०४- अगु०४ - बादर - पज्जत - पत्ते ० - णिमि० णि० अनंतगुणग्भ० । उज्जो० सिया० प्रकृतिका भङ्ग नारकियोंके समान 1
११३. भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और सौधर्म ऐशान कल्पके देवों में सात कर्मों का भङ्ग सामान्य देवोंके समान है । तिर्यञ्चगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव दो जाति, छह संस्थान, छह संहनन, दो विहायोगति, त्रस, स्थावर और स्थिर आदि छह युगलका कदाचित् बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि जघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है ।
दारिक आङ्गोपाङ्ग, आतप और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । तिर्यगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
११४. मनुष्यगति के जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाले जीवका भङ्ग तिर्यञ्चगतिके समान है । इतनी विशेषता है कि पचन्द्रिय जाति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और त्रसका नियमसे बन्ध होता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । इसी प्रकार मनुष्यगत्यानुपूर्वीकी मुख्यता सन्निकर्ष जानना चाहिए । एकेन्द्रिय जाति और स्थावर प्रकृतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष सामान्य देवों के समान है ।
११५. पञ्चेन्द्रिय जातिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव दो गति, छह संस्थान, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति और स्थिर आदि छह युगलका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है, तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। श्रदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक
१. ता० प्रा० प्रस्योः थावरादि इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे अणंतगुणब्भ० । तस० णि । तं तु.। एवं पंचिंदियभंगो चदुसंठा०--चदुसंघ०दोविहा०-तस-सुभग-दोसर०-आदें ।
११६. हुंड० ज० बं० दोगदि-दोजादि-छस्संघ०-दोआणु०दोविहा०-तस-थावरथिरादिछयुग० सिया० । तं तु० । सेसं तिरिक्खगदिभंगो । एवं हुंड भंगो भगअणादें । एवं चेव थिराथिर--सुभासुभ--जस०-अजस० । णवरि तित्थ० सिया० अणंतगुणब्भ० ।
११७. ओरालि० ज० बं० तिरिक्व०-एइंदि०-हुंड०-अप्पसत्थ०४-तिरिक्वाणु०उप०-थावर--अथिरादिपंच० णि० अणंतगुणब्भ० । तेजा०-क०-पसत्थ०४-अगु०३बादर-पज्जत्त-पत्ते-णिमि० णिय० । तं तु०। आदाउज्जो० सिया० । तं तु० । एवं एदाओ ऍकमेक्कस्स । तं तु० ।
११८, ओरालि०अंगो० ज० बं० तिरिक्ख०-पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा-क०हुंडसंठा०--असंप०--पसत्थापसत्थ०४-तिरिक्खाणु०--अगु०४-अप्पसत्य०---तस०४होता है । त्रसका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । इसी प्रकार पञ्चन्द्रिय जातिके समान चार संस्थान, चार संहनन, दो विहायोगति, त्रस, सुभग, दो स्वर और आदेयकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
११६. हुण्ड संस्थानके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव दो गति, दो जाति, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति, त्रस, स्थावर और स्थिर आदि छह युगलका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग तिर्यश्चगतिके समान है। इस प्रकार हुण्ड संस्थानके समान दुर्भग और अनादेय की मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति और अयशःकीर्तिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है।
११७. औदारिक शरीरके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति, एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, स्थावर और अस्थिर
आदि पाँचका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभाग का भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । आतप और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो जवन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभाग का बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार इन प्रकृतियों का परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए,किन्तु वह उसी प्रकारका होता है।
११८. औदारिक प्राङ्गोपाङ्गके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति, पञ्च. न्द्रिय जाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, अप्रशस्त विहायो
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बंधसण्णियासपरूवणा अथिरादिछ०-णिमि० णिय० अणंतगुणन्भ० । उज्जो सिया० अणंतगुणब्भ० ।
११६. सणक्कुमार याव सहस्सार ति पढमपुढविभंगो । आणद याव णवगेवज्जा ति सत्तण्णं कम्माणं देवोघं । मणुस० ज० बं० पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा.-क०ओरालि.अंगो०--पसत्थ०४-मणुसाणु०--अगु०३-तस४-णिमि० णि० । तं तु०। हुंड०-असंप०-अप्पसत्य०४-उप०अप्पसत्थवि०-अथिरादिछ० णि. अणंतगुणब्भः । एवं मणुसगदिभंगो पंचिंदियादि तं तु० पदिदाणं सव्वाणं।
१२०. समचदु० ज० बं० मणुस०-पंचिंदि०-ओरालिक-तेजा०-क०-ओरालि. अंगो०-पसत्थापसत्थ०४-मणुसाणु०-अगु०४-तस०४-णिमि० अणंतगुणब्भ०। छस्संघ०दोविहा०-थिरादिछयुग० सिया । तं तु०। एवं पंचसंठा०-छस्संघ०-दोविहा०-थिरादिछयुग० । णवरि तिण्णियुग०-तित्थय० सिया० अणंतगुणब्भ० । अप्पसत्थ०४-उप०तित्थयरं च देवोघं ।
१२१. अणुदिस याव सव्वह त्ति सत्तण्णं कम्माणं आणदभंगो। णवरि थीणगिद्धि३-मिच्छ०-अणंताणु०४-इत्थि०-णवूस०-णीचा. वज्ज । मणुस. ज. बं. गति, सचतुष्क, अस्थिर आदि छह और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। उद्योतका कदाचित बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है।
११६. सानत्कुमार कल्पसे लेकर सहस्त्रार कल्प तकके देवों में प्रथम पृथिवीके समान भङ्ग है। श्रानत कल्पसे लेकर नौ ग्रैवेयक तकके देवोंमें सात कर्मोंका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। मनुष्यगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिक बाङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, त्रसचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजधन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। हुण्डसंस्थान, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति और अस्थिर आदि छहका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार मनुष्यगतिके समान पञ्चन्द्रिय जाति आदि 'तं तु. पतित सब प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष कहना चाहिए।
१२०. समचतुरस्त्र संस्थानके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव मनुष्यगति, पञ्चे। न्द्रिय जाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिक अाङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, त्रस चतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। छह संहनन, दो विहायोगति और स्थिर आदि छह युगलका कदाचित् बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार पाँच संस्थान, छह संहनन, दो विहायोगति और स्थिर आदि छह युगलकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि तीन
गल और तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। अप्रशस्तवर्ण चतुष्क, उपघात और तीर्थङ्कर प्रकृतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष सामान्य देवोंके इन प्रकृतियोंकी मुख्यतासे जैसा कह पाये हैं,वैसा है।
१२१. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सात कर्मोका भङ्ग पानत कल्पके समान है। इतनी विशेषता है कि स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, स्त्रीनेष नसकवेद
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__ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे आणदभंगो। णवरि अप्पसत्य०४-उप०--अथिर०--असुभ०--अजस० णिय० अणंतगुणब्भ० । समचदु०-वज्जरि० -पसत्थवि० - सुभग - सुस्सर० - आदें णि । तं तु० । तित्थ० सिया। तं तु० । एवं तं तु० पदिदाओ ऍक्कमेक्तस्स । तं तु० । अप्पसत्थ०४उप० देवोघं।
१२२. थिर० ज० बं० सुभासुभ-जस०-अजस० सिया०। तं तु० । तित्थय० सिया० अणंतगुणब्भ० । एवं तिण्णियुग० ।
१२३. पंचिंदि०--तस०२-पंचमण०--पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालियका०कोधादि०४-चक्खु०-अचक्खु०-भवसि०-मिच्छादि०-मदि०-सुद०-विभंग०-असंजद०. सण्णि-असण्णि-आहारग ति ओघभंगो । णवरि किंचि विसेसो णादव्यो । ओरालियका० मणुसोघं । णवरि तिरिक्ख०-तिरिक्खाणु० तिरिक्खोघं। कोधे कोधसंज० ज० बं० तिण्णं संज० णि० जहण्णा । माणे माणसंज० ज० बं० दोसंज० णि० जहण्णा।
और नीचगोत्रको छोड़कर सन्निकर्ष कहना चाहिए। मनुष्यगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करने वाले देवका भङ्ग आनत कल्पके समान है। इतनी विशेषता है कि अप्रशस्त वर्ण चतुष्क, उपघात, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्तिका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । समचतुरस्त्र संस्थान, वज्रर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेयका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वुद्धिरूप होता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है, तो वह जघन्य अनुभाग का भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार 'तं तुः पतित जितनी प्रकृतियाँ हैं,उनकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु इनमेंसे किसी एकके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव शेषका यथासम्भव बन्ध करता है। जो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। अप्रशस्त वर्ण चतुष्क और उपघात प्रकृतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जैसा इनकी मुख्यतासे सामान्य देवोंके कह आये हैं,उसी प्रकार यहाँ जानना चाहिए।
१२२. स्थिर प्रकृतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति और अयश:कीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है,तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार तीन युगलोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
१२३. पञ्चन्दियद्विक. त्रसद्रिक. पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, क्रोधादि चार कषायवाले, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, भव्य, मिथ्यादृष्टि, मत्यज्ञानी, श्रुतज्ञानी, विभङ्गज्ञानी, असंयत, संज्ञी, असंज्ञी और आहारक जीवोंके ओघके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि कुछ विशेषता जाननी चाहिए। औदारिककाययोगी जीवों में सामान्य मनुष्यों के समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि यहाँ तिर्यश्चगति और तिर्यश्चगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जिस प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंमें इन प्रकृतियोंकी मुख्यतासे कहा है, उस प्रकार जानना चाहिए। क्रोधकषायमें क्रोध संज्वलनके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तीन संज्वलनोंका
- १, ता. प्रतौ तिरिक्ख.तिरिक्खोघं इति पाठः। २. ता. प्रतौ माणसंज. बं० इति पाठः।
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बंधसण्णियासपरूवणा मायाए मायसंज० ज० ब० लोभसंज. णि. जहण्णा। सेसाणं मोहविसेसो णादव्यो ।
१२४. ओरालियमिस्से सत्तण्णं कम्माणं देवोघं । तिरिक्ख०-तिरिक्खाणु० ओघं । मणुस०-पंचजादि-छस्संठाण-छस्संघ०-मणुसाणु०-दोविहा०-तस-थावरादि०४सुभग-दूभग-सुस्सर-दुस्सर-आदें -अणादे० पंचिंदि०तिरि०अपज्ज भंगो । देवग० ज० बं० पंचिंदि०-तेजा-क०-समचदु०-पसत्यापसत्थ०४-अगु०४-पसत्थ०-तस०४-अथिरअसुभ-सुभग-सुस्सर-आदें-अजस०-णिमि०णिय० अणंतगुणब्भ० । वेउवि०-वेउव्वि० अंगो०--देवाणु० णि । तं तु०। तित्थ० सिया० । तं तु०। एवं चदुपगदीओ० । ओरालिय-तेजइगादीओ ओरालि०अंगो०-पर-उस्सा०-आदाउज्जो० पंचिंदि०तिरि०अपज्जत्तभंगो।
१२५. अप्पसत्थवण्ण० जं. बं. देवगदि-पसत्यपगदीणं णिय० अणंतगुणब्भ० । अप्पसत्थगंध०३-उप० णि । तं तु० । तित्थ. सिया० अणंतगुणब्भ० । थिरादि
नियमसे जघन्य अनुभागबन्ध करता है। मानकषायमें मानसंज्वलनका जघन्य अनुभागबन्ध करने वाला जीव दो संज्वलनोंका नियमसे जघन्य अनुभागबन्ध करता है। मायाकषायमें माया संज्वलनका जघन्य अनुभागबन्ध करनेवाला जीव लोभ संज्वलनका नियमसे जघन्य अनुभागबन्ध करता है। शेष प्रकृतियोंका मोहके समान विशेष जानना चाहिए।
१२४. औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें सात कर्मोंका भङ्ग सामान्य देवोके समान है। तिर्यञ्चगति और तिर्यश्चगत्यानुपूर्वीका भङ ओघके समान है। मनुष्यगति. पाँच जाति. छह संस्थान, छह संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, दो विहायोगति, त्रस-स्थावर आदि चार युगल, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुःस्वर, आदेय और अनादेयकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जिस प्रकार इन प्रकृतियोंकी मुख्यतासे पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके कह आये हैं, उस प्रकार जानना चाहिए। देवगति के जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरत्रसंस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, अयश कीर्ति और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी वन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् वन्ध करता है। यदि बन्ध करता है, तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार वैक्रियिकशरीर आदि चार प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। औदारिकशरीर और तैजसशरीर आदि तथा औदारिक आङ्गोपाङ, परघात, उच्छवास. आतप और उद्योतका : पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान है।
१२५. अप्रशस्त वर्णके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव देवगति आदि प्रशस्त प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। अप्रशस्त गन्ध आदि तीन
और उपघातका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे तिण्णियुग० पंचिंदि तिरि०अपज्जत्तभंगो । णवरि तिरिवख०--देवगदि-वेवि०
ओरालि०-वेउवि०अंगो०-दोआणु०-पर-उस्सा०-आदाउज्जो०-तित्थ० सिया० अणंतगुणब्भ०।
१२६. वेउव्वियकायजोगी सत्तण्णं कम्माणं देवभंगो। तिरिक्ख०-तिरिक्वाणु० णिरयोघं । मणुस०--मणुसाणु० देवोघभंगो। एइंदि०--थावर० देवोघभंगो। णवरि तिरिक्ख०-तिरिक्वाणु० णिय. अणंतगुणब्भ० । पंचिंदि०-ओरालि०अंगो०-तस० णिरयोघं । ओरालि० ज० बं० तिरिक्ख०-हुंड०-अप्पसत्थ०४-तिरिक्खाणु०-उप०. अथिरादिपंच० णि० अणंतगुणभ० । एइंदि०--असंप०--अप्पसत्थ०-थावर-दुस्सर० सिया० अणंतगुणब्भ० । पंचिंदि०--ओरालि०अंगो०--आदाउज्जो०--तस० सिया० । तं तु० । तेजा-क०-पसत्थ०४-अगु०३-बादर-पज्जत्त-पत्ते-णिमि० णि । तं तु० । एवं तेजइगादीणं ऍकमेकस्स । तं तु० । सेसाणं देवोघं । एवं वेव्वियमि० ।
१२७. आहार-आहारमि० सत्तण्णं कम्माणं अणुदिसभंगो । णवरि अटक. होता है । स्थिर आदि तीन युगलोंका भङ्ग पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान है। इतनी विशेषता है कि यह तिर्यश्चगति, देवगति, वैक्रियिक शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वैक्रियिक श्राङ्गोपाङ्ग, दो भानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत और तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है।
१२६. वैक्रियिककाययोगी जीवोंमें सात कर्मोंका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। तिर्यञ्चगति और तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी का भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है। मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। एकेन्द्रियजाति और स्थावरका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि यह तिर्यश्चगति और तिर्यश्वगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। पञ्चन्द्रिय जाति, औदारिक आङ्गोपाङ्ग
और उसका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है। औदारिक शरीरके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति, हुण्ड संस्थान, अप्रशस्त वर्ण चतुष्क, तियश्चगत्यानुपूर्वी, उपघात
और अस्थिर आदि पाँचका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। एकेन्द्रिय जाति, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर और दुःस्वरका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। पञ्चन्द्रिय जाति, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, पातप, उद्योत और त्रसका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है, तो जघन्य अनुभागका' भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्ण चतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, बादर, पर्याप्ति, प्रत्येक और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु ह जघन्य अनभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार तैजसशरीर आदि प्रकृतियोंकी मुख्यतासे परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु इनमें से किसी एकके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव शेषका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। शेष प्रक्रतियोंका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है । इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंके जानना चाहिए।
१२७. आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें सात कर्मोका भङ्ग अनुदिशके
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बंधसणियासपरूवणा वज्ज । देवगदि० ज० बं० पंचिं०-वेउव्वि०--तेजा०-क०-समचदु०-वेउवि०अंगो०पसत्थ०४-देवाणु०-अगु०३-पसत्य-तस०४-मुभग-मुस्सर-आदें-णिमि० णि० । तं तु० । अप्पसत्थ०४-उप०-अथिर- असुभ-अजस० णिय० अणंतगुणब्भ० । तित्थ. सिया। तं तु० । एवं देवगदिआदीओ तप्पाऑग्गाओ तित्थयरं च ऍकमेकस्स । तं तु० । अप्पसत्थ०४-उप० ओघं ।
१२८. थिर० ज० बं० देवगदिसंजुत्ताणं पसत्थापसत्थाणं पगदीणं णिय० अणंतगुणब्भ० ।सुभासुभ-जस०-अजस० सिया। तंतु०। तित्थ सिया० अणंतगुणब्भ० । एवं अथिर-सुभ-असुभ-जस०-अजस०।
१२६. कम्मइ० सत्तण्णं कम्माणं देवोघभंगो । तिरिक्ख०-मणुसग०-चदुजादिछस्संठा०-छस्संघ०-दोआणु०-दोविहा०-थावरादि४-थिरादिछयुग. ओघं । देवगदिष्ट ओरालियमिस्स०भंगो । पंचिदि० ज० बं० तिरि०---हुंड०-असंप०.-अप्पसत्थ०४
समान है । इतनी विशेषता है कि आठ कषायोंको छोड़कर सन्निकर्ष कहना चाहिए। देवगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर,कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर. आदेय और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। अप्रशस्त वर्ण चतुष्क, उपघात, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्तिका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है,तो जघन्य
का भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार तत्प्रायोग्य देवगति आदि और तीर्थङ्कर प्रकृतिकी मुख्यतासे परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु इनमेंसे किसी एकके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव शेषका यथासम्भव बन्ध करता है। वह जघन्य अनुभागबन्ध भी करता है और अजघन्य अनुबन्ध भी करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। अप्रशस्त वर्णचतुष्क और उपघातका भङ्ग ओघके समान है।
१२८. स्थिर प्रकृतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव देवगति संयुक्त प्रशस्त और अप्रशस्त प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति और अयश कीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है, तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। तीर्थकर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । इसी प्रकार अस्थिर, शुभ, अशुभ, यश:कीर्ति और अयशःकीर्तिकी मुख्यतासे सन्निकर्षे जानना चाहिए।
१२६. कार्मणकाययोगी जीवोंमें सात कर्मोंका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है । तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, चार जाति, छह संस्थान, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति, स्थावर आदि चार और स्थिर आदि छह युगलका भङ्ग ओघके समान है। देवगति चतुष्कका भङ्ग औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंके समान है। पश्चन्द्रिय जातिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे तिरिक्वाणु०-उप०-अप्पसत्थ०-अथिरादिछ०-णिमि० णि० अणंतगुणभ० । ओरालियादि० णि । तं तु०। उज्जो० सिया०। तं तु० । एवं ओरालि०अंगो-तस०।
१३०. ओरालि० ज० ब० तिरिक्ख०-हुंड-अप्पसत्थ०४-तिरिक्वाणु०उप०--अथिरादिपंच० णिय० अणंतगुणब्भ० । एइंदि०--अप्पसत्थ०--थावर--दुस्सर० सिया० अणंतगुणब्भ०। पंचिंदि०-ओरालि०अंगो०-आदाउजो-तस०४ सिया० । तं तु० । तेजा०--क०--पसत्थ०४-अगु०३-णिमि० णि० । तं तु० । एवमेदाओ ऍकमेकस्स । तं तु०।
१३१. तित्थ० ज० बं० मणुसगदिपंच० सिया० अणंतगुणन्म० । देवगदि०४ सिया० । तं तु०। पंचिंदियादि०णि अणंतगुणब्भ०। तिर्यश्चगति, हुण्डसंस्थान, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, अप्रशस्त वर्ण चतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, अस्थिर आदि छह और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। औदारिक शरीर आदिका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है ,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार औदारिक आङ्गोपाङ्ग और त्रस प्रकृतिकी मुख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिए।
१३०. औदारिकशरीरके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति, हुण्ड संस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उपघात और अस्थिर आदि पाँचका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। एकेन्द्रियजाति, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर और दुःस्वरका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। पञ्चन्द्रिय जाति, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, आतप, उद्योत और त्रस चतुष्कका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है, तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागक भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । इसी प्रकार इन सब प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु इन्हीं में से किसी एकके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव शेष प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है।
१३१. तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव मनुष्यगति पञ्चकका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। देवगतिचतुष्कका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है, तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। पञ्चोन्द्रियजाति आदिका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है।
१. श्रा० प्रतौ श्रोरालि भंगो० इति पाठः। २. ता. प्रतौ अप्पसत्य अत्पसत्य. (१) यावर
इति पाठः।
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वैधसण्णियासपरूवणा
६१ १३२. इत्थिवे. सत्तण्णं कम्माणं ओघं । णवरि कोधसंज० ज०० तिण्णिसंज०-पुरिस० णिय० ब० णियमा जहण्णा । चदुगदि-चदुजादि-छस्संठाण--छस्संघ०चदुआणु०-दोविहा०-थावरादि०४-थिरादिछयुग० पंचिंदि०तिरि०भंगो।
१३३. पंचिं० ज० बं० णिरयगदि-हुंड०-अप्पसत्थ०४-णिरयाणु०-उप०-अप्पसत्थवि०-अथिरादिछ० णि. अणंतगुणब्भ०। वेउव्वि०-तेजा०-क०-वेउव्वि०अंगो०. पसत्थ०४-अगु०३--तस०४-णिमि० णि । तं तु० । एवं [ वेउव्वि०-] वेउन्वि०अंगो०-तसं० । ओरालि०-आदाउज्जो० सोधम्मभंगो।
१३४. ओरालि०अंगो० ज० बं० तिरिवख०-ओरालि०-तेजा.-क०-हुंड०-असंप०. पसत्थापसत्थ०४-तिरिक्वाणु० - अगु०-उप०-तस० - बादर०-पत्ते० - अथिरादिपंच०णिमि० णि० अणंतगुणब्भ० । वेइंदि०--पंचिंदि०-पर-उस्सा०-उज्जो०--अप्पसत्य०पज्जत्तापज्ज०-दुस्सर० सिया० अणंतगुणभ०।
१३५. तेजा०-कम्मइ० ओघं । णवरि [ ओरालियअंगो०- ] असंपत्तं वज्ज ।
३२. स्त्रीवेदी जीवोंमें सात कर्मोका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि क्रोध संज्वलनके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तीन संज्वलन और पुरुषवेदका नियमसे बन्ध करता है जो नियमसे जघन्य होता है। चार गति, चार जाति, छह संस्थान, छह संहनन, चार भानुपूर्वी, दो विहायोगति, स्थावर आदि चार और स्थिर आदि छह युगलका भङ्ग पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है।
१३३. पञ्चन्द्रिय जातिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव नरकगति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, नरकगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति और अस्थिर आदि छहका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, सचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकाङ्गोपाङ्ग और त्रसकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । औदारिकशरीर, आतप और उद्योतका भंग सौधर्मकल्पके समान है।
१३४. औदारिक आङ्गोपाङ्गके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, प्रशस्तवर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, त्रस, बादर, प्रत्येक, अस्थिर आदि पाँच और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। द्वीन्द्रिय जाति, पञ्चन्द्रिय जाति, परघात, उच्छ्वास, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, पर्याप्त, अपर्याप्त और दुःस्वरका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है।
१३५. तैजसशरीर और कार्मणशरीरका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि औदारिकाङ्गोपांग और असम्प्राप्तामृपाटिका संहननको छोड़कर सन्निकर्ष कहना चाहिए ।
१. ता. प्रतौ कोधसंज. पुरिस-णिय बंध० णियमो०(मा०) जहण्णा इति पाठः। २ ता. श्रा० प्रत्योः -जादि चदुसंठाणं श्रोरालि० अंगो छस्संव. इति पाठः। ३. ता. श्रा. प्रत्योः तस.४ इति पाठः।
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महाबंध अणुभागबंधाहियारे
पंचिंदि०-ओरालि०-वेउन्वि ० वेडव्वि ० अंगो० आदाउज्जो ० [तस०] सिया० । तं तु० । एवं दि० - थावर० सिया० अणंतगुणभं । कम्मइगादि० णिमि० णि० । तं तु० । एवं तेजइगादि० अण्णमण्णस्स । तं तु० । आहार दुग - अप्पसत्थ०४ - उप० - तित्थय ० ओघभंगो० ।
६२
१३६. पुरिसेसु सत्तण्णं कम्माणं इत्थिभंगो । सेसं ओघं । णवरि तिरिक्खगदिदु० परियत्तमाणिगा कादव्वा ।
१३७. वुंसगे सत्तणं कम्माणं इत्थवेदभंगो । चदुर्गादि-चदुजादि छस्संठा ०इस्संघ० - चदुआणु ० दोविहा० - थावरादि ०४ - थिरादिलयुग० ओघं । पंचिंदि० ज० बं० दोगदि - असं प ० - दोआणु० सिया० अनंतगुणन्भ० । दोसरीर दोअंगो० - उज्जो ० सिया० । तं तु० । तेजा० क ० ---पसत्थ०४ - अगु०३ -तस०४ [ - णिमि० ] णि० । तं तु० ।
1
पञ्च ेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकआङ्गोपाङ्ग, श्रातप, उद्योत और सका कदाचित् बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । एकेन्द्रियजाति और स्थावरका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । कार्मणशरीर आदि और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार तैजसशरीर आदिका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु इनमें से किसी एकके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव शेषका नियमसे बन्ध करता है जो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । आहारकद्विक, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग ओघ के समान है ।
१३६. पुरुषवेदी जीवोंमें सात कर्मोंका भंग स्त्रीवेदी जीवोंके समान है । शेष भंग श्रधके समान है। इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्चगतिद्विककी परिवर्तमान प्रकृतियों में परिगणना करनी चाहिए ।
१३७. नपुंसकवेदी जीवोंमें सात कर्मोंका भङ्ग स्त्रीवेदी जीवोंके समान है। चार गति, चार जाति, छह संस्थान, छह संहनन, चार आनुपूर्वी, दो विहायोगति, स्थावर आदि चार और स्थिर आदि छह युगलका भङ्ग ओघ के समान है । पञ्चेन्द्रिय जातिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव दो गति, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन और दो आनुपूर्वीका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है, तो वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, त्रस चतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि जघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है।
१. ता० श्रा० प्रत्योः सिया० तं तु० श्रणंतगुणन्भ० इति पाठः ।
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चदुक० ।
बंधसण्णियासपरूवणा [ हुंड०. ] अप्पसत्थवण्ण०४-उप० [-अप्पसत्थ०-] अथिरादिछ० णि. अणंतगुणन्भ० । एवं तेजइगादि० । एवं ओरालिगादीणं पि सिया० । तं तु०। ओरालि. ओरालि०अंगो० सिया० । सेसं मणुसभंगो।। णवरि आदवं तिरिक्खोघं] ।
१३८. अवगदवे. पंचणा०-चदुदंसणा०-पंचंतरा० णि• बं० णि० जहण्णा । चदुसंज० ओघं।
१३६. आभि०-सुद०-ओधि० सत्तण्णं कम्माणं ओघ । मणुसग० ज० बं० पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा०-क०-समचदु०-ओरालि०अंगो०-वज्जरि०-पसत्थ०४-मणुसाणु०-अगु०३-पसत्थ०-तस०४-सुभग-सुस्सर-आदें-णिमि० णि० । तं तु० । अप्पसत्य०४-उप०-अथिर-असुभ-अजस० णिय० अणंतगुणब्भः । एवं मणुसगदि
- १४०. देवगदि ज० ब० मणुसभंगो । णवरि तित्थ० सिया० । तं तु० । एवं देवगदिचदुक्कस्स वि । हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति और अस्थिर आदि छहका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । इसी प्रकार नियमसे तं तु-पतित तैजसशरीर आदिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार सिया तं तु-पतित औदारिकशरीर आदिकी मुख्यतासे भी सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु इन्हींमेंसे किसी एकके जघन्य अनुभाग का बन्ध करनेवाला जीव शेषका कदाचित् बन्ध करता है। जो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है
और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । किन्तु इतनी विशेषता है कि औदारिकशरीरके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव औदारिकाङ्गोपाङ्गका कदाचित् बन्ध करता है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग मनुष्योंके समान है। किन्तु आतपका भङ्ग सामान्य तिर्यश्चोंके समान है। .
१३८. अपगतवेदी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पांच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो नियमसे जघन्य होता है। तात्पर्य यह है कि इन चौदह प्रकृतियोंमेंसे किसी एकके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव शेवका नियमसे जघन्य अनुभागबन्ध करता है । चार संज्वलनका भङ्ग ओघके समान है।
१३६. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें सात कर्मोंका भङ्ग ओषके समान है। मनुष्यगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभंग, सुस्वर, आदेय और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, अस्थिर, अशुभ और अयश कीर्तिका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार मनुष्यगत्यानुपूर्वी आदि चारकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
१४०. देवगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाले जीवका भङ्ग मनुष्यके समान है। इतनी विशेषता है कि तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है,तो वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार देवगत्यानु
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे १४१. पंचिंदि० ज० बं० दोगदि-दोसरीर-दोअंगो०-वजरि०-दोआणु०-तित्थ० सिया० । तं तु० । तेजा-क०-समचदु०-पसत्थवण्ण०४-अगु०३-पसत्थवि०-तस०४सुभग-सुस्सर-आदें-णिमि० णिः । तं तु० । अप्पसत्थ०४-उप०-अथिर-असुभअजस० णि. अगंतगुणब्भ० । एवं पंचिंदियभंगो तेजइगादीणं पसत्याणं' ।।
१४२. तित्थ० ज० बं० देवगदि० णि । तं तु० । आहारदुर्ग-अप्पसत्य०४उप० ओघं।
१४३. थिर० ज० बं० दोगदि-दोसरीर० सिया० अणंतगुणब्भ० । पंचिंदियादि० णि० अणंतगुणब्भ० । दोयुग० सिया० । तं तु०। तित्थ० सिया० अणंतगुणब्भ०। एवं तिण्णियुग० । एवं ओधिदं०-सम्मादि०-खइगस० । णवरि खइगे मणुसगदिपंचग० जह० तित्थ० सिया० । तं तु०। पूर्वी चतुष्ककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
१४१. पञ्चन्द्रिय जातिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव दो गति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराच संहनन, दो आनुपूर्वी और तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है,तो वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, प्रादेय और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी वन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, अस्थिर, अशुभ और अयश कीर्तिका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार पञ्चन्द्रियजातिके समान तैजसशरीर आदि प्रशस्त प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
१४२. तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव देवगतिका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका वध करता है तो वह छह स्थान पतित: होता है । आहारकद्विक, अप्रशस्त वर्णचतुष्क और उपघातका भंग ओघ के समान है।
१४३. स्थिर प्रकृतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव दो गति और दो शरीरका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। पञ्चन्द्रिय जाति आदिका नियमसे
रता है जो अनन्तगणा अधिक होता है। दो युगलका कदाचित बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है,तो वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार तीन युगलोंका भङ्ग है। इसी प्रकार अर्थात् आभिनिबोधिकज्ञानी आदि जीवोंके समान अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें मनुष्यगति पञ्चकके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है, तो वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और
१. ता. प्रतो तेजइगादीणं पसं (स) त्याणं । तित्थ०, श्रा० प्रती तेजगादीणं तित्थ० इति पाठः । २. ता. प्रतौ णि । तित्थ आहारदुगु (गं), श्रा० प्रतौ णि तं तु० श्राहारदुर्ग इति पाठः ।
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बंधसण्णियासपरूवणा
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१४४. मणपज्जवे सत्तण्णं कम्माणं ओधिभंगो० । णवरि अटकसायं वज्ज । णाम० ओधिभंगो। णवरि मणुसगदिपंचगं वज्ज । तित्थ० ओघं । एवं संजद - सामाइ ०छेदो० - परिहार० -संजदासंजद० । मुहुमसंप० अवगदवेदभंगो ।
0.
१४५. किण्णाए सत्तणं कम्माणं णिरयभंगो । सेसं णवंसगभंगो । नीलकाऊणं सत्तणं कम्माणं णिरयभंगो । णिरयगदि० ज० ओघं० । पंचिंदि० ज० बं० तिरिक्ख ० - हुंड० णि० अनंतगु० । ओरालि० णि० । तं तु० [ सेसं ] णिरयदंडओ भाणिदव्वओ' । वेडव्वि० जं० बं० णिरयगदिअट्ठावीसं अनंतगुणब्भ० । वेडव्वि०अंगो० णि० । तं तु० । एवं वेडव्विय० अंगो० । सेसं किण्णभंगो० । काऊ तित्थ० णिरयभंगो |
१४६. तेऊए सत्तणं कम्माणं देवगदिभंगो। णवरि कोधसंज० ज० बं० तिण्णिसंज० - पंचणोक० णि० । तु० । दोगदि - दोजादि -- इस्संठा ० - वस्संघ० - दोआणु ०अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है ।
१४४. मनःपर्ययज्ञानी जीवोंमें सात कर्मोंका भङ्ग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि आठ कषायोंको छोड़कर यह सन्निकर्ष कहना चाहिए। नामकर्मका भङ्ग अवधिज्ञानी tara समान है। इतनी विशेषता है कि मनुष्यगतिपञ्चकको छोड़कर यह सन्निकर्ष कहना चाहिए | तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग श्रोघ के समान है। इसी प्रकार संयत, छेदोपस्थापना संयत, परिहारविशुद्धिसंयत और संयतासंयत जीवों के जानना चाहिए। सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवों में अपगतवेदी जीवोंके समान भङ्ग है ।
१४५. कृष्ण लेश्या में सात कर्मोंका भंग नारकियों के समान । शेष भङ्ग नपुंसकों के समान है । नील और कापोत लेश्या में सात कर्मोंका भङ्ग नारकियोंके समान है। नरकगतिके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका भङ्ग ओघ के समान है । पञ्चेन्द्रिय जातिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति और हुण्डसंस्थानका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । औदारिकशरीरका नियमसे बन्ध करता है जो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । शेष प्रकृतियोंका भंग नरकदण्डकके समान कहना चाहिए। वैक्रियिकशरीरके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव नरकगति आदि अट्ठाईस प्रकृतियोंका बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। वैक्रियिक आङ्गोपाङ्गका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थानपतित वृद्धिरूप होता है । इसी प्रकार वैक्रयिक आङ्गोपाङ्गका भी भङ्ग जानना चाहिए । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग कृष्णलेश्या के समान है । कापोतलेश्या में तीर्थंकर प्रकृतिका भङ्ग नारकियोंके समान है ।
१४६. पीत लेश्यामें सात कर्मोंका भंग देवगति के समान है । इतनी विशेषता है कि क्रोधसंज्वलनके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तीन संज्वलन और पाँच नोकषायका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । दो गति, दो जाति, छह संस्थान, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति,
१. श्रा० प्रतौ भाणिदव्वाश्र इति पाठः ।
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६६
महाबंधे अणुभागबंधाहियारे [ दोविहा०-] तस-थावर-तिण्णियुग० सोधम्मभंगो। देवगदि० ज० बं० पंचिंदियादि णि अणंतगुणब्भ० । वेउव्वि०-वेउवि अंगो०-देवाणु० णि । तं तु०। एवं वेउव्वि०वेउव्वि०अंगो०-देवाणु० । ओरालि०-तेजा०-क०-पसत्थ०४-अगु०३-[ आदाउज्जोबादर-पज्जत्त-पत्ते०-] णिमि०[ तित्थ० ] सोधम्मभंगों' । थिरादितिण्णियुगलाणं [ज. बं० ] दोगदि० सिया० । तं तु० । देवगदि०४ सिया० अणंतगुणब्भ० । सेसं सोधम्मभंगो । [ आहारदु०-अप्पसत्थवण्ण४-उप० मणुसभंगो।] एवं पम्माए वि । णवरि पंचिंदि०-ओरालि०अंगो०--तस० सव्वाणं संकिलेस्सपगदीणं सहस्सारभंगो । तित्थय० देवभंगो।
१४७. सुक्काए सतण्णं क. ओघं । देवगदि०४-आहारदुगं पम्माए भंगो। सेसाणमाणदभंगो । अप्पसत्थ०४-उप० ओघं । अब्भव० मदिभंगो। णवरि अप्पसत्थवण्ण० ज० बं० तिरिक्व०-तिरिक्खाणु० सिया० । तं तु० । दोगदि-दोसरीर-दोअंगो०
त्रस, स्थावर और तीन युगलका भंग सौधर्मकल्पके समान है । देवगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चन्द्रिय जाति आदिका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वी का नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । इसी प्रकार वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक श्राङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वी का भङ्ग जानना चाहिए। औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, आतप, उद्योत, बादर, पर्याप्त प्रत्येक, निर्माण और तीर्थङ्करका भङ्ग सौधर्म कल्पके समान है। स्थिर आदि तीन युगलके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव दो गतिका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है,तो वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। देवगति चतुष्कका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। इसका शेष भङ्ग सौधर्म कल्पके समान है।
आहारकद्विक, अप्रशस्त वर्णचतुष्क और उपघातका भङ्ग मनुष्योंके समान है। इसी प्रकार पद्मलेश्यामें भी जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पञ्चन्द्रिय जाति, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, त्रस
और सर्व संक्लिष्ट परिणामोंसे बँधनेवाली सब प्रकृतियोंका भङ्ग सहस्रार कल्पके समान है । तथा तीर्थक्कर प्रकृतिका भङ्ग देवोंके समान है।
१४७. शुक्ललेश्यामें सात कोका भङ्ग ओघके समान है। देवगति चार और आहारक द्विकका भङ्ग पद्मलेश्याके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग आनतकल्पके समान है। अप्रशस्त वर्ण चतुष्क और उपघातका भङ्ग ओघके समान है । अभव्योंमें सब प्रकृतियोंका भङ्ग मत्यज्ञानियों के समान है । इतनी विशेषता है कि अप्रशस्त वर्णके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति और तिर्यश्चगत्यानुपूर्वीका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। दो गति, दो शरीर, दो
१. ता० श्रा. प्रत्योः णिमि० णि तं तु० सोधम्मभंगो इति पाठः । २. ता० श्रा० प्रत्योः श्रोघं ।
णामगदि देवगदि० इति पाठः।
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बंधसणियासपरूषणा
वज्जरि०-दोआणु०- जो० सिया० अणंतगुणब्भ० । पंचिंदि०-तेजा०-क०-समचदु०पसत्थव०४-अगु०३-पसत्थवि०-तस०४-थिरादिछ०-णिमि० णि० अर्णतगुणब्भ० । अप्पसत्थगंध३-उप० णि । तं तु.।।
१४८. वेदग०-उवसम० ओघिदंसणिभंगो। अप्पसत्थ०४-उप० ओघं। सासा. मदि०भंगो । मिच्छत्तं वज्ज । तिरिक्ख०-तिरिक्खाणु० ओघं । दोगदि-पंचसंठा०-पंचसंघ०-दोआणु०-दोविहा०-थिरादिछयुग० ओघं। णवरि पज्जत्तसंजुत्तं कादव्वं । पंचिंदि० ज० बं० तिरिक्खगदिआदि० णि० अणंतगुणब्भ० । ओरालिगादिसव्वसंकिलिहाणं णि । तं तु । उज्जो० सिया० । तं तु० । एवं मणुस०-मणुसाणु । तं तु० । वेउविय० ज० बं० पंचिंदियादि० णि० अणंतगुणब्भ० । तिण्णियुगल. सिया० । तं तु०। प्रांगोपांग, वर्षभनाराचसंहनन, दो आनुपूर्वी और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। पञ्चन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर आदि छह और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। अप्रशस्त गन्ध आदि तीन और उपघातका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है।
१४८. वेदकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें अवधिदर्शनी जीवोंके समान भङ्ग है। मात्र अप्रशस्त वर्णचतुष्क और उपघातका भङ्ग श्रोधके समान है। सासादनसम्यग्दृष्टि जीवों में मत्यज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वको छोड़कर सन्निकर्ष कहना चाहिए। तिर्यञ्चगति और तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी का भंग ओघके समान है। दो गति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति और स्थिर आदि छह युगलका भंग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि पर्याप्त प्रकृतिको संयुक्त करके कहना चाहिए। पञ्चन्द्रिय जातिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति आदिका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। औदारिक आदि सर्व संक्लिष्ट परिणामोंसे बन्धको प्राप्त होनेवाली प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । इसी प्रकार मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वी का भंग है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । वैक्रियिक शरीरके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चन्द्रिय जाति आदि का नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। तीन युगलका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है,तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है।
१. ता० श्रा० प्रत्योः ओघं अभव० मदिभंगो । मिच्छत्तं इति पाठः। २. ता. प्रतो जादि.
इति पाठः।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे किंचि० विसेसो जाणिदव्यो। एवं वेउव्वि०अंगो० । [सम्मामि० वेदगभंगो । विसेसो जाणिदव्यो । ] मिच्छादिडी० मदि०भंगो। अणाहार० कम्मइगभंगो।
एवं जहण्णसण्णियासो समत्तो।
एवं सत्थाणसण्णियासो समत्तो । १४६. परत्थाणसण्णियासे दुवि०-जह० उक्क । उक्कस्सए पगदं। दुवि०-ओघे० आदे। ओघे० आभि. उक० अणुभार्ग' बंधतो चदुणा०-णवदंसणा०-असादा०मिच्छ०-सोलसक-पंचणोक-हंड०-अप्पसत्थ०४-उप०-अथिरादिपंच-णीचा०-पंचंतक णिय० बंध० । तं तु० छहाणपदिदं बंधदि । अणंतभागहीणं वा०५। णिरय०तिरिक्ख०-एइंदि०-असंप०-दोआणु०-अप्पसत्थ०-थावर-दुस्सर० सिया० । तं तु० । पंचिंदि०-दोसरीर-दोअंगो०-आदाउज्जो०-तस० सिया० अणंतगुणहीणं० । तेजा-क०पसत्थ०४-अगु०-पर०-उस्सा०--बादर-पज्जत्त-पत्ते-णिमि० णि. अणंतगुणहीणं० । एवं आभिणिभंगो चदुणा०-णवदसणा-असादा० - मिच्छ०-सोलसक०-पंचणोक०हुंड०-अप्पसत्थ०४-उप०-अथिरादिपंच०-णीचा०-पंचंतरा।। जो कुछ विशेषता है वह जान लेनी चाहिए। इसी प्रकार वैक्रियिक प्रांगोपांग की मुख्यतासे सन्निकर्ष है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके समान भङ्ग है । किन्तु कुछ विशेषता जाननी चाहिए। मिथ्यादृष्टि जीवोंका भंग मत्यज्ञानी जीवोंके समान है। अनाहारक जीवोंका भंग कार्मणकाययोगी जीवोंके समान है। इस प्रकार जघन्य सन्निकर्ष समाप्त हुआ।
इस प्रकार स्वस्थान सन्निकर्ष समाप्त हुआ। १४६. परस्थान सन्निकर्षकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघकी अपेक्षा
आभिनिबोधिक ज्ञानावरणके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, हुण्ड संस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, अस्थिर आदि पाँच, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानि रूप बाँधता है । अर्थात् या अनन्तभागहीन बाँधता है, या असंख्यातभागहीन, संख्यातभागहीन, संख्यातगुणहीन, असंख्यातगुणहीन या अनन्तगुणहीन बाँधता है। नरकगति, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, दो अानुपूर्वी, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर और दुःस्वरका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है,तो वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। पञ्चन्द्रियजाति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, तप, उद्योत और वसका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा हीन होता है। तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, परघात, उच्छवास, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा हीन होता है। इसी प्रकार आभिनिबोधिकज्ञानावरणके समान चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, हुण्ड
१. ता. प्रतौ अणंतभागं इति पाठः।।
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बंधसणियांसपरूवणा
१५०. सादावेदणीयं उक्क० अणुभागं बंधतो पंचणा०-चदुदंस०-पंचंत० णि. अर्णतगुणहीणं बं० । जसगि०-उच्चा० णि. उक्कस्स० । एवं जस०-उच्चा० ।
१५१. इत्थिवे० उक्क० बं० पंचणा०-णवदंस०-असादा०-मिच्छ०-सोलसक०अरदि-सोग-भय-दु०-तिरिक्व०-पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा०-क०-ओरालि०अंगो०-पसत्थापसत्थ०४ -तिरिक्खाणु० - अगु०४-अप्पसत्थ० - तस०४-अथिरादिछ० - णिमि०णीचा०-पंचंत० णि. बं० अणंतगुणही । तिण्णिसंठा० तिण्णिसंघ०-उज्जो० सिया० अणंतगुणही० । एवं पुरिस० । णवरि दोगदि--पंचसंठा-पंचसंघ०-दोआणु०-उज्जो० सिया० अणंत०हीणं०।
१५२. हस्स० उक्क० पंचणा०-णवदंसणा०-असादा-मिच्छ०-सोलसक०-भयदु०-पंचिंदि०-तेजा०-क०-पसत्थापसत्थ०४-अगु०-उप०-अथिरादिपंच०-णिमि० णीचा०पंचंत० णि० अणंतगु०हीणं० । इत्थि०-णqस०-दोगदि-पंचजादि-पंचसंठा०-ओरालि. अंगो०-पंचसंघ-दोआणु०-पर०-उस्सा०--आदाउज्जो०-अप्पसत्थ० --तस--थावर-बादरसुहुम-पज्जत्तापज्ज -पत्ते--साधार०-दुस्सर० सिया० अणंतगु०ही० । रदि० णि० । संस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, अस्थिर आदि पाँच, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका भङ्ग जानना चाहिए।
१५०. सातावेदनीयके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा हीन होता है। यशःकीर्ति और उच्चगोत्रका नियमसे बन्ध करता है जो नियमसे उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है। इसी प्रकार यशःकीर्ति और उच्चगोत्रकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
१५१. स्त्रीवेदके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यश्चगति, पञ्चन्द्रिय जाति, औदारिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिक प्रांगोपांग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, अस्थिर आदि छह, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा हीन होता है। तीन संस्थान, तीन संहनन और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा हीन होता है । इसी प्रकार पुरुषवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि दो गति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, दो आनुपूर्वी और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा हीन होता है।
१५२. हास्यके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, अस्थिर आदि पाँच, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे वन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। स्त्रीवेद. नपुंसकवेद, दो गति, पाँच जाति,
न, औदारिक प्रांगोपांग, पाँच संहनन, दो आनुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण और दुःस्वरका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा हीन होता है। रतिका नियमसे बन्ध करता है जो उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी वन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे तं तु० । एवं रदीए ।
१५३. णिरयायु० उ० बं० पंचणा०-णवदंसणा०-असादा०-मिच्छ०-सोलसक०पंचणोक०-णिरयगदिअहावीस०-णीचा-पंचंत० णि० अणंत०हीणं० ।
१५४. तिरिक्वायु० उ० बं० पंचणा०-णवदंसणा०-मिच्छ०--सोलसक०-भयदु०-तिरिक्व०-पंचिंदि० - ओरालि०-तेजा०-क० - समचदु०-ओरालि०अंगो० - वज्जरि०पसत्थापसत्थ०४-तिरिक्रवाणु० -- अगु०४-पसत्थवि० - तस४- सुभग-सुस्सर--आदेंणिमि०-णीचा०-पंचंत० णि. अणंत०ही० । सादासाद०-इत्थि०-पुरिस०-हस्स-रदिअरदि-सोग-उज्जो०-थिराथिर-सुभासुभ-जस०-अजस० सिया० अणंतगुणही० । एवं मणुसायु' । णवरि उच्चा० णि० अणंतगु० ।
१५५. देवायु० उ० बं० पंचणा०-छदंसणा०-सादा०-चदुसंज०-पुरिस०-हस्सरदि-भय-दु०-देवगदिसत्तहावीसं--उच्चा०--पंचंत० णि० अणंतगुणहीणं० । आहारदु०तित्थय० सिया० अणंतगुणहीणं० ।
१५६. णिरयगदि उ० वं० पंचणा०-णवदसणा०-असादा०-मिच्छ०-सोलसक०वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। इसी प्रकार रतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
१५३. नरकायुके उत्कृष्ट अनुभागका ‘बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, नरकगति आदि अट्ठाईस प्रकृतियाँ, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणे हीन अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है।
१५४. तिर्यञ्चायुके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, पञ्चन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, औदारिक प्रांगोपांग, वज्रर्षभनाराचसंहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, उद्योत, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यश:कीर्ति
और अयशःकीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। इसी प्रकार मनुष्यायुकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि उच्चगोत्रका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है।
१५५. देवायुके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवगति आदि सत्ताईस या अट्ठाईस प्रकृतियाँ, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। आहारकद्विक और तीर्थङ्करका कदाचित् बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है।
१५६. नरकगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शना१. ता. श्रा० प्रत्योः मणुसाणु० इति पाठः ।
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बंधसणिया सपरूवणा
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पंचणोक० णीचा ०- पंचत० णि० । तं तु० छट्ठाणपदिदं । णामपसत्थाणं णिय० अनंतगुणहीणं । णामअप्पसत्थाणं णाणावरणभंगो । एवं णिरयाणु० । एवं तिरिक्ख ०तिरिक्खाणु० । णाम० सत्थाणभंगो |
१५७, मणुस ० - मणुसाणु० उ० बं० पंचणा०छदंसणा-सादावे ० - बारसक०पंचणोक ० -- उच्चा०-- पंचंत० णि० अनंतगुणहीणं० । णाम० सत्थाणभंगो० । एवं मणुसगदिपंचगस्स ।
१५८. देवगदि० उ० बं० पंचणा० चदुदंसणा०--सादा० - चदुसंज० - पंचणोक०उच्चा० - पंचत० णि० अनंतगुणहीणं० । णाम० सत्थाणभंगो । एवं देवगदिसंजुत्ताणं पसत्थारणं णामारणं ।
2
१५६. बेई० - तेइंदि० - चदुरिं० उ० वं० पंचणा०- णवदंसणा असादा०-मिच्छ०सोलसक० - पंचणोक० - णीचा ०- पंचतं० णिय० अांत०ही० । णाम० सत्थाणभंगो । गोद० उ० बं० पंचणा०-- णवदंसणा०- असादा०-मिच्छ० -- सोलसक० --चदुणोक०णीचा० - पंचत० णि० अत० ही ० । इत्थि० - कुंस० सिया० अांत ० ही ० । णाम० वरण, असातावेदनीय, मिध्यात्व, सोलह कपाय, पाँच नोकपाय, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियम से बन्ध करता है । किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है । नामकर्मकी प्रशस्त प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। नामकर्मकी प्रशस्त प्रकृतियोंका भङ्ग ज्ञानावरण के समान है। इसी प्रकार
त्यापूर्वी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार तिर्यञ्चगति और तिर्यचत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । किन्तु यहाँ नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है ।
१५७. मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, चारह कपाय, पाँच नोकषाय, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। नामकर्मकी प्रकृतियों का भंग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार मनुष्यगतिपञ्चककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
१५८. देवगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, चार संज्वलन, पाँच नोकपाय, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है । नामकर्मका भंग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है । इसी प्रकार देवगतिसंयुक्त प्रशस्त नामकर्मकी प्रकृतियों की मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । १५६. द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति और चतुरिन्द्रिय जातिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिध्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। नामकर्मका भंग स्वस्थान सन्निकर्ष के समान है । न्यग्रोधसंस्थानके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिध्यात्व, सोलह कपाय, चार नोकपाय, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट
१. श्र० प्रतौ० णि० पंचंत० इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे
सत्याणभंगो। एवं सादिः । एवं खुज०-वामण । णवरिणqस० णियमा अणंत०ही। चदुसंघ० चदुसंठाणभंगो। असंप० णाणावरणभंगो हेहा उवरि । णाम० सत्थाणभंगो। एवं एइंदि०-थावर० ।
१६०. आदाव० उ० बं०' पंचणा०-णवदंसणा-मिच्छ०-सोलसक०-णqस०भय-दु०-णीचा०-पंचंत० णि० अणंतगुणही। सादासाद०-चदुणोक० सिया० अणंत०ही। णाम० सत्थाणभंगो ।
१६१. उज्जो० उ० बं० पंचणा०-णवदंसणा०-सादावे-मिच्छ०--सोलसक०पुरिस०-हस्स-रदि-भय-दु०-णीचा०-पंचंत० णिय० अणंत ही० । णाम सत्थाणभंगो ।
१६२. अप्पसत्थवि०-दुस्सर० उ० बं० हेहा उवरि णिरयगदिभंगो। णाम० सत्थाणभंगो।
१६३. सुहुम०-अपज्जत्त--साधार० उ० बं० पंचणा०--णवदंसणा०-असादी०
अनन्तगुणा हीन होता है। स्त्रीवेद और नपुसकवेदका कदाचित् बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। नामकर्मका भंग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार स्वातिसंस्थानकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार कुब्जक और वामन संस्थानकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यह नपुंसकवेदका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। चार संहननका भंग चार संस्थानके समान है। असम्प्राप्तासृपाटिका संहननका भंग नामकर्मसे पहलेकी और आगेकी प्रकृतियोंकी अपेक्षा ज्ञानावरणके समान है। नामकमेका भंग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार अर्थात् असप्राप्तामृपाटिका संहननके समान एकेन्द्रिय जाति और स्थावर प्रकृतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
१६०. आतप प्रकृतिके उत्कृष्ट अनुभागका. बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, भय, जुगुप्सा, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। सातावेदनीय, असातावेदनीय और चार नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है । नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है।
५६१. उद्योतके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है।
१६२. अप्रशस्त विहायोगति और दुःस्वरके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीवके नामकर्मसे पूर्वकी और आगेकी प्रकृतियोंका भङ्ग नरकगतिके समान है। नामकर्मका भंग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है।
१६३. सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला, जीव पाँच
१. श्रा० प्रती एइंदि० श्रादाव थावर उ० बं० इति पाठः। २. ता. प्रतौ पंचणा० असादा इति पाठः।
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बंधसण्णियासपरूवणा मिच्छ०--सोलसक०--पंचणोक०-णीचा०--पंचंत० णिय० अणंत०ही० । णाम० सत्थाणभंगो।
१६४. णिरएमआभिणिबो० उ० बं० चदुणा०-णवदसणा०-असादा-मिच्छ०सोलसक०-पंचणोक०-तिरिक्ख०--हुंड०-असंप०--अप्पसत्थ०४-तिरिक्खाणु०-उपघा०अप्पसत्यवि०-अथिरादिछ०-णीचा०-पंचंत० णि । तं तु० । पंचिंदि०-ओरालि०तेजा.-क०-ओरालि०अंगो०-पसत्थ०४-अगु०३-तस०४-णिमि० णि. अणंत०ही। उज्जो० सिया० अणंत०ही । एवं णाणावरणादि० तं तु. पदिदाओ ताओ अण्णमण्णस्स । तं तु०।
१६५. सादा० उ० बं० पंचणा-छदंसणा०-बारसक०-पंचणोक०-अप्पसत्थ०४उप०-पंचंत० णि० अणंत०ही० । मणुस-पंचिंदि०-तिण्णिसरीर-समचदु०-ओरालि०अंगो० - वज्जरि० - पसत्थ०४-मणुसाणु० - अगु०३-पसत्यवि० - तस०४-थिरादिछ०णिमि०-उच्चा०णि । तं तु० । तित्थ० सिया० । तं तु० । एवं सादभंगो तं तु० पदिदाणं० । ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकपाय, नीचगोत्र
और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। नामकर्मका भंग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है।
१६४. नारकियोंमें आभिनियोधिक ज्ञानावरणके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह, कषाय, पाँच नोकषाय, तिर्यश्चगति. हुण्ड संस्थान, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, अस्थिर आदि छह, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। पश्चन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मणशरीर, औदारिक आंगोपांग, प्रशस्त वर्ण चतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, सचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। इसी प्रकार तं तु-पतित ज्ञानावरणादि जितनी प्रकृतियाँ हैं, उनका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए । किन्तु आभिनिबोधिक ज्ञानावरण को मुख्य करके जिस प्रकार सन्निकर्ष कहा है,उसी प्रकार तं तु पतित शेष सब प्रकृतियोंकी मुख्यतासे कहना चाहिए।
१६५. मातावेदनीयके वक अनभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण. लह दर्शनावरण, बारह कषाय, पाँच नोकषाय, अप्रशस्त वर्ण चतुष्क, उपधात और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। मनुष्यगति, पञ्चन्द्रियजाति, तीन शरीर, समचतुरस्र संस्थान, औदारिक आंगोपांग, वज्रर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त वर्ण चतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण और उच्चगोत्रका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है, तो उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे १६६. सेसं ओघ । णवरि तिरिक्खायु० उ० बं० मिच्छ० णि. अणंतगु०ही। एवं धुवियाणं० । सादासाद० सिया० अणंत०ही । एवं परियत्तमाणियाओ सव्वाओ सादभंगो। मणुसाउ० उ० बं० पंचणा०-छदसणा०-बारसक०-पुरिस०-भय-दु०-मणुस०पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा०-क०-समचदु०-ओरालि.अंगों'०-वज्जरि०-पसत्थापसत्थ०४मणुसाणु०--अगु०४-पसत्थ०--तस०४-सुभग-सुस्सर-आदे-णिमि०-उच्चा०-पंचंत. णि० अणंत०ही० । सादासाद०-चदुणोक०-थिरादितिण्णियुग०-तित्थ० सिया० अणंत०ही० । चदुसंठा०-चदुसंघ०-उज्जो० ओघं० । एवं बसु पुढवीसु । णवरि उज्जो० तिरिक्वायुभंगो । सत्तमाए पुरिस०-हस्स-रदि-[चदु-] संठा-पंचसंघ० उ० बं० तिरिक्खगदी धुवं कादव्वं । सेसं णिरयोघं ।
१६७. तिरिक्खेसु आभिणिबोधि० उ० बं० चदुणा०-णवदंसणा०-असादा०. मिच्छ०-सोलसक०-पंचणोक०--णिरयग०-हुंड०--अप्पसत्थ०४-णिरयाणु०-उप०-अप्पसत्य-अथिरादिछ०-णीचा०-पंचंत० णि । तं तु० । पंचिंदि०-तिण्णिसरीर-वेउव्वि०अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। इसी प्रकार तं तु. पतित जितनी प्रकृतियाँ हैं,उनका सातावेदनीयके समान भंग जानना चाहिए।
१६६. शेष प्रकृतियोंका भंग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्चायुके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव मिथ्यात्वका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। इसी प्रकार ध्रुव बन्धवाली प्रकृतियों का मानना चाहिए । सातावेदनीय और असातावेदनीयका कदाचित् बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। परिवर्तमान जितनी प्रकृतियाँ हैं,उनका इसी प्रकार सातावेदनीयके समान भंग है । मनुष्यायुके उत्कृष्ट अनुभाग का बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पञ्चन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्र संस्थान,
औदारिक आंगोपांग, वज्रर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार नोकषाय, स्थिर आदि तीन युगल और तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। चार संस्थान, चार संहनन और
तका भंग ओघके समान है। इसी प्रकार प्रारम्भकी छह पृथिवियोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि उद्योतका भंग तिर्यञ्चायुके समान है। सातवीं पृथिवीमें पुरुषवेद, हास्य, रति, चार संस्थान और पाँच संहननके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगतिका ध्रुव बन्ध करता है अर्थात् नियमसे बन्ध करता है। शेष सब प्ररूपणा सामान्य नारकियोंके समान है।
१६७. तिर्यञ्चोंमें आभिनिबोधिक ज्ञानावरणके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, नौ दशनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, नरकगति, हुण्ड संस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, नरकगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, अस्थिर आदि छह, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अनुत्कृष्ट अनु
१. श्रा० प्रती तेजाक० ओरालि० अंगो० इति पाठः । २. ता. प्रतौ तिषिणयुग० सिया इति पाठः।
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बंधसणियासपरूवणा
अंगो०-पसत्थ०४-अगु०३-तस४-णिमि० णि०. अणंत०ही० । एत्थ एदाओ तं तु. पदिदाओ अण्णमण्णस्स आभिणिभंगो ।
१६८. साद० उ० बं० पंचणा-छदंसणा०-अढक०-पंचणोक०-अप्पसत्य०४उप०--पंचंत० णि. अणंतगुणही। देवगदिसत्तावीस-उच्चा० णि । तं तु०। एदाओ सादभंगो। चदुणोक० चदुआयु० ओघं ।
१६६. तिरिक्वग० उ० बं० पंचणा०-णवदंसणा०-असादा०-मिच्छ०-सोलसक०-पंचणोक०-णीचा०-पंचंत णि० अणंत ही० । णाम० सत्थाणभंगो। एवं चदुजादिअसंप०-तिरिक्रवाणु०-थावरादि४०।
१७०. मणुसग० उ० बं० पंचणा०--णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक०-पुरिस०भय-दु०-उच्चा०-पंचत० णि० अणंतगु०ही० । सादासाद०-चदुणोक० सिया० अणंत०ही० । णाम० सत्थाणभंगो । एवं मणुसगदिपंच० । चदुसंठा०--चदुसंघ०--आदाव०
ओघ । उज्जो० पढमपुढविभंगो। अथवा बादर-तेउ०-वाउ० उक्कस्सयं करेदि । सव्वभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। पञ्चन्द्रिय जाति, तीन शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, सचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। यहाँ ये तं तु पतित जितनी प्रकृतियों हैं, उनका परस्पर आभिनिबोधिक ज्ञानावरणके समान भङ्ग है।
१६८. सातावेदनीयके उत्कुष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, आठ कषाय, पाँच नोकषाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। देवगति आदि सत्ताईस प्रकृतियाँ
और उच्चगोत्रका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। यहाँ देवगति आदि प्रकृतियोंका भंग सातावेदनीयके समान है। चार नोकषाय और चार आयुका भंग ओघके समान है।
१६६. तिर्यश्चगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। नामकर्मका भंग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार चार जाति, असम्प्राप्तामृपाटिकासंहनन, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और स्थावर आदि चारकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। . १७०. मनुष्यगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। सातावेदनीय, असातावेदनीय
और चार नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है । नामकर्मका भंग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार मनुष्यगति पञ्चककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । चार संस्थान, चार संहनन और आतपका भंग ओघके समान है। उद्योतका भंग पहली पृथिवीके समान है। अथवा बादर अग्निकायिक और बादर वायुकायिक जीव उत्कृष्ट करते हैं।
१. ता० प्रती आदाधु• ओघं, श्रा० प्रती आदाउजो अोघं इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे विसुद्धो मूलोघो । एवं पंचिंदियतिरिक्ख०३ ।
१७१. पंचिं०तिरि०अपज्जत्तगेसु आभिणिबो० उ० बं० चदुणा०-णवदसणा०असादा०-मिच्छ०-सोलसक०-पंचणोक०-तिरिक्व०-एइंदि०-हुंड०-अप्पसत्थ०४-तिरिक्खाणु० - उप० -थावरादि४--अथिरादिपंच०-णीचा० - पंचंत० णि० । तं तु । ओरालि०--तेजा.-क०--पसत्थ०४-अगु०--णिमि० णि. अणंत ही० । एवमेदाओ अण्णोण्णस्स तं तु०।
१७२. सादा० उ० बं० पंचणा०-णवदसणा०-मिच्छ०-सोलसक०-पंचणोक०अप्पसत्थ०४-उप०-पंचंत० णि० अणंतगुणही० । मणुसग०-पंबिंदि०-ओरालि०-तेजा०क०-समचदु०-ओरालि० अंगो०-वज्जरि०-पसत्थ०४-मणुसाणु०--अगु०३-पसत्थवि०तस०४-थिरादिछ०-णिमि०-उच्चा० णि । तं तु० । एवमेदाओ ऍक्कमेकस्स । तं तु० ।
१७३. इत्थि० उ. बं० पंचणा०-णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक०-भय-दु०पंचिंदि०-ओरालि० - तेजा. - क..ओरालि.अंगो० - पसत्थापसत्थ०४-अप्पसत्थ०यदि सर्व विशुद्ध तिर्यश्च करते हैं, तो मूलोघके समान भंग है। इसी प्रकार अर्थात् सामान्य तिर्यश्चोंके समान पञ्चन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकके जानना चाहिए।
१७१. पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें आभिनिबोधिक ज्ञानावरणके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, तिर्यश्चगति, एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, स्थावर आदि चार, अस्थिर आदि पाँच, नीच गोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है ।
औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है । यहाँ तं तु-पतित जितनी प्रकृतियों हैं,उनकी अपेक्षा परस्पर इसी प्रकार सन्निकर्ष जानना चाहिए।
१७२. सातावेदनीयके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। मनुष्यगति, पञ्चन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण और उच्चगोत्रका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। याद अनुस्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। यहाँ तं तु-पतित जितनी प्रकृतियाँ हैं,उनकी अपेक्षा परस्पर जैसा सातावेदनीयकी अपेक्षा सन्निकर्ष कहा है,उसी प्रकार सन्निकर्ष जानना चाहिए।
१७३. स्त्रीवेदके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति,
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बंधसण्णियासपरूवणा तस०४-दूभग--दुस्सर--अणादें--णिमि०--णीचा०--पंचंत० णिय. अणंतगुणहीणं० । सादासाद०--चदुणोक०-दोगदि-तिण्णिसंठा०-तिण्णिसंघ०-दोआणु०-उज्जो०-थिरादितिण्णियुग० सिया० अणंतगुणहीणं० । एवं पुरिस० । णवरि पंचसंठा-पंचसंघ० ।
१७४. हस्स० उ० बं० पंचणा०-णवदंसणा०-असादा०-मिच्छ०-सोलसक०णस०-भय-दु-तिरिक्ख०-एइंदि०-ओरालि०-तेजा.-क-हुंड० - पसत्यापसत्य०४तिरिक्वाणु०-अगु०-उप०-थावरादि०४-थिरादिपंच०-णिमि०-णीचा०-पंचंत. णि. अणंतगुणहीणं० । रदी णि० । तं तु० । एवं रदीए । दोआउँ० णिरयभंगो।
१७५. बेइं०-तेइं०-चदुरिं० उ० बं० पंचणा-णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक०णस०-भय-दु०-णीचा०-पंचंत० णि. अणंतगुणही । सादासाद०-चदुणोक० सिया० अणंतगुणहीणं० । णाम० सत्थाणभंगो।
१७६. चदुसंठा० उ० वं० पंचणा०-णवदंसणा०-असादा-मिच्छ०-सोलसक०भय-दु०-णीचा०--पंचंत० णि० अणंतगुणहीणं० । दोवेद०-चदुणोक० सिया० अणंतअसचतुष्क, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार नोकषाय, दो गति, तीन संस्थान, तीन संहनन, दो आनुपूर्वी, उद्योत और स्थिर आदि तीन युगलका कदाचित् बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है । इसी प्रकार पुरुषवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष कहना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यहाँ तीन संस्थान और तीन संहननके स्थानमें पाँच संस्थान और पाँच संहनन कहने चाहिए।
१७४. हास्य प्रकृतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसक वेद, भय, जुगुप्सा, तिर्यश्चगति, एकोन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मणशरीर. हण्ड संस्थान, प्रशस्त वर्णचतष्क. अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, स्थावर आदि चार, स्थिर आदि पाँच, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। रतिका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है
और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। इसी प्रकार रति की मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। दो आयुओंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष नारकियोंके समान है।
१७५. द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति और चतुरिन्द्रियजातिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, भय, जुगुप्सा, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। सातावेदनीय, असातावेदनीय और चार नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है । नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है।
१७६. चार संस्थानके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, भय, जुगुप्सा, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। दो वेद और
१. श्रा० प्रतौ सोलसक० भयतु० इति पाठः। २. श्रा० प्रतौ दोश्राणु० इति पाठः । ३. ता० प्रतौ णवदंसणा• मिच्छ० इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे गुणहीणं० । णाम० सत्थाणभंगो। णवरि णग्गोद०-सांदि० उक्कस्सं बंधतो दोवेद० सिया० अणंतगुणहीणं० । खुज०-वामण. णबुंस० णि० अणंतगुणहीणं०। एवं चदुसंघ०। असंपत्त० बेइंदियभंगों।
१७७. अप्पसत्थ०-दुस्सर० उ० बं० पंचणा०-णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक०णस०-भय-दु०-णीचा०--पंचंत. णि. अणंतगुणहीणं० । सादासाद०-चदुणोक. सिया० अणंतगुणहीणं । णाम० सत्थाणभंगो। आदाउज्जो० पंचिंदियतिरिक्खभंगो। एवं सव्वअपज्जत्त-सव्वविगलिंदियाणं पुढ०-आउ०-वणप्फदिपत्तेय-णियोदाणं च । तेउ०-वाऊणं पि तं चेव । णवरि मणुसायु०-मणुस०-मणुसाणु०-उच्चा० वज० ।
१७८. मणुसेसु खविगाणं ओघं । सेसं पंचिंदियतिरिक्वभंगो। एवं मणुसपज्जत्तमणुसिणीसु ।
१७६. देवेसु आभिणिबो० उ० बं० चदुणा-णवदंसणा०-असादा०-मिच्छ०सोलसक०-पंचणोक०-तिरिक्ख०-हुंड०-अप्पसत्थ०४-तिरिक्वाणु०--उप०-अथिरादि
चार नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। नार भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इतनी विशेषता है कि न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थान और स्वाति संस्थानके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव दो वेदका कदाचित् बन्ध करता है जो अनत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। तथा कुब्जक संस्थान और वामन संस्थानके उत्कृष्ट अनुभाग का बन्ध करनेवाला जीव नपुंसकवेदका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता
ती प्रकार चार संहननोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। असम्प्राप्तामृपादिकासंहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष द्वीन्द्रियजातिके समान है।
१७७, अप्रशस्त विहायोगति और दुःस्वरके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, भय, जुगुप्सा, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। सातावेदनीय, असातावेदनीय और चार नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। आतप और उद्योतकी मुख्यतासे सन्निकर्ष पश्चन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है। इसी प्रकार अर्थात् पञ्चोन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान सब अपर्याप्तक, सब विकलेन्द्रिय, पृथिवीकायिक, जलकायिक, वनस्पति प्रत्येक और निगोद जीवोंके जानना चाहिए। अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंके भी यही सन्निकर्ष है। इतनी विशेषता है कि इनके मनुष्यायु, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानपूर्वी और उच्चगोत्रको छोड़कर सन्निकर्ष कहना चाहिए।
१७८. मनुष्योंमें क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। शेष भङ्ग पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है । इसी प्रकार मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यिनियोंके जानना चाहिए ।
१७६. देवोंमें आभिनिबोधिक ज्ञानावरणके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, तिर्यञ्चगति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, अस्थिर आदि पाँच, नीचगोत्र
१. श्रा० प्रतौ चदुसंघ० अप्पसत्थ० बेइंदियभंगो इति पाठः। २. श्रा० प्रतौ सोलसक० भयदु० इति पाठः।
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वंधसण्णियासपरूवणा पंच-णीचा०-पंचंत० णि । तं तु० । एइंदि०-असंप०-अप्पसत्थवि०-थावर०-दुस्सर० सिया०।तं तु०। पंचिंदि०-ओरालि०अंगो०-आदाउज्जो०-तस० सिया० अणंतगुणहीणं०।
ओरालि०-तेजा०-क०--पसत्थ०४-अगु०३-बादर--पज्जत्त-पत्ते ०-णिमि० णि. अणंतगुणहीणं । एवं तं तु० पदिदाणं । साददंडओ इत्थि०-पुरिस० णिरयोघमंगो।।
१८०. हस्स० उ० ओघं । णवरि दोगदि-दोजादि-पंचसंठा-ओरालि०अंगो०पंचसंघ०-दोआणु०-आदाउज्जो०-अप्पत्थवि०-तस०-थावर०-दुस्सर सिया० अणंतगुणहीणं० । इत्थि०-णवंस० सिया० अणंतगुणहीणं० । रदि० णि । तं तु० । एवं रदीए । एइंदि०-थावर० ओघं । चदुसंठा०-चदुसंघ. ओघं ।
१८१. असंप० उ० बं० हेहा उवरि तिरिक्खभंगो। णाम० सत्थाणभंगो। सेसं णिरयभंगो।
१८२. भवण०-वाणवें०-जोदिसि०-सोधम्मी० आभिणिबोधि० उ० बं० चदुणा०
और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। एकेन्द्रियजाति, असम्प्राप्तामृपाटिकासंहनन, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर और दुःस्वरका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट अनुभाग का भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है । पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, आतप, उद्योत और त्रसका कदाचित् वन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, बादर, पर्याप्त प्रत्येक और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। इसी प्रकार तं तु पतित प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । सातावेदनीय दण्डक, स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष सामान्य नारकियोंके समान है।
१८०. हास्य प्रकृतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीवका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि दो गति, दो जाति, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, पाँच संहनन, दो आनुपूर्वी, भातप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स, स्थावर और दुःस्वरका कदाचित् वन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका कदाचित् बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगणा हीन होता है। रतिका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु बह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। इसी प्रकार रतिकी मुख्यतासे सन्निकर्प जानना चाहिए। एकेन्द्रियजाति और स्थावरकी मुख्यतासे सन्निकर्ष ओषके समान है। चार संस्थान और चार संड्ननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष ओघके समान है ।
१८१. असम्प्राप्तास्मृपाटिकासंहननके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीवके नामकर्मसे पूर्वकी और बादकी प्रकृतियोंका भङ्ग तिर्यञ्चोंके समान है। नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। शेष भङ्ग नारकियोंके समान है।
१८२. भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी तथा सौधर्म और ऐशान कल्पके देवोंमें आभिनिबोधिक ज्ञानावरणके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण,
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे णवदंसणा०-असादा०-मिच्छ०--सोलसक०-पंचणोक०-तिरिक्ख०-एइंदि०-हुंड-अप्पसत्थ०४-तिरिक्वाणु० - उप०-थावर० - अथिरादिपंच० - णीचा०- पंचंत० । तं तु० ।
ओरालि०-तेजा०-क०-पसत्थ०४-अगु०३-बादर-पजत्त-पत्ते-णिमि० णिय० अणंत०हीणं० । आदाउज्जो० सिया० अणंत०हीणं०। एवमेदाओ तं तु. पदिदाओ ऍकमकस्स । तं तु० ।
१८३. असंप० उ० वं० हेहा उवरि तिरिक्खगदिभंगो। णवरि णि० अर्णतगुणहीणं० । [णाम० सत्थाणभंगो । णवरि] अप्पस०-दुस्सर० णिय० । तं तु० । सेसं देवोघं ।
१८४. सणक्कुमार याव सहस्सार त्ति पढमपुढविभंगो । आणद याव णवगेवज्जा त्ति आभिणिबो० उ० बं० चदुणा०-णवदंसणा०-असादा-मिच्छ०-सोलसक०-पंचणोक०हुंड०-असंप० अप्पसत्थ०४-उप०अप्पसत्थवि०-अथिरादिछ०-णीचा०-पंचंत० णि० । तं तु० । मणुस०-पंचिंदि०-तिण्णिसरीर-ओरालिअंगो०-पसत्थ०४-मणुसाणु०-अगु०३पसत्थवि०-तस०४-णिमि० णि० अणंतगुणही० । एवमेदाओ ऍक्कमेकॅस्स तं तु । असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, तिर्यश्चगति, एकेन्द्रिय जाति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी, उपघात, स्थावर, अस्थिर आदि पाँच, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। औदारिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है । आतप और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। इसी प्रकार यहाँ जितनी तं तु पतित प्रकृतियाँ हैं, उनकी मुख्यतासे परस्पर उसी प्रकार सन्निकर्ष जानना चाहिए,जिस प्रकार आभिनिबोधिक ज्ञानावरणकी मुख्यतासे कहा है।
१८३. असम्प्राप्तामृपाटिका संहननके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीवके नामकर्मसे पूर्वकी और आगेकी प्रकृतियोंका भङ्ग तिर्यञ्चगतिके समान है। इतनी विशेषता है कि नियमसे अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन बन्ध करता है। नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है, किन्तु इतनी विशेषता है कि अप्रशस्त विहायोगति और दुःस्वरका नियमसे बन्ध करता है। किन्त वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अनुस्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है।
१८४. सनत्कुमारसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देवोंमें पहली पृथिवीके समान भङ्ग है। आनत कल्पसे लेकर नौ प्रैवेयक तकके देवोंमें आभिनिबोधिक ज्ञानावरणके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, हुण्डसंस्थान, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, अस्थिर आदि छह, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। मनुष्यगति, पश्चन्द्रिय जाति, तीन शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो
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बंधसण्णियासपरूवणा
८१ सेसं सहस्सारभंगो । णवरि मणुसगदि [२] धुवं कादव्वं ।
१८५. अणुदिस याव सव्वह ति आभिणिवो० उ० बं० चदुणा०--छदसणाअसादा०-बारसक०-पंचणोक-अप्पसत्थ०४-उप०-अथिर-अमुभ-अजस०-पंचंत णि| तं तु० । मणुस०-पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा०-क०-समचदु०-ओरालि०अंगो०-वज्जरि०पसत्थ०४-मणुसाणु०-अगु०३-पसत्थवि०-तस०४-सुभग०-सुस्सर०--आदें-णिमि०उच्चा० णि. अणंतगुणही । तित्थ० सिया० अर्णतगुणही० । एवं आभिणिभंगो अप्पसत्थाणं सव्वाणं । सादादीणं आणदभंगो।
१८६. एइंदिएमु साद० उ० ब० पंचणाo-णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक०पंचणोक-अप्पसत्थ०४-उप०-पंचंत णि० अणंत०हीणं० । तिरिक्ख०-तिरिक्वाणु०णीचा. सिया० अणंत०हीणं० । मणुस०-मणुसाणु०-उज्जो०-उच्चा० सिया० । तं तु० । पंचिंदियादिबंधगा णिय० बं० । तं तु० । एवं तं तु. पदिदाणं सव्वाणं । सेसाणं अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। इसी प्रकार यहाँ तं तु. पतित जितनी प्रकृतियाँ हैं, उनकी मुख्यतासे सन्निकर्ष आभिनिबोधिक ज्ञानावरणकी मुख्यतासे जैसा कहा है, वैसा जानना चाहिए। शेष प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष सहस्रार कल्पके समान है। इतनी विशेषता है कि मनुष्यगति द्विकको ध्रुव करना चाहिए।
१८५. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें आभिनिबोधिक ज्ञानावरणके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, असाता वेदनीय, बारह कषाय, पाँच नोकषाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, अस्थिर, अशुभ, अयश कीर्ति और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। मनुष्यगति, पञ्चन्द्रिय जाति, औदारिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त वणेचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण
और उच्चगोत्रका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। इसी प्रकार सब अप्रशस्त प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष आभिनिबोधिक ज्ञानावरणकी मुख्यतासे कहे गये सन्निकर्षके समान जानना चाहिए। तथा सातादिककी मुख्यतासे सन्निकर्ष, आनत कल्पमें इन प्रकृतियोंकी मुख्यतासे जिस प्रकार सन्निकर्ष कहा है, उस प्रकारका है।
१८६. एकेन्द्रियोंमें सातावेदनीयके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकपाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। तिर्यञ्चगति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है । मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, उद्योत और उच्चगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। पञ्चन्द्रिय जाति आदिका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,
१. ता. श्रा० प्रत्योः णिमि.णि उच्चा० इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे अप्पज्जत्तभंगो।
१८७. पंचिंदि० - तस०२-पंचमण० - पंचवचि० - काययोगी० ओघो । ओरालियका० मणुसभंगो।ओरालियमि०आभिणि दंडओ पंचिं०तिरि०अपज्ज० पढमदंडओ। साददंडओ तिरिक्खोघो । इत्थि०-पुरिस०-हस्स-रदि-दोआउ०-तिण्णिजादि-चदुसंठा०चदुसंघ०-आदाउज्जो०-पसत्थवि०-दुस्सर० अपज्जत्तभंगो। मणुसग० उ० बं० पंचणाणवदंसणा०--मिच्छ०-सोलसक०-पुरिस०-भय-दु०-उच्चा०-पंचंत० णि० अणंतगु०ही० । दोवेदणी०-चदुणोक० सिया० अणंतगु ०ही० । णाम० सत्थाणभंगो।।
१८८. वेउव्वियका०-वेउव्वियमि० देवोघं । उज्जोवं ओघं । आहार०-आहारमि० आभिणिबो० उ. बं० चदुणा०--छदंसणा०--असादावे०--चदुसंज-पंचणोक०-- अप्पसत्थ०४-उप०-अथिर--असुभ०--अजस०-पंचंत० णि । तं तु० ! पसत्थाणं धुविगाणं णि० अणंतगुणही। तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। इसी प्रकार तं तु. पतित जितनी प्रकृतियाँ हैं, उन सबकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जैसा सातावेदनीयकी मुख्यतासे कहा है, वैसा जानना चाहिए । शेष प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष अपर्याप्तक जीवोंके समान है। अर्थात् पहले जिस प्रकार अपयाप्तक जीवोंके सन्निकर्ष कह आये हैं, उस प्रकार यहाँ शेष प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
१८७. पञ्चन्द्रियद्विक, त्रसद्विक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी और काययोगी जीवोंका भङ्ग ओघके समान है। औदारिककाययोगी जीवोंमें मनुष्योंके समान भङ्ग है । औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें आभिनिबोधिक ज्ञानावरण आदि प्रथम दण्डककी मुख्यतासे सन्निकर्ष पञ्च. न्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके प्रथम दण्डकके समान है। सातावेदनीयदण्डककी मुख्यतासे सन्निकर्ष सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, दो आयु, तीन जाति, चार संस्थान, चार संहनन, आतप, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति और दुःस्वरकी मुख्यतासे सन्निकर्ष अपर्याप्तकोंके समान है । मनुष्यगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सालइ कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। दो वेदनीय और चार नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा होन होता है। नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है।
१८८. वैक्रियिक काययोगी और वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें सब प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष सामान्य देवोंके समान है। उद्योत प्रकृतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष ओघके समान है। आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें आभिनिबोधिकज्ञानावरणके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, असातावेदनीय, चार संज्वलन, पाँच नोकषाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, अस्थिर, अशुभ, अयशःकीर्ति और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। प्रशस्त ध्रुव प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है।
१. ता. श्रा० प्रत्योः ओरालियमि० श्राभिणिबो० उ० ब०, एवं श्राभिणिदंडो इति पाठः । २. श्रा० प्रतौ -दंडोतिरिक्खोघो इति पाठः ।
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बंधसण्णियासपरूषणा १८६. सादा० उ० बं० अप्पसत्थाणं णि अणंतगु० । देवगदिपसत्यहावीसं उच्चा० णि । तं तु० । तित्थकरं सिया । तं तु०। एवं पसत्थाणं ऍक्कमक्कस्स तं तु० ।
१६०. हस्स० उ० बं० धुरियाणं अप्पसत्थाणं असाद-अथिर-असुभ-अजस० णि. अणंतगु०ही. । सेसाणं पि णि० अणंतगुण ही। रदि० णि । तं तु०। एवं रदीए।
१६१. कम्मइगका० आभिणिबो० उ० बं० चदुणा०-णवदंसणा०-असादा०. मिच्छ० - सोलसक०-पंचणोक-तिरिक्ख० - हुंड ०-अप्पसत्य०४-तिरिक्वाणु० - उप०अथिरादिपंच०-णीचा०-पंचत० णि । तं तु० । एइंदि०-असंप०-अप्पसत्यवि०-थावरादि०४-दुस्सर० सिया०। तं तु । पंचिं०-ओरालि.अंगो०-पर-उस्सा०-आदाउज्जो०-तस०४ सिया० अणंतगु०ही० । ओरालि०-तेजा.-क०-पसत्य०४-अगु०
१८६. सातावेदनीयके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव अप्रशस्त प्रकृतियों का नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। देवगति आदि प्रशस्त अट्ठाईस प्रकृतियाँ और उच्चगोत्रका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है,तो वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। इसी प्रकार प्रशस्त प्रकृतियोंकी मुख्यतासे परस्पर सन्निकर्ष कहना चाहिए जो सातावेदनीयकी मुख्यतासे जैसा कहा है, उसी प्रकारका है।
१६०. हास्य प्रकृतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव अप्रशस्त ध्रुव प्रकृतियाँ, असातावेदनीय, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्तिका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। शेष प्रकृतियोंका भी नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। रतिका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है
और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। इसी प्रकार अर्थात् हास्यके समान रतिकी मुख्यतासे भी सन्निकर्ष जानना चाहिए।
१६१. कार्मणकाययोगी जीवोंमें आभिनिबोधिक ज्ञानावरणके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, तिर्यञ्चगति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, अस्थिर आदि पाँच, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। एकेन्द्रिय जाति, असम्प्राप्तासृपाटिकासंहनन, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर आदि चार और दुःस्वरका कदाचित बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है,तो वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। पञ्चन्द्रियजाति, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत और त्रसचतुष्कका कदाचित् बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। औदारिक
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महाबंधे अणुभागबंधाहिया रे
णिमि० णि० अनंतगु० ही ० । एवं तं तु० पदिदाओ सव्वाओ ।
१६२. साद० उ० बं० पंचणा ०-छदंसणा०--वारसक० -- अप्पसत्थ०४- उप०पंचत० णि० अनंत ० ही ० । दोगदि- दोसरीर दोअंगो० - वज्जरि०-दोआणु० - तित्थय ० सिया० तं तु ० | पंचिंदि ० - तेजा ० क० समचदु० - पसत्थ०४ - अगु० थिरादिछ० - णिमि० - उच्चा० णि० । तं तु० । एवं तं तु ० पदिदाओ सव्वाओ । इत्थि०पुरिस०-हस्स-रदि- तिणिजादि चदुसंठा ० चदुसंघ० ओघो ।
-पसत्थ०-तस०४
१६३. इत्थवेदेसु आभिणित्रो० उ० बं० चदुणा० णवदंसणा ० - असादा०मिच्छ०- सोलसक० - पंचणोक० - हुंड० - अप्पसत्थ०४- उप० अथिरादिपंच० - णीचा ० - पंचंत० णि० । तं तु० । णिरयग०-तिरिक्ख०- एइंदि० - दोआणु० - अप्पसत्थविं ० थावर- दुस्सर० सिया० तं तु० । पंचिं ० - दोसरीर - वेडव्वि ० अंगो० - आदाउज्जो ० -तस० सिया० अनंतगु०शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। इसी प्रकार तं तु पतित जितनी प्रकृतियाँ हैं, उनकी मुख्यतासे सन्निकर्षं अभिनिबोधिक ज्ञानावरणकी मुख्यतासे कहे गये सन्निकर्षके समान जानना चाहिए ।
१२. सातावेदनीयके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छद दर्शनावरण, बारह कषाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायका नियम से बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है । दो गति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, दो आनुपूर्वी और तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है, तो उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है । पञ्च ेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण और उच्चगोत्रका नियम से बन्ध करता है । किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है | यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है । इसी प्रकार तं तु पतित सव प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए | स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, तीन जाति, चार संस्थान और चार संहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष ओघके समान है ।
१६३. स्त्रीवेदी जीवोंमें आभिनिबोधिक ज्ञानावरणके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिध्यात्व, सोलह कपाय, पाँच नोकषाय, हुण्ड संस्थान, अप्रशस्त वर्ण चार, उपघात, अस्थिर आदि पाँच, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियम से बन्ध करता है । किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है । नरकगति, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय जाति, दो आनुपूर्वी, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर और दुःस्वरका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह
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१. ता० प्रा० प्रत्योः दोश्रा० दुवि० अप्पसत्थवि० इति पाठः । २. आ० प्रतौ सिया • पंचि० इति पाठः ।
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बंधसण्णियासपरूत्रणा
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ही० । तेजा ० क० - पसत्थ०४- अगु०३ - बादर - पज्जत्त- पत्ते ० - णिमि० णि० अनंत०ही० । एवं तं तु ० पदिदाणं अण्णमण्णस्स । तं तु ० । इत्थि० -- पुरिस० - हस्स - रदि-- चदुआउ०मणुसग दिपंच० - सादादिखविगाणं तिण्णिजादि -- चदुसंठा० - चंदुसंघ० मुहुम ० --अपज्ज०साहा • ओघं ।
१६४. णिरय० उक्क० वं० ओघं । एवं णिरयाणु ० - अप्पसत्थवि० दुस्सर० । तिरिक्ख० उ० ० हेट्ठा उवरिं एइंदियसंजुत्ताओ सोधम्मपदमदंडओ ।
१६५. असंप० उ० वं० पंचणा० णवदंसणा ० - असादा०-- मिच्छ० - सोलसक०पंचणोक ० - तिरिक्ख ०३ - ओरालि०- तेजा० क० -हुंड०-ओरालि० अंगो००-पसत्थापसत्थ०४अगु० - उप०-तस०- बादर - पत्ते ० -- अथिरादिपंच ०-- णिमि० णीचा० पंचतं० णि० अनंतगुणही ० | पंचिं ० - पर० - उस्सा० उज्जो०- अप्पसत्थवि ० - पज्जत्तापज्ज० सिया० अनंतगु०ही ० । बेई० सिया० । तं तु०
।
छह स्थान पतित हानिरूप होता है । पञ्चन्द्रिय जाति, दो शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, आतप, उद्योत और का कदाचित् बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है । तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णं चार, अगुरुलघुत्रिक, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। इसी प्रकार तं तु पतित जितनी प्रकृतियाँ हैं, उनकी मुख्यता से परस्पर सन्निकर्ष जिस प्रकार आभिनिबोधिक ज्ञानावरण की मुख्यता से कहा है, उस प्रकार जानना चाहिए। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, चार आयु, मनुष्यगति पञ्चक, सातावेदनीय आदि क्षपक प्रकृतियाँ, तीन जाति, चार संस्थान, चार संहनन, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणकी मुख्यता से सन्निकर्ष ओघ के समान है ।
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१४. नरकगति उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीवके सब प्रकृतियोंका सन्निकर्ष के समान है । इसी प्रकार नरकगत्यानुपूर्वी, अप्रशस्त विहायोगति और दुःस्वरकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । तिर्यञ्चगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीवके नामकर्मसे पूर्वकी और बादकी एकेन्द्रियजाति संयुक्त प्रकृतियोंकी मुख्यता से सन्निकर्ष सौधर्मकल्पके प्रथम quee समान है।
१६५. असम्प्राप्तासृपाटिका संहननके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकपाय, तिर्यञ्चगतित्रिक, दारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, त्रस, बादर, प्रत्येक, अस्थिर आदि पाँच, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा होता है । पच ेन्द्रियजाति, परघात, उच्छ्वास, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, पर्याप्त और अपर्याप्त कदाचित् बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है । द्वीन्द्रियजातिका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनु त्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है।
१. श्रा० प्रतौ० ग्रिमि० णि० पंचंत० इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे १९६. पुरिसेसु ओघो। णवरि उज्जो देवोघं ।
१६७. णवूस० आभिणिबो० उ० बं० चदुणा०-णवदंसणा०-असादा०-मिच्छ०सोलसक०-पंचणोक-०-हुंड ०-अप्पसत्थ०४-उप०-अप्पसत्थवि०-अथिरादिछ०-णीचा०पंचंत० णि । तं तु०। दोगदि-असंप०-दोआणु, सिया० । तं तु० । पंचिं०-तेजा-क०पसत्थ०४-अगु०३-तस०४-णिमि०. णियमा अणंतगु० । दोसरीर-दोअंगो०--उज्जो० सिया० अणंत०ही. । णिरयग० ओघं ।
१६८. तिरिक्व० उ० ब० असंपत्त-तिरिक्वाणु०-अप्पसत्यवि०-दुस्सर० णि । तं तु०। पंचिं०-ओरालि.अंगो-तस०४ णि. अणंतही० ।
१६६. एइंदि० उ० बं० थावरादि०४ णि० । तं तु.। एवं थावरादि०४ । सैसं ओघं।
२००. अवगदवे० आभिणिवो० उ० बं० चदुणा०-चदुदंसणा०--चदुसं०
१६६. पुरुषवेदी जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि उद्योतकी मुख्यतासे सन्निकर्ष सामान्य देवोंके समान है।
१६७. नपुसकवेदी जीवोंमें आभिनिबोधिक ज्ञानावरणके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, अस्थिर आदि छह, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। दो गति, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन और दो आनुपूर्वीका कदाचित बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है, तो उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। पञ्चन्द्रियजाति, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, बसचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है । नरकगतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष ओघके समान है।
१६८. तिर्यश्चगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अप्रशस्त विहायोगति और दुःस्वरका नियमसे बन्ध करता है। किन्त' वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। पश्चन्द्रियजाति, औदारिक आङ्गोपाङ्ग और सचतुष्कका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणाहीन होता है।
१६६. एकेन्द्रियजातिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव स्थावर आदि चारका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी वन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। इसी प्रकार स्थावर आदि चारकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। शेष भङ्ग ओघके समान है।
२००. अपगतवेदी जीवोंमें आभिनिवोधिक ज्ञानावरण के उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला १. प्रा. प्रतौ चदुणा० चदुसंज० इति पाठः ।
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बंधसण्णियास परूवणा
पंचत० णि० उक्क० | साद० - जस० उच्चा० णि० अनंतगु० ही ० । एवं अप्पसत्थाणं । साद० -जस० उच्चा० ओघो । एवं मुहुमसंप० । कोधादि०४ ओघो । णवरि साद०जस०-उच्चा० उ० बं० पंचणा० चदुदंसणा ० चदुसंज० - पंचंत० णि० अनंतगु० | माणे 1 तिण्णिसं जल० णि० अनंतगु० ही ० । मायाए दोसंज० णि० अनंतगु० ही ० । लोभे ओघं ।
२०१. मदि०-सुद० आभिणिदंडओ ओघो । साददंडओ ओघो । णवरि पंचणा० - णवदंसणा ० - मिच्छ०- सोलसक० - पंचणोक० - अप्पसत्थ०४ - उप० - पंचंत० णि० अनंतगु० | देवगदिसंजुत्ताओ यात्र जस० - उच्चा० गोद त्ति णि० । तं तु० । सेसं ओघं । एवं विभंगे ।
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२०२. आभिणि०--सुद० -ओधि० आभिणि० उ० बं० चदुणा०-छदंसणा - ० [ असाद० -- बारसक० - पुरिसवे ० -- अरदि ० - सोग - भय - दु० - अप्पसत्थ०४ - ] उप०अथिर' - असुभ अजस० पंचंत० णि० । तं तु० । दोगदि- दोसरीर दो अंगो ० - वज्जरि०जीव चार ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायका नियमसे उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करता है । सातावेदनीय, यशःकीर्ति और उच्चगोत्रका नियम से बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। इसी प्रकार अप्रशस्त प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । सातावेदनीय, यशः कीर्ति और उच्चगोत्रकी मुख्यतासे सन्निकर्ष ओघ के समान है । इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्परायिक संयत जीवोंके जानना चाहिए। क्रोध आदि चार कषायवाले जीत्रों में सब प्रकृतियों की मुख्यतासे सन्निकर्ष ओघ के समान है । इतनी विशेषता है कि सातावेदनीय, यशः कीर्ति और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है । मानमें तीन संज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है I मायामें दो संज्वलनका नियमसे बन्ध होता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। लोभमें
के समान भन है ।
२०१. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें आभिनिबोधिकज्ञानावरण दण्डकका भङ्ग ओघके समान है । सातावेदनीयदण्डकका भङ्ग श्रोघके समान है। इतनी विशेषता है कि यह पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिध्यात्व, सोलह कपाय, पाँच नोकपाय, प्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है । देवगतिसंयुक्त प्रकृतियों से लेकर यशः कीर्ति और उच्चगोत्र तककी प्रकृतियोंका नियम से बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। शेष भङ्ग ओघ के समान है । इसी प्रकार अर्थात् मत्यज्ञानी जीवोंके समान विभङ्गज्ञानी जीवोंके जानना चाहिए ।
२०२. आभिनिबोधिकज्ञानो, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें श्राभिनिबोधिक ज्ञानावरणके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, असातावेदनीय, बारह कषाय, पुरुपवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, अस्थिर,
शुभ, अयशःकीर्ति और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है । दो गति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभ
१. ता० प्रतौ एवं विभंगे श्रभिणि० उ० बं० चदुणा० छदंस० उप०
श्रथि० इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे दोआणु०--तित्थ० सिया० अणंतगु०ही । पंचिं०-तेजा०-क०-समचदु०--पसत्थ०४अगु०३-पसत्थवि०-तस०४-सुभगं-सुस्सर-आदें-णिमि०-उच्चा० णि० अणंतगु०ही । एवं अप्पसत्थाणं उकस्ससंकिलिहाणं ।
२०३. हस्स० उक्क० ब० पंचणा०-छदसणा०-असादा०-बारसक०-पुरिस०-भयदु०-पंचिंदि०--तेजा.--क०-समचदु०-पसत्यापसत्थ०४-अगु०४- पसत्यवि०-तस०४-- अथिर-असुभ-सुभग-सुस्सर-आदें-अजस०-णिमि०-उच्चा०-पंचंत० णि. अणंतगु० । रदि० णि । तं तु० । दोगदि-दोसरीर-दोअंगो०-वजरि०-दोआणु०-तित्थ० सिया० अणंतगु०ही । एवं रदीए।
२०४. मणुसाउ० देवोघं । सादादीणं खविगाणं देवाउ० मणुसगदिपंचगस्स य ओघो। एवं आभिणिभंगो ओधिदंस०-सम्मादि०-खइग०-वेदग०-उवसम० । मणपज्ज. आभिणिभंगो।णवरि असंजदपगदीओ वज्ज । एवं संजद-सामाइय-च्छेदो०-परिहार० । संजदासंज० आभिणि दंडओ साददंडओ ओधि भंगो। णवरि संजदासंजदपगदीओ नाराच संहनन, दो आनुपूर्वी और तीर्थङ्करका कदाचित् बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है । पञ्चन्द्रियजाति, तैजस शरीर, कामणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और उच्चगोत्रका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। उत्कृष्ट संक्लेशसे उत्कृष्ट बन्धको प्राप्त होनेवाली अप्रशस्त प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सत्रिकर्ष इसी प्रकार जानना चाहिए।
२०३. हास्यके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, असातावेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, पञ्चन्द्रियजाति, तेजस शरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्र संस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायो
सचतुष्क, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, अयश-कीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। रतिका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। दो गति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराच संहनन, दो आनुपूर्वी और तीर्थङ्करका कदाचित् बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। इसी प्रकार रतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२०४. मनुष्यायुकी मुख्यतासे सन्निकर्ष सामान्य देवोंके समान है। सातावेदनीय आदि क्षपक प्रकृतियाँ, देवायु और मनुष्यगतिपञ्चककी मुख्यतासे सन्निकर्ष अोधके समान है। इसी प्रकार आभिनिबोधिक ज्ञानी जीवोंके समान अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदगसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। मनःपयेयज्ञानी जीवोंका भङ्ग आभिनिबोधिक ज्ञानी जीवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि असंयतोंके बँधनेवाली प्रकृतियोंको छोड़कर यह सन्निकर्ष कहना चाहिए । इसी प्रकार संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत और परिहारविशद्धिसंयत जीवोंके कहना चाहिए । संयतासंयत जीवोंमें आभिनिबोधिक ज्ञानावरण दण्डक और सातावेदनीय दण्डक अवधिज्ञानी जीवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि संयतासंयत प्रकृतियोंको
१. ता० प्रतौ तस० सुभ० इति पाठः ।
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बंधसण्णियासपरूवणा
विगाओ कादव्वाओ। सेसं ओघो । असंजदेसु मदि० भंगो। णवरि असंजदसम्मादिहि
पगदीओ णादव्वाओ । चक्खु०-अचक्खु० ओघभंगो ।
२०५.
किण्णाए आभिणिदंडओ णवंसगभंगो । साददंडओ णिरयभंगो । चदुआउ० ओघं । णवरि देवाउ० उ० बं० पंचणा० - छंदंसणा ० - सादा०-- बारसक ०पंचणोक० -- देवगदि अट्ठावीस - उच्चा०- पंचंत० णि० अनंतगुणही ० । तित्थ० सिया० अनंतगु० । अथवा मिच्छादिट्ठी यदि करेदि तो मिच्छादिडिपगदीओ सम्मादिदिपगदीओ विं णादव्वाओ ।
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२०६. देवगदि० उ० बं० पंचणा० - छदंस० - साद ० - बारसक० पंचणोक ० - पंचिंदियादिपसत्थाओ - णिमि० उच्चा० पंचंत० णि० अनंतगु० ही ० | वेडव्वि० - वेडन्वि ० अंगों ० देवाणुपुव्वि० णि० । तं तु० 1 तित्थ० सिया० । तं तु० । एवं देवगदिभंगो वेडव्वि०वेडव्वि० अंगो०- देवाणु ० - तित्थ० । तिरिक्ख० - एइंदि० णवुंसगभंगो । सेसं ओघं ।
1
२०७. णील-काऊणं आभिणिदंडओ साददंडओ णिरयभंगो । इत्थ० - पुरिस०
ध्रुव करना चाहिए। शेष भङ्ग श्रोध के समान है। असंयत जीवों में मत्यज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि असंयतसम्यग्दृष्टि सम्बन्धी प्रकृतियाँ जाननी चाहिए। चतुदर्शनी और अचक्षुदर्शनी जीवों में ओघ के समान भङ्ग है ।
२०५. कृष्णलेश्या में श्रभिनिबोधिकज्ञानावरण दण्डक नपुंसकों के समान जानना चाहिए । सातावेदनीय दण्डक नारकियोंके समान जानना चाहिए। चार आयुओं का भङ्ग ओघ के समान है । इतनी विशेषता है कि देवायुके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, बारह कषाय, पाँच नोकषाय. देवगति आदि अट्ठाईस प्रकृतियाँ, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। तीर्थकर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है । अथवा मिध्यादृष्टि यदि करता है, तो मिध्यादृष्टि प्रकृतियाँ और सम्यग्दृष्टि प्रकृतियाँ भी जाननी चाहिए।
२०६. देवगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, बारह कषाय, पाँच नोकषाय, पञ्च ेन्द्रिय जाति आदि प्रशस्त प्रकृतियाँ, निर्माण, उच्चगोत्र, और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है 1 यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है । तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है, तो उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। इसी प्रकार देवगतिके समान वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकत्र्याङ्गोपाङ्ग, देवगत्यानुपूर्वी और तीर्थङ्कर प्रकृतिकी मुख्यता से सन्निकर्षं जानना चाहिए । तिर्यञ्चगति और एकेन्द्रिय जातिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष नपुंसक जीवोंके समान है । शेष भङ्ग ओघके समान है ।
२०७. नील और कापोतलेश्यामें आभिनिबोधिक ज्ञानावरण दण्डक और सातावेदनीय
१. श्रा० प्रतौ मिच्छादिद्विपगदीश्रो वि इति पाठः । २. श्र० प्रतौ श्रयं तगु०ही० । बेडव्वि० श्रंगो० इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे हस्स-रदि-चदुसंठा०-चदुसंघ०-उजो० णिरयभंगो । चदुआउ० ओघं । णवरि देवाउ. उ० ब० पंचणा०-छदसणा०-साद०-बारसक०--पंचणोक०--देवगदिअहावीस-उच्चा०पंचंत० णि. अणंतगुणही० । तित्थ० सिया० अर्णतगुणही० । अथवा पुण मिच्छादिहिस्स पि होदि तदो णादव्वा विभासा । णिरयगदि० उ०० णिरयाणु० णिः । तं तु० । सेसाओ णि. अणंतगु० । एवं णिरयाणु० । देवगदि४-तित्थय किण्ण०-. भंगो। चदुजादि-आदाव-थावरादि०४ नबुंसगभंगो। उज्जोवं पढमपुढविभंगो। काऊए तित्थ० णिरयभंगो।
२०८. तेऊए आभिणि दंडओ सोधम्मभंगो । साददंडओ परिहार भंगो । इत्थि०पुरिस०--हस्स-रदि-दोआउ०--चदुसंठा०--पंचसंघ० सोधम्मभंगो। देवाउ० ओघो। मणुसगदिपंचगं ओघं । एवं पम्माए वि । णवरि अप्पसत्थाणं सहस्सारभंगो णादव्यो । मुक्काए आभिणि दंडओ इत्थि०--पुरिस०--हस्स-रदि-मणुसाउ०--चदुसंठा-चदुसंघ० आणदभंगो । सेसं ओघं ।।
२०६. भवसि० ओघं । अन्भवसि० आभिणि दंडओ ओघं । साद० उ० बं० पंचणा०- णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक०-पंचणोक०-अप्पसत्थ०४-उप०-पंचंत० णि. दण्डकका भङ्ग नारकियोंके समान है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, चार, संस्थान, चार संहनन
और उद्योतका भङ्ग नारकियोंके समान है। चार आयुका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि देवायुके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, साता वेदनीय, बारह कषाय, पाँच नोकषाय, देवगति आदि अट्ठाईस प्रकृतियाँ, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। अथवा यदि मिथ्यादृष्टिके भी होता है तो विकल्प जानना चाहिए । नरकगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव नरकगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभाग का भी बन्ध करता है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। शेष प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। इसी प्रकार नरकगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । देवगति चतुष्क और तीर्थङ्कर प्रकृतिकी मुख्यतासे सनिकर्ष कृष्णलेश्याके समान है। चार जाति, आतप और स्थावर आदि चारकी मुख्यतासे सन्निकर्ष नपुसक जीवोंके समान है। उद्योतकी मुख्यतासे सन्निकर्ष पहली पृथिवीके समान है। कापोतलेश्यामें तीर्थङ्कर प्रकृतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष नारकियोंके समान है।
२०८. पीत लेश्यामें आभिनिबोधिक ज्ञानावरण दण्डकका भङ्ग सौधर्म कल्पके समान है। सातावेदनीयदण्डकका भङ्ग परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंके समान है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, दो आयु, चार संस्थान और पाँच संहननका भङ्ग सौधर्म कल्पके समान है। देवायुका भङ्ग ओषके समान है। मनुष्यगति पश्चकका भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार पद्मलेश्यामें भी जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसमें अप्रशस्त प्रकृतियोंका भङ्ग सहस्रार कल्पके समान है। शुक्ललेश्यामें आभिनिबोधिक ज्ञानावरणदण्डक, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, मनुष्यायु, चार संस्थान और चार संहननका भङ्ग आनत कल्पके समान है। शेष भङ्ग ओघके समान है।
२०६. भव्य जीवोंमें श्रोधके समान भङ्ग है। अभव्य जीवोंमें आभिनिबोधिक ज्ञानावरण दण्डक ओघके समान है। सातावेदनीयके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण
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बंधसण्णियासपरूवणा अणंतगु०। तिरिक्ख०--तिरिक्वाणु०-णीचा० सिया० अणंतगु० । मणुसगदिपंचगदेवगदिष्ट-उज्जो -उच्चा० सिया। तं तु०॥ पंचिंदि०-तेजा-क०-समचदु०-पसत्थ०[४-] अगु०३-पसत्यवि०-तस०४-थिरादिछ०-णिमि० णिय० । तं तु० । एवं उच्चागोदं पि । णवरि तिरिक्खसंजुत्तं वज्ज।
२१०. मणुस-देवगदि० उ० बं० पसत्याणं णि । तं तु० । अप्पसत्थाणं अणंतगु०ही । एवं मणुसाणु०-देवगदि०४ ।
२११. ओरालि० उ० बं० तिरिक्व०-तिरिक्वाणु०-णीचा० सिया० अणंतगु०। मणुसग०-मणुसाणु०-उज्जो० सिया० । तं तु०। सेसं मणुसगदिभंगो । एवं ओरालि०अंगो०-वज्जरि० । एवं उज्जो० । सेसं ओघो।
२१२. सासणे आभिणि० उ० बं० चदुणा०-णवदंसणा०-असादा०-सोलसक०नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। तिर्यश्चगति, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। मनुष्यगतिपञ्चक, देवगति चतुष्क, उद्योत और उच्चगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है । किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है । पञ्चन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति. त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। इसी प्रकार उच्चगोत्रकी मुख्यतासे भी सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि तिर्यश्चगतिसंयुक्त प्रकृतियोंको छोड़कर सन्निकर्ष कहना चाहिए।
. २१०. मनुष्यगति और देवगतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव प्रशस्त प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। अप्रशस्त प्रकृतियोंका अनुत्कृष्ट अनन्तगुणहीन बन्ध करता है । इसी प्रकार मनुष्यगत्यानुपूर्वी और देवगतिचतुष्ककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२११. औदारिक शरीरके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थानपतित हानिरूप होता है। शेष भङ्ग मनुष्यगतिके समान है। इसी प्रकार औदारिक आङ्गोपाङ्ग और वज्रर्षभनाराच संहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । तथा इसी प्रकार उद्योत प्रकृतिकी मुख्यतासे भी सन्निकर्ष जानना चाहिए। शेष भङ्ग ओघके समान है।
२१२. सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंमें आभिनिबोधिक ज्ञानावरणके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध १. प्रा. प्रतौ अप्पसत्थ४ उज्जो० इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे इत्थि०--अरदि--सोग-भय--दुगुं०--तिरिक्ख०-वामण०-खीलिय०--अप्पसत्थ०४-तिरिक्वाणु०-उप० अप्पसत्थवि०-अथिरादिछ०-णीचा०-पंचंत० णि । तं तु० । पंचिंदि०ओरालि०-तेजा०-क०--ओरालि अंगो०--पसत्थ०४-अगु०३-तस०४-णिमि० पी० अणंतगु०ही. । उज्जोवं सिया० अणंतगु० । एवं तं तु० पदिदाणं ।
२१३. साद० उ० बं० तिरिक्ख०-तिरिक्खाणु०-णीचा० सिया० अणंतगुं० । दोगदि-दोसरीर-दोअंगो०-वज्जरिस०-दोआणु०--उज्जो०-उच्चा० सिया० । तं तु० । पंचणाणावरणादिअप्पसत्थाणं णिय० अणंतगु० । पंचिंदियादिपसत्थाणं णि० । तं तु० । इत्थि०-पुरिस०--हस्स-रदि-तिण्णिआउ-तिण्णिसंठा०-तिण्णिसंघ०-उज्जो० ओघं । सेसाणं कम्माणं हेहा उवरिं सादभंगो । णाम० सत्थाणभंगो।
२१४. सम्मामिच्छादिही० आभिणिभंगो। मिच्छादिट्टी० मदि०भंगो । ओरालि० उ० बं० तिरिक्ख०-तिरिक्खाणु०-णीचा. सिया० अणंतगुणही० । मणुसगदिकरनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, सोलह कषाय, स्त्रीवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यश्चगति, वामन संस्थान, कीलक संहनन, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, अस्थिर आदि छह, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। पश्चन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मणशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, सचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है । उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है । इसी प्रकार तं तु पतित प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
. २१३. सातावेदनीयके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है जो
ता है। दो गति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराचसंहनन, दो आनुपूर्वी, उद्योत और उच्चगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है । पाँच ज्ञानावरणादि अप्रशस्त प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है । पञ्चन्द्रिय जाति आदि प्रशस्त प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अनुस्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। स्त्रीवेद. पुरुषवेद, हास्य, रति, तीन आयु, तीन संस्थान, तीन संहनन और उद्योतका भङ्ग ओघके समान है । शेष कर्मोके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीवके नामकर्मसे पूर्वकी और बादकी प्रकृतियोंका भङ्ग सातावेदनीयके समान है । नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है।
..२१४. सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें आभिनिबोधिक ज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है । मिथ्यादृष्टि जीवों में मत्यज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है। किन्तु औदारिक शरीरके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका कदाचित् बन्ध करता
१. श्रा० प्रतौ तिरिक्खाणु० अपंतगु० इति पाठः। २. ता. प्रा. प्रत्योः सेसाणं णामाणं हेहा इति पाठः।
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बंधसण्णियासपरूवणा उज्जो सिया। तं तु'। ओरालि०अंगो०-वजरि० णि । तं तु०। सेसाओ पसत्थाओ णि० अणंतगु० । एवं ओरालिअंगो०-वजरि० ।
२१५. सण्णि० ओघं । असण्णी० तिरिक्खोघो। साददंडओ मदि०भंगो । आहार० ओघं । अणाहार० कम्मइगभंगो।।
एवं उक्कस्सं सम्मत्तं । २१६. जहण्णपरत्थाणसण्णियासे पगदं। दुवि०--ओघे० आदे० । ओघे. आभिणि० जह० अणुभागं बंधतो चदुणा०-चदुदंस०-पंचंत. णि० बं० जहण्णा । साद०-जस०-उच्चा० णि० बं० णि० अजहण्णं अणंतगुणब्भहियं बंधदि । एवं चदुणा०चदुदंस०-पंचंत० ।
२१७. णिहाणिदाए जहण्णं बं० पंचणा०-छदसणा०-सादा०-बारसक०-पुरिस०हस्स-रदि-भय-दुगुं०--देवगदि-पंचिंदि०-वेउवि०-तेजा-क०-समचदु०-वेउवि अंगो०पसत्थापसत्थ०४-देवाणु०-अगु०४-पसत्थवि०--तस०४-थिरादिछ०-णिमि०--उच्चाहै जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। मनुष्यगति और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है,तो वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है । औदारिक आङ्गोपाङ्ग और वज्रर्षभनाराच संहननका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। शेष प्रशस्त प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। इसी प्रकार औदारिक आङ्गोपाङ्ग और वज्रर्षभनाराच संहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२१५. संज्ञियोंमें ओघके समान भङ्ग है । असंज्ञियों में सामान्य तिर्यञ्चोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि सातावेदनीयदण्डक मत्यज्ञानी जीवोंके समान है। आहारक जीवोंमें श्रोधके समान भङ्ग है । अनाहारक जीवों में कार्मणकाययोगी जीवोंके समान भङ्ग है।
___ इस प्रकार उत्कृष्ट सन्निकर्ष समाप्त हुआ। २१६. जघन्य परस्थान सन्निकर्षका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैओघ और आदेश । ओघसे आभिनिबोधिक ज्ञानावरणके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागका नियमसे बन्ध करता है । सातावेदनीय, यशःकीर्ति और उच्चगोत्रका नियमसे बन्ध करता है जो नियमसे अजघन्य अनन्तगुणे अधिक अनुभागका बन्ध करता है। इसी प्रकार चार ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२१७. निद्रानिद्राके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, बारह कपाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवगति, पञ्चन्द्रियजाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो
१. ता. प्रतौ उजोवं तं तु० इति पाठः। २. प्रा. प्रतौ णिमि० णि उच्चा० इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे पंचंत०-णि०० णि० अज० अणंतगु०। पचलापचला-थीणगिद्धि-मिच्छ०-अणंताणु०४ णि । तं तु० । छटाणपदिदं बं० अणंतभागब्भहियं वा ५। एवं पचलापचला०थीणगिद्धि०-मिच्छ०-अणंताणु०४ ।
२१८. णिहाए ज० ब० पंचणा०-चदुदंस०-सादा०-चदुसंज०-पंचणोक०-णामाणि णिद्दाणिदाए भंगो। उच्चा०-पंचंत० [णि.] अणंतगुणब्भ० । पचला. णि । तं तु. छहाणपदिदं० । आहारदुग-तित्थ० सिया० अणंतगुणब्भ० । एवं पचला।
२१६.साद० ज० ब० पंचणा-छदसणाचदुसंज०-भय-दु०-तेजा-क०-पसत्थापसत्थ०४-अगु०--उप०--णिमि०--पंचंत० णिय. अणंतगुणब्भ० । थीणगिद्धि३मिच्छ०-बारसक०--सत्तणोक०-तिरिक्ख०-पंचिंदि०-दोसरीर-दोअंगो०-तिरिक्वाणु०पर०-उस्सा०-आदाउज्जो०-तस०४-तित्थ०-णीचा० सिया० अणंतगुणब्भ० । तिण्णिआउ-दोगदि-चदुजादि-छस्संठा०-छस्संघ०-दोआणु०-दोविहा०--थिरादिछयुग०-उच्चा०
नियमसे अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है
और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप बन्ध करता है। अर्थात् या तो अनन्तभागवृद्धिरूप या असंख्यातभागवृद्धिरूप, संख्यातभागवृद्धिरूप, संख्यातगुणवृद्धिरूप, असंख्यातगुणवृद्धिरूप या अनन्तगुणवृद्धिरूप बन्ध करता है । इसी प्रकार प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, मिथ्यात्व, और अनन्तानुबन्धी चार की मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२१८. निद्राके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाले जीवके पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातवेदनीय, चार संज्वलन, पाँच नोकषाय और नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग निद्रानिद्राके समान है। उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। प्रचलाका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है
और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। आहारकद्विक और तीर्थङ्करका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार प्रचलाप्रकृतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२६. सातावेदनीयके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, बारह कषाय, सात नोकषाय, तिर्यश्चगति, पञ्चन्द्रिय जाति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास,
आतप, उद्योत, त्रसचतुष्क, तीर्थङ्कर और नीचगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। तीन आयु, दो गति, चार जाति, छह संस्थान, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति, स्थिर आदि छह युगल और उच्चगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । इसी प्रकार
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वंधसण्णियासपरूवणा
सिया० । तं तु० । एवं असाद०-अथिर-असुभ-अजस० । णवरि णिरयाणु-णिरयगदिदेवगदि-दोआणु० सिया० । तं तु० । देवाउ० वज्ज ।
२२०. अपञ्चक्खा० कोध० ज० बं० तिण्णि क० । तं तु० । सेसं णिदाए भंगो । णवरि अढकसायं भाणिदव्वं । एवं तिण्णं क० ।
२२१. पच्चक्रवाणकोध० ज० बं० तिण्णि क० णि । तं तु० । सेसं णिहाए भंगो । एवं तिणिं क०।
२२२. कोधसंज० ज०बं० पंचणा०-चदुदंस०-सादा०-तिण्णिसंज०-जसगि०. उच्चा०-पंचंत०णि अणंतगुणब्भमाणसंज० ज० बं० दोसंज.णि० अणंतगुणब्भ०।सेसं० कोधभंगो। मायसंज० ज० बं लोभसंज० णि० अणंतगुणब्भ० । सेसं माणभंगो। लोभसंज० ज०० पंचणा०-चदुदंसणा०-सादा०जस०-उच्चा०-पंचंत० णि० अणंतगुणब्भ० ।
२२३. इत्थि. ज. बं० पंचणा०-णवदंस०-मिच्छ०-सोलसक०-भय-दु०असातावेदनीय, अस्थिर, अशुभ और अयश कीर्तिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि नरकायु, नरकगति, देवगति और दो आनुपूर्वीका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है, तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । मात्र देवायुको छोड़कर इन असातावेदनीय आदिकी मुख्यतासे यह सन्निकर्ष कहना चाहिए।
२२०. अप्रत्याख्यानावरण क्रोधके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तीन कषायोंका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग निद्राके समान है । इतनी विशेषता है कि आठ कपाय कहलाना चाहिए । इसी प्रकार तीन कषायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२२१. प्रत्याख्यानावरण क्रोधके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तीन कषायोंका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। शेष भङ्ग निद्राप्रकृतिके समान है। इसी प्रकार तीन कषायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२२२. क्रोध संज्वलनके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, साता वेदनीय, तीन संज्वलन, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। मानसंज्वलनके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव दो संज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । शेष भङ्ग क्रोध संज्वलनके समान है। मायासंज्वलनके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव लोभ संज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। शेष भङ्ग मान संज्वलनके समान है। लोभ संज्वलनके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है ।
२२३. स्त्रीवेदके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, १. ता. प्रतौ भणि दम्वं इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे पंचिंदि०-तेजाक०-पसत्यापसत्थ०४-अगु०४-पसत्य-तस०४-सुभग-सुस्सर-आदेंणिमि०-पंचंत० णि. अणंतगुणब्भ०। सादासाद०-चदुणोक०-तिण्णिगदि-दोसरीरतिण्णिसंग०-दोअंगो०--तिण्णिसंघ०-तिण्णिआणु०-उज्जो०-थिराथिर-सुभासुभ-जस०अजस०-णीचुचागो० सिया० अणंतगुणब्भ० । एवं णवूस० । णवरि पंचसंठा०-पंचसंघ० सिया० अणंतगुणब्भः।
२२४. पुरिस० ज० ब० कोधसंजलणभंगो। णवरि चदुसंज०णि अणंतगुणब्भ
२२५. हस्स० ज० ब० पंचणा०--चदुदंसणा०-सादा०-चदुसंज०--पुरिस०जस०-उच्चा०-पंचंत० णि० अणंतगुणब्भ० । रदि-भय-दु० णियमा। तं तु०। एवं रदिभय-दु० ।
२२६. अरदि० ज० बं० पंचणा०-छदसणा-सादा.-चदुसंज०-पुरिस०-भयदु०-देवगदि-पसत्थहावीस-उच्चा०-पंचंत० णि० अणंतगुणब्भ० । तित्थ० सिया० अणंतगुणब्भ० । सोग० णि । तं तु० । एवं सोग० । मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चन्द्रिय जाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर,
आदेय, निर्माण और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार नोकषाय, तीन गति, दो शरीर, तीन संस्थान, दो श्राङ्गोपाङ्ग, तीन संहनन, तीन आनुपूर्वी, उद्योत, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति, अयश:कीर्ति, नीचगोत्र और उच्चगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार नपुंसकवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पाँच संस्थान और पाँच संहननका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है।
२२४. पुरुषवेदके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाले जीवका भङ्ग क्रोध संज्वलनके समान है । इतनी विशेषता है कि चार संज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है।
२२५. हास्यप्रकृतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । रति, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार रति, भय और जुगुप्साकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२२६. अरतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जगप्सा. देवगति आदि प्रशस्त अट्राईस प्रक्रतियाँ. उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । तीर्थकर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । शोकका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु यह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । इसी प्रकार शोककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
१. श्रा० प्रतौ पंचणा० सादा० इति पाठः।
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बंधसण्णियासपरूवणा २२७. णिरयाउ० ज० बं० पंचणा०-णवदंस०-मिच्छ०-सोलसक०-पंचणोक०पंचि०-वेउव्वि०--तेजा०--क०--वेउवि०अंगो०--पसत्थापसत्थ०४-अगु०४-तस०४णिमि०-णीचा०-पंचंत० णि. अणंतगुणन्भ० । असाद०-णिरय०-हुंड-णिरयाणु०अप्पसत्यवि०-अथिरादिछ० णि । तं तु० । एवं णिरयगदि-णिरयाणु० ।
२२८. तिरिक्खाउ० ज० ब० पंचणा०-णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक०-णस०भय-दु०-तिरिक्ख०-ओरालि०--तेजा०-क०-पसत्यापसत्य०४-अगु०३-उप०-णिमि०णीचा०-पंचंत० णि अणंतगुणब्भ० सादासा०-चदुजादि-असंप०-थावर-सुहुम-साधार० सिया० । तं तु०। चदुणोक०-पंचिं०-ओरालि०अंगो०-तस०-वादर-पत्ते. सिया० अणंतगुणभ० । हुंड-अपज्जा-अथिरादिपंच० णि । तं तु० । मणुसाउ० ज० तिरिक्खाउ०मंगो । णवरि मणुस हुंड०-असंप०-मणुसाणु०-अपज्ज०-अथिरादिपंच णि । तं तु.।
___ २२७. नरकायुके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, पञ्चोन्द्रिय जाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, सचतुष्क, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। असातावेदनीय, नरकगति, हुण्डसंस्थान, नरकगत्यानुपूर्वी, अप्रशस्त विहायोगति और अस्थिर आदि छहका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार नरकगति और नरकगत्यानुपूर्वी की मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
२२८. तिर्यञ्चायुके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व. सोलह कषाय, नपुंसकवेद, भय, जुगुप्सा, तियेश्वगति औदारिकशरीर, तेजस शरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुजघुत्रिक, उपघात, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार जाति, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, स्थावर, सूक्ष्म और साधारणका कदाचित् बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। चार नोकषाय, पश्चन्द्रिय जाति, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, त्रस, बादर और प्रत्येकका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । हुण्ड संस्थान, अपर्याप्त और अस्थिर आदि पाँचका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। मनुष्यायुके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाले जीवका भङ्ग तिर्यश्चायुके समान है। इतनी विशेषता है कि मनुष्यगति, हुण्डसंथान, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अपर्याप्त और अस्थिर आदि पाँचका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका
१. श्रा० प्रती तस० णिमि० इति पाठः। २. श्रा० प्रतो पत्ते० अणंतगुणब्म० इति पाठः । ३. श्रा० प्रतो मणुसाउ० उ० तिरिक्खभंगो इति पाठः।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे २२६. देवाउ० ज० बं पंचणा०--णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक०-भय-दु०पंचिं०-वेउवि०-तेजा.-क०-वेवि०अंगो०-पसत्यापसत्थ०४-अगु०४-तस०४-णिमि०पंचंत० णिय० अणंतगुणब्भ० । सादा०--देवग०--समचदु०--देवाणु०--पसत्थवि०थिरादिछ०-उच्चा० णि । तं तु० । इत्थि०-पुरिस० सिया० अर्णतगुणब्भ० ।
- २३०. तिरिक्ख० ज० बं० पंचणा०--णवदंस०--सादा-मिच्छ०--सोलसक०पंचणोक०-पंचंत० णि. अणंतगुणब्भ० । णाम० सत्थाणभंगो। णीचा० । तं तु० । एवं तिरिक्खाणु०-णीचा०।
२३१. मणुस. ज. बं. पंचणा०-णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक०-भय-दु०पंचंत० णि. अणंतगुणब्भ० । सादासाद०-मणुसाउ०-छस्संठा०-छस्संघ०-दोविहा०अपज्ज०-थिरादिछयुग०-उच्चा० सिया० । तं तु०। सत्तणोक०-पर-उस्सा०-पज्ज०णीचा सिया० अणंतगुणभापंचिंदि०-ओरालि०-तेजा०-क०-ओरालि०अंगो-पसत्थाभी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है।
२२६. देवायुके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पश्चन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क, निर्माण और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । सातावेदनीय, देवगति, समचतुरस्रसंस्थान, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, स्थिर
आदि छह और उच्चगोत्रका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है।
२३०. तिर्यश्चगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। नीचगोत्रका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२३१. मनुष्यगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अंजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, मनुष्यायु, छह संस्थान, छह संहनन, दो विहायोगति, अपयोप्त, स्थिर आदि छह यगल और उच्चगोत्रका कदाचित बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। सात नोकषाय, परघात, उच्छ्वास, पर्याप्त और नीचगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। पञ्चन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर,
१. श्रा० प्रती सादासाद० इति पाठः ।
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बंधसण्णियासपरूवणा पसत्थ०४-अगु०-उप-तस०-बादर-पत्ते-णिमि० णि. अणंतगुणभ० । मणुसाणु० णि । तं तु० । एवं मणुसाणुः ।
___२३२. देवगदि० ज० बं पंचणा०-णवदंस०-मिच्छ०-सोलसक०-भय०-दु०पंचत० णि० अणंतगुणब्भ० । सादासाद०-देवाउ० सिया० । तं तु० । इत्यि०-पुरिस०हस्स-रदि--अरदि--सोग० सिया० अणंतगुणब्भ० । उच्चा० णि । तं तु० । णाम सत्थाणभंगो । एवं देवाणु ।
२३३. एइंदि० ज० बं० पंचणा-णवदंस०-मिच्छ०-सोलसक०-णवूस०-भय०दु०-णीचा०-पंचंत. णि० अणंतगुणब्भ० । सादासाद०-तिरिक्खाउ० सिया० । तं तु० । हस्स-रदि-अरदि-सोग. सिया० अणंतगुणब्भ० । णाम. सत्थागभंगो। एवं बेई०तेई०-चदुरिं० हेटा उवरि एइंदियभंगो । णाम सत्थाणभंगो।
औदारिकाङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, त्रस, बादर, प्रत्येक और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । मनुष्य. गत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार मनुष्यगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना च
२३२. देवगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । सातावेदनीय, असातावेदनीय और देवायुका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है,तो वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति और शोकका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। उच्चगोत्रका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार देवगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
__२३३. एकेन्द्रिय जातिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, भय, जुगुप्सा, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। सातावेदनीय, असातावेदनीय,
और तिर्यञ्चायुका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है,तो वह जवन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। हास्य, रति, अरति और शोकका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति और चतुरिन्द्रिय जातिकी मुख्यतासे नामकर्मसे पूर्वकी और बादकी प्रकृतियोंका सन्निकर्ष एकेन्द्रिय जातिके समान है तथा नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है।
१. ता० प्रती एवं मणुसाणु । णि तं तु एवं मणु [एतचिन्हान्तर्गतः पाठोऽधिकः प्रतीयते । देवगदि०, आ. प्रतौ एवं मणुसाणु०णि तं तु ए, मणुस० देवगदि० इति पाठः। २. श्रा० प्रती सोलसका गवंस० भयदु० णीचा. पंचंत. इति पाठः।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे २३४. पंचिंदि० ज० बं० पंचणा०-णवदंसणा०-असाद०-मिच्छ०-सोलसक०पंचणोक०-णीचा-पंचंत० णि. अणंतगुणब्भ० । णाम सत्थाणभंगो । एवं तस० ।
२३५. ओरालि० ज० बं० पंचणा०-णवदसणा०-असादा०-मिच्छ०-सोलसक०पंचणोक०-णीचा०-पंचंत० णि. अणंतगुणब्भ० । णाम. सत्थाणभंगो । एवं उज्जो० ।
___ २३६. वेउन्वि० ज० बं० रेडा उवरिं पंचिंदियभंगो। णाम० सत्थाणभंगो । एवं वेउव्वि०अंगो०।
२३७. आहार० ज० बं० पंचणा०-छदंस०-सादा०-चदुसंज०-पंचणोक०-देवगदिपसत्यहावीसं-उच्चा०-पंचंत० णि. अणंतमुणब्भ० । आहार अंगों'. णितं तु० । तित्थ० सिया० अणंतगुणब्भः । एवं आहारंगोवंग० ।
२३८. तेजाक० हेहा उवरिं पंचिंदियभंगो। णाम० सत्याणभंगो । एवं तेजइगभंगो कम्मइ०-पसत्थवण्ण४-अगु०३-बादर-पज्जत्त-पत्ते-णिमि० ।
२३४. पश्यन्द्रिय जातिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार त्रस प्रकृतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
___२३५. औदारिकशरीरके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार उद्योतकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२३६. वैक्रियिकशरीरके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाले जीवके नामकर्मसे पूर्वकी और बादकी प्रकृतियोंका भङ्ग पञ्चन्द्रिय जातिके समान है। नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है । इसी प्रकार वैक्रियिक आङ्गोपाङ्गकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२३७. आहारकशरीरके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, चार संज्वलन, पाँच नोकषाय, देवगति आदि प्रशस्त अट्ठाईस प्रकृतियाँ, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। आहारक आङ्गोपाङ्गका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार आहारक आङ्गोपाङ्गकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२३८. तेजसशरीरके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाले जीवके नामकर्मसे पूर्वकी और बादकी प्रकृतियोंका भङ्ग पञ्चन्द्रिय जातिके समान है। नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार तैजसशरीरके समान कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक और निर्माणकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
१. ता० श्रा• प्रत्योः श्राहारभंगो• इति पाठः ।
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बंधसण्णियासपरूवणा
१०१ २३६. समचदु० ज० ब० पंचणा०--णवदसणा०-मिच्छ०-सोलसक०-भय-दु०पंचंत० णि अणंतगुणब्भ० । सादासाद०-देवाउ०-उच्चा० सिया० । तं तु० । सत्तणोक०दोआउ०-णीचा० सिया० अणंतगुणब्भ० । णाम सत्थाणभंगो । एवं पसत्थवि०सुभग-सुस्सर-आदें।
२४०. णग्गोद० ज० बं० पंचणा०-णवदंस०-मिच्छ०-सोलसक०-भय-दु०पंचंत० णिय० अणंतगुणब्भ० । सादासाद०-उच्चा० सिया० । तं तु० । सत्तणोक०दोआउ०-णीचा० सिया० अणंतगुणब्भ० । णाम० सत्थाणभंगो। एवं णग्गोद भंगो तिण्णिसंठा०-पंचसंघ० ।
२४१. हुंड० ज० बं० पंचणा०-णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक०-भय०-दु०-पंचंत० णि० अणंतगुणब्भ० । दोवेदणी०-तिण्णिआउ०-उच्चा० सिया० । तं तु० । सत्तणोक०णीचा० सिया० अणंतगुणब्भहियं० । णाम० सत्थाणभंगो। एवं हुंड भंगो भग-अणादें।
. २३६. समचतुरस्त्र संस्थानके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, देवायु और उच्चगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है, तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। सात नोकपाय, दो आयु और नीचगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेयकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२४०. न्यग्रोध संस्थानके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा और पाँच अन्तरायका नियमसे बन है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। सातावेदनीय, असातावेदनीय और उच्चगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है, तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है ,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। सात नोकषाय, दो आयु और नीचगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार न्यग्रोध संस्थानके समान तीन संस्थान और पाँच संहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२४१. हुण्ड संस्थानके जघन्य अनुभागका वन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। दो वेदनीय, तीन आयु और उच्चगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है ,तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका वन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। सात नोकषाय और नीचगोत्र का कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार हुण्ड संस्थानके समान दुर्भग और अनादेयकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
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महापंधे अणुभागबंधाहियारे २४२. ओरालि०अंगोज० ब० हेहाउरि ओरालियभंगो।णाम सत्थाणभंगो।
२४३. असंप० ज० बं० पंचणा०-णवदंस०-मिच्छ०-सोलसक०-भय०-दुगुं०पंचंत०णि अणंतगुणब्भ० दोवेदणी०-तिरिक्व०-मणुसाउ०-उच्चा० सिया। तंतु० । सत्तणोक०-णीचा० सिया० अणंतगुणब्भ० । णाम० सत्थाणभंगो।
२४४. आदाउज्जो० ज० बं० पंचणा०-णवदंस०-असादा०-मिच्छ०-सोलसक०पंचणोक०-णीचा०-पंचंत० णि० अणंतगुणब्भ० । णाम सत्थाणभंगो।
२४५. अप्पसत्थवि० ज० बं० पंचणा०-णवदंस०--मिच्छ०-सोलसक०-भय०दु०-पंचंत० णि० अणंतगुणब्भ० । सादासाद०-णिरयाउ०-उच्चा० सिया० । तं तु० । सत्तणोक०-दोआउ०--णीचा० सिया० अणतगुणब्भ० । णाम सत्थाणभंगो । एवं दुस्सर०।
२४६. सुहुम० ज० बं० पंचणा०-णवदंस०-मिच्छ०-सोलसक०-णqस०-भय०दु०-णीचा०-पंचंत० णि० अणंतगुणब्भ० । सादासाद०-तिरिक्खाउ० सिया०।तंतु० ।
___ २४२. औदारिक आङ्गोपाङ्गके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाले जीवके नामकर्मसे पूर्वकी और बादकी प्रकृतियोंका भंग औदारिकशरीरके समान है। तथा नामकर्मका भंग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है।
२४३. असम्प्राप्तामृपाटिका संहननके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। दो वेदनीय, तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु और उच्चगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है, तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। सात नोकषाय और नीचगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । नामकर्मका भंग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है।
२४४. आतप और उद्योतके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। नामकर्मका भंग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है।
२४५. अप्रशस्त विहायोगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, नरकायु और उच्चगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है, तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । सात नोकषाय, दो आयु और नीचगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। नामकर्मका भंग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार दुःस्वर प्रकृतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२४६. सूक्ष्मके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व. सोलह कषाय, नपुसकवेद, भय, जुगुप्सा, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। सातावेदनीय, असातावेदनीय और तियंञ्चायुका कदाचित् बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अज
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बंधसण्णियासपरूषणा
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चदुणोक० सिया • अनंतगुणन्भ० । णाम० सत्थाणभंगो । एवं अपज्ज० - साधार० । णवरि
०
अपज्जते दोआउ० सिया० । तं तु० ।
२४७, थिर० ज० बं० पंचणा० छदंस० -- चंदुसंज० - भय०- ० दु० - पंचत० णि० अनंतगुणब्भ० | थीणगिद्धि ०३ - मिच्छ० - बारसक० -- -- सत्तणोक० -- तिरिक्ख- मणुसाउ०णीचा ० सिया० अनंतगु० । सादासाद० देवाउ० उच्चा० सिया० । तं तु० । णाम० सत्थाणभंगो । एवं सुभ-जस० ।
२४८. तित्थ० ज० बं० पंचणा० छंदंस०-असाद० - बारसक००- पुरिस०-अरदिसोग-भय-दु० - उच्चा० - पंचंत० णि० अनंतगुणग्भ० । णाम० सत्थाणभंगो ।
२४६. उच्चा० ज० बं० पंचणा०-- णवदंस०-मिच्छ० - सोलसक० - भय ०. [0-दु०पंचि ०- तेजा ० क ० --पसत्थापसत्थ०४- अगु०४-तस०४ - णिमि० - पंचंत० णि० अनंतगुणन्भहियं० । सादासाद० देवाउ ० छसंठा ० छस्संघ० - दोगदि-दो आणु० -- दोविहा०
घन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजयन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । चार नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है । इसी प्रकार अपर्याप्त और साधारण प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपर्याप्तके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव दो आयुओं का कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है, तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजधन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है ।
२४७. स्थिरके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, भय, जुगुप्सा और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, बारह कषाय, सात नोकषाय, तिर्यवायु, मनुव्यायु और नीचगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, देवायु और उच्चगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है, तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार शुभ और यशःकीर्तिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
२४८. तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, असातावेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियम से बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है ।
२४६. उञ्चगोत्रके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिध्यात्व, सोलह कषाय, भय जुगुप्सा, पञ्च ेन्द्रिय जाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क, निर्माण और पाँच अन्तरायका नियम से बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, देवायु, छह संस्थान, छह संहनन, दो गति, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति और स्थिर आदि छह युगलका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है, तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है तो
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महाबधे अणुभागबंधाहियारे थिरादिछयुग० सिया० । तं तु० । सत्तणोक० मणुसाउ०-दोसरीर-दोअंगो० सिया० अणंतगुणब्भहियं बंधदि ।
२५०. आदेसेण णिरएसु आभिणि. ज. बं० चदुणा०-छदसणा०-बारसक०-पंचणोक०-अप्पसत्थ०४-उप०-पंचंत० णि । तं तु० । साद०-मणुसग०पंचिंदि०--ओरालि०--तेजा०--क०--समचदु०--ओरालि०अंगो०-वज्जरि०-पसत्थ०-४मणुसाणु०--अगु०३-पसत्थवि०-तस०४-थिरादिछ०-णिमि०--उच्चा० णि० अणंतगुणब्भ० । तित्थ० सिया० अणंतगुणब्भ० । एवं आभिणिभंगो० तं तु० पदिदाणं सव्वाणं ।
२५१. णिद्दाणिदाए ज. बं० पंचणा०-छदंस०-साद०-बारसक०-पंचणोक०पंचिं०-ओरालि०-तेजा.-क०--समचदु०-ओरालि०अंगो०--वज्जरि०-पसत्यापसत्थ०४अगु०४-पसत्थवि०--तस०४-थिरादिछ०--णिमि०--पंचंत० णि० अणंतगु०। पचलापचला०-थीणगिद्धि-मिच्छ०-अणंताणु०४ णि० । तं तु० । तिरिक्ख०-तिरिक्खाणु०णीचा० सिया० । तं तु०। मणुस०-मणुसाणु०-उज्जो०-उच्चा० सिया० अणंतगुणब्भ। वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। सात नोकषाय, मनुष्यायु, दो शरीर और दो प्राङ्गोपाङ्गका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक अनुभागबन्ध करता है।
२५०. आदेशसे नारकियोंमें आभिनिबोधिक ज्ञानावरणके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, पाँच नोकषाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। सातावेदनीय, मनुष्यगति, पञ्चन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराचसंहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति,सचतुष्क, स्थिर आदिछह, निर्माण और उच्चगोत्रका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। तीर्थङ्करका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार तंतुमतित सब प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष आभिनिबोधिक ज्ञानावरणके समान जानना चाहिए।
२५१. निद्रानिद्राके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, बारह कषाय, पाँच नोकषाय, पञ्चन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराचसंहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण
और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। प्रत्रलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचारका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी. बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। तिर्यश्चगति, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है,तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। मनुष्यगति, मनुष्यगत्या
१. श्रा० प्रतौ यीणगिद्धि०३ मिच्छा० इति पाठः ।
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बंधसण्णियासपरूवणा एवं पचलापचला०-थीणगिद्धि-मिच्छ०-अणंताणु०४ ।
२५२. साद० ज. बं० पंचणा०-छदसणा०-बारसक०-भय०-दु०-पंचिंदि०ओरालि०-तेजा-क० - ओरालि०अंगो०-पसत्यापसत्थ०४-अगु०४-तस०४-णिमि०पंचंत. णि० अणंतगु० । थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणु०४-सत्तणोक०-तिरिक्ख०तिरिक्वाणु०-उज्जो०-तित्थ०-णीचा. सिया० अणंतगुणब्भ० । दोआउ०-मणुसग०छस्संठा०-छस्संघ०-मणुसाणु०-दोविहा--थिरादिछ०-उच्चा० सिया० । तं तु० । एवं सादभंगो असाद-थिराथिर-सुभासुभ-जस०-अजस० ।
२५३. इत्थि० ज० बं० पंचणा० - णवदंस०-मिच्छ०-सोलसक०-भय-दु०पंचिंदि०-ओरालि-तेजा-क०-ओरालि अंगो०-पसत्थापसत्य०४-अगु०४-पसत्यःतस०४-सुभग-सुस्सर-आदें-णिमि०-पंचंत० णि० अणंतगुणब्भ० । सादासाद०-चदुणोक०-दोगदि-तिण्णिसंठा-तिण्णिसंघ०-दोआणु०-उज्जो०-थिराथिर-सुभासुभ-जस०अजस०-दोगोद० सिया० अणंतगुणन्भ० । एवं णवंस० । णवरि पंचसंठा०-पंचसंघ० सिया० अणंतगुणब्भ०। नुपूर्वी, उद्योत और उच्चगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारकी मुख्यतासे जानना चाहिए।
२५२. सातावेदनीयके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क, निर्माण और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, सात नोकषाय, तिर्यश्चगति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, उद्योत, तीर्थङ्कर और नीचगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। दो आयु, मनुष्यगति, छह संस्थान, छह संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, दो विहायोगति, स्थिर आदि छह और उच्चगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है, तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार सातावेदनीयके समान असातावेदनीय, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति और अयश:कीर्तिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२५३. स्त्रीवेदके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चन्द्रिय जाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार नोकषाय, दो गति, तीन संस्थान, तीन संहनन, दो आनुपूर्वी, उद्योत, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति, अयशःकीर्ति और दो गोत्रका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार नपुंसकवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि यह पाँच संस्थान और पाँच संहननका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे २५४. अरदि० ज० बं० पंचणा-छदसणा०-सादावे०-बारसक-पुरिस०-भयदु०-मणुसग०-पंचिंदि०-ओरालि०- तेजा-क० -समचदु०-ओरालि०अंगो०-वज्जरि०पसत्यापसत्य०४-मणुसाणु०-अगु०४-पसत्यवि०-तस०४-थिर-सुभ-सुभग - सुस्सरआदें -जसगि०-णिमि०-उच्चा०-पंचंत० णि. अणंतगुणभ० । तित्थ० सिया० अणंतगुणम्भः । सोग० णि । तं तु० । एवं सोग० ।
२५५. तिरिक्खाउ० ज० ब० पंचणा-णवदसणा०-मिच्छ०-सोलसक०-भयदु०-तिरिक्ख०-पंचिंदि०- ओरालि०-तेजा-क० - ओरालि. अंगो० - पसत्थापसत्य०४तिरिक्खाणु०-अगु०४-तस०४-णिमि०-णीचा०-पंचंत० णि. अणंतगुणब्भ० । सादासाद०-छस्संग-छस्संघ०-दोविहा०-थिरादिछयुग० सिया। तं तु०। सत्तणोक०उज्जो० सिया० अणंतगुणभ० । एवं मणुसाउँ० । णवरि सत्तणोक०-णीचा० सिया० अणंतगुणब्भ० । सादादि याव उच्चा० सिया० । तं तु० । मणुस०-मणुसाणु० अनन्तगुणा अधिक होता है।
२५४. अरतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पश्चन्द्रिय जाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराच. संहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशःकीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र
और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । शोकका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । इसी प्रकार शोककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२५५. तिर्यश्चायुके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण. नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तिर्यश्चगति, पश्चोन्द्रिय जाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी. अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, छह संस्थान, छह संहनन, दो विहायोगति और स्थिर आदि छह युगलका कदाचित् बन्ध करत हैं । यदि बन्ध करता है,तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। सात नोकषाय और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार मनुष्यायुकी मुख्यतासे सन्निकषे जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सात नोकषाय
और नीचगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। सातावेदनीयसे लेकर उच्चगोत्र तककी प्रकृतियोंका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है,तो जघन्य अनुभाग का भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका
१. ता. प्रतो. ज.ब.पं. (?) पंचणा० इति पाठः। इति पाठः।
२. ता. श्रा. प्रत्योः मणुसाणु
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बंधसज्णियासपरूवणा
२०७ मणुसाउ०भंगो।
२५६. पंचिंदि० ज० बं० पंचणा०-णवदंसणा०-असादा.-मिच्छ०-सोलसक०णस०-अरदि-सोग-भय-दु०-णीचा०-पंचंत० णि० अणंतगुणब्भ० । णाम सत्याणभंगो । एवं पंचिंदियभंगो ओरालि०-तेजा०-क०-ओरालि०अंगो०-पसत्य०४-अगु०३उज्जो-तस०४-णिमि०।
२५७. समचदु० ज० बं० पंचणा०-णवदसणा-मिच्छ०-सोलसक०-भय-दु०णि. अणंतगुणब्भ० । सादासाद०-दोआउ०-उच्चा० सिया० । तं तु० । सत्तणोक.. णीचा० सिया० अणंतगुणब्भ० । णाम सत्थाणभंगो। एवं समचदुर भंगो पंचसंठा०पंचसंघ०-दोविहा०-सुभादितिण्णियुग०।।
२५८. तित्थ० ज० बं० पंचणा०-छदसणा०-असादा०-बारसक०-पुरिस०अरदि-सोग-भय-दु०-उच्चा०-पंचंत० णि० अणंतगुणभः । णाम० सत्थाणभंगो।
२५६. उच्चा० ज० बं० पंचणा०-णवदेस०-मिच्छ०-सोलसक०--भय० दु०पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा-क०-ओरालि०अंगो-पसत्यापसत्य०४-अगु०४-तस०४'बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष मनुष्यायुके समान जानना चाहिए।
___२५६. पञ्चन्द्रिय जातिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार पञ्चन्द्रिय जातिके समान
औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, उद्योत, सचतुष्क और निर्माणकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२५७. समचतुरस्त्रसंस्थानके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। सातावेदनीय, अमातावेदनीय, दो आयु और उच्चगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। सात नोकषाय और नीचगोत्रका कदाचित बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार समचतुरस्त्रसंस्थानके समान पाँच संस्थान, पाँच संहनन, दो विहायोगति और शुभादि तीन युगलकी मुख्यतासे समिकर्ष जानना चाहिए।
२५८. तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, असातावेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है।
२५६. उच्चगोत्रके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शना. वरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर,
१. आ. प्रतौ पसत्यापसत्य० ४ तस० ४ इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे णिमि० णि. अणंतगुणभ० । सादासाद०--मणुसाउ०-छस्संठा०-छस्संघ०-दोविहा०थिरादिछयुग० सिया० । तं तु०। सत्तणोक० सिया० अणंतगुणन्भ० । मणुसगदिमणुसाणु० णि । तं तु० । एवं सत्तमाए पुढवीए । णवरि मणुस०-मणुसाणु०-उच्चा० तित्थयरभंगो। थीणगिदि०३-मिच्छ०-अणंताणु०४-इत्थि०--णवूस०-पंचसंठा-पंचसंघ०-अप्पसत्थ०-दूभग-दुस्सर-अणादें-णीचा० एदेसि तिरिक्खगदी धुवं कादव्वं । णवरि थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणु०४ ज० बं० तिरिक्ख०-तिरिक्रवाणु०-णीचा. णि । तं त०। एवमेदाओ अण्णोण्णस्स तं तु० । णवरि साद० ज० बं० दोगदिदोआणु०-उज्जो०-दोगो० सिया० अर्णतगुणब्भः। एवं असाद-थिरादितिण्णियुगलाणं। छसु उवरिमासु णिरयोघो । णवरि तिरिक्ख०--तिरिक्खाणु०-णीचा० परियत्तमाणियाणं कादव्वं'। थीणगिदि०३-मिच्छ०-अणंताणु०४-इत्थि-णqसगाणं मणुसगदिदुगं कादव्वं । कार्मणशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, मनुष्यायु, छह संस्थान, छह संहनन, दो विहायोगति और स्थिर
आदि छह युगलका कदाचित बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है,तो वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। सात नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्ध रता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । इसी प्रकार सातवीं पृथिवीमें भी जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका भङ्ग तीर्थङ्कर प्रकृतिके समान है। तथा स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व. अनन्तानुबन्धी चार, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्र इनकी मुख्यतासे सन्निकर्ष कहते समय तिर्यश्चगतिको ध्रुव करना चाहिए । इतनी विशेषता है कि स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभाग का भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार इन प्रकृतियोंकी मुख्यतासे परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए । किन्तु वह स्त्यानगृद्धि तीन आदिकी मुख्यतासे कहे गये सन्निकर्षके समान ही जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सातावेदनीयके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव दो गति, दो आनुपूर्वी, उद्योत और दो गोत्रका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार असातावेदनीय और स्थिर आदि तीन युगलोंकी अपेक्षा जानना चाहिए। प्रारम्भकी छह पृथिवियोंमें सामान्य नारकियोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि तिर्यश्चगति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रको परिवर्तमान प्रकृतियोंमें करना चाहिए । तथा स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके मनुष्यगति द्विक करना चाहिए।
१. ता. प्रतौ परियमाणि कादव्वं इति पाठः।
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वंधसण्णियासपरूवणा
१०६ २६०. तिरिक्खेसु आभिणि० ज० बं० चदुणा०-छदंस०-अहकसा०-पंचणोक०अप्पसत्थ०-४-उप०-पंचंत० णिय० । तं तु०। साद०-देवग०पसत्थसत्तावीसं-उच्चा० णि० अणंतगुणब्भः । एवं तं तु पदिदाओ अण्णमण्णस्स तं तु० । सेसं ओघं । णवरि अरदि० ज० बं० पंचणा०-छदंस०-अहक०-पुरिस०-भय-दु०-उच्चा०-पंचंत० णि अणंतगुणब्भ० । सेसं णामाणं णाणावरणभंगो। एवं पंचिंदिय०तिरि०३ । णवरि तिरिक्ख.. तिरिक्खाणु०-णीचा परियत्तमाणियाणं कादव्वं तिरिक्वेसु० । णवरि पंचिंदियजादीणं ओरालि०-ओरालि०अंगो०-उज्जो०-तिरिक्खगदिदुग० अप्पप्पणो सत्थाणं कादव्वं ।
२६१. पंचिंदि०तिरि०अपज्ज. आभिणि. ज. बं० चदुणा०-णवदंसणाoमिच्छ०-सोलसक०-पंचणोक०-अप्पसत्थ०४-उप०-पंचंत० णि । तं तु० । साद०मणुस-पंचिंदि०-तिण्णिसरीर-समचदु०--ओरालि०अंगो० - वज्जरि०-पसत्थ०४-मणुसाणु०-अगु०३-पसत्थवि०-तस४-थिरादिछ०-णिमि०-उच्चा० णि. अणंतगुणब्भ० । एवं तं तु० पदिदाओ अण्णोणं तं तु०।।
२६०. तिर्यञ्चोंमें आभिनिवोधिकज्ञानावरणके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, आठ कषाय, पाँच नोकषाय, अप्रशस्त, वर्णचतुष्क उपघात, और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धि रूप होता है। सातावेदनीय, देवगति आदि प्रशस्त सत्ताईस प्रकृतियों
और उच्चगोत्रका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार तं तु पतित जितनी प्रकृतियाँ हैं,उनकी मुख्यतासे परस्पर आभिनिबोधिकज्ञानावरणकी मुख्यतासे जिस प्रकार सन्निकर्ष कहा है उस प्रकार जानना चाहिए। शेष भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि अरतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, पाठ कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। शेष नामकर्मकी प्रकृतियोंका ज्ञानावरणके समान भङ्ग है । इसी प्रकार अर्थात् सामान्य तिर्यश्चोंके समान पश्चन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकके सब प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि तिर्यश्चोंमें तिर्यश्चगति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रको परिवर्तमान प्रकृतियों में करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पञ्चोन्द्रियजाति आदिमें औदारिकशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, उद्योत और तिर्यञ्चगतिद्विकका अपना-अपना स्वस्थान सन्निकर्ष कहना चाहिए।
२६१. पश्चन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें आभिनिबोधिकज्ञानावरणके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। सातावेदनीय, मनुष्य गति, पञ्चन्द्रियजाति, तीन शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराचसंहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण और उच्चगोत्रका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक
१. श्रा० प्रतौ चदुणोक० इति पाठः ।
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महाबंध अणुभागबंधाहियारे
तेजा
२६२. साद० ज० बं० पंचणा ० णवदंस० - मिच्छ० - सोलसक०-भय-दु० - ओरालि०[०-- क०--पसत्थापसत्थ०४ - अगु० - उप०-- णिमि०- पंचंत० णि० अनंतगुणन्भ० । सत्तणोक० --ओरा० अंगो० - पर० - उस्सा० आदाउज्जो सिया० अनंतगुणन्भ० । दो उ०दोगदि-पंचजादि - छस्सं ठा० छस्संघं०-दो आणु ० दोविहा० - तस थावरादिदसयुग०दोगो० सिया० । तं तु० । एवं सादभंगो असाद ० -अथिर असुभ० - अजस० ।
०
११०
२६३. इत्थि० ज० बं० पंचणा - णवदंसणा०-मिच्छ० - सोलसक० -भय-दु०मणुस ० - पंचिंदि० - ओरालि०- तेजा ० क ० -ओरालि० अंगो ० - पसत्थापसत्थ०४- मणुसाणु०अगु०४-पसत्थविं०तस०४ - सुभग-मुस्सर-आदे० - णिमि० उच्चा० - पंचंत० णि० अनंतगुणन्भ० । सादासाद० - चदुणोक० - तिण्णिसंठा० - तिण्णिसंघ० - थिरादितिष्णियुग ० सिया अनंतगुणभ० । एवं णवुंस० । णवरि पंचसंठा०- पंचसंघ० ।
२६४. अरदि० ज० बं० पंचणा० - णवदंसणा ० - मिच्छ० - सोलसक० - पुरिस०होता है । इसी प्रकार तं तु पतित जितनी प्रकृतियाँ हैं, उनकी मुख्यतासे परस्पर सन्निकर्ष आभिनिबोधिज्ञानावरण के समान जानना चाहिए ।
२६२. सातावेदनीयके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिध्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा. श्रदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायका नियम से बन्ध करता है जो अजधन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । सात नोकषाय, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, परघात, उच्छ्वास, आतप और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । दो आयु, दो गति, पाँच जाति, छह संस्थान, छह संहनन, दो
पूर्वी दो विहायोगति, त्रस-स्थावर आदि दस युगल और दो गोत्रका कदाचित् बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । इसी प्रकार सातावेदनीयके समान असातावेदनीय, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्तिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
२६३. स्त्रीवेदके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पच ेद्रियजाति, औदारिकशरीर, तेजखशरीर, कार्मणशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, उच्चगोत्र, और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार नोकषाय, तीन संस्थान, तीन संहनन और स्थिर आदि तीन युगलका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार नपुंसकवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसमें पाँच संस्थान और पाँच संहनन कहने चाहिए ।
२६४. अरतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, १. ता० प्रतौ पंचजादि० छह घ० इति पाठः । २. ता० प्रतौ गु० पसत्थापसत्थ० इति पाठः ।
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बंधसणिया सपरूवणा
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० दु० - मणुसं० पंचिंदि० ओरालि० - तेजा०क० समचदु० - ओरालि० अंगो ० वज्जरि०पसत्थापसत्थ०४- मणुसाणु० - अगु०४- पसत्थवि ० -तस०४- सुभग- सुस्सर-आदें० - णिमि०उच्चा० - पंचत० णि० अनंतगुणन्भ० । सादासाद०- -थिरा दितिष्णियुग ० सिया० अनंतगुणभ० । सोग० णि० । तं तु ० । एवं सोग० । तिरिख ० - मणुसाउ०- मणुसग ०मणुसाणु० ओघं ।
२६५. तिरिक्ख० ज० बं० पंचणा० - णवदंस०-मिच्छ०- सोलसक० भय०-दु०पंचंत० णि० अनंतगुणब्भ० । सादासाद० - तिरिक्खाउ० सिया० । तं तु० । सत्तणोक० सिया० अनंतगुणन्भ० । णीचा० णि० । तं तु० । णाम० सत्थाणभंगो | एवं तिरिक्खाणु० - णीचा० । चदुजादि वस्संठा० - इस्संघ० - दोविहा० - थिरादि०४ ओघं ।
।
२६६. पंचिंदि० ज० बं० पंचणा० णवदंस०-मिच्छ०-सोलसक० भय०-दु०पंचत० नियमा० अनंतगुणग्भ० । सादासाद० - दोआउ० - दोगोद० सिया० । तं तु० । मिध्यात्व, सोलह कपाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पश्चन्द्रिय जाति, श्रदारिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, औदारिक आांगोपांग, वज्रर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो जघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। सातावेदनीय, असातावेदनीय और स्थिर आदि तीन युगलका कदाचित् बन्ध करता है जो जघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । शोकका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजवन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार शोककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । तिर्यवायु, मनुष्यायु, मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष के समान है ।
२६५. तिर्यञ्चगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिध्यात्त्र, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । सातावेदनीय, असातावेदनीय और तिर्यञ्चायुका कदाचित् बन्ध करता है जो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । सात नोकायका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । नीचगोत्रका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पति वृद्धिरूप होता है। नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्ष के समान है। इसी प्रकार तिर्यगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। चार जाति, छह संस्थान, छह संहनन, दो विहायोगति और स्थिर आदि चार युगलकी मुख्यता से सन्निकर्ष ओघ के समान है ।
२६६. पचेन्द्रिय जातिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिध्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा और पाँच अन्तरायका नियम से बन्ध करता है जो अन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, दो आयु और दो गोका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है, तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह १ ता० प्रतौ भय० म० इति पाठः ।
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महाबंध अणुभागबंधाहियारे
सत्तणोक० सिया० अनंतगुणग्भ० । णाम० सत्थाणभंगो । एवं पंचिदियजादिभंगो तस०४ । थिरादिछयुग० हेट्ठा उवरिं पंचिंदियभंगो। णामाणं अप्पप्पणो सत्थाणभंगो । २६७. ओरालि० ज० बं० पंचणा ० णवदंसणा ० - असाद ०-मिच्छ० - सोलसक०पंचणोक ० - णीचा ० - पंचंत० णिय अनंतगुणब्भ० । णाम० सत्थाणभंगो । एवं ओरालियभंगो तेजा ० -- क० - पसत्थव ०४ - अगु० - णिमि० -ओरालि० अंगो०- पर० - उस्सा ० 1 आदाउजो० एवं चैव । सादासाद ० चदुणोक० सिया० अनंतगुणन्भ० । णाम० सत्थाणभंगो | उच्चा० ओघो । णवरि पंचिंदिय० णि० । तं तु ० । एवं सव्वअपज्जत्ताणं सव्वविगलिंदियाणं पुढ० - आउ०- वणष्फदि ० - बादरपत्ते ० - णियोदाणं च । तेऊणं [वाऊणं] पि एवं चेव । णवरि मणुसगदिचदुक्कं वज्ज । तिरिक्खगदिधुविगाणं सव्वाणं आभिणि० भंगो । एदिए अपज्जत्तभंगो । णवरि तिरिक्खगदितिगं तिरिक्खोघं ।
२६८. मणुस ० ३ खविगाणं संजमपाओग्गाणं ओघं । सेसाणं पंचिदियतिरिक्ख भंगो ।
छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । सात नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार पञ्च ेन्द्रियजातिके समान त्रसचतुष्ककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। स्थिर आदि छह युगलकी मुख्यतासे नामकर्मसे पूर्वकी और बादकी प्रकृतियोंका सन्निकर्ष पञ्च ेन्द्रियजातिके समान है । तथा नामकर्म की प्रकृतियोंका भङ्ग अपने-अपने स्वस्थान सन्निकर्षके समान जानना चाहिए।
२६७. औदारिकशरीरके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियम से बन्ध करता है जो जघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्ष के समान है। इसी प्रकार श्रदारिकशरीर के समान तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, निर्माण, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, परघात और उच्छ्वासकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। आतप और उद्योतकी मुख्यतासे भी इसी प्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि यह सातावेदनीय, असातावेदनीय, और चार नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्ष के समान है । उच्चगोत्रकी मुख्यतासे धके समान सन्निकर्ष है । इतनी विशेषता है कि यह पश्चेन्द्रिय जातिका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभाग का भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार अर्थात् पच ेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्तकोंके समान सब अपर्याप्तक, सब विकलेन्द्रिय, पृथिवीकायिक, जलकायिक, वनस्पतिकायिक, वनस्पतिकायिक बादर प्रत्येक और निगोद जीवोंके जानना चाहिए। अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंके भी इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मनुष्यगति चतुष्कको छोड़कर जानना चाहिए । तथा तिर्यञ्चगति आदि सब ध्रुव प्रकृतियोंका भङ्ग अभिनिबोधिकज्ञानावरणके समान है । एकेन्द्रियों में अपर्याप्तकों के समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्चगतित्रिकका भङ्ग सामान्य तिर्यश्र्चोंके समान है।
२६८. मनुष्यत्रिक में क्षपक प्रकृतियाँ और संयम प्रायोग्य प्रकृतियाँ इनका भङ्ग श्रधके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग पञ्चद्रिय तिर्यश्वों के समान है ।
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बंधसण्णियासपरूवणा
११३ २६६. देवेसु सत्तण्णं कम्माणं पढमपुढविभंगो। सादावे० ज० बं० दोगदिएइंदि०-छस्संठा०-छस्संघ०-दोआणु०-दोविहा०-थावर-थिरार्दिछयुग०-दोगो० सिया० । तं तु० । पंचिं०-ओरालि०अंगो०-आदाउज्जो०-तस-तित्थ० सिया० अणंतगुणब्भ० । सेसाणं णिरयभंगो। णामाणं तिरिक्खगदितिगं परियत्तमाणियाणं कादब्बं । एइंदि०आदाव-थावर० ओघं । पंचिं०-ओरालि०अंगो०-तस० णिरयभंगो। णाम० सत्याणभंगो। सेसं पढमपुढविभंगो।
२७०. भवण-वाण-०-जोदिसि०-सोधम्मीसाणं सत्तण्णं कम्माणं देवोघं । णामाणं हेहा उवरिं देवोघं । णवरि णामाणं अप्पप्पणो सत्थाणभंगो। सणक्कुमार याव सहस्सार त्ति पढमपुढविभंगो । आणद याव गवगेवज त्ति सत्तण्णं कम्माणं एवं चेव । णामाणं पि तं चेव । णवरि मणुस० ज० बं-पंचणा०-णवदंस०-असाद०-मिच्छ०सोलसक०-पंचणोक०-णीचा०-पंचंत० णि० अणंतगुणभ० । णामाणं सत्थाणभंगो। एवं सव्वसंकिलिहाणं ।
२७१. अणुदिस याव सव्वह त्ति आभिणि दंडओ देवोघं। साद० ज००पंचणा०
२६९. देवोंमें सात कर्मोंका भङ्ग पहली पृथिवीके समान है। सातावेदनीयके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव दो गति, एकेन्द्रियजाति, छह संस्थान, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति, स्थावर, स्थिर आदि छह युगल और दो गोत्रका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है.तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, आतप, उद्योत, त्रस और तीर्थङ्करका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग नारकियोंके समान है। किन्तु नामकर्मकी तिर्यश्चगतित्रिकको परिवर्तमान करना चाहिए। एकेन्द्रियजाति, आतप और स्थावरका भङ्ग ओघके समान है । पञ्चन्द्रियजाति, औदारिक आङ्गोपाङ्ग और त्रसप्रकृतिका भङ्ग नारकियोंके समान है। नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। शेष भंग पहली पृथिवीके समान है।
२७०. भघनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और सौधर्म-ऐशान कल्पके देवोंमें सात कर्मोंका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। नामकर्मके पहले और अन्तकी प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग अपने अपने स्वस्थानके समान है । सनत्कुमारसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें पहली पृथिवीके समान भङ्ग है। आनत कल्पसे लेकर नौ ग्रैवेयक तकके देवोंमें सात कोका भङ्ग इसी प्रकार है। नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग भी उसी प्रकार है। इतनी विशेषता है कि मनुष्यगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकपाय, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार सर्व संक्लेशसे जघन्य बँधनेवाली प्रकृतियोंके सम्बन्धमें जानना चाहिए।
२७१. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें आभिनियोधिक ज्ञानावरण दण्डकका १. ता० प्रा० प्रत्योः थावरादि इति पाठः । २. श्रा० प्रती णाम सत्थाणं हेहा इति पाठः। १५
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महाणुभागबंधाहियारे
छदंस०-बारसक०-पुरिस०-भय-दु० - मणुसगदि पंचिं ० - ओरालि० - तेजा ० क० - समचदु०ओरालि० अंगो०- वज्जरि० - पसत्थापसत्य०४ - मणुसाणु ० - अगु०४ - पसत्थवि०-तस०४सुभग- सुस्सर-आदे० - णिमि० उच्चा० पंचत० णि० अनंतगुणन्भ० । चदुणोक० - तित्थ० सिया० अनंतगुणन्भ० । मणुसाउ०- थिरादितिष्णियुग० सिया० । तं तु० । एवं सादभंगो असाद० - मणुसाउ० - थिरादितिष्णियुग० । अरदि-सोगं देवोघं० ।
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२७२. मणुसग० ज० बं० पंचणा० छदंस ० - असादा ० - बार सक० - पंचणोक०पंचत० णि० अनंतगुणन्भ० । उच्चा० णि० । तं तु० । णाम० सत्थाणभंगो० । एवं सव्वसंकिलिद्वाण भंगो उच्चा ० ।
२७३. पंचिंदि ० -तस०२ - पंचमण० - पंचवचि ० - कायजोगी० ओघो। ओरालि० मणुभंगो' । णवरि तिरिक्ख०३ मूलोघं । ओरालियमि० आभिणि० दंडओ तिरिक्खोघं । णवरि बारसक० णि० । तं तु० । तित्थ० सिया० अनंतगुणन्भ • | थीण
०
भङ्ग सामान्य देवोंके समान है । सातावेदनीयके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पख ेन्द्रिय जाति, श्रदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्र संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वार्षभनाराच संहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। चार नोकषाय और तीर्थङ्करका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । मनुष्यायु और स्थिर आदि तीन युगलका कदाचित बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है, तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । इसी प्रकार सातावेदनीयके समान असातावेदनीय, मनुष्यायु और स्थिर आदि तीन युगलकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। अरति और शोकका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है ।
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२७२. मनुष्यगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, असातावेदनीय, बारह कषाय, पाँच नोकषाय और पाँच अन्तरायका नियम से बन्ध करता है जो अन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । उच्चगोत्रका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि
जघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्ष के समान है। इस प्रकार सर्व संक्लेशसे जघन्य बन्धको प्राप्त होनेवाली प्रकृतियोंके समान उच्चगोत्रकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
२७३. पच ेन्द्रियद्विक, सद्विक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी और काययोगी जीवों के समान भङ्ग है । औदारिककाययोगी जीवोंमें मनुष्योंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि तिर्यगतित्रिकका भङ्ग मूलोघके समान है। श्रदारिक मिश्रकाययोगी जीवों में आभिनिबोधिकज्ञानावरण दण्डकका भङ्ग सामान्य तिर्यखोंके समान है। इतनी विशेषता है कि बारह कषायका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य
१. ता० ना० प्रत्योः मणुसगदिभंगो इति पाठः ।
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बंधसणियासपरूवण।
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गिद्धि०३-अर्णताणुबं०४ देवोघं । सादासाद०-थिरादितिण्णियुग० ओघं । णवरि असाद० जह० बंधगस्स विसेसो। देवगदिपंचग० सिया० अणंतगुणब्भ० । इत्थि०पुरिस०-दोआउ०-मणुसग०--पंचजादि-ओरालि०--तेजा.--.--छस्संठा०--ओरालि०अंगो०-छस्संघ०-पसत्यापसत्थ०४-मणुसाणु०-अगु०४-आदाउज्जो०-दोविहा०-तसादिदसयुग०-उच्चा० पंचिंदियतिरिक्खभंगो। अरदि-सोगं देवोघं । णवरि देवगदिसंजुत्तं । तिरिक्ख..तिरिक्वाणु०-णीचा ओघ । देवगदिपंचगं तित्थयरभंगो।
२७४. वेउवि० आभिगिदंडओ थीणगिद्धिदंडओ च णिरयोघं। तिरिक्वायुतिरिक्वग०-तिरिक्वाणु०-णीचा०णिरयोघं । सेसाणं पगदीणं देवोघं। णवरि इत्थि०णस० णिरयोघं । एवं वेउव्वियमि० ।।
२७५.[आहार०-]आहारमि० आभिणि० ज० बं० चदुणा०-छदसणा०-चदुसंज०पंचणोक०-अप्पसत्थ०४-उप०-पंचंत. णि । तं तु० । साद०-देवगदिआदिसत्तावीसंउच्चा०णि तित्थ० सिया० अणंतगुणब्भ० । एवमण्णोण्णं तं तु० । साद ज. बं. सव्वह०भंगो । णवरि अहक० वज्ज । देवगदी धुवं । एवं सादभंगो देवाउ०-थिर-सुभअनन्तगुणा अधिक होता है। स्त्यानगृद्धि तीन और अनन्तानुबन्धी चारका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। सातावेदनीय और स्थिर आदि तीन युगलका भंग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि असातावेदनीयके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाले जीवके विशेष जानना चाहिए। देवगति पञ्चकका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, दो आयु, मनुष्यगति, पाँच जाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, छह संस्थान, औदारिक प्रांगोपांग, छह संहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, सादि दस युगल और उच्चगोत्रका भंग पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है । अरति और शोकका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि देवगतिसंयुक्त करना चाहिए । तिर्यञ्चगति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका भङ्ग ओघके समान है । देवगतिपञ्चकका भङ्ग तीर्थङ्कर प्रकृतिके समान है।
२७४. वैक्रियिककायोगी जीवोंमें आभिनिबोधिकज्ञानावरणदण्डक और स्त्यानगृद्धिदण्डक सामान्य नारकियोंके समान है । तिर्यश्चायु, तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंके जानना चाहिए ।
२७५. आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें आभिनिबोधिकज्ञानावरणके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, पाँच नोकषाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थानपतित वृद्धिरूप होता है। सातावेदनीय, देवगति आदि सत्ताईस प्रकृतियों और उच्चगोत्रका नियमसे तथा तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार तं तु पतित प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्षे जानना चाहिए। सातावेदनीयके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाले जीवका भङ्ग सर्वार्थसिद्धि के समान है। इतनी विशेषता है कि आठ कषायोंको छोड़कर कहना चाहिए।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे जस० । एवं तप्पडिपक्वाणं । णवरि देवाउ० गत्थि ।
२७६. देवगदि० ज० बं० पंचणा०-छदसणा० -असादा०-चदुसंज०-पंचणोक०अप्पसत्थ०४-उप०-पंचंत० णि० अणंतगुणब्भ० । उच्चा० णि.! तं तु० । णामाणं सत्थाणभंगो । एवं सव्वसंकिलिहाणं ।
- २७७. कम्मइ० आभिणि० ज० बं० दोगदि दोसरीर -दोअंगो०-वजरि०दोआणु०-तित्थ० सिया० अणंतगुणब्भ० । सेसं ओरालियमिस्स भंगो। थीणगि०[३-] मिच्छ०-अणंताणु०४ ज. बं० मणुस०--मणुसाणु०-उज्जो०--उच्चा० सिया० अणंतगुणब्भ० । तिरिक्व०-तिरिक्रवाणु०--णीचा० सिया० । तं तु० । सेसाणं ओघं । णवरि दोगदि-दोसरीर--दोअंगो०-वजरि०--दोआणु० सिया० अणंतगुणब्भ० । देवगदि०४ ओरालियमिस्स भंगो। तिरिक्ख०-तिरिक्खाणु०-णीचा० सत्तमपुढविभंगो । __२७८, ओरालि० ज० बं० एइंदि०--थावरादि०४ सिया० अणंतगुणब्भ० ।
देवगतिको ध्रुव कहना चाहिए। इसी प्रकार सातावेदनीयके समान देवायु, स्थिर, शुभ और यशः कीर्तिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। इसी प्रकार इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि देवायु नहीं है।
२७६. देवगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, असातावेदनीय, चार संज्वलन, पाँच नोकषाय. अप्रशस्त वर्ण चतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। उच्चगोत्रका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है. तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार सर्व संकलेशसे जघन्य बँधनेवाली प्रकृतियोंका जानना चाहिए ।
२७७. कार्मणकाययोगी जीवोंमें आभिनिबोधिकज्ञानावरणके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव दो गति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराच संहनन, दो भानुपूर्वी और तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। शेष भङ्ग
औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंके समान है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचारके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, उद्योत और उच्चगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। तिर्यश्चगति, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका कदाचित बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका वन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि दो गति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग. वर्षभनाराच संहनन और दो आनुपूर्वीका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। देवगतिचतुष्कका भङ्ग औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंके समान है। तिर्यश्चगति, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका भङ्ग सातवीं पृथिवीके समान है।
२७८. औदारिकशरीरके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव एकेन्द्रियजाति और स्थावर आदि चारका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है ।
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बंधसण्णियासपरूवणा
११७ पंचिं०-ओरालि० अंगो०-पर०-उस्सा०-आदाउज्जो०-तस४ सिया० । तं तु० । एवं
ओरालिय०भंगो तेजा०-क०-पसत्थ०४-अगु०-णिमि०-पंचिं०-पर०-उस्सा०-उज्जोव० । तस०४ मूलोघं । सेसाणं ओरालियमिस्स०भंगो।।
२७६. इत्थिवेदेसु आभिणि० ज० बं० चदुणा०-चदुदंस०-चदुसंज-पुरिस०पंचंत० णि. जहण्णा० । साद०-जस०-उच्चा० णि० अणंतगुणब्भ० । एवमेदाओ अण्णोएणं जहण्णा० । सेसाणं खवगपगदीणं ओघं ।।
२८०. सादा० ज० बं० पंचणा०-छदंसणा०-चदुसंज०-भय-दुगुं०-पंचंत० णि. अणंतगुणब्भ० । सेसं पंचिंदियतिरिक्खभंगो। तित्थ० सिया० अणंतगुणब्भ० । एवं असाद०-थिरादितिएिणयु०। इत्थि०-णस०-चदुआउ०-चदुगदि-चदुजादि छस्संठा०छस्संघ०-चदुआणु०-दोविहा०-थावरादि०४-मज्झिल्ल०३-दोगो० पंचिं०तिरिक्वभंगो ।
२८१. पंचिंदि० ज० पंचणा०--णवदंस०-असाद०--मिच्छ०--सोलसक०पंचणोक०-णिरयग०-हुंडसंठा०-अप्पसत्थ०४-णिरयाणु०--उप०--अप्पसत्थ०--अथिरादिछ०-णीचा०-पंचंतरा० णि० अणंतगुणब्भ० । वेउवि०-तेजा०-क०-वेउव्वि०अंगो०पञ्चन्द्रियजाति, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत और बसचतुष्कका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है,तो वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थानपतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार औदारिकशरीरके समान तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, निर्माण, पञ्चन्द्रियजाति, परघात, उच्छवास और उद्योतकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। सचतुष्ककी मुख्यतासे सन्निकर्ष मूलोषके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंके समान है।
२७६. स्त्रीवेदी जीवोंमें आभिनिबोधिकज्ञानावरणके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद और पाँच अन्तरायका नियमसे जघन्य अनुभाग बन्ध करता है। सातावेदनीय, यशाकीर्ति और उच्चगोत्रका नियमसे बन्ध करता हैजो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार परस्पर जघन्य अनुभाग बन्ध करनेवाली इन प्रकृतियों की मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। शेष क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है।
२८०. सातावेदनीयके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, भय, जुगुप्सा और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । शेष भङ्ग पञ्चन्द्रिय तिर्यश्चोंके समान है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार असातावेदनीय और स्थिर आदि तीन युगलकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, चार आयु, चार गति, चार जाति, छह संस्थान, छह संहनन, चार आनुपूर्वी, दो विहायोगति, स्थावर आदि चार, मध्यके तीन युगल और दो गोत्रका भङ्ग पञ्चन्द्रिय तिर्यश्चोंके समान है।
२८१. पश्चन्द्रियजातिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, नरकगति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, नरकगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, अस्थिर आदि छह, नीचगोत्र और पांच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरु
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महाबँधे अणुभागबंधाहियारे
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पसत्थ०४-अगु० ३- तस ०४ - णिमि० णि० । तं तु ० । एवं वेडव्वि ० - वेडव्वि ० अंगो० [तस०]| २८२. ओरालि० ६० ज० बं० हेट्ठा उवरि पंचिदियजादिभंगो । तिरिक्ख ०. एइंदि० - हुंड० - अप्पसत्थ०४ - तिरिक्खाणु० - उप० -- थावर ० -- अथिरादिपंच० -- णीचा०पंचत० णि० अनंतगुणब्भ० । तेजइगादीणं० णि० । तं तु० । आदाउज्जो० सिया० । तं तु० । [ एवं आदाउज्जो ०
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२८३, तेज० जह० हेट्ठा उवरिं ओरालिय० भंगो । दोगदि एइंदि - दोआणु०अप्पसत्थ०-थावर०--दुस्सर० सिया० अनंतगु० । पंचिं ० - ओरालि० - वेडव्वियदुगआदाउ०-तस० सिया० । तं तु० । कम्म० -- पसत्थ०४ - अगु० ३ - बादर - पज्जत्त - पत्ते ०णिमि० णि० । तं तु । हुंड० - अप्पसत्थ०४- उप०- अथिरादिपंच० णि० अनंतगु० । एवं कम्मइगादिसं किलिद्वाणं ।
लघुत्रिक, त्रसचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिक श्रङ्गोपाङ्ग और त्रसकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
२८२. दारिकशरीर के जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाले जीवके पूर्वकी और अन्तकी प्रकृतियोंका भङ्ग पञ्च ेन्द्रियजातिके समान है । तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, स्थावर, अस्थिर आदि पाँच, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियम से बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। तेजसशरीर आदिका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। आतप और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है. तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि श्रजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार अर्थात् दारिकशरीर के भङ्ग समान आतप और उद्योतका भंग हैं ।
२८३. तैजसशरीर के जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाले जीवके पूर्वकी और अन्तकी प्रकृतियों का भंग श्रदारिकशरीर के समान है। दो गति, एकेन्द्रियजाति, दो आनुपूर्वी, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर और दुःस्वरका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । पचन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीरद्विक, आतप और त्रसका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है, तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि श्रजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक और निर्माणका नियम से बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और अस्थिर आदि पाँचका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार संक्लेशसे बँधनेवाली कार्मणशरीर आदि प्रकृतियों का सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
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बंधसण्णियासपरूवणा
११६ २८४. ओरालि०अंगो० ज० ब० हेहा उवरिं तेजइगभंगो। बीइंदि०-पंचिं०पर०-उस्सा०-उज्जो०-अप्पसत्थं०-पज्जत्तापज्जत्त०-दुस्सर० सिया० अणंतगु० । तिरिक्खगदिसंजुत्ताओ णिय, अणंतगु० । तित्थयरं ओघं ।
२८५, पुरिसेसु सत्तण्णं कम्माणं इत्थिभंगो । पंचिंदिय०--ओरालि०-वेउव्वि०आहार-तेजा.-क०-तिणि अंगो०-पसत्थ०४-अगु०३-आदाउज्जो०-तस०४-णिमि०खविगाणं तित्थय० ओघं । सेसाणं इत्थिभंगो।
___ २८६. णqसगे पढमदंडओ इत्थिभंगो । सेसं ओघ । णवरि पंचिंदि० ज० बं. पंचणा०-णवदंस०-असाद०-मिच्छ०-सोलसक०-पंचणोक०-हुंड०-अप्पसत्थ०४-उप०अप्पसत्थ०-अथिरादिछ०--णीचा०--पंचंत० णि. अणंतगु० । दोगदि-असंप०दोआणु-णीचा० [सिया०] अणंतगु० । दोसरीर--दोअंगो०-उज्जो० सिया । तं तु० । तेजा.-क०-पसत्य०४-अगु'०३-तस०४-णिमि०णि तं तु० । एवं पंचिंदियभंगो तेजा०-क०-पसत्थ०४-अगु०३-तस०४-णिमि० । ओरालि'.-ओरालि०
२८४. औदारिक आङ्गोपांगके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाले जीवके पूर्वकी और अन्तकी प्रकृतियोंका भंग तैजसशरीरके समान है। द्वीन्द्रियजाति, पञ्चन्द्रियजाति, परवात, उच्छवास, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, पर्याप्त, अपर्याप्त और दुःस्वरका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। तिर्यञ्चगति संयुक्त प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग ओघके समान है। ।
२८५. पुरुषवेदी जीवोंमें सात कर्मोंका भङ्ग स्त्रीवेदी जीवोंके समान है। पञ्चन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर, आहारकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, तीन आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, आतप, उद्योत, त्रसचतुष्क, निर्माण, क्षपक प्रकृतियाँ और तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग ओघके समान है। तथा शेष प्रकृतियोंका भङ्ग स्त्रीवेदीके जीवोंके समान है।
२८६. नपुंसकवेदी जीवों में प्रथम दण्डकका भङ्ग स्त्रीवेदी जीवोंके समान है। शेष भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि पञ्चोन्द्रियजातिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उषघात, अप्रशस्त विहायोगति, अस्थिर आदि छह, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। दो गति, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, दो आनुपूर्वी और नीचगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है, तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, त्रसचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार पञ्चन्द्रिय जातिके समान तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, बसचतुष्क और निर्माणकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । औदारिक
१. श्रा० प्रतौ अप्पसत्थ०४ इति पाठः । २. ता. श्री. प्रत्योः -पजत पत्ते. दुस्सर इति पाठः । ३. ता० प्रती दोगदि० असंप (अप्पस ) त्थ दोश्राणु०, श्रा० प्रतौ दोगदि० अप्पसस्थ० दोप्राणु० इति पाठः । ४. ता. प्रतो अगु०४ इति पाठः। ५. प्रा. प्रतौ तस ४ णिमि० श्रोरालि• इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे अंगो०-उज्जो० णिरयभंगो । आदाव. तिरिक्खभंगो । सेसं ओघं ।
२८७. अवगदवेदेसु अप्पप्पणो पगदीओ ओघो ।
२८८. कोधादि०४ ओघं । णवरि कोधे०१८ णिय० जह०। माणे०१७ जह० । मायाए१६ जह० । लोभे० ओघो।
२८६. मदि-सुद०-आभिणि० ज० बं० चदुणा० णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक०-पंचणोक-अप्पसत्थ०४-उप०-पंचंत० णि० । तं तु०। सादावे०-देवगदिसत्तावीसं-उच्चा० णि० अर्णतगु० । एवमेदाओ तं तु० पदिदाओ' अण्णमण्णस्स तं तु०।
२६०. अरदि० ज० बं० पंचणा-णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक०-पुरिस०-भयदु०-पंचिंदि०-तेजा०-क०-समचदु०-पसत्थापसत्थ०४-अगु०४-पसत्थे०-तस०४-सुभगमुस्सर-आदें--णिमि०-पंचंत० णि. अणंतगु० । सादासोद०--तिण्णिगदि-दोसरीरदोअंगों वज्जरि०-तिण्णिआणु०-उज्जो०-थिरादि तिण्णियुग०-दोगो०सिया०अणंतगु०। शरीर, औदारिकांगोपांग और उद्योतका भंग नारकियोंके समान है। आतपका भंग तिर्यञ्चोंके समान है । शेष भंग ओघके समान है। . २८७. अपगतवेदी जीवोंमें अपनी-अपनी प्रकृतियोंका भंग ओघके समान है।
२८८. क्रोधादि चार कषायोंमें ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि क्रोध कषायमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तराय इन अठारह प्रकृतियोंका नियमसे एक साथ जघन्य अनुभागबन्ध होता है। मानकषायमें संज्वलन क्रोधके सिवा सत्रह प्रकृतियोंका नियमसे जघन्य अनुभागबन्ध होता है। माया कषायमें संज्वलनक्रोध और संज्वलन मानके सिवा सोलह प्रकृतियोंका नियमसे जघन्य अनुभागबन्ध होता है । लोभकषायमें ओघके समान भंग है।
२८६. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें आभिनिबोधिकज्ञानावरणके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। सातावेदनीय, देवगति
आदि सत्ताईस प्रकृतियाँ और उच्चगोत्रका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार इन तं तु पतित प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष परस्पर आभिनिबोधिकज्ञानावरणके समान जानना चाहिए।
२६०. अरतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, पञ्चोन्द्रिय जाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्रसस्थान, प्रशस्त वणचतुष्क, अप्रशस्त वणेचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायागति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, तीन गति, दो शरीर, दो प्रांगोपांग, वज्रर्षभनाराचसंहनन, तीन आनुपूर्वी, उद्योत, स्थिर आदि तीन युगल और दो गोत्रका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। शेष भंग ओघके
१. ता० प्रतौ तं तु पंचिंदा (दिया) श्रो, आ. प्रतौ तं तु. पंचिंदियाश्रो इति पाठः । २. श्रा प्रतो श्रगु० ३ पसस्थ० इति पाठः। ३. ता. श्रा०प्रत्योः दोगो० इति पाठः । ४. श्रा०प्रतौ तिण्णि श्राणु थिरादि० इति पाठः।
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बंधसण्णियासपरूवणा
१२१ सैसं ओघं । एवं विभंग।
२६१. आभिणि-सुद०-ओधि० खविगाणं पगदीणं अरदि-सोगाणं च ओषं संजमपाओग्गाणं च । साद० ज० बं० पंचणा०-छदंस०-चदुसंज०-पुरिस०-भय-दु०पंचिं०-समचदु०-तेजा०-क०-पसत्थापसत्थ०४-अगु०४-पसत्य०-तस०४-सुभग-सुस्सरआदे-णिमि०-उच्चा०-पंचंत० णि० अणंतगु० । अहक०-चदुणोक०-दोगदि-दोसरीरदोअंगो०-वज्जरि०-दोआणु०-तित्थय. सिया. अणंतगु० । दोआउ०-थिरादितिण्णियुग० सिया० । तं तु० । एवमसा०-दोआउ०-थिरादितिण्णियु०।
___ २६२. मणुस० ज० बं० पंचणा०-छदसणा-असादा०-बारसक०-पंचणोक०अप्पसत्थ०४-उप०-अथिर-असुभ-अजस०-पंचंत० णि. अणंतगु० । पंचिदियादि याव णिमि०-उच्चा० णि । तं तु० । एवं मणुसगदिपंच० ।
२६३. देवगदि ज० ब० हेहा उवरि मणुसगदिभंगो। णाम सत्थाणभंगो। एवं देवगदि०४ ।
२६४. पंचिंदि० ज० ब० हेहा उवरि मणुसगदिभंगो। णामाणं० दोगदिसमान है। इसी प्रकार अर्थात् मत्यज्ञानी जीवोंके समान विभङ्गज्ञानी जीवोंके जानना चाहिए।
२६१. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें क्षपक प्रकृतियोंका, अरति शोकका व संयमप्रायोग्य प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। सातावेदनीयके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, पञ्चन्द्रियजाति, समचतुरस्रसंस्थान, तेजसशरीर. कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। आठ कषाय, चार नोकपाय, दो गति, दो गरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराच संहनन, दो आनुपूर्वी और तीर्थङ्करका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अननन्तगुणा अधिक होता है। दो आयु और स्थिर आदि तीन युगलका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है,तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार असातावेदनीय, दो आयु और स्थिर आदि तीन युगलकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२६२. मनुष्यगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीवं पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, असातावेदनीय बारह कपाय, पाँच नोकषाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, अस्थिर, अशुभ, अयश:कीर्ति और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। पञ्चन्द्रियजातिसे लेकर निर्माण तक और उच्चगोत्रका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । इसी प्रकार मनुष्यगतिपश्चककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
२६३. देवगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाले जीवके नामकर्मसे पूर्वकी और बादकी प्रकृतियोंका भङ्ग मनुष्यगतिके समान है। तथा नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार देवगतिचतुष्ककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२६४. पश्चन्द्रियजातिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाले जीवके नामकर्मसे पूर्वकी और
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wwwmom
१२२
महाबंधे अणुभागबंधाहियारे दोसरीर-दोअंगो०-वज्जरिस०-दोआणु०--तित्थ० सिया० । तं तु. । तेजइगादिपसस्थाओ उच्चा०णि । तं तु० | अप्पसत्थवण्ण-[ उप०-अथिर-असुभ-अजस०] णि. अर्णतगु: । एवं सव्वसंकिलिहाणं पंचिंदियभंगो। [अहारदुगं अप्पसत्य०४-उप० ओघं । ] एवं ओघिदं०-सम्मादि०-खइगसम्मा०-वेदग०-उवसम०-सम्मामि० । णवरि उवसम० पसत्थाणं तित्थ० वज्ज असंजमपाओग्गा कादव्वा ।
२६५. मणपज्जवे खविगाणं ओघो । सेसाणं ओधिभंगो । एवं संजद-सामाइ.. छेदो०-परिहार-संजदासंजद० । णवरि परिहारवज्जाणं पसत्यपगदीणं तित्थयरं वज्ज । सुहुमसंप० अवगदवेदभंगो।
२६६. असंजदेसु आभिणि दंडओ थीणगिदिदंडओ देवगदिसंजुत्तं' कादव्वं । सादासाद०-थिरादितिण्णियुग० सम्मादिहि-मिच्छादिहिसंजुत्ताओ कादवाओ। इत्थि०णवूस० ओघं ।
२६७. अरदि० ज० ब० दोगदि-दोसरीर--दोअंगो०-वजरि०-दोआणु०बादकी प्रकृतियोंका भङ्ग मनुष्यगतिके समान है। नामकर्मकी दोगति, दो शरीर, दो आंगोपांग, वनर्षभनाराचसंहनन, दो भानुपूर्वी और तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है, तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बम्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। तेजसशरीर आदि प्रशस्त प्रकृतियाँ और उच्चगोत्रका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, अस्थिर, अशुभ और अयश कीर्तिका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। इस प्रकार जिनका सर्वसंक्लेशसे जघन्य अनुभागबन्ध होता है उनकी मुख्यतासे सन्निकर्ष पञ्चन्द्रियजातिके समान जानना चाहिए। आहारकद्विक, अप्रशस्त वर्ण चार और उपघातकी मुख्यतासे सन्निकर्ष अोधके समान है। इसी प्रकार अर्थात् श्राभिनिबोधिकज्ञानी जीवोंके समान अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें प्रशस्त प्रकृतियोंको तीर्थङ्करप्रकृतिको छोड़कर असंयमप्रायोग्य करना चाहिए।
___२६५. मनापर्ययज्ञानी जीवोंमें क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग श्रोधके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है। इसी प्रकार संयत, सामयिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत और संयतासंयत जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि परिहारविशुद्धिसंयतोंमें प्रशस्त प्रकृतियोंका तीर्थङ्कर प्रकृतिको छोड़कर सन्निकर्ष कहना चाहिए। सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंमें अपगतवेदी जीवोंके समान भङ्ग है।
२६६. असंयत जीवोंमें आभिनिबोधिकदण्डक और स्त्यानगृद्धिदण्डकको देवगतिसंयक्त करना चाहिए । सातावेदनीय, असातावेदनीय और स्थिर आदि तीन युगलको सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टिसंयुक्त करना चाहिए । स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका भङ्ग ओघके समान है।
२९७. अरतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव दो गति, दो शरीर, दो आङ्गो१. प्रा. प्रतौ प्राभिणिदंडी देवगदिसंजुत्तं इति पाठः ।
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बंधसण्णियासपरूवणा
१२३ तित्थ० सिया० अणंतगु० । सेसं ओघं ।
२६८. चक्खु०-अचक्खु० ओघं । किण्णाए आभिणि दंडओ थीणगिदिदंडओ णिरयभंगो। सादादिचदुयुग०--अरदि-सोगं असंजदभंगो । इत्थि०--णवूस० अोघं । सेसं णqसगभंगो।
२६६. णील-काऊए पढमदंडओ विदियदंडओ तदियदंडओ अरदि-सोगदंडओ किण्णभंगो । इत्थि० ज० बं० तिरिक्खोघं । मणुस०--देवगदि-दोआणु० सिया० अणंतगु० । णqस०-थीणगिद्धिदंडओ पंचिंदि०दंडओ णिरयोघं ।
३००. वेउवि० ज० बं० पंचणा०-णवदंस०-असादा०--मिच्छ०--सोलसक०पंचणोक०--णिरयगदिअहावीसं-णीचा०-पंचंत० णि० अणंतगु० । वेउव्वि०अंगो० आदावं तिरिक्खोघं । सेसं किण्णभंगो ।
३०१. तेऊए आभिणि दंडओ परिहार०भंगो । विदियदंडओ ओघं । साद० ज० बं० पंचणा०--छदसणा०--चदुसंज०--भय--दु०--तेजा०--क०--पसत्यापसत्थ०४अगु०४-चादर-पज्जत्त-पत्ते-णिमि०-पंचंत० णि. अणंतगु० । थीणगि०३-मिच्छ०. बारसक०-सत्तणोक०-देवगदि-दोसरीर-दोअंगो०-देवाणु०-आदाउज्जो०-तित्थ० सिया० पाङ्ग, वर्षभनाराचसंहनन, दो भानुपूर्वी और तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । शेप भङ्ग ओघके समान है।
२६८. चक्षुदर्शनी और अचक्षुदर्शनी जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है । कृष्णलेश्यामें आभिनिबोधिकज्ञानावरणदण्डक और स्त्यानगृद्धिदण्डकका भङ्ग नारकियोंके समान है। साता आदि चार युगल, अरति और शोकका भङ्ग असंयतोंके समान है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका भङ्ग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग नपुंसकवेदी जीवोंके समान है।
२६६. नील और कापोत लेश्यामें प्रथम दण्डक, द्वितीय दण्डक, तृतीय दण्डक और अरतिशोकदण्डकका भङ्ग कृष्णलेश्याके समान है। स्त्रीवेदके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाले जीवका भङ्ग सामान्य तिर्यश्चोंके समान है। मनुष्यगति, देवगति, और दो आनुपूर्वीका कदाचित बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। नपुंसकवेद, स्त्यानगृद्धिदण्डक और पञ्चन्द्रियजाति दण्डकका भङ्ग सामान्य नारकियों के समान है।
३००. वैक्रियिकशरीरके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, नरकगति आदि अट्ठाईस प्रकृतियाँ नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियससे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग और आतपका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है । शेष प्रकृतियों का भङ्ग कृष्णलेश्याके समान है।
३०१. पीतलेश्यामें श्राभिनिबोधिकज्ञानावरण दण्डक परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंके समान है। द्वितीय दण्डकका भङ्ग ओघके समान है। सातावेदनीयके जघन्य अनुभागका बन्ध करने वाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, निर्माण
और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, बारह कषाय, सात नोकषाय, देवगति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, देवगत्यानु,
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१२४
महाबंधे अणुभागबंधाहियारे अणंतगु० । तिण्णिआउ०-दोगदि-दोजादि-छस्संठा०--छस्संघ०--दोआणु०-दोविहा०तस-थावर-थिरादिछयुग०-दोगो० सिया० । तं तु०। एवं असाद०-थिरादितिण्णियुग० । इत्थि० ज० बं० णीलभंगो । णस०-दोआउ० देवभंगो।।
३०२. देवाउ० ज० बं० सादा०-थिर-सुभ-जस० णि । तं तु० । मिच्छादिहिसंजुत्ता कादव्वा । सेसं णि. अणंतगु०।
३०३. देवगदि ज. बं. पंचणा०-णवदंसणा०-असादा०--मिच्छ०-सोलसक०इत्थि०-अरदि-सोग-भय-दु०-उच्चा०-पंचंत० णि० अणंतगु० । वेउवि०-वेउवि० अंगो०देवाणु० णि । तं तु० । णामाणं सत्थाणभंगो। सेसं सोधम्मभंगो । एवं पम्माए वि० । णवरि णामाणं सहस्सारभंगो । देवगदि०४ तेउभंगो । णवरि पुरिस० धुवं० ।
३०४. मुक्काए खविगाणं ओघं । सादादिचदुयुग० पम्मभंगो। देवगदि०४ पम्मभंगो । सेसं णवगेवज्जभंगो । पूर्वी, तप, उद्योत और तीर्थङ्करका कदाचित बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। तीन आयु, दो गति, दो जाति, छह संस्थान, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति, त्रस स्थावर, स्थिर आदि छह युगल और दो गोत्रका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है,तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी नन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार अर्थात सातावेदनीयके समान असातावेदनीय और स्थिर आदि तीन यगलकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । स्त्रीवेदके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाले जीवका भङ्ग नीललेश्याके समान है। नपुंसकवेद और दो आयुका भङ्ग देवोंके समान है। - ३०२. देवायुके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव सातावेदनीय, स्थिर, शुभ और यश कीर्तिका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। किन्तु इन्हें मिथ्यादृष्टिसंयुक्त करना चाहिए। शेष प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है।
३०३. देवगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, स्त्रीवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, उच्चगोत्र
और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थानसन्निकर्षके समान है। शेष भङ्ग सौधर्म कल्पके समान है। इसी प्रकार अर्थात् पीत लेश्याके समान पद्मलेश्यामें भी जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसमें नामकर्मकी प्रकृतियों का भङ्ग सहस्त्रार कल्पके समान है। तथा देवगतिचतुष्कका भङ्ग पीतलेश्याके समान है। इतनी विशेषता है कि पुरुषवेदको ध्रुव करना चाहिए।
३०४. शुक्ललेश्यामें क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। सातावेदनीय आदि चार युगलोंका भङ्ग पद्मलेश्याके समान है। देवगतिचतुष्कका भङ्ग पद्मलेश्याके समान है। शेष प्रकृतियों का भङ्ग नौवेयकके समान है।
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बंधसण्णियासपरूवणा
१२५ ३०५. भवसि. ओघं । अब्भवसि० आभिणि दंडओ [मदि०भंगो । णवरि] तिरिक्ख०--तिरिक्वाणु०-णीचा. सिया० । तं तु० । दोगदि-दोसरीर-दोअंगो०वज्जरि०--दोआणु०-उज्जो०-उच्चा० सिया० अणंतगु० । इत्थि०-णवूस० ओघं । अरदिसोग० मदि०भंगो। उवरि सव्वमोघं।
३०६. सासणे आभिणि० ज० बं० चदुणा०-णवर्दसणा०-सोलसक०-पंचणोक०-अप्पसत्य०४-उप०-पंचंत० णि । तं तु०। सादा०-पंचिंदि०-तेजा०-क०पसत्थ०४-अगु०३-पसत्थ०-तस०४-थिरादिछ०-णिमि०णि अणंतगु०!तिरिक्ख०तिरिक्खाणु०--णीचा. सिया० । तं तु०। दोगदि-दोसरीर-दोअंगो०--वजरि०दोआणु०-उज्जो०-उच्चा० सिया० अणंतगु० । एवमेदाओ ऍक्कमेकॅस्स तं तु० ।
___३०७. सादा० ज० ब० पंचणा०-णवदंसणा०-सोलसक०-भय-दु०--पंचिंदि०. तेजा०-क०-पसत्यापसत्य०४-अगु०४-तस०४-णिमि० णि० अणंतगु० । चदुणोक०
३०५. भव्योंमें ओघके समान भङ्ग है। अभव्योंमें आभिनिबोधिकज्ञानावरणदण्डकके जघन्य अनुभागका धन्ध करनेवाले जीवका भङ्ग मत्यज्ञानियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि तिर्यश्चगति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है, तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। दो गति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराच संहनन, दो भानुपूर्वी, उद्योत और उच्चगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका भङ्ग श्रोधके समान है। अरति और शोकका भङ्ग मत्यज्ञानी जीवोंके समान है। आगेका सब भङ्ग ओघके समान है।
३०६. सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंमें आमिनिबोधिकज्ञानावरणके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सोलह कषाय, पाँच नोकपाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। सातावेदनीय, पञ्चन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर
आदि छह और निर्माणका नियमसे वन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । तिर्यञ्चगति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। दो गति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराच संहनन, दो आनुपूर्वी, उद्योत और उच्चगोत्रका कदाचित् बन्ध होता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। इस प्रकार तंतु पतित इन प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
३०७. सातावेदनीयके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शना. वरण, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पश्चन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क,
१. प्रा. प्रतौ सव्वमोहं इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे
तिरिक्ख ०३ - दोसरीर दोअंगो० -उज्जो० सिया० अनंतगु० । तिण्णिआउ० - मणुसग ० देवग०- पंचसंठा०-पंच संघ० - दोआणु० - थिरादिछयुग ०-उच्चा० सिया० । तं तु० । एवं तंतु पदिदाणं सव्वाणं सादभंगो । पंचिंदियदंडओ णिरयभंगो । दोआउ० देवभंगो । देवाउ० ओघं ।
1
३०८. मिच्छादिट्ठी० मदि० भंगो । सण्णी० प्रघो । असण्णीसु आभिणिदंडओ देवगादिसंजुत्तं० कादव्वं । सेसं तिरिक्खोघं । आहार० ओघं । अणाहार० कम्मइगभंगो ।
एवं जहणपरत्थाणसणियासी समत्तो ।
१६ भंगविचयपरूवणा
३०६. णाणाजीवेहि भंगविचयं दुवि० जह० उकस्सयं च । उक्क० पगदं । तत्थ इमं अद्वपदं मूलपगदिभंगो । एदेण अपदेण दुवि० - ओघे० दे० । ओघे० सव्वपगदीणं उक्कस्साणुकस्स० छभंगा । तिण्णिआऊणं उक्कस्साकस्स० सोलसभंगा । एवं ओघभंगो तिरिक्खोघं कायजोगि ओरालि०-ओरालियमि०-कम्मइग०-- णंस ० -- कोधादि ०४ - मदि ० - सुद ० -- असंजद ० -- अचक्खु ० --तिण्णले ० -- भवसि ०
0-.
अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। चार नोकषाय, तिर्यञ्जगतित्रिक, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। तीन आयु, मनुष्यगति, देवगति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, दो आनुपूर्वी, स्थिर आदि छह युगल और उच्चगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है, तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागबन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार तंतु-पतित सब प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष सातावेदनीयके समान है । पञ्च ेन्द्रियजातिदण्डकका भङ्ग नारकियोंके समान है । दो आयुका भङ्ग देवोंके समान है । देवायुका भङ्ग ओके समान है ।
३०८. मिध्यादृष्टि जीवों में मत्यज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है। संज्ञी जीवों में ओघ के समान भङ्ग है। असंज्ञियोंमें श्रभिनिबोधिकज्ञानावरण दण्डक देवगतिसंयुक्त करना चाहिए। शेष भङ्ग सामान्य तिर्यश्नोंके समान है । आहारक जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है । अनाहारक जीवोंमें कार्मरण काययोगी जीवोंके समान भङ्ग है ।
इस प्रकार जघन्य परस्थान सन्निकर्ष समाप्त हुआ ।
१६ भङ्गविचयप्ररूपणा
३०६. नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचय दो प्रकारका है--जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । उसके विषय में यह अर्थपद मूलप्रकृति के समान है । इस अर्थपदके अनुसार निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघसे सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धके छह भङ्ग हैं। तीन के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्टके सोलह भङ्ग हैं । इस प्रकार ओघ के समान सामान्य तिर्यन, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी,
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भंगविचयपरूवणा
१२७ अन्भवसि०-मिच्छा०-असण्णि-आहार-अणाहारग ति । णवरि ओरालियमि०कम्मइ०-अणाहारएसु-देवगदिपंच० उक्कस्साणुकस्स० सोलस भंगा।
३१०. णेरइएसु-दोआउ० दो वि पदा सोलस भंगा। सेंसाणं सव्वपगदीर्ण दोपदा छभंगा। एवं णिरयभंगो पंचिं०तिरि०अपज्ज. मणुस०३-सव्वदेव०-सव्वविगलिंदि०--पंचिं०--तस० तेसिं पज्जतापजत्ता बादर-बोदरपुढवि०-आउ०--तेउ. वाउ०-बादरवणप्फदिपत्तेयपज्जत्ताणं च पंचमण०--पंचवचि०-वेउवि०--इत्यिकपुरिस०-विभंग-आभिणि०--सुद०--ओधि०-मणपज्ज०-संजद० याव संजदासंजदा० चक्खुदं०-ओघिदं०-तिण्णिले०-सम्मादि०-खइग०-वेदग०-सण्णि ति ।
३११. मणुस अपज्ज०-वेउव्वियमि०-आहार०-आहार०-आहारमि०-अवगद०मुहुमसं०-उवसम०-सासण-सम्मामि० उक्क० अणुक० सोलस भंगा। एइंदिएम दोआउ ओघ । सेसाणं उक्कस्साणुकस्स० अथिरबंधगा य अबंधगा य । एवं एइंदियभंगो बादरपुढवि०-आउ०-तेउ०-वाउ० अपज्ज०--सव्ववणप्फदिबादर-पत्तेय अपज्ज०--सव्वणियोदाणं सव्वसुहुमाणं च । णवरि एइंदि०-बादरएइंदि० तस्सेव पज्जत्तगेसु उज्जोवं ओघं । पुढ०- आउ०-तेउ०-वाउ०-वादर-पत्ते० सव्वपगदीणं ओघं ।
एवं उकस्सं समत्तं । क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिध्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें देवगतिपञ्चकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धके सोलह भङ्ग है।।
३१०. नारकियोंमें दो आयुओंके दोनों ही पदोंके सोलह भङ्ग हैं। शेष सब प्रकृतियों के दो पदोंके छह भङ्ग हैं। इसी प्रकार नारकियोंके समान पञ्चन्द्रिय तियश्च तीन पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त, मनुष्यत्रिक, सब देव, सब विकलिन्द्रिय. पश्चन्द्रिय और त्रस तथा इन दोनोंके पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वनस्पति प्रत्येक शरीर और इन पाँचोंके पर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, विभङ्गज्ञानी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयतोंसे लेकर संयतासंयत तकके जीव, चक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, तीन लेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिए ।
___ ३११. मनुष्यअपर्याप्त, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, सूक्ष्मसाम्परायिक संयत, उपशमसम्यग्दृष्टि सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धके सोलह भङ्ग हैं । एकेन्द्रियोंमें दो आयुओंका भङ्ग ओषके समान है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धके बन्धक जीव हैं और अबन्धक जीव हैं। इसी प्रकार एकेन्द्रियोंके समान बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, बादर जलकायिक अपर्याप्त, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सब वनस्पति कायिक, बादर प्रत्येक शरीर अपर्याप्त, सब निगोद और सब सूक्ष्म जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय और उनके पर्याप्त जीवोंमें उद्योत ओघके समान है। पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक
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महाधे अणुभागबंधाहियारे
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३१२. जहण्णए पग० । तत्थ इमं अट्ठपदं मूलपगदिभंगो । एदेण अट्ठपदेण दुवि० घे० दे० | ओघे० सादासाद० - तिरिक्खा उ०- मणुस ० चदुजादि - छस्संठा०छस्संघ० - मणुसाणु ० -- दो विहा० - थावरादि ० ४ - थिरादिछयु ०[०-- उच्चा० ज० अज० अत्थि बंगा य अबंधगा । सेसाणं पगदीणं ज० अज० उकस्सभंगो । एवं ओघभंगो तिरिक्खोघं कायजोगि - ओरालिय० - ओरालियमि० - कम्मइ० -- णवंस ० - कोधादि०४मदि० - सुद० - असंज० - अचक्खु०-- तिण्णिले ० - भवसि ० - अन्भवसि ० - मिच्छा० - असण्णि ०. आहार -प्रणाहारए ति ।
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३१३. एइंदिय - बादरएइंदिय-पज्जत्त मणुसाउ० - तिरिक्खगदितिगं ओघं । सेसाणं ज० अज० अत्थि बंधगा य अबंधगा य । बादर एवं दिय अपज्ज० सव्वसुहुमाणं बादरचदुक्काय पज्जत्तगाणं सव्ववणफदि -- बादरपत्तेयअपज्जत्त० - सव्वणियोद० मणुसाउ० ओघं । सेसाणं ज० अज० अत्थिं बंध० अबंध० । पुढवि० आउ० तेउ०- वाउ०- बादरपत्ते' ० -- बादरपुढवि० - आउ०- तेउ० [ वाउ० ] धुविगाणं पसत्थापसत्याणं केसिं च परियत्तिीणं च मणुसाउ० ज० अज० उक्कस्सभंगो। सेसाणं ज० अज० अत्थि बंधगा
बाद प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीवों में सब प्रकृतियोंका भङ्ग ओघ के समान है ।
इस प्रकार उत्कृष्ट समाप्त हुआ ।
३१२ जघन्यका प्रकरण है। उसके विषय में यह अर्थपद मूल प्रकृतिके समान है । इस अर्थ - पदके अनुसार दो प्रकारका निर्देश है-ओघ और आदेश । श्रघसे सातावेदनीय, असातावेदनीय, तिर्यञ्चायु, मनुष्यगति, चार जाति, छह संस्थान, छह संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, दो विहायोगति, स्थावर आदि चार, स्थिर आदि छह युगल और उच्चगोत्रके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धके बन्धक जीव हैं और अबन्धक जीव हैं। शेष प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका
उत्कृष्ट समान है । इसी प्रकार ओधके समान सामान्य तिर्यञ्च, काययोगी, श्रदारिक काययोगी, औदारिकमिश्रकाय योगी, कार्मण काययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचतुदर्शनी, तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिध्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए ।
३१३. एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय और बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवों में मनुष्यायु और तिर्यञ्च - गतित्रिका भङ्ग के समान है । शेष प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीव हैं और अबन्धक जीव हैं। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सब सूक्ष्म, बादर चार कायवाले अपर्याप्त सब वनस्पतिकायिक, बादर प्रत्येक वनस्पतिकायिक अपर्याप्त और सब निगोद जीवोंमें मनुष्यायुका भङ्ग के समान है। शेष प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीव हैं और अबन्धक जीव हैं । पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक वायुकायिक, बादर प्रत्येक वनस्पतिकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक, बादर अग्निकायिक और बाद वायुकायिक जीवोंमें प्रशस्त और अप्रशस्त ध्रुवबन्धवाली, कितनी ही परावर्तमान प्रकृतियाँ और मनुष्यायुके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका भङ्ग उत्कृष्टके समान है । शेष प्रकृतियों के जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीव हैं और अबन्धक जीव हैं ।
१. भा० प्रतौ श्रज्ज० पत्थि इति पाठः । २. श्रा० प्रतौ तेउ० बादरपते ० इति पाठः ।
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भागाभागपरूवणा
१२६ य अबंधगा य । बादरपज्जताणं उक्स्स भंगो । सेसाणं गेरइगादीणं याव अणाहारगे त्ति उक्कस्सभंगो।
एवं भंगविचयं समत्त ।
१७ भागाभागपरूवणा ३१४. भागाभागं दुवि०-जह• उक्क । उक्त पगदं । दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० तिण्णिआउ०-वेउव्वियछ०-तित्थ० उकस्सअणुभागबंधगा जीवा सव्वजीवाणं केवडियो भागो ? असंखेजदिभागो। अणुक० अणुभागबं० जीवा० सव्वजीवाणं केव० भागो ? असंखेंज्जा भागा। आहारदुर्ग उक्क० अणुभागबंध० सव्वजी० केव० १ संखेंज। अणु० संखेज्जा भागा। सेसाणं उक्क० केव० ? अणंतभा० । अणु० केव० ? अणंता भागा । एवं ओघभंगो तिरिक्खोघो कायजोगि०--ओरालि०-ओरालियमि०--कम्मइ०णवूस०-कोधादि०४-मदि०-सुद०-असंज०-अचक्खु०-तिण्णिले०-भवसि०-अब्भवसि०मिच्छा०-असण्णि०-आहार०-अणाहारग ति । णवरि ओरालियमि०-कम्मइ०-अणाहारएसु देवगदिपंचग० आहारसरीरभंगो। किण्ण-णीलाणं तित्थ० आहार०भंगो । एवं ओरालिय० इत्थि०बं०। णिरएसु सव्वपगदीणं उक्क० असंखेंजदि० अणु० असंखेंज्जा बादर पर्याप्त जीवोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। शेष नारकियोंसे लेकर अनाहारक तकके जीवोंमें उत्कृष्टके समान भङ्ग है।
इस प्रकार भङ्गविचय समाप्त हुआ।
१७ भागाभागप्ररूपणा ३१४. भागाभाग दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्ट का प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे तीन आयु, वैक्रियिक छह और तीर्थङ्करके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यात बहुभाग प्रमाण हैं । आहारकद्विकके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव सब जीवों के कितने भागप्रमाण हैं ? संख्यातवें भागप्रमाण हैं । अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव कितने भागप्रमाण हैं ? अनन्तवें भागप्रमाण हैं। अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव कितने भागप्रमाण हैं ? अनन्त बहुभागप्रमाण हैं । इस प्रकार ओघके समान सामान्य तियश्च, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें देवगतिपञ्चकका भङ्ग आहारकशरीरके समान है। कृष्ण और नीललेश्यामें तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग आहारक. शरीरके समान है। इसी प्रकार औदारिककाययोगी जीवोंमें स्त्रीवेदके बन्धक जीवोंका भङ्ग जानना चाहिए। नारकियोंमें सब प्रकृतियोंके आकृष्ट अनुभागके वन्धक जीव असेंख्यातवें भागप्रमाण
१. ता. प्रती एवं भागाभाग समतं इति पाठो नास्ति । २. ता. श्रा. प्रत्योः जीवाणं इति पाठः। है. ता० प्रती सव्वजीवे. केव० इति पाठः। ४. ता० प्रती अणंतभागा इति पाठः।
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१३०
महाबंधे अणुभागबंधाहियारे भागा । णवरि मणुसाउ० आहारभंगो। एवं सेसाणं पि ओघेण साधेदव्वं'। एवं ए असंखेंजजीविगा ते देवगदिभंगो। ए संखेंज्जजीविगा ते आहार०मंगो। एइंदियवणप्फदि०-णियोदेसु तिरिक्रवाई. ओघं । एइंदिए उज्जो० उ० अणंतभागा । अणु० अणंता भागा । सेसाणं णिरयभंगो।
३१५. जहण्णए पगदं । दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० पंचणा-णवदंस०मिच्छ०--सोलसक०--णवणोक०--तिरिक्व०-पंचिं०-ओरालि.-तेजा०-०-ओरालि०अंगो ०-पसत्थापसत्य०४-तिरिक्वाणु०-अगु०४-आदाउ०-तस०४-णिमि०-णीचा.. पंचंत० जह० अणुभा० सव्वजी० केव० १ अणंतभा० । अज० अणंता भा'. । सादासाद०-चदुआउ०-तिण्णिगदि-चदुजादि--छस्संठा०--छस्संघ०--तिण्णिआणु०--दोविहा०थावरादि४-थिरादिछयुग०--उच्चा०--वेव्वि०--वेउव्वि० अंगो०--तित्थ० ज० असंखेंजदिभा० । अज० असंखेंजा भागा । आहारदुर्ग उक्कस्सभंगो । एवं ओघभंगो तिरिक्खोघं कायजो०-ओरालि०-ओरालियमि० कम्मइ०-णस०-कोधादि०४-मदि०मुद०-असंज०--अचक्खु०--तिण्णिले०-भवसि०--अब्भवसि०---मिच्छादि०-असण्णि.. हैं। अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं। इतनी विशेषता है कि मनुघ्यायुका भङ्ग आहारकशरीरके समान है। इसी प्रकार शेष मार्गणाओंमें भी ओघके अनुसार साध लेना चाहिए। इसी प्रकार जो असंख्यात जीवोंवाली मार्गणाएँ हैं उनमें देवगतिके समान भङ्ग है और जो संख्यात जीवोंवाली मार्गणाएँ हैं, उनमें आहारकशरीरके समान भङ्ग है। एकेन्द्रिय, वनस्पतिकायिक और निगोद जीवोंमें तिर्यश्चायुका भङ्ग ओघके समान है। एकेन्द्रियोंमें उद्योतके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव अनन्तवें भागप्रमाण हैं और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव अनन्त बहुभागप्रमाण हैं। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग नारकियोंके समान है।
३१५. जघन्यका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और आदेश । ओघसे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकपाय, तिर्यश्चगति,पश्वोन्द्रियजाति, औदारिकशरीर,तैजसशरीर, कार्मणशरीर,औदारिक प्राङ्गापाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क,तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, आतप,उद्योत,त्रसचतुष्क, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागके बन्धक जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? अनन्तवें भागप्रमाण हैं। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीव अनन्त बहुभागप्रमाण हैं। सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार आयु, तीन गति, चार जाति, छह संस्थान, छह संहनन, तीन आनुपूर्वी, दो विहायोगति, स्थावर आदि चार, स्थिर आदि छह युगल, उच्चगोत्र, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग और तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य अनुभागके बन्धक जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । अजघन्य अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात बहुभाग प्रमाण हैं । आहारकद्विकका भंग उत्कृष्टके समान है। इसी प्रकार ओघके समान सामान्य तिर्यञ्च, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकायोगी नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए।
१ श्रा. प्रतौ पि सादचं इति पाठः। २. श्रा. प्रतौ वणप्फदितिरिवखाउ० इति पाठः । ३. ता. श्रा. प्रत्योः अयंतभागा इति पाठ। ४ श्रा० प्रती पचि० ओरालि अंगो इति पाठः। ५. ता. श्रा० प्रस्योः अणंतभा• इति पाठः ।
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परिमाणपरुपला
१३१ आहार०-अणाहारग ति । णवरि ओरालि०-ओरालियमि०-इत्थिवे-किण्ण--णील०उवसम० तित्थ० ज० अर्ज० आहार भंगो। ओरालियमि०-कम्मइ०--अणहार० देवगदिपंचगं उक्कस्सभंगो। सेसाणं णिरयादि योव सण्णि ति अप्पप्पणो उक्कस्सभंगो संखेंजजीविगाणं असंखेजजीविगाणं अणंतजीविगाणं च । णवरि एइंदिएम तिरिक्खगदितिगं ओघं । सेसं णिरयोघं । अवगद०-सुहुमसंप० ज० अज० आहार०भंगो।
एवं भागाभागं समत्तं ।
१८ परिमाणपरूवणा ३१६. परिमाणं दुवि०-जह० उक्क । उक. पगदं। दुवि०-ओघे० आदे। ओघे० पंचणा०-णवदंस०-असादा०-मिच्छ०-सोलसक०-णवणोक०-दोगदि-चदुजादिओरालि०-पंचसंठा-ओरालि०अंगो०-छस्संघ०-अप्पसत्थ०४-दोआणु०-उप०-आदाव०अप्पसत्थवि० .. थावरादि४-अथिरादिछ० -- णीचा० -- पंचंत० उक्कस्सअणुभागबंधगा केत्तिया ? असंखेंज्जा । अणुक्क. अणुभा०बं० के० १ अणंता। साद०-तिरिक्खाउ०. पंचिंदि०-तेजा०-क०-समचदु०-पसत्थव०४-अगु०३-पसत्थवि०--तस०४-थिरादिछ०णिमि०-उच्चा० उक्स्स० संखेंजा० । अणु० अणंता । णिरयाउ०-णिरयगदि०-णिरइतनी विशेषता है कि औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, स्त्रीवेदी, कृष्णलेश्यावाले, नील लेश्यावाले और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका भंग आहारकशरीरके समान है । औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें देवगतिपञ्चकका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। शेष नरकगतिसे लेकर संज्ञी तककी संख्यात जीवोंवाली, असंख्यात जीवोंवाली और अनन्त जीवोंवाली मार्गणाओंमें अपने-अपने उत्कृष्ट के समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि एकेन्द्रियोंमें तिर्यञ्चगतित्रिकका भंग ओघके समान है। शेष सामान्य नारकियोंके समान है। अपगतवेदवाले और सूक्ष्मसाम्पराय संयत जीवोंमें जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका भंग आहारकशरीरके समान है।
इस प्रकार भागाभाग समाप्त हुआ।
१८ परिमाणप्ररूपणा ३१६. परिमाण दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्का प्रकरण है। निर्देश दो प्रकार का है-ओघ और आदेश । ओघसे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकपाय, दो गति, चार जाति, औदारिकशरीर, पाँच संस्थान, औदारिक आंगोपांग, छह संहनन, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, दो आनुपूर्वी, उपघात, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर आदि चार, अस्थिर आदि छह, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव कितने हैं ? अनन्त हैं । सातावेदनीय, तिर्यश्चायु, पञ्चन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर समचतुरस्त्रसंस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण और
१. मा. प्रतौ तित्थ. अज० इति पठः । २. ता. प्रतौ एवं भागाभागं समत्तं इति पाठो नास्ति । ३. श्रा० प्रतौ श्रादाव० इति पाठः ।
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१३२
महाबंधे अणुभागबंधाहियारे याणु० उक्क. अणु० असंखेंज्जा । दोआउ०-देवग०-[ वेउव्वि०-] वेउवि.अंगो०देवाणु०-तित्थ० उ० संखेजा। अणु० असंखेंज्जा । आहारदुगं उक्क० अणु० संखेंज्जा। एवं ओघभंगो कायजोगि-ओरालि०--णस०--कोधादि०४-मदि०--सुद०--असंज०अचक्खु०-भवसि०-अब्भवसि०-मिच्छा०-आहारग त्ति । णवरि ओरालि. तित्थ० उक्क० अणुक्क० संखेजा।
३१७. गेरइएमु मणुसाउ० उक्क० अणुक्क० कॅत्तिया ? संखेंज्जा। सेसाणं उक्क. अणुक्क० असंखेंज्जा । एवं सव्वणेरइगाणं ।।
उच्चगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीव संख्यात हैं। छानुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीव अनन्त हैं । नरकायु, नरकगति और नरकगत्यानुपूर्वी के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग का बन्ध करनेवाले जीव असंख्यात हैं। दो आयु, देवगति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिक आंगोपांग, देवगत्यानुपूर्वी और तीर्थङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीव संख्यात हैं । अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यात हैं। आहारकद्विकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीव संख्यात हैं। इस प्रकार ओघके समान काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और आहारक जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि औदारिककाययोगी जीवोंमें तीर्थङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीव संख्यात हैं।
विशेषार्थ-प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यात हैं और इनके अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीव अनन्त हैं, इसलिए यहाँ इनका परिमाण उक्त प्रमाण कहा है। सातावेदनीय आदि दूसरे दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीव संख्यात हैं और इनके अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीव अनन्त हैं, इसलिए इनका परिमाण उक्त प्रमाण कहा है । नरकायु आदि तीसरे दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यात हैं, इसलिए ये असंख्यात कहे हैं। तथा दो आयु आदि दण्डकमें कही गई प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीव संख्यात हैं और इनके अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यात हैं, अतएव इनका उक्तप्रमाण परिमाण कहा है । आहारकद्विकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीव संख्यात हैं, यह स्पष्ट ही है। यह सब संख्या उत्कृष्ट अनुभागका स्वामित्व और तत्तत् प्रकृतिके बन्धक जीवोंका विचार करके कही गई है। आगे ऐसी मार्गणाएँ गिनाई हैं, जिनमें यह शोधप्ररूपणा अविकल बन जाती है। उनमें एक मार्गणा औदारिककाययोग भी है। परन्तु इस मार्गणामें तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध पर्याप्त मनुष्य ही करते हैं और उनका परिमाण संख्यात है, इसलिए औदारिककाययोगी जीवोंमें तीर्थङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीव संख्यात कहे हैं।
३१७. नारकियोंमें मनुष्यायुके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। तथा शेष प्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यात हैं । इसी प्रकार सब नारकियोंके जानना चाहिए।
विशेषार्थ-नारकी जीव यदि मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं,तो गर्भज मनुष्योंमें ही उत्पन्न होते हैं। अतः इनमें मनुष्यायुके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीव संख्यात कहे
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परिमाणपलवणा
१३३ ३१८. तिरिक्खेसु णिरयाउ०-वेउव्वियछ० उक० अणु० असंखेंज्जा । तिण्णिआउ० [ ओघं । ] सेसाणं उ० असंखेंज्जा । अणु० अर्णता । पंचिं०तिरि०३ तिण्णि
आउ० उ० संखेंजा । अणु० असंखेंज्जा । सेसाणं उ. अणु० असंखेंजा । पंचिं०. तिरि०अपज्ज० मणुसाउ० उ० संखेंजा । अणु० असंखेंजा । सेसाणं उक्क० अणुक्क. के० [अ०-] संखेंजा। एवं सव्वअपज्जत्ताणं [पंचिंदिय०-]तसाणं सव्वविगलिंदियाणं सव्वपुढवि०-आउ०-तेउ०-वाउ०--बादरपत्तेगसरीराणं च । णवरि तेउ-वाऊणं मणुसगदिचदुक्कं णत्थि ।
३१६. मणुसेसु दोआउ०--वेउव्वियछ०--आहारदु०--तित्थ० उक्क० अणुक्क संखेंज्जा । सेसाणं उ० संखेंजा। अणु० असंखेंजा। मणुसप०-मणुसिणीसु सव्वपगदीणं [ उक्क० ] अणु० संखेंजा।
३२०. देवाणं णिरयभंगो याव अपराजिता ति । सव्व सव्वपगदीणं उ० हैं। शेष कथन सुगम है।
३१८. तियश्चोंमें नरकायु और वैक्रियिक छहके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यात हैं । तीन आयुअोंका भङ्ग श्रोधके समान है और शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यात हैं तथा अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीव अनन्त हैं। पञ्चन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें तीन आयुओंके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात हैं और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं। शेष प्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं। पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें मनुष्यायुके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात हैं और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसी प्रकार सब अपर्याप्त, पञ्चन्द्रिय अपर्याप्त, त्रस अपर्याप्त, सय विकलेन्द्रिय, सब पृथिवीकायिक, सब जलकायिक, सब अग्निकायिक, सब वायुकायिक और सब बादर प्रत्येकशरीर जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंके मनुष्यगतिचतुष्कका बन्ध नहीं होता।
विशेषार्थ-ओघसे देवगतिचतुष्कके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध क्षपकौणिमें होता है। किन्तु तिर्यश्चोंके वह संयतासंयतके होगा और इनका परिणाम असंख्यात हैं, इसलिए यहाँ तिर्यञ्चोंमें नरकायु आदिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात कहे हैं। शेष कथन स्पष्ट ही है।
३१६. मनुष्योंमें दो आयु, वैक्रियिक छह, आहारकद्विक और तीर्थङ्करके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात हैं। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात हैं और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्ध जीव असंख्यात हैं। मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियों में सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात हैं।
विशेषार्थ-मनुष्योंमें नरकायु, देवायु, वैक्रियिक छह, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध अपर्याप्त मनुष्य नहीं करते, इसलिए इनका दोनों प्रकारका परिमाण संख्यात कहा है । शेष कथन स्पष्ट ही है।
३२०. देवोंमें अपराजित तक नारकियोंके समान भङ्ग है। सर्वार्थसिद्धि में सब प्रकृतियोंके
१. श्रा० तौ संखेजा इति पाठः ।
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महापंथे अणुभागधाहियारे अणु० संखेंजा।
३२१. एइंदिय--सव्ववणप्फदि--णियोदाणं तिरिक्खाउ० उ. असंखेजा। अणु० अणंता । मणुसाउ० ओघं । सेसाणं उक्क० अणु० अणंता । णवरि एइंदि०. उज्जो० ओघं।
३२२. पंचिं०-तस०२ सादं०-तिण्णिाउ०-देवगदि-पंचिं०-वेउ०-तेजा.-क०समचदु०-वेउ०अंगो०--पसत्थव०४-देवाणु०--अगु०३-पसत्थ०--तस०४-थिरादिछ०णिमि०-तित्थ०-उच्चा० उ० संखेजा। अणु० असंखेंजा। सेसाणं उ० अणु० असंखेजा। आहारदुर्ग ओघं। एवं एस भंगो पंचमण-पंचवचि०-इत्थि०-पुरिस-विभंग०-चक्खुदं०सण्णि ति । णवरि इत्थि० तित्थ. उक्क० अणु० संखेंजा। उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात हैं।
विशेषार्थ-अपराजित तक प्रत्येक स्थानमें देवोंका परिमाण असंख्यात है, इसलिए वहाँ तक जहाँ जितनी प्रकृतियोंका बन्ध होता है, उनकी अपेक्षा नारकियोंके समान भंग बननेमें कोई बाधा नहीं आती । शेष कथन स्पष्ट ही है।
३२१. एकेन्द्रिय, सब वनस्पति और निगोद जीवोंमें तिर्यञ्चायुके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं। अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव अनन्त हैं। मनुध्यायुका भङ्ग श्रोधके समान है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव अनन्त हैं। इतनी विशेषता है कि एकेन्द्रियजाति और उद्योतका भङ्ग ओघके समान है।।
विशेषार्थ-ये मार्गणाएँ अनन्त संख्यावाली होकर भी इनमें तिर्यश्चायुके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले सर्वविशुद्ध जीव होते हैं, जिनका प्रमाण असंख्यातसे अधिक नहीं होता; क्योंकि एकेन्द्रियोंके सिवा शेष तिर्यञ्च ही असंख्यात हैं। इसलिए इनमें तिर्यञ्चायके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यात हैं। इसी प्रकार मनुष्यायुके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले संख्यात जीवोंको कारण जानना चाहिए । एकेन्द्रियों में मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, उच्चगोत्र तथा अन्य प्रशस्त प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्वामित्वकी जो विशेषता कही है, उसके अनुसार यह प्रकरण दृष्टव्य है। स्वामित्व सम्बन्धी कुछ अन्य विशेषताएँ भी ध्यान देने योग्य हैं।
३२२. पञ्चन्द्रिय, पञ्चन्द्रियपर्याप्त, त्रस और सपर्याप्त जीवोंके सातावेदनीय, तीन आयु, देवगति, पश्चन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैकियिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण, तीर्थङ्कर और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात हैं। अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं । आहारकद्विकका भङ्ग श्रोधके समान है। इसी प्रकार यह भङ्ग पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, विभङ्गज्ञानी, चक्षुदर्शनी और संज्ञी जीवों के जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेदी जीवोंमें तीर्थङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात हैं।
विशेषार्थ-स्त्रीवेदी जीवोंमें तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध करनेवाले जीव मनुष्योंमें ही होते हैं, इसलिए इनमें उसके दोनों प्रकारके अनुभागके बन्धक जीव संख्यात कहे हैं । शेष कथन सुगम है।
१. ता० प्रा० प्रत्योः सादि० इति पाठः । २. श्रा० प्रतौ तित्थ० उ० इति पाठः ।
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परिमाणपरूवणा
१३५ ३२३. ओरालियमि० दोआउ० एइंदियभंगो । देवगदिपंचग० २० अणु० संखेंज्जा । सेसाणं उ० अणु० ओघं । एवं कम्मइग०-अणाहार० । वेउन्वि० देवोघं । एवं चेव वेउव्वियमिस्स०। णवरि तित्थ० उक्क० अणु० संखेंजा। आहार-आहारमि० सव्वहभंगो । एवं अवगद०-मणपज्ज०-संजद-सामाइ०-छेदो०-परिहार०-सुहुम० ।
३२४. आभिणि-सुद-ओधि० पंचणा०-छदंसणा०--असादा०--बारसक०-सत्तणोक०-मणुस०-ओरा०-ओरा०अंगो०-वजरि०-अप्पसत्थ०४-मणुसाणु०-उप०-अथिरअमुभ०-अजस०-पंचंत० उ० अणु० असंखेजा। सेसाणं उ. संखेंज्जा। अणु० असंखेजा। णवरि मणुसाउ०-आहारदुर्ग उ. अणु० संखेज्जा। एवं ओघिदंस०सम्मादि०-खइग०--वेदगस०-उवसम० । णवरि सव्वाणं मणुसाउ० उ. अणु० संखेंज्जा । खइगस० दोआउ० उ० अणु० संखेंज्जा । उवसम० आहारदुगं तित्थ० उ०
३२३. औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें दो आयुओंका भङ्ग एकेन्द्रियोंके समान है। देवगतिपञ्चकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात हैं। शेष प्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव ओघके समान हैं। इसी प्रकार कार्मणकाययोगी
और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए। वैक्रियिककाययोगी जीवोंमें सामान्य देवोंके समान भङ्ग है। इसीप्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें तीर्थङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात हैं। आहारककाययोगी
और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें सर्वार्थसिद्धिके समान भङ्ग है। इसी प्रकार अपगतवेदी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदीपस्थापनासंयत, परिहार विशुद्धिसंयत और सूक्ष्मसाम्पराय संयत जीवोंके जानना चाहिए।
विशेषार्थ-जो सम्यग्दृष्टि देव और नारकी मर कर मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं, उनके अपर्याप्त अवस्थामें औदारिकमिश्रकाययोग होता है और ये जीव संख्यात होते हैं, इसलिए इस योगमें देवगतिपञ्चकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात कहे हैं। इसी प्रकार तीर्थङ्कर प्रकृतिका वन्ध करनेवाले जो मनुष्य देवों और नारकियोंमें उत्पन्न होते हैं, उन्हींके वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें तीर्थंकर प्रकृतिका वन्ध होता है और ये जीव संख्यात होते हैं, इसलिए इस योगमें तीर्थङ्कर प्रकृति के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात कहे हैं। शेष कथन स्पष्ट ही है।
३२४. आभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, असातावेदनीय, बारह कपाय, सात नोकषाय, मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिक अांगोपांग, वर्षभनराच संहनन, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, उपघात, अस्थिर, अशुभ, अयशाकीर्ति और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात हैं और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं। इतनी विशेषता है कि मनुष्यायु और आहारकद्विकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात हैं। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इन सबमें मनुष्यायुके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात हैं। भायिक सम्यग्दृष्टि जीवों में दो आयुओंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात हैं तथा उपशमसम्यग्दृष्टि
१. श्रा० प्रती दोबाउ० अणु० इति पाटः ।
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१३६
महाबंधे अणुभागबंधाहियारे अणु० संखेजा।
३२५. संजदासंजदेसु सादादीणं उक्क० संखेंजा । अणु० असंखेंज्जा। तित्थ० मणुसि भंगो । सेसाणं उ० अणु० असंखेजा।
३२६. किण्ण०-णील. चदुआउ०-बउब्वियछ० ओघ । तित्थ० मणुसि भंगो। सेसाणं उक्क० असंखेजा। अणु० अणंता। एवं काऊए पि । णवरि तित्थ० उ० अणु० असंखेजा।
__३२७. तेऊए सादादीणं तिण्णिआउ० देवगदिपसत्थाणं तित्थ० उच्चा० उ० संखेंजा । अणु० असंखेजा । सेसाणं उ. अणु'० असंखजा०। एवं पम्माए । सुकाए जीवोंमें आहारकद्विक और तीर्थङ्करके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात हैं।
विशेषार्थ-गर्भज मनुष्य संख्यात हैं और इन्हीं में आहारकद्विकका बन्ध होता है, इसलिए आभिनिबोधिकज्ञानी आदिमें मनुष्यायु और आहारकद्विकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात कहे हैं। आगे अवधिदर्शनी आदि मार्गणाओंमें भी इन प्रकृतियोंके सम्बन्ध में इसी प्रकार जानना चाहिए । मात्र क्षायिकसम्यक्त्वका प्रारम्भ मनुष्य करते हैं और ये ही चारों गतियोंमें उत्पन्न होते हैं, इसलिए इनमें मनुष्यायुके समान देवायुके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात कहे हैं। तथा जो मनुष्य उपशमसम्यग्दृष्टि होते हैं या ऐसे जीव मर कर देव होते हैं, उनमेंसे ही तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध करनेवाले होते हैं ,अन्य उपशमसम्यग्दृष्टि नहीं। अतः इनमें आहारकद्विकके समान तीर्थङ्कर प्रकृति के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात कहे हैं। शेष कथन सुगम है।
३२५. संग्रतासंयत जीवोंमें सातावेदनीय आदिके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात हैं। अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं। तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग मनुष्यिनियोंके समान है। शेष प्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं।
विशेषार्थ-जो मनुष्य संयतासंयत होते हैं, उनमें ही कुछ तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध करते हैं, अतः यहाँ तीर्थक्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात कहे हैं। शेष कथन स्पष्ट ही है।
३२६. कृष्ण और नील लेश्यामें चार आयु और वैक्रियिक छहका भङ्ग ओघके समान है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका भंग मनुष्यनियोंके समान है। शेष प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव अनन्त हैं। इसी प्रकार कापोत लेश्यामें भी जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसमें तीर्थङ्कर प्रकृतिक उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं।
विशेषार्थ-जो नारकी कृष्ण और नील लेश्यावाले होते हैं, उनमें नरकायु, देवायु और वैक्रियिक छहका बन्ध नहीं होता; इसलिए यह प्ररूपणा अोधके समान बन जाती है। तथा इन लेश्याओंमें नरकमें तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध नहीं होता, अतः यहाँ तीर्थङ्कर प्रकृतिका भंग मनुध्यिनियोंके समान कहा है। मात्र कापोत लेश्यामें नरकमें भी इसका बन्ध होता है, इसलिए इस लेश्यामें तीर्थङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात कहे हैं। शेष कथन सुगम है।
३२७. पीतलेश्यामें सातावेदनीय, तीन आयु, देवगति आदि प्रशस्त प्रकृतियाँ तीर्थङ्कर और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात हैं। अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात
१. ता० प्रती सेसाणं अणु• इति पाठः ।
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परिमाणपरूवणा
१३७ खइगाणं पंचिंदियभंगो। दोआउ० मणुसि०भंगो। सेसाणं आणदभंगो। आहारदुर्ग ओघं।
३२८. अब्भवसि० णिरयाउ०-उ०छ. उ. अणु० असंखेज्जा। तिण्णिआउ० ओघं । सेसाणं उ० असंखेजा। अणु० अणंता । सासणे दोआउ० उ० संखेंजा । अणु० असंखेंज्जा । मणुसाउ० मणुसि भंगो। सेसाणं उ० अणु० असंखेंज्जा । सम्मामि० सव्वपगदीणं उ० अणु० असंखेज्जा । असण्णीसु दोआउ०-वेउव्वियछ. उ. अणु० असंखेंज्जा । मणुसाउ० ओघं । सेसाणं उ० असंखेज्जा । अणु० अणंता ।
एवं उक्कस्सं परिमाणं समत्त । ३२६. जहण्णए पगदं । दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० पंचणा०-णवदंस.. मिच्छ०-सोलसक०-सत्तणोक... अप्पसत्य०४-उप०-पंचंत० ज० अणु० कॅत्तिया ? संखेजा । अज० अणुभा० के० ? अणंता। सादासाद०-तिरिक्खाउ०-मणुसगदिचदुजादि-छस्संठा०-छस्संघ०--मणुसाणु०-दोविहा०-थावरादि०४-थिरादिछ०--उच्चा० हैं। इसी प्रकार पद्मलेश्यामें जानना चाहिए । शुक्ललेश्यामें क्षायिक प्रकृतियोंका भंग पञ्चन्द्रियोंके समान है। दो आयुओंका भंग मनुष्यिनियोंके समान है। शेष प्रकृतियोंका भंग आनत कल्पके समान है । आहारकद्विकका भंग श्रोधके समान है।
विशेषार्थ-शुक्ललेश्यामें मनुष्यायुका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध असंयतसम्यग्दृष्टि देव और देवायुका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध अप्रमत्तसंयत मनुष्य करता है। इसी प्रकार इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक भी संख्यात हैं, इसलिए इनका भंग मनुष्यिनियोंके समान कहा है। शेष कथन सुगम है।
३२८. अभव्योंमें नरकायु और वैक्रियिक छहके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं। तीन आयुअोंका भङ्ग ओषके समान है। शेष प्रकृयियोंके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव अनन्त हैं। सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंमें दो आयुओंके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात हैं। अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं। मनुष्यायुका भंग मनुष्यनियोंके समान है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें सब प्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं। असंज्ञी जीवोंमें दो आयु और वैक्रियिक छहके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं। मनुष्यायुका भंग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव अनन्त हैं।
इस प्रकार उत्कृष्ट परिमाण समाप्त हुआ। ३२६. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, सात नोकषाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात
और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागके बन्धक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। सातावेदनीय, असातावेदनीय, तिर्यश्चायु, मनुष्यगति, चार जाति, छह संस्थान, छह संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, दो विहायोगति, स्थावर आदि चार, स्थिर
१. ता. प्रतौ एवं उक्कसं परिमाणं समत्तं इति पाठो नास्ति । २. ता. प्रतौ मणुसाउ इति पाठः।
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१३८
महाबंधे अणुभागबंधाहियारे जे० अज० अणंता । इत्थि०-णस०--तिरि०-पंचिंदि०--ओरा०--तेजा-क०--ओरा०अंगो०-पसत्थव०४-तिरिक्खाणु०-अगु०३-आदाउज्जो०-तस०४-णिमि०-णीचागो. ज० असंखेजा। अज० अणंता। तिण्णिआउग०-वेउन्वियछ० ज० अज० असंखेजा। आहारदुर्ग ज. अज० संखेंजा। तित्थ० ज० संखेज्जा। अज० असंखेजा। एवं ओघभंगो कायजोगि--ओरालि०--णस०--कोधादि०४-अचक्खु०-- भवसि०-आहारए त्ति । णवरि ओरालि• [तित्थ० ] ज. अज० संखेंजा।
आदि छह और उच्चगोत्रके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीव अनन्त हैं। स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, तिर्यश्चगति, पञ्चन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिक
आंगोपांग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, तियंञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, तप, उद्योत, त्रसचतुष्क, निर्माण और नीचगोत्रके जघन्य अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीव अनन्त हैं। तीन आयु और वैक्रियिक छहके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं। श्राहारकद्विकके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीव संख्यात हैं। तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य अनुभागके बन्धक जीव संख्यात हैं और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं। इसी प्रकार ओघके समान काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि औदारिककाययोगी जीवों में तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीव संख्यात हैं।
विशेषार्थ-पाँच ज्ञानावरणादिमें से कुछ का जघन्य अनुभागबन्ध क्षपकौणिमें होता है, स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारका जघन्य अनुभागबन्ध संयमके अभिमुख हुए मिथ्यादृष्टिके होता है । आठ कषायोंका जघन्य अनुभागबन्ध भी संयमके अभिमुख हुए अविरतसम्यग्छ ष्टि और संयतासंयतके होता है। अरति और शोकका जघन्य अनुभागबन्ध प्रमत्तसंयतके होता है। यतः इन प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागके बन्धक जीव संख्यात हैं, अतः ये संख्यात कहे हैं। इनके अजघन्य अनुभागके बन्धक जीव अनन्त हैं, यह स्पष्ट ही है। सातावेदनीय आदिका जघन्य अनुभागबन्ध चारों गतिके जीव करते हैं और तिर्यञ्चायु और तीन जातिका जघन्य अनुभागबन्ध तिर्यश्च और मनुष्य तथा एकेन्द्रियजाति और स्थावरका जघन्य अनुभागबन्ध तीन गतिके जीव करते हैं। ये बन्ध करनेवाले जीव अनन्त हैं, इसलिए इन प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीव अनन्त कहे हैं । स्त्रीवेद आदिका जघन्य अनुभागबन्ध यथायोग्य संज्ञी पश्चन्द्रिय जीव ही करते हैं, इसलिए इन प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात
और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीव अनन्त कहे हैं। तीन आयु आदिके जघन्य अनुभागके बन्धक जीव पञ्चन्द्रिय हैं मात्र मनुष्यायुके विषय में यह नियम नहीं है। पर मनुष्य असंख्यात होते हैं, इसलिए इनके बन्धक भी असंख्यात ही होंगे, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागके 'बन्धक जीव असंख्यात कहे हैं। आहारकद्विकके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीव संख्यात हैं,यह स्पष्ट ही है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका जघन्य अनुभागबन्ध मनुष्य ही करते हैं, इसलिए इसके जघन्य अनुभाग के बन्धक जीव संख्यात और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात कहे हैं। यह ओघ प्ररूपणा काययोगी आदि मार्गणाओंमें घटित हो जाती है, इसलिए उनकी प्ररूपणा अोधके समान कही है। मात्र औदारिककाययोगमें तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध गर्भज मनुष्य
१. श्रा० प्रती थिरादिछ. उक्क० उच्चा० ज० इति पाठः। २. श्रा० प्रती संखेजा इति पाठः। ३. श्रा० प्रतौ ज० असंखेजा इति पाठः।
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परिमाणपरूवणा
१३६ ३३०. णेरइग-सव्वदेवाणं ज० अज० उक्कस्सभंगो। तिरिक्खेसु साददंडओ तिण्णिआउ०--वेउब्धियल० ओघं । सेसाणं ज. असंखेंजा। अज० अणंता । सव्वपंचिंदिय तिरि० सव्वपग० ज० अज० असंखेज्जा । एवं सव्वअपज्ज०-सव्वविगलिंदि०सव्वपुढ०-आउ०-तेउ०-वाउ० बादरपत्ते ।
३३१. मणुसेसु पंचणा०-णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक०-णवणोक०-पंचिंदि०ओरा०-तेजा-क०-ओरालि०अंगो०-पसत्यापसत्थ०४-अगु०४-आदाउज्जो०-तस०४णिमि०--पंचंत० ज० संखेंज्जा । अज० असंखेज्जा । सादासाद०-दोआउ०--दोगदिचदुजा०-छस्संठा०-छस्संघ०-दोआणु०-दोविहा०--थावरादि०४-धिरादिछयु०-दोगो० ज० अज. असंखेंजा । दोआउ०-वेउव्वियछ०-आहारदुग-तित्थ० ज० अज० संखेंजा । मणुसज्जत्त-मणुसिणीसु सव्वपग० ज० अज० उक्स्सभंगो।
३३२. एईदिएसु तिरिक्ख-मणुसाउ०-तिरिक्ख०-तिरिक्खाणु०-णीचा. जह० अज० ओघं । सेसाणं ज० अज० अणंता । वणप्फदि-णियोदाणं मणुसाउ०-तिरिक्ख०.
ही करते हैं और वे संख्यात हैं, अतः इस योगमें तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीव संख्यात कहे हैं ।
__ ३३०. नारकियों और सब देवोंमें सब प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका भङ्ग उत्कृष्ट प्ररूपणाके समान है। तिर्यञ्चोंमें सातावेदनीयदण्डक, तीन आयु
और वैक्रियिकछहका भङ्ग ओषके समान है। शेष प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीव अनन्त हैं। सब पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चोंमें सब प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं। इसी प्रकार सब अपर्याप्त, सव विकलेन्द्रिय, सब पृथिवीकायिक, सब जलकायिक, सब अग्निकायिक, सब वायुकायिक और बादर प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीवोंके जानना चाहिए ।
__ ३३१. मनुष्योंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, पञ्चन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, आतप, उद्योत, सचतुष्क, निर्माण और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागके बन्धक जीव संख्यात हैं । अजघन्य अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं। सातावेदनीय, असातावेदनीय, दो आयु, दो गति, चार जाति, छह संस्थान, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति, स्थावर आदि चार, स्थिर आदि छह युगल और दो गोत्रके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं। दो आयु, वैक्रियिक छह, आहारकद्विक और तीर्थकरके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं। मनुष्यपर्याप्त मनुष्यनियोंमें सब प्रकृतियोंके जघन्य और अजवन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका भंग उत्कृष्टके समान है।
. ३३२. एकेन्द्रियोंमें तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु, तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रके जघन्य और अजवन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका भंग ओषके समान है। शेष प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीव अनन्त हैं। वनस्पतिकायिक और निगोद जीवोंमें मनुष्यायु, तिर्यश्च.
१. ता. प्रतो यावरादि० थिरादिछयु० इति पाठः। २. ता० प्रा० प्रत्योः असंखेजा. इति पाठः।
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१४०
महाबंधे अणुभागबंधाहियारे तिरिक्खाणु०-णीचा. ज. अज० ओघ । सेसाणं ज. अज० अणंता । पंचिं०-तस०२ पंचणा०-णवदंस०-मिच्छ०-सोलसक०-सत्तणोक०-अप्पसत्थ०४-उप०-तित्थय०-पंचंत० ज० संखेज्जा । अज० असंखेज्जा । आहारदुगं ओघं । सेसाणं ज० अज. असंखेंज्जा। एवं पंचमण०-पंचवचि०-इत्थि०-पुरिस०-विभंग०-चक्खु०-सणि त्ति ।
३३३. ओरालियमि० पंचणा०-छदसणा०--बारसक०--अप्पसत्थ०४-उप०पंचंत० ज० संखेज्जा । अज. अणंता । मणुसाउ० ओघं। देवगदिपंचगस्स उक्कस्सभंगो । सेसाणं ओरालियकायजोगिभंगो । वेउव्वि०-वेउब्धियमि०-आहार-आहारमि० उक्कस्सभंगो। कम्मइ. पंचणा०-णवदंस०-मिच्छ-सोलसक०-णवणोक०-तिरिक्ख०पंचिं०--ओरा०-तेजा०-क०--ओरा०अंगो०--पसत्थापसत्थ०४-तिरिक्वाणु०--अगु०४आदाउज्जो०-तस०४-णिमि०-णीचा०-पंचंत० ज० असंखें । अज० अणंता । देवगदिपंचगं उक्कस्सभंगो । सेसाणं सादादीणं ज० अज० अणंता ।
३३४. अवगद०--मणपज्जव०-संजद--सामाइ०-छेदो०--परिहार० -मुहुमसंप० उकस्सभंगो। गति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका भंग पोषके समान है। शेष प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागके वन्धक जीव अनन्त हैं। पश्चन्द्रिय,पञ्चन्द्रियपर्याप्त, त्रस और सपर्याप्त जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, सात नोकषाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, तीर्थङ्कर और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागके बन्धक जीव संख्यात है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात है। आहारकद्विकका भंग
ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं। इसी प्रकार पाँच मनोयोगी, पाँच वचनयोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, विभंगज्ञानी, चक्षुदर्शनी और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिए।
३३३. औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागके बन्धक जीव संख्यात हैं। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीव अनन्त हैं। मनुष्यायुका भंग अोधके समान है । देवगतिपञ्चकका भंग उत्कृष्टके समान है। शेष प्रकृतियोंका भंग औदारिककाययोगी जीवोंके समान है। वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवों में उत्कृष्टके समान भंग है । कार्मणकाययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, तिर्यञ्चगराि, पञ्चन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिक अांगोपांग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरु लघुचतुष्क, आतप, उद्योत, त्रसचतुष्क, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभाग के बन्धक जीव असंख्यात हैं। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीव अनन्त हैं। देवगतिपञ्चकका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। शेष सातावेदनीय आदिके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीव अनन्त हैं।
३३४. अपगतवेदी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंवत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत और सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है ।
१. ता. प्रतौ -णियोदाणं मणुसाउ० ओघं इति पाठः । २. ता. प्रतो ज० अणंता इति पाठः ।
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परिमाण परूवणा
३३५. मदि- सुद० पंचणाणावरणादिदंडओ सादादिदंड
पंचिंदियदंडओ
ओघं । वरि अरदि-सोग ज० असंखज्जा । अज० अनंता । एवमसंजदा० मिच्छादिहि ति । आभिणि-सुद-ओधि० पंचणा ० उदंसणा ० - बारसक० - सत्तणोक० -- अप्पसत्थ०४- उप० - तित्थ० - पंचंत० ज० के० ? संखेज्जा । अज० असं खेंज्जा । मणुसाउ०आहार दुगं उक्कस्सभंगो । सेसाणं ज० अज० असंखेज्जा । एवं ओधिदं ० -सम्मादि ०खइग०- वेदग०-उवसम० । णवरि खड्गे दो आउ० - आहारदुगं उक्कस्तभंगो । उवसम० तित्थ० उकस्सभंगो । संजदासंजदे तित्थ० मणुसि० भंगो । सेसाणं ओधिभंगो ।
३३६. किण्ण०-णील०- काउ० तिरिक्खोघं । णवरि तित्थ० मणुसि० भंगो । काऊए णिरयभंगो | तेऊए पंचणा० - णवदंस ० - मिच्छ० - सोलसक० सत्तणोक ० - अप्पसत्थ०४ – उप० - पंचंत० ज० संखें । अज० असंखे । मणुसाउ० - आहारदुगं उक्कस्सभंगो । सेसाणं ज० अज० असंखें । एवं पम्माए । सुक्काए खविगाणं संजमपाओगाणं ज० संखे । अज० असंखें । दोस्राउ ० - आहारदुगं उक्कस्सभंगो । सेसाणं ज० अ० अ० ।
१४१
३३५. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवों में पाँच ज्ञानावरणादि दण्डक, सातावेदनीयदण्डक और पञ्च ेन्द्रियजातिदण्डकका भङ्ग श्रोध के समान है । इतनी विशेषता है कि रति और शोकके जघन्य अनुभाग बन्धक जीव असंख्यात हैं और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीव अनन्त हैं । इसी प्रकार असंयत और मिध्यादृष्टि जीवों के जानना चाहिए | अभिनिवोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवों में पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, सात नोकषाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, तीर्थंकर और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागके बन्ध जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । अजघन्य अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं । मनुष्यायु और आहारकद्विकका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। शेष प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं । इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें दो आयु और आहारकद्विकका भंग उत्कृष्टके समान है । उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें तीर्थङ्कर प्रकृतिका भंग उत्कृष्ट के समान है । संयतासंयत जीवों में तीर्थङ्कर प्रकृतिका भंग मनुष्यिनियोंके समान हैं। शेष प्रकृतियोंका भंग श्रवधिज्ञानी जीवोंके समान है ।
३३६. कृष्ण, नील और कपोतलेश्या में सामान्य तिर्यखों के समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग मनुष्यिनियोंके समान है। मात्र कापोतलेश्यामें नारकियोंके समान भंग है । पीत लेश्यामें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिध्यात्व, सोलह कषाय, सात नोकषाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागके बन्धक जीव संख्यात हैं । जघन्य अनुभाग के बन्धक जीव असंख्यात हैं। मनुष्यायु और आहारकद्विकका भंग उत्कृष्टसमान है। शेष प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीव असंख्यात हैं। इसी प्रकार पद्मलेश्या में जानना चाहिए। शुक्ललेश्या में क्षपक और संयमप्रायोग्य प्रकृतियोंके जघन्य अनुभाग के बन्धक जीव संख्यात हैं। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं । दो आयु और आहारकद्विकका भंग उत्कृष्टके समान है। शेष प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभाग बन्धक जीव असंख्यात हैं ।
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महाधे अणुभागबंधाहियारे
३३७. अब्भवसि० पंचणा ० णवदंस०-मिच्छ० - सोलसक० णवणोक ० - तिरिक्ख पंचिंदियजादि -- तिष्णसरीर--ओरा० गो०--पसत्थापसत्थ०४ - तिरिक्खाणु०-अगु०४आदाउज्जो ० -तस०४ - णिमि० णीचा ० - पंचंत० ज० असंखे ० । अज० अनंता । सेसाणं ओघं । एवमणि त्ति । सासणे मणुसाउ० देवभंगो । सेसाणं ज० अ० असंखे० । सम्मामि० सव्वपग० ज० ज० असंखेज्जा । अणाहार० कम्मइगभंगी ।
एवं परिमाणं समत्तं ।
१४२
१६ खेत्तपरूवणा
३३८. खेत्तं दुविधं – जहण्णयं उकस्सयं च । उक्क० पगदं । दुवि० – ओघे ० आदे० | ओघे० तिणिआउ० - वेडव्वियछ० - आहारदुग-तित्थ० उक्क० अणुक्क० अणुभागबंध • केवडि खेते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे । सेसाणं उ० अणुभा० केव० १ लोगस्स असंखेज्ज० । अणुक्क० सव्वलोगे । एवं ओघभंगो तिरिक्खोघो कायजोगिओरालि ०--ओरालियमि० - कम्मइ०-- णर्युस ० -- कोधादि ०४ --मदि० - सुद० -- असंज०
०
0
३३७. अभव्यों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, तिर्यचगति, पश्र्च ेन्द्रियजाति, तीन शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्ण चतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, श्रातप, उद्योत, त्रसचतुष्क, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं । अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीव अनन्त हैं। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग प्रोघके समान है। इसी प्रकार असंज्ञी जीवोंके जानना चाहिए । सासादनसम्यग्दृष्टि जीवों में मनुष्यायुका भंग देवोंके समान है। शेष प्रकृतियों के जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं । सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवों में सब प्रकृतियों के जघन्य और जघन्य अनुभाग के बन्धक जीव असंख्यात हैं। अनाहारक जीवोंमें कार्मणका ययोगी जीवोंके समान भंग है ।
विशेषार्थ - ओघ से सब प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीव कितने हैं इसका स्पष्टीकरण किया ही है। उसी प्रकार अपने अपने स्वामित्वको ध्यान में रखकर सब मार्गओमें स्पष्टीकरण कर लेना चाहिए। कोई विशेषता न होनेसे अलग अलग स्पष्टीकरण नहीं किया है।
इस प्रकार परिमाण समाप्त हुआ ।
१६ क्षेत्ररूपणा
३३८. क्षेत्र दो प्रकारका है— जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृटका प्रकरण हैं। निर्देश दो प्रकारका है - श्रोध और आदेश । श्रघसे तीन आयु, वैक्रियिक छह, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर के : उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके वन्धक जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकका श्रसंख्यातवाँ भाग क्षेत्र है । शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकका असंख्यातवां भाग क्षेत्र है । अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका सब लोक क्षेत्र है । इस प्रकार के समान सामान्य तिर्य, काययोगी, श्रदारिककाययोगी, श्रदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी,
१. श्र० प्रतौ एवं सण्णि त्ति इति पाठः । २ ता० प्रतौ एवं परिमाणं समत्तं इति पाठो नास्ति ।
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खेत्तपरूवणा
१४३ अचक्खु०-तिण्णिले०-भवसि०-अब्भवसि०-मिच्छा०-असण्णि-आहार०-अणाहारग ति।
३३६. एइंदि० पंचणा०-णवदंस०-असादा०--मिच्छ०-सोलसक०--सत्तणोक०तिरिक्ख०--एइंदि०--हुंड०-अप्पसत्थ०४-तिरिक्वाणु०--उप०-थावरादि४-अथिरादिपंच०-णीचा०-पंचंत० उ० अणु० सव्वलोगे। दोआउ०-मणुस०--मणुसाणु०-उच्चा०
ओघं । सेसाणं उ० लोग० संखे, अणु० सव्वलोगे। क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शन, तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए ।
विशेषार्थ-नरकायु, देवायु और वैक्रियिक छहका असंज्ञी आदि, आहारकद्विकका अप्रमत्तसंयत और तीर्थकरका सम्यग्दृष्टि जीव बन्ध करते हैं। इन जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण होनेसे इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्र उक्त प्रमाण कहा है। मनुष्यायुका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध संज्ञी पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च और मनुष्य करते हैं, इसलिए इनका क्षेत्र तो लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है ही, परन्तु मनुष्यायुके अनुत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीवोंका भी लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है, क्योंकि एकेन्द्रियादि सभी जीव इसका बन्ध करनेवाले होते हए भी वे स्वल्प हैं। उन जीवोंके क्षेत्रका योग लोकके असंख्यातवें भागसे अधिक नहीं होता, इसलिए मनुष्यायुकी अपेक्षा भी यह क्षेत्र उक्त प्रमाण कहा है। अब रही शेष प्रकृतियाँ सो उनके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध सामान्यतः संज्ञी पश्चन्द्रिय जीव करते हैं
और इनका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्र उक्त प्रमाण कहा है। तथा इनके अनुत्कृष्ट अनुभागका वन्ध एकेन्द्रियादि
व करते हैं, इसलिए यह सर्वलोक कहा है। यहाँ अन्य जितनी मार्गणाएँ कही हैं उनमें यह प्ररूपणा बन जाती है, इसलिए उनको अोधके समान कहा है।
___३३६. एकेन्द्रियोंमें, पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, सात नोकषाय, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, हुण्ड संस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, स्थावर आदि चार, अस्थिर आदि पाँच, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक है । दो आयु, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका भंग अोधके समान है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोक संख्यातवें भागप्रमाण है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक है।
विशेषार्थ-पाँच ज्ञानावरणादिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध अन्यतर यथायोग्य संक्लेश युक्त एकेन्द्रिय जीव करते हैं और ये सर्व लोकमें पाये जाते हैं, इसलिए इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवों का सर्व लोक क्षेत्र कहा है। दो आयु, मनुष्यगतिद्विक और उच्चगोत्रका भंग ओघके समान है यह स्पष्ट ही है, क्योंकि इनके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक बादर पृथिवीकायिक, वादर जलकायिक और बादर प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीव हैं और इनका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा एकेन्द्रिय जीव सब लोकमें पाये जाते हैं, इसलिए इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक है। ओघसे इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्र उक्त प्रमाण ही कहा है। अब रहीं शेष प्रकृतियाँ सो उनमेंसे प्रशस्त प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध बादर अग्निकायिक और बादर वायुकायिक जीव करते हैं और जो एकेन्द्रिय सम्बन्धी न होकर अन्य प्रकृतियाँ हैं, उनके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध अन्यतर करते हुए वे
१. ता० श्रा० प्रत्योः सबलोगो इति पाठः ।
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महाधे श्रणुभागबंधाहियारे
३४०, बादरएइंदियपज्जतापज्जत्ता • पंचणाणावरणादि याव अप्पसत्थाणं थावरपगदीणं उक्क० अणु० सव्वलो ० । सादावे० - ओरालि० तेजा ० - क० - पसत्य०४अगु० ३ - पज्ज० -- पत्ते ० - थिर- सुभ० - णिमि० उ० लोग० संखें०, अणु० सव्वलो० । इत्थि० - पुरिस० - चदुजादि- पंचसंठा ०-ओरालि ० अंगो०- छस्संघ० - आदाउज्जो ० - दोविहा०तस०- बादर०- सुभग०- दोसर० - आदज्ज० - जस० उ० अणु० लोग० संखें । तिरिक्खाउ० उ० लोग० असंखे, अणु० लोग० संखें । मणुसाउ०- मणुस ० - मणुसाणु ०उच्चा॰ उक्क० अणु० लोग० असंखें । सव्वसुहुमाणं' तिरिक्ख० मणुसाउ० ओघं । साणं उ० अणु० सव्वलो ० ।
१४४
३४१. पुढवि० - आउ० तेउ० सव्र्व्वथावरपगदीणं उ० लो० असंखे, अणु० सव्वलो० ? वरि मणुसाउ० ओघं । बादरपुढवि ०. ० आउ० तेउ० पंचणा ० -- णवदंसं ०सादासाद० - मिच्छ० - सोलसक० सत्तणोक० - तिरि०- एइंदि० ओरालि० -- तेजा ० हुंड०-पसत्यापसत्थ०४ - तिरिक्खाणु० - अगु०४-थावर- मुहुम-पज्जत्तापज्जत्त- पत्ते ० - साधार०
०--क०
सब लोक नहीं पाये जाते, अतः उन सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागप्रमाण और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक कहा है। आगे अन्य मार्गणाओंमें जो क्षेत्र कहा है उसे इसी प्रकार स्वामित्वका विचार कर घटितकर लेना चाहिए । विचार करने की दिशाका ज्ञान इससे ही जाता है।
३४०. बादर एकेन्द्रिय तथा उनके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवों में पाँच ज्ञानावरण से लेकर अप्रशस्त स्थावर प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक है । सातावेदनीय, श्रदारिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ और निर्माण के उत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके संख्यात वें भागप्रमाण है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका सब लोक क्षेत्र है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद चार जाति, पाँच संस्थान, औदारिक अंगोपांग, छह संहनन, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, त्रस बादर, सुभग, दो स्वर, आदेय और यशः कीर्तिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग के बन्ध जीवों का लोकके संख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र है । तिर्यवायुके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है । मनुष्यायु, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागको बन्धक जीवोंका लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है । सव सूक्ष्म जीवों में तिर्यवायु और मनुष्यायुका भंग के समान है । शेष प्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका सब लोक क्षेत्र है ।
३४१. पृथिवीकायिक, जलकायिक और अग्निकायिक जीवोंमें सब स्थावर प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र हैं और अनुत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीवोंका सत्र लोक क्षेत्र है । इतनी विशेषता है कि मनुष्यायुका भंग ओघके समान है । बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक और बादर अग्निकायिक जीवों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, असातावेदनीय, मिध्यात्व, सोलह कषाय, सात नोकषाय, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, श्रदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्ड संस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क,
१. श्रा० प्रतौ जस० उ० श्रणु० लोग ० श्रसंखे० सबसहु माणं इति पाठः । १. ता० श्रा० प्रत्योः तेज बादरपत्ते० सव्य इति पाठः ।
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खेत्तपरूवणा
१४४.
थिराथिर -- सुभासुभ--दूभग-- अणादे० - अजस० - णिमि० णीचा ० - पंचंत० उ० लोगस्स असंखेज्जदिभागे । अणुक्कस्तं सव्वलोगे । सेसाणं सव्वतसपगदीर्णं बादर - जसगित्तिसहिदाणं उ० अणु० लो० असंखें । बादरपुढ० - आउ० ते ० पज्जत्ता' पंचि०तिरि०अपज्ज०भंगो । बादरपुढ० - आउ० तेउ० अपज्जत्त० पंचणा०-- णवदंसणा ० -- असादा ०मिच्छ०-सोलसक० - सत्तणोक० - तिरिक्ख ० -- एइंदि० - हुंड० - अप्पसत्य०४ - तिरिक्खाणु०उप०-थावरादि४-अथिरादिपंच० - णीचा ० पंचंत० उ० अणु० सव्वलो ० । सादा०ओरालि०--तेजा०--क० - पसत्थ०४ - अगु० ३ - पज्जत्त - पत्ते ० - थिर० - सुभ० - णिमि० उ० लोग० असं०, अणु० सव्वलो० | सेसाणं तसपगदीणं बादर - जसगित्तिसहिदाणं उ० अणु० लो० असंखें । वाऊणं पि तेउभंगो । णवरि यम्हि लोग० असंखे तम्हि लोग० संखें - कादव्वं । णवरि बादरवाङ आउ० बादरएइंदियभंगो ।
३४२. वणप्फदि- णियोद० थावरपगदीणं अप्पसत्थाणं उ० अणु० सव्वलो० । साणं सादादीणं तस थावरपगदीणं उ० लो० असंखे, अणु० सव्वलो ० । मणुसाउ० ओघं । बादरवणप्फदि- बादरणियोद-पज्जत्तापज्जत्त० थावरपगदीणं अप्पसत्थान
अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक साधारण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशःकीर्ति, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है और अनुत्कृष्ट अनुभाग बन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक है । बादर और यशःकीर्ति सहित शेष सब त्रसप्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है । बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त और बादर अग्निकायिक पर्याप्त जीवों में पचेन्द्रिय तिर्यश्व अपर्याप्तकोंके समान भंग है । बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, बादर जलकायिक अपर्याप्त और बादर अग्निकायिक अपर्याप्त जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिध्यात्व, सोलह कषाय, सात नोकषाय, तिर्यगति, एकेन्द्रियजाति, हुण्ड संस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्जगत्यानुपूर्वी, उपघात, स्थावर आदि चार, अस्थिर आदि पाँच, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक है । सातावेदनीय, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ और निर्माणके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र हैं और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका सब लोक क्षेत्र है । बादर और यश कीर्ति सहित शेष त्रस प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीवोंका लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है । वायुकायिक जीवोंका भी अग्निकायिक जीवोंके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि जहाँ पर लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र कहा है, वहाँ पर लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र करना चाहिए । इतनी विशेषता है कि बाहर वायुकायिक जीवों में का भंग बादर एकेन्द्रियोंके समान है ।
३४२. वनस्पतिकायिक और निगोद जीवोंमें अप्रशस्त स्थावर प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका सब लोक क्षेत्र है । शेष सातावेदनीय यदि त्रस स्थावरप्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है और अनुत्कृष्ट अनुभाग बन्धक जीवोंका सब लोक क्षेत्र है। मनुष्यायुका भंग श्रधके समान है । बादर १. ता० श्रा० प्रत्योः सव्वलोगो इति पाठः । २. श्रा० प्रतौ तेङ० वाउ० पजत्ता इति पाठः । १६
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे उ० अणु० सव्वलो। सादा०-ओरा०--तेजइगादीणं थावरपगदीणं पसत्थाणं उ. लो० असंखें, अणु० सव्वलो० । सेसाणं तसपगदीणं आदाउज्जो०-बादर-जसगित्तिसहिदाणं उ० अणु० लो० असंखें। बादरपत्ते. बादरपुढविभंगो। रइगादि याव सण्णि ति उक्क० अणु० लोग० असंखेजदि०।
एवं उक्कस्सं समत्तं । ३४३. जहण्णए पगदं । दुवि०-ओघे० आदे। ओघे० पंचणा०--णवदंस०मिच्छ०-सोलसक०-णवणोक-तिरिक्ख०-पंचिंदि०-ओरालि.--तेजा०-क०-ओरालि०अंगो०-पसत्यापसत्थ०४--तिरिक्वाणु०--अगु०४--आदाउज्जो०-तस०४-णिमि०-- णीचा०-पंचंत० ज० अणुभागबंधगा केवडि खेचे ? लोग० असंखें । अज० अणु० केव० १ सव्वलो। सादासाद०-तिरिक्खाउ०-मणुस०-चदुजादि-छस्संठा०-छस्संघ०मणुसाणु०-दोविहा०-थावरादि४-थिरादिछयुग०-उच्चा० ज. अज. सव्वलो० । तिण्णिउ०-वेव्वियछ०-आहारदुग-तित्थ० ज० अज० लो० असंखें। एवं ओघभंगो कायजोगि--णस०-कोधादि४-मदि०-सुद०--असंज०--अचक्खु०--किण्ण०वनस्पतिकायिक, बादर निगोद तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंमें अप्रशस्त स्थावर प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका सब लोक क्षेत्र है । सातावेदनीय, औदारिकशरीर और तेजसशरीर आदि प्रशस्त स्थावर प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका सब लोक क्षेत्र है। भातप, उद्योत, बादर और यश कीर्ति सहित शेष त्रसप्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है। बादर प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीवोंका बादर पृथिवीकायिक जीवोंके समान भंग है। तथा नारकियोंसे लेकर संज्ञी तक अन्य जितनी मार्गणाएँ शेष रही हैं,उनमें सब प्रकृतियोंके. उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके वन्धक जीवों का क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है।
इस प्रकार उत्कृष्ट क्षेत्र समाप्त हुआ। ३४३. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, तिर्यश्चगति, पश्चन्द्रियजाति,
औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, आतप, उद्योत, त्रसचतुष्क, निर्माण, नीचगोत्र
और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका कितना क्षेत्र है ? सब लोक क्षेत्र है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, तिर्यञ्चायु, मनुष्यगति, चार जाति, छह संस्थान, छह संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, दो विहायोगति, स्थावर आदि चार, स्थिर आदि छह युगल और उच्चगोत्रके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका सब लोक क्षेत्र है। तीन आयु, वैक्रियिक छह,
आहारकद्विक और तीर्थङ्करके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है। इसी प्रकार ओघके समान काययोगी. नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, कृष्णलेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि
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क्षेत्रपरूवणा
भवसि ० - श्रब्भवसि ० - मिच्छा ० -- आहारए ति । तिरिक्खोघं ओरा० - ओरालियमिं०. णील००- फाउ० असण्णीसु च ओघं । णवरि तिरिक्ख ० - तिरिक्खाणु० - णीचा० ज० लो० ज० सव्वलो० ।
संखे ०,
३४४. एइंदिए पंचणा० - णवदंस० - मिच्छ०-सोलसक० णवणोक ० -तिरिक्ख ०ओरालि० गो ०. ०-- अप्पसत्थ०४ - तिरक्खाणु० - उप० - आदाउज्जो ० - [ अप्पसत्थवि०- ] णीचा ० - पंचत० ज० लो० संखें०, अज० सव्वलो० । सादासाद० - तिरिक्खाउ०
१४७
और आहारक जीवों के जानना चाहिए। सामान्य तिर्यञ्च, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोनी, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले और असंज्ञी जीवों में भी ओधके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागप्रमाण है और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक है ।
विशेषार्थ- - प्रथम दण्डकमें कही गई पाँच ज्ञानावरणादि प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागवन्ध या तो गुणस्थानप्रतिपन्न जीव करते हैं और जिन स्त्यानगृद्धि तीन आदिका मिध्यादृष्टि जीव करते हैं वे सब संज्ञी पञ्चेन्द्रिय ही होते हैं और ऐसे जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, अतः यहाँ इन प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका क्षेत्र उक्त प्रमाण कहा है । तथा इनका अजघन्य अनुभागबन्ध एकेन्द्रिय आदि सब जीव करते हैं, अतः इनके अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंका सब लोक क्षेत्र कहा है । दूसरे दण्डकमें कही गई सातावेदनीय आदिका जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्ध एकेन्द्रिय आदि चारों गतिके जीव करते हैं, अतः इनके दोनों प्रकार के अनुभाग बन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक कहा है। शेष रही तीसरे दण्डकमें कही गई तीन आयु आदि प्रकृतियाँ सो इनमेंसे मनुष्यायुके सिवा शेष प्रकृतियोंका बन्ध यथायोग्य पञ्चेन्द्रिय जीव ही करते हैं और मनुष्यों का प्रमाण असंख्यात होनेसे मनुष्यायुका बन्ध करनेवाले जीव स्वल्प हैं, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवों का क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। यहाँ काययोगी आदि अन्य जितनी मार्गणाऐं गिनाई हैं उनमें यह घ प्ररूपणा अविकल घटित हो जाती है, इसलिए उनके कथनको ओधके समान कहा है । यद्यपि सामान्य तिर्य आदि मार्गेणाओं में भी यह श्रोघप्ररूपणा घटित हो जाती हैं और इसलिए उनकी प्ररूपणाको भी ओघ के समान जाननेकी सूचना की है पर उनमें तिर्यञ्चगति आदि तीन प्रकृतियों की अपेक्षा कुछ विशेषता है । बात यह हैं कि ओघ में और काययोगी आदि मार्गणाओं में तो तिर्यगति आदिका जघन्य अनुभागबन्ध सम्यक्त्व के अभिमुख हुआ सातवें नरकका नारकी जीव करता है और सामान्य तिर्यञ्च आदि मार्गणाओंमें बादर अग्निकायिक और बादर वायुकायिक जीव इन प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्ध करता है और बादर बायुकायिक जीवोंका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागप्रमाण हैं, इसलिए इन मार्गणाओं में उक्त तीन प्रकृतियोंके जघन्य अनुभाग बन्धक जीवों का क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागप्रमाण और अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक कहा है।
I
३४४. एकेन्द्रियों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिध्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, तिर्यञ्चगति, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, श्रातप, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागप्रमाण है और अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक
१. ता० प्रतौ तिरिक्खोधं श्रोरालियमि० इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागपंधाहियारे मणुस-पंचजादि--ओरालि०--तेजा--क०-छस्संठा-छस्संघ०--पसत्य०४-मणुसाणु०अगु०३-[पसत्यवि०-] तसथावरादिदसयुग०-णिमि०-उच्चा० ज० अज० सव्वलो० । मणुसाउ० ज० अज. ओघं ।
३४५. बादरपज्जत-[ अपज्जत्त० ] पंचणा०-णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक०सत्तणोक०-तिरिक्ख०--अप्पसत्थ०४ -तिरिक्खाणु०-उप०-णीचा०--पंचंत. ज. लो. संखे०, अज. सव्वलो। सादासाद०-एइंदि०-ओरा-तेजा०-१०-हुंड०--पसत्यवण्ण:-अगु०३-थावर-मुहुम-पज्जा-अपज्ज.--प०-साधार०--थिराथिर-मुभासुभ
भग-अणादें -अजस०-णिमि० ज० अज० सव्वलो०। इत्यि०-पुरिस०-तिरिक्खाउ०चदुजादि--पंचसंग--ओरा०अंगो०-छस्संघ०-आदाउज्जो०-दोविहा०-तस०-बादर०. है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, तिर्यञ्चायु, मनुष्यगति, पाँच जाति, औदारिकशरीर, तेजसशरीर, कामणशरीर, छह संस्थान, छह संहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, भगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, प्रस-स्थावर आदि दस युगल, निर्माण और उच्चगोत्रके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्र सघ लोक है। मनुष्यायुके जघन्य और भजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्र पोषके समान है।
विशेषार्थ-एकेन्द्रियोंमें सब प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्ध बादर जीव करते हैं और इनका स्वस्थानकी अपेक्षा क्षेत्र लोकका संख्यातवां भागप्रमाण है और समुद्घातकी अपेक्षा सर्व लोक क्षेत्र है। इसी विशेषताको ध्यानमें रखकर यहाँ क्षेत्र कहा है। जिन प्रकृतियों का सर्वविशुद्ध
और तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामोंसे जघन्य अनुभागबन्ध होता है। या तात्प्रायोग्य संक्लिष्ट परिणामोंसे जघन्य अनुभागबन्ध होकर भी जो प्रतिपक्ष प्रकृतियोंसे रहित हैं उनका जघन्य अनुभागबन्ध स्वस्थानमें होता है, इसलिए इनके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागप्रमाण कहा है और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक कहा है । मात्र परघात और उच्छवास इस नियमकी अपवाद प्रकृतियाँ हैं, क्योंकि उपघात अप्रशस्त प्रकृति है
और ये प्रशस्त प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनका ग्रहण सातावेदनीय आदिके साथ होता है। अवरही शेष सातावेदनीय आदि उत्कृष्ट संक्लिष्ट या तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट परिणामों से बँधनेवाली प्रकृतियाँ सो इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका सब लोक क्षेत्र कहा है. क्योंकि इनक मारणान्तिक समुद्घातके समय भी जघन्य अनुभागबन्ध हो सकता है । मात्र दो आयुओंके विषय में स्वतन्त्ररूपसे विचार करना चाहिए । कारण स्पष्ट है । इसी प्रकार आगे भी स्वामित्वका विचार कर क्षेत्र घटित कर लेना चाहिए।
२४५. बादर तथा उनके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, सात नोकषाय, तियश्चगति, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागप्रमाण है और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, एकेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्ड संस्थान, प्रशस्त वर्ण चतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक साधारण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशःकीर्ति और निर्माणके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, तिर्यश्चायु, चार जाति, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, स, बादर, सुभग, दो स्वर, आदेय
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खेत रूवा
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O
सुभग० - दोसर ० - आदें - - जस० ज० अजे० लोग० संखें । मणुसाउ०- मणुसग ०-मणुसाणु०-उच्चा० ज० अज० लो० असंखे० । सव्वसुहुमाणं सव्वपगदीणं ज० अज० सव्वलो ० ० । णवरि मणुसाउ० ओघं ।
0
३४६. पुढ० - आउ० पंचणा ० णवदंस० - मिच्छ० - सोलसक० णवणोक ० -ओरा०तेजा ० क० - ओरालि० अंगो०-पसत्यापसत्य०४ -- अगु०४ - आदाउज्जो ० णिमि० पंचंत० ज० लो० असंखें, अज० सव्वलो० । सादासाद० - तिरिक्खा उ० -दोगदि-पंचजादि-बस्संठा० - वस्संघ० - दोआणु० - दोविहो०- तसादिदसयुगल- दोगो ० ज० अज० सव्वलो ० । मणुसाउ० [ज० अज० ओघं । ] बादरपुढ०-- आउ० पंचणा० णवदंस०-मिच्छ०सोलसक० - सत्तणोक ० - ओरा ० -- तेजा ० क ० - पसत्थापसत्थ०४ - अगु० -- णिमि० - पंचंत ० ज० लो० असंखें, अज० सव्वलो० । सादासाद ० - तिरिक्ख० एइंदि० - हुंड० - तिरिक्खाणु०--थावर-- मुहुम ०--पज्ज० - अपज्ज० पत्ते ० - साधार० - थिराथिर -सुभासुभ--दूभगअणादे०- - अजस०-णीचागो० ज० ज० सव्वलो० ! सेसाणं ज० अज० लो० असंखे० । बादरपुढ० आउ०पज्ज० मणुसअपज्जत्तभंगो । वादरपुढ० - आउ० अपज्ज० पंचणा०
और यशः कीर्तिके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागप्रमाण है । मनुष्यायु, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है । सब सूक्ष्म जीवोंमें सब प्रकृतियों के जघन्य और भजघन्य अनुभाग बन्धक जीवों का सब लोक क्षेत्र है। इतनी विशेषता है कि मनुष्यायुका भंग भोधके समान है।
३४६. पृथिवीकायिक और जलकायिक जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिध्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, श्रदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, तप, उद्योत, निर्माण और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवका क्षेत्र लोकके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण है और अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, तिर्यखायु, दो गति, पाँच जाति, छह संस्थान, छह संहनन, दो श्रानुपूर्वी, दो विहायोगति, त्रसादि दस युगल और दो गोत्रके जघन्य और अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंका सब लोक क्षेत्र है । मनुष्यायुके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्र के समान है । बादर पृथिवीकायिक और बादर जलकायिक जीवों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, सात नोकषाय, श्रदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, निर्माण और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है और अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, तिर्यगत्यानुपूर्वी, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुभंग, अनादेय, अयशःकीति और नीचगोत्रके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक है। शेष प्रकृतियोंके जघन्य और अजधन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है । बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त और बादर जलकायिक पर्याप्त जीवोंमें मनुष्य
१. श्रा० प्रतौ जस० अज० इति पाठः ।
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१५०
महाबंधे अणुभागबंधाहियारे णवदंस०-मिच्छ०-सोलसक०-सत्तणोक०-अप्पसत्थ०४-उप०-पंचंत० ज० लो० असं०, अज० सव्वलो० । सादासाद-तिरि०-एइंदि०-ओरा०-तेजा०-क०-हुंड-पसत्थ०४[तिरिक्वाणु०-] अगुं०३-थावर-सुहुम-पज्ज०-अपज्ज०-पत्ते०-साधार०-थिराथिर-सुभासुभ-दूभग-अणादें-अजस-णिमि०-णीचा० ज० अज० सव्वलो० । इत्थि०-पुरिस०दोआउ०--मणुस०--चदुजा०-पंचसंठा०--ओरालि०अंगों०-छस्संघ०--मणुसाणु०--आदाउज्जो०-दोविहा०--तस-बादर-सुभग-दोसर-आर्दे०-जस०-उच्चा० ज० अज० लो० असंखे० । एवं बादरवणप्फदिका०-वादरणियोद-पज्जत्तापज्जत्त-बादरपत्तेयअपज्जत्ताणंच । तेउ० पुढविभंगो। णवरि तिरिक्ख०-तिरिक्खाणु०-णीचा० आभिणिभंगो । एवं चेव वाउका० । गवरि यम्हि लोग० असंखें० तम्हि० लोग० संखेंजो कादव्यो ।
३४७. वणप्फदि-णियोदेसु पंचणा०--णवदसणा०--मिच्छ०-सोलसक०-णवणोक०-ओरालि०अंगो०-अप्पसत्थ०४-उप०-आदाउज्जो०-पंचंत. ज. लो० असंखे, अज० सव्वलो० । सादासाद०-तिरिक्खाउ०-दोगदि-पंचजादि-ओरालि०-तेजा०-क०छस्संठा०-छस्संघ०-पसत्थव०४-दोआणु०-अगु०३-दोविहा०-तस०-थावरादिदसयुग०अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है। बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त और बादर जलकायिक अपर्याप्त जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, सात नोकषाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्र सन लोक है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, तिर्यश्चगति, एकेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशःकीर्ति, निर्माण और नीचगोत्रके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका सब लोक क्षेत्र है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद, दो आयु, मनुष्यगति, चार जाति, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह सहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, त्रस, बादर, सुभग, दो स्वर, आदेय, यशःकीर्ति और उच्चगोत्रके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार बादर वनस्पतिकायिक और बादर निगोद तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त और बादर प्रत्येक वनस्पतिकायिक अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए। अग्निकायिक जीवों में पृथिवीकायिक जीवोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि इनमें तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका भङ्ग आभिनिबोधिकज्ञानी जीवों के समान है। इसी प्रकार वायुकायिक जीवा में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि जहाँ लोकके असंख्यातवें भागामाण क्षेत्र कहा है वहाँ पर लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र कहना चाहिए।
३४७. वनस्पतिकायिक और निगोद जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, आतप, उद्योत और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, तिर्यञ्चायु, दो गति, पाँच जाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, छह संस्थान, छह
१. ता० श्रा० प्रत्योः अप्पसत्थ४ अगु३ इति पाठः ।
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फोसणपरूवणा
१५१ णिमि०-दोगो० ज० अज० सव्वलो। [मणुसाउ० ज० अज० ओघं । ] पत्तेय. बादरपुढविभंगो । कम्मइ० अणाहारए ति मूलोघं । सेसाणं णिरयादीणं याव सण्णि त्ति ज० अज० लोगस्स० असंखें।
एवं खेत्तं समत्त । ३४८. फोसणं दुविह-जह० उक्क० । उक्क० पगदं। दुवि०-श्रोघे० आदे० । ओघे० पंचणा०--णवदंस०-असादा०--मिच्छ०--सोलसक०--पंचणोक०-तिरिक्ख०-हुंड०-अप्पसत्य०४-तिरिक्खाणु०--उप-अथिरादिपंच०-णीचा०-पंचंत० उक्क० अणुभागबंधगेहि केवडि खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखें, अह-तेरह चोदसभागा वा देसूणा । अणुक्क० अणुभागबंध० के० फोसिदं० १ सव्वलोगो। सादा०-तिरिक्खाउ०-चदुजा०-तेजा-[क०-] समचदु०--पसत्थ०४-अगु०३-उज्जो०-पसत्थ०--तस०४-थिरादिछ०--णिमि०-उच्चा० उ० लो० असंखें । अणु० सव्वलो० । इत्थि०-पुरिस०--चदुसंठा०-पंचसंघ०--अप्पसत्थवि०-दुस्सर० उक्क० अणुभा० अह-बारह चोद० । अणु० सव्वलो० । हस्स-रदि संहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, दो आनुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, दो विहायोगति, बस-स्थावरादि दस युगल, निर्माण और दो गोत्रके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका सब लोक क्षेत्र है। मनुष्यायुके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्र ओषके समान है । प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीवोंका भङ्ग बादर पृथिवीकायिक जीवोंके समान है। कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंका भङ्ग मूलोधके समान है । नरकगतिसे लेकर संज्ञी तक शेष मार्गणाओंमें सब प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवो का क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है।
विशेषार्थ-यहाँ जितनी मार्गणाएँ कही हैं उन सबमें अपने अपने क्षेत्र और स्वामित्वका विचारकर अपनी अपनी प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवो का क्षेत्र ले आना चाहिए।
इस प्रकार क्षेत्र समाप्त हुआ। ३४८. स्पर्शन दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, तिर्यश्चगति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, अस्थिर आदि पाँच, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? सब लोकका स्पर्शन किया है। सातावेदनीय, तिर्यश्चायु, चार जाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण
और उच्चगोत्र के उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, चार संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त बिहायोगति और दुःस्वरके उत्कृष्ट
१. ता० प्रती एवं खेत्तं समत्तं इति पाठो नास्ति । २. ता. पा. प्रत्योः पंचसंठा० इति पाठः।
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महाधे श्रणुभागबंधाहियारे
उक्क०
०
अचों सव्वलो ० । अणु० सव्वलो० । णिरय-देवार० - आहारदुगं उक० अणु० लो० असंखें । मणुसाउ० उ० लो० xiao To l अणु० लो० असंखे० अह च सव्वलोगो वा । णिरयगदि णिरयाणु० उ० अणु० लो० असंखें • छच्चोद्द० । मणुस०-ओरालि०--ओरालि० अंगो०-- वज्जरि०-- मणुसाणु० आदाव० उ० लो० असंखें० अट्ठ चो० । अणु० सव्वलो० | देवग०-देवाणु० उ० खेत्तभंगो० । अणु० छच्चो० ० । एइंदि०१० थावर० उ० अट्ठ-णवच । अणु० सव्वलो० । वेडव्वि० - वेडव्वि०1 अंगो० उ० खेत्तभंगो। अणु० बारह चो० । सुहुम० - अप० साधार० उ० लो० असंखे० सव्वलो० | अणु० सव्वलो० । तित्थ० उ० खैतभंगो । अणु० [ लोग० ] असं खे अव चोद० ।
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अनुभाग के बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजू, क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तथा अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । हास्य और रतिके उत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सत्र लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है और अनुत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । नरकायु, देवायु और आहारकद्विकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने लोक असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । मनुष्यायुके उत्कृष्ट अनुभाग बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है और अनुत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीवोंने लोकके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण, कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और
लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। नरकगति और नरकगत्यानुपूर्वीके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और कुछ कम छह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । मनुष्यगति, श्रदारिकशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्क, वज्रर्षभनाराच संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और तपके उत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और कुछ कम आठ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तथा अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । देवगति और देवगत्यानुपूर्वीके उत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान है और अनुत्कृष्ट अनुभाग बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। एकेन्द्रियजाति और स्थावर के उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तथा अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। वैक्रियिकशरीर और वैक्रयिक याङ्गोपाङ्गके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । तथा अनुत्कृष्ट अनुभाग बन्धक जीवोंने कुछ कम बारह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण के उत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है तथा अनुत्कृष्ट अनुभाग के वन्धकं जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है और तीर्थङ्करके उत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने लोक असंख्यातवें भाग और कुछ कम आठ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
विशेषार्थ - पाँच ज्ञानावरणादिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध चारों गतिके मिध्यादृष्टि जीव उत्कृष्ट संक्लेश परिणामोंसे करते हैं। इनका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है और वैक्रियिककाययोगमें बिहारवत्स्वस्थान आदिकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और
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फोसणपरूवणा
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मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा कुछ कम तेरह बटे चौदह राजू, है । इन सब अवस्थाओंमें इन प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्भव होनेसे इस अपेक्षा उक्त प्रमाण स्पर्शन कहा है। इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन सर्व लोक है यह स्पष्ट ही है। दूसरे दण्डकमें कही गई सातावेदनीय आदिका क्षपकश्रेणिमें, तिर्यञ्चायु और चार जातिका मिथ्यादृष्टि तिर्यश्च और मनुष्यके तथा उद्योतका सातवें नरकके नारकीके उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्भव है। यतः इनका वर्तमान और अतीतकालीन स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है अतः यह उक्त प्रमाण कहा है। इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन सर्व लोक है यह स्पष्ट ही है। आगे जिन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका अतीत कालीन स्पर्शन सर्व लोक कहा है वहाँ भी उनका एकेन्द्रियादि चारों गतियों में बन्ध होता है इसलिए वह उक्त प्रमाण कहा है ऐसा समझना चाहिए। स्त्रीवेद आदिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध मिथ्यादृष्टि संज्ञी पञ्चन्द्रिय करते हैं, इसलिए वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। अतीत स्पर्शन कुछ कम
आठ बटे चौदह राजू कहनेका कारण आभिनिवोधिक ज्ञानावरणके ही समान है। कुछ कम बारह बटे चौदह राजू स्पर्शन कहनेका कारण यह है कि इन प्रकृतियोंका बन्ध उन्हीं जीवोंके होता है जो त्रससम्बन्धी प्रकृतियोंका ही बन्ध करते हैं। अतएव इनके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीव ऊपर और नीचे कुछ काम छह छह राजू क्षेत्रका ही स्पर्शन कर सकते हैं जो कुछ कम बारह बटे चौदह राजू होता है। हास्य और रतिके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवो के वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाणका और अतीत कालीन स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजूका स्पष्टीकरण पहलेके ही समान है । हास्य और रतिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध चारों गतिके संज्ञी जीव करते हुए भी ऐसे मनुष्य और तियेच भी करते है जो एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्रात कर रहे हैं, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागले बन्धक जीवोंका अतीत कालीन स्पर्शन सर्व लोक भी कहा है। श्रायुबन्ध मारणान्तिक समुद्धातके समय नहीं होता और संज्ञी पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च व मनुष्योंका शेष स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है इसलिए नरकायु आदिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके टन्धक जीवोंका स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा है। इसी प्रकार मनुष्यायुके उत्कृष्ट अनुभागबन्धके स्पर्शनका स्पष्टीकरण कर लेना चाहिए। तथा इनका अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध वैक्रियिककाययोगके समय भी सम्भव है और मारणान्तिक समुद्वातको छोड़कर विहारादिके समय इसका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू है, इसलिए इसके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू कहा है। जो मनुष्य नारकियोंमें मारणान्तिक समुद्घात कर रहे हैं उनके भी नरकगतिद्विकका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजू कहा है। इनका बन्ध असंज्ञी आदि ही करते हैं और नरकगतिके योग्य प्रकृतियोंका बम्ध होते समय ही होता है, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका भी वही स्पर्शन. कहा है। मनुष्यगति
आदिका देव और नारकी तथा प्रातपका नारकियोंके सिवा शेष तीन गतिके जीव उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करते हैं। उसमें भी मनुष्योंमें मारणान्तिक समुद्घात करनेवाले देव और नारकियोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागसे अधिक नहीं होता। इनके विहारादि शेष पदोंका स्पर्शन इतना ही है। हाँ जो देव विहारादि शेष पदोंसे युक्त हैं और इन प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध कर रहे हैं उनके कुछ कम आठ बटे चौदह राजू स्पर्शन पाया जाता है, इसलिए इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू कहा है। एकेन्द्रिय जाति और स्थावरका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध देव करते हैं और देवोंका अतीत स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौ बटे चौदह राजू है, इसलिए यह उक्त प्रमाण कहा है। वैक्रियिकद्विकका उत्कृष्ट
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ३४६. णेरइएसु साद०-पंचिं०-ओरा-तेजा-क०-समचदु०--ओरा० अंगो०वज्जरि०-पसत्थवण्ण०४-अगु०३-उज्जो०-पसत्थ०--तस०४-थिरा दिछ०-णिमि० उ० खेत्तं । अणु० छच्चोद० । दोआउ०-मणुसगदिदुग-तित्थ-उच्चा० उ० अणु० खेत्तभंगो । सेसाणं उ० अणु० छच्चो० । एवं सव्वणेरइगाणं अप्पप्पणो फोसणं णेदव्वं ।
३५०. तिरिक्खेसु पंचणा०--णवदंस० सादासाद०--मिच्छ ०-सोलसक०-पंच
rrrrrrrrrrrrrrrr
अनुभागबन्ध क्षपकोणिमें होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका वर्तमान और अतीत स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है और वैक्रियिकद्विकका बन्ध करनेवाले मनुष्य और तियश्च ऊपर व नीचे कुछ कम छह छह राजुका स्पर्शन करते हैं, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम बारह बटे चौदह राजु कहा है। सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणका देव और नारकी बन्ध नहीं करते। साथ ही एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करनेवाले मनुष्य और तियश्चोंके भी इनका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और अतीत स्पर्शन सब लोक कहा है । तीर्थङ्कर प्रकृतिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध क्षपकश्रेणिमें होता है, इसलिए इसके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका वर्तमान और अतीत स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। तथा देवोंमें भी इसका बन्ध होता है, इसलिए इसके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका वर्तमान स्पशन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत कालीन स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू कहा है। प्रथमादि नरकोंमें और मारणान्तिक समुद्घातके समय इसका बन्ध होनेसे उक्त स्पर्शनमें कोई अन्तर नहीं पड़ता ।
३४६. नारकियोंमें सातावेदनीय, पञ्चन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराचसंहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगरुलपत्रिक, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति. त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह और निर्माणके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजू है। दो आयु, मनुष्यगतिद्विक, तीर्थङ्कर और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पशन कुछ कम छह बटे चादह राजू है। इसी प्रकार सब नारकियोंके अपना अपना स्पर्शन जानना चाहिए।
विशेषार्थ-उद्योतके सिवा प्रथम दण्डकमें कही गई सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्यग्दृष्टि नारकी और उद्योतका सम्यक्त्वके अभिमुख हुआ सातवें नरकका नारकी उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और कुछ कम छह बटे चौदह राजू है यह स्पष्ट ही है। मनुष्यगतिद्विक, तीर्थङ्कर और उच्चगोत्रके बन्धक जीव मनुष्य लोकमें ही मारणान्तिक समुद्घात कर सकते हैं और दो श्रायका मारणान्तिक समुद्घातके समय वन्ध नहीं होता, इसलिए इनके उ. अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। शेष प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध मारणान्तिक समुद्घातके समय भी होता है, इसलिए उनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजू बन जाता है।
३५०. तियेंञ्चोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, असातावेदनीय, मिथ्यात्व,
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फासणपरूवणा
१५५ णोक०-पंचिं०-तेजा.-क०-समचदु०-हुंड०-पसत्थापसत्थ०४-अगु०४-दोविहा०-तस०४थिरादिछयु०-णिमि०-दोगो०-पंचंत० उ० छच्चों० । अणु० सव्वलो० । इत्थि०-पुरिस०तिण्णिआउ०-मणुसग० - तिण्णिजा० - ओरा० - चदुसंठा० - ओरालि०अंगो०-छस्संघ०. मणुसाणु०-आदाउज्जो० उ० अणु० खेत्तभंगो । हस्स-रदि-तिरिक्ख०-एइंदि०-तिरिक्खाणु'०-थावरादि०४ उ० लो० असं० सव्वलो० । अणुक्क० सव्वलो० । मणुसाउ० उ० खेतं । अणु० लो० असंखें. सव्वलोगो वा। णिरयगदि०- -देवगदि०-] दोआणु० उ० अणु० छच्चों । वेउन्वि०-वेउव्वि०अंगो० उ० छच्चों । अणु० बारसः । सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, पञ्चन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, हुण्डसंस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, दो विहायोगति, वसचतुष्क, स्थिर आदि छह युगल, निर्माण, दो गोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, तीन आयु, मनुष्यगति, तीन जाति, औदारिकशरीर, चार संस्थान, औदारिक अाङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, आतप और उद्योतक रत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। हास्य, रति, तिर्यश्चगति, एकेन्द्रियजाति, तियश्चगत्यानुपूर्वी और स्थावर आदि चारके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका और सब लोकका स्पर्शन किया है तथा अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। मनुष्यायुके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है तथा अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। नरकगति, देवगति और दो आनुपूर्वी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। क्रियिकशरीर और वैक्रियिक आङ्गोपाङ्गके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने 'कुछ कम छह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम बारह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
विशेषार्थ-प्रथमदण्डकमें कही गई प्रकृतियोंमेंसे पाँच ज्ञानावरणादिका संज्ञी पञ्चन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीव और सातावेदनीय आदिका संयतासंपत उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करते हैं, इस लिए इनके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजू कहा है। मात्र मिथ्यादृष्टियोंका मारणान्तिक समुद्घात् द्वारा नीचे छह राजू स्पर्शन कराके यह स्पर्शन लाना चाहिए । इनका बन्ध एकेन्द्रिय आदि सब जीव करते हैं, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका सब लोक स्पर्शन कहा है। स्त्रीवेद आदि सब प्रकृतियाँ त्रस और मनुष्यों सम्बन्धी हैं, इसलिए इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान प्राप्त होनेसे वह उक्तप्रमाण कहा है । हास्य और रति आदि प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करनेवालेके भी होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवों का वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन सब लोक कहा है। इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन सब लोक है यह स्पष्ट हो है। मनुष्यायुका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध संज्ञी पञ्चन्द्रिय ही करते हैं, इसलिए इसके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है और मनुष्यायुका एकेन्द्रिय आदि सब जीव बन्ध करते हैं, इसलिए
१. ता० प्रतौ तिरिक्ख० एइंदितिरिक्ख• तिरिक्खाणु०, प्रा. प्रतौ तिरिक्ख० तिरिक्खाणु इति पाठः।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ३५१. पंचिंदिय०तिरिक्ख०३ पंचणा०---णवदंस०-सादासाद०---मिच्छ... सोलसक०-पंचणोक०-तेजा०-क०-हुंडसंठा--पसत्थापसत्थ०४-अगु०४-पज्जत्त-'पत्तेथिराथिर-सुभासुभ-दूभग-अणादें--अजस०--णिमि०-णीचा०-पंचंत० उ० छ० । अणु० लो० असं० सव्वलो० । इत्थि० उ० खेत्तभंगो । अणु० दिवडचौँ । पुरिस० उ. खेत । अणु० छच्चो' । हस्स-रदि-तिरि० एइंदि०-तिरिक्वाणु०-थावरादि०४ उ० अणु० लो० असं० सव्वलो० । चदुआउ०-मणुसग०-तिण्णिजादि-चदुसंठा-ओरालि०अंगो०-छस्संघ०-मणुसाणु०-आदाव० उ० अणु० खेत्तभंगो । दोगदि-समचदु०-दोआणु०दोविहा०-सुभग-दोसर-आदे०-उच्चा० उ० अणु० छ०।पंचिं०-वेव्वि०-वेउन्वि०अंगो०तस० उ० छ । अणु० बारस। ओरालि० उ० खेत० । अणु० लो० असं० सव्वलो० । इसके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोक कहा है । जो नारकियोंमें मारणान्तिक समुद्घात कर रहे हैं, उनके नरकगतिद्विकका और जो देवोंमें मारणान्तिक समुद्घात कर रहे हैं, उनके देवगतिद्विकका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागवन्ध सम्भव है, इसलिए इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका कुछ कम छहबटे चौदह राजु स्पर्शन कहा है। वैक्रियिकद्विकका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध संयतासंयतके होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम छहबटे चौदह राजू प्रमाण कहा है। तथा इनके अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीव मारणान्तिक समुद्घातके समय नीचे और ऊपर कुछ कम छह राजूका स्पर्शन करते हैं, इसलिए यह कुछ कम बारह राजू कहा है।
३५१. पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयश-कीर्ति, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम छहबटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्रीवेदके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम डेढ़बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है । पुरुषवेदके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम छहबटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। हास्य, रति, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी और स्थावर आदि चारके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। चार आयु, मनुष्यगति, तीन जाति, चार संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और आतपके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। दो गति, समचतुरस्त्रसंस्थान, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति, सुभग, दो स्वर, श्रादेय और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पञ्चन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिक प्राङ्गोपाङ्ग और उसके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है और अनुत्कृष्ट.अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम बारह बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है। औदारिकशरीरके उत्कृष्ट
१. प्रा० प्रती अगु० पजस इति पाठः । २. श्रा० प्रतौ सव्वलो० । उज्जो० उ० खेत्त०, अणु छच्चो० इति पाठः।
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फोसणपरूवणा
१५७ उज्जो० उ० खेत्तः । अणु० लो० असंखें सत्तचों । बादर० उ० छच्चों । अणु० तेरह० । जस० उ० छ । अणु० सत्तचों । अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। उद्योतके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और कुछ कम सात बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। बादर प्रकृतिके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम तेरह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। यशस्कीर्तिके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम सात बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
विशेषार्थ-पाँच ज्ञानावरणादिके स्पर्शनका स्पष्टीकरण जिस प्रकार सामान्य तियश्चोंके कर आये हैं, उसी प्रकार यहाँ भी कर लेना चाहिए । मात्र इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका सर्व लोक प्रमाण स्पर्शन एकेन्द्रियों में समुद्घात कराके लाना चाहिए। स्त्रीवेद और पुरुषवेद तियवादि तीन गति सम्बन्धी प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। तथा इन प्रकृतियोंका बन्ध करनेवाले जीवोंका मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा कुछ कम डेढ़ राजू और कुछ कम छह राजू स्पर्शन देखा जाता है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा है । यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि यद्यपि मारणान्तिक समुद्घातके समय भी इनका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध होता है, पर देवोंमें मारणान्तिक समुद्घात करते समय यह नहीं होता, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्पर्शन इस अपेक्षासे नहीं कहा है। हास्य और रति आदिका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करते समय भी होता है, इसलिए इनका दोनों प्रकारका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोक कहा है। चार आयुओंका मारणान्तिक समुद्घातके समय बन्ध नहीं होता, और शेष प्रकृतियाँ मनुष्यों और स तिर्यश्चों सम्बन्धी हैं। एक प्रातप इसकी अपवाद है सो वह भी बादर पृथिवीकाय सम्बन्धी होकर भी प्रशस्त प्रकृति है, अतः इनका दोनों प्रकारका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। देवोंमें और नारकियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करने वाले तिर्यञ्चोंका स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजू होता है, इसलिए दो गति आदिके उत्कृष्ट
और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा है, क्योंकि यथायोग्य ऐसे समयमें इन प्रकृतियोंका दोनों प्रकारका बन्ध सम्भव है। जो संयतासंयत तिर्यश्च देवों में मारणान्तिक समुद्घात कर रहे हैं, उनके पश्चन्द्रियजाति आदिका उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध सम्भव है और जो देवों और नारकियों में मारणान्तिक समुद्घात कर रहे हैं। उनके इनका अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका कुछ कम छह बटे चौदह राजू और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका कुछ कम बारह बटे चौदह राजू प्रमाण स्पर्शन कहा है। औदारिकशरीरका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध संज्ञी पश्चोद्रिय तिर्यश्च करते हैं और ये एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्घात नहीं करते, इसलिए इसके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। तथा इसका अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध उन जीवोंके भी होता है जो एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्वात करते हैं, इसलिए इसके अनुत्कृष्ट अनुभागके भन्धक जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोक कहा है। उद्योतका
३. ता० प्रती छचोद अगु० जस० उ० खेतं तेरह जस० उ० छ०, श्रा० प्रती छचो० अणु० तेह । जस०छ० इति पाठः।
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महाधे अणुभागबंधाहियारे
३५२. पंचि०तिरि० अप० पंचणा०-- णवदंस ० -- असादा० - मिच्छ०- - सोलसक०सत्तणोक० - तिरि० - एइंदि ० - हुंड० - अप्पसत्थ०४ - तिरिक्खाणु ० -उप ० - थावरादि० ०४-३ - अथिरादिपंच० णीचा ० - पंचंत० उक्क० अणु० लो० असंखें० सव्वलो० । सादा०-ओरा०तेजा ० क०-पसत्यापसत्थ ०४ - अगु०३ - पज्जत्त - पत्ते ०-थिर - सुभ- णिमि० उ० र्खेत्तं० । अणु० लो० असं० सव्वलो० । उज्जो०- बादर० - जस० उ० खेत्तं ० । अणु० सत्तचों६० । सेसाणं उ० अणु० खेत्तभंगो । एवं सव्वअपज्ज० - सव्वविगलिंदि ० -- बादर पुढ०-आउ०तेज ० ० वाउ ० -- बादरवणप्फदिपत्ते ० ०पज्ज० । णवरि बादरवाज० पज्जत्त० जम्हि लोग० असं० तम्हि लोग० संखे० कादव्वा । णवरि आउ० वट्टमाणखैत्तं ० ।
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उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सर्वविशुद्ध तिर्यख के होता है, इसलिए इसके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। तथा प्रकृतिबन्धमें इसके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम सात बटे चौदह राजू कहा है, वह ही यहाँ अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंके बन जाता है। बादर यशका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध संयतासंयत के होता है, अतः इन दोनोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजू कहा है तथा इनके बन्धक जीवोंका स्पर्शन प्रकृतिबन्ध में क्रमशः कुछ कम तेरह राजू व सात राजू कहा है, वह ही यहाँ अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धक जीवों का स्पर्शन बतलाया है ।
३५२. पच ेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, सात नोकषाय, तिर्यगति, एकेन्द्रियजाति, हुण्ड संस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, स्थावर आदि चार, अस्थिर आदि पाँच, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सातावेदनीय, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ और निर्माणके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। उद्योत, बादर और यशःकीतिके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है और अनुत्कृष्ट अनुभाग बन्धक जीवोंने कुछ कम सात बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । शेष प्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इसी प्रकार सब अपर्याप्त, सब विकलेन्द्रिय, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिकपर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिकपर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए | इतनी विशेषता है कि वादर वायुकायिक पर्याप्त जीवों में जहाँ लोकका असंख्यातवाँ भागप्रमाण स्पर्शन कहा है, वहाँ लोकका संख्यातवाँ भागप्रमाण स्पर्शन कहना चाहिए | इतनी विशेषता है कि आयु का स्पर्शन वर्तमान क्षेत्रके समान है ।
विशेषार्थ - प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभागबन्ध मारणान्तिक समुघातके समय भी सम्भव है, इसलिए इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीवों का स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोक कहा है। उद्योत, बादर और यशस्कीर्ति प्रशस्त प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनका मारणान्तिक समुद्यात के समय उत्कृष्ट अनुभागबन्ध नहीं होता । यही कारण है कि इनके उत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है ।
१. श्रा० प्रतौ तिरिक्खाणु० थावरादि४ इति पाठः ।
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फोसणपरूवणा
१५६ ३५३. मणुस०३ पंचणा०-णवदंस०-दोवेदणी-मिच्छ०-सोलसक०-पंचणोक०ओरा०-तेजा-क०-हुंड०-पसत्यापसत्थ०४-अगु०४-पज्ज०-पत्ते-थिराथिर-सुभासुभदुभग-अणादें अजस०-णिमि०-णीचा०-पंचंत० उ० खेत्त० । अणु'० लो० असं० सव्वलो । हस्स-रदि-तिरिक्व०-एइंदि०-तिरिक्वाणु०-थावरादि०४ उ० अणु० लो. असं० सव्वलो। उज्जो०-बादर-जस० उ० खेत्तं० । अणु० सत्त चौ. । सेसाणं उ० अणु० खेतभं०।
३५४. देवेसु पंचणा०-णवदंस०-असादा०-मिच्छ०-सोलसक०-सत्तणोक०तिरिक्व०--एइंदि०--हुंड ०--अप्पसत्थ०४-तिरिक्वाणु०--उप०--थावर--अथिरादिपंच०
३५३. मनुष्यत्रिकमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, दो वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, औदारिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्ड संस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयश कीर्ति, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवों का स्पर्शन क्षेत्र के समान है। अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण
और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । हास्य, रति, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और स्थावर आदि चारके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । उद्योत, बादर और यशःकीर्तिके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम सात बटे चौदह राजू प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । शेष प्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है।
विशेषार्थ-मनुष्यत्रिक उत्कृष्ट संक्लेश परिणामोंके समय एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात नहीं करते, अन्यत्र यह स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है, इसलिए प्रथम दण्डकमें कही गई अप्रशस्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। सातावेदनीय आदि प्रशस्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन उक्त प्रमाण है,यह स्पष्ट ही है। तथा इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है; क्योंकि मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा मनुष्योंका उक्त प्रमाण स्पर्शन उपलब्ध होता है। जो मनुष्य एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करते हैं, उनके भी हास्यादि प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्भव है, अतः इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और सब लोक कहा है। उद्योत आदि तीन प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है,यह स्पष्ट ही है। मारणान्तिक समुद्घातके समय इनका ऐसे मनुष्य भी बन्ध करते हैं जो एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होते हैं, पर ये एकेन्द्रिय जीव ऊपर सात राजूके भीतरके होने चाहिए, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम सात बटे चौदह राजू कहा है। शेष जितनी प्रकृतियाँ बचती हैं वे सब त्रससम्बन्धी हैं, इसलिए उनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है ।
३५४. देवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, सात नोकषाय, तिर्यश्चगति, एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी,
१. प्रा० प्रती खेत० अणु० खेत्तभंगो अणु० इति पाटः।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे णीचा०-पंचंत० उ० अणु० लो० असंखें. अह-णव० । सादा-ओरा-तेजा-क०पसत्थ०४-अगु०३-उज्जो०-बादर-पज्जत्त-पत्ते-थिर-सुभ--जस-णिमि० उ. अहः । अणुक्क० अह-णव० । इत्थि०-पुरिस०-दोआउ०-मणुस-पंचिं०-पंचसंठा-ओरालि०अंगो०-छस्संघ०-मणुसाणु०-आदो०-दोविहा०-तस०-सुभग-दोसर-आदें-तित्थ०-उच्चा० उ० अणु० अहचौँ । एवं सव्वदेवाणं अप्पप्पणो फोसणं कादव्वं ।
३५५. एइंदिएसु पंचणा०-णवदंस०-असादा०-मिच्छ०-सोलसक०-सत्तणोक०तिरिक्ख०--एइंदि०-हुंड०--अप्पसत्य०४-तिरिक्खाणु०-उप०-थावरादि०४-अथिरादिपंच०-णीचा०-पंचंत० उ० अणु० सव्वलो० । तिरिक्खाउ० ओघं । मणुसाउं० तिरि
mmmmmmmmmmmm
उपघात, स्थावर, अस्थिर आदि पाँच, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, कुछ कम आठ बटे चौदह राजु और कुछ कम नौ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सातावेदनीय, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, उद्योत, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, यशःकीर्ति और निर्माणके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है तथा अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, दो आयु, मनुष्यगति, पश्चद्रियजाति, पाँच संस्थान, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, आतप, दो विहायोगति, त्रस, सुभग, दो स्वर, आदेय, तीर्थङ्कर और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार सब देवोंके अपना-अपना स्पर्शन करना चाहिए ।
विशेषार्थ-जो देव एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करते हैं,उनके भी पाच ज्ञानावरणादिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिए यहाँ इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और कुछ कम आठ व नौ बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। सातावेदनीय आदिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्यग्दृष्टि देव करते हैं, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू कहा है और इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौ बटे चौदह राजू कहनेका कारण स्पष्ट ही है, क्योंकि देवोंके इससे अधिक स्पर्शन नहीं उपलब्ध होता। स्त्रीवेद आदि कुछ त्रससम्बन्धी प्रकृतियाँ हैं। इनमें से कुछका सम्यग्दृष्टि देव बन्ध करते हैं, आयुका मारणान्तिक समुद्घातके समय बन्ध नहीं होता और एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करनेवालेके आतपका बन्ध नहीं होता, इसलिए इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। इन विशेषताओंके साथ सब देवोंके अपना-अपना स्पर्शन ले आना चाहिए।
३५५. एकेन्द्रियों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कपाय, सात नोकपाय, तिर्यश्चगति, एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, स्थावर आदि चार, अस्थिर आदि पाँच, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तिर्यश्चायुका
१. श्रा. प्रतौ छस्संघ० श्रादा० इति पाठः । २. तर० श्रा० प्रत्योः मणुसाणु० ति पाठः ।
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फोसणपरूवणा
१६१ क्खोघं । मणुस०-मणुसाणु०--उच्चा० उ० अणु० खेत्त० । सेसाणं उ० लो० संखेंज०, अणु० सव्वलो।
___३५६. बादरपज्जत्तापज. पंचणाणावरणादिथावरदंडओ एइंदियभंगो। एवं [अ] साददंडओ वि । दोआउ०-मणुस०३ उ. अणु० खेत० । गवरि तिरिक्खाउ० उ० अतीतं लोग० संखें। उज्जो०-बादर०-जस० उ० खेत०, अणु० लो० संखें सत्तचोद। सेसाणं तसपगदीणं उ० अणु० लो० संखें । सादादीणं उ० लो. संखेंज०, अणु० सव्वलो०। भङ्ग ओघके समान है। मनुष्यायुका भङ्ग सामान्य तिर्यश्चोंके समान है। मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
विशेषार्थ–एकेन्द्रिय सब लोकमें हैं, इसलिए पाँच ज्ञानावरणादिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन सब लोक प्रमाण कहा है। तिर्यश्चायुका भङ्ग ओघके समान है और मनुष्यायुका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है,यह स्पष्ट ही है। मनुष्यगतिद्विक और उच्चगोत्रका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध बादर पृथिवीकायिकपर्याप्त प्रादि जीव करते हैं, इसलिए इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। शेष प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध यथायोग्य बादर वायुकायिक पर्याप्त जीव भी करते हैं, अतः उनके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन लोकके संख्यातवें भागप्रमाण और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन सब लोक कहा है।
३५६. बादर एकेन्द्रिय तथा उनके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंमें पाँच ज्ञानावरणादि स्थावर दण्डकका भङ्ग एकेन्द्रियों के समान है। इसी प्रकार असातावेदनीयदण्डकका भङ्ग भी जानना चाहिए। दो आयु और मनुष्यगतित्रिकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका भङ्ग क्षेत्रके समान है। इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्चायुके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका अतीत कालीन स्पर्शन लोकके संख्यातवें भागप्रमाण है। उद्योत, बादर और यशाकार्तिके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। तथा अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके संख्यातवें भागप्रमाण और कुछ कम सात बटे चौदह राजू प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष त्रस प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सातावेदनीय आदिके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
विशेषार्थ-आयुकर्मका बन्ध मारणान्तिक समुद्घातके समय नहीं होता और बादर एकेन्द्रिय तथा उनके भेदोंका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए इनके तिर्यश्चायुके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका अतीत कालीन स्पर्शन लोकके संख्यातवें भागप्रमाण कहा है । उद्योत आदिका अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध मारणान्तिक समुद्घातके समय भी सम्भव है, पर ऐसे जीव ऊपर सात राजूके भीतर ही मारणान्तिक समुद्घात करते हैं, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके संख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन कुछ कम सात बटे चौदह राजू प्रमाण कहा है। शेष त्रस प्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन लोकके संख्यातवें भागप्रमाण है, यह स्पष्ट ही है। क्योंकि जो एकेन्द्रियों में मारणान्तिक
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महापंधे अणुभागबंधाहियारे ३५७. सव्वसहुमाणं मणुसाउ० उ० अणु'० लो० असं० सन्चलो । तिरिक्खाउ० उ० लो० असंखें सव्वलो०, अणुक० सव्वलो । सेसाणं उ० अणु० सव्वलो०।
३५८. पंचिंदि०२ पंचणा०-णवदंस० [ असादा०-] मिच्छ०-सोलसक०-पंचणोक०-तिरि०-हुंड०-अप्पसत्य०४-तिरिक्खाणु०-उप०--अथिरादिपंच-णीचा०-पंचंत. उ. अह-तेरह०, अणु० अह चॉ० सव्वलो० । सादा-तेजा०-क०-पसत्य०४अगु०३-पज्जा-पचे०-थिर-सुभ-णिमि. उक्क० खेत०, अणु० अह चॉ. सव्वलो। इत्यि०-पुरिस०-चदुसंठा-पंचसंघ०-अप्पसत्य०-दुस्सर० उक्क० अणु० अह-पारह० । समुद्घात करते हैं, उनके इन प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता। सातावेदनीय आदिका मारणान्तिक समुद्घातके समय भी अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन लोकके संख्यातवें भागप्रमाण और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन सब लोक कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है।
३५७. सब सूक्ष्म जीवोंमें मनुष्यायुके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकका स्पर्शन किया है । तियञ्चायुके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकका स्पर्शन किया है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
विशेषार्थ-सूक्ष्म जीवोंका सब लोक आवास है, इसलिए दो आयुओंके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंके स्पर्शनको छोड़कर शेष सब स्पर्शन सर्वलोक है,यह स्पष्ट ही है। रहीं दो आयु सो इनका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामों से होता है, और ऐसे परिणाम बहुत ही कम जीवों के होते हैं, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवों का वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन सब लोक कहा है। तथा मनुष्यायुका बन्ध करनेवाले जीव थोड़े ही होते हैं, क्योंकि मनुष्यों का प्रमाण भी स्वल्प है, अतः इसके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवों का वर्तमान स्पर्शन भी लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन सब लोक कहा है । परन्तु तिर्यश्वायुका बन्ध करनेवाले अनन्त जीव होते हैं और ये वर्तमानमें भी सब लोकमें पाये जाते हैं, इसलिए इसके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवों का दोनों प्रकारका स्पर्शन सब लोक कहा है।
३५८. पञ्चन्द्रियद्विकमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, तिर्यश्चगति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी, उपघात, अस्थिर आदि पाँच नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठबटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सातावेदनीय, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ और निर्माणके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोक है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, चार संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायो
१. श्रा० प्रतौ मणुसाउ० अणु० इति पाठः।
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फोसणपरूषणा
१६३ हस्स-रदि उ० अणु० अट्ट चो० सव्वलो० । दोआउ०-तिण्णिजा०-आहारदु० उ० अणु० खेत्त । दोआउ०-तित्थ० उ० खेत्त०, [ अणु० ] अह चो० । णिरय० णिरयाणु० उ० अणु० छच्चो० । मणुस०--मणुसाणु०--आदाव० --उच्चा० [उ० ] अणु' अह० । देवग०--देवाणु० ओघं । एइंदि०--थावर० उ० अह-णव०, अणु० अह० सव्वलो०। पंचिंदि०-समचदु०-पसत्यवि०-तस०-सुभग-सुस्सर-आदे० उ० खेत्त०, अणु० अह-बारह० । ओरा० उ० अह, अणु० अह. सव्वलो० । वेउव्वि०-वेउन्धिःअंगो० ओघं । ओरालि अंगो०-बजरि० उ० अह०, अणु० अह--बारह० । उज्जो०बादर०-जस० उ० खेत०, अणु० अह-तेरह० । सुहुम-अपज्जत्त-साधार० उ० अणु० लो० असंखेजदि० सव्वलो०। एवं पंचिंदियभंगो तस०--तसपज्जत्त०--पंचमण-- पंचवचि०-चक्खु०-सण्णि ति । गति और दुःस्वरके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। हास्य और रतिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो आयु, तीन जाति और आहारकद्विकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान है। दो आयु और तीर्थङ्करके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। नरकगति और नरकगत्यानुपूर्वी के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, श्रातप और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । देवगति और देवगत्यानुपूर्वी का भङ्ग ओघके समान है। एकेन्द्रियजाति और स्थावरके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजु
और कुछ कम नौ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पञ्चन्द्रियजाति, समचतुरनसंस्थान, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, सुभग, सुस्वर और आदेयके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ घटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। औदारिकशरीरके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकाङ्गोपाङ्गका भङ्ग ओवके समान है। औदारिक आङ्गोपाङ्ग और वर्षभनाराचसंहननके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम पाठ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। उद्योत, बादर और यश कीर्तिके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोका स्पर्शन क्षेत्रके समान है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आट बटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवो ने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इसी प्रकार पञ्चन्द्रिय जीवों के समान त्रस, त्रसपर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचन
१. ता. श्रा• प्रत्योः पादाउजो० अणु० इति पाठः।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे
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योगी, चक्षुदर्शनी और संज्ञी जीवो के जानना चाहिए ।
विशेषार्थ-पाँच ज्ञानावरणादिके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन जिस प्रकार ओघमें स्पष्ट कर आये हैं उसी प्रकार यहाँ भी कर लेना चाहिए। तथा पञ्चन्द्रियद्विकका वेदनादि की अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और मारणान्तिककी अपेक्षा सर्वलोक स्पर्शन है, इसलिए इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका उक्त प्रमाण स्पर्शन कहा है । इसी प्रकार सातावेदनीय आदिके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन घटित कर लेना चाहिए। मात्र यहाँ सर्व लोकप्रमाण स्पर्शन उपपादपदकी अपेक्षा कहना चाहिए । स्त्रीवेद आदिके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका ओघसे जैसा स्पष्टीकरण किया है, उसी प्रकार यहाँ पर उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंकी अपेक्षा कर लेना चाहिए । जो एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करते हैं उनके भी हास्यद्विकका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सर्व लोकप्रमाण कहा है । तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु और तीर्थङ्कर प्रकृतिके अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध देवोंके कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन करते समय भी सम्भव है, इसलिए यहाँ इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम अाठ बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। जो नीचे नारकियोंमें मारणान्तिक समुद्घात कर रहे हैं उनके भी नरकगतिद्विकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध सम्भव है, इसलिए इनके दोनों प्रकारके अनुभागके बन्धक जीवों का स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा है। देवोंके बिहारादिके समय मनुष्यगति आदिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध भी सम्भव है इसलिए इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवांका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौहह राजूप्रमाण कहा है । जो देव ऊपर बसनालीके भीतर एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्घात करते हैं उनके भी एकेन्द्रियजाति और स्थावरका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवांका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौ पटे चौदह राजु कहा है। तथा सब एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करनेवाले जीवों के भी इनका बन्ध सम्भव है, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवांका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजु और सब लोक कहा है। देवोंके विहारादिके समय और नीचे व ऊपर कुछ कम छह छह राजु प्रमाण क्षेत्रके भीतर समचतुरस्त्र आदिका बन्ध सम्भव है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवांका कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजू प्रमाण स्पर्शन कहा है । विहारादिके समय देवोंके औदारिक शरीरका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिए इसके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोका कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण स्पर्शन कहा है। तथा इसका सब एकेन्द्रियोंमें समुद्घात करनेवाले जीव भी बन्ध करते हैं, अत: इसके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवांका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोकप्रमाण कहा है। विहारादिके समय देवोंके औदारिक आङ्गोपाङ्ग और वर्षभनाराच संहननका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवांका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। तथा इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पष्टीकरण स्त्रीवेदके समान कर लेना चाहिए। उद्योत आदिका देवोंके विहारादिके समय और ऊपर सात राजु व नीचे छह राजूके भीतर अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजू. प्रमाण कहा है। पञ्चन्द्रियद्विकका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है और मारणान्तिक समुद्घात की अपेक्षा सब लोक प्रमाण स्पर्शन सम्भव है तथा ऐसी अवस्थामें सूक्ष्मादि प्रकृतियोंका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागन्ध हो सकता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका लोकके असरवातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण स्पर्शन कहा है।
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फोसणपरूवणा
१६५ ३५६. पुढ०-आउ० पंचणा०-णवदंस-असादा०-मिच्छ०-सोलसक०-सत्तणोक०तिरि०-एइंदि०-हुंडसंठा०--अप्पसत्थ०४-तिरिक्खाणु०-उप०-थावरादि०४-अथिरादिपंच०-णीचा०-पंचंत० उ० लो० असं० सव्वलो०, अणु० सव्वलो० । सेसाणं उ० लो. असं०, अणु० सव्वलो० । णवरि मणुसाउ० तिरिक्खोघं ।।
३६०. बादरपुढ०--आउ० पंचणाणावरणादीणं थावरपगदीणं पुढविभंगों'। सादा०-ओरा०--तेजा-क०-पसत्थ०४-अगु०३-पज्जत्त-पत्ते०-थिर- सुभ-णिमि० उ० खेत्त०, अणु० सव्वलो० । उज्जो०-बादर०-जस० उ० खेत०, अणु० सत्त चौद्द० । सेसाणं उ० अणु० खेत्तभंगो । आगे त्रस आदि जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं,उनमें पश्चन्द्रियोंकी ही प्रधानता है, अतएव उनकी प्ररूपणा पश्चन्द्रियद्विकके समान जाननेकी सूचना की है।
३६. पृथिवीकायिक और जलकायिक जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, सात नोकषाय, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, स्थावर आदि चार, अस्थिर आदि पाँच, नीचगोत्र
और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि मनुष्यायुका भङ्ग सामान्य तिर्यश्वोंके समान है।
विशेषार्थ-यहाँ पाँच ज्ञानावरणादिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध बादर पर्याप्त जीव करते हैं, किन्तु इनका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा सर्व लोक है । इन दोनों अवस्थाओंमें पाँच ज्ञानावरणादि का उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिए इस अपेक्षासे लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण स्पर्शन कहा है। तथा इनका अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध सर्वत्र सम्भव है, क्योंकि पृथिवीकायिक और जलकायिक जीव सर्वत्र उपलब्ध होते हैं, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका सब लोकप्रमाण स्पर्शन कहा है। शेष प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध एक तो मारणान्तिक समुद्घातके समय नहीं होता, जिनका होता भी है वे द्वीन्द्रियादि तिर्यञ्च और मनुष्य सम्बन्धी प्रकृतियाँ हैं इसलिए यहाँ इनके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। तथा इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन सब लोकप्रमाण है, यह स्पष्ट ही है । यहाँ मनुष्यायु का भङ्ग सामान्य तियश्चोंके समान कहनेका कारण यह है कि इसके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागसे अधिक नहीं प्राप्त होता । सामान्य तिर्यञ्चोंके यह इतना ही बतलाया है।
३६०. बादर पृथिवीकायिक और बादर जल कायिक जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण आदि और स्थावर प्रकृतियों का भङ्ग पृथिवीकायिक जीवोंके समान है । सातावेदनीय, औदारिकशरीर, तेजस शरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ और निर्माणके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है तथा अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने सर्वलोकका स्पर्शन किया है। उद्योत, बादर और यश-कीर्ति के उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीबोंका
१. ता० प्रतौ णाणावरणादोणं पुढविभंगो इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ३६१. बादरपुढ०-आउ० अपज्जत्तएमु पंचणा०-णवदंस०-असादा०--मिच्छ०सोलसक०-सत्तणोक०-तिरि०- एइंदि०-हुंड०संठा०--अप्पस०४-तिरिक्वाणु०-उप०थावरादि०४-अथिरादिपंच०-णीचा०-पंचंत० उ० अणु० सव्वलो० । सादा०-ओरा०तेजा०-क०--पसत्थव०४--अगु०३--पज्जत्त-पत्ते-थिर- सुभ--णिमि० उ० खेत्त०, अणु० सव्वलो० । उज्जो०-बादर०-जस० उ० खेत्त०, अणु० सत्त चौँ । सेसाणं उ. अणु० खेतभंगो। एवं बादरवणप्फदि-पज्जत्तापज्जत्त-बादरणियोदपज्जत्तापज्जत-बादरपत्ते अपज्जत्तगाणं च । तेउ० पुढवि भंगो । वाऊणं पि तं चेव । णवरि जम्हि लोगों असंखें तम्हि लोग० संखेंज कादव्वं । वणप्फदि-णियोद० णाणावरणादीणं थावरपगदीणं उ. अणु० सव्वलो० । सेसाणं उ० खेत०, अणु० सव्वलो० । मणुसाउ० एइंदियभंगो। स्पर्शन क्षेत्रके समान तथा अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम सात बटे चौदह राजु है। शेष प्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है।
३६१. बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त और बादर जलकायिक अपर्याप्त जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, सात नोकषाय, तिर्यश्चगति, एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, स्थावर आदि चार, अस्थिर आदि पाँच, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सातावेदनीय, औदारिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ और निर्माणके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। उद्योत, बादर और यशस्कीर्तिके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम सात बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इसी प्रकार बादर वनस्पतिकायिक और उनके पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर निगोद और उनके पर्याप्त और अपर्याप्त तथा बादर प्रत्येक वनस्पतिकायिक
र्याप्त जीवोंके जानना चाहिए। अग्निकायिक जीवोंका भङ प्रथिवीकायिक जीवोंके समान है। वायुकायिक जीवोंका भी इसी प्रकार भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि जहाँ पर लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है, वहाँ पर लोकके संख्यातवें भागप्रमाण करना चाहिए। वनस्पतिकायिक और निगोद जीवोंमें ज्ञानावरणादि स्थावर प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तथा शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । मात्र मनुष्यायुका भङ्ग एकेन्द्रियोंके समान है।
विशेषार्थ-पहले एकेन्द्रिय, पृथिवीकायिक और जलकायिक जीवोंमें स्पर्शनका स्पष्टीकरण किया है। उसे देखकर यहाँ भी उसे घटित कर लेना चाहिए। मात्र यहाँ पाँच ज्ञानावरणादिके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन एक मात्र सर्व लोक कहा है सो वर्तमान स्पर्शनकी अविवक्षासे ही ऐसा कहा है, इतना यहाँ विशेष जानना चाहिए। तथा इन जीवोंमें उद्योत, बादर और यशस्कीर्तिका बन्ध करनेवाले जीव त्रसनालीके भीतर ऊपर सात राजू तक ही मारणान्तिक
१. ता. प्रतौ णाणावरणादीणं उ० इति पाठः।
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फोसणपरूवणा
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३६२. कायजोगि० - कोधादि ०४ - अचक्खु ० - भवसि ० - आहारए ति ओघभंगो । ओरालि० खइगाणं उ० मणुसभंगो ० सेसाणं च उ० अणु० तिरिक्खोघं । ओरालियमि० पंचणा ० - णवदंसणा ० असादा०-मिच्छ० - सोलसक० - सत्तणोक० - एइंदि०हुंड० -- अप्पसत्य०४ - तिरिक्खाणु०[०-- उप० - थावरादि४ - अथिरादिपंच०-- णीचा ० - पंचंत० उ० लो० असंखें० सव्वलो०, अणु० सव्वलो० । सेसाणं' उ० खेत ०, अणु० सव्वलो ० । मणुसाउ० तिरिक्खोघं ।
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३६३. वेडव्वि० पंचणा०-णवदंस० असादा०-मिच्छ०- सोलसक० - सत्तणोक ०तिरि० - हुंडे ० - अप्पसत्थ०४ - तिरिक्खाणु० -उप ० -अथिरादिपंच० - णीचा ० - पंचंत० उ० अणु ० अह-तेरह ० | सादा०-- रा० - तेजा ० क ० - पसत्थ०४ - अगु०३ - बादर - पज्जत - पत्ते ० थिरादितिण्णि - णिमि० उ० अट्ठचों०, अणु० अट्ठ-तेरह ० । इत्थि० - पुरिस० - चदुसंठा ० समुद्घात करते हैं, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम सात बढे चौदह राजू प्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है ।
३६२. काययोगी, क्रोधादि चार कषायवाले, अचतुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवों में ओघ के समान भङ्ग है । औदारिककाययोगी जीवों में क्षायिक प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका भङ्ग मनुष्यों के समान है । अनुत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक और शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग बन्धक जीवोंका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चों के समान है । औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, सात नोकषाय, एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, स्थावर आदि चार, अस्थिर आदि पाँच, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अनुत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीवने सब लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभाग बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। मनुष्यायुका भङ्ग सामान्य तिर्यखों के समान है ।
विशेषार्थ - पाँच ज्ञानावरणादिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध संज्ञी पचेन्द्रिय तिर्यञ्च और मनुष्य करते हैं, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है और ये जीव सब लोकमें मारणान्तिक समुद्घात करते हुए पाये जाते हैं, इसलिए यह स्पर्शन सर्व लोक प्रमाण कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है ।
३६३. वैक्रियिककाययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, सात नोकषाय, तिर्यञ्चगति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यगत्यानुपूर्वी, उपघात, अस्थिर आदि पाँच, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सातावेदनीय, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर आदि तीन और निर्माणके उत्कृष्ट अनुभाग बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे १. श्रा० प्रतौ लो० श्रसंखे० सव्वलो० सेसाणं इति पाठः । २. ता० श्रा० प्रत्योः तिरि० एइंदि० हुंड० इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे पंचसंघ०--अप्पसत्थ०--दुस्सर० उ० अणु० अह-बारह० । दोआउ०--मणुस०३आदा०-तित्थ० उ० अणु० अह । एइंदि०-थावर० उ० अणु० अह-णव० । पंचिं०समचदु०-ओरालि०अंगो०-वज्जरिस०-पसत्य०-तस-सुभग-सुस्सर-आदें उ० अह०, अणु० अह-बारह० । उज्जो० उ० खेत्तभंगो, अणु० अट्ट तेरह ।
३६४. वेउव्वियमि०-आहार-आहारमि० खेत्तभंगो। कम्मइय. पंचणाचौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, चार संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति और दुःस्वर के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो आयु, मनुष्यगतित्रिक, आतप और तीर्थङ्करके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। एकेन्द्रियजाति और स्थावरके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । पञ्चन्द्रियजाति, समचतुरस्त्रसंस्थान, औदारिक शरीर आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराचसंहनन, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, सुभग, सुस्वर और आदेयके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। उद्योतके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजु और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
विशेषार्थ-पाँच ज्ञानावरणादिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध मारणान्तिक समुद्घातके समय भी सम्भव है, इसलिए इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम पाठ बटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है । सातावेदनीय आदिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध मारणान्तिकके समय सम्भव न होनेसे इनके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बर्ट चौदह राजू कहा है। शेष पूर्ववत् जानना चाहिए। स्त्रीवेद आदि एकेन्द्रियजाति सम्बन्धी प्रकृतियाँ नहीं हैं, इसलिए इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजू कहा है। कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण स्पर्शन तिर्यञ्चोंमें देवों और नारकियोंका समुद्घात कराके ले आना चाहिए। दो आयु आदिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण है, यह स्पष्ट ही है। जो देव एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करते हैं,उनका स्पर्शन कुछ कम नौ बटे चौदह राजूप्रमाण उपलब्ध होता है और एकेन्द्रियजाति तथा स्थावरका मारणान्तिक समुद्घातके समय उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिए यहाँ इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौ बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। पञ्चन्द्रियजाति आदिका और सब विचार स्त्रीवेददण्डकके समान है। मात्र मारणान्तिक समुद्घातके समय इनका उत्कृष्ट अनभागबन्ध नहीं होता, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन मात्र कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। उद्योतका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सातवें नरकके नारकीके सम्यक्त्वके अभिमुख होने पर होता है, इसलिए इसके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। ___३६४. वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवों में
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फोसणपरूवणा
१६९ णवदंस०-असादी०-मिच्छ०--सोलसक०--णवणोक०--तिरिक्ख०-पंचसंग०-चदुसंघ०अप्पसत्थ०४-तिरिक्वाणु०-उप०--अथिरादिपंच०-णीचा०-पंचंत० उ० बारह०, अणु० सव्वलो । सादा०-पंचिं०-तेजा०--क०-समचदु०--पसत्थव०४-अगु०३-पसत्यवि०तस०४-थिरादिछ०-णिमि०-उच्चा० उ० छ०, अणु० सव्वलो० । मणुसगदिपंचग० उ० अणु० तं चेव । देवगदिपंचग० खेतभंगो। [ एइंदिय०-थावर० उ० दिवडचौदस०, अणु० सव्वलो० । असंप०-अप्पसत्थ०-दुस्सर० उ० ऍकारस०, अणु० सव्वलो०] तिण्णिजादि-आदाउज्जो०-सुहुम-अपज्ज०-साधार० उ० खेतभं०, अणु० सव्वलो। क्षेत्रके समान भङ्ग है। कार्मणकाययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, तिर्यश्चगति, पाँच संस्थान, चार संहनन, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, अस्थिर आदि पाँच, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम बारह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सातावेदनीय, पश्चन्द्रिय जाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । मनुष्यगतिपञ्चकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन पूर्वोक्त ही है। देवगतिपञ्चकका भङ्ग क्षेत्रके समान है। एकेन्द्रियजाति और स्थावरके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने डेढ़ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। असम्प्राप्तामृपाटिकासंहनन, अप्रशस्त विहायोगति और दुःस्वरके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम ग्यारह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तीन जाति, भातप, उद्योत, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका भङ्ग क्षेत्रके समान है। तथा अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
विशेषार्थ-वैक्रियिकमिश्रकाययोगी. आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए इन मार्गणाओं में सब स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। जो चारों गति के संज्ञी पश्चन्द्रिय जीव कार्मणकाययोगी होते हैं, उनके पाँच ज्ञानावरणादिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम बारह बटे चौदह राजू प्रमाण कहा है और कार्मणकाययोगका स्पर्शन सब लोक है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन सब लोक प्रमाण कहा है। सम्यग्दृष्टि कार्मणकाययोगी जीवोंका स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजू प्रमाण होनेसे सातावेदनीय
आदिके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन सब लोक प्रमाण है,यह स्पष्ट ही है। मनुष्यगतिपञ्चक का उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्यग्दृष्टि देव और नारकी करते हैं, इसलिए इनका भङ्ग सातावेदनीयके समान ही कहा है। देवगतिचतुष्कका सम्यग्दृष्टि तिर्यञ्च और मनुष्य तथा तीर्थकर का तीन गतिके सम्यग्दृष्टि जीव उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करते हैं। तथा देवगतिचतुष्कका बन्ध असंज्ञी आदि और तीर्थङ्कर प्रकृतिका तीन गति के संज्ञी जीव बन्ध करते हैं। ऐसे जीवोंका यदि
१. ता० प्रती पंचणा० असादा० इति पाठः। २. ता० श्रा० प्रत्योः पंचसंघ० इति पाठः । ३. ता. श्रा० प्रत्योः उप० अप्पसत्थ. अथिरादिपंच० इति पाठः। २२
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ३६५. इत्थिवे० पंचणा-णवदंसणा०-असादा०-मिच्छ०-सोलसक०-पंचणोक०हुंड-अप्पसत्थ०४-उप०-अथिरादिपंच०--णीचा०-पंचंत० उ० अह-तेरह०, अणु० अहचौ. सव्वलो० । सादा०-तेजा-क०-पसत्थ०४-अगु०३-पज्ज-पत्ते-थिर-सुभणि मि० उ० खेतभंगो, अणु० अ० सव्वलो० । इत्थि०-पुरिस०-मणुस०-चदुसंठा०ओरा अंगो०-छस्संघ०-मणुसाणु'०-आदाव० उ० अणु० अह । हस्स-रदि उ० अणु० अह. सव्वलो० । दोआउ०-तिण्णिजादि-आहारदुग-तित्थय० उक्क० अणु० खेतभंगो । दोआउ०-समचदु०-पसत्थ०-सुभग-सुस्सर-आदें-उच्चा० उ० खेत्तभंगो, अणु० अह । णिरयगदिदुग० उ० अणु० छच्चों । तिरि०-एइंदि०-तिरिक्खाणु०-यावर० उ. अह-णव०, अणु० अह. सव्वलो० । देवगदिदुग० उ० खेत०, अणु० छच्चों । स्पर्शनका विचार करते हैं तो वह सब क्षेत्रके समान ही प्राप्त होता है, इसलिए इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। एकेन्द्रियजाति और स्थावरका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध ऐशान कल्पतकके देव करते हैं, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम डेढ़ बटे चौदह राजु प्रमाण कहा है। तथा इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन सर्व लोक है. यह स्पष्ट ही है। अम्प्राप्तामृपाटिकासंहनन आदि तीन प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध नारकी और सहस्त्रार कल्प तकके देव करते हैं, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन नीचे छह और ऊपर पाँच इस प्रकार कुछ कम ग्यारह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है और इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन पूर्ववत् सब लोक कहा है। तीन जाति आदिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवों का जो स्पर्शन कहा है,वह स्पष्ट ही है।
३६५. स्त्रीवेदी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, अस्थिर आदि पाँच, नीचगोत्र
और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सातावेदनीय, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ और निर्माणके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद, मनुष्यगति, चार संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी
और आतपके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू. प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । हास्य और रतिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवों ने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोकममाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । दो आयु, तीन जाति, आहारकद्विक और तीर्थङ्करके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। दो आयु, समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। नरकगतिद्विकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और स्थावरके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट
१. प्रा० प्रतौ भणुमाउ० इति पाठः।
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फोसणपरूवणा
१७१ पंचिं०-तस० उ० खेत०, अणु० अह-बारह० । ओरालि० उ. अह०, अणु० अहचों सव्वलो। वेउव्वि०-वउव्वि०अंगो० उ० खेत०, अणु० बारह । उज्जो०-जस० उ० खेत्त०, अणु० अह-णव० । णवरि उज्जो० उ० अहः । अप्पस०-दुस्सर० उ० छ०, अणु० अह-बारह० । बादर० उ० खेत्त०, अणु० अह-तेरह० । सुहुम०-अपज्ज०-साधार० उ. अणु० लो० असं० सव्वलो० । एवं पुरिसेमु । णवरि तित्थ० उ० अणु० ओघं । अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू
और सब लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। देवगतिद्विकके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पञ्चोन्द्रियजाति और त्रसके उत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है। अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। औदारिकशरीरके उत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकाङ्गोपाङ्गके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है और अनुत्कष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। उद्योत और यशस्कीर्तिके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि उद्योतके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अप्रशस्त विहायोगति और दुःस्वरके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजूपमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है तथा अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू
और कुछ कम बारह बटे चौदह राजप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। बादरके उत्कृष्ट अनुभा बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है तथा अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सूक्ष्म, अप
प्ति और साधारणके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार पुरुषवेदी जीवोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें तीर्थङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन ओघके समान है।
विशेषार्थ-देवियाँ विहारादिकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन करती हैं। यद्यपि पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिनी और मनुष्यनी मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन करती हैं, परन्तु पाँच ज्ञानावरणादिके उत्कृष्ट बन्धके समय यदि मारणान्तिक समुद्घात होता है,तो वह त्रस नालीके भीतर नीचे छह राजू और ऊपर सात राजु इस प्रकार कुछ कम तेरह बटे चौदह राजूप्रमाण ही होता है । यही सब देखकर यहाँ इन प्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कहा है। स्पर्शनका उक्त विधिसे निर्देश मूलमें ही किया है। सातावेदनीय आदिके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवों का स्पर्शन पाँच ज्ञानावरणादिके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवों के समान ही घटित कर लेना चाहिए । जो तिर्यश्चगति आदि तीनमें उत्पन्न होते हैं,उन्हींके स्त्रीवेद आदिका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग बन्ध सम्भव है और ऐसे स्त्रीवेदी जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण होता है,
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महाधे भागबंधाहियारे
इसलिए स्त्रीवेद आदिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है। जो सर्वत्र एकेन्द्रियोंमें भी उत्पन्न होते हैं, उनके भी हास्य और रतिका बन्ध सम्भव है, इसलिए इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण और सब लोकप्रमाण कहा है। जो एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्घात कर रहे हैं, उनके दो आयु और समचतुरस्त्र संस्थान आदि प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है। जो नारकियों में मारणान्तिक समुद्घात कर रहे हैं, उनके भी नरकगतिद्विकका दोनों प्रकार का अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिए इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम छह राजूप्रमाण कहा है। यद्यपि स्त्रियाँ छठे नरक तक ही जाती हैं, ऐसा आगमवचन है, पर यह नियम योनि-कुचवाली स्त्रियोंके लिए ही है। जिनके स्त्रीवेदका उदय है और जो योनि-कुचवाली नहीं हैं अर्थात् जो स्त्रीवेदके उदयके साथ द्रव्यसे पुरुष हैं, उनका गमन सातवें नरक तक सम्भव है, यह इस स्पर्शन नियमसे सिद्ध होता है। इतना ही नहीं, इससे द्रव्यवेद और भाववेदका जो वैषम्य माना जाता है, उसकी भी सिद्धि होती है । जो त्रसनालीके भीतर ऊपर एकेन्द्रियोंमें समुद्घात करते हैं, उनके भी तिर्यगति आदिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्भव है; इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौ वटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। तथा इनके अनुत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीवोंके स्पर्शनका स्पष्टीकरण पाँच ज्ञानावरण आदिके समान कर लेना चाहिए। जो तिर्यच और मनुष्य देवों में मारणान्तिक समुद्घात कर रहे हैं, उनके भी देवगतिद्विकका अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध होता है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। जो नीचे छह और ऊपर छह, इस प्रकार कुछ कम बारह राजूप्रमाण क्षेत्रका मारणान्तिक समुद्घात के समय स्पर्शन कर रहे हैं, उनके भी पञ्च ेन्द्रियजाति और त्रसप्रकृतिका अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध होता है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है। जो एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्घात करते हैं, उनके औदारिकशरीरका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध नहीं होता, इसलिए इसके उत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। परन्तु एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करते समय इसका अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध होता है, इसलिए इसके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन पाँच ज्ञानावरणादिके समान कहा है। जो देबों और नारकियों में मारणान्तिक समुद्घात करते हैं, उन मनुष्य और तिर्यों के वैक्रियिकद्विकका अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध होता है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। जो एकेन्द्रियों में त्रसनालीके भीतर समुद्घात करते हैं, उनके उद्योत और यशस्कीर्तिका अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौ बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। मात्र उद्योतका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध तत्प्रायोग्य तिव आदि तीन गतिके जीव करते हैं, इसलिए इसके उत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है। जो नारकियों में मारणान्तिक समुद्घात करते हैं, उनके भी अप्रशस्त विहायोगति और दुःस्वरका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। तथा इनके अनुत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीवोंका स्पर्शन पश्चन्द्रियजातिके समान घटित कर लेना चाहिए । जो नीचे छह और ऊपर सात इस प्रकार कुछ कम तेरह राजूका मारणान्तिक समुद्घातके समय स्पर्शन करते हैं, उनके भी बादर प्रकृति का बन्ध होता है, इसलिए इसके अनुत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ
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फोसणपरूषणा
१७३ ३६६. णqसग० पंचणा०-णवदंस०-असादा०-मिच्छ०-सोलसक०-सत्तणोके०तिरिक्ख०--पंचसंठा-पंचसंघ०--अप्पसत्य०४-तिरिक्खाणु०-उप०-अप्पसत्य-अथिरादिछ०-णीचा०-पंचंत० उ० छच्चों, अणु० सव्वलो० । सादा०-तिरिक्खाउग०-मणुस० चदुजा०-ओरा०-तेजा०-क०--समचदु०-ओरा०अंगो०-वजरि०-पसत्य०४-मणुसाणु०अगु०३-आदाउ०--पसत्थ०--तस०४-थिरादिछ--णिमि०--उच्चा० उ० खेत०, अणु० सव्वलो० [हस्स-रदि० उ० छच्चों सव्वलो०,अणु० सव्वलो । ] दोआउ.-वेउव्वियछ०-आहारदुगं ओघं । मणुसाउ० तिरिक्खोघो। [ एइंदिय-थावरादि४ तिरिक्खोघं।] तित्यय० इत्थिभंगो। कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। जो तिर्यश्च और मनुष्य एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करते हैं, उनके भी सूक्ष्मादिका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्भ होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोक कहा है। पुरुषवेदी जीवोंमें भी यह स्पर्शन प्ररूपणा बन जाती है, इसलिए उनमें स्त्रीवेदी जीवोंके समान कहा है। मात्र तीर्थङ्कर प्रकृतिकी अपेक्षा कुछ विशेषता है। बात यह है कि पुरुषवेदी देव भी तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध करते हैं और इनका विहारादिकी अपेक्षा स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू होनेसे पुरुषवेदी जीवोंके तीर्थङ्कर प्रकृतिकी अपेक्षा यह स्पर्शन भी पाया जाता है। इसलिए. यह स्पर्शन ओघके समान कहा है शेष कथन सुगम है।
३६६. नपुंसकवेदी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, सात नोकषाय, तियञ्चगति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यजगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, अस्थिर आदि छह, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सातावेदनीय, तिर्यश्वायु, मनुष्यगति, चार जाति, औदारिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, औदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराचसंहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, पातप, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है तथा अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। हास्य और रतिके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो आयु, वैक्रियिक छह और आहारकद्विकका भङ्ग ओघके समान है। मनुष्यायुका भङ्ग सामान्य तिर्यश्चोंके समान है। एकेन्द्रियजाति और स्थावर आदि चारका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग स्त्रीवेदी जीवोंके समान है।
विशेषार्थ-नपुंसककोंमें तीन गतिके संज्ञी पञ्चन्द्रिय जीव प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करते हैं। इनका अतीत स्पर्शन उत्कृष्ट या तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट परिणामोंके समय कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण होता है, इसलिए इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका उक्त प्रमाण स्पर्शन कहा है। तथा नपुंसकवेदी सब लोकमें पाये जाते
१. ता० श्रा० प्रत्योः सोलसक. पंचणोक० इति पाठः। २. ता० श्रा. प्रत्योः अथिदिपंच णीचुचा इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ३६७. मदि०--सुद० ओघं। णवरि देवगदिदुगंउ० खेत्त०, अणु० पंच चोद० । वेउवि०-वेउन्वि०अंगो० उ० खेत्तभंगो, अणु० ऍकारह० । विभंगे. पंचिंदियभंगो। णवरि देवगदिचदुक्क० मदिभंगो।
३६८. आभिणि-सुद०-ओधि० पंचणा०--छदंसणा०-असादा०वारसक०-सत्तणोक-मणुसगदिपंच०-अप्पसत्थ०४-उप०-अथिर-असुभ-अजस-पंचंत० उ० अणु० अहः। एवं मणुसाउ० । सादा-पंचिं०--तेजा०-क-समचदु०-पसत्थ०४-अगु०३
हैं, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका सब लोकप्रमाण स्पर्शन कहा है। इनके अनुत्कृष्टके समान सातावेदनीय आदि, हास्य, रति और एकेन्द्रियजाति आदिके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका सब लोक प्रमाण स्पर्शन जान लेना चाहिए। सातावेदनीय आदिके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है,यह स्पष्ट ही है। हास्य और रतिका उत्कृष्ट अनभागबन्ध नारकियों के तिर्यश्चों और मनुष्यों में तथा तिर्यश्चों और मनुष्योंके एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्घात करनेके समय भी होता है । इसी प्रकार तिर्यञ्चों और मनुष्योंके नारकियोंमें मारणान्तिक समुद्घातके समय भी जानना चाहिए, इसलिए इन प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका कुछ कम छह बटे चौदह राजू और सब लोकप्रमाण स्पर्शन कहा है। एकेन्द्रिय जाति आदिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध संज्ञी पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च और मनुष्य तो करते ही हैं, साथ ही ये जब एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करते हैं तब भी होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन सामान्य तिर्यश्चोंके समान कहा है । शेष कथन सुगम है।
३६७. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें ओघके समान स्पर्शन है। इतनी विशेषता है कि देवगतिद्विकके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। तथा अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम पाँच बटे चौदह राजप्रमाण है। वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकाङ्गोपाङ्गके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम ग्यारह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। विभङ्गज्ञानी जीवोंमें पञ्चन्द्रियोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि देवगतिचतुष्कका भङ्ग मत्यज्ञानी जीवोंके समान है ।
विशेषार्थ—जो मिथ्यादृष्टि तिर्यश्च और मनुष्य बारहवें कल्प तक समुद्घात करते हैं उनके देवगतिद्विकका बन्ध होता है । यद्यपि मनुष्य मिथ्यादृष्टि नौवें प्रैवेयक तक उत्पन्न होते हैं पर उससे इस स्पर्शनमें अन्तर नहीं पड़ता, क्योंकि उनका प्रमाण संख्यात है और ऐसे जीवोंका कुल स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए यहाँ देवगतिद्विकके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवों का स्पर्शन कुछ कम पाँच बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। तथा वैक्रियिकिद्विकका नीचे छह राजू
और ऊपर पाँच राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन करनेवाले जीवोंके बन्ध होता है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम ग्यारह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है । शेष कथन सुगम है।
३६८. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, असातावेदनीय, बारह कषाय, सात नोकषाय, मनुष्यगति पश्चक, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, अस्थिर, अशुभ, अयश कीर्ति और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार मनुष्यायुकी अपेक्षासे स्पर्शन जानना चाहिए । सातादनीय, पञ्चोन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मण
SN उपघात, अस्थिर, अशु
चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका
जसशरीर, कामण
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फोसणपरूवणा पसत्य-तस०४-थिरादिछ -णिमि०-तित्थ०-उच्चा० उ० खेत्तभं०, अणु० अहः । देवाउ०-आहारदुर्ग ओघं । देवगदि०४ उ० खेत्त०, अणु० छ० । एवं ओघिदंस०सम्मादि०-खइग०-वेदग०-उवसम०-सम्मामि० । णवरि खइग०-उवसम०-सम्मामिच्छा. देवग०४ खेतभंगो। उवसम० तित्थय० खेत्तभंगो।।
३६६. अवगद०-मणपज्ज०-संज०-सामाइ०-छेदो०-परिहार०-सुहुमसंप० खेतभंगो। संजदासंज. हस्स-रदि० उ० अणु० छ० । देवाउ० तित्थय० उ० अणु० खेत । सेसाणं उ० खेत०, अणु० छच्चों । असंजद० ओघं । शरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क. स्थिर आदि छह, निर्माण, तीर्थङ्कर और उच्चगोत्रका भङ्ग क्षेत्रके समान है। तथा अनुत्कृष्ट अन भागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। देवायु और
आहारकद्विकका भङ्ग ओघके समान है । देवगतिचतुष्कके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि क्षायिकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवोंमें देवगतिचतुष्कका भङ्ग क्षेत्रके समान है । तथा उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग क्षेत्रके समान है।
विशेषार्थ-पाँच ज्ञानावरणादिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध मिथ्यात्वके अभिमुख हुए चारों गतिके जीव करते हैं। उसमें भी हास्य और रतिका तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामोंसे स्वस्थानमें और मनुष्यगतिपश्चकका देव और नारकी जीव उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करते हैं। इनमेंसे तीन गति के जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और देवोंका कुछ कम आठ बटे चौदह राजप्रमाण होता है। सब मिलाकर यह स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण ही है, इसलिए यहाँ इनके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका उक्त प्रमाण स्पर्शन कहा है और इसी कारणसे इनके तथा सातावेदनीय आदिके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका उक्तप्रमाण स्पर्शन कहा है। सम्यग्दृष्टि तिर्यश्च और मनुष्य देवोंमें मारणान्तिक समुद्घातके समय कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन करते हैं। इसलिए देवगति चतुष्कके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका उक्तप्रमाण स्पर्शन कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। यहाँ अवधिदर्शनी आदि अन्य जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें यह प्ररूपणा अविकल घटित हो जाती है, इसलिए उनके कथनको आभिनिबोधिकज्ञानी
आदिके समान कहा है । मात्र क्षायिकसम्यग्दृष्टि आदि तीन मार्गणाओं में मारणान्तिक समुद्घात करनेवाले जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होता है, इसलिए इनमें देवगति
दुष्कका भङ्ग क्षेत्रके समान कहा है। उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें तीर्थङ्कर प्रकृतिका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहनेका भी यही कारण है।
३६६. अपगतवेदी, मनापर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत और सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंमें क्षेत्रके समान भङ्ग है। संयतासंयत जीवोंमें हास्य
और रतिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । देवायुके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। असंयत जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है ।
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महाबंधे अणुभागवधाहियारे ३७०. किणे०-णील०--काउ० पंचणा० --णवदंस०--असादा०-मिच्छ०-सोलसक०--सत्तणोक०-तिरिक्ख०--पंचसंठा०--पंचसंघ०-अप्पसत्थ०४-तिरिक्खाणु०-उप०अप्पसत्य-अथिरादिछ०-णीचा०-पंचंत० उ० छच्चों चत्तारि-बेचोद०, अणु० सव्वलो। सादा०-तिरिक्वाउ०-मणुसग०--चदुजा०-ओरा०-तेजा.-क०-समचदु०-ओरा०अंगो०वज्जरि०-पसत्थ०४-मणुसाणु०--अगु०३-आदाउ०--पसत्य०--तस०४-थिरादिछ०-- णिमि०-उच्चा० उ० खेतभंगो। अणु० सव्वलो० । हस्स-रदि-एइंदि०-थावरादि०४ उ० लो० असंखे० सव्वलो०, अणु० सव्वलो। णवरि-णील-काऊणं हस्स-रदि. असादभंगो। [णिरयाउ-] देवाउ०-देवगदि० [२-] तित्थ० खेतभंगो । मणुसाउ० गईंसगभंगों। णिरय-णिरयाणु० उ० अणु० छ-चत्तारि-बेचोद० । वेउव्वि०-वेउव्वि०. अंगो० उ० खेतभंगो । अणु० छ-चत्तारि-बेचौं ।
विशेषार्थ-संयतासंयत जीवोंका मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा कुछ कम छह बटे चौदह राजुप्रमाण स्पर्शन होता है। हास्यद्विकका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध तथा देवायु और तीर्थङ्कर प्रकृतिके सिवा शेष प्रकृत्तियोंका अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध ऐसी अवस्थामें सम्भव है, अतः हास्यद्विकके दोनों प्रकारके अनुभागके और शेष प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका उक्त प्रमाण स्पर्शन कहा है। शेष कथन सुगम है।।
३७०. कृष्ण, नील और कापोतलेश्योंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्त्र, सोलह कषाय, सात नोकषाय, तिर्यञ्चगति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, अस्थिर आदि छह, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने क्रमसे कुछ कम छह बटे चौदह राज, कुछ कम चार बटे चौदह राजु और कुछ कम दो बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सातावेदनीय, तिर्यञ्चायु,मनुष्यगति,चार जाति,औदारिकशरीर, तैजसशरीर,कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिकाङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराचसंहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, आतप, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन सब लोक है। हास्य, रति, एकेन्द्रियजाति और स्थावर आदि चारके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इतनी विशेषता है कि नील और कापोत लेश्यामें हास्य और रतिका भङ्ग असातावेदनीयके समान है। नरकायु, देवायु, देवगतिद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग क्षेत्रके समान है। मनुष्यायुका भङ्ग नपुंसकवेदी जीवोंके समान है । नरकगति और नरकगत्यानुपूर्वी के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने क्रमसे कुछ कम छह बटे चौदह राजु, कुछ कम चार बटे चौदह राजु और कुछ कम दो बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकाङ्गोपाङ्गके उत्कृष्ठ अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू, कुछ कम चार बटे चौदह राजू और कुछ कम दो वटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
१. ता. प्रा. प्रत्योः असंजद० ओघं । चक्खु० तसभंगो । किण्ण• इति पाठः । २. ता. प्रतौ हस्सरदि ४ श्रसादभंगो इति पाठः।
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फोसणपरूवणा
३७१. तेऊएं' पंचणा०-णवदंसणा०-असादा०-मिच्छ०-सोलसक०-सत्तणोक०तिरिक्ख०-एइंदि०-हुंड-अप्पसत्थ०४-तिरिक्ख०-उप०-थावर-अथिरादिपंच०-णीचा०पंचंत० उ० अणु० अह-णव० । सादा०-तेजा ०-क०-पसत्य०४-अगु०३-बादर-पज्जत्तपत्ते-थिर-सुभ-जस०-णिमि० उ० खेत०, अणु० अह-णव० । इत्थि०-पुरिस०-दोआउ०मणुस०२-चदुसंठा-ओरा०अंगो०-छस्संघ०-आदा०-अप्पसत्थ०-दुस्सर० उ० अणु०
विशेषार्थ-प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धके स्वामीको देखनेसे विदित होता है कि इन लेश्याओंमें परस्पर तीन गतिके संज्ञी जीवोंमें मारणान्तिक समुद्घात करनेवाले जीवोंके यथायोग्य उक्त प्रकृष्ट अनुभागबन्ध होता है और इस दृष्टिसे इन लेश्याओंका क्रमसे स्पर्शन कुछ कम छह, कुछ कम चार और कुछ कम दो बटे चौदह राजूप्रमाण है, अतः यह स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा है। तथा एकेन्द्रियोंके भी तीनों लेश्याएं होती हैं,अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन सर्व लोक कहा है। सातावेदनीय आदिका उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध सम्यग्दृष्टि जीवोंके होता है। मात्र तिर्यश्चायु, आतप और उद्योत इसके अपवाद हैं सो इनका मारणान्तिक समुद्घातके समय बन्ध नहीं होता, अतः इनके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है । इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका सर्व लोकप्रमाण स्पर्शन ज्ञानावरणादिके समान समझ लेना चाहिए । जो एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करते हैं, उनके भी हास्य आदिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध होता है, अत: इनके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवों का वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन सर्वलोक प्रमाण कहा है। इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका सर्वलोक प्रमाण स्पर्शन है, यह स्पष्ट ही है। यहाँ इतनी विशेषता है कि नील और कापोतलेश्यामें मारणान्तिक समुद्घातके समय भी हास्य और रतिका नारकी जीव उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करते हैं, इसलिए इन दो प्रकृतियोंकी अपेक्षा असातावेदनीयके समान स्पर्शन बन जाता है। वैसे सामान्य नारकियोंमें इन दो प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजू बतला आये हैं। पर यहाँ कृष्ण लेश्यामें वह लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्यों रहने दिया गया है,यह अवश्य ही विचारणीय है । जो तिर्यश्च और मनुष्य नारकियोंमें मारणान्तिक समुद्घात कर रहे हैं,उनके नरकगतिद्विकका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्भव है,इसलिए इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम छह, कुछ कम चार और कुछ कम दो बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है। इसी प्रकार वैक्रियिकद्विकके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन भी घटित कर लेना चाहिए । शेष कथन सुगम है।
___३७१. पीत लेश्यामें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलहकषाय, सात नोकषाय, तिर्यश्चगति, एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, स्थावर, अस्थिर आदि पाँच, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट और अनुस्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सातावेदनीय, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, यशःकीर्ति और निर्माणके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, दो आयु, मनुष्यगतिद्विक, चार संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, आतप, अप्रशस्त
१. श्रा० प्रती छ-चत्तारि तेउए. इति पाठः । २. ता. श्रा. प्रत्योः मणुस. ४ चदुसंठा इति पाठः। ३ ता. पा. प्रत्योः अप्पसत्थ४ दुस्सर० इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे अहौँ । देवाउ०-आहारदुर्ग ओघं । देवगदि०४ उ० खेस०, अणु० दिवडचॉद्द० । पंचिं०-समचदु०-पसत्य-तस०-सुभग-सुस्सर-आदें-तित्थय०-उच्चा० उ० खेशभंगों'। अणु० अणुभा० अह। ओरा०-उज्जो० उ० अह चों, अणु० अह-णवै० । एवं पम्माए वि । णवरि अह चों। देवगदि०४ अणु० पंच चौ। विहायोगत्ति और दुःस्परके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। देवायु और आहारकद्विकका भङ्ग ओघके समान है। देवगतिचतुष्कके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। तथा अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवान कुछ कम डेढ़ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पश्चन्द्रिय जाति, समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, सुभग, सुस्वर, आदेय, तीर्थङ्कर और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। औदारिकशरीर
और उद्योतके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्र का स्पर्शन किया है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजु और कुछ नौ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार पद्मलेश्यामें भी जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसमें कुछ कम आठ घटे चौदह राजूप्रमाण स्पर्शन कहना चाहिए। तथा देवगतिचतुष्कके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम पाँच बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
विशेषार्थ-पाँच ज्ञानावरणादि का उत्कृष्ट अनुभागबन्ध ऐशान कल्पतकके देव करते हैं और मारणान्तिक समुद्घातके समय भी इनका बन्ध होता है, अतः इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौ बटे चौदह राजू कहा है । सातावेदनीय आदिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध अप्रमत्तसंयत जीव करते हैं, अतः इनके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्रके समान स्पर्शन कहा है । इसी प्रकार अन्य प्रशस्त प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागबन्धके विषयमें जानना चाहिए। इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन पाँच ज्ञानावरणादिके समान है,यह स्पष्ट ही है। जो देव एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समु
द्घात करते हैं,उनके स्त्रीवेद आदिका बन्ध नहीं होता, अतः इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है । देवायु और आहारकद्विक का भङ्ग श्रोधके समान है.यह स्पष्ट ही है। जो देवोंमें मारणान्तिक समदघात करते हैं उनके भी देवगतिचतुष्कका अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध होता है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्पर्शन कुछ कम डेढ़ बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। जो देव एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करते हैं उनके पश्चन्द्रियजाति आदिका बन्ध नहीं होता, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है। औदारिकशरीरका सम्यग्दृष्टि देव
और उद्योतका तत्प्रायोग्य विशुद्ध देव उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करते हैं, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है और इनका अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध मारणान्तिक समुद्घातके समय भी सम्भव होनेसे इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौ बटे चौदह राजु कहा है । पद्मलेश्यामें मरकर देव एकेन्द्रिय नहीं होता, इसलिए इसमें कुछ कम आठ वटे व नौ बटे चौदह राजूके स्थानमें केवल कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण स्पर्शन कहा है।
१. प्रा. प्रतौ• उच्चा० खेत्तभंगो इति पाठः। २. ता. प्रतौ अडचो० अट-णव० इति पाठः ।
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___ १७९
फोसणपरूवणा ३७२. सुक्काए पढमदंडओ उ० अणु० छच्चों। खविगाणं उक्क० खेत०, अणु० छच्चों । देवाउ०-आहारदुग० खेत० ।
३७३. अब्भवसि० पढमदंडओ मदि भंगो। सादा०-पंचिंदि०-ओरा०-तेजा०क०-समचदु०--ओरा अंगो०--वज्जरि०-पसत्थ०४-अगु०३-पसत्य-तस०४-थिरादिछ०-णिमि० उ० अह-बारह०, अणु० सव्वलो० । मणुस०--मणुसाणु०--आदाउज्जो.
मात्र पद्मलेश्याम मारणान्तिक समुद्घातद्वारा तिर्यश्च और मनुष्य कुछ कम पाँच बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन करते हैं, इसलिए इस लेश्यामें देवगतिचतुष्कके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा है। इस लेश्यामें शेष सब प्ररूपणा पीतलेश्याके समान है। मात्र यहाँ अपनी प्रकृतियाँ कहनी चाहिए ।
३७२. शुक्ललेश्यामें प्रथम दण्डकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजूममाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। क्षपक प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। देवायु और आहारकद्विकका भङ्ग समान है।
विशेषार्थ-शुक्ललेश्यामें कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण स्पर्शन है, क्योंकि आनतादिदेवोंका मेरुके मूलसे नीचे गमन नहीं होता। यहाँ पर प्रथम दण्डकमें ये प्रकृतियाँ ली गई हैंपाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, मनुष्यायु, मनुष्यगति, औदारिकशरीर,पाँच संस्थान,औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन,अप्रशस्त वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, उपघात,अप्रशस्त विहायोगति,अस्थिर,अशुभ, दुभंग,दुःस्वर, अनादेय, अयशः. कीर्ति नीचगोत्र और पाँच अन्तराय । क्षपक प्रकृतियाँ ये हैं-सातावेदनीय, देवगति, पश्चन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण, तीर्थंकर और उच्चगोत्र । यहाँ प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध देवोंके होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है । क्षपक प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध क्षपकश्रेणिमें होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है और इनका अनुत्कृष्ट अनुभागवन्ध देव भी करते हैं। मात्र देवगतिचतुष्कका बन्ध तिर्यश्च और मनुष्य करते हैं, सो देवोंमें मरणान्तिक समुद्घात करनेवाले इनका भी स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण उपलब्ध होता है । देवोंका तो इतना है ही, इसलिए इन सब क्षपक प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीवोंका उक्त प्रमाण स्पर्शन कहा है। देवायु और आहारकद्विकका भङ्ग क्षेत्रके समान है, यह स्पष्ट ही है।
३७३. अभव्योंमें प्रथम दण्डकका भङ्ग मत्यज्ञानी जीवोंके समान है। सातावेदनीय, पश्चन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिकआङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराचसंहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह और निर्माणके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राज और कुछ कम बारह बटे चौदह राजप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। मनुष्यगति,मनुष्यगत्यानुपूर्वी,
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महाबँधे श्रणुभागबंधाहियारे
उच्चा० उ० अट्ठ े०, अणु० सव्वलो ० | देवगदिदुग० उक्क० अणु० पंचचों० । वेडव्वि०वेडव्वि० अंगो० उ० पंचचों, अणु० ऍकारह० । णिरयगदिदुगं ओघं । अथवा सव्वाणं मदिअण्णा णिभंगो कादव्वो ।
२७४. सासणे पंचणा०--- णवदंसणा ० - असादा ० -- सोलसक० - अहणोक० -- तिरिक्ख ० चदुसंठा ० चदुसंघ०[०-- अप्पसत्थ०४ - तिरिक्खाणु० ०--उप०-- अप्पसत्थ०-०--अथिरादिछ० - णीचा ० - पंचंत० उ० [अणु०] अट्ठ-बारह ०। सादा ०- पंचिंदि० ओरा ० - तेजा० क०समचदु० - ओरा ० चंगो ० - वज्जरि०-पसत्थ०४ - अगु० ३ - पसत्यवि० -तस०४ - थिरादिछ०णिमि० उ० अट्ठ०, अणु० अट - बारह० । देवाउ० ओघं । दोआउ० उ० खैत्त०, अणु ०
श्रातप, उद्योत और उच्चगोत्र के उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तथा अनुत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । देवगतिद्विकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम पाँच बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग के उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम पाँच बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तथा अनुत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीवोंने कुछ कम ग्यारह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। नरकगतिद्विकका भङ्ग ओघके समान है । अथवा सब प्रकृतियोंका भङ्ग मत्यज्ञानी जीवोंके समान करना चाहिए ।
विशेषार्थ - जो ऊपर छह और नीचे छह इस प्रकार कुछ कम बारह बटे चौदह राजुके भीतर मारणान्तिक समुद्घात करते हैं, ऐसे जीवोंके भी सातावेदनीय आदिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध होता है । देवोंके विहारादिके समय तो हो ही सकता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है । मात्र मनुष्यगति आदिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध कई कारणों से कुछ कम बारह बटे चौदह राजू नहीं प्राप्त होता, इसलिए यह कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है। इन सातावेदनीय आदि और मनुष्यगति आदिके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन सब लोक प्रमाण है, यह स्पष्ट ही है । जो तिर्यश्च और मनुष्य देवोंमें मारणान्तिक समुद्घात करते हैं, उनके देवगतिद्विकका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्भव है; इसलिए इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम पाँच बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है। इसी प्रकार वैक्रियिकद्विकके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन घटित कर लेना चाहिये । मात्र इसमें नीचेका कुछ कम छह राजू स्पर्शन मिलाने पर कुछ कम ग्यारहबटे चौदह राजूप्रमाण स्पर्शन वैक्रियिकद्विकके अनुत्कृष्ट अनुभाग बन्धक जीवोंका होता है। शेष कथन स्पष्ट ही है।
३७४. सासादनमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, सोलह कषाय, आठ नोकषाय, तिर्यगति, चार संस्थान, चार संहनन, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, अस्थिर आदि छह, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम वारह बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सातावेदनीय, पञ्च ेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराचसंहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह और निर्माणके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है और १. ता० प्रतौ श्रादा० उच्चा० उ० श्रड, श्रा० प्रतौ० श्रादाडजो० उ० श्र० इति पाठः ।
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फोसणपरूवणा
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अह० । मणुस ०-मणुसाणु० -उच्चा० उ० अणु० अडचों० | देवगदि०४ उ० अणु० पंचचों० । उज्जो० उ० खेत्त०, अणु० अट्ठ-बारह० । मिच्छादिडी० मदि० भंगो ।
३७५. असण्णीसु' पंचणा० णवदंस ० - दोवेदणी० - मिच्छ० - सोलसक० - सत्तणोक ०तिरिक्खाउ०- मणुस ० - चदुजा ० - ओरा ० - तेजा ० ०-- क० - छस्संठा० - ओरा ० गो० - छस्संघ०पसत्थापसत्थ०४ - मणुसाणु ० -- अगु०४ - आदाउज्जो ० -- दोविहा ० [०--तस०४ - थिरादिछ० णिमि० -- दोगो ० -- पंचंत० उ० लो० असंखे, अणु० सव्वलो० । हस्स- रदि०
O
अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । देवायुका भङ्ग ओघ के समान है । दो आयुओं के उत्कृष्ट अनुभाग बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है और अनुत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । देवगतिचतुष्कके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीवोंने कुछ कम पाँच बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। उद्योतके उत्कृष्ट अनुभाग बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे बारह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । मिध्यादृष्टि जीवोंमें मत्यज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है ।
विशेषार्थ - सासादन सम्यक्त्वका विहार श्रादिकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह राजु और मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा कुछ कम बारह बटे चौदह राजुप्रमाण स्पर्शन है । प्रथम दण्डककी प्रकृतियोंके दोनों प्रकारके अनुभाग के बन्धक जीवोंका यह दोनों प्रकारका स्पर्शन सम्भव है और सातावेदनीय आदिके उत्कृष्ट अनुभागबन्ध के समय कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण स्पर्शन सम्भव नहीं है, इसलिए इन बातों को ध्यान में रखकर इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीवों का स्पर्शन कहा है । तिर्यवायु और मनुष्यायुका अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध विहारादिके समय सर्वत्र सम्भव है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। इसी प्रकार मनुष्यगति आदि तीनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू जानना चाहिए । देवगतिचतुष्कका बन्ध तिर्यन और मनुष्य करते हैं, अतः इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम पाँच बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। उद्योतका अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध मारणान्तिक समुद्घात के समय भी सम्भव है, इसलिए इसके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है ।
३७५. असंज्ञी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, दो वेदनीय, मिध्यात्व, सोलह कषाय, सात नोकषाय, तिर्यवायु, मनुष्यगति, चार जाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मरणशरीर, छह संस्थान, औदारिकाङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, प्रशस्त वर्णंचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण, दो गोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके
१. श्रा० प्रतौ मणुसार ० उ० इति पाठः । भंगो । श्रसणीसु इति पाठः ।
२. ता० प्रा० प्रत्योः मदि०भंगो । सण्णी पंचदिय
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे तिरिक्ख.--एइंदि०-तिरिक्वाणु०--थावरादि०४-[अथिरादिछ०] उ० लो० असं० सव्वलो०, अणु० सव्वलो० । दोआउ०-वेउन्वियछ० उ० अणु० खेत्तभंगो । मणुसाउ० तिरिक्खोघं । अणाहार० कम्मइगभंगो ।
एवं उक्कस्सफोसणं समत्तं । ३७६. जहण्णए पगदं। दुवि०-ओघे० आदे। ओघे० पंचणा०-णवदंस०-मिच्छ०सोलसक०-सत्तणोक-तिरिक्व०--अप्पसत्थ०४-तिरिक्वाणु०--उप०-णीचा०--पंचंत० जहणं अणुभागं बंधगेहि केवडियं खेतं फोसिदं ? लोग० असंखें, अज० सव्वलो। सादासाद-तिरिक्खाउ०-मणुस०--चदुजा०--छस्संठा०--छस्संघ०-मणुसाणु०-दोविहा०असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । हास्य, रति, तिर्यश्चगति, एकेन्द्रियजाति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, स्थावर
आदि चार और अस्थिर आदि छहके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तथा अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो आयु और वैक्रियिक छहके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। मनुष्यायुका भङ्ग सामान्य तियञ्चोंके समान है। अनाहारक जीवोंमें कार्मणकाययोगी जीवोंके समान भङ्ग है।
विशेषार्थ-यहाँ प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका व अन्य सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट नुभागबन्ध अपने-अपने योग्य परिणामोंके साथ असंज्ञी पद्धोन्द्रिय जीव करते हैं। उसमें भी प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घातके समय नहीं होता, अतः इनके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है और दूसरे दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घातके समय भी होता है। अत: इनके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और अतीत कालीन स्पर्शन सब लोक प्रमाण कहा है। इन सबका अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध एकेन्द्रिय जीव भी करते हैं, अत: इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन सब लोक प्रमाण कहा है। नरकायु, देवायु और वैक्रियिकछहका उत्कृष्ट
और अनुत्कृष्ट अनुभागमन्ध असंज्ञी पञ्चन्द्रिय ही करते हैं और ऐसे जीवोंका उनका बन्ध करते समय एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात नहीं होता, इसलिए इनके दोनों प्रकारके अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। मनुष्यायुका भङ्ग स्पष्ट ही है। संसारी जीवोंके अनाहारक अवस्था कार्मणकाययोगके समय होती है, इसलिए अनाहारकोंकी प्ररूपणा कार्मणकाययोगी जीवोंके समान कही है।
__ इस प्रकार उत्कृष्ट स्पर्शन समाप्त हुआ। ३७६. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, सात नोकषाय, तिर्यश्चगति, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, तिर्यञ्चायु, मनुष्यगति, चार जाति, छह संस्थान, छह संहनन,
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फोस परूषणा
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थावर ०४ - थिरादिछयुगं ०० उच्चा० ज० ज० सव्वलो ० । इत्थि - णवुंस० ज० अट्ठ-बारह ०, अज० सव्वलो ० । दोआउ०- आहारदुग० ज० अज० खेत्तभंगो । मणुसाउ० ज० लो० असंखे० सव्वलो०, अज० अट्ठ० सव्वलो० । णिरय ० - णिरयाणु ० ज० अज० छच्चों० । देवग० -देवाणु ० जह० दिवडचोद०, अथवा पंचचो, अज० छच्चों । पंचिं० - ओरा०अंगो०-तस० जह० अट्ठ-- बारह ०, , अज० सव्वलो० । ओरा०-- तेजा ० क० -पसत्थ०४अगु०३ - उज्जो ० बादर - पज्जत्त - पत्ते ० णिमि० ज० अट्ठ-तेरह०, अज० सव्वलो० । वेजव्वि ० - वेडव्वि ० अंगो० [ज० ] बच्चोंद०, अज० बारहचो० । आदाव० ज० अ०, अज० सव्वलो ० । तित्थ० ज० खेत्तं ०, अज० अ० ।
I
↑
मनुष्यगत्यानुपूर्वी, दो विहायोगति, स्थावरचतुष्क, स्थिर आदि छह युगल और उच्चगोत्रके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। खीवेद और नपुंसक वेदके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कन बारह बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने सबलोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । दो आयु और आहारकद्विकके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका भङ्ग क्षेत्रके समान है । मनुष्यायुके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । नरकगति और नरकगत्यानुपूर्वीके जघन्य और अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । देवगति और देवगत्यानुपूर्वी के जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम डेढ़ बटे चौदहराजू अथवा कुछ कम पाँच बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पचन्द्रियजाति, श्रदारिक आङ्गोपाङ्ग और त्रसके जघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बड़े चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंने सब लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। श्रदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, उद्योत, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक और निर्माणके जन्य अनुभाग के बन्धक जीधोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजू प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने सत्र लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकाङ्गोपाङ्गके जघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंने कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आपके जवन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठबटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तीर्थंकर प्रकृतिके जघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है और अजघन्य अनुभाग बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है ।
विशेषार्थ - यहाँ वैक्रियिक छह, आहारकद्विक, नरकायु व देवायु और तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध एकेन्द्रिय जीव नहीं करते। इनके सिवा सब प्रकृतियोंका बन्ध एकेन्द्रिय जीव करते हैं, इसलिए उन सब प्रकृतियों के अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन सर्व लोक कहा है । इसके सिवा १. श्रा० प्रतौ थावर० थिरादिछयुग० इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे
जहाँ जो विशेषता होगी, वह उस उस प्रकृतिके निरूपणके समय कहेंगे । अब रहा जघन्य अनुभागबन्धका विचार, सो प्रथक दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्ध जिनके होता है, उनका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। सातावेदनीय
आदिका जघन्य अनुभागबन्ध यथासम्भव चार, तीन या दो गत्तिके जीव मध्यम परिणामोंसे करते हैं। इनका स्पर्शन सर्व लोक होनेसे यह उक्त प्रमाण कहा है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका जघन्य अनुभागबन्ध चारों गतिके संज्ञी पश्चन्द्रिय जीव करते हैं, किन्तु यह बन्ध करते समय एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात नहीं होता यथासम्भव अन्यत्र भी नहीं होता, इसलिए इनके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवीका स्पशन 'कुछ कम आठ बटेचौदह राजु और कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। नरकायु, देवायु और आहारकद्विकका भङ्ग क्षेत्रके समान है,यह स्पष्ट ही है। मनुष्यायुका जघन्य अनुभागबन्ध तियश्च और मनुष्य करते हुए भी एकेन्द्रिय जीव भी करते हैं, इसलिए इसके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन सब लोकप्रमाण कहा है। तथा देव भी विहारादिके समय इसका अजघन्य अनभागबन्ध करते हैं, इसलिए इसके अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कल कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण अलगसे बतलाया है। तिर्यश्च और मनुष्य मारणान्तिक समुद्घातके समय भी नरकगतिद्विकका जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्ध करते हैं, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राज प्रमाण कहा है । ऐशान कल्प तकके देवोंमें मारणान्तिक समुद्घात करनेवाले तिर्यञ्च और मनुष्यके देवगतिद्विकका जघन्य अनुभागबन्ध सम्भव है। ऐसा मानने पर इनके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम डेढ़ बटे चौदह राजूप्रमाण प्राप्त होता है और सहस्त्रार कल्प तकके देवोंमें मारणान्तिक समुद्घात करनेवाले जीवोंके भी यह जघन्य अनुभागबन्ध सम्भव है, ऐसा मानने पर इनके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम पाँच बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है । इनका अजघन्य अनुभागबन्ध करनेवाले जीव सर्वार्थसिद्धि तक मारणान्तिक समुद्घात करते हैं और इनका स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजूसे अधिक नहीं है, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। जो पञ्चन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करते हैं, उनके भी पञ्चन्द्रियजाति आदिका जघन्य अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिए इनके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। जो देव बादर एकेन्द्रियोंमें ऊपर सात राजूके भीतर मारणान्तिक समुद्घात करते हैं, उनके भी औदारिकशरीर आदिका जघन्य अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिए इनके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम
आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। जो तिर्यश्च और मनुष्य नारकियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करते हैं, उनके भी वैक्रियिकद्विकका जघन्य अनुभागबन्ध होता है। तथा देव और नारकियोंमें समुद्घात करते समय इनका अजघन्य अनुभागबन्ध भी होता है, इसलिए इनके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण
और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका कुछ कम बारह बटे चौदह राजुप्रमाण स्पर्शन कहा है। ऐशान तकके देवोंके विहारादिके समय भी आतपका जघन्य अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिए इसके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ वटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका जघन्य अनुभागबन्ध मिथ्यात्वके अभिमुख हुए मनुष्य असंयत सम्यग्दृष्टि करते हैं, इसलिए इसके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है और तिर्यञ्चोंके सिवा तीनों गतिके जीवोंके यथायोग्य इसका बन्ध सम्भव है, इसलिए इसके अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है ।
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फोसणपरूवणा
१५ ३७७. णिरएस पंचणा०-णवदंस०-मिच्छ०-सोलसक०-सत्तणोक०-तिरिक्ख.. अप्पसत्थ०४-तिरिक्वाणु०--उप०--णीचा०--पंचत० ज० खेत०, अज० छच्चों। दोवेदणी०-इत्थि०-णस-पंचिं०-ओरालि०-तेजा०-क०-छस्संठग०-ओरा० अंगो०-छस्संघ० पसत्य०४---अगु०३-[ उज्जो०-] दोविहा०-तस०४-थिरादिछयु०-णिमि० ज० अज. छ० । दोआउ०-मणुस०-मणुसाणु०-तित्थ०-उच्चा० ज० अज० खेत्तः । एवं सत्तमाए पुढवीए । छसु उवरिमासु एसेव भंगो । गवरि तिरिक्ख०-तिरिक्खाणु०-णीचा० सादभंगो । एवं अप्पप्पणो रज्जू भाणिदव्वं । इत्थि०-णवंस० ज० खेत०।
३७८. तिरिक्खेसु पंचणा०-छदंस०-अहक०--सत्तणोक०--पंचिं०--तेजा०-क०पसत्यापसत्थ०४-[ अगुरु०४- ]तस०४-णिमि०-पंचंत० ज० छ०, अज० सव्वलो।
३७७. नारकियोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, सात नोकषाय, तिर्यञ्चगति, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो वेदनीय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पश्चोन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, छह संस्थान, औदारिकश्राङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, उद्योत, दो विहायोगति, प्रस चतुष्क, स्थिर आदि छह युगल और निर्माणके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो आयु, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, तीर्थंकर और उच्चगोत्रके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इसी प्रकार सातवीं पृथिवीमें जानना चाहिए। पहलेकी छह पृथिवियों में यही स्पर्शन जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें तिर्यश्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका भङ्ग सातावेदनीयके समान है। इसी प्रकार अपनी-अपनी रज्जु कहना चाहिए। तथा इनमें स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है।
विशेषार्थ-सामान्य नारकियोंका स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण है, इसलिए यहाँ कुछ प्रकृतियों के सिवा शेष सब प्रकृतियोंके अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा है और सातावेदनीय आदिका जघन्य अनुभागबन्ध मारणान्तिक समुद्घातके समय भी होता है, इसलिए इनके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका भी उक्त प्रमाण स्पर्शन कहा है। मात्र पाँच ज्ञानावरणादिके जघन्य अनुभागबन्धके स्वामीको तथा दो आयु आदिके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धके स्वामीको देखते हुए यह लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है, इसलिए यह क्षेत्रके समान कहा है। प्रथमादि पृथिवियोंमें अपना-अपना स्पर्शन समझ कर सब प्ररूपणा इसी प्रकार कहनी चाहिए। केवल तिर्यश्चगतित्रिकका जघन्य अनुभागबन्ध इन पृथिवियोंमें मिथ्यादृष्टि नारकी परिवर्तमान मध्यम परिणामोंसे करते हैं। अतः यहाँ इनका भङ्ग सातावेदनीयके समान कहा है।
३७. तिर्यश्चोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण,पाठ कषाय, सात नोकषाय, पञ्चन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क, निर्माण और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह
१. ता. प्रतो तेजाक० छस्संठा• तेजाक० छस्संठा० (१) प्रा. प्रतौ तेजाक० पंचसंठा इति पाठः। २. ता.श्रा०प्रत्योः अप्पसत्थ०४ इति पाठः । ३. ताश्रा०प्रेत्योः थिरादिछ. णिमि. इति पाठः।
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महापंथे अणुभागबंधाहियारे थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अहक०--णqस०-ओरा०अंगो०--आदाव० ज० खेतभंगो। अज. सव्वलो० । साददंडओ ओघो। इत्थि० ज० दिवड्ड०, अज० सव्वलो । दोआउ०-वेव्वियछ० ओघं । मणुसाउ० ज. अज. लो. असंखें सव्वलो० । ओरा. ज. लो० असंखें सव्वलो०, अज. सव्वलो० । तिरिक्व०-तिरिक्वाणु०णीचा. खेत्तभंगो । उ० ज० सत्तचौद०, अज० सव्वलो० ।
राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, आठ कषाय, नपुंसकवेद, औदारिक माङ्गोपाङ्ग और आतपके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सातावेदनीयदण्डकका भङ्ग पोषके समान है । स्त्रीवेदके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम डेढ़ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो आयु और वैक्रियिकछहका भङ्ग ओघके समान है। मनुष्यायुके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । औदारिकशरीरके जघन्य अनुभागके बन्धक जीषोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण
और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तिर्यश्चगति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका भङ्ग क्षेत्रके समान है। उद्योतके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम सात बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
विशेषार्थ-तिर्यञ्चोंका स्पर्शन सब लोक प्रमाण होनेसे यहाँ एकेन्द्रियोंमें बँधनेवाली प्रकृतियोंके अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन सब लोक कहा है। जहाँ विशेषता होगी उसे अलगसे कहेंगे। नारकियोंमें और देवोंमें मारणान्तिक समुद्घात करनेवाले जीवोंके भी स्वामित्वके अनुसार पाँच ज्ञानावरणादिका जघन्य अनुभागबन्ध होता है, इसलिए इनके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका कुछ कम छह बटे चौदह राजुप्रमाण स्पर्शन कहा है। स्त्यानगृद्धि आदिका जघन्य अनुभागबन्ध पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चोंके स्वस्थानमें ही सम्भव है, इसलिए इनके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। स्त्रीवेदका जघन्य अनुभागबन्ध करनेवाले तिर्यञ्चोंके ऐशान कल्प तकके देवोंमें मारणान्तिक समुद्घात करना सम्भव है, इसलिए इसके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम डेढ़ बटे चौदह राजप्रमाण कहा है। मनुष्यायुका जघन्य अनुभागबन्ध एकेन्द्रिय जीव भी करते हैं। किन्तु इनका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही है और अतीत स्पर्शन सब लोक प्रमाण है। इसके अजघन्य अनुभागबन्धकी अपेक्षा भी यही स्पर्शन जानना चाहिए । जो एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्घात करते हैं, उनके भी औदारिकशरीरका जघन्य अनुभागबन्ध होता है, इसलिए इसके जघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंका लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोक प्रमाण स्पर्शन कहा है । तिर्यश्चगतित्रिकका जघन्य अनुभागबन्ध बादर अग्निकायिक और बादर वायुकायिक जीव करते हैं, इसलिए इनके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान लोकके संख्यातवें भामप्रमाण प्राप्त होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। जो ऊपर बादर एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करते हैं, उनके भी उद्योतका जघन्य अनुभागबन्ध होता है. इसलिए इसके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवों का कुछ कम सात बटे चौदह राजूप्रमाण स्पर्शन कहा है। शेष कथन सुगम है।
1. पा प्रतौ आदाउ० इति पाठः। २. आ. प्रतौ असंखे० सव्वलो. तिरिक्ख० इति पाठः ।
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फोसणपरूवणा
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३७६. पंचिंदि० तिरिक्ख ०३ पंचणा० - छदंसणा ०-- अहक० छण्णोक० -तेजा०क० --पसत्थापस ०४ - अर्गु ०४ - पज्ज० -- पत्ते ० - णिमि० - पंचंत० ज० छ०, अज० लो० असं० सव्वलो० | थीणगिद्धि ०३ - मिच्छ० - अडक० णवुंस० ज० खेत्त०, अज० लो० असं • सव्वलो ० । सादासाद० - तिरिक्ख० एइंदि० - ओरा०-- हुंड० - तिरिक्खाणु० थावरादि४- थिराथिर - सुभासुभ- दूर्भाग० - अणादे० - अजस०-णीचा० ज० अज० लो० असं सव्वलो ० ० । इत्थि० ज० अज० दिवड० । पुरिस० - णिरय ० -- णिरयाणु० - अप्पसत्थ० - दुस्सर० ज० ज० बच्चोंद० । चदुआउ०- मणुस ० -- तिष्णिजा० - [ चदुसंठा०- ] ओरा० अंगो०-- छस्संघ० - मणुसाणु० आदाव० ज० अज० खैत० । देवग०- समचदु०देवा ०- पसत्थ० - सुभग ० -- २ --सुस्सरं- आदें०6- उच्चा० ज० पंच चो०, अज० छच्चों० । पंचिंदि० - वेडव्वि० - वेडव्वि० अंगो०-तस० ज० छ०, अज० बारह ० । उज्जो ० - जसगि० ज० अज० सत्तचों० । बादर० ज० छ०, अज० तेरह० ।
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३७. न्द्रिय तिर्यञ्च त्रिकमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, आठ कषाय, छह नोक पाय, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णंचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, पर्याप्त, प्रत्येक, निर्माण और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्यानगृद्धितीन, मिध्यात्व, आठ कषाय और नपुंसकवेदके जघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, हुण्डसंस्थान, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, स्थावर आदि चार, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुभंग, अनादेय, अयशःकीर्ति और नीचगोत्रके जघन्य और अजधन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्रीवेदके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक कुछ कम डेढ़ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । पुरुषवेद, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, अप्रशस्त विहायोगति और दुःस्वरके जघन्य और अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। चार आयु, मनुष्यगति, तीन जाति, चार संस्थान, औदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और आपके जघन्य और अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। देवगति, समचतुरस्रसंस्थान, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रके जघन्य अनुभाग बन्धक जीवोंने कुछ कम पाँच बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पश्चेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकाङ्गोपाङ्ग और त्रसके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह वटे चौदह राजू और अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंने कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । उद्योत और यशःकीर्तिके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम सात बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। बादरके जघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू और अजधन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम तेरह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
१. ता० प्रा० प्रत्योः अगु०३ इति पाठः । २. ता० प्रा० प्रत्योः चदुबादि श्रोरा • अंगो ● इति पाठः । ३. श्रा० प्रतौ पसत्थ० सुस्सर० इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ३८०. पंचिंतिरिक्खअपज्जत्तएमु पंचणा०--णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक०सत्तणोक०-अप्पसत्थ०४-उप०-पंचंत० ज० खेत०, अज० लो० असं० सव्वलो० । सादासाद-तिरिक्ख०-एइंदि०--ओरा-तेजा.-क०--हुंड०--पसत्थ०४-तिरिक्खाणु०अगु०३-थावर-मुहुम-पज्जत्तापज्जत्त-पत्ते०-साधार०-थिराथिर०-सुभासुभ-दूभग-अणादे०अजस-णिमि०-णीचा० ज० अज० लो० असं० सव्वलो० । इत्थि०-पुरिस०-दोआउ०
विशेषार्थ-प्रथम दण्डककी प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन जिस प्रकार सामान्य तिर्यश्चोंके घटित करके बतला आये हैं, उसी प्रकार यहाँ भी घटित कर लेना चाहिए। पञ्चन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकका स्वस्थान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है और एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करने पर सब लोक प्रमाण है। पाँच ज्ञानावरणादिके अजघन्य अनुभागबन्धके समय उक्त स्पर्शन सम्भव है, इसलिए यह उक्त प्रमाण कहा है। आगे भी जिन प्रकृतियोंका जघन्य या अजघन्य यह स्पर्शन कहा हो, उसे इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए । स्त्यानगृद्धि तीन आदिका जघन्य अनुभागबन्ध स्वस्थानमें ही सम्भव है, इसलिए इनके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। ऐशान कल्पतककी देवियोंमें मारणान्तिक समुद्घातके समय भी स्त्रीवेदका जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्ध होता है, इसलिए इसके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका कुछ कम डेढ़ बटे चौदह राजूप्रमाण स्पर्शन कहा है । देवोंमें मारणान्तिक समुद्घात करनेवाले तिर्यश्चोंके पुरुषवेदका और नारकियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करनेवाले तिर्यञ्चोंके नरकगति आदिका दोनों प्रकारका अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण स्पशन कहा है । सहस्रारकल्पतकके देवोंमें मारणान्तिक समुद्घात करनेवाले तिर्यञ्चोंके देवगति आदिका जघन्य अनुभागबन्ध और आगे तकके देवोंमें मारणान्तिक समुद्घात करनेवाले तिर्यञ्चोंके देवगति
आदिका अजघन्य अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक तिर्यश्चोंके क्रमसे कुछ कम पाँच और कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण स्पर्शन कहा है । देवोंमें मारणान्तिक समुद्घात करनेवाले पश्चन्द्रियजाति आदिका जघन्य तथा नारकियों और देवोंमें मारणान्तिक समुद्घात करनेवाले के इनका अजघन्य अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिए इनके जघन्य
और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्रमसे कुछ कम छह बटे चौदह राजू व कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। ऊपरके बादर एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करनेवाले के उद्योत और यशःकीर्तिका जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम सात बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। नार
और नारक व देवोंके साथ ऊपरके बादर एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्घात करनेवाले तिर्यञ्चोंके क्रमसे बादर प्रकृतिका जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिए इसके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक तिर्यञ्चोंका स्पर्शन कमसे कुछ कम छह बटे चौदह राजू व तेरह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है । शेष कथन स्पष्ट ही है ।
२८०. पञ्चन्द्रियतिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलहकषाय, सात नोकषाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण क्षेत्र का स्पर्शन किया है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, तिर्यश्चगति, एकेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क तिश्चर्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशाकीर्ति, निर्माण और नीचगोत्रके जघन्य
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फोसपरूवणा
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मणुस ० चदुजी ० - पंचसंठा० श्ररालि • अंगो०- छस्संघ०-- मणुसाणु ० - आदाव ०. ० दोविहा०तस० - सुभगं - दोसर ०--आदे--उ -- उच्चा० ज० अज० लो० असं० । उज्जो ०-- बादर जस० जह० अज० सत्तचों० । एवं सव्वापज्जत्तगाणं सव्वविगलिंदियाणं बादर पुढ ० - आउ०ते ० - वाड ० - पत्ते ० पज्जत्ताणं च । णवरि बादरवाऊणं यम्हि लो० असंखें० तम्हि लो० असंखेज्ज • कादव्वो ।
३८१. मणुस ०३ पंचणा० णवदंस०--मिच्छ०-- सोलसक० सत्तणोक ०--तेजा०क०-पसत्थापसत्थ०४ - अगु०४ - पज्जत - पत्ते ० - णिमि० पंचंत० ज० त०, अज० लो० सं० सव्वलो० । सादासाददंड पंचिदियतिरिक्खभंगो । उज्जो० ज० अर्ज सत्त
और अन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद, दो आयु, मनुष्यगति, चार जाति, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, आतप, दो विहायोगति, त्र, सुभग, दो स्वर, श्रदेय और उच्चगोत्रके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। उद्योत, बादर और यशःकीर्तिके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम सात बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार सब अपर्याप्त, सब विकलेन्द्रिय, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त और बादर प्रत्येक वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीवों के जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि जहाँ लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है, वहाँ वायुकायिक जीवों के लोकके संख्यातवें भागप्रमाण कहना चाहिए ।
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विशेषार्थ - प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियों का जघन्य अनुभागबन्ध संज्ञी जीव सर्वविशुद्ध या तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामोंसे करते हैं, इसलिए इनके जघन्य अनुभाग के बन्धक जीवों का स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। पचेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्तकों का स्वस्थान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है और मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा स्पर्शन सर्वलोकप्रमाण हैं । पाँच ज्ञानावरणादिका अजघन्य अनुभागबन्ध इनके हो सकता है, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका उक्त प्रमाण स्पर्शन कहा है। आगे जिन प्रकृतियोंके जघन्य या अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका उक्त प्रमाण स्पर्शन कहा है, वहाँ भी ऐसा ही जानना चाहिए | स्त्रीवेद आदि ऐसी प्रकृतियाँ हैं जो अधिकतर त्रसादिसम्बन्धी है, आयुका बन्ध मारणान्तिक समुद्घातके समय होता नहीं और आतप एकेन्द्रियसम्बन्धी होकर भी उसका उदय बादर पर्याप्त पृथिवीकायिक जीवों में होता है, इसलिए इन सब प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। जो ऊपर सात राजू के भीतर बादर एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्घात करते हैं, उनके भी उद्योत आदिका जघन्य और अन्य अनुभागबन्ध सम्भव है; इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंका कुछ कम सात बटे चौदह राजुप्रमाण स्पर्शन कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है ।
३८१. मनुष्यत्रिक में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिध्यात्व, सोलह कषाय, सात नोकषाय, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्ण चतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, पर्याप्त, प्रत्येक, निर्माण और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सातावेदनीय और असातावेदनीयदण्डकका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय
१. ता०श्रा० प्रत्योः मणुस ० ३ चदुजा ० इति पाठः । २. ता०श्रा० प्रत्योः तस४ सुभग इति पाठः । ३. ता० प्रतौ ज० ज० श्रज० इति पाठः ।
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महापंधे अणुभागबंधाहियारे चौ । बादरजहणं खेतभंगो। अज० सत्तचों । सैसाणं ज० अज० खेतभंगो ।
३८२. देवेसु पंचणा०-णवदंस-मिच्छ०-सोलसक०-सत्तणोक-अप्पसत्य४उपे०-पंचंत० ज० अह०, अज. अह-णव० । सादासाद०-तिरिक्ख०-एइंदिय०-ओरा०तेजा-क०-हुंड०-पसत्थ०४-तिरिक्वाणु०-अगु०३-उज्जो०-थावर-बादर-पज्जत्त-पत्तेथिराथिर-सुभासुभ-भग-अणादें-जस०-अजस०-णिमि०-णीचा० ज० अज. अह-णव०। इत्थि०-पुरिस०-दोआउ०-मणुस०--पंचिं०-पंचसंठा--ओरालि०अंगो०--छस्संघ०-मणुसाणु०-आदाव०-दोविहा०--तस०--सुभग-दोसर०-आदें--तित्थ०-उच्चा० ज० अज० अहः । एवं सव्वदेवाणं अप्पप्पणो फोसणं णेदव्वं । तिर्यञ्चोंके समान है। उद्योतके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम सात बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । बादरके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम सात बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है।
विशेषार्थ यहाँ प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्ध जो जीव करते हैं, उनका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। तथा उक्त मनुष्योंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा सर्वलोक प्रमाण होनेसे उक्त प्रकृतियोंके अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका उक्त प्रमाण स्पर्शन कहा है। जो ऊपर बादर एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करते हैं, उनके उद्योतके जघन्य और अजघन्य अनुभागका बन्ध सम्भव है, इसलिए इसके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका कुछ कम सात बटे चौदह राजूप्रमाण स्पर्शन कहा है। बादरके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका कुछ कम सात बटे चौदह राजूप्रमाण स्पर्शन इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। शेष कथन स्पष्ट ही है ।
३८२. देवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, सात नोकषाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम पाठ बटे चौदह राजु और कुछ कम नौ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान,प्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, उद्योत, स्थावर, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, यश-कीर्ति, अयश:कीर्ति, निर्माण और नीचगोत्रके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राज और कुछ कम नौ बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद, दो आयु, मनुष्यगति, पञ्चन्द्रिय जाति, पाँच संस्थान, औदारिकाङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, पातप, दो विहायोगति, त्रस, सुभग, दो स्वर, आदेय, तीर्थङ्कर और उच्चगोत्रके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार सब देवोंके अपना-अपना स्पर्शन जानना चाहिये।
विशेषार्थ-एकेन्द्रियोंमें समुद्घात करते समय पाँच ज्ञानावरणादिका जघन्य अनुभाग
१. श्रा० प्रती अप्पसत्य उप० इति पाठः।
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फोसणपरूषणा
१९१ ३८३. एइंदिएसु पंचणा०-णवदंस०-मिच्छ०-सोलसक०-णवणोक०-तिरिक्ख.. ओरा०-अंगों'०-अप्पसत्य०४-तिरिक्खाणु०-उप०-आदा०-णीचा०-पंचंत. ज. लो. संखें, अज० सव्वलो० । दोवेदणीय-तिरिक्खाउ०-मणुस-पंचजा-ओरा-तेजा०क०--छस्संठा०---छस्संघ०--पसत्थ०४-मणुसाणु०--अगु०३-दोविहा०-तसव्यावरादिदसयुग०- [ णिमि०-] उच्चा० ज० अज० सव्वलो० । मणुसाउ० तिरिक्खोघं । उज्जो० ज० सत्तचोद०, अज० सव्वलो०।।
३८४. बादरपज्जत्तापज्जत्त० पंचणा-णवदंस-मिच्छ०-सोलसक०-सत्तणोकतिरिक्ख०-अप्पसत्य०४-तिरिक्वाणु०-उप०-णीचा०-पंचंत० ज० लो० संखें, अज. सव्वलो० । सादासाद०--एइंदि०-ओरा०-तेजा--क०--हुंड०--पसत्थ०४-अगु०३बन्ध, और स्त्रीवेद आदिका दोनों प्रकारका बन्ध नहीं होता, इसलिए इनकी अपेक्षा कुछ कम पाठ बटे चौदह राजूप्रमाण स्पर्शन कहा है । तथा एकेन्द्रियोंमें मारणास्तिक समुद्घात करते समय
पाँच ज्ञानावरणादिका अजघन्य अनुभागबन्ध और सातावेदनीय बादिका दोनों प्रकारका अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिए इनकी अपेक्षा कुछ कम पाठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौ बटे चौदह राजूपमाण स्पर्शन कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है।
३८३. एकेन्द्रियोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, तिर्यश्चगति, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तियञ्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, पातप, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके संख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । दो वेदनीय, तिर्यश्चायु, मनुष्यगति, पाँच जाति, औदारिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, छह संस्थान, छह संहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु. त्रिक, दो विहायोगति, त्रसस्थावर आदि दस युगल, निर्माण और उच्चगोत्रके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। मनुष्यायुका भङ्ग सामान्य तियश्चोंके समान है। उद्योतके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम सात बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
विशेषार्थ- एकेन्द्रियों में पाँच ज्ञानावरणादिका जघन्य अनुभागबन्ध बादर एकेन्द्रिय जीव सर्वविशुद्ध परिणामोंसे करते हैं, इसलिए इनके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन लोकके संख्यातवें भागप्रमाण कहा है । एकेन्द्रिय जीव सब लोकमें पाये जाते हैं, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका सब लोक प्रमाण स्पर्शन कहा है। दो वेदनीय आदिका जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्ध सबके होता है, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन सब लोक प्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है। ____३८४. बादर पर्याप्त और अपर्याप्त एकेन्द्रियोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, सात नोकषाय, तिर्यश्चगति, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी, उपघात, नीच. गोत्र और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, एकेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्ड.
१. श्रा० प्रतौ तिरिक्ख० श्रोलि• ओरा अंगो० इति पाठः। २. ता०पा प्रत्योः उज्जो जस. ब.इति पाठः।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे थावर-सुहुम-पज्जत्तापज्जत-पत्ते०-साधार०--थिराथिर-सुभासुभ--भग-अणादें-अजस०णिमि० ज० अज० सव्वलो० । इत्थि०-पुरिस०-तिरिक्खाउ०--चदुजा०--पंचसंठा
ओरा०अंगो०-छस्संघ०-पादाव०-दोविहा०-तस-सुभग-दोसर०-आदें ज० अज० लो. संखें । मणुसाउ०-मणुस०३ ज. अज० लो० असं० । [ उज्जो०-बादर-जस० ज० अज सत्तचो० । ] सव्वसुहुमाणं सव्वपगदीणं ज० अज. सव्वलो० । मणुसाउ० ज० अज. लो असं० सव्वलो०।
३८५. पंचिं०२ पंचणा०-णवदंस०-मिच्छ०-सोलसक०-छण्णोक०--तिरिक्ख०अप्पसत्य०४-तिरिक्खाणु०--उप०-णीचा०--पंचंत० [ज.] खेत्त०, अज. अह. सव्वलो० । सादासाद०--एइंदि०-हुंड०-थावर०--थिराथिर-सुभासुभ-दूभग--अणादेंसंस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशाकीर्ति और निर्माणके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, तिर्यश्चायु, चार जाति, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, भातप, दो विहायोगति, त्रस, सुभग, दो स्वर और प्रादेयके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। मनुष्यायु और मनुष्यगतित्रिकके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । उद्योत, बादर और यशःकीर्तिके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम सात बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सब सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें सब प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने सव लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। मनुष्यायके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
विशेषार्थ-इन जीवोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके संख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन सब लोकप्रमाण है। इसलिए इस स्पर्शन और स्वामित्वको ध्यानमें रखकर यहाँ सब प्रकृतियों के जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कहा गया है। विशेषताका स्पष्टीकरण अनेक वार कर आये हैं। इन जीवोंके उच्चगोत्रका बन्ध मनुष्यगति आदिके साथ ही सम्भव है, और मनुष्यायु आदिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन हर अवस्थामें लोकके असंख्यातवें भागसे अधिक नहीं प्राप्त होता, इसलिए वह उक्त प्रमाण कहा है। उद्योत आदिका बन्ध या तो स्वस्थानमें होता है या ऊपर सात राजुके भीतर एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करते समय होता है, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवांका स्पर्शन कुछ कम सात बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है । सूक्ष्म जीव सर्वत्र होते हैं, इसलिए इनमें सब प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन सब लोकप्रमाण कहा है। मनुष्यायुका बन्ध करनेवाले सूक्ष्म जीवोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है और अतीत स्पर्शन सब लोकप्रमाण है, इसलिए वह उक्त प्रमाण कहा है।
३८५. पश्चन्द्रिय और पञ्चन्द्रिय पर्याप्त जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, छह नोकषाय, तिर्यञ्चगति, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, स्थावर,
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फोसणपरूषणा
१९३ अजस० ज० अज० अहे'. सव्वलो० । इथि०--पंचिंदि०--पंचसंग-ओरा०अंगो०छस्संघ०-दोविहा०-तस०-सुभग-दोसर०-आदें ज. अज. अह-बारह० । पुरिस० ज० खेत०, अज. अह-बारह । णवूस० ज० अह-बारह०, अज. अह० सव्वलो० । दोआउ०-तिण्णिजादि-आहारदु० ज० अज० खेत०। दोआउ०-तित्थ० ज० खेत्त०, अज. अह । णिरय०-णिरयाणु० ज० अज० छ० । मणुसग०-मणुसाणु०-आदाव०[उच्चा० ] ज. अज. अह। देवग०-देवाणु० ज० पंचचौ०, अज. छच्चों। ओरा०-तेजा.-क०-पसत्यव०४-अगु०३-पजा-पत्ते-णिमि० ज० अह-तेरह०, अज० अह. सव्वलो० । [ वेउव्वि०-वेउन्वि०अंगो० ओघं। 1 उज्जो०-बादर०-जस० ज० अज. अह-तेरह० । मुहुम-अपज्ज०-साधार० ज० अज० लो० असंखें सव्वलो। एवं तस०२-पंचमण-पंचवचि०-चक्खु०-सण्णि ति। स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय और अयशःकीर्तिके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजु और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्रीवेद, पञ्चन्द्रियजाति, पाँच संस्थान,औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, दो विहायोगति,त्रस, सुभग,दो स्वर और श्रादेयके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवों ने कुछ कम आठ बटे चौहह राजु और कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । पुरुषवेदके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवों ने कुछ कम आठ बटे चौदह राजु और कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । नपुंसकवेदके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवो ने कुछ कम आठ बटे चौदह राजु और कुछ कम बारह बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो आयु, तीन जाति और आहारकद्विकके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। दो आयु और तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवों ने कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। नरकगति और नरकगत्यानुपूर्वीके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवों ने कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, आतप और उच्चगोत्रके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवो ने कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। देवगति और देवगत्यानुपूर्वीके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवो ने कुछ कम पाँच घटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवों ने कुछ कम छह बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगरुलपत्रिक, पर्याप्त प्रत्येक और निर्माणके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवांने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजू प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवो ने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिक आङ्गोपाङ्गका भङ्ग ओघके समान है । उद्योत, बादर और यश:कीर्तिके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवों ने कुछ कम आठ बटे चौदह राजु और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सूक्ष्म, अपर्याप्त
और साधारणके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवों ने लोकके असंख्यातवें भाग और सब लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार त्रसद्विक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, चक्षुदर्शनी और संज्ञी जीवों के जानना चाहिए ।
१. ता. प्रतौ ज. अह इति पाठः । २. ता० प्रती अपज्ज सादा० ज० इति पाठः ।
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महाधे अणुभागबंधाहियारे
३८६. पुढवि -- श्राउ० पंचणा०--णवदंस०-- मिच्छ० - सोलसक० -- णवणोक० - ओरा ० अंगो० ० - अप्पसत्य ० ४ - उप० - आदाव० पंचंत० ज० लो० सं०, अज० सव्वलो ० ।
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विशेषार्थ — जो पाँच ज्ञानावरणादिका जघन्य अनुभागबन्ध करते हैं, उनका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागसे अधिक नहीं प्राप्त होता, इसलिए यह क्षेत्र के समान कहा है। तथा इनका स्वस्थान विहारादिके समय और एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्घात करते समय अजघन्य अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवों का स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोकप्रमाण कहा है। आगे जहाँ भी कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोकप्रमाण स्पर्शन कहा है, वह इस प्रकार घटित कर लेना चाहिए। स्त्रीवेद आदिका स्वस्थान विहारादिके समय तथा नीचे छह व ऊपर छह इस प्रकार मारणान्तिक समुद्घात द्वारा कुछ कम बारह राजूका स्पर्शन करते समय जघन्य व अजघन्य अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिए इनके जघन्य व अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीवों का कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण स्पर्शन कहा है । पुरुषवेदका जघन्य अनुभागबन्ध क्षपकश्रेणिमें होता है, इसलिए इसके जघन्य अनुभाग के बन्धक जीवो का स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। इसके अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवों के स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजूका खुलासा पहले कर आये हैं, उसी प्रकार यहाँ भी व आगे भी जानना चाहिए । तिर्यखायु, मनुष्यायु व तीर्थङ्कर प्रकृतिका अजघन्य अनुभागबन्ध स्वस्थान विहारादिके समय सम्भव है, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवों का स्पर्शन कुछ कम आठ बटे प्रमाण कहा है। यद्यपि तीर्थङ्कर प्रकृतिका अजघन्य अनुभागबन्ध मारणान्तिक समुके समय भी होता है, पर इस कारण स्पर्शन में अन्तर नहीं पड़ता । मनुष्यगति आदिके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका कुछ कम आठ बटे चौदह राजू प्रमाण स्पर्शन इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। नारकियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करते समय भी नरकगतिद्विकका जघन्य व अजघन्य अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिए इनके जघन्य व अजघन्य अनुभाग बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजू प्रमाण कहा है। जो सहस्रार कल्पतक देवोंमें मारणान्तिक समुद्घात करते हैं, उनके भी देवगतिद्विकका जघन्य अनुभागबन्ध होता है और इनमें व इनसे ऊपरके देवों में भी मारणान्तिक समुद्घात करनेवालोंके इनका अजघन्य अनुभागबन्ध होता है, अतः इनके जघन्य व अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्रमसे कुछ कम पाँच बटे चौदह राजू और कुछ कम छह बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है । विहारादिके समय तथा नीचे छह राजू और ऊपर सात राजू कुल कुछ कम तेरह राजूके भीतर मारणान्तिक समुद्घात करनेवाले जीवोंके औदारिकशरीर आदिका जघन्य अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिये इनके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ
कुछ कम तेरह बटे राजूप्रमाण कहा है। इसी प्रकार उद्योत आदिके जघन्य और अजघन्य अनुभाग बन्धक जीवोंका उक्त प्रमाण स्पर्शन घटित कर लेना चाहिए । स्वस्थानमें व एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्घात करते समय भी सूक्ष्म आदिका दोनों प्रकारका अनुभागबन्ध सम्भव है, अत: इनके जघन्य और अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण कहा है। शेष जो स्पर्शन स्पष्ट नहीं किया है, उसे पूर्वापर देखकर व स्वामित्व देखकर समझ लेना चाहिए । यहाँ अन्य जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं, उनमें यह स्पर्शन अविकल घटित हो जाता है, इसलिए उनमें पञ्चन्द्रियद्विकके समान कहा है ।
३८६. पृथिवीकायिक और जलकायिक जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, आतप और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन
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कोसपरूवणा
सादासाद० - तिरिक्खा उ० - दोगदि ० पंचजा ० - वस्संठा ० - इस्संघ० - दोआणु ०--दोविहा०तसथावरादिदसयुग ० - दोगो० ज० अज० सव्वलो० । मणुसाउ० तिरिक्खोघं । ओरा०-तेजा० क० - पसत्थ०४ - श्रगु ०३ - णिमि० ज० लो० असं० सव्वलो०, अज० सव्वलो० । उज्जो' ० ज० सत्तचों०, अज० सव्वलो० ।
0
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३८७. बादरपुढ० - आउ० पंचणा० णवदंस०--मिच्छ० - सोलसक० -- सत्तणोक ० अप्पसत्थ०४- उप०- पंचत० ज० खेत्त०, अज० सव्वलो० । सादासाद०-- तिरिक्ख ०एइंदि० - हुंड० - तिरिक्खाणु० - थावर० मुहुम० पज्ज० - अपज्ज० - पत्ते ० साधार०० - थिराथिरसुभासुभ- दूभग-- अणादें.. -- अजस०--णीचा० ज० अज० सव्वलो० । इत्थि० - पुरिस०
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किया है और अन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, तिर्यञ्चायु, दो गति, पाँच जाति, छह संस्थान, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति, स स्थावर आदि दस युगल और दो गोत्रके जघन्य और अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । मनुष्यायुका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चों के समान है । औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक और निर्माणके जघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंने लोकके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजधन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । उद्योतके जघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंने कुछ कम सात बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है और अजधन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
विशेषार्थं - उक्त बादर जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण है और ये जीव एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करते समय पाँच ज्ञानावरणादिका जघन्य अनुभागबन्ध करते नहीं, अतः इनके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण कहा । सातावेदनीया सब पृथिवी और जलकायिक जीव जघन्य अनुभागबन्ध करते हैं, अतः इनके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका सब लोकप्रमाण स्पर्शन कहा है । औदारिकशरीर आदिका अजघन्य अनुभागबन्ध करते हुए भी एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्घातके समय भी सम्भव है, इसलिए इनके जवन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन लोक के असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण कहा है। जो ऊपर सात राजूके भीतर मारणान्तिक समुद्घात करते हैं, उनके उद्योतका जघन्य अनुभागबन्ध सम्भव है; अतः इसके जघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम सात बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है। पृथिवीकायिक और जलकायिक जीव सब लोकमें पाये जाते हैं, अतः इनमें पाँच ज्ञानावरणादि सब प्रकृतियोंके अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवों का स्पर्शन सब लोकप्रमाण कहा है। मनुष्यायुका भङ्ग स्पष्ट ही है ।
३८७. बादर पृथिवीकायिक और बादर जलकायिक जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, सात नोकषाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है । अजवन्य अनुभागके बन्धक जीवने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुभंग, अनादेय, अयशःकीर्ति और नीचगोत्रके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्र का स्पर्शन किया है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद,
१. ता० प्रतौ श्रसं सव्वलो उज्जो० इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे दोआउ०-मणुसग०-चदुजा०--पंचसंठा०-ओरा०अंगो०--छस्संघ०-मणुसाणु०-आदा०दोविहा०-तस०--सुभग-दोसर०-आदें-उच्चा० ज० अज० लो० असं । ओरा०-तेजा.क०-पसत्थ०४-अगु०३-णिमि० ज० लो० असं० सव्वलो०, अज० सव्वलो० । उज्जो०-बादर-जस० ज० अजे० सत्तचों।
३८८, बादरपुढ०-[ आउ०] अपज. पंचणा०-णवदंस०-मिच्छ०-सोलसक०सत्तणोक०--अप्पसत्थ०४-उप०-पंचंत० ज० खेत०, अज० सव्वलो० । दोवेद०-- तिरिक्ख०-एइंदि०--ओरा-तेजा-क०-हुंड०-पसत्थ०४-[तिरिक्खाणु०- ] अगु०३दो आयु, मनुष्यगति, चार जाति, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, आतप, दो विहायोगति, बस, सुभग, दो स्वर, आदेय और उच्चगोत्रके जघन्य
और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक और निर्माणके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। उद्योत, बादर और यश:कीर्तिके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम सात बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
विशेषार्थ-बादर पृथिवीकायिक और बादर जलकायिक जीव एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करते समय पाँच ज्ञानावरणादिका जघन्य अनुभागबन्ध नहीं करते, मात्र अजघन्य अनुभागबन्धके होनेमें कोई बाधा नहीं है। अतः इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्रमसे लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण कहा है । सातावेदनीय आदिका जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्ध मारणान्तिक समुद्घातके समय भी होता है। अतः इनके दोनों प्रकारके अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन सब लोक प्रमाण कहा है । स्त्रीवेद आदि प्रायः त्रस सम्बन्धी प्रकृतियाँ हैं। दो आयुका मारणान्तिक समुद्घातके समय बन्ध नहीं होता और बादर पृथिवीकायिक जीवोंमें उत्पन्न होनेवाले जीवोंके ही मारणान्तिक समुद्घातके समय प्रातपका बन्ध होता है। इसलिए इन स्त्रीवेद आदि प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। औदारिकशरीर आदिका स्वस्थानमें और मारणान्तिक समुदघातके समय दोनों अवस्थाओं में जघन्य अनुभागबन्ध सम्भव है। अतः इनके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण स्पर्शन कहा है। इनके अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन सब लोकप्रमाण है,यह स्पष्ट ही है । उद्योत आदिका स्वस्थान आदिमें और ऊपर सात राजुके भीतर मारणान्तिक समुद्घात करनेकी अवस्थामें भी दोनों प्रकारका अनुभागबन्ध सम्भव है। अतः इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम सात बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है ।
____३८८. बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त और बादर जलकायिक अपर्यात जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, सात नोकषाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात
और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो वेद,तियश्चगति, एकेन्द्रिय जाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, तियंञ्चगत्यानु
१. ता० प्रती जस० अज० इति पाठः ।
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फोसपरूवणा
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थावरादि०४ - पज्ज० -- पत्ते ० - थिराथिर -- सुभासुभ-- दूर्भाग ०--अणादें-- अजस ०० - णिमि०णीचा० ज० अज० सव्वलो ० । इत्थि० - पुरिस० - दो आउ० मणुस ० चदुंजा ० पंचसंठी०ओरालि० अंगो०--इस्संघ० मणुसाणु० - आदा ० दोविहा० -तस०-- सुभग- दोसर ०-आदें०उच्चा० ज० अज० लो० असं० । उज्जो०- बादर० - जस० मणुस ० अपज्ज० भंगो । एवं तेउ०- बाऊणं पि । णवरि वाऊणं बादरं एइंदियभंगो कादव्वो । 1
३८६. वणफदि-णियोद० पंचणा०-णवदंस०-मिच्छ० - सोलसक० - णवणोक ०अप्पसत्थ०४- उप०-पंचंत० ज० खेत०, अज० सव्वलो० । मणुसाउ० तिरिक्खोघं । सेसाणं ज० अज० सव्वलो० । बादरणियोद--पज्जत्तापज्जत्त -- बादरपत्ते ० अपज्जत्ताणं च बादर पुढविअपज्जत्तभंगो । बादरपत्तेय० बादरपुढविभंगो ।
३६०. कायजोगि० - कोधादि ०४ - अचक्खु०-भवसि ० - आहारए त्ति ओघभंगों । पूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, स्थावर आदि चार, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशःकीर्ति, निर्माण और नीचगोत्रके जघन्य और अजघन्य अनुभाग बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद, दो आयु, मनुष्यगति, चार जाति, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, आतप, दो विहायोगति, त्रस, सुभग, दो स्वर, आदेय और उच्चगोत्रके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। उद्योत, बादर और यशःकीर्तिका भङ्ग मनुष्य अपर्याप्तकों के समान है। इसी प्रकार अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंके भी कहना चाहिए। इतनी विशेषता है कि वायुकायिक जीवोंके बादर एकेन्द्रियोंके समान स्पर्शन करना चाहिए । विशेषार्थ-व - बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त और बादर जलकायिक पर्याप्त जीवोंके जिस प्रकार स्पष्टीकरण कर आये हैं, उसी प्रकार यहाँ भी कर लेना चाहिए। जो विशेषता कही है, उसे समझ लेना चाहिए ।
३८६. वनस्पतिकायिक और निगोद जीवों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिध्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, अप्रशस्त वचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है। अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । मनुष्यायुका भङ्ग सामान्य तिर्यश्वों के समान है। शेष प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। बादर निगोद पर्याप्त, बादर निगोद अपर्याप्त और बादर प्रत्येकशरीर अपर्याप्त जीवोंका भङ्ग बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त जीवोंके समान है, तथा बादर प्रत्येकशरीर जीवोंका भङ्ग बादर पृथिवीकायिक जीवोंके समान है ।
विशेषार्थ - वनस्पतिकायिक और निगोद जीवोंमें बादर जीव पाँच ज्ञानावरणादिका जघन्य अनुभागबन्ध करते हुए भी सब एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करते समय नहीं करते। श्रतः इनके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। शेष कथन सुगम है ।
३६०. काययोगी, क्रोधादि चार कषायवाले, अचतुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवों में
१. ता० प्रतौ मणुस० पंचसंठा० इति पाठः । २. ता० प्रतौ बरि वाणं पि वरि (?) बादर, श्रा० प्रतौ यावरि वाऊणं पि बादर इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे
0
०
ओरालियका ० तिरिक्खोघं । ओरालियमि० पंचणा० णवदंस० - मिच्छ०-सोलसक० णवणोक० [ओरा • अंगो०- ] अप्पसत्थ०४ - उप० - पंचंत० ज० त०, अज० सव्वलो ० | एवं आदा० । दोवेद - तिरिक्खाउ ० ०-- मणुस० पंचजा ० - वस्संठा ० - इस्संघ० - मणुसाणु०दो विहा० -तसथावरादिदसयुग०[० उच्चा० ज० अज० सव्वलो० । मणुसाउ०- - तिरिक्ख ०तिरिक्खाणु ० - उज्जो०- णीचा० तिरिक्खोघं । श्ररा० - तेजा ० ० क० पसत्थ०४ - अगु०३णिमि० ज० लो० असं ० सव्वलो०, अज० सव्वलो० | देवगदिपंच० खेत्तभंगो ।
३६१. वेउव्वियका० पंचणा० णवदंस० - मिच्छ० - सोलसक० - छण्णोक ००-अप्पसत्थ०४- उप०-पंचंत० ज० अ०, अज० अह-तेरह ० । दोवेद० - ओरा०-- तेजा ० क ०हुंड इ० - पसत्थ०४ - अगु० --पर० - उस्सा ० -- उज्जो ० - थिराथिर -- सुभासुभ--दूभग-अणादें
'
श्रधके समान भंग है। श्रदारिककाययोगी जीवों में सामान्य तिर्यों के समान भङ्ग है । औदारिकमिश्रकाय योगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार आतप प्रकृतिका भङ्ग जानना चाहिए। दो वेद, तिर्यश्चायु, मनुष्यगति, पाँच जाति, छह संस्थान, छह संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, दो विहायोगति, त्रस-स्थावर आदि दस युगल और उच्चगोत्रके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। मनुष्यायु, तिर्यञ्चगति, तिर्यगत्यानुपूर्वी, उद्योत और नीचगोत्रका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है । औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक और निर्माणके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवों ने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। देवगतिपञ्चकका भङ्ग क्षेत्रके समान है ।
O
विशेषार्थं - स्वामित्वको देखते हुए प्रथम दण्डकमें कही गईं प्रकृतियोंके व आतप प्रकृतिके जघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है, अतः क्षेत्र के समान कहा है । तथा औदारिक मिश्रकाययोगी जीव सब लोकमें पाये जाते हैं, अतः इनके अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंका स्पर्शन सब लोकप्रमाण कहा है। दो वेद आदिका कोई भी मिध्यादृष्टि जीव जघन्य अनुभागबन्ध करते हैं, अतः इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन सब लोकप्रमाण कहा है। श्रदारिकशरीर आदिका जघन्य अनुभागबन्ध संज्ञी पन्द्रियों के स्वस्थान आदि और मारणान्तिक समुद्घात के समय होता है। अतः इनके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण कहा है। इनके अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंका स्पर्शन सब लोकप्रमाण है, यह स्पष्ट ही है । देवगतिपञ्चकका बन्ध सम्यग्दृष्टि करते हैं, अतः इनके दोनों प्रकारके अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होनेसे वह क्षेत्र के समान कहा है। शेष कथन सुगम है । ३१. वैक्रियिककाय योगी जीवों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, छह नोकषाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, और पाँच अन्तररायके जघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो वेदनीय, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, प्रशस्त वर्णंचतुष्क, अगुरुलघु, परघात, उच्छ्वास, उद्योत, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुभंग,
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फोसणपरूषणा
जस० - अजस० - णिमि० ज० अज० अह-तेरह ० । इत्थि० पंचिं० पंचसंठा०--ओरा०अंगो० -- बस्संघ० - दोविहा० -तस०४ - सुभगं - दोसर० आदें० जे० अज० अट्ठ-बारह० । पुरिस० ज० अट्ठ०, अज० अठ-बारह० । णवुंस० ज० अट्ठ-बारह०, अज० अह-तेरह० । दोआउ०- मणुस ० मणुसाणु ० आदा० - तित्थ० उच्चा० ज० अज० अ० । तिरिक्ख०२णीचा० ज० त०, अज० अट्ठ-तेरह० । एइंदि० यावर० ज० अज० अट्ठ-णर्व० । वेव्वि० [ मिस्स०- ] आहार - आहारमि० खेत्तभंगो ।
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अनादेय, यशःकीर्ति, अयशः कीर्ति और निर्माणके जघन्य और अजघन्य अनुभाग बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्रीवेद, पञ्चेन्द्रियजाति, पाँच संस्थान, चौदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, दो विहायोगति, चतुष्क, सुभग, दो स्वर और आदेयके जघन्य और अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । पुरुषवेदके जघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ और कुछ कम बारह बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। नपुंसकवेद के जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो आयु, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, श्रातप, तीर्थङ्कर और उच्चगोत्र जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तिर्यञ्चगतिद्विक और नीचगोत्रके जघन्य अनुभाग बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है । अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया हैं । एकेन्द्रियजाति और स्थावरके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ और कुछ कम ata चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी और आहारक मिश्रा योगी जीवों में क्षेत्र के समान भङ्ग है ।
विशेपार्थ- पाँच ज्ञानावरणादिका जघन्य अनुभागबन्ध सम्यग्दृष्टि देव और नारकी करते हैं। इसमें भी स्त्यानगृद्धि तीन, मिध्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारका सम्यक्त्वके श्रभिमुख मिध्यादृष्टि करते हैं । इनका स्पर्शन कुछ कम आठ वटे चौदह राजूप्रमाण होनेसे पाँच ज्ञानावरणादिके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवों का स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा हैं । तथा तिर्यञ्चों, मनुष्यों और एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्घात करनेवाले नारकियों और देवों के भी इनका अजघन्य अनुभागबन्ध होता है; स्वस्थान श्रादिके समय तो होता ही है, इसलिए इनके अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ व कुछ कम तेरह बड़े चौदह राजूप्रमाण कहा है । आगे जिन प्रकृतियोंके जघन्य, अजवन्य या दोनों प्रकार के अनुभाग के बन्धक जीवों का कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजूप्रमाण स्पर्शन कहा है, उसे इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। जिनका कुछ कम बारह बढे चौदह राजूप्रमाण स्पर्शन कहा है, वहाँ नीचे छह और ऊपर छह इस प्रकार कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण स्पर्शन लेना चाहिए । जिनका कुछ कम नौ बटे चौदह राजूप्रमाण स्पर्शन कहा है, वहाँ एकेन्द्रियों में मारणान्तिकसमुद्घा कराके वह स्पर्शन लाना चाहिए। तात्पर्य यह है कि इन विशेषताओंको ध्यानमें रखकर और
१. ता० श्रा० प्रत्योः तस० सुभग० इति पाठः । २. आ० प्रतौ दोसर० ज० इति पाठः । ३. श्रा० प्रतौ ज० श्रणव ० इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे
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३२. कम्मइ० पंचणा ० छदंस०- बारसक० - सत्तणोक ० -- अप्पसत्य०४ - उप०पंचंत० ज० छ०, अज० सव्वलो० । थीणगिद्धि ०३ - मिच्छ०-- अनंताणुबं ०४ - इत्थि० - वुंस० पंचिं ० रा ० - तेजा ० क० - पसत्थ०४ - अगु०३ - उज्जो ० -तस०४ - णिमि० ज० ऍक्कारह०, अज० सव्वलो० । साददंडओ ओघो। तिरिक्ख० तिरिक्खाणु० - णीचा ० घं । देवगदिपंचगं खेत्तभंगो । सेसं ओरालिय० भंगो । आदा० ज० खेल ०, अज० सव्वलो० ।
२००
३६३. इत्थवेदे पंचणा० णवदंस० - मिच्छ० - सोलसक० - अप्पसत्थ०४ – उप ० - पंचत० ज० खेत्त०, अज० सव्वलो ० । एवं छण्णोक० । सादासाद० - तिरि०- एइंदि०हुंड० - तिरिक्खाणु० थावर० - थिराथिर -- सुभासुभ- दूभग-अणादें० - अजस ० णीचा० ज० अ० अ० सव्वलो ० । इत्थि० - मणुस० पंचसंठा ० - श्रोरा० गो० - इस्संघ० मणुसाणु०
स्वामित्वका विचारकर स्पर्शन का स्पष्टीकरण कर लेना चाहिए। शेष कथन स्पष्ट ही है ।
३६२. कार्मणकाययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, सात नोकषाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिध्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पञ्च ेन्द्रियजाति, श्रदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, उद्योत, त्रसचतुष्क और निर्माणके जघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंने कुछ कम ग्यारह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सातावेदनीय दण्डकका भङ्ग श्रोघके समान है । तिर्यगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका भङ्ग ओघके समान है । देवगतिपञ्चकका भङ्ग क्षेत्रके समान है । शेष भङ्ग श्रदारिककाययोगी जीवोंके समान है । आपके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका भङ्ग क्षेत्र के समान हैं । अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है ।
विशेषार्थ - कार्मणकाययोगका सर्व लोकप्रमाण स्पर्शन है । यहाँ जिन प्रकृतियोंके अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंका सब लोकप्रमाण स्पर्शन कहा है, वह इसी दृष्टिसे कहा है । पाँच ज्ञानावरणादिका जघन्य अनुभागबन्ध सम्यग्दृष्टि जीव करते हैं, इसलिए इनके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। कार्मणकाययोगमें नीचे छह और ऊपर पाँच राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन करनेवाले जीवोंके स्त्यानगृद्धि तीन आदिका जघन्य अनुभागहोता है, इसलिए इनके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका कुछ कम ग्यारह बटे चौदह राजूप्रमाण स्पर्शन कहा है । शेष प्रकृतियोंका स्पर्शन निर्दिष्ट स्थानोंको देखकर घटित कर लेना चाहिए। ३६३. स्त्रीवेदी जीवों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिध्यात्व, सोलह कषाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है । अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इसी प्रकार छह नोकषायों का भङ्ग है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिजाति, हुण्डसंस्थान, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, स्थावर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयश:कीर्ति और नीचगोत्र के जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । स्त्रीवेद, मनुष्यगति, पाँच संस्थान,
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movi
फोसणपरूवणा
२०१ आदाव-पसत्य-सुभग-सुस्सर-आदें-उच्चा० ज० अज. अहपुरिस०-दोआउ० ज० खेत्त०, अज. अह० । णस० ज० अह०, अज. अह. सव्वलो० । णिरय-देवाउ०तिण्णिजा-आहारदुग-तित्थ० खेत्तभंगो। णिरय०--णिरयाणु० ज० अज० छच्चों। देवग०-देवाणु० ज० पंचचो०, अज० छच्चों । पंचिं०-तस० ज० छच्चों, अज. अह-बारह । ओरा. ज. अह-णव०, अज. अह० सव्वलो। तेजा- [क०-] पसत्य०४-अगु०३-पज्ज०-पत्ते-णिमि० ज० अह-तेरह०, अज. अह. सव्वलो। वेउन्वि०-वेउवि०अंगो० ज० छ०, अज० बारह० । उज्जो०-जस० ज० अज. अहणव० । अप्पसत्थ०-दुस्सर० ज० अह०, अजे. अह-बारह। बादर० ज० अज.
औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, आतप, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सस्वर, आदेय और उच्चगोत्रके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पुरुषवेद और दो आयुके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। नपुंसकवेदके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवान कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पशन किया है। नरकायु देवायु, तीन जाति, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग क्षेत्रके समान है। नरकगति और नरकगत्यानुपूर्वीके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। देवगति और देवगत्यानुपूर्वीके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम पाँच बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पञ्चन्द्रियजाति
और उसके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। औदारिकशरीरके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजु और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तैजसशरीर, कामरणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, पर्याप्त, प्रत्येक और निर्माणके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू
और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिक आङ्गोपाङके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवों ने कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवों ने कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। उद्योत और अयशःकीर्तिके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवों ने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौ बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अप्रशस्त विहायोगति और दुःस्वरके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवों ने कुछ कम आठ बटे चौदह राजप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और बारह बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। बादरके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवो ने कुछ कम आठ बटे चौदह
१. ता. ज. अज० इति पाठः।
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महाधे अणुभाग धाहियारे
अह-तेरह ० | सुहुम ० - अपज्ज० - साधार० ज० अज० लो० असं० सव्वलो० ।
राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवों ने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है ।
विशेषार्थ - प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंके व छह नोकषायोंके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग है, अतः यह क्षेत्र के समान कहा है, तथा इनका अजघन्य अनुभागबन्ध एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घातके समय भी होता है। अतः इनके अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंका स्पर्शन सब लोकप्रमाण कहा है। स्त्रीवेदी जीवों का स्वस्थानविहार आदिकी अपेक्षा स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा स्पर्शन सब लोकप्रमाण है । इन दोनों अवस्थाओं में सातावेदनीय आदिका दोनों प्रकारका अनुभागबन्ध सम्भव है, अतः यह स्पर्शन उक्तप्रमाण कहा है। स्त्रीवेद आदिका जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्ध एकेन्द्रियों और नारकियों में मारणान्तिक समुद्घातके समय नहीं हो सकता मात्र आतप इसका अपवाद है । वह भी मारणान्तिक समुद्घातके समय यदि हो, तो बादर पृथिवीकायिकों में मारणान्तिक समुद्घात करते समय ही सम्भव है। इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। पुरुषवेदका जघन्य अनुभागबन्ध क्षपकश्रेणिमें होता है। तथा तिर्यवायु और मनुष्यायुका जघन्य अनुभागबन्ध मारणान्तिक समुद्घातके समय नहीं होता व तिर्यच और मनुष्य करते हैं, इसलिए इनके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान कहा है । इनके अजघन्य अनुभागबन्धका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण है, यह स्पष्ट ही है । नारकियों और एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्घातके समय नपुंसकवेदका जघन्य अनुभागबन्ध नहीं होता, इसलिए इसके जघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमारण कहा है। तथा स्वस्थान विहारादिके समय व नपुंसकों में मारणान्तिक समुद्घात करते समय भी इसका बन्ध होता है, इसलिए इसके अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवों का स्पर्शन कुछ कम श्राठ नटे चौदह राजू व सब लोकप्रमाण कहा है। नरकायु आदिके जघन्य और अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीवांका स्पर्शन क्षेत्र के समान है, यह स्पष्ट ही है। जो नारकियों में मारणान्तिक समुद्घात करते हैं, उनके भी नरकगतिद्विकका दोनों प्रकारका अनुभागबन्ध होता है। अतः इनके दोनों प्रकारके अनुभाग के बन्धक जीवो का स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। देवो में सहस्रार कल्पतक मारणान्तिक समुद्घात करनेवाले जीवों के देवगतिद्विकका जघन्य अनुभागबन्ध और सब देवों में मारणान्तिक समुद्घात करनेवाले जीवों के इनका अजघन्य अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंका क्रमसे कुछ कम पाँच और कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण स्पर्शन कहा है । तिर्यों और मनुष्यों के देवो में मारणान्तिक समुद्घात करते समय भी पचेन्द्रियजाति और त्रसका जघन्य अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिए इनके जघन्य अनुभाग बन्धक जीवों का स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। तथा स्वस्थानविहार आदिके समय व नीचे और ऊपर कुछ कम छह-छह राजूप्रमाण क्षेत्र के भीतर यथायोग्य मरणान्तिक समुद्घात करते समय भी इनका अजघन्य अनुभागबन्ध होता है, इसलिये इनके अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीवों का स्पर्शन कुछ कम आठ व कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। श्रदारिकशरीरका जघन्य अनुभागबन्ध देव करते हैं, इसलिए इसके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवो का स्पर्शन कुछ कम आठ व कुछ कम नौ बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। इसी प्रकार उद्योत व यशःकीर्तिके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवों का यह स्पर्शन
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wwamaniramor
फोसणपरूवणा
२०३ ३६४. पुरिसेसु पढमदंडओ विदियदंडओ इत्थिभंगो। इत्थि०--मणुस०-पंचसंठा०-ओरा०अंगो०-छस्संघ०-मणुसाणु०-आदा०-पसत्य-सुभग-सुस्सर-आदें-उच्चा० ज० अज. अहचोद० । पुरिस०--दोआउ०-तित्थ० ज० खेत०, अज. अह । णवूस. ज. अह०, अजह० अहचोदस० सव्वलो० । दोआउ०-तिण्णिजा०-आहारदुगं ज. अज० खेतः । वेउव्वियछ० ओघं । पंचिं०-अप्पसत्थ०-तस-दुस्सर० ज० घटित कर लेना चाहिए । औदारिकशरीरके अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवों का स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोकप्रमाण है, यह स्पष्ट ही है। तैजसशरीर आदिका जघन्य अनुभागबन्ध स्वस्थान-विहारादिके समय तो होता ही है,पर नीचे छह राजू और ऊपर सात राजू कुल कुछ कम तेरह राजुके भीतर मारणान्तिक समुद्घातके समय भी होता है, इसलिए इनके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवों का स्पर्शन कुछ कम आठ व कुछ कम तेरह बटे चौदह राजप्रमाण कहा है । जो नीचे नारकियों में मारणान्तिक समुद्घात करते हैं,उन तिर्यञ्च और मनुष्योंके भी वैक्रियिकद्विकका जघन्य अनुभागबन्ध होता है, इसलिए इनके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवों का स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है और इनका अजघन्य अनुभागबन्ध देवों व नारकियों में मारणान्तिक समुद्घातके समय भी सम्भव है। इसलिए इनके अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवों का स्पर्शन कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। अप्रशस्त विहायोगति
और दुःस्वरका जघन्य अनुभागबन्ध नारकियों में मारणान्तिक समुद्घात करते समय नहीं होता। इसलिए इनके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवों का स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है । तथा इनका अजघन्य अनुभागबन्ध स्वस्थान विहारादिके समय तो होता ही है,पर नीचे व ऊपर कुछ कम बारह राजूके भीतर मारणान्तिक समुद्घातके समय भी होता है, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवों का स्पर्शन कुछ कम आठ व कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण भी कहा है। बादर प्रकृतिका जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्ध स्वस्थान विहारादिके समय भी होता है और नीचे छ व ऊपर सात राजूके भीतर मारणान्तिक समुद्घात करते समय भी होता है । इसलिए इसके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवों का स्पर्शन कुछ कम आठ व कुछ कम तेरह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। तिर्यञ्च और मनुष्य स्वस्थानमें व एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्घात करते समय सूक्ष्म आदिका दोनों प्रकारका अनुभागबन्ध करते हैं, इसलिए इनके दोनों प्रकारके अनुभागके बन्धक जीवों का स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण कहा है।
३६४. पुरुषोंमें प्रथम दण्डक और दूसरे दण्डकका भङ्ग स्त्रीवेदी जीवोंके समान है। स्त्रीवेद, मनुष्यगति, पाँच संस्थान, औदारिकाङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, आतप, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पुरुषवेद, दो आयु और तीर्थङ्करके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। नपुंसकवेदके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो आयु, तीन जाति और आहारकद्विकके जघन्य और अजघन्य अनुभागके • बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। वैक्रियिकशरीर आदि छहका भङ्ग ओघके समान है। पश्चन्द्रियजाति, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस और दुःस्वरके जघन्य और अजघन्य अनुभागके
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे अज. अह-बा० । तेजा.-[क०-] पसत्य०४-अगु०३-पज०-पत्ते--णिमि० ज० अट्टतेरह०, अज० अट्ट चॉइह० सव्वलो० । ओरा. ज. अह--णवों, अज. अह. सव्वलो । उज्जो०-जस० ज० अज. अहणव० । बादर० ज० अज० अह-तेरह । मुहुम०-अपज्जा-साधार० ज० अज० लो० असं सव्वलो।
३६५. णqसगे पंचणा०-णवदंस०-मिच्छ०-सोलसक०-सत्तणोक-तिरिक्ख.. अप्पसत्थ०४-तिरिक्खाणु०-उप०-आदा०-णीची०-पंचंत० ज० खेत्त०, अज० सव्वलो। सादादिदंडओ ओघ । इत्थि०-णस-पंचिं०-ओरा०--तेजा०--क०--ओरा०अंगो०
बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजु और कुछ कम बारह बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तेजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क. अगरुलपत्रिक. पर्या प्ति, प्रत्येक
और निर्माणके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम माठ बटे चौदह राजू और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। औदारिकशरीरके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौ बटे चौदह राजू प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। उद्योत और यशकीतिके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । बादरके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
विशेषार्थ-पुरुषवेदी जीवोंमें स्पर्शन प्रायः स्त्रीवेदी जीवोंके समान है। जहाँ थोड़ा-बहुत अन्तर है भी उसे स्वामित्वको देखकर घटित कर लेना चाहिए। उदाहरणार्थ-स्त्रीवेदी तीर्थक्कर प्रकृतिका बन्ध केवल मनुध्यिनियाँ ही करती हैं, इसलिए वहाँ इसकी अपेक्षा जघन्य और अजघन्य दोनों प्रकारका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। किन्तु पुरुषों में देव भी इसका बन्ध करते हैं, इसलिए यहाँ इसके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहकर भी अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। इसी प्रकार स्त्रीवेदी जीवोंसे यहाँ पञ्चन्द्रियजाति और अस प्रकृतिके स्पर्शनमें भी अन्तर घटित कर लेना चाहिए।
३६५. नपुंसकोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, सात नोकपाय, तिर्यश्चगति, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, आतप, नीचगोत्र भोर पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सातावेदनीय आदि दण्डकका भङ्ग
ओघके समान है। स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पञ्चन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, उद्योत, त्रसचतुष्क और निर्माण
१. ता. श्रा. प्रत्योः श्रादा० उप० णीचा इति पाठः।
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२०५ पसत्य०४-अगु०३-उज्जो०-तस४-णिमि० ज० छ०, अज० सव्वलो । दोआउ०. वेउव्वियछ०-आहारदुग-तित्थ. इत्थिभंगो । मणुसाउ० तिरिक्खोघं ।
३६६. अवगद०-मणपज्जव०-संज०--सामाइ०-छेदो०-परिहा.-मुहुम० ज० अज० खेत० । मदि-सुद० ओघं । विभंगे पंचिंदियभंगो।
३६७. आभिणि-सुद०-ओधि० पंचणा०-छदस-बारसक०-सत्तणोक०-अप्पसत्य०४-उप०-तित्थ०-पंचंत० ज० खेत०, अज. अहचा। दोवेदणी०-मणुसाउ०मणुसगदिपंचग०-पंचि०-तेजा०-का-समचदु०--पसत्थ०४-अगु०३-पसत्थ०-तस०४के जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो आयु, वैक्रियिक छह, आहारकशरीरद्विक और तीर्थक्कर प्रकृतिका भङ्ग स्त्रीवेदी जीवोंके समान है। मनुष्यायुका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है।
विशेषार्थ यहाँ आतपके सिवा पाँच ज्ञानावरणादिके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामित्व ओघके समान है और आतपके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामित्व सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। यतः ओघसे पाँच ज्ञानावरणादि और सामान्य तिर्यश्चो के आतपके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान बतला आये हैं, अतः यहाँ भी यह क्षेत्रके समान कहा है। तथा नपुंसक सब लोकमें पाये जाते हैं, अतः इनके अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवों का स्पर्शन सब लोकप्रमाण कहा है। सातावेदनीय आदि दण्डकका भङ्ग ओघके समान, नरकायु, देवायु और वैक्रियिक छह आदिका भङ्ग क्षेत्रके समान और मनुष्यायुका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है,यह स्पष्ट ही है। अब रहा स्त्रीवेददण्डक सो स्पर्शनकी दृष्टिसे संज्ञी पञ्चन्द्रिय नपुंसकों में नारकियों की मुख्यता है, इसलिए इनके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवो का स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। तथा इसके अजघन्य अनुभागका बन्ध एकेन्द्रियादि जीवो के सम्भव है, अत: इनके अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवों का स्पर्शन सब लोकप्रमाण कहा है।
___ ३६६. अपगतवेदी, मनापर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत और सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवों में जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान है। मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवों में ओघके समान है । तथा विभङ्गज्ञानियों में पञ्चन्द्रियों के समान है।
_ विशेषार्थ-अपगतवेदी आदि जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान है, इसलिए इन मार्गणाओं में अपनी-अपनी प्रकृतियो के जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवों में स्वामित्व सम्बन्धी विशेषताके होने पर भी स्पर्शन ओघके समान बन जाता है, इसलिए वह ओघके समान कहा है। तथा चारों गतिके पञ्चन्द्रिय जीव विभङ्गज्ञानी हो सकते हैं, इसलिए विभङ्गज्ञानी जीवों में स्पर्शन पश्चन्द्रियों के समान बन जानेसे वह पञ्चन्द्रियों के समान कहा है।
३६७. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवों में पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, सात नोकषाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, तीर्थकर और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवों ने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । दो वेदनीय, मनुष्यायु, मनुष्यगतिपञ्चक, पञ्चन्द्रियजाति, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान,
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे थिराथिर-सुभासुभ-सुभग--सुस्सर-आदें-जस०-अजस-णिमि०-उच्चा० ज० अज. अह। देवाउ०--आहारदुर्ग ज. अज० खेत्तः । देवगदि०४ ज० खेत०, अज० छच्चों । एवं अोधिदस०-सम्मादि०--खइग०-वेदग०-उवसम०-सम्मामि० । णवरि खइग०-उवसम० किंचि० विसेसो णादव्वो।
३६८. संजदासंज. सादासाद० अरदि-सोग-थिराथिर-सुभासुभ-जस०-अजस० ज० अज० छच्चों । सेसाणं ज० खेत्त०, अज० छच्चों । देवाउ०-तित्थ० ज० अज० खेत० । असंजदेसु ओघं । प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, 'आदेय, यशःकीर्ति अयशःकीर्ति, निर्माण और उच्चगोत्रके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवो ने कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। देवायु
और आहारकद्विकके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान है। देवगतिचतुष्कके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवो का स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवों ने कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यसिध्याइष्टि जीवों के जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि क्षायिकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवों में कुछ विशेषता जाननी चाहिए।
विशेषार्थ-प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्ध ओघके समान है और ओघसे इन प्रकृतियों के जघन्य अनुभागके बन्धक जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान घटित करके बतला आये हैं, अतः यह क्षेत्रके समान कहा है। तथा आभिनिबोधिकज्ञानी आदिका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण है, इसलिए इनके अजघन्य व दूसरे दण्डकमें कही गई सब प्रकृतियों के जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवों का स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजुपमाण कहा है। देवायुका जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्ध तिर्यञ्च और मनुष्य तथा आहारकद्विकका दोनों प्रकारका अनुभागबन्ध अप्रमत्तसंयत जीव करते हैं। यतः इन जीवों का स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, अतः इन प्रकृतियों के दोनों प्रकारके अनुभागके बन्धक जीवो का स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। देवगतिचतुष्कका जघन्य अनुभागबन्ध मिथ्यात्वके अभिमुख तिर्यश्च और मनुष्य करते हैं, अतः इनके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। तथा इन जीवों के मारणान्तिक समुद्घातके समय भी इनका बन्ध होता है, अतः इनके अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवों का स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है । शेष कथन सुगम है ।
३६८. संयतासंयत जीवोंमें सातावेदनीय, असातावेदनीय, अरति, शोक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति और अयशःकीर्तिके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवों ने कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष प्रकृतियों के जघन्य अनुभागके बन्धक जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान है और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवों ने कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। देवायु और तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवो का स्पर्शन क्षेत्रके समान है। असंयतो में ओघके समान
विशेषार्थ-संयतासंयतो में सातावेदनीय आदिका जघन्य अनुभागवन्ध मारणान्तिक समु
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फोसणपरूवणा ३६६. किण्णाए पंचणा०-णवदंस०--मिच्छ० -सोलसक०-सत्तणोक०-तिरिक्खगदितिग-अप्पसत्थ०४-उप०-आदा०-पंचंत० ज० खेत्त०, अज० सव्वलो० । सादादिदंडो ओघो । इत्थि०-णस०-पंचिंदि०-ओरा०-तेजा०-०-ओरा अंगो०-पसत्य०४अगु०३-उज्जो०-तस०४-णिमि० ज० छ०, अज० सव्वलो। दोआउ०--देवगदिदुग०-तित्थ० ज० अज० खेत । मणुसाउ० णqसगभंगो । णिरयगदिदुग-वेन्वि०वेवि०अंगो० ज० अज० छच्चों । एवं णील-काऊणं। गवरि अप्पप्पणो रज्जू भाणिदव्वा । तिरिक्ख०३ एइंदियभंगो।
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وفي عيج جی بی بی بی بی سی کی مد مدعی بی سی سی کی
द्घातके समय भी सम्भव है। इनका तथा देवायु और तीर्थङ्कर प्रकृतिके सिवा शेष प्रकृत्तियों का अजघन्य अनुभागबन्ध तो मारणान्तिक समुद्घातके समय सम्भव है ही। इसलिए यह सब स्पशन कछ कम छह बटे चौदह राजप्रमाण कहा है तथा सातावेदनीयदण्डकके सिवा शेष प्रकृतियो का जघन्य और देवायु व तीर्थक्कर प्रकृतिका जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्ध मारणान्तिक समुद्घातके समय सम्भव नहीं है, इसलिए इस अपेक्षासे यह स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। मात्र तीर्थङ्कर प्रकृतिका अजघन्य अनुभागबन्ध मारणान्तिक समुद्घातके समय भी होता है, पर उससे स्पर्शनमें कोई विशेषता नहीं आती। शेष कथन सुगम है।
३९६. कृष्णलेश्यामें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, सात नोकषाय, तिर्यश्चगतित्रिक, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, आतप और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सातावेदनीय आदि दण्डकका भङ्ग ओघ के समान है। स्त्रीवेद, नपुंसक्वेद, पञ्चोन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिक श्राङ्गो. पाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, उद्योत, त्रसचतुष्क और निर्माणके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवों ने कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य अनुभागके
जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो आयु, देवगतिद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृति के जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । मनुष्यायुका भङ्ग नपुंसकोंके समान है। नरकगतिद्विक, वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिक आङ्गोपाङ्गके जघन्य
और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार नील और कापोत लेश्यामें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अपनीअपनी राजू कहनी चाहिए । तथा तिर्यश्चगतित्रिकका भङ्ग एकेन्द्रियोंके समान है।
विशेषार्थ-प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियों के स्वामियोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण होनेसे यहाँ इन प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। तथा कृष्ण लेश्याका स्पर्शन सब लोक होनेसे यहाँ इनके अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन सब लोक कहा है। आगे भी सब लोक प्रमाण स्पर्शनका इसी प्रकार स्पष्टीकरण करना चाहिए। सातावेदनीय दण्डकके स्पर्शनका स्पष्टीकरण ओघके समान कर लेना चाहिए। नीचे छह राजू प्रमाण यथायोग्य स्पशेन करनेवाले जीवों के भी स्त्रीवेदका जघन्य अनुभागबन्ध सम्भव है। अतः इनके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। नरकायु, देवायु और देवगतिद्विकका जघन्य अनुभागबन्ध तिर्यश्च और मनुष्य तथा तीर्थङ्कर प्रकृतिका जघन्य अनुभागबन्ध मनुष्य करते हैं, अतः इन प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। नपुंसकोंमें मनुष्यायुका भङ्ग सामान्य
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ४००. तेऊए पंचणा०-णवदंस-मिच्छ०-सोलसक०-छण्णोक-अप्पसत्य०४उप०- पंचंत० ज० खेत्त०, अज. अह-णव० । सादासाद०-तिरि०-एइंदि०-ओरा०तेजा-[ क०-] हुंड०--पसत्थव०४-तिरिक्रवाणु०-अगु०३-उज्जो०-थावर०-बादरपजत्त०-पत्ते-थिरादितिण्णियु०-दूभग--अणादें-णिमि०--णीचा० ज०. अज. अहणव० । इत्थि०-दोआउ०-मणुस०-पंचिं०-पंचसंठा०-ओरा०अंगो०-छस्संघ०-मणुसाणु०. आदा०-दोविहा०-तस-सुभग-दोसर०--आदें--तित्थ०-उच्चा० ज० अज. अहचों । पुरिस० ज० खेत०, अज. अहः। णqसगे सोधम्मभंगो । देवाउ०-आहारदुर्ग खेत । देवगदि०४ ज० अज० दिवडचोद्द० । एवं पम्माए वि। णवरि सव्वाणं रज्जू० अहचों । देवगदि०४ पंचचों ।
तिर्यञ्चोंके समान कहा है । वह स्पर्शन यहाँ भी प्राप्त होता है, इसलिए मनुष्यायुका भङ्ग नपुंसकोंके समान कहा है । जो तिर्यश्च और मनुष्य नारकियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करते हैं,उनके भी नरकगतिद्विक और वैक्रियिकद्विकका जघन्य अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजप्रमाण कहा है। नील
और कापोत लेश्यामें तिर्यश्चगतित्रिकका स्वामी बदल जानेसे स्पर्शन बदल जाता है। शेष सब स्पर्शन कृष्णलेश्याके ही समान है। मात्र नील लेश्या पाँचवें नरक तक और कापोत लेश्या तीसरे नरक तक होती है, इसलिए जहाँ कुछ कम छह राजू स्पर्शन कहा है,वहाँ कुछ कम चार और कुछ कम दो राजू स्पर्शन कहना चाहिए।
४००. पीतलेश्यामें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, छह नोकषाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ और कुछ कम नौ राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, तियश्चगति, एकेन्द्रियजाति,
औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, उद्योत, स्थावर, बादर पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर आदि तीन युगल, दुभंग, अनादेय, निर्माण और नीचगोत्रके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजु और कुछ कम नौ बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्रीवेद, दो आयु, मनुष्यगति, पञ्चन्द्रियजाति, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, आतप, दो विहायोगति, त्रस, सुभग, दो स्वर, श्रादेय, तीर्थङ्कर और उच्चगोत्रके जघन्य
और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । पुरुषवेदके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । नपुंसकवेदका भङ्ग सौधर्मकल्पके समान है। देवायु और आहारकद्विकका भङ्ग क्षेत्रके समान है। देवगतिचतुष्कके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम डेढ़ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार पद्मालेश्या में भी जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि यहाँ सबके कुछ कम आठ बटे चौदह राजू कहने चाहिए। तथा देवगतिचतुष्कके कुछ कम पाँच बटे चौदह राजू कहने चाहिए।
_ विशेषार्थ—यहाँ जिन प्रकृतियोंका एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घातके समय जघन्य,
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कोसपरूवणा
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४०१. सुक्काए खविगाणं ज० खेत०, अज० छ० | साददंडओ इत्थि० णवुंस०मणुसाउ०- मणुस० पंचिंदियादि याव णीचुच्चा० देवगदि०४ - तित्थ० ज० अज० छच्चों ० । देवाउ० - आहारदुगं खेत्तं ० ।
०
४०२. अब्भवसि० पंचणा० णवदंस० - मिच्छ० - सोलसक० - णवणोक० - पंचिं ०ओरा • अंगो ० - अप्पसत्थ०४ - उप० - पंचंत० ज० अ - बारह०, अज० सव्वलो ० । अजघन्य या दोनों अनुभागबन्ध सम्भव है, उनके बन्धक जीवोंका कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौ बटे चौदह राजूप्रमाण स्पर्शन कहा है। जिनका जघन्य या अजघन्य अनुभागबन्ध एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात के समय नहीं होता और स्वस्थान-विहारादिके समय सम्भव है, उनके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। प्रथम दण्डक की प्रकृतियों, पुरुषवेद, देवायु और आहारकद्विकके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका तथा देवायु और आहारकद्विकके अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान कहा है, यह स्पष्ट ही है । देवों में नपुंसकवेदका जघन्य अनुभागबन्ध तत्प्रायोग्य विशुद्ध अन्यतर देव करता है । यही स्वामित्व यहाँ पीतलेश्या में भी कहा है, इसलिए यहाँ नपुंसकवेदका भङ्ग सौधर्मकल्प के समान कहा है । तिर्यन और मनुष्य ऊपर डेढ़ राजूके भीतर मारणान्तिक समुद्घात करते समय भी देवगतिचतुष्कका जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्ध करते हैं, इसलिए इनके दोनों प्रकारके अनुभाग बन्धक जीवोंका स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा है। पद्मलेश्या में देवगतिचतुष्कका यह स्पर्शन कुछ कम पाँच राजू है, क्योंकि पद्मलेश्या के साथ तिर्यञ्च और मनुष्यों का स्पर्शन बारहवें कल्प तक देखा जाता है। शेष सब कथन पीतलेश्या के समान है। मात्र पद्मलेश्या में कुछ कम चौदह राजू नहीं कहने चाहिए, क्योंकि इस लेश्यावाले एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात नहीं करते।
४०१ शुक्ललेश्या में क्षपक प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान है । अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सातावेदनीयदण्डक, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, मनुष्यायु, मनुष्यगति व पच ेन्द्रिय जाति से लेकर नीच व उच्चगोत्र तक तथा देवगतिचतुष्क और तीर्थङ्करके जघन्य और अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंने कुछ कम छहबटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । देवायु और आहारकद्विकका भङ्ग क्षेत्रके समान है ।
विशेषार्थ - यहाँ क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग क्षेत्रके समान है, यह स्पष्ट ही है । तथा यहाँ शुक्ललेश्याका स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण होनेसे इनके अनुत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीवोंका स्पर्शन उक्तप्रमाण कहा है। यहाँ पचन्द्रियजाति से नीचगोत्रके मध्यकी प्रकृतियाँ, अर्थात् क्षपकप्रकृतियाँ, आहारकद्विक, देवगतिचतुष्क व तीर्थङ्कर प्रकृतिके सिवा नामकर्मकी शुक्ललेश्या में बँधनेवाली सब प्रकृतियाँ ली गई हैं। इनका यथा सम्भव जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्ध देवों में व देवों और मनुष्यों में मारणान्तिक समुद्घातके समय होता है। अतः इनके जघन्य और अन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है। इसी प्रकार देवगतिचतुष्क और तीर्थङ्कर प्रकृतिकी अपेक्षा भी स्पर्शन जान लेना चाहिए । शेष कथन सुगम है ।
४०२. अभव्योंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय पञ्च ेन्द्रियजाति, औदारिकाङ्गोपाङ्ग, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभाग बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका
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महापंधे अणुभागपंपाहियारे ओरा०--तेजा.--क०--पसत्य०४--अगु०३-उज्जो०--बादर-पन्जा--पत्ते--णिमि० ज० अह-तेरह०, अज० सव्वलो० । सेसाणं मदि०भंगो।
४०३. सासणे सव्वविसुद्धाणं ज. अह०, अज. अह-बारह० । दोबाउ०मणुसगदिदुर्ग ज. अज. अहचों। देवाउ० खेत । देवगदि०४ ज. अज० पंचों । तिरिक्खगदितिगं ज० खेत्त०, अज. अह-बारह० । सेसाणं ज. अज. अह-बारह० । मिच्छादिहि० मदि०भंगो। स्पर्शन किया है । औदारिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, उद्योत, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक और निर्माणके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम
आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष प्रकृतियोंका भंग मत्यज्ञानी जीवोंके समान है।
विशेषार्थ-अभव्योंमें चारों गतिके संज्ञी जीव पाँच ज्ञानावरणादिका जघन्य अनुभागबन्ध करते हैं। यह बन्ध नीचे छह व ऊपर छह राजूके भीतर यथायोग्य मारणान्तिक समुद्घातके समय भी सम्भव है, इसलिए इनके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम पाठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। औदारिकशरीर आदिका नीचे छह और ऊपर सात राजूके भीतर यथायोग्य मारणान्तिक समुद्घातके समय भी जघन्य अनुभागबन्ध सम्भव है, इसलिए इनके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है । शेष कथन सुगम है।।
४०३. सासादनसम्यग्दृष्टि जीवों में सर्व विशुद्ध प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो आयु और मनुष्यगतिद्विकके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। देवायुका भंग क्षेत्रके समान है। देवगतिचतुष्कके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम पाँच बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तिर्यश्चगतित्रिकके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है । अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । मिथ्यादृष्टि जीवोंमें मत्यज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है।
विशेषार्थ-सर्व विशुद्ध परिणामों से जघन्य बँधनेवाली प्रकृतियाँ ज्ञानावरणादि हैं। यहाँ चारों गतिके संज्ञी जीव इनका जघन्य अनुभागबन्ध करते हैं । मारणान्तिक समुद्घातके बिना इनका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण है, इसलिए इनके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। इनके अजघन्य तथा जिन प्रकृतियोंका यहाँ नामोच्चारके साथ स्पर्शन नहीं कहा गया है, उनके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवों का स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण है,यह स्पष्ट ही है; क्योंकि उनका यह दोनों प्रकारका अनुभागबन्ध नीचे पाँच और ऊपर सात इस प्रकार कुल बारह राजूके भीतर मारणान्तिक समुद्घात करनेवालोंके भी होता है । आयुकर्मका बन्ध मारणान्तिक समुद्घातके समय नहीं होता और मनुष्यगतिद्विकका बन्ध मारणान्तिक समुद्घातमें होकर भी मनुष्योंमें मारणान्तिक समुद्घात करनेवालोंके ही सम्भव है,
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कालपरूषणा
२१ ४०४. असण्णीसु पंचणाo-णवदंस-मिच्छ०-सोलसक०-णवणोक०-पंचिं०तेजा०- [क०-] ओरा०अंगो०-पसत्थापसत्य०४-अगु०४-आदाव-तस४-णिमि०पंचंत० ज० खेत०, अज० सव्वलो । दोआउ०-वेउब्वियछक्कं ज० अज० खेतः । साददंडओ ओघो। मणुसाउ० किण्णभंगो। तिरिक्खगदितिग-ओरा०-उज्जो तिरिक्खोघं । अणाहार० कम्मइगभगो ।
एवं फोसणं समत्तं ।
२१. कालपरूवणा ४०५. कालं दुविधं-जह० उक्क० । उक्क० पगदं। दुवि०-ओघे० आदे। ओघे०
अतः स्वस्थान विहारादिककी अपेक्षा इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन प्रधान होनेसे यह कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है । देवोंमें सहस्रार कल्प तक मारणान्तिक समुद्घात करनेवाले सासादन जीवोंके भी देवगतिचतुष्कका जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्ध होता है, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम पाँच बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है । देवायुका जघन्य अनुभागबन्ध तिर्यश्च और मनुष्य करते हैं, इसलिए इसके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। तिर्यश्चगतित्रिकका जघन्य अनुभागबन्ध सातवें नरकके नारकी करते हैं। अतः इनके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। तथा इनका अजघन्य अनुभागबन्ध नीचे पाँच व ऊपर सात कुल बारह राजूके भीतर मारणान्तिक समुद्घात करनेवाले जीव भी करते
लए इनके अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राज और कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। शेष कथन स्पष्ट है।
४०४. असंक्षियोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, पञ्चन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, आतप, त्रसचतुष्क, निर्माण और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो आयु और वैक्रियिक छहके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। सातावेदनीयदण्डकका भङ्ग ओघके समान है। मनुष्यायुका भङ्ग कृष्णलेश्याके समान है। तिर्यश्चगतित्रिक, औदारिकशरीर और उद्योतका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है । अनाहारक जीवोंका भङ्ग कार्मणकाययोगी जीवोंके समान है।
विशेषार्थ-यहाँ प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्ध पश्चन्द्रिय असंही करते हैं, इसलिए इनके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। एकेन्द्रिय सब लोकमें पाये जाते हैं, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका सब लोकप्रमाण स्पर्शन कहा है । शेष कथन सुगम है।
इस प्रकार स्पर्शन समाप्त हुआ।
२१. कालपरूपणा ४०५. काल दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे पंचणा०-णवदंस-असादा०-मिच्छ०-सोलसक०-णवणोक०-तिण्णिगं०-चदुजा०-ओरा०पंचसंठा-ओरा०अंगो०-छस्संघ०-अप्पसत्य०४-तिण्णिआणु०-उप०-आदा०--उज्जो०अप्पसत्य०-यावर४-अथिरादिछ०--णीचा०-पंचंत० उक्कस्सअणुभागबंधगा केवचिरं कालादो होंति ? जहण्णेणं एगसमयं । उक्कस्सेण आवलियाए असंखेंजदिभागो । अणुक० अणुभाग० सव्वद्धा। सादा०-तिरिक्खाउ०--देवगदि०-पंचिं०-चदुसरीरसमचदु०--दोअंगो०--पसत्य०४-देवाणु०--अगु०३-पसत्थवि०--तस०४-थिरादिछ०-- णिमि०-तित्थ०-उच्चा० उ० ज० एग०, उ० संखेंजस० । अणुक० सव्वदा । णिरयाउ० उ० ज० ए०, उ० आवलि० असंखें । अणु० ज० ए०, उ० पलि. असं० । दोआउ० उ० ज० ए०, उ० संखेजस० । अणु० ज० ए०, उ० पलिदो० असंखें । एवं ओघभंगो पंचिंदिय-तस०२-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि-ओरो०इत्थि०-पुरिस०-णवूस०-कोधादि०४-मदि०-सुद०-असंज०-चक्खु०-अचक्खु०-भवसि०मिच्छा०-सण्णि०-आहारए ति । णवरि चदुण्णं आउगाणं अणुक्क० बंधगा असंखेज'रासीणं अप्पप्पणो पगदिकालो कादव्वो। है-ओघ और आदेश। ओघसे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, तीन गति, चार जाति, औदारिकशरीर, पाँच संस्थान, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तीन आनुपूर्वी, उपघात, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर आदि चार, अस्थिर आदि छह, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है। सातावेदनीय, तिर्यश्चायु, देवगति, पञ्चन्द्रियजाति, चार शरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, दो आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्तवर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण, तीर्थङ्कर और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है
और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है। नरकायुके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। दो आयुओंके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इस प्रकार ओघके समान पञ्चद्रियद्विक, सद्विक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी,
औदारिककाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, भव्य, मिथ्यादृष्टि, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि असंख्यात संख्यावाली राशियोंमें चार आयुओंके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका अपनी-अपनी प्रकृतियोंका जो बन्धकाल हो,वह कहना चाहिए।
विशेषार्थ-यहाँ नाना जीवोंकी अपेक्षा प्रत्येक प्रकृतिका बन्ध-काल कितना है,इसका विचार
१. ता. प्रतो पंचणा० असादा० मिच्छ• सोलसक• तिण्णिग० इति पाठः । २. तो० प्रतौ होति होति (१) जहण्णण इति पाठः । ३. ता. प्रतौ सपहा (दा) इति पाठः । ४. ता.पा. प्रत्योः बंधगा लो० असंखेज्ज० इति पाठः।
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कालपरूषणा
२१३ ४०६. एईदिएमु तिरिक्खाउ०-उज्जो० उ० ज० ए०, उ० आवलि० असंखें। अणु० सव्वद्धा । मणुसाउ० ओघो। सेसाणं दोपदा सव्वदा । एवं बादरतिगाणं । किया गया है। उसमें भी ओघसे प्रत्येक प्रकृतिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट बन्धकाल कितना है, इसका सर्वप्रथम निर्देश किया गया है। कुल बन्ध प्रकृतियाँ १२० हैं। उनमेंसे पाँच ज्ञानावरणादिके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय
और उत्कृष्ट काल किसीका एक समय और किसीका दो समय बतलाया है। अब यदि नाना जीव निरन्तर इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करें तो कितने काल तक करेंगे, इसीप्रश्नका यहाँ उत्तर दिया गया है। जैसा कि बन्धस्वामित्वके देखनेसे विदित होता है कि इन प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संज्ञी पञ्चन्द्रिय मिथ्यादृष्टि होते हैं और वे असंख्यात हैं, अतः यह भी सम्भव है कि नाना जीव एक समय तक इन प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करें और यह भी सम्भव है कि लगातार एकके बाद दूसरा निरन्तर उनका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करते रहें। इस प्रकार निरन्तर यदि बन्ध करें भी तो वह सब काल श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाणसे अधिक नहीं हो सकता। यही कारण है कि यहाँ इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धकोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। इनके अनुस्कृष्ट अनुभागके बन्धकोंका काल सर्वदा है, यह स्पष्ट ही है, क्योंकि ऐसा कोई समय नहीं है जब इन प्रकृतियोंके बन्धक जीव न हों अर्थात् वे सर्वदा पाये जाते हैं। दूसरे दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात हैं, अतः उनके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा कहा है। नरकायुके उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट बन्धकाल तो ज्ञानावरणके समान ही है। इसके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धकके काल में अन्तर है। बात यह है कि एक आय बन्धकाल अन्तमुहूर्त है। उसमें भी अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्धकाल कमसे कम एक समय है। यह सम्भव है कि नाना जीव एक समय तक अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध करके दूसरे समयमें उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करने लगे और उस दूसरे समयमें एक भी जीव अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध न करे, इसलिए तो नरकायुके अनुत्कृष्टं अनुभागके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय कहा है और निरन्तर अन्तमुहूर्त अन्तमुहूर्तके क्रमसे यदि नाना जीव नरकायुका बन्ध करते रहें, तो इस सब कालका योग पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण होगा। इसीलिए नरकायके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। अब रहीं मनुष्यायु और देवायु सो इनके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात हैं और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं। इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय तथा अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है । यहाँ अन्य जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं ,उनमें यह प्ररूपणा बन जाती है, इसलिए उनके कथनको ओघके समान कहा है। मात्र असंख्यात संख्यावाली राशियोंमें चार आयुओंके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धकोंके कालके ओघसे अन्तर है। अतः उसे प्रकृतिबन्धके समान जानने की सूचना की है। सो प्रकृतिबन्धके अनुसार उसे समझ लेना चाहिए।
___४०६. एकेन्द्रियोंमें तिर्यश्चायु और उद्योतके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धकोंका काल सर्वदा है। मनुष्यायुका भङ्ग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंके दोनों पदोंके बन्धक
१. ता. प्रतौ सव्वद्वा० (खा ) इति पाठः । ता. प्रतोऽग्रेऽप्येवमेव बहुलतया पाठो निबद्धः।
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२१४
महाबंधे अणुभागबंधाहियारे सव्वसुहुमाणं दोआउ० एइंदियभंगो। सेसाणं दोपदा सव्वद्धा।।
४०७, अवगद०-सुहुमसं० सव्वपग० उ० ज० ए०, उ० संखेज्ज. अणु० ज० ए०, उ. अंतो'। सेसाणं णिरयगदीणं याव सण्णि ति एसिं परिमाणेण संखेंज० तेसिं उ० ज० ए०, उ० संखेजस० । एसिं परिमाणेण असंखेज्जा तेसिं० उक्क० ज० ए०, उ. आवलिगा० असंखें । णवरि बादरपुढ०-आउ०-तेउ०-वाउ०बादरवणप्फदिपत्तेयअपज्जत्ता० आउगवज्जाणं सव्वासिं पगदीणं दोपदा सव्वद्धा ति । तिरिक्खाउ० उक्क० णिरयाउभंगो। अणुक्क० सव्वद्धा। मणुसाउ० ओघो। एसि परिमाणे अणंता तेसिं सव्वद्धा। अणुक्क० अणुभागबंधो सव्वेसि अप्पप्पणो पगदिकालो एदेण बीजेण याव अणाहारए ति णेदव्वं ।
__ एवं उकस्सकालो समत्तो। ४०८. जह० पगदं। दुवि० ओघे०-आदेओघे० पंचणा०-णवदंस०-मिच्छ०. सोलसक०--सत्तणोक०-आहारदुग०--अप्पसत्य०४-उप०-तित्थ० पंचंत० ज० ज० ए०, जीव सर्वदा हैं। इसी प्रकार बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त और बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिये। सब सूक्ष्म जीवोंमें दो श्रायुओंका भङ्ग एकेन्द्रियोंके समान है। तथा शेष प्रकृतियोंके दो पदोंके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है।
विशेषार्थ-यहाँ एकेन्द्रियोंमें तिर्यञ्चायु और उद्योतके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव असं. ख्यात होनेसे उनके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। इसी प्रकार सब काल घटित कर लेना चाहिए।
४०७. अपगतवेदी और सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। नरकगतिसे लेकर संज्ञीमार्गणा तक शेष जितनी मार्गणाएँ हैं, उनमेंसे जिनका परिमाण संख्यात है उनमें उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। जिनका परिमाण असंख्यात है, उनमें उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल प्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इतनी विशेषता है कि बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, बादर जलकायिक अपर्याप्त, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त,बादर वायुकायिक अपर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर अपर्याप्त जीवोंमें सब प्रकृतियोंके दो पदोंके बन्धक जीव सर्वदा हैं। मात्र तिर्यञ्चायुके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका काल नरकायुके समान है और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है । तथा मनुष्यायुका भङ्ग ओषके समान है। तथा जिनका परिमाण अनन्त है,उनमें सर्वदा काल है। सब प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका काल अपने-अपने प्रकृ. तिबन्धके कालके समान है।इस प्रकार इस बीजके अनुसार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए ।
इस प्रकार उत्कृष्ट काल समाप्त हुआ। ४०८. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्य, सोलह कषाय, सात नोकषाय, आहारकद्विक, अप्रशस्त
१. ता. प्रतौ अणु० उ० ज० ए० संखेज्ज. अणु० ज० ए० उ० [एतचिन्हान्तर्गतः पाठोड धिकः प्रतीयते] अंतो०, प्रा. प्रतौ अणु० न० ए०, उ० संखेज्जा, अणु० ज० ए०, उ. अंतो० इति पाठः।
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कालपरूवणा
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उ० संखेज्ज० । अज० सव्वद्धा । सादासाद ० - तिरिक्खाउ०- मणुस ० चदुजा ० - इस्संठा ० छस्संघ० -- ० - मणुसाणु ० दोविहा ० - थावरादि ०४ - थिरादिछयुग० उच्चा ० ज० जह० सव्वद्धा । इत्थि० -- णवुं स ० -- तिण्णिगदि -- पंचिं ० - चदुसरीर - दोअंगो ०-- पसत्य०४ - तिण्णिआणु०-अगु०३ - आदाउज्जो ०--तस०४ - णिमि० - णीचा ० ज० ज० ए०, उ० आवलि० सं० । अजह • सव्वद्धा । तिण्णिआउ० ज० ज० ए०, उ० आवलि० असं ० । अजह० ज० ए०, उ० पलिदो॰ असंखें । एवं ओघभंगो कायजोगि ओरालि० णवुंस० - कोधादि०४मदि० - सुद० - असं ज० - अचक्खु०- भवसि ० - मिच्छा० - आहारए ति ।
०
४०६. रियादि याव अणाहारए ति एसिं संखेज्जजीविगा तेसिं ज० ज० ए०, उ० संखेज्ज० । अज० सव्वद्धा । एर्सि असंखेंज्जजीविगा तेसिं ज० ज० ए०, उ० आवलि० असंखे॰ । अज० सव्वद्धा । एसिं अनंतरासी० तेसिं ज० सव्वद्धा । सव्वाणं अजहणणं. अणुभागबंधकाले अप्पष्पणो पगदिकालो कादव्वो । एदेण बीजेण दवं जहण्णुक० काले० पुढवि०० आउ० तेउ०- वाउ०- बादरवणप्फदिपत्तेयाणं च किंचि
वर्णचतुष्क, उपघात, तीर्थङ्कर और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, तिर्यवायु, मनुष्यगति, चार जाति, छह संस्थान, छह संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, दो विहायोगति, स्थावर आदि चार, स्थिर आदि छह युगल चौर
गोत्र जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है। स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, तीन गति, पञ्च ेन्द्रियजाति, चार शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, तीन अनुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, आतप, उद्योत, त्रसचतुष्क, निर्माण और नीचगोत्र के जघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है। तीन आयुओंके जघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । उसी प्रकार के समान काययोगी, श्रदारिककाययोगी, नपुंसक वेदी, क्रोधादि चार कपायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचतुदर्शनी, भव्य मिध्यादृष्टि और श्राहारक जीवोंके जानना चाहिए ।
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४०६. नरकगति से लेकर अनाहारक मार्गणा तक जिनके संख्यात संख्यावाले स्वामी हैं, उनके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है। जिनके असंख्यात जीव स्वामी हैं, उनके अन्य अनुभागके बन्धक जीवों का जघन्य काल एक समय हैं और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है। जिनके अनन्त जीव स्वामी हैं, उनके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है । तथा सब प्रकृतियोंके अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंका काल अपने- अपने प्रकृतिबन्धके कालके समान करना चाहिए। इस बीजपदके अनुसार जघन्य और उत्कृष्ट काल जान लेना चाहिए। किन्तु पृथिवी - कोयिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर जीवों में
१. ता० प्रतौ एसं (सिं ) इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे विसेसो साधेदव्वं । बादरअपज्जत्तएमु ज० अज० सव्वदा।
एवं कालो समत्तो।
२२ अंतरपरूवणा ४१०. अंतरं दुविधं-जह० उक्क । उक्क० पगदं। दुवि०--ओघे० आदे। ओघे० सादा०-जस०-उच्चा० उ० अणुभागबंधंतरं जे० ए०, उ० छम्मासं० । अणु० णत्थि अंतरं । सेसाणं सव्वेसिं उ० ज० ए०, उ. असंखेंजा लोगा । अणुक्क० पत्थि अंतरं । णवरि तिण्णं आउगाणं अणुक्क० ज० ए०, उ० चदुवीसं मुहुत्तं ।।
४११. एइंदिएमु सव्वपगदीणं उ० अणु० जत्यि अंतरं। दोआउ०-उज्जो. ओघं । एवं बादरपज्जत्तापजत्त० । सव्वमुहुम--सव्ववणप्फदि-णियोद०-बादरपुढ०कुछ विशेष साध लेना चाहिए । बादर अपर्याप्तकों में जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवों का काल सर्वदा है।
इस प्रकार काल समाप्त हुआ।
२२ अंतरप्ररूपणा ४१०. अन्तर दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे सातावेदनीय, यशाकीर्ति और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर काल नहीं है। शेष सब प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। इतनी विशेषता है कि तीन आयुओंके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर चौबीस मुहूर्त है।
विशेषार्थ-सातावेदनीय श्रादिका उत्कृष्ट अनभागबन्ध क्षपकौणिमें होता है। अतः इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना कहा है। यद्यपि देवगति आदि अन्य प्रकृतियोंका भी उत्कृष्ट अनुभागबन्ध क्षपकश्रेणिमें होता है,पर सातावेदनीय आदिके समान सब जीवोंके उनका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध हो ही ऐसा कोई नियम नहीं है। इसलिए उनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर परिणामोंके अनुसार कहा है। अनुभागबन्धके योग्य कुल परिणाम असंख्यात लोकप्रमाण हैं। जिनमेंसे उत्कृष्ट अनुभागबन्धके योग्य परिणाम एक समय के अन्तरसे भी हो सकते हैं और क्रमसे सब परिणामोंका अन्तर देकर भी हो सकते हैं। इसलिए यहाँ शेष प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण कहा है । नरकायु, मनुष्यायु और देवायु इन तीन आयुओंका अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध अन्य प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धके समान निरन्तर नहीं होता। उस-उस गतिमें उत्पन्न होनेका जो अन्तर है, वही यहाँ इन आयुओंके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर है। यही देखकर यहाँ इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर चौबीस मुहूर्त कहा है।
४११. एकेन्द्रियोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। दो आयु और उद्योतका भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार बादर, पादर पर्याप्त और बादर अप.
१. ता. प्रतौ अणुभागं तं ज० इति पाठः।
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अंतरपरूषणा
२१७ आउ०-तेउ०-वाउ०-बादरपत्ते अपज्जत्तगाणं च दोआउ० ओषं । सेसाणं णत्यि अंतरं । पुढवियादिचदुण्णं तेसिं बादर०--बादरपत्तेय. दोआउ० ओघ । सेसाणं दोपदा ओघं आभिणिभंगो। एवमेदेसि बादरपज्जत्तगाणं च । णवरि तिरिक्खाउ० अणुक० पगदिअंतरं । एवं ओघभंगो गेरइग-तिरिक्ख-मणुस-देव--विगलिंदि०-पंचिं०. तस०२-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि-ओरालि०-ओरालियमि०-उन्वि०-उ०मि०आहार-आहारमि०-कम्मइ०--इत्यि०-पुरिस०-णवूस०-अवगद.--कोधादि०४-मदि०मुद०-विभंग-आभिणि-मुद०--ओधि०-मणपज्ज०--संजद-सामाइ० छेदो०--परिहार०मुहुमसं०-संजदासंजद०-असंज०-चक्खु०-अचक्खु०-ओधिदं०-छल्लेस्सि०-भवसि०अब्भवसि०-सम्मादि०--खइग०-वेदग०--उवसम०-सासण-सम्मामि०-मिच्छा-सण्णिअसएिण-आहार०-अणाहारए ति। णवरि सव्वाणं अणुक्क० अणुभागबंधंतरं अणुकस्सहिदिबंधतरं अणुकस्सहिदिबंधभंगो। णवरि अवगद०-मुहुमसं०-[सादा०-]जस०-उच्चा० उ० अणु० अणुभाग० ज० ए०,उ० छम्मासं०।सेसाणं उ० ज० ए०,उ. वासपुषत्तं । अणु० ज० ए०, उ० छम्मासं० । उवसम० सादा०-जस०-उच्चा० उ० ज० ए०,उ० वासपुतं ।
एवमुक्कस्समंतरं समत्तं । र्याप्त जीवोंके जानना चाहिए । सब सूक्ष्म, सब वनस्पतिकायिक, निगोद, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, बादर जलकायिक अपर्याप्त, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, बादर वायुकायिक अपर्याप्त और बादर प्रत्येक वनस्पतिकायिक अपर्याप्त जीवोंमें दो आयुओंका भङ्ग ओघके समान है। तथा शेष प्रकृ. तियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। पृथिवी आदि चार, उनके बादर
और बादर प्रत्येकवनस्पतिकायिक जीवों में दो आयुओंका भङ्ग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंके दो पदोंका भङ्ग ओघसे कहे गये आभिनिबोधिकज्ञानावरणके समान है। इसी प्रकार इनके बादर पर्यातकोंके भी जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें तिर्यञ्चायुके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल प्रकृतिबन्धके अन्तरकालके समान है । इस प्रकार ओघके समान नारकी,तियञ्च, मनुष्य, देव, विकलेन्द्रिय, पञ्चन्द्रियद्विक, सद्विक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी, अपगतवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले,मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी,विभङ्गज्ञानी, आभिनिबोधिकज्ञानी,श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसाम्परायसंयत, संयतासंयत, असंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, छह लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि. उपशमसम्यग्दृष्टि.सासादनसन्यन्द्रनि सम्यग्मिध्यादृष्टि, मिथ्यादृष्टि, संज्ञी, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि सबके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धके अन्तरका भङ्ग अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धके अन्तरके समान है। इतनी और विशेषता है कि अपगतवेदी, और सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंमें सातावेदनीय, यश कीर्ति और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर' छह महीना है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण है। तथा अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका
१. ता० प्रती संजदासजद० चक्खु० इति पाठः । २. ता. प्रतौ उच्चा० उ. वासपुषर्त इति पाठः। ता. प्रती एवं उकस्समंतरं समत्तं इति पाये नास्ति ।
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महाणुभागधाहियारे
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४१२. जह० पदं । दुवि० ओघे० दे० । ओघे० पंचणा ० चदुदंसणा ० चदुसंज० - पुरिस० पंचंत० ज० ज० ए०, उ० छम्मासं० । अज० णत्थि अंतरं । पंचदंस०मिच्छ०- बारसक० - अद्वणोक० तिण्णिआउ०- तिण्णिगदि पंचिं० पंचसरीर-तिण्णिचंगो पसत्यापसत्थ०४ - तिण्णिआणु० - अगु०४ - आदा उज्जोव-तस०४ - णिमि० - तित्थ० - णीचा० ज० ज० ए०, उ० असंखेंज्जा लोगा । अज० णत्थि अंतरं । णवरि तिण्णिआऊणं अज० अणुभंगो । सादासाद० - तिरिक्खाउ ० - मणुसग ० चदुजा ० - इस्संठा ० - वस्संघ०मसाणु० - दोविहा० - थावरादि ०४ - थिरादिछयुग०- उच्चा० ज० अज० णत्थि अंतरं । एवं ओघभंगो कायजोगि - ओरालि० -- स ० - कोधादि ०४ - अचक्खु ० -- भवसि० -- आहारए ति ।
२१८
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४१३. मणुस ०३ - पंचिं ० -तस०४ - पंचमण० - पंचवचि० - इत्थि० - पुरिस० - आभि०जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है । उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें सातावेदनीय, यशःकीर्ति और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व प्रमाण है ।
इस प्रकार उत्कृष्ट अन्तर समाप्त हुआ ।
४१२. जघन्यका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । श्रघसे पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह महीनाप्रमाण है । अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है । पाँच दर्शनावरण, मिध्यात्व, बारह कषाय, आठ नोकषाय, तीन आयु तीन गति, पच ेन्द्रियजाति, पाँच शरीर, तीन आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तीन आनुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, आतप, उद्योत, त्रसचतुष्क, निर्माण, तीर्थङ्कर और नीचगोत्रके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है । अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है । इतनी विशेषता है कि तीन आयुओं के अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल अनुत्कृष्टके समान है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, तिर्यखायु, मनुष्यगति, चार जाति, छह संस्थान, छह संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, दो विहायोगति, स्थावर आदि चार, स्थिर आदि छह युगल और उच्चगोत्रके जघन्य और जघन्य अनु भागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। इस प्रकार ओघ के समान काययोगी, श्रदारिककाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, अचतुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवों के कहना चाहिए ।
विशेषार्थ -- पाँच ज्ञानावरणादिका जघन्य अनुभागबन्ध क्षपकश्रेणिमें होता है। अतः जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना कहा है। चार दर्शनावरण आदिके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय, जघन्य अनुभागबन्ध एक समय के अन्तर से सम्भव है, इसलिए कहा है और परिणामों की दृष्टिसे उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। तीन आयुत्रोंके जघन्य अनुभागबन्धकी विशेषता अनुत्कृष्टके समान है । कारण कि नरकगति आदिमें उत्पत्तिका जो अन्तर है, वही इन आयुओं के अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर जानना चाहिए। तथा सातावेदनीय आदिका जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्ध किसी
किसी निरन्तर होता रहता है, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धके अन्तर कालका निषेध किया है। शेष कथन सुगम है। आगे भी इसी प्रकार अन्तर घटित कर लेना चाहिए । ४१३. मनुष्यत्रिक, पच ेद्रियद्विक, सद्विक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, स्त्रीवेदी,
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अंतरपरूवणा
२१९ सुद०-ओधि०-मणपज्ज०-संजद--सामाइ०-छेदोव०-चक्खु०-ओधिदं०-सुकले०-सम्मादि०खइय०-उवसम०-सण्णीसु पंचणा०-चदुदंस०-चदुसंज०-पुरिसे०-पंचंत० ज० ज० ए०, उ० छम्मासं० । अज० णत्थि अंतरं । सेसाणं पगदीणं उक्कस्सभंगो । अवगद.. सुहुमसं० पंचणा०--चदुदंस०--चदुसंज०-पुरिसवेद-पंचते. ज. अज० ज० ए०, उ० छम्मासं० । [णवरि सुहुमसं० चदुसंज०-पुरिसवे. वज्ज० । ] सादा०-जस०उच्चा० ज० ज० ए०, उ० वासपुध० । अज० ज० ए०, उ० छम्मासं०।
४१४. एइंदिएसु मणुसाउ०-तिरिक्ख०३ ओघं । सेसाणं ज. अज. पत्थि अंतरं । बादरएइंदिय-पज्जतापज्जत्त-सव्वसुहमाणं मणुसाउ० ओघं । सेसाणं ज० अज० णत्यि अंतरं । एवं पंचण्णं कायाणं अप्पज्जतगाणं वणप्फदि-णियोदाणं च । अवसेसाणं णिरय-तिरिक्खादीणं जासिं दोण्हं पदा सव्वद्धा तासिं णत्थि अंतरं । एसिं ण सव्वदा तेसिं उक्कस्सभंगो। एदेण बीजेण णेदव्वं याव अणाहारए ति । गवरि ओधिणाइत्थि०-णवूस०-ओधिदं०-उवसम० वासपुधत्तं ।
एवं अंतरं समत्तं ।
पुरुषवेदी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनापर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, चक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और संज्ञी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद
और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। अपगतवेदी और सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद और पाँच अन्तरायके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। इतनी विशेषता है कि सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंमें चार संज्वलन और पुरुषवेदको छोड़कर कहना चाहिए। सातावेदनीय, यश कीर्ति और उच्चगोत्रके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व प्रमाण है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है।
४१४. एकेन्द्रियोंमें मनुष्यायु और तिर्यश्चगतित्रिकका भङ्ग श्रोधके समान है। शेष प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। बादर एकेन्द्रिय और उनके पर्याप्त व अपर्याप्त और सब सूक्ष्म जीवोंमें मनुष्यायुका भङ्ग श्रोधके समान है। शेष प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार पाँच स्थावरकाय, उनके अपर्याप्त, वनस्पतिकायिक और निगोद जीवोंके जानना चाहिए। अवशेष नरक और तिर्यश्चगति आदिमें जिनके दोनों पदोंका काल सर्वदा है,उनका अन्तर काल नहीं है और जिनका सर्वदा काल नहीं है,उनका उत्कृष्टके समान भङ्ग है। इस प्रकार इस बीजपदके अनुसार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अवधिज्ञानी, स्त्रीवेदी, नपुंसकवेदी, अवधिदर्शनी
१. श्रा० प्रती चदुदंस० पुरिस• इति पाठः। २. ता. प्रतौ चदुदंस० पुरितवेद० चदुसवेद० [१] चदुसंज. पंचंत०, श्रा० प्रती चदुदंस० पुरिसवेद चदुसवेद० चदुसंज. पंचंत० इति पाठः । १. ता. प्रतो एवं अंतरं समत्त इति पाठो नास्ति ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे
२३ भावपरूवणा ४१५. भावं दुवि०-ज० उ०। उक्क. पगदं । दुवि०-ओघे०आदे। ओघे० सव्वपगदीणं उक्कस्साणुक्कस्सअणुभागबंधए ति को भावो ? ओदइगो भावो। एवं याव अणाहारए त्ति।
४१६. जह० दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० सव्वपगदीणं ज. अज० अणुभागबंधए त्ति को भावो ? ओदइगो भावो । एवं याव अणाहारए त्ति ।
एवं भावं समत्तं ।
२४ अप्पाबहुअपरूवणा ४१७. अप्पाबहुगं दुवि०-सत्थाणअप्पाबहुगं चेव परत्थाणेअप्पाबहुगं चेव । सत्थाणअप्पाबहुगं दुविधं-जह० उक्क० च । उक० पगदं । दुवि०-अोघे० आदे।
ओघे० सव्वतिव्वाणुभाग केवलणाणावरणीयं । आभिणि० अणंतगुणहीणं । मुद० अणंतगु० । ओघि० अणंतगु० । मणपज्जव० अणंतगुणहीणं । और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें वर्षपृथक्त्वप्रमाण अन्तर है।
इस प्रकार अन्तर काल समाप्त हुआ।
२३ भावप्ररूपणा ४१५. भाव दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका कौन भाव है ? औदयिक भाव है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए।
४१६. जघन्य दो प्रकारका है-ओघ और श्रादेश । ओघसे सब प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धकोंका कौन भाव है ? औदायिक भाव है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए।
विशेषार्थ-जीवके औपशमिक आदि अनेक भाव हैं। उनमें बन्धका प्रयोजक एकमात्र औदयिक भाव है; अन्य सब नहीं, यही इससे सिद्ध होता है।
इस प्रकार भाव समाप्त हुआ।
२४ अल्पबहुत्वप्ररूपणा ४१७. अल्पबहुत्व दो प्रकारका है-स्वस्थान अल्पबहुत्व और परस्थान अल्पबहुत्व । स्वस्थान अल्पबहुत्व दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका हैमोष और आदेश। ओघसे केवलज्ञानावरण सबसे तीव्र अनुभागवाला है। इससे आभिनिबोधिक ज्ञानावरणका अनुभाग अनन्तगणा हीन है। इससे श्रतज्ञानावरणका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे अवधिज्ञानावरणका अनुभाग अन्तगुणा हीन है। इससे मनःपर्ययज्ञानावरणका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है।
१. ता. प्रतौ एवं भावं समत्त इति पाठो नास्ति। २. ता. प्रतो-बहुगे (गं) चेति परत्याणइति पाठः।
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अप्पाबहुगपरूवणा
४१८, सव्वतिव्वाणुभागं केवलदंस० । चक्खु ० अनंतगु • अचक्खु० अनंतगु० । अधिदं० अणंतगुण० । थी० प्रणतगु० । णिद्दाणिद्दा० अनंतगु० । पचलापचला. अनंतगु० । णिद्दा० अनंतगु० । पचला० अनंतगु० ।
२२१
३१६, सव्वतिव्वाणुभागं साद० । असाद० अनंतगु० ।
I
४२०. सव्वतिव्वाणु० मिच्छ० । अनंताणुबंधिलो० अनंतगु० । माया ० विसेसा०| कोधे विसे० | माणो विसे० । संजलणाए लोभो अनंतगु० । माया ० विसे० । कोधे विसे० | माणो विसे० । एवं पञ्चक्खाण ०४ - अपञ्चक्खाण ०४ । णवुंस० अनंतगु० । अरदि० प्रणतगु ० | सोग० अनंतगु० । भय० अनंतगु० । दुर्गुच्छ० अनंतगु० । इत्थि० अनंतगु० । पुरिस० अनंतगु० । रदि० अनंतगु० । हस्स० अनंतगु० ।
I
४२१. सव्वतिव्वाणुभागं देवाउ० । णिरयाउ० अनंतगु० । मणुसाउ० अतगु० । तिरिक्खाउ० अनंतगु० ।
४२२. सव्वतिव्वाणुभागं देवगदि० । मणुस० अनंतगु० । णिरय० अनंतगु० ।
,
४१८. केवलदर्शनावरण सबसे तीव्र अनुभागवाला है। इससे चक्षुदर्शनावरणका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है । इससे अचक्षुदर्शनावरणका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे अवधि - दर्शनावरणका अनुभाग श्रनन्तगुणा हीन है। इससे स्त्यानगृद्धिका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है । इससे निद्रानिद्राद्रिका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे प्रचलाप्रचलाका अनुभाग अनन्तगुणा ही है । इससे निद्राका अनुभाग अनन्तगुणा हौन है। इससे प्रचलाका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है ।
४१६. सातावेदनीय सबसे तीव्र अनुभागवाला है। इससे असातावेदनीयका अनुभाग अनन्तगुणाहीन है ।
1
४२०. मिध्यात्व सबसे तीव्र अनुभागवाला है। इससे अनन्तानुबन्धी लोभका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है । इससे अनन्तानुबन्धी मायाका अनुभाग विशेष हीन है । इससे अनन्तानुबन्धी क्रोका अनुभाग विशेष हीन है। इससे अनन्तानुबन्धी मानका अनुभाग विशेष हीन । इससे संज्वलन लोभका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे संज्वलन मायाका अनुभाग विशेष हीन है । इससे संज्वलन क्रोधका अनुभाग विशेष हीन है । इससे संज्वलन मानका अनुभाग विशेष हीन है। इसी प्रकार प्रत्याख्यानावरण चार और अप्रत्याख्यानावरण चारका अनुभाग सम्बन्धी अल्पबहुत्व कहना चाहिए । इससे नपुंसकवेदका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे अरतिका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है । इससे शोकका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे भयका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे जुगुप्साका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे स्त्रीवेदका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे पुरुषवेदका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे रतिका अनुभाग अनन्तगुणा हीन । इससे हास्यका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है।
४२१. देवायु सबसे तीव्र अनुभागवाला है। इससे नरकायुका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे मनुष्यायुका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे तिर्यवायुका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है ।
४२२. देवगति सबसे तीव्र अनुभागवाला है। इससे मनुष्यगतिका अनुभाग अनन्तगुणा १. ता० श्रा० प्रत्योः श्रांतगु० णीचा० श्रचक्खु ० इति पाठः । २ ता० प्रतौ थि ( थी ) ० इति पाठः ।
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२२२
महाबंधे अणुभागबंधाहियारे तिरिक्ख० अणंतगु० । सव्वतिव्वाणुभागं पंचिंदिय० । एइंदि० अणंतगुणही। बेइंदि० अणंतगु० । तेइंदि० अणंतगु० । चदुरिंदि० अणंतगु० । सव्वतिव्वाणुभागं कम्मइ० । तेजा. अणंतगु० । आहार० अणंतगु० । वेवि० अणंतगु० । ओरालि. अणंतगु ० । सव्वतिव्वाणुभागं समचदु० । हुंड. अणंतगु० । जग्गोद० अणंतगु० । सादि० अणंतगु० । खुज० अणंतगु० । वामण० अणंतगु० । सव्वतिव्वाणुभागं आहारअंगो० । वेउवि. अणंतगु० । ओरालि अंगो० अणंतगु० । संघडणं संठाणभंगो। सव्वतिन्वाणुभागं पसत्थवण्ण०४ । अप्पसत्थ०४ अणंतगुणही०। यथा गदी तथा आणुपु० । [ सव्वतिव्वाणु० अगुरु० । उस्सास. अणंतगुणही० । परघाद० अणंतगुणही० । उप० अणंतगुणही० । ] एत्तो सव्वयुगलाणं सव्वतिव्वाणि पसत्याणि । अप्पसत्याणि पडिपक्वाणि अणंतगुणही ।
४२३. सव्वतिव्वाणुभागं विरियंत. । हेहा दाणंतरी. अणंतगु० ।
४२४. णिरएसु यत्तियाओं पगदीओ अत्थि तत्तियाओ मूलोघो। एवं सत्तसु हीन है । इससे नरकगतिका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है । इससे तिर्यश्चगतिका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। पञ्चन्द्रियजातिका अनुभाग सबसे तीव्र है। इससे एकेन्द्रियजातिका अनुभाग
रणा होन है। इससे द्वीन्द्रियजातिका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे त्रीन्द्रिय जातिका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे चतुरिन्द्रियजातिका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। कार्मणशरीर सबसे तीव्र अनुभागवाला है। इससे तैजसशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है । इससे आहारकशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे वैक्रियिकशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे औदारिकशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है । समचतुरस्रसंस्थान सबसे तीव्र अनुभागवाला है। इससे हुण्डकसंस्थानका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थानका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे स्वातिसंस्थानका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है । इससे कुब्जकसंस्थानका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे वामनसंस्थानका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है । आहारकआङ्गोपाङ्ग सबसे तीव्र अनुभागवाला है। इससे वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्गका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे औदारिक आङ्गोपाङ्गका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। छह संहननोंका अल्पबहुत्व छह संस्थानोंके समान है। प्रशस्त वर्णचतुष्क सबसे तीव्र अनुभागवाला है। इससे अप्रशस्त वर्णचतुष्कका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। चार आनुपूर्वियोंके अनुभागका अल्पबहुत्व चार गतियोंके समान है। अगुरुलघु सबसे तीव्र अनुभागवाला है । इससे उच्छ्वासका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे परघातका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है । इससे उपघातका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है । यहाँ सब युगलोंमें प्रशस्त प्रकृतियोंका अनुभाग सबसे तीव्र है। इससे अप्रशस्त प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है।
४२३. वीर्यान्तराय सबसे तीव्र अनुभागवाला है। इससे पूर्व दानान्तरायतक क्रमसे प्रत्येकका अनुभाग अनन्तगुणा हीन,अनन्तगुणा हीन है।
४२४. नारकियोंमें जितनी प्रकृतियाँ हैं, उनका अल्पबहुत्व मूलोधके समान है। इसी प्रकार
१. ता० प्रती० पगदि इति पाठः। २. ता. प्रती हेटाहु दंडाणं ( दाणं ) तरा, श्रा० प्रती हेठा दाणंतरा इति पाठः। ३. श्रा० प्रती एत्तियाओ इति पाठः।
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अप्पाबहुगपरूषणा
२२३ पुढवीसु । तिरिक्खेसु सव्वतिव्वाणुभागं णिरयाउ० । देवाउ० अणंतगु० । मणुसाउ० अणंतगु० । तिरिक्खाउ० अणंतगु० । सव्वतिव्वाणुभागं देवग० । णिरयग० अणंतगु० । तिरिक्खग० अणंतगु० । मणुसग० अणंतगु० । सेसं मूलोघं । एवं सव्वतिरिक्वाणं । पंचिं. तिरि०अपज्ज० णेरइगभंगो । एवं सव्वअपज्जतगाणं सव्वएइंदि० सव्वविगलिंदिय-सव्वपंचकायाणं च । मणुस०३ गदीओ तिरिक्वभंगो। सेसं मृलोपं । देवाणं मूलोघं । पंचिं०-तस०२-पंचमण०-पंचवचि०कायजो०-इस्थि०-पुरिस०-णqस०-कोधादि०४-मदि०-सुद०-विभंग०-असंज०-चक्खु०अचक्खु०-तिण्णिले०-भवसि०-अब्भवसि०-मिच्छा०-सरिण-आहारए ति मूलोघं । णवरि मदि०--सुद विभंग०-असंज-किरणले --अन्भवसि०--मिच्छा०-सएणीसु' तिरिक्खभंगो। ओरालि. मणुसि भंगो। ओरालियमि० तिरिक्खोघं । वेवि०वेउव्वि०मि० देवगदिभंगो । आहार०-आहारमि० सव्वहभंगो। कम्मइ० ओरालियमिस्स भंगो। एवं अणाहार०। अवगद० ओघं। एवंमुहुमसंप०।आभिणि-सुद०-ओधि०मणपज्ज०--संजद-सामाइ०-छेदो०-ओधिदं'०-मुक्कले०--सम्मादि०-खइग०-उव--सम'. सातों पृथिवियोंमें जानना चाहिए। तिर्यश्चोंमें नरकायु सबसे तीव्र अनुभागवाली है। इससे देवायुका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे मनुष्यायुका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है । इससे तिर्यश्चायुका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। देवगति सबसे तीव्र अनुभागवाली है। इससे नरकगतिका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे तिर्यश्चगतिका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे मनुष्यगतिका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। शेष भङ्ग मूलोघके समान है। इसी प्रकार सब तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए। पञ्चन्द्रियतिर्यश्चअपर्याप्तकोंमें नारकियोंके समान भङ्ग है। इसी प्रकार सब अपर्याप्त,सब एकेन्द्रिय,सब विकलेन्द्रिय और सब पाँच स्थावरकायिक जीवोंके जानना चाहिए । मनुष्यत्रिकमें चार गतियोंका भङ्ग तिर्यश्चोंके समान है। शेष भङ्ग मूलोषके समान है। देवोंमें मूलोषके समान भङ्ग है। पञ्चन्द्रियद्विक, वसद्धिक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कपायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभङ्गज्ञानी. असंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, संज्ञी और पाहा. रक जीवोंमें मूलोधके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभङ्गज्ञानी, असंयत, कृष्णलेश्यावाले. अभव्य, मिथ्यादृष्टि और संज्ञी जीवोंमें तिर्यञ्चोंके समान अल्पबहत्व है। औदारिककाययोगी जीवोंमें मनुष्यनियोंके समान भङ्ग है। औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें सामान्य तिर्यञ्चोंके समान भङ्ग है। वैक्रियिककाययोगी और वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें देवगतिके समान भङ्ग है। आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें सर्वार्थ: सिद्धिके समान भङ्ग है । कार्मणकाययोगी जीवोंमें औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंके समान भङ्ग है। इसी प्रकार अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए । अपगतवेदी जीवोंमें ओषके समान भङ्ग है। इसी प्रकार सूदमसाम्परायसंयत जीवोंके जानना चाहिए। आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें
१. प्रा. प्रतौ सवएइंदि० विगलिंदिय-पंचकायाणं च इति पाठः। २. प्रा. प्रतो सेस मूलोघं पंचिक इति पाठः। ३. ता. श्रा. प्रत्योः तिण्णिले. इति पाठः। ४. ता. श्रा. प्रत्योः असण्णी इति पाठः । ५. ता० श्रा० प्रत्योः छेदो० परिहार भोधिदं इति पाठः। ६. ता. श्रा० प्रत्योः खड्ग. वेदग. उघसम० इति पाठः।
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२२४
महापंधे अणुभागववाहियारे ओघ । गवरि अप्पप्पणो पगदीओ णादवाओ।
४२५. परिहार०-संजदासंज०-वेदग० सव्वहभंगो। णील-काऊणं सव्वतिव्वाणुभागं देवग० । मणुसग० अणंतगु० । तिरिक्ख० अणंतगु०। णिरय. अणंतगु० । एवं आणु० । सेसाणं किएणभंगो । तेउ० देवमंगो। एवं पम्माए वि । सासणे णिरयभंगो । सम्मामि० वेदग-भंगो । असण्णी० तिरिक्खभंगो।
एवं उक्कस्ससत्थाणअप्पाबहुगं समत्तं । ४२६. जह० पग० । दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे सव्वमंदाणुभागं मणपज्ज०। ओधिणा० अर्णतगुणब्भहियं । सुद० अणंतगुणब्भ० । आभिर्णि० अणंत०महि । केवल. अणंतगु०।
४२७. सव्वमंदाणुभागं अोधिदं० । अचक्खु० अणंतगु० । चक्खु० अणंतगु० । केवलदं० अणंतगु० । पचला. अणंतगु० । णिहा. अणंतगु० । पचलापचला. अणंतगु० । णिहाणिद्दा० अणंतगु० । थीणगिद्धि० अणंतगु० ।
४२८. सव्वमंदाणुभागं असादा० । सादा० अणंतगुणब्भहिः । पोषके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी प्रकृतियाँ जाननी चाहिए।
४२५. परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवों में सर्वार्थसिद्धिके समान भङ्ग है। नील और कापोत लेश्यामें देवगतिका अनुभाग सबसे तीव्र है। इससे मनुष्यगतिका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे तिर्यञ्चगतिका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है । इससे नरकगतिका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इसी प्रकार चार आनुपूर्वियोंका अल्पबहुत्व जानना चाहिए। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग कृष्णालेश्याके समान है। पीतलेश्यामें देवगतिके समान भङ्ग है। इसी प्रकार पदमलेश्यामें भी जानना चाहिए। सासादनमें नारकियोंके समान भङ्ग है। सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवोंमें वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके समान भङ्ग है। असंज्ञी जीवोंमें तिर्यञ्चोंके समान भङ्ग है।
इस प्रकार उत्कृष्ट स्वस्थान अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। ४२६. जघन्य अल्पबहुत्वका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मनापर्ययज्ञानावरण सबसे मन्द अनुभागवाला है। इससे अवधिज्ञानावरणका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे श्रुतज्ञानावरणका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है । इससे आभिनिबोधिकज्ञानावरणका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे केवलज्ञानावरणका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है।
४२७. अवधिदर्शनावरण सबसे मन्द अनुभागवाला है। इससे अचक्षुदर्शनावरणका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे चक्षुदर्शनावरणका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे केवलदर्शनावरणका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे प्रचलाका अनुभाग अनन्तगुण। अधिक है। इससे निद्राका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे प्रचलाप्रचलाका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे निद्रानिद्राका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे स्त्यानगृद्धिका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है।
४२८. असातावेदनीय सबसे मन्द अनुभागवाला है। इससे सातावेदनीयका अनुभाग अनन्तगुण। अधिक है।
१. ता. श्रा. प्रत्योः अर्णतगुणन्भदियं इति पाठः। २. श्रा० प्रती सुद० अणंतगुणभ. दुर्ग अणंतगुणन्म० श्राभिणि इति पाठः।
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अप्पाबहुगपरूषणा ४२६. सव्वमंदाणुभागं लोभसंजल० । मायासंज. अणंतगु० । माणसंज. अणंतगु० । कोषसंज० अणंतगु० । पुरिस० अणंतगु० । हस्स० अणंतगु० । रदि० अणंतगु० । दुगुं० अणंतगु० । भय० अणंतगु०। सोग० अणंतगु०। अरदि० अणंतगु० । इत्यि० अणंतगु० । णस० अणंतगु० । पञ्चक्खाणमाण० अणंतगु०। कोधे विसे । माया विसे० । लोभो विसे० । एवं अपञ्चक्खाणचदुक्क-अणंताणु'०४ । मिच्छ. अणंतगु ।
४३०. सव्वमंदाणुभागं तिरिक्खाउ० । मणुसाउ० अणंतगु० । णिरयाउ० अणंतगु० । देवाउ० अणंतगु० ।
४३१. सव्वमंदाणुभागं तिरिक्ख० । णिरय० अणंतगु० । मणुस० अणंतगुः। देव० अणंतगु० । सव्वमंदाणुभागं चदुरिं० । तीइंदि० अणंतगु० । बेइंदि० अणंतगु०। एइंदि० अणंतगु०। पंचिं० अणंतगु०। सव्वमंदाणुभागं ओरालि । वेवि० अणंतगुः । तेज. अणंतगुण । कम्मइ० अणंतगु० । आहार० अणंतगु०। सव्वमंदाणुभार्ग
४२६. लोभ संज्वलन सबसे मन्द अनुभागवाला है। इससे मायासंज्वलनका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे मानसंज्वलनका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे क्रोधसंज्वलनका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे पुरुषवेदका अनुभाग अनन्तगुण अधिक है। इससे हास्यका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे रतिका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे जुगुप्साका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है । इससे भयका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे शोकका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे अरतिका अनुभाग अनन्तगुण। अधिक है। इससे स्त्रीवेदका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे नपुंसकवेदका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे प्रत्याख्यानमानका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे प्रत्याख्यान क्रोधमें विशेष अधिक है। इससे प्रत्याख्यान मायाका अनुभाग विशेष अधिक है। इससे प्रत्याख्यान लोभका अनुभाग विशेष अधिक है। इसी प्रकार अप्रत्याख्यानावरण चार और अनन्तानुबन्धी चारका कहना चाहिए। अनन्तानुबन्धी लोभके अनुभागसे मिथ्यात्वका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है।
४३०. तिर्यश्चायुका अनुभाग सबसे मन्द है। इससे मनुष्यायुका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे नरकायुका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है । इससे देवायुका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है।
४३१. तिर्यश्चगतिका अनुभाग सबसे मन्द है। इससे नरकगतिका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे मनुष्यगतिका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे देवगतिका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। चतुरिन्द्रियजातिका अनुभाग सबसे मन्द है। इससे त्रीन्द्रियजातिका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे द्वीन्द्रियजातिका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे एकेन्द्रियजातिका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे पश्चोन्द्रियजातिका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है । औदारिकशरीर सबसे मन्द अनुभागवाला है। इससे वैक्रियिकशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे तैजसशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे कामणशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे आहारकशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। न्यग्रोध
१.पाप्रतौ अपचक्खायचदुक अयंतगु० इति पाठः।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे णम्गोंद० । सादि० अणंतगु०। खुज. अणंतगुणब्भ० । वामण. अर्णतगु० । हुंड. अणतगु० । समचदु० अणंतगु० । सव्वमंदाणुभागं ओरा०अंगो० । वेउव्वि० अंगो अणंतगु० । आहार०अंगो० अणंतगु० । संघडणं संठाणभंगो। सव्वमंदाणुभागं अप्पसत्य०४ । पसत्यवण्ण०४ अणंतगु० । यथा गदी तथा आणुपु० । सव्वमंदाणु० उप० । पर० [अणंतगु० । ] उस्सास० अणंतगु० । अगुरु० अणंतगु० । सव्वमंदाणु० अप्पसत्यवि० । पसत्थवि० अणंतगु० । तसादिदसयुगल० सादासादभंगो।
४३२. सव्वमंदाणु० णीचा० । उच्चा० अणंतगु० । सव्वमंदाणु० दाणंतरा। एवं परिवाडीए उवरिमाणं अणंतगुणब्भहियं५ ।
४३३. णिरएमु सव्वमंदाणु० पचला। णिद्दा० अणंतगु०। ओधिदं अणतगु०। अचक्खु० [अणंतगु०] । चक्खु० अणंतगु० । केवलदंस० [अांतगु ०] पचलापचला. अणंतगु०ाणिवाणिद्दा अणंतगु० थीणगि० अणंतगु०। सव्वमंदाणु हस्सारदि० अणंतगुलादुगुं० अपंतगु०। भय० अणंतगु०। पुरिस० अणंतगु०। संजलणकोध० अणंतगु०। माणो विसे । माया० विसे० । लोभो विसे । सोगो अणंतगु० । अरदि० अणंतगु०। परिमण्डल संस्थान सबसे मन्द अनुभागवाला है। इससे स्वातिसंस्थानका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे कुब्जक संस्थानका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे वामनसंस्थानका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे हुण्डक संस्थानका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे समचतुरस्रसंस्थानका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग सबसे मन्द अनुभागवाला है। इससे वैक्रियिक आङ्गोपाङ्गका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे आहारक आङ्गोपाङ्गका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। संहननोंका भङ्ग संस्थानोंके समान है। अप्रशस्त वर्णचतुष्क सबसे मन्द अनुभागवाला है। इससे प्रशस्त वर्णचतुष्कका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। चार गतियोंके समान चार आनुपूर्वी जाननी चाहिए । उपघात सबसे मन्द अनुभागवाला है। इससे परघातका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे उवासका अनुभाग अनन्त. गुणा अधिक है। इससे अगुरुलघुका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। अप्रशस्त विहायोगतिका अनुभाग सबसे मन्द है। इससे प्रशस्त विहायोगतिका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। त्रस आदि दस युगलोंका भङ्ग सातावेदनीय-असातावेदनीयके समान है।
४३२. नीचगोत्र सबसे मन्द अनुभागवाला है। इससे उच्चगोत्रका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। दानान्तराय सबसे मन्द अनुभागवाला है। इस प्रकार क्रमसे आगेकी प्रकृतियोंका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक।
४३३. नारकियोंमें प्रचला सबसे मन्द अनुभागवाला है। इससे निद्राका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे अवधिदर्शनावरणका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है । इससे अचक्षुदर्शनावरणका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे चक्षुदर्शनावरणका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे केवलदर्शनावरणका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे प्रचलाप्रचलाका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे निद्रानिद्राका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे स्त्यानगृद्धिका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। हास्य सबसे मन्द अनुभागवाला है । इससे रतिका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे जुगुप्साका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है । इससे भयका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे पुरुषवेदका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे संज्वलनक्रोधका अनुभाग अनन्तगुणाअधिक है। इससे मानसंज्वलनका अनुभाग विशेष अधिक है। इससे मायासंज्वलनका अनुभाग
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अप्पा बहुगंपरूवणा
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इत्थि० अतगु० | णवुंस • अरांतगु० ! अपच्चक्खाण०४- पञ्चक्खाण०४ - अताणुबं ०४ संजलणाए भंगो | मिच्छ० अांतगु० । सव्वमंदाणु० तिरिक्खाउ० । मणुसाउं० अरणंतगु० । सव्वमंदाणु० तिरिक्खग० | मणुसग० अांतगु० । सेसाणं पगदीणं मूलोघं । एवं सत्तसु पुढवीसु० ।
४३४. सव्वतिरिक्खा णेरइयभंगो। णवरि मोहस्स पच्चक्खाण०४ पुर्व कादव्वं । सव्वअपज्जत्तयाणं देवारणं सव्व एइंदिय- सव्वविगलिंदिय-पंचकायाणं च णेरइगभंगो । किंचि विसेसो साधेदव्वो ।
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४३५. मणुस ०३ - पंचिं ० -तस०२ - पंचमण० - पंचवचि०-- कायजोगि -ओरालि ०इत्थि० - पुरिस० स० ओघं । अवगर्द० - कोधादि ०४ - आभिणि० - सुद० - ओधि०-मणपज्ज० - संजद - सामाइय-छेदो ० -सुहुमसं० चक्खु०-अचक्खु ० - ओधिदं ० - सुक्कले ० - भवसि ० सम्मादि ० - खड्ग ० - उवसम० सण्णि आहारए त्ति मूलोघं । ओरालियमि० - कम्पइ०मदि० - सुद० - विभंग ० - असं ज० - तिण्णिले ० -- अब्भवसि ० -- मिच्छा० - अणाहारएसु दंसणावरणीयं मोहणीयं णेरइगभंगो। सेसाणं मूलोघं । वेडव्वि ० वेडव्वियमि० देवभंगो । आहार०आहारमि० - परिहार० - संजदासंज० - सम्मामिच्छादि० सव्वहभंगो । तेडले ० - पम्मले ०
विशेष अधिक है । इससे लोभसंज्वलनका अनुभाग विशेष अधिक है। इससे शोकका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे अरतिका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे स्त्रीवेदका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे नपुंसकवेदका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है । अप्रत्याख्यानावरण चार, प्रत्याख्यानावरण चार और अनन्तानुबन्धी चारका भङ्ग संज्वलनके समान है । अनन्तानुबन्धी लोभके अनुभागसे मिध्यात्वका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है । तिर्यश्वायुका अनुभाग सबसे मन्द है । इससे मनुष्यायुका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है । तिर्यचगतिका अनुभाग सबसे मन्द है । इससे मनुष्यगतिका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। शेष प्रकृतियों का भङ्ग मूलोधके समान है। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें जानना चाहिए ।
४३४. सब तिर्यों का भङ्ग नारकियोंके समान है । इतनी विशेषता है कि मोहनीय में प्रत्याख्यानावरण चारको पहले करना चाहिए। सब अपर्याप्त, देव, सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय और पाँच स्थावर कायिक जीवोंका भङ्ग नारकियों के समान है । कुछ विशेषता साध लेनी चाहिए ।
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४३५. मनुष्यत्रिक, पञ्चेन्द्रियद्विक, सद्विक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, श्रदारिककाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और नपुंसकवेदी जीवोंमें ओघ के समान भङ्ग अपगतवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, अभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंगत, छेदोपस्थापना संयत, सूक्ष्मसाम्परायसंयत, चतुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिक सम्यग्दृष्टि, उपशम सम्यग्दृष्टि, संज्ञी और आहारक जीवोंमें मूलोघके समान भङ्ग है । औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभङ्गज्ञानी, असंयत, तीन लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और अनाहारकों में दर्शनावरणीय और मोहनीयका भङ्ग नारकियोंके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग लोके समान है। वैक्रियिककाययोगी और वैक्रिथिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें देवों के समान भङ्ग है । आहारक काययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत और सम्यग्मिथ्यादृष्टि
१. ता० प्रतौ पुरिस० एषं स० । श्रवगद०, श्रा० प्रतौ पुरिस० श्रोधं । श्रवगद० इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे दसणा०-मोह० तिरिक्ख भंगो । सेसं देवभंगो! वेदग० दसणा-मोह० तिरिक्खगदिमंगो। सेसाणं सव्वहभंगो। सासणे णिरयभंगो। असण्णीम सत्तण्णं कम्माणं णिरयभंगो । णामाणं तिरिक्खभंगो।
एवं जहण्णसत्थाणअप्पाबहुगं समत्तं । ४३६. एत्तो परत्थाणअप्पाबहुगं पगदं । दुविधं-ज. उक० । उक० पगदं । दुवि०-ओघे० आदे। ओघे० उक्कस्सओ चदुस्सहिपदिददंडओ कादवो भवदि । तं जहा-सव्वतिव्वाणुभागं सादा० । जस०-उच्चा० दो वि तु० अणतगुणहीणा । देवगदि० अणंतगु० । कम्मइ० अणंतगुण। तेज० अणंतगु० [आहार० अणंतगुणही।] वेउव्वि० अणंतगु०। मणुस० अणंत० ओरालि. अणंता मिच्छ० अणंत०। केवलणा०केवलदं०-असाद०-विरियंतरा० चत्तारि वि तुल्ला. अणंतगु० । अणंताणु लोभ. अणंतगु० माया विसे० कोधो विसे । माणो विसे । संजलणाए लोभ० अणतगु०॥ माया विसे। कोधो विसे० । माणो विसे । एवं पञ्चक्खाण०४-[अपञ्चक्खाण०४-] । आभिणि-परिभो० दो वि तु. अणंतगु०। चक्खु० अणंतगु० । मुद०-अचक्खु०जीवोंमें सर्वार्थसिद्धिके समान भङ्ग है। पीतलेश्या और पद्मलेश्यामें दर्शनावरण और मोहनीयका भङ्ग तिर्यश्चगतिके समान है। शेष भङ्ग देवोंके समान है। वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें दर्शनावरण और मोहनीयका भङ्ग तिर्यश्चोंके समान है। शेष कर्मोंका भङ्ग सर्वार्थसिद्धिके समान है। सासादनमें नारकियोंके समान भङ्ग है। असंज्ञियोंमें सात कर्मोंका भङ्ग नारकियोंके समान है। नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग तिर्यञ्चोंके समान है।
__ इस प्रकार जघन्य स्वस्थान अल्पवहुत्व समाप्त हुआ। ४३६. इससे आगे परस्थान अल्पबहुत्वका प्रकरण है। वह दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे उत्कृष्ट चौंसठपदवाला दण्डक करना चाहिए । यथा-सातवेदनीयका अनुभाग सबसे तीव्र है। इससे यशाकीर्ति और उच्चगोत्रके अनुभाग दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे हीन हैं । इनसे देवगतिका अनुभाग अनन्तागुणा हीन है । इससे कार्मणशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे तैजसशरीरका अनुभाग अनन्तगणा हीन है। इससे आहारकशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे वैक्रियिकशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे मनुष्य. गतिका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे औदारिकशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे मिथ्यात्वका अनुभाग अनन्तगुणाहीन है। इससे केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण, असातावेदनीय और वीर्यान्तरायके अनुभाग चारों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे हीन हैं। इनसे अनन्तानुबन्धी लोभका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे अनन्तानुबन्धी मायाका अनुभाग विशेष हीन है । इससे अनन्तानुबन्धी क्रोधका अनुभाग विशेष हीन है। इससे अनन्तानुबन्धी मानका अनुभाग विशेष हीन है। इससे संज्वलन लोभका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे संज्वलन मायाका अनुभाग विशेष हीन है। इससे संज्वलन क्रोधका अनुभाग विशेष होन है। इससे संज्वलन मानका अनुभाग विशेष हीन है। इसी प्रकार प्रत्याख्यानावरण और अप्रत्याख्यानावरण चारका अल्पबहुत्व है। अप्रत्याख्यानावरण मानके अनुभागसे आभिनिबोधिक ज्ञानावरण और परिभोगान्तरायके अनुभाग दोनों हो तुल्य होकर अनन्तगुणे हीन हैं। इनसे
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अप्पाबहुगपरूषणा
२२९ भोगतरा० तिण्णि वि तुल्ला० अणंतगु० । प्रोधिणा०-ओघिदं०-लाभंतरा० तिण्णि वि तुल्ला० अणंतगु० । मणपज्ज०-थीणगिदि०-दाणंतरा० तिण्णि वि तुल्ला० अणंतगु० । णवूस० अणंत० । अरदि० अणंत० । सोग० अणंत० । भय० [ अणंत०] । दुगु. अयंत० । णिशाणिद्दा० अणंत०। पचलापचला० अणंत० । णिद्दा० अणंत। पयला. अतः। अजस०-णीचा. दो वि तु० अणंत०। णिरयग० अणंत । तिरिक्ख. अणंतः । इत्थि० अणंत । पुरिस० अणंत० । रदि० अणंत । हस्स० अणंत० । देवाउ० अर्णत० । णिरया० अणंत० । मणुसाउ० अणंत० । तिरिक्खाउ० अणंत० । एवं भोघभंगो पंचिं०--तस०२-पंचमण--पंचवचि०--काययोगि०--इत्थि०--पुरिस०णस०--अवगद०-कोषादि०४-मदि०-मुद०-विभंग०-असंज०--चक्खु०-अचक्खु०तिण्णिले०-भवसि०-अब्भवसि०-मिच्छा०-सण्णि-आहारए ति ।
४३७. णिरयगदीए सव्वतिव्वाणुभागं सादा० । जस०-उच्चा० अणंतगु० । मणुस० अणंत० । कम्म० अणंत । तेज० अणंत० । ओरालि० अणंत० । मिच्छ० अणंत० । केवलणा०-केवलदं०-सादा०-विरियंत. चत्तारि वि तुला० अणंतगु० । चक्षुदर्शनावरणका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है । इससे श्रुतज्ञानावरण, अचक्षुदर्शनावरण और भोगान्तरायके अनुभाग तीनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे हीन हैं। इनसे अवधिज्ञानावरण, अवधिदर्शनावरण और लाभान्तरायके अनुभाग तीनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे हीन हैं। इनसे मनःपर्ययज्ञानावरण, स्त्यानगद्धि और दानान्तरायके अनुभाग तीनों ही तुल्य होकर अनन्त गुणे हीन हैं। इनसे नपुंसकवेदका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे अरतिका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे शोकका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे भयका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है । इससे जुगुप्साका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे निद्रानिद्राका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे प्रचलाप्रचलाका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे निद्राका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे प्रचलाका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे अयश:कीर्ति और नीचगोत्रका अनुभाग दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे हीन हैं। इससे नरकगतिका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे तिर्यश्चगतिका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे स्त्रीवेदका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है । इससे पुरुषवेदका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे रतिका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे हास्यका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे देवायुका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है । इससे नरकायुका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे मनुष्यायुका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे तिर्यश्वायुका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इस प्रकार श्रोधके समान पञ्चन्द्रियद्विक, सद्विक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी, अपगतवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभङ्गज्ञानी, असंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिए।
४३७. नरकगतिमें सातावेदनीय सबसे तीव्र अनुभागवाला है। इससे यशःकीर्ति और उच्चगोत्रके अनुभाग दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे हीन हैं। इनसे मनुष्यगतिका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे कार्मणशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे तैजसशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे औदारिकशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे मिथ्यात्वका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण, असाता
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महाणुभागबंधाहियारे
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अताणु लोभो अनंतगु० । माया विसे० । कोधो विसे० । माणो विसे० । संजलणलोभो अनंतगु० । माया विसे० । कोधो विसे० । माणो विसे० । एवं पच्चक्खाण०४अपच्चक्खाण०४ । आभिणि० - परिभोग० दो वि तुल्ला० अनंतगु० । चक्खु० अांतगु० । सुद०-अचक्खु०-भोग० तिष्णि वि तुल्ला० अनंत० । अधिणा० - ओषिदं०लाभंत० तिणि वितुल्ला • अांतगु० । मणपज्जव ० -थीणगि० दाणंतरा० तिण्णि वि तुल्ला० अनंत० । णस० अनंत० । अरदि ० अनंत० । सोग० अनंत० । भय० अनंत० । दुगुं० अणंत० । णिद्दाणिद्दा० अनंत० । पचलापचला • अनंतगु ० ही ० । णिद्दा० अनंत । पचली. अनंत० । णीचा० - अजस० दो वि तु० अण तगु० । तिरिक्ख • अनंतगु ० । इत्थि० अनंत० । पुरिस० अनंत० । रदि० अनंत० । हस्स० अनंत० । मणुसाउ० अनंत० । तिरिक्खाउ० अनंतगु० । एवं सत्तसु पुढवी | raft [सत्तमी] मणुसाउ० णत्थिं० ।
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४३८. तिरिक्खेसु सव्वतिव्वाणु० सादा० । जस०- उच्चा० अनंतगु० । देववेदनीय और वीर्यान्तराय के अनुभाग चारों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे हीन हैं। इनसे अनन्तानुबन्धी लोभका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे अनन्तानुबन्धी मायाका अनुभाग विशेष हीन है। इससे अनन्तानुबन्धी क्रोध का अनुभाग विशेष हीन है। इससे अनन्तानुबन्धी मानका अनुभाग विशेष हीन है । इससे संज्वलन लोभका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे संज्वलन मायाका अनुभाग विशेष हीन है। इससे संज्वलन क्रोधका अनुभाग विशेष हीन है। इससे संज्वलन मानका अनुभाग विशेष हीन है। इसी प्रकार क्रमसे प्रत्याख्यानावरण चार और अप्रस्थाख्यानावर चारका अल्पबहुत्व है । अप्रत्याख्यानावरण मानके अनुभागसे श्रभिनिबोधिक ज्ञानावरण और परिभोगान्तरायके अनुभाग दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे हीन हैं। इनसे चक्षुदर्शनावरणका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे श्रुतज्ञानावरण, अचक्षुदर्शनावरण और भोगान्तरायके अनुभाग तीनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे हीन हैं। इनसे अवधिज्ञानावरण, श्रवधिदर्शना वरण और लाभान्तरायके अनुभाग तीनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे हीन हैं । इनसे मन:पर्ययज्ञानावरण, स्त्यानगृद्धि और दानान्तरायके अनुभाग तीनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे हीन हैं । इनसे नपुंसक वेदका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे अरतिका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है । इससे शोकका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे भयका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे जुगुप्साका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है । इससे निदानिद्रा का अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे प्रचलाप्रचलाका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे निद्राका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे प्रचलाका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे नीचगोत्र और अयशः कीर्ति के अनुभाग दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे हीन हैं। इससे तिर्यञ्चगतिका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है । इससे स्त्रीवेदका अनुभाग अनन्तगुरणा हीन है। इससे पुरुषवेदका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे रतिका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे हास्यका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है । इससे मनुष्यायुका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है । इससे तिर्यवायुका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है । इसी प्रकार सातों पृथिवियों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सातवीं पृथिवी में मनुष्यायु नहीं है ।
४३८. तिर्यों में सातावेदनीय सबसे तीव्र अनुभागवाला है। इससे यशःकीर्ति और उच्चगोत्र १. श्र० प्रतौ शिद्दाणिद्दा० अत० पचला० इति पाठः । २. ता० प्रतौ सत्तसेसु. ( सत्तसु ) इति पाठः । ३. श्र० प्रतौ मणुसाउ० इत्थि० इति पाठः ।
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अप्प बहुग परूवणा
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गदि० अनंत० । कम्मइ० अनंत । तेज० अणंत० । वेडव्वि० अत० | मिच्छ● अत० । सेसं ओघं याव णिरयग० अनंतगु० । मणुसग० अांतगु० । ओरालि० अांतगु० ! तिरिक्ख० अनंतगु० । सेसं ओघं याव हस्स० अनंतगु० । णिरयाउ ० अनंतगु • ० । देवाउ० अनंतगु० । मणुसाउ० अनंतगु० । तिरिक्खाउ० अनंतगु० । एवं पंचिदियतिरिक्ख ०३ - मणुस ०३ !
४३६. पंचिं० तिरि०अपज्जत्तगेसु सव्वतिव्वाणुभागं मिच्छ० । सादा० अनंतगु० ! जस० - उच्चा० दो वि तु० अनंतगु० । मणुसग० अनंत० । कम्मर अनंत० । तेज • अनंत० । ओरा० अनंत० । केवलणा ०-केवलदं० - असादा०-विरयंत० चत्तारि वि तु० अनंतगु० । उवरि ओघं याव मणुसाउ० अनंतगु० । तिरिक्खाउ० अनंत० । एवं सव्वअपज्जत्तगाणं सव्व एइंदि ० - सव्वविगलिंदि ० पंचकायाणं च ।
०
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४४०. देवाणं णिरयभंगो । ओरालि० मणुसभंगो । ओरा०मि० सव्वतिव्वाणुभा० साद० । जस० - उच्चा० दो वि० अनंत० । देवग० अनंत० । कम्मइ० अनंत० । तेज० अनंत० । वेउच्वि० अनंत० । मिच्छ० अनंत० । सेसं पंचिंदि ० तिरि० भंगो |
के अनुभाग दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे हीन हैं । इनसे देवगतिका अनुभाग अनन्तगुणा ही है। इससे कार्मणशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे तैजसशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे वैक्रियिकशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा दीन है। इससे मिध्यात्वका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। शेष भङ्ग नरकगतिका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इस स्थानके प्राप्त होने तक श्रोध के समान है । आगे मनुष्यगतिका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे औदारिशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा दीन है। इससे तिर्यञ्चगतिका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है । शेष भङ्ग, हास्यका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इस स्थानके प्राप्त होने तक श्रधके समान है। आगे नरकायुका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे देवायुका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे मनुष्य का अनुभाग अनन्तगुणा हीन है । इससे तिर्यवायुका अनुभाग अनन्तगुणादीन है । इसी प्रकार चन्द्रयतिर्यञ्चत्रिक और मनुष्यत्रिकके जानना चाहिए ।
४३६. पञ्च ेन्द्रियतिर्यञ्च पर्याप्तकों में मिध्यात्व सबसे तीव्र अनुभागवाला है । इससे सातावेदनीयका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे यशःकीर्ति और उच्चगोत्र के अनुभाग दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे हीन हैं। इनसे मनुष्यगतिका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है । इससे कार्मणशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे तैजसशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे औदारिकशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है । इससे केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण, असातावेदनीय और वीर्यान्तरायके अनुभाग चारों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे हीन हैं। आगे मनुष्यायुका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है । इस स्थानके प्राप्त होनेतक ओघ के समान भङ्ग है । इससे तिर्यवायुका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है । इसी प्रकार सब अपर्याप्त, सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय और पाँच स्थावरकायिक जीवोंके जानना चाहिए ।
४४०. देवों में नारकियोंके समान भङ्ग है । औदारिककाययोगी जीवोंमें मनुष्योंके समान भन है । दारिक मिश्रकाययोगी जीवों में सातावेदनीय सबसे तीव्र अनुभागवाला है। इससे यश:कीर्ति और उच्चगोत्रका अनुभाग दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे हीन हैं । इनसे देवगतिका अनु भाग अनन्तगुणहीन है। इससे कार्मणशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे तैजस
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महागंधे अणुभाग भाहियारे
अत्थि ।
०
४४१. वेडव्वि० रइगभंगो । एवं वेडव्वियमि० । आहार० - आहारमि० सव्वतिव्वाणु ० साद० । जस० उच्चा० अनंत० | देव० अत० । कम्म० अनंत० | तेज० अनंत | वेडव्वि० अनंत० । केवलणा०--केवलदंस० श्रसाद० - विरियंत ० चत्तारि वि अनंतगु० । संजलणलोभो अनंत० । माया विसे० । कोधो विसे० । माणो विसे० । 1 आभिणि० - परिभोग० दो वि तु० अांत० । चक्खु० अनंत० । सुद०--अचक्खु०भोगंत तिणि वि तु० अनंत० । अधिणा० - ओधिदं० - लाभत० तिण्णि वि. तु० अनंत | मणपज्ज० - दाणंत० दो वि तु० अनंत० । पुरिस० अनंत० । अरदि० अत० । सोग० अनंत० । भय० अनंत० । दुगुं० अनंत० । णिद्दा० अनंत० । पचला० अनंत० । अजस० अनंत० । रदि० अनंत० । हस्स० अनंत० | देवाउ० अत० । एवं मणपज्ज० -संज० - सामाइय- च्छेदो ० - परिहार० । एदेसु आहारसरीरं श्रत्थि । संजदासंजद० परिहारभंगो । णवरि पच्चक्खाण०४ अत्थि ।
०
शरीरका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे वैक्रियिकशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है । इससे मिध्यात्वका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। शेष भङ्ग पचन्द्रियतिर्यों के समान है । इस मार्गणा में इतना ही अल्पबहुत्व है ।
४४१. वैक्रियिककाययोगी जीवोंमें नारकियोंके समान भङ्ग है। इसी प्रकार वैक्रियिक मिश्रकाययोगी जीवों में जानना चाहिए। आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें सातावेदनीय सबसे तीव्र अनुभागवाला है। इससे यशःकीर्ति और उच्चगोत्र के अनुभाग दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे हीन हैं । इनसे देवगतिका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे कार्मणशरीरका अनुभाग अनन्तगुणाहीन है। इससे तैजसशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है । इससे वैक्रियिकशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण, असातावेदनीय और वीर्यान्तरायके अनुभाग चारों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे हीन हैं। इनसे संज्वलन लोभका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है । इससे संज्वलन मायाका अनुभाग विशेष हीन है। इससे संज्वलन क्रोधक अनुभाग विशेष दीन है । इससे संज्वलन मानका अनुभाग विशेष हीन है। इससे आभिनिबोधिक ज्ञानावरण और परिभोगान्तराय के अनुभाग दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे हीन हैं। इससे चक्षुदर्शनावरणका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे श्रुतज्ञानावरण, अचक्षुदर्शनावरण और भोगान्तरायके अनुभाग तीनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे हीन हैं । इनसे अवधिज्ञानावरण, अवधिदर्शनावरण और लाभान्तरायके अनुभाग तीनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे हीन हैं। इनसे मन:पर्ययज्ञानावरण और दानान्तरायके अनुभाग दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे हीन हैं । इनसे पुरुषवेदका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है । इससे अतिका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है । इससे शोकका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे भयका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे जुगुप्साका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे निद्राका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे प्रचलाका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे अयश:कीर्तिका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे रतिका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे हास्यका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे देवायुका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इसी प्रकार मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत और परिहारविशुद्धिसंयत जीवों के जानना चाहिए। इनमें आहारकशरीर है। संयतासंयत जीवों का भङ्ग परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि इनमें प्रत्याख्यानावरण चार हैं ।
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अप्पाबहुगपरूषणा
२५ ४४२. कम्मइ० ओघं । गवरि चदुआउ० णिरयगदिदुर्ग आहारसरीरं वज सेसं कादव्वं । एवं अणाहार० । आभिणि-मुद०-प्रोधि०-सम्मादि०-खइग०-वेदग०. उवसम-सासण.--सम्मामिच्छादिहि ति ओघं । णवरि अप्पप्पणो पगदिविसेसो णादव्यो । तेउ० ओघं । णवरि णिरयगदिदुगं वज्ज । एवं पम्माए । सुक्काए ओघं। णवरि दोआउ० णिरयगदिदुगं तिरिक्खगदितिगं च वज । असण्णीसु सव्वतिव्वाणुभाग मिच्छ० । साद० अणंत० । जस०-उच्चा० अणंत० । देव. अणंत० । कम्म० अणंत । तेज. अणंत० । वेउव्वि० अणंत० । उवरि तिरिक्खोघं ।
एवं उक्कस्सपरत्थाणअप्पाबहुगं समत्तं । ४४३. जहण्णए पगदं । दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० सव्वमंदाणु० लोभसंज०। [ मायासंजल० ] अणंतगुणब्भहियं । माणसंज. अणंतगु० । कोषसंज. अणंतगु० । मणपज०-दाणंत० दो वि तु० अणंतगु० । ओधिणा०-ओघिदं०-लाभंत. तिण्णि वि तु. अणंतगु० । सुदणा०-अचक्खु०-भोगंतरा० तिण्णि वि तु० अणंतगु० । चक्खु. अणंत । आभिणि०-परिभो० दो वि तु० अणंतगु० । विरियंत. अणंत० ।
४४२. कामणकाययोगी जीवोंका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि इनमें चार आयु, नरकगतिद्विक और आहारकद्विकको छोड़कर शेषका अल्पबहुत्व कहना चाहिए । इसी प्रकार अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए। आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रतज्ञानी, अवधिज्ञानी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवोंमें ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी प्रकृतिविशेष जान लेना चाहिए।पीतलेश्यामें ओघके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि नरकगतिद्विकको छोड़कर कहना चाहिए । इसी प्रकार पद्मलेश्यामें जानना चाहिए। शुक्ललेश्यामें अोधके समान है। इतनी विशेषता है कि दो आयु, नरकगतिद्विक और तिर्यश्चगतित्रिकको छोड़कर कहना चाहिए। असंज्ञी जीवों में मिथ्यात्व सबसे तीव्र अनुभागवाला है। इससे सातावेदनीयका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे यश कीर्ति और उच्चगोत्रका अनुभाग दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे हीन हैं। इनसे देवगतिका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे कार्मणशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे तैजसशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। इससे वैक्रियिकशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा हीन है। आगे सामान्य तियश्चों के समान भङ्ग है।
इस प्रकार उत्कृष्ट परस्थान अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। ४४३. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है -ओघ और आदेश। ओघसे लोभसंज्वलन सबसे मन्द अनुभागवाला है। इससे मायासंज्वलनका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे मानसंज्वलनका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे क्रोधसंज्वलनका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे मनापर्ययज्ञानावरण और दानान्तरायके अनुभाग दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे अधिक हैं। इनसे अवधिज्ञानावरण, अवधिदर्शनावरण और लाभान्तरायके अनुभाग तीनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे अधिक हैं। इनसे श्रुतज्ञानावरण, अचक्षुदर्शनावरण, और भोगान्तरायके अनुभाग तीनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे अधिक हैं। इनसे चक्षुदर्शनावरणका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे आमिनिबोधिकज्ञानावरण और परिभोगान्तरायके अनुभाग दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे अधिक हैं। इनसे वीर्यान्तरायका अनुभाग अनन्तगुणा
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महापंधे अणुभागवाहियारे पुरिस० अणंत० । हस्स० अर्णतः । रदि० अणंत०। दुगुं० अणंत०। भय० अणंत० । सोग० अणंत० । अरदि० अर्णतः । इत्थि० अणंत० । णस० अर्णतः । केवलणा-केवलदं० दो वि तु. अणंत । पयला. अणंत० । णिहा. अणंत । पञ्चक्खाणमाणो अणंत० । कोधो विसे । माया विसे० । लोभो विसे० । एवं अपञ्चक्खाण.४ । पचलापचला अणंतगु० । णिहाणिहा अणंतगु० । थीणगि० अणंत । अणंताणु०माणो अणंतगु० । कोधो विसे । माया विसे० । लोभो विसे । मिच्छ. अणंत० । ओरा० अणंत० । वेउन्वि० अणंत । तिरिक्खाउ० अत० । मणुसाउ. अणंत० । तेजा० अणंत० । कम्पइ० अणंत०। तिरिक्ख० अणंत। णिरय० अणंत। मणुस. अतः । देवग० अणंत० । णीचा० अणंत० । अजस० अणंत० । असाद. अणंत । जस०-उच्चा० दो वि तु० अर्णतः । साद० अणंत०। णिरयाउ० अर्णतः । देव. अणंत । आहार० अणंत०।
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अधिक है। इससे पुरुषवेदका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे हास्यका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे रतिका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे जुगुप्साका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है । इससे भयका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे शोकका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे अरतिका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे स्त्रीवेदका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे नपुंसकवेदका अनुभाग अनन्तगणा अधिक है। इससे केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरणके अ
वरणके अनुभाग दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगणे अधिक है। इनसे प्रचलाका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे निद्राका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है । इससे प्रत्याख्यानावरण मानका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है । इससे प्रत्याख्यानावरण क्रोधका अनुभाग विशेष अधिक है। इससे प्रत्याख्यानावरण मायाका अनुभाग विशेष अधिक है। इससे प्रत्याख्यानावरण लोभका अनुभाग विशेष अधिक है। इसी प्रकार अप्रत्याख्यानावरण चारके अनुभागका अल्पबहुत्व है। आगे प्रचलाप्रचलाका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे निद्रानिद्राका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे स्त्यानगृद्धिका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे अनन्तानुबन्धी मानका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है । इससे अनन्तानुबन्धी क्रोधका अनुभाग विशेष अधिक है। इससे अनन्तानुवन्धी मायाका अनुभाग विशेष अधिक है। इससे अनन्तानुबन्धी लोभका अनुभाग विशेष अधिक है । इससे मिथ्यात्वका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे औदारिकशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे वैक्रियिकशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे तिर्यञ्चायुका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे मनुष्यायुका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे तैजसशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे कार्मणशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे तिर्यश्चगतिका अनुभाग अनन्त. गुणा अधिक है। इससे नरकगतिका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे मनुष्यगतिका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे देवगतिका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे नीचगोत्र का अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे अयशाकीर्तिका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे असातावेदनीयका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे यश:कीर्ति और उच्चगोत्रके अनुभाग दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे अधिक हैं। इससे सातावेदनीयका अनुभाग अनन्तगणा अधिक है। इससे नरकायुका अनुभाग अनन्तगणा अधिक है। इससे देवायुका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे बाहारकशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है।
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अप्पाबहुगपरूवणा
२३५ __४४४. णिरएसु सव्वमंदाणु० हस्स० । रदि० अणंत० । दुगुं० अर्णतः । भय० अणंत० । पुरिस० अणंत० । माणसंज. अणंत० । कोषसंज. विसे । मायासंज. विसे० । लोभसंज. विसे । सोग० अणंत० । अरदि० अणंत० । इत्थि० अणंत० । णस० अणंत० । पचला. अणंत० । णिद्दा० अणंत० । मणपज्जव०-दाणंत० दो वि. तु० अणंत० । ओधिणा०-ओघिदं०-लाभंत. तिण्णि वि तु०अणंत० । सुद०-अचक्खु०भोगंत० तिण्णि वि तु० अणतः । चक्खु० अणंत । आभिणि-परिभोग० दो वितु० अणंत० । अपञ्चक्खाणमाणो अणंत । कोषो विसे० । माया विसे०। लोभो विसे । एवं पञ्चक्खाणा०४ । विरियंत० अणंत० । केवलणा-केवलदंस० दो वि तु० अणंत० । पचलापचला अणंत.। णिहाणिदा० अणंत० । थीणगि० अणंत० । अणंताणु०माणो अणंत । कोधो विसे०। माया विसे०। लोभो विसे । मिच्छा० अणंत० । ओरालि. अणंत । तेज. अणंत०। कम्मइ० अणंत । तिरिक्ख० अणंत । मणुस० अणंत० ।
४४४. नारकियोंमें हास्य सबसे मन्द अनुभागवाला है। इससे रतिका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे जुगुप्साका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे भयका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है । इससे पुरुषवेदका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है । इससे मानसंज्वलनका अनुभाग अनन्तगणा अधिक है। इससे क्रोधसंज्वलनका अनुभाग विशेष अधिक है। इससे माया संज्वलनका अनुभाग विशेष अधिक है। इससे लोभसंज्वलनका अनुभाग विशेष अधिक है। इससे शोकका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है । इससे अरतिका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है । इससे स्त्रीवेदका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है । इससे नपुंसकवेदका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे प्रचलाका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे निद्राका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे मनापर्ययज्ञानावरण और दानान्तरायके अनुभाग दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे अधिक हैं। इनसे अवधिज्ञानावरण, अवधिदर्शनावरण और लाभान्तरायके अनुभाग तीनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे अधिक हैं। इनसे श्रुतज्ञानावरण, अचक्षुदर्शनावरण और भोगान्तरायके अनुभाग तीनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे अधिक हैं। इनसे चक्षुदर्शनावरणका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे आभिनिबोधिकज्ञानावरण और परिभोगान्तरायके अनुभाग दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे अधिक हैं । इनसे अप्रत्याख्यानावरण मानका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे अप्रत्याख्यानावरण क्रोधका अनुभाग विशेष अधिक है । इससे अप्रत्याख्यानावरण मायाका अनुभाग विशेष अधिक है । इससे अप्रत्याख्यानावरण लोभका अनुभाग विशेष अधिक है। इसी प्रकार प्रत्याख्यानावरणचतुष्कका अल्पबहुत्व है । प्रत्याख्यानावरण लोभके अनुभागसे वीर्यान्तरायका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है । इससे केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरणके अनुभाग दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे अधिक हैं । इनसे प्रचलाप्रचलाका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे निद्रानिद्राका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे स्त्यानगृद्धिका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है । इससे अनन्तानुवन्धी मानका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे अनन्तानुबन्धी क्रोधका अनुभाग विशेष अधिक है। इससे अनन्तानुबन्धी मायाका अनुभाग विशेष अधिक है। इससे अनन्तानुबन्धी लोभ का अनुभाग विशेष अधिक है । इससे मिथ्यात्वका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे औदारिकशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे तैजसशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे कार्मणशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे तिर्यश्चगतिका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे मनुष्यगतिका अनुभाग अनन्तगुणा
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महापंधे अणुभागबंधाहियारे णीचा० अर्णतः । अजस० अणंत० । असाद० अणंत। जस०-उच्चा० दो वि तु० अणंत । साद० अणंत । तिरिक्खाउ० अणंत० । मणुसाउ० अणंत । एवं सत्तम पुढवीसु । णवरि छसु उवरिमासु णीचा अजस० ऍक्कदो भाणिदव्वं ।
४४५. तिरिक्खेसु पढमपुढविभंगो याव आभिणि-परिभोगंतरा० दो वि तु० अणंत० । पञ्चक्रवाणमाणो अणंत० । कोधो विसे० । माया विसे० । लोभो विसे० । विरियंत. अणंत० । केवलणा०-केवलदं० दो वि तु० अणंत० । अपचक्रवाण-माणो अणंत० । कोधो विसे० । माया विसे० । लोभो विसे० । उवरि ओघं । एवं पंचिं०. तिरि०३ । णवरि एदेसु णीचा० अजस० ऍक्कदो भाणिदव्वा ।।
४४६. पंचिं०तिरि०अपज्ज०-मणुसअपज्जत्त-विगलिंदि०-पंचिंदि०-तस०अपज्ज. तिण्हंकायाणं च पढमपुढविभंगो। णवरि दोआउ० ओघं । एवं एइंदियाणं पि । णवरि तिरिक्खोघं णीचा० अणंत। अजस० अणंत । एवं तेउ-वाउणं पि । णवरि मणुसगदिचदुक्कं वज्ज । देवाणं णेरइगभंगो । मणुस०३-पंचिंदि०-तस०२-पंचमण०अधिक है। इससे नीचगोत्रका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है । इससे अयशाकीर्तिका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे असातावेदनीयका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे यश कीर्ति
और उच्चगोत्रके अनुभाग दोनों ही तुल्य हो कर अनन्तगुणे अधिक हैं। इनसे सातावेदनीयका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे तिर्यञ्चायुका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे मनुष्यायुका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है । इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि पहलेकी छह पृथिवियोंमें नीचगोत्र और अयश कीर्ति को एकसाथ कहना चाहिए ।
४४५. तिर्यवोंमें आभिनिबोधिकज्ञानावरण और परिभोगान्तराय के अनुभाग दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे अधिक हैं। इस स्थानके प्राप्त होने तक पहली पृथिवीके समान भंग है। इससे प्रत्याख्यानावरण मानका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है । इससे प्रत्याख्यानावरण क्रोधका अनुभाग विशेष अधिक है। इससे प्रत्याख्यानावरण मायाका अनुभाग विशेष अधिक है। इससे प्रत्याख्यानावरण लोभका अनुभाग विशेष अधिक है। इससे वीर्यान्तरायका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरणके अनुभाग दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे अधिक हैं । इनसे अप्रत्याख्यानावरण मानका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है । इससे अप्रत्याख्यानावरण क्रोधका अनुभाग विशेष अधिक है । इससे अप्रत्याख्यानावरण मायाका अनुभाग विशेष अधिक है। इससे अप्रत्याख्यानावरण लोभका अनुभाग विशेष अधिक है। इससे आगे ओघके समान भंग है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रियतिर्यचत्रिकमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें नीचगोत्र और अयश कीर्ति एकसाथ कहने चाहिए।
४४६. पञ्चन्द्रियतिर्यश्चअपर्याप्त, मनुष्यअपर्याप्त, विकलेन्द्रिय, पञ्चन्द्रियअपर्याप्त, सअपर्याप्त और तीन स्थावर कायिक जीवोंमें प्रथम पृथिवीके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि इनमें दो आयुओंका भङ्ग श्रोधके समान है। इसी प्रकार एकेन्द्रियोंमें भी जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें सामान्य तिर्यश्चोंके समान नीचगोत्रका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे अयशःकीर्तिका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इसी प्रकार अग्निकायिक और पायुकायिक जीवोंके भी जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें मनुष्यगतिचतुष्कको छोड़कर कहना चाहिए । देवोंमें नारकियोंके समान भङ्ग है। मनुष्यत्रिक, पञ्चन्द्रियद्विक, सद्विक, पाँचों
१. ता. प्रा. प्रत्योः चतुण्डं इति पाठः ।
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अप्पा बहुगपरूवण
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पंचवचि०-- कायजोगि - ओरालि० ओघं । णवरि मणुसेसु णीचा ० -- अजस ० ऍको भाणिदव्वं ।
४४७. ओरालियमि० णेरइगभंगो याव ओरा० अत० । तिरिक्खाउ० अांत ० । मणुसाउ० अनंत । तेजा० अनंत० । कम्म० अनंत० । तिरिक्ख० अनंत० । मणुस ० अनंत० । णीचा० श्रणंत० । अजस० अनंत० । असाद० अनंत० । जस०उच्चा• दो वि तु० अनंत० | साद० अनंत० । वेजव्वि० अनंत ० | देव० अनंत० ।
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४४८, वेव्वि० - वेडव्वियमि० णिरयोघं । आहार० - आहारमि० सव्वद्वभंगो । वरि अक० णत्थि । कम्मइ० ओरालियमिस्सभंगो । इत्थ० - पुरिस० सव्वमंदाणु ० कोधसंज० । माणसंज० [ विसे० ] | मायासंज० विसे० । लोभसंज० विसे० । मणपज्ज०-दानंत० दो वि तु० अनंत० । उवरि ओघं । णवुंसगे ओघं । णवरि संजलणाए इत्थि० भंगो । अवगद० ओघं । साद० अनंत० ।
४४६. कोध० [ सव्व०- ] मंदाणु० कोधसंज० । माणो विसे० । माया
मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी और औदारिककाययोगी जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि मनुष्यों में नीचगोत्र और अयशःकीर्ति एकसाथ कहने चाहिए।
४४७. औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें श्रदारिकशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इस स्थानके प्राप्त होने तक नारकियोंके समान भङ्ग है। इससे तिर्यञ्च युका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे मनुष्यायुका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे तैजसशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे कार्मणशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे तिर्यगतिका 'अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे मनुष्यगतिका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है । इससे नीचगोत्रका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे अयशः कीर्तिका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है । इससे असातावेदनीयका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे यशः कीर्ति और उच्चगोत्रके अनुभाग दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे अधिक हैं । इनसे सातावेदनीयका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे वैक्रियिकशरीरका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है । इससे देवगतिका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है ।
४४८. वैक्रियिककाययोगी और वैक्रियिकमिश्र काययोगी जीवोंमें सामान्य नारकियोंके समान भङ्ग है । आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवों में सर्वार्थसिद्धि के समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि इनमें आठ कषाय नहीं हैं। कार्मरणकाययोगी जीवों में श्रदारिकमिश्रकाययोगी जीवों के समान भङ्ग है । स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीवों क्रोधसंज्वलन सबसे मन्द अनुभागवाला है । इससे मानसंज्वलनका अनुभाग विशेष अधिक है । इससे मायासंज्वलनका अनुभाग विशेष अधिक है । इससे लोभसंज्वलनका अनुभाग विशेष अधिक है । इससे मन:पर्ययज्ञानावरण और दानान्तरायके अनुभाग दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे अधिक हैं। आगे श्रघ के समान भङ्ग है । नपुंसकवेदी जीवों में ओघ के समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि चार संज्वलनोंका भङ्ग स्त्रीवेदीके समान है । अपगतवेदी जीवों में ओघ के समान भङ्ग है । मात्र सातावेदनीयका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है, यहाँ तक कहना चाहिए ।
४४. क्रोधकषाय में क्रोधसंज्वलन सबसे मन्द अनुभागवाला है। इससे मानसंज्वलनका
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महा अणुभाग चाहियारे
विसे० । लोभो बिसे० । मणपज्ज० दाणंत० दो वि तु० अनंत० । उवरि ओघं । माणे सव्वमंदाणु ० माणसंज० । मायासंज० विसे० । लोभसं० विसे० । कोधसं० अनंतगुण० । मणपज्ज० - दानंत० दो वि तु० अर्णत० । उवरि श्रघं । मायाए सव्वमंदाणु ० मायासंज० । लोभसंज० वि० । माणसंज० अनंत० । कोधसंज० अनंत० । मणपज्ज०दात० दो वि तु० अनंत० । उवरि ओघं । लोभे श्रघं । मदि० - सुद० णेरइयभंगो 1 याव मिच्छतं । उवरि ओघं । एवं विभंग० - असंज० - किण्ण-णील- काउ०- अब्भवसि ०मिच्छा ० - अस िति । आभिणि० - सुद० - ओधि० मणपज्ज० -संजद- सामाइ० - छेदो०
दिं० सम्मादि ० खइग०-उवसम० ओघभंगो। णवरि सम्मत्तपाओग्गाओ संजमपाओग्गाओ च पगदीओ णादव्वाओ । परिहार० आहार०भंगो। णवरि आहारसरीर० सव्वरि अत० । सुहुमसंप० अवगद ० भंगो । संजदासंज० णेरइगभंगो याव आभिणि० - परिभो० दो वि तु० अनंत । पच्चक्खाणमाणो अनंत० । उवरि ओघं । चक्खु०- अचक्खु ० - सुक्क० भवसि० सरिण० - आहारए ति श्रघं ।
४५० ते ० देवभंगो याव आभिणि० - परिभो० दो वि तु० अनंत० । पच्चअनुभाग विशेष अधिक है। इससे मायासंज्वलनका अनुभाग विशेष अधिक है। इससे लोभसंज्वनका अनुभाग विशेष अधिक है। इससे मन:पर्ययज्ञानावरण और दानान्तरायके अनुभाग दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे अधिक हैं। आगे श्रधके समान है। मानकषाय में मानसंज्वलन सबसे मन्द अनुभागवाला है। इससे मायासंज्वलनका अनुभाग विशेष अधिक है। इससे लोभसंज्वलनका अनुभाग विशेष अधिक है। इससे क्रोधसंज्वलनका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे मन:पर्ययज्ञानावरण और दानान्तरायके अनुभाग दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे अधिक हैं । आगे ओघ के समान भङ्ग है । मायाकषाय में मायासंज्वलन सबसे मन्द अनुभागवाला है। इससे लोभसंज्वलनका अनुभाग विशेष अधिक है। इससे मानसंज्वलनका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे क्रोधसंज्वलनका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे मन:पर्ययज्ञानावरण और दानान्तराय के अनुभाग दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे अधिक हैं। आगे ओघके समान है । लोभकषाय में के समान है । मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवों में मिथ्यात्व के स्थान के प्राप्त होने तक नारकियोंके समान भङ्ग है । आगे ओघके समान है। इसी प्रकार विभङ्गज्ञानी, असंयतः कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, अभव्य, मिध्यादृष्टि और असंज्ञी जीवों में जानना चाहिए । अभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापना संयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिक सम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवों में श्रधके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्वप्रायोग्य और संयमप्रायोग्य प्रकृतियाँ जाननी चाहिए । परिहारविशुद्धिसंयत जीवों में आहार ककाययोगी जीवोंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि इनमें आहारकशरीर के अनुभागको सबके ऊपर अनन्तगुणा अधिक कहना चाहिए । सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवों में अपगतवेदी जीवों के समान भङ्ग है। संयतासंयत जीवों में आभिनिबोधिज्ञानावरण और परिभोगान्तराय के अनुभाग दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे अधिक हैं। इस स्थानके प्राप्त होने तक नारकियों के समान भङ्ग है। इनसे प्रत्याख्यानावरण मानका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। आगे ओघके समान भङ्ग है । चतुदर्शनी, अचतुदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवों में ओघ के समान भङ्ग है । ४५०,
पीतलेश्यामें अभिनिवोधिकज्ञानावरण और परिभोगान्तरायके अनुभाग दोनों ही
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भुजंगारबंधो
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०
क्वाणमाणो अनंत । कोधो विसे० । माया ० विसे० । लोभो विसे० । विरियंत० अत० । केवलणा० - केवलदं • दो वि तु० अनंत० । अपच्चक्खाणमाणो अनंत० । कधी विसे० । माया विसे० । लोभो विसे० । पचला अनंत० । णिद्दा अनंत ० । उवरि ओघं । एवं पम्माए । वेदग० ते ०भंगो। एवं सम्मामि० । सासणे रइगभंगो । अण्णी तिरिक्खोघं । अणाहार० कम्मइगभंगो ।
एवं अप्पा बहुगं समत्तं ।
एवं चदुवीसमणियोग़द्दारं समतं । भुजगारबंधो
४५१. एत्तो भुजगार बंधे त्ति तत्थ इमं अद्वपदं - जाणि एहि अणुभागफद्धगाणि बंदि अतरोसका विदविदिक्कते समए अप्पदरादो बहुदरं बंधदि ति एसो भुजगारबंधो नाम० । अप्परबंधेत्ति तत्थ इमं अट्ठपदं - जाणि एहि अणुभागफद्धगाणि बंधदि अणंतरउस्सका विदविदिक्कते समए बहुदरादो अप्पदरं बंधदि ति एस अप्परबंधो
तुल्य होकर अनन्तगुणे अधिक हैं। इस स्थानके प्राप्त होने तक देवोंके समान भङ्ग है। इनसे प्रत्याख्यानावर मानका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे प्रत्याख्यानावरण क्रोध का अनुभाग विशेष अधिक है। इससे प्रत्याख्यानावरण मायाका अनुभाग विशेष अधिक है । इससे प्रत्याख्यानावरण लोभका अनुभाग विशेष अधिक है। इससे वीर्यान्तिरायका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरण के अनुभाग दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे अधिक हैं । इनसे प्रत्याख्यानावरण मानका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे प्रत्याख्यानावरण कोषका अनुभाग विशेष अधिक है। इससे अप्रत्याख्यानावरण मायाका अनुभाग विशेष अधिक है । इससे प्रत्याख्यानावरण लोभका अनुभाग विशेष अधिक है। इससे प्रचलाका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे निद्राका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है । आगे श्रोघके समान भङ्ग है। इसी प्रकार पद्मलेश्या में भी जानना चाहिए। वेदकसम्यक्त्व में पीतलेश्या के समान भङ्ग है । इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वमें जानना चाहिए। सासादनसम्यक्त्व में नारकियों के समान भङ्ग 1 असंज्ञियों में सामान्य तिर्यों के समान भङ्ग है। अनाहारकोंमें कार्मणकाययोगी जीवोंके समान भङ्ग है ।
इस प्रकार अल्पबहुत्व समाप्त हुआ ।
इस प्रकार चौबीस अनुयोगद्वार समाप्त हुए ।
भुजगारबन्ध
४५१. इससे आगे भुजगारबन्धका प्रकरण है । उसमें यह अर्थपद हैं- जो इनके अनुभाग स्पर्धकों को बांधता है, वह जब अनन्तर व्यतिक्रान्त समय में बँधनेवाले अल्पतरसे इस समय में बहुतरको बाँधता है, तब वह भुजगारबन्ध कहलाता है । अल्पतरबन्धके विषय में यह अर्थपद है - इनके जो अनुभागस्पर्धक बाँधता है, वह जब अनन्तर पिछले समय में बँधनेवाले बहुतर से १. ता० प्रतौ श्रयंत० । केवलदं० इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागवघाहियारे णाम । अवछिदषधे ति सत्य इमं अहपदं-जाणि एहि अणुभागफदगाणि बंधदि अणंतरओसकाविद--उस्सकाविदविदिक्कते समए तत्तियाणि चेव बंधदि ति एसो अवहिदबंधो णाम । अवत्तव्वबंधे ति तत्थ इमं अद्वपदं-अबंधादो बंधदि ति एसो अवत्तव्वबंधो णाम । एदेण अहपदेण तत्थ इमाणि तेरस अणियोगदाराणि णादवाणि भवंति । तं जहा-समुक्त्तिणा याव अप्पाबहुगे ति ।
समुक्किवणाणुगमो ४५२. समुक्कितणाए दुविधो णिसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण सव्वपगदीणं अत्थि भुजगारबंधो अप्पद० अवहिद० अवत्तव्यबंधो य । एवं ओघमंगो मणुस०३-पंचिं०-तस०२-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि०-ओरा०-आभिणि-मुद०. प्रोधि०--मणपज्ज०-संजद०-चक्खु०-अचक्खु०-ओघिदं०-मुक्कले०-भवसि०-सम्मा०खइग०-उवसम०-सएिण-आहारए ति ।
४५३. णेरेइएसु धुविगाणं अत्यि भुज. अप्पद० अवहि० । सेसाणं ओघभंगो। ओरालियमि०-कम्मइ०-अणोहारएसु धुवियाणं देवगदि०४-तित्थ० अवत्तन्व० णत्यि । वेउन्वि०-वेउव्वियमि० तित्थये० अवत्तव्वया णत्थि धुवियाणं च । इत्यिपुरिस०-णवंस० पंचणा०-चदुदंस०-चदुसंज०-पंचंत. अवतव्वगा वज्ज. तिणिपदा,
views
इस समयमें अल्पतरको बाँधता है, तब अल्पतरवन्ध कहलाता है। अवस्थितबन्धके विषयमें यह अर्थपद है-इनके जो अनुभाग स्पर्धक बाँधता है,वह जब अनन्तर पिछले और अगले समयमें उतने ही बाँधता है.तब वह अवस्थितबन्ध कहलाता है। प्रवक्तव्यबन्धक विषयमें यह अर्थपद हैजो अबन्धसे बन्ध करता है, वह अवक्तव्यबन्ध कहलाता है । इस अर्थपदके अनुसार यहाँ ये तेरह अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं। यथा-समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्व तक ।
समुत्कीर्तनानुगम ४५२. समुत्कीर्तनाकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे सब प्रकृतियोंका भुजगारबन्ध है, अल्पतरबन्ध है, अवस्थितबन्ध है और अवक्तव्यबन्ध है। इसी प्रकार प्रोधके समान मनुष्यत्रिक, पश्चन्द्रियद्विक, सद्विक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिए।'
४५३. नारकियोंमें ध्रुव प्रकृतियोंका भुजगारबन्ध, अल्पतरबन्ध और अवस्थितबन्ध है। तथा शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली देवगतिचतुष्क और तीर्थङ्कर प्रकृतियोंका अवक्तव्यबध नहीं है। वैक्रियिककाययोगी और वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें तीर्थङ्कर प्रकृतिके अवक्तव्यबन्धक जीव नहीं हैं। तथा ध्रुवप्रकृतियोंके भी अवक्तव्यबन्धक जीव नहीं हैं। स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और
१. ता. प्रतो वेउन्धियमि० घेउब्धियमि० (१) तित्थय इति पाठः।
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भुजगारबंधे सामित्ताणुगमो
२४१ सैसाणं चत्तारिपदा। अवगद० सव्वाणं अत्थि भुज०-अप्पद०-अवत्तव्वबंधगा य । कोधे इत्यिभंगो। माणे पंचणा०-चदुदंस-तिण्णिसंज०-पंचंत० अत्थि तिण्णि पदा। एवं मायाए । णवरि दोसंज० । सेसं ओघं । लोभे पंचणा०-चदुदंस-पंचंत. अत्थि तिएिणपदा। सेसं ओघं । सामाइ०-छेदो० पंचणा०-चदुदंस०-लोभसंज०-उच्चा.. पंचत० अत्यि तिषिणपदा। सेसं ओघं । मुहुमसं० सव्वाणं अत्थि भुज०-अप्पदः । सेसाणं णिरयभंगो । किंचि विसेसो णादव्यो ।
एवं समुकित्तणा समत्ती ।
सामिचाणुगमो ४५४. सामित्ताणुगमेण दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० पंचणा०-छदंस०-चदुसंज०-भय-दु०--तेजा०--क०--पसत्थापसत्थ०४-अगु०-उप०-णिमि०-पंचंत. भुज०अप्पद०-अवहि. कस्स० १ अण्ण । अवत्तव्वबंधो कस्स ? अण्ण० उवसामणादो पडिपदमाणस्स मणुस्सस्स वा मणुसिणीए वा पढमसमयदेवस्स वा। थीणगिद्धि०३-मिच्छ०अणंताणु०४-तिएिणपदा णाणोवरणभंगो। अवत्तव्व० कस्स ? अण्ण० असंजमसम्मनपुंसकवेदी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायके अबक्तव्यबन्धको छोड़कर तीन पद हैं तथा शेष प्रकृतियोंके चार पद हैं। अपगतवेदी जीवोंमें सब प्रकृतियोंके भुजगारबन्धक, अल्पतरबन्धक और अवक्तव्यबन्धक जीव हैं। क्रोधकषायमें स्त्रीवेदी जीवोंके समान भङ्ग है। मानकषायमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, तीन संज्वलन और पाँच अन्तरायके तीन पद हैं । इसी प्रकार मायाकषायमें भी जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यहाँ दो संज्वलन कहने चाहिए। शेष भङ्ग ओषके समान है। लोभकषायमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायके तीन पद हैं। शेष भङ्ग ओघके समान है। सामायिकसंयत
और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, लोभ संज्वलन, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके तीन पद हैं। शेष भङ्ग ओघके समान है। सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंमें सब प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतरपद हैं। शेष मार्गणाओंका भङ्ग नारकियोंके समान है । किश्चित् विशेषता है, वह जान लेनी चाहिए।
इस प्रकार समुत्कीर्तना समाप्त हुई ।
स्वामित्वानुगम ४५४. स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव स्वामी है। अवक्तव्य बन्धका स्वामी कौन है ? उपशमश्रेणिसे गिरनेवाला अन्यतर मनुष्य, मनुष्यिनी या प्रथम समयवर्ती देव स्वामी है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारके तीन पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। इनके अवक्तव्यबन्धका स्वामी कौन है ? जो अन्यतर जीव असंयतसम्यक्त्वसे,
१. ता० प्रती एवं समुक्कत्तिणा समत्ता इति पाठो नास्ति ।
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२४२
महाबंधे अणुभागधंधाहियारे तादो संजमादो संजमासंजमादो सम्मामिच्छत्तादो वा परिवदमाणयस्स पढमसमयमिच्छादिहिस्स वा सासणसम्मा० वा । णवरि मिच्छा असंजमादों' संजमासंजमादो संजमादो वा सासण० सम्मामि० वा परिवदमा० पढमसमयमिच्छादि०। सादासाद०. सत्तणोक०--चदुगदि--पंचजादि-दोसरीर-छस्संठा०-दोअंगो०--छस्संघ०--चदुआणु०दोविहा०-तसथावरादिदसयुग०-दोगो० तिण्णिपदा णाणावरणभंगो। अवत्तव्व० कस्स०१ अण्ण० परियत्तमाणयस्स पढमसमयबंधमाणयस्स । अपञ्चक्खाण०४ तिण्णिपदा णाणा०भंगो । अवत्त० कस्स० १ अण्ण. संजमादो वा संजामासंज० परिवद० पढमसम० मिच्छादि० सासण० सम्मामि० असंजदसम्मा० । पञ्चक्खाण०४ तिण्णिपदा णाणा०भंगो। अवत्त० कस्स० १ अण्ण. संजमादो परिवद० पढमस० मिच्छा० सासण. सम्मामि० असंजद० संजदासंजदस्स वा । चदुआउ०-आहारदुग-पर०-उस्सा०-उज्जो०तित्थय. तिएिणपदा णाणा भंगो। अवत्त० कस्स० १ अण्ण• पढमसमयबंधगस्स । एवं ओघभंगो मणुस०३-पंचिंदि०-तस०२-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि-ओरालि.लोभक०-चक्खु०-अचक्खु०-भवसि०-सएिण-आहारए ति। णवरि मणुस०-मण-बचि०
संयमसे, संयमासंयमसे और सम्यग्मिथ्यात्वसे गिरकर प्रथम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि सासादनसम्यग्दृष्टि जीव है, वह उक्त प्रकृतियोंके प्रवक्तव्यबन्धका स्वामी है। इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वके अवक्तव्यबन्धका स्वामी कौन है ? असंयमसे, संयमासंयमसे, संयमसे, सासादनसे
और सम्यग्मिध्यात्वसे गिरकर जो प्रथम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि है,वह मिथ्यात्वके प्रवक्तव्यबन्धका स्वामी हैं। सातावेदनीय, असातावेदनीय, सात नोकषाय, चार गति, पांच जाति, दो शरीर, छह संस्थान, दो आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, चार आनुपूर्वी, दो विहायोगति, स-स्थावर आदि दस युगल और दो गोत्रके तीन पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। अवक्तव्यबन्धका स्वामी कौन है ? जो परिवर्तमान मध्यम परिणामवाला प्रथम समयमें इनका बन्ध करता है, वह इनके अवक्तव्यबन्धका स्वामी है। अप्रत्याख्यानावरण चारके तीन पदोंका भङ्ग ज्ञानावरण के समान है। इनके अवक्तव्यबन्धका स्वामी कौन है ? संयम या संयमासंयमसे गिरनेवाला प्रथम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि सासादनसम्यग्दृष्टि सम्यग्मिध्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि अन्यतर जीव इनके अवक्तव्यबन्धका स्वामी है। प्रत्याख्यानावरण चारके तीन पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। इनके अवक्तव्यबन्धका स्वामी कौन है ? संयमसे गिरनेवाला प्रथम समयवर्ती मिध्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत अन्यतर जीव इनके श्रवक्तव्यबन्धका स्वामी है। चार आयु, आहारकद्विक, परघात, उच्छ्वास, उद्योत और तीर्थङ्कर प्रकृतिके तीन पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। इनके अवक्तव्यबन्धका स्वामी कौन है? प्रथम समयमें 'बन्ध करनेवाला अन्यतर जीव इनके प्रवक्तव्यबन्धका स्वामी है। इसीप्रकार ओघके समान मनुष्यत्रिक, पञ्चन्द्रियद्विक, त्रसद्विक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी,लोभकषायी, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चहिये । इतनी विशेषता है कि मनुष्य, मनोयोगी, वचनयोगी और औदारिककाययोगी जीवोंमें
१. ता. प्रा. प्रत्योः सम्मा०वा मिच्छा. णवरि असंजमादो इति पाठः । २. ता. प्रती अर्सनमादो संजमादो इति पाठः।
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भुजगारबंधे सामित्ताणुगमो
२४३ ओरालि. पढमदंड अवत्त० कस्स० १ अण्ण उवसमणादो परिवद० पढमस० मणुसस्स वा मणुसणीए वा।
४५५. णेरइएमु धुविगाणं भुज०-अप्पद०-अवहि० कस्स० ? अण्ण० । थीणगिदि०-मिच्छ०-अणंताण.४ तिण्णिपदा ओघं । अवत्त० कस्स० ? अण्ण० सम्मत्त. सम्मामि० परिवद० पढमसम० मिच्छा० सासण। णवरि मिच्छा० अवत्त० कस्स०? अण्ण० सम्म० सासण० सम्मामि० वा परिवद० पढमस० मिच्छा० । सेसा० ओघं । एवं सव्वणेरइगाणं । णवरि सत्तमाए तिरिक्ख०--तिरिक्रवाणु०--णीचा० थीणगि०भंगो । मणुस०-मणुसाणु०-उच्चा० तिण्णिपदा णाणाभंगो । अवत्त० कस्स० ? अण्ण. पढम० असंज० सम्मामि० ।
४५६. तिरिक्खेसु धुविगाणं णेरइगभंगो। सेसं ओघ । णवरि संजमो णत्थि। सेसाणं सव्वाणं अणाहारए त्ति अोघं । कायाणं साधेदव्वं । णवरि तेउलेस्साए इत्थि०पुरिस० भुज०-अप्प०--अवहि-अवत्त० कस्स० ? अण्णद० तिगदियस्स० । णवूस० तिण्णिपदा अवत्त० कस्स० ? अण्ण० देवस्स । तिरिक्खगदि-मणुसगदि० तासिं आणु० तिएिणपदा देवस्स० । अवत्त० क० १ अण्ण० देवस्स परियत्तमाणयस्स । ओरालि. प्रथम दण्डकके अवक्तव्यबन्धका स्वामी कौन है ? उपशमश्रणीसे गिरनेवाला प्रथम समयवर्ती अन्यतर मनुष्य और मनुष्यिनी प्रथम दण्डकके अवक्तव्यबन्धका स्वामी है।
४५५. नारकियोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित बन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर नारकी स्वामी है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुनन्धी चारके तीन पदोंका भंग ओघके समान है। अवक्तव्यबन्धका स्वामी कौन है ? सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वसे गिरनेवाला अन्यतर प्रथम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीव इनके अवक्तव्यबन्धका स्वामी है। इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वके अवक्तव्यबन्धका स्वामी कौन है ? सम्यक्त्व, सासादनसम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वसे गिरनेवाला अन्यतर प्रथमसमयवर्ती मिथ्यादृष्टि नारकी मिथ्यात्वके प्रवक्तव्यबन्धका स्वामी है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार सब नारकियोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि सातवीं पृथिवीमें तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका भङ्ग स्त्यानगृद्धिके समान है। मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रके तीन पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। इनके प्रवक्तव्यबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर प्रथम समयवर्ती असंयतसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि नारकी इनके अवक्तव्यबन्धका स्वामी है।
४५६. तिर्यश्चोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतिचोंका भङ्ग नारकियोंके समान है। शेष भङ्ग ओषके समान है। इतनी विशेषता है कि इनके संयम नहीं है। अनाहारक मार्गणा तक शेष सबका भङ्ग ओषके समान है। पाँच स्थावरकायवालोंका साध लेना चाहिए । इतनी विशेषता है कि पीतलेश्यामें स्त्रीवेद और पुरुषवेदके भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्यबन्धका स्वामी कौन है। अन्यतर तीन गतिका जीव स्वामी है। नपुंसकवेदके तीन पदोंका और अवक्तव्यपदका स्वामी कौन है ? अन्यतर देव स्वामी है । तिर्यश्चगति, मनुष्यगति और उनकी आनुपूर्वियोंके तीन पदोंका स्वामी देव है। अवक्तव्यबन्धका स्वामी कौन है ? परिवर्तमान मध्यम परिणामवाला
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे तिगिणपदा अण्णदर० । अवत्त० कस्स० १ अएण. पढमस० देवस्स । एवं पम्माए वि । सुक्कलेस्साए तिएिणवेदाणं अवत्त० कस्स० ? अण्ण० देवस्स ।
एवं सामित्तं समत्तं ।
कालाणुगमो ४५७. कालाणु० दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० सव्वपगदीणं भुज०-अप्प०वंधगा केवचिरं कालादो होदि ? जह एगसम०, उ. अंतो० । अवहि. केव० १ ज. ए०, उ० सतह सम० । णवरि चदुआउ० अवहि० ज० ए०, उ० सत्त सम० । अवत्त० सव्वपगदीणं एग०, एवं अणाहारए ति णेदव्वं । एवं णिरयादिसु अवहिदकालो अहसमया भवंति । कम्मइ०-अणाहारएस तिएिण समया भवंति ।
एवं कालं समत्तं'।
अन्यतर देव अवक्तव्यबन्धका स्वामी है। औदारिकशरीरके तीन पदोंका अन्यतर देव स्वामी है। अवक्तव्यबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर प्रथम समयवर्ती देव स्वामी है । इसी प्रकार पद्मलेश्यामें भी जानना चाहिए । शुक्ललेश्यामें तीन वेदोंके प्रवक्तव्यबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर देव स्वामी है।
इस प्रकार स्वामित्व समाप्त हुआ।
कालानुगम ४५७. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और आदेश। ओघसे सब प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतर पदके बन्धक जीवका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । अवस्थित पदके बन्धक जीवको कितना काल है ? जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सात व आठ समय है। इतनी विशेषता है कि चार आयुके अवस्थित पदके बन्धक जीवका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सात समय है। सब प्रकृतियोंके प्रवक्तव्यपदके बन्धक जीवका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। इसी प्रकार नरकादिमें अवस्थितबन्धका काल आठ समय होता है। मात्र कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें तीन समय होता है ।
विशेषार्थ-अनुभागबन्धमें वृद्धि और हानिके छह-छह स्थान हैं। उनमेंसे यद्यपि पाँच वृद्धियों और पाँच हानियोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। पर अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । इसीसे यहाँ सब प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतर अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा है। अवस्थित अनुभागबन्धके कारणभूत परिणाम कम से कम एक समय तक और अधिकसे अधिक सात-आठ समय तक होते है, इसलिए अवस्थित अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल सात-आठ समय कहा है। पर आयु कमेके अवस्थित अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल सात समय ही है, क्योकि आयुकर्मके अवस्थित अनुभागबन्धके योग्य परिणाम इतने कालसे अधिक समय तक नहीं होते । सब
१. ता. प्रती एवं कालं समत्तं इति पाठो नास्ति ।
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भुजगारबंधे अंतराणुगमो
अंतराणुगमो ४५८. अंतराणु० दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० पंचणा०-छदंस०-चदुसंज०भय-दु०-तेजा-क०-वण्ण०४-अगु०-उप०-णिमि०-पंचंत० भुज०-अप्प० बंधतरं केव० होदि ? ज० ए०, उ० अंतो० । अवहि० ज० ए०, उ० असंखेज्जा लोगा। अवत्त० ज० अंतो०, उ० अदपो० । थीणगि०--मिच्छ०--अणंताणु०४ भुज०-अप्प० ज० ए०, उ० बेछावहि० देसू० । अवहि०-अवत्त० णाणाभंगो। सादासाद०-हस्स-रदि-अरदिसोग-थिराथिर-सुभासुभ-जस०-अजस० तिषिणपदा णाणा०भंगो। अवत्त० ज० उ० अंतो। अहक. भुज०-अप्प० ज० ए०, उ० पुव्वकोडी दे० । अवहि-अवत्त० णाणा भंगो । इत्थि० अवत्त० ज० अंतो०, उ० बेछावहि० दे० । सेसाणं पदाणं थीणगिदिभंगो । णस०-पंचसंठा०-पंचसंघ०-अप्पसत्थवि०-दुस्सर-अणादें भुज०-अप्प० ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो०, उ० तिएहं पि बेछावहिसाग० सादि० तिरिण पलि. देसू० । अवहि० गाणाभंगो । पुरिस० भुज०--अप्प० ज० ए०, उ. अंतो० । अवहि० गाणाभंगो। अवत्त० ज० अंतो०, उ० बेछावहि० सादि० । तिरिणाउ'०प्रकृतियोंके प्रवक्तव्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है, यह स्पष्ट ही है। शेष कथन स्पष्ट ही है।
अन्तरानुगम ४५८. अन्तरानुगम दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायके भुजगार और अल्पतरबन्धका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहर्त है। अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। प्रवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, और अनन्तानुबन्धी चारके भुजगार और अल्पतरबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छियासठ सागरप्रमाण है। अवस्थित और अवक्तव्यबन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति और अयशःकीर्तिके तीन पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। इनके प्रवक्तव्यवन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। आठ कषायों के भुजगार और अल्पतरबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है। अवस्थित और अवक्तव्यबन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। वीवेदके प्रवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त
और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दोछियासठ सागरप्रमाण है । शेष पदोंका भङ्ग स्त्यानगृद्धिके समान है । नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुःस्वर और अनादेयके भुजगार और अल्पतरबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है। अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और तीनों ही का उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य अधिक दो छियासठ सागरप्रमाण है । अवस्थितबन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। पुरुषवेदके भुजगार और अल्पतरबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । अवस्थितबन्धका भङ्ग ज्ञानावरण
१. ता. पा. प्रत्योः सादि० तिण्णिाउ० इति पाठः।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे वेउन्वियछ० भुज०-अप्प० अवहि० ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो'०, उ० चदुण्णं पि अणंतकालं । तिरिक्खाउ० भुज०-अप्प० ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो', उ० सागरोवमसदपुध० । अवहि० णाणा भंगो। तिरिक्ख०-तिरिक्खाणु० भुज०--अप्प० ज० ए०, उ० तेवहि०सा०सदं० । अवहि० णाणा भंगो । अवत्त० ज० अंतो०, उ० असंईज्जा लोगा। मणुस०--मणुसाणु०-उच्चा० भुज०-अप्प० -अवहि० ज० ए०, अवत्त० ज. अंतो०, उ० सव्वाणं असंखेंज्जा लोगा। चदुजा०--आदाव०-थावरादि०४ भुज०अप्प० ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो०, उ० पंचासीदिसागरोवमसदं । अवहिणाणा०भंगो । पंचि०-पर०-उस्सा०-तस०४ भुज०-अप्प० ज० ए०, उ० अंतो० । अवढि० णाणा भंगो । अवत्त० ज० अंतो०, उ० पंचासीदिसागरोवमसदं । ओरा० भुज०अप्प० ज० ए०, उ० तिरिण पलि० सादि० । अवहि० णाणा भंगो । अवत्त० ज० अंतो०, उ० अणंतका० । आहार०२ भुज०-अप्प०-अवहि० ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो०, उ. अद्धपोग्गल । समचदु०-पसत्थवि०-सुभग-सुस्सर-आदें तिएिण पदा
के समान है। श्रवक्तव्यवन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो छियासठ सागरप्रमाण है। तीन आयु और वैक्रियिक छहके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और चारों ही पदोंका उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है। तिर्यञ्चायुके भुजगार और अल्पतरबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और तीनों ही पदोंका उत्कृष्ट अन्तर सौ सागरपृथक्त्वप्रमाण है। अवस्थितबन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । तिर्यश्चगति और तिर्यश्वगत्यानुपूर्वीके भुजगार और अल्पतरवन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर एकसौ ग्रेसठ सागरप्रमाण है। अवस्थितबन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है । मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, और उच्चगोत्रके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहर्त है और सब पदोंका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। चार जाति, भातप और स्थावर आदि चारके भुजगार और अल्पतरबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और सब पदोंका उत्कृष्ट अन्तर एकसौ पचासी सागर है । अवस्थितबन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । पश्वोन्द्रियजाति, परघात, उच्छ्वास और सचतुष्कके भुजगार और अल्पतरबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है
और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । अवस्थितबन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर एकसौ पचासी सागर है। औदारिकशरीरके भजगार और अल्पतरबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन पल्य है। अचूस्थितबन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है
और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है। आहारकद्विकके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और सब पदोंका उत्कृष्ठ अन्तर कुछ फम अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और मादेयके तीन पदोंका भङ्ग पञ्चन्द्रियजातिके समान है । अवक्तव्यबन्धका १. ता. प्रतौ अवत्त० अंतो० इति पाठः ।
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भुजगारबंधे अंतराणुगमो
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पं चिंदियजादिभंगो | अवत्त० ज० अंतो०, उ० बेळाव हिसा० सादि० तिरिण पलि० देस्र० । ओरालि० अंगो ० वज्जरि० भुज० - अप्प ० -अवद्वि० ओरालि० भंगो । अवत्त० ज० अंतो०, उ० तेत्तीस सा० सादि० । उज्जो० तिरिण पदा तिरिक्खगदिभंगो । अवत्त० ज० तो ० उ० तेवडि० सदं । तित्थ० भुज०-अप्प० ज० ए०, उ० अंतो० । अबहि० ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो०, उ० तेत्तीस सा० सादि० दो पुव्वकोडी श्रो दोहि वास धत्तेहि ऊणियाओ सादिरेयं । णीचा० भुज० -- अप्प० -- अवडि० णवुंसगभंगो | अवत० ज० तो ० उ० असंखेज्जा लोगा ।
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जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य अधिक दो छियासठ सागरप्रमाण है। श्रदारिक आङ्गोपाङ्ग और वार्षभनाराच संहननके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितबन्धका भङ्ग औदारिकशरीर के समान है । अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। उद्योतके तीन पदोंका भङ्ग तिर्यञ्चगतिके समान है । अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर एकसौ त्रेसठ सागर है। तीर्थङ्कर प्रकृति भुजगार और अल्पतरबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है, यवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर दोनों पदोंका दो वर्ष पृथक्त्व कम दो पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागर है । नीचगोत्र भुजगार, अल्पतर और अवस्थितबन्धका भङ्ग नपुंसकवेदके समान है । अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है ।
विशेषार्थ - श्रघसे सब प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतरबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कह आये हैं, इसलिए यहाँ पाँच ज्ञानावरणादिके भुजगार और अल्पतरबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। आगे जिन प्रकृतियोंके इन पदोंका यह अन्तर कहा है, वह इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए । यतः भुजगार और अल्पतरबन्धका जघन्य काल और जघन्य अन्तर एक समय कहा है | अतः अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय बन जाता है तथा अनुभागबन्धके योग्य कुल परिणाम असंख्यात लोकप्रमाण है। अतः अवस्थितबन्धका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण कहा है; क्योंकि सब परिणामोंके होनेके बाद अवस्थितबन्धके योग्य परिणाम अवश्य प्राप्त होते हैं, ऐसा नियम है। आगे जिन प्रकृतियोंके इस पदका यह अन्तर कहा है, वह इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए । जो दो बार उपशमश्रेणिपर चढ़कर दो बार इन प्रकृतियोंका अबन्धक होकर पुनः बन्ध करता है, उसके इन प्रकृतियों के अवक्तव्यबन्धका अन्तर प्राप्त होता है । किन्तु उपशमणि पर रो अन्तर्मुहूर्त के अन्तर से भी सम्भव है और कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन के अन्तरसे भी सम्भव
अतः इन प्रकृतियों के अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण कहा है। स्त्यानगृद्धि तीन आदिका प्रकृतिबन्धसम्बन्धी उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छियासठ सागरप्रमाण है। इसलिए इन प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतरबन्धका उत्कृष्ट अन्तर उक्त प्रमाण कहा है, क्योंकि इतने काल तक इन प्रकृतियोंका बन्ध न होने से भुजगार आदि पद कैसे सम्भव हो सकते हैं ! तथा इनके अवस्थित और अवक्तव्यबन्धका अन्तर ज्ञानावरण के समान कहा है सो यहाँ अवक्तव्यबन्धका अन्तर अन्तर्मुहूर्त और कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन के अन्तर से दो बार सम्यक्त्वपूर्वक मिध्यात्वमें ले जाकर लाना चाहिए । सातावेदनीय आदि सब परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं और इनके प्रकृतिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। फिर भी यहाँ इनके अवक्तव्यबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे
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अन्तमुहूर्त कहनेका कारण यह प्रतीत होता है कि इनमेंसे किसी एक प्रकृतिका दो बार अबन्धपूर्वक बन्ध अन्तमुहूर्तके अन्तरसे ही होता है। आठ कषायोंके प्रकृतिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है, इसलिए यहाँ इनके भुजगार और अल्पतरबन्धका उत्कृष्ट अन्तर उक्तप्रमाण कहा है। इनके अवस्थित और अवक्तव्यबन्धका अन्तर ज्ञानावरणके समान कहा है सो अवक्तव्यबन्धका अन्तर लाते समय वह अन्तर्मुहूर्त और अर्धपुद्गल परावर्तन कालके अन्तरसे दो बार संयमासंयम और संयमपूर्वक असंयममें ले जाकर लाना चाहिए। स्त्रीवेदके अवक्तव्यबन्धके जघन्य अन्तरका खुलासा सातावेदनीयके समान कर लेना चाहिए तथा किसी जीवने स्त्रीवेदका अवक्तव्यबन्ध करके कुछ कम दो छियासठ सागर काल तक उसका बन्ध नहीं किया। पुन: मिथ्यात्वमें आकर उसका अवक्तव्यबन्ध किया यह सम्भव है, इसलिए इसके प्रवक्तव्यबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छियासठ सागर प्रमाण कहा है। नपुंसकवेद आदिका बन्ध कुछ कम तीन पल्य अधिक दो छियासठ सागर काल तक नहीं होता, इसलिए इनके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्यबन्धका उत्कृष्ट अन्तर उक्तकाल प्रमाण कहा है। पुरुषवेदका यदि निरन्तर बन्ध हो तो साधिक दोछियासठ सागर काल तक होता है। इसके बाद ऐसे जीवके मिथ्यादृष्टि होने पर अन्य वेदोंका भी बन्ध सम्भव है, अतः इसके अवक्तव्यबन्धका उत्कृष्ट अन्तर उक्त काल प्रमाण कहा है। यहाँ प्रारम्भमें और अन्तमें अवक्तव्यबन्ध कराकर यह अन्तर लाना चाहिए । जो निरन्तर एकेन्द्रिय पर्यायमें रहता है, उसके अनन्तकाल तक तीन आयु और वैक्रियिकषट्कका बन्ध नहीं होता, अतः इनके चारों पदोंका उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल प्रमाण कहा है । तियश्चायुका बन्ध अधिकसे अधिक सौ सागर पृथक्त्व काल तक नहीं होता, अतः इसके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्यबन्धका उत्कृष्ट अन्तर सो सागर पृथक्त्व काल तक कहा है। तियश्चगतिद्विकका बन्ध १६३ सागर तक नह होता, इसलिए इनके भुजगार और अल्पतरबन्धका उत्कृष्ट अन्तर एक सौ त्रेसठ सागर प्रमाण कहा है। तथा अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंके निरन्तर इन दो प्रकृतियोंका ही बन्ध होता है और इनकी कायस्थिति असंख्यात लोक प्रमाण है, अतः इनके प्रवक्तव्यबन्धका उत्कृष्ट अन्तर उक्त काल प्रमाण कहा है। मनुष्यगतिद्विक और उच्चगोत्रका बन्ध अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंके नहीं होता, अतः इनके चारों पदोका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। चार जाति अ बन्ध अधिकसे अधिक एक सौ पचासी सागर तक नहीं होता, अतः इनके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्यबन्धका उत्कृष्ट अन्तर एक सौ पचासी सागर प्रमाण कहा है। पश्चन्द्रियजाति आदिका निरन्तर बन्ध एक सौ पचासी सागर तक होता रहता है, अतः इनके अवक्तव्यबन्धका उत्कृष्ट अन्तर एक सौ पचासी सागर प्रमाण कहा है । औदारिकशरीरका साधिक तीन पल्यतक बन्ध नहीं होता, अत: इसके भुजगार और अल्पतरबन्धका उत्कृष्ट अन्तर उक्तकाल प्रमाण कहा है और एकेन्द्रियों में अनन्त काल तक निरन्तर इसीका बन्ध होता है, अतः इसके अवक्तव्यबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अमन्तकाल कहा है। आहारकद्विकका अर्धपुद्गल परिवर्तन काल तक बन्ध न हो यह सम्भव है,अतः इनके चारों पदोंका उत्कृष्ट अन्तर उक्त काल प्रमाण कहा है। समचतुरस्त्रसंस्थान आदिका निरन्तरबन्ध कुछ कम तीन पल्य अधिक दो छियासठ सागर काल तक होता रहता है, अतः इनके प्रवक्तव्यबन्धका उत्कृष्ट अन्तर उक्तकाल प्रमाण कहा है। औदारिकआङ्गोपाङ्ग आदिका निरन्तर बन्ध साधिक तेतीस सागर काल तक होता रहता है, अतः इसके अवक्तव्यबन्धका उत्कृष्ट अन्तर उक्तकाल प्रमाण कहा है। उद्योतका बन्ध एक सौ बेसठ सागर काल तक नहीं होता, इसलिए इसके प्रवक्तव्यबन्धका उत्कृष्ट अन्तर उक्तकाल प्रमाण कहा है। एक पर्यायमें अन्तमुहूर्तके अन्तरसे दो बार उपशमश्रेणीपर आरोहण करनेवालेके तीर्थङ्कर प्रकृतिके अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होनेसे उक्तप्रमाण कहा है और साधिक तेतीस सागरके अन्तरसे दो बार उपशमणिपर आरोहण करने वालेके श्रवक्तव्यबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर प्राप्त होनेसे उक्तप्रमाण कहा है। इसके
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मुजगारे अंतराणुगमो
२४६ ४५६. णिरएमु धुविगाणं भुज०-अप्प० ज० ए०, उ० अंतो । अवहि० ज० ए०, उ० तेत्तीसं० दे० । थीणगि०३-मिच्छ० -अणंताणु०४-इत्थि०-णवंस०-दोगदिपंचसंठा-पंचसंघ०-दोआणु०-उज्जो०-अप्पस०-दूभग-दुस्सर-अणादें--दोगो० भुज०अप्प०-अवहि० ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो०, उ० तेत्तीसं० दे० । दोवेदणी०-चदुणोक-थिरादितिण्णियु० भुज-अप्प० ज० ए०, उ० अंतो० । अवहि० ज० ए०, उ० तेत्तीसं० देसू० । अवत्त० जहण्णु० अंतो० । पुरिस०-समच०-वज्जरि०-पसत्य०सुभग-सुस्सर-आर्दै भुज०-अप्प०-अवहि० साद भंगो । अवत्त० ज० अंतो०, उ० तेत्तीसं० देसू० । दोआयु० तिषिणपदा ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो०, उ० छम्मास दे० । तित्थ० भुज-अप्पद० ज० ए०, उ० अंतो० । अवहि० ज० ए०, उ० तिण्णिसाग० सादि० । अवत्त० पत्थि अंतरं। एवं सत्तमाए। छसु उवरिमासु मणुस०-मणुसाणु०-उच्चा० पुरिसभंगो। अवस्थितबन्धका उत्कृष्ट अन्तर भी यही है, क्योंकि तीर्थङ्कर प्रकृतिका उत्कृष्ट बन्धकाल इससे अधिक नहीं है । शेष कथन सुगम है । आगे आदेशसे भी जिस मार्गणामें अन्तरका विचार करना हो, उस मार्गणाके काल आदिको जानकर वह घटित कर लेना चाहिए। प्रन्यविस्तार और पुनरुक्त होनेके भयसे हम उस पर अलग-अलग विचार नहीं करेंगे।
४५६. नारकियोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतरबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है
और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, दो गति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, दो आनुपूर्षी, उद्योत, अप्रशस्त विहायो. गति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और दो गोत्रके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। दो वेदनीय, चार नोकषाय और स्थिर आदि तीन युगलके भुजगार
और अल्पतरबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहर्त है। अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है । अवक्तव्यबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। पुरुषवेद, समचतुरस्रसंस्थान, वर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेयके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित. बन्धका भङ्ग सातावेदनीयके समान है। अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। दो श्रायुओंके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छह महीना है। तीर्थकरके भुजगार और अल्पतरबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन सागर है। प्रवक्तव्यबन्धका अन्तर काल नहीं है। इसी प्रकार सातवीं पृथिवीमें जानना चाहिए । प्रारम्भकी छह पृथिवियोंमें मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका भङ्ग पुरुषवेदके समान है।
विशेषार्थ-जो तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध करनेवाला मनुष्य मिथ्यादृष्टि होकर नारकियोंमें उत्पन्न होता है, उसके इसका प्रवक्तव्यबन्ध तो होता है, पर दूसरी बार अवक्तव्यबन्ध सम्भव -
१. आ० प्रती अहि. ज० ए० उ० अवत्त इति पाठः ।
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२५.
महाबंधे अणुभागवाहियारे ४६०. तिरिक्खेमु धुविगाणं भुज०-अप्प-अवहि० ओघ । थीणगिद्धि०३मिच्छ०--अणंताणु०४ भुज०-अप्प० ज० ए०, उ० तिएिणपलि० दे० । अवहि.. अवत्त० ओघ । साददंडओ ओघ । अप्पचक्खाण०४-वेउ०छ०--मणुस०-मणुसाणु०उखा० ओघं । इत्थि० अवत्त० ज० अंतो०, उ० तिएिणपलिदो० दे० । सेसपदा मिच्छत्तभंगो । गस०-चदुजा-पंचसंठा०-ओरालि०अंगो०-छस्संघ०-आदाउ०-अप्पसत्य०-थावरादि०४-भग-दुस्सर-अणादें भुज०-अप्पद० ज० ए०, उ० पुवकोडी देसू० । अवहि० ओघं । अवत्त० ज० अंतो०, उ० पुन्चकोडी दे० । पुरिस० तिएिणपदा सादभंगो । अवत्त० ज० अंतो०, उ० तिषिणप० दे। तिएिणआउ० तिएिणप० ज० ए०, अवत० ज० अंतो०, उ० पुव्वकोडितिभागा देसू० । तिरिक्खाउ० भुज०अप्प० ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो०. उ० पुव्वकोडी सादिः। अवटि तिरिक्खगदितिगं णqसगभंगो । अवत्तं ओघं। पंचिं०-समचदु०-पर०-उस्सा०-पसत्य०-तस०४न होनेसे इसके अन्तरका निषेध किया है। तथा प्रथमादि छह पृथिवियोंमें मनुष्यगतित्रिक का बन्धाबन्ध पुरुषवेदके समान है, अतः यहाँ इनके सब पदोंका अन्तर पुरुषवेदके समान कहा है। अवस्थित बन्धका उत्कृष्ट अन्तर भी यही है, क्योंकि तीर्थङ्कर प्रकृतिका उत्कृष्ट बन्धकाल इससे अधिक नहीं है। शेष कथन सुगम है। आगे आदेशसे भी जिस मार्गणामें अन्तरका विचार करना हो, उस मार्गणाके काल आदिको जान कर वह घटित कर लेना चाहिए। प्रन्थ विस्तार और पुनरक्त होनेके भयसे हम उस पर अलग-अलग विचार नहीं करेंगे।
४६०. तिर्यश्चोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों के भुजगार, अल्पतर और अवस्थितबन्धका भङ्ग ओषके समान है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारके भुजगार और अल्पतरबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्यप्रमाण है। अवस्थित और श्रवक्तव्यबन्धका अन्तर ओघके समान है। सातावेदनीयदण्डकका भङ्ग ओघके समान है। अप्रत्याख्यानावरण चार, वेक्रियिक छह, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्त और उच्चगोत्रका भङ्ग ओघके समान है। स्त्रीवेदके अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है। शेष पदोंका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। नपुंसकवेद, चार जाति, पाँच संस्थान, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर आदि चार, दुर्भग, दुःस्वर और अनादेयके भुजगार और अल्पतरबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है। अवस्थितबन्धका अन्तर ओघके समान है। तथा अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमहर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है । पुरुषवेदके तीन पदोंका भङ्ग सातावेदनीयके समान है। तथा अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्यप्रमाण है। तीन आयुओंके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है। श्रवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर छ और उक्त पदोंका उत्कृष्ट अन्तर एक पूर्वकोटिका कुछ कम विभागप्रमाण है। तिर्यश्चायुके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उक्त पदोंका उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक पूर्वकोटि प्रमाण है। तथा इसके अवस्थितबन्धका और तियश्चगतित्रिकका भङ्ग नपुंसकवेदके समान है। तथा तिर्यञ्चगतित्रिकके अवक्तव्यबन्धका भङ्ग पोषके समान है। पञ्चन्द्रियजाति, समचतुरस्मसंस्थान, परघात, उच्छवास,
१. अवत्त० अवत्त० (१)ोघं इति पाठः ।
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भुजगारे अंतराणुगमो
२५१ सुभग-सुस्सर-आदें तिएिणपदा० सादभंगों'। अवत्त० ज० अंतो०, उ० पुब्धकोडी दे० । ओरालि. तिगिणप० णqसगभंगो । अवत्त० ओघं ।
४६१. पंचिं-तिरिक्ख०३ धुविगाणं भुज०-अप्प० ओघं । अवढि० ज० ए०, उ० तिणिपलि. पुबकोडिपु० । थीणगिद्धिदंडओ तिरिक्खोघं । अवढि णाणा०भंगो। एवं अवत्त। [णवरि ज. अंतो०] । सादासाद०-चदुणोक०-थिरादितिण्णियु० सव्वपदा ओघं । अवहि० णाणा भंगो। अपञ्चक्खाण०४ दोपदा ओघं । अवहि० सादभंगो । अवत्त० ज० अंतो०, उ० पुवकोडिपुधत्तं । इत्थि० मिच्छ०भंगो। णवरि अवत्त तिरिक्खोघं । [ पुरिस० अवत्त तिरिक्खोघं । ] सेसपदा सादभंगो । णस० तिण्णिग०-चदुजा०-ओरा०-पंचसंग-ओरा अंगो०-छस्संघ०-तिण्णिाणु०आदाउजो०-अप्पसत्य-थावरादि०४-भग-दुस्सर-अणादें-णीचागो० भुज०-अप्प. ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो०, उ० पुव्वकोडी० दे०। अवहि० ज० ए०, उ० पुवकोडिपुध० । चत्तारि आऊणि तिरिक्खोघं । णवरि तिरिक्खाउ० अवहि० ज० ए०, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर और आदेयके तीन पदोंका भङ्ग सातावेदनीयके समान है । अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है। औदारिकशरीरके तीन पदोंका भङ्ग नपुंसकवेदके समान है। तथा प्रवक्तव्यपदका भङ्ग ओषके समान है।
.. ४६१. पञ्चन्द्रियतिर्यश्चत्रिकमें ध्रुषबन्धवाली प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतरबन्धका भङ्ग ओघके समान है। अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्यप्रमाण है। स्त्यानगृद्धिदण्डकका भङ्ग सामान्य तिर्यश्चोंके समान है। इतना विशेष है कि अवस्थितबन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। इसी प्रकार अवक्तव्यबन्धका अन्तर काल जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार नोकषाय और स्थिर आदि तीन युगलके सब पदोंका भङ्ग पोषके समान है। मात्र अवस्थितबन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। अप्रत्याख्यानावरण दो पदोंका भङ्ग ओघके समान है। अवस्थितबन्धका भङ्ग सातावेदनीयके समान है। अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। स्त्रीवेदका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। इतनी विशेषता है कि अवक्तव्यबन्धका भंग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। पुरुषवेदके अवक्तव्यबन्धका भंग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है, शेष पदोंका भंग सातावेदनीयके समान है। नपुंसकवेद, तीन गति, चार जाति, औदारिकशरीर, पाँच संस्थान, औदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, तीन आनुपूर्वी, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर आदि चार, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्रके भुजगार और अल्पतरबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है, प्रवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और तीनों पदोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है। तथा भवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथ-स्त्वप्रमाण है। चारों भायुओंका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। इतनी विशेषता है कि तियेचायुके अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ठ अन्तर
१. ता. श्रा०प्रोतिषिपदा सादासादभंगो० इति पाठः। २. ता. प्रा. प्रत्योः प्रवत्त. इति पाठः। ३ ता. पा. प्रत्योः एवं अवडि. सादासोद. इति पाठः ।
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રમર
महाबंधे अणुभागबंधाहियारे उ० पुवकोडिपु० । देवग०-पंचिंदि०-वेउवि०-समचदु०-बेउवि अंगो०-देवाणु०-पर०. उस्सा०-पसत्य-तस०४-मुभग-मुस्सर-आदें-उच्चा० भुज०-अप्प०-अवहि० साद.. भंगो । अवत्त० ज० अंतो०, उ० पुव्वकोडी दे० ।
४६२. पंचिंतिरिक्ख अप० सव्वाणं तिषिणपदा ज० ए०, उ० अंतो० । णवरि परियत्तमाणिगाणं अवत्त० ज० अंतो०, उ० अंतो० । एवं सव्वअपज्जत्तगाणं सव्वमुहुमपज्जत्तापज्जत्ताणं च ।
४६३. मणुस०३ पंचिंदि०तिरिक्खभंगो। णवरि आहारदुगं तिण्णिपदा ज. ए०, अवत्त० ज० अंतो०, उ० पुवकोडिपु० । तित्थ० दोपदा ओघं । अवहि० ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो०, उ० पुव्वकोडी दे० । गवरि धुविगाणं अवत्त० ज० अंतो०, उ० पुवकोडिपुध० ।
४६४. देवेमु धुविगाणं भुज०-अप्प० ज० ए०, उ० अंतो० । अवष्टि० ज० पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। देवगति, पञ्चन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर,समचतुरमसंस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, देवगत्यानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, मादेय और उचगोत्रके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितबन्धका भङ्ग सातावेदनीयके समान है। प्रवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है।
विशेषार्थ-यहाँ स्त्यानगृद्धि आदिके अवस्थित बन्धका भङ्ग ज्ञानावरण के समान कहा है, अतः स्त्यानगृद्धि आदिके अवस्थितबन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान जानना चाहिए-यह इस कथनका तात्पर्य है। और इनके प्रवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर अवस्थितके उत्कृष्ट अन्तरके समान होता है। अतः इसको यहाँ अवस्थितके समान कहकर जघन्य की अपेक्षा विशेषता खोल दी है। इसी प्रकार यहाँ सातावेदनीय आदिके सब पद ओघके समान कहके अवस्थित पदको ज्ञानावरणके समान कहा है सो इसका यह तात्पर्य है कि सातावेदनीय मादिके शेष पदोंका जो अन्तर अोघमें कहा है,वह यहाँ जानना चाहिए । मात्र इनके अवस्थितपदका अन्तर जैसा यहाँ ज्ञानावरणके अवस्थित पदका कहा है, उस प्रकार जानना चाहिए। इसी प्रकार अन्य अन्तर घटित कर लेना चाहिए।
४६२. पञ्चन्द्रियतिर्यनअपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। इतनी विशेषता है कि परिवर्तमान प्रकृतियों के प्रवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। इसी प्रकार सब अपर्याप्त तथा सब सूक्ष्म और उनके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए।
४६३. मनुष्यत्रिकमें पञ्चन्द्रियतिर्यञ्चोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि आहारकद्विकके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है
और सबका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके दो पदोंका अन्तर मोधके समान है । अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और दोनों पदोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है। इतनी विशे. षता है कि ध्रवबन्धवाली प्रकृतियोंके प्रवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है।
४६४. देवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतरबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और
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ઉપર
भुजगारे अंतराणुगमो ए०, उ० तेतीसं० दे०। थीणगि०३-मिच्छ०-अणंताणु०४-इत्थि०-णस०-पंचसंठा०-पंचसंघ०-अप्पसत्य०-दूभग--दुस्सर-अणादे०-णीचा. तिएिणप० ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो०, उ० एकत्तीसं० दे० । साददंडओ णिरयभंगो । पुरिस०-समचदु०-वजरि०-पसत्य०-सुभग-सुस्सर-आदे०-उच्चा. तिषिणपदा सादभंगो। अवत्त० ज० अंतो०, उ० एकत्तीसं० देसू० । दोश्राउ० णिरयभंगो। तिरिक्ख०-तिरिक्खाणु०उज्जो० तिएिणप० ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो०, उ. अहारस साग० सादि । मणुस०-मणुसाणु० तिएिणप० सादभंगो। अवत्त० ज० अंतो०, उ. अहारह. सादि। एइंदि०-आदाव-थावर० तिण्णिप० ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो०, उ० बेसाग० सादिः । पंचिं०-ओरा अंगो०-तस० तिण्णिप० सादभंगो। अवत्त० ज० अंतो०, उ. बेसाग० सादिः । तित्थ० तिण्णिप० णाणा भंगो । एवं सव्वदेवाणं अप्पप्पणोअंतरं णेदवं।
४६५. एइदिएमु सव्वाणं पगदीणं भुज-अप्प० ज० ए०, उ० अंतो। अवहि० ओघं। बादरे अंगुलस्स असं०, बादरपज्जत्ते संज्ज्जाणि वाससहस्साणि, मुहुमाणं असंखेज्जा लोगा । सव्वाणं अवत्त० ज० उ० अंतो। तिरिक्खाउ० अवहि. णाणा भंगो । संसपदा पगदिअंतरं । मणुसाउ० तिण्णिप० ज० ए०, अवत्त० ज० उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन,अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर,अनादेय और नीच. गोत्रके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है,अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। सातावेदनीयदण्डकका भङ्ग नारकियोंके समान है। पुरुषवेद,समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षभनाराचसंहनन,सुभग, प्रशस्त विहायोगति, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रके तीन पदोंका भङ्ग सातावेदनीयके समान है। अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। दो आयुओंका भङ्ग नारकियोंके समान है । तिर्यश्चगति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और उद्योतके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है। मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वी के तीन पदोंका अन्तर सातावेदनीयके समान है। अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है । एकेन्द्रियजाति, आतप और स्थावरके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर है। पञ्चन्द्रियजाति, औदारिक प्राङ्गोपान और असके तीन पदोंका अन्तर सातावेदनीयके समान है। अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूत है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर है। तीर्थक्कर प्रकृतिके तीन पदोंका अन्तर ज्ञानावरणके समान है। इसी प्रकार सब देवोंके अपना-अपना अन्तर जानना चाहिए। .. ४६५. एकेन्द्रियोंमें सब प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। अवस्थितपदका अन्तर श्रोधके समान है। अवस्थितपदका उत्कृष्ट अन्तर बादरोंमें अङ्गुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है, बादर पर्याप्तकोंमें संख्यात हजार वर्ष है और सूक्ष्मोंमें असंख्यात लोकप्रमाण है। तथा सब (परिवर्तमान) प्रकृतियोंके अबक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । तिर्यश्चायुके अवस्थितपदका अन्तर झानावरणके समान
१. श्रा० प्रती मणुमाणु० इति पाठः।
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२५४
महाधे भणुभागवाहियारे अंतो०, उ० सत्तवाससह० सादि०। तिरिक्ख०-तिरिक्खाणु०-णीचा. भुज०-अप्प०. अवहि० गाणाभंगो । अवत्त० ओघ । बादरे कम्महिदी०, पज्जते संखेंजाणि वाससहस्साणि, मुहुमाणं असंखेज्जा लोगा। मणुसगदि-मणुसाणु०-उच्चा० चत्तारिपदाओघभंगो । एवं सुहुमाणं पि । णवरि बादरे कम्महिदी । णवरि अवहि० ज० ए०, उ० अंगुल० असं० । बादरपज्जते संखेंजाणि वाससह ।
४६६. बेइं०-तेइं०-चदुरिं० सव्वपगदीणं भुज०-अप्प० ज० ए०, उ० अंतो० । अवहि० ज० ए०, उ० संखेंजाणि वास। णवरि तिरिक्खाउ० भुज० अप्प० ज० ए०, अवच० ज० अंतो०, उ० भवहिदी. सादि०। अवहि. गाणाभंगो । मणुसाउ० भुज०-अप्प०-अवहि-अवत्त० हिदिभुजगारभंगो। पंचण्णं कायाणं सव्वपगदीणं हिदिभुजगारभंगो कादयो।
४६७. पंचिंदि०-तस०२ पंचणा-छदंस०-चदुसंज०-भय-दु०-तेजा०-क०-वण्ण०४अगु०-उप०-णिमि०-पंचंत. भुज०-अप्प० ओघं । अवढि० ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो०, उ० सगहिदी । थीणगिदि०३-मिच्छ०-अणंताणु०४ भुज०-अप्प. ओघ । अवहि-अवत्त० ज० ए० अंतो०, उ० णाणा भंगो। साददंडओ ओघ । अवहि. है । शेष पदोंका अन्तर प्रकृतिबन्धके अन्तरके समान है। मनुष्यायुके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और सब पदोंका उत्कृष्ट अन्तर साधिक सात हजार वर्ष है। तिर्यश्चगति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितबन्धका अन्तर ज्ञानावरणके समान है। अवक्तव्यबन्धका अन्तर ओघके समान है। बादरोंमें कर्मस्थिति प्रमाण है, पर्याप्तकोंमें संख्यात हजार वर्ष है और सूक्ष्मोंमें असंख्यात लोकप्रमाण है। मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रके चारों पदोंका भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार सूक्ष्म जीवों में भी जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि बादरोंमें कर्मस्थितिप्रमाण है। इतनी और विशेषता है कि अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अङ्गलके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा बादर पर्याप्तक जीवोंमें संख्यात हजार वर्ष प्रमाण है।
- ४६६. द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवोंमें सब प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर संख्यात वर्ष है। इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्चायुके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और तीनों पदोंका उत्कृष्ट अन्तर साधिक भवस्थितिप्रमाण है। अवस्थितपदका अन्तर ज्ञानावरणके समान है। मनुष्यायुके भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्यपदका अन्तर स्थितिबन्धके भुजगारके समान है। पाँच स्थावरकायिक जीवोंमें सब प्रकृतियोंका भङ्ग स्थितिबन्धके भुजगारके समान करना चाहिए।
४६७. पन्चेन्द्रियद्विक और सद्विक जीवों में पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, घार संज्वलन, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायके भुजगार और अल्पतरपदका भङ्ग ओघके समान है। अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और दोनोंका उत्कृष्ट अन्तर अपनी-अपनी कायस्थितिप्रमाण है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारके भुजगार और अल्पतरपदका भङ्ग ओघके समान है । अवस्थित और अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर क्रमसे एक समय और अन्तमुहूर्त है तथा दोनोंका उत्कृष्ट अन्तर ज्ञानावरण के समान है।
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भुजगारे अंतराणुगमो णाणाभंगो। अहक० भुज०-अप्प० ओघ । सेसाणं णाणा०मंगो। इत्यि० भुज०अप्प० अवत्त • ओघ । अवहि० णाणा भंगो । पुरिस० भुज-अप्प०-अवत्त० ओघ । अवहि० णाणा भंगो । गqस०-पंचसंठो०--पंचसंघ०--अप्पसत्य०--दूभगदुस्सर-अणादें-णीचा०, भुज०-अप्प०-अवत० ओघं । अवहि० णाणा०भंगो । तिण्णिआउ० भुज---अप्प० ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो०, उक्क० सागरो०सदपुध० । अवहि. कायहिदी०। मणुसाउ०. सव्वपदाणं सगहिदी० । णिरयगदि--चदुजा०णिरयाणु०-आदाव०--यावरादि०४ भुज०--अप्प०--अवत्त० जे० ए० अंतो०, उक्क० पंचासीदिसाग०सद० । अवहि० णाणा भंगो। तिरिक्व०--तिरिक्खाणु०--उज्जो० भुज०-अप्प०-अवत्त० ज० ए० अंतो०, उ० तेवहिसा०सद० । अवहि० णाणा०भंगो । मणुसम०-देवग०--वेउव्वि०--बेउव्वि०अंगो०-दोआणु० भुज०--अप्प० ज० ए०, उ० तेत्तीसं० सादि० दोहि मुहुत्तेहि सादिरेयं । अवत्त० ज० अंतो०, उ० तेत्तीसंसागरो० सादिरे० पुव्वकोडि समऊणसादिरेयं । अवहि० णाणाभंगो। पंचिं०-पर-उस्सा०तस०४ भुज०-अप्प०-अवहि० णाणाभंगो। अवत्त० ज० अंतो०, उ. पंचासीदिसाग०सदं० । ओरा०-ओरा०अंगो०--वज. भुज०-अप्प० ज० ए०, उ० तिण्णिसातावेदनीयदण्डकका भङ्ग ओघके समान है। तथा अवस्थितपदका अन्तर ज्ञानावरणके समान है। पाठ कषायोंके भुजगार और अल्पतरपदका अन्तर ओघके समान है । शेष पदोंका अन्तर शानावरणके समान है । बीवेदके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्यपदका अन्तर ओघके समान है । अवस्थितपदका अन्तर ज्ञानावरणके समान है । पुरुषवेदके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्य पदका अन्तर ओघके समान है। अवस्थितपदका अन्तर ज्ञानावरण के समान है। नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्रके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्यपदका अन्तर ओघके समान है। अवस्थित पदका अन्तर ज्ञानावरणके समान है । तीन आयुओंके भुजगार और अल्पतर पदका जघन्य अन्तर एक समय है, प्रवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और तीनों पदोंका उत्कृष्ट अन्तर सौ सागर पृथक्त्वप्रमाण है । तथा अवस्थित पदका अन्तर कायस्थितिप्रमाण है। मनुष्यायुके सब पदोंका अन्तर अपनी कायस्थितिप्रमाण है । नरकगति, चार जाति, नरकगत्यानुपूर्वी, आतप और स्थावर श्रादि चारके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर एक समय और अन्तमुहूर्त है । तथा उत्कृष्ट अन्तर एकसौ पचासी सागर है । अवस्थितपदका अन्तर ज्ञानावरणके समान है । तियश्चगति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और उद्योतके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर एक समय और अन्तमुहूर्त है । तथा उत्कृष्ट अन्तर एकसौ त्रेसठ सागर है। अवस्थितपदका अन्तर ज्ञानावरणके समान है। मनुष्यगति, देवगति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकआङ्गोपाङ्ग और दो आनुपूर्वी के भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट दो मुहूर्त अधिक तेतीस सागर है। अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर एक समय कम पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागर है। अवस्थित पदका अन्तर ज्ञानावरणके समान है । पश्चन्द्रियजाति, परघात, उच्छवास, और त्रसचतुष्कके भुजगार, अल्पतर
और अवस्थितपदका अन्तर ज्ञानावरणके समान है। अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर एकसौ पचासी सागर है। औदारिकशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग और
१. श्रा० प्रती अप्प० ० इति पाठः।
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महाधे भणुभागबंधाहियारे पलि. सादि० । अवहि० णाणा भंगो । अवत्त० ज० अंतो०, उ० तेत्तीसं० सादि० पुवकोही सादि०। आहारदुगं तिण्णिपदा ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो०, उ० चदुण्णं पि कायहिदी० । समचदु०-पसत्य०-सुभग-सुस्सर-श्रादें-उच्चा० भुज-अप्प०-अवहि. पंचिंदियजादिभंगो। अवत्त० ज० अंतो०, उ० बेछावहि. सादि० दोपुवकोडिवासपुधत्ताणि याओ सादिरेयं तिण्णिपलिदो० देसू० अंतोमुहुत्तणाणि । तित्थ० भुज०अप्प० ज० ए०, उ० अंतो० । अवहि० ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो०, उ० दोण्हं पि तैतीसं० सादि० दोपुवकोडीओ दोहि वासपुधत्तेहि ऊणियाओ सादि।
४६८, पंचमण०-पंचवचि० सव्वपगदीणं भुज०-अप्प०-अवहि० ज० ए०, उ० अंतो० । अवत्त० णत्थि अंतरं । कायजोगीमु पंचणा०-णवदंस०--मिच्छ०-सोलसक०भय-दु०-ओरा०-तेजा.-क०-वण्ण०४-अगु०-उप०-णिमि०-पंचंत. भुज-अप्प० ज० ए०, उ० अंतो० । अवहि० ज० ए०, उ० असंखेंजा लोगा । अवत्त० गत्यि अंतरं । सादासाद०-सत्तणोक०-पंचजा०-छस्संठा-ओरा०अंगो०-छस्संघ०-पर०-उस्सा०-आदाउज्जो०-दोविहा०-तसथावरादिदसयु. भुज०-अप्प० ज० ए०, उ० अंतो० । अवहि. वर्षभनाराचसंहननके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन पल्य है। अवस्थितपदका अन्तर ज्ञानावरणके समान है। प्रवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागर है। आहारकद्विकके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है तथा चारों पदोंका उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण है। समचतुरस्त्रसंस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रके मुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदका भङ्ग पञ्चन्द्रियजातिके समान है। अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य अधिक, दो वर्षपृथक्त्व कम दो पूर्वकोटि अधिक तथा अन्तमुहूर्त कम दो छियासठ सागरप्रमाण है । तीर्थङ्करप्रकृतिके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है तथा दोनों ही पदोंका उत्कृष्ट अन्तर दो वर्षपृथक्त्व न्यून दो पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागर है।
४६८. पाँचों मनोयोगी और पाँचों वचनयोगी जीवोंमें सब प्रकृतियोंके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। प्रवक्तव्यपदका अन्तर काल नहीं है। काययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। अवक्तव्यपदका अन्तरकाल नहीं है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, सात नोकषाय, पाँच जाति, छह संस्थान, औदारिकाङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, दो विहायोगति और त्रस-स्थावर आदि दस युगलके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । अवस्थितपदका अन्तर ज्ञानावरण
१. ता० प्रतौ तेत्तीसं० सेखादि ( सादि०) पुव्यकोडि इति पाठः।
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भुजगारबंधे अंतराणुगमो णाणाभंगो। अवत्त० ज० उ० अंतो० । दोबाउ०-वेउव्वियछ०-आहारदुग-तित्थ. मणजोगिभंगो। तिरिक्खाउ० भुज०-अप्प० ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो०, उ० बावीसं वाससह. सादि० । अवहि० ज० ए०, उ० असंखेंज्जा लोगा। मणुसाउ०. मणुसगदि--मणुसाणु०--उच्चा० सव्वपदाणं ओघं । तिरिक्व०-तिरिक्वाणु०--णीचा० भुज०-अप्प० ज० ए०, उ० अंतो० । अवहि-अवत्त० ओघं ।।
४६६. ओरालि. णाणोवरणादिदंडओ कायजोगिभंगो। णवरि अवहि० ज० ए०, उ० बावीसं वाससह० देस'। सादासाद०-सत्तणोक०-दोगदि-पंचजादि-छस्संहाण
ओरालि०अंगो०- छस्संघ०-दोआणु०-पर०-उस्सा०-आदाउ०-दोविहा०-तसथावरादि दसयुग०-दोगो० भुज०-अप्प० ज० ए०, उ० अंतो० । अवहि० णाणा भंगो । अवत्त० ज० उ. अंतो० । दोआउ०-वेउव्वियछ०-आहारदुग-तित्थ० मणजोगिभंगो । दोआउ० भुज०-अप्प०-अवहि० ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो०, उ० सव्वपदाणं सत्तवाससह० सादि।
४७०. ओरालियमि० धुवियाणं देवगदिपंचगस्स च तिण्णिप० ज० ए०, उ. अंतो०। सेसाणं तिण्णिप० ज० ए०, उ. अंतो० । अवत्त० ज० उ० अंतो० । के समान है। श्रवक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । दो आयु, वैक्रियिक छह,
आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है। तिर्यञ्चायुके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और तीनोंका उत्कृष्ट अन्तर साधिक बाईस हजार वर्ष है। अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। मनुष्यायु, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रके सब पदोंका भङ्ग ओघके समान है। तिर्यञ्चगति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थित और अवक्तव्यपदका भङ्ग ओघके समान है।
४६६. औदारिककाययोगी जीवोंमें ज्ञानावरणादिदण्डकका भङ्ग काययोगी जीवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम बाईस हजार वर्ष है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, सात नोकषाय, दो गति, पाँच जाति, छह संस्थान, औदारिक अांगोपांग, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, परघात, उच्छवास, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, स-स्थावरादि दस युगल और दो गोत्रके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । अवस्थितपदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । अवक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। दो अायु, वैक्रियिक छह, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है। दो आयुओंके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है, श्रवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और सब पदोंका उत्कृष्ट अन्तर साधिक सात हजार वर्ष है।
४७०. औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों और देवगतिपश्चकके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूते है। शेष प्रकृतियोंके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। तथा अवक्तव्यपदका
१. ता. श्रा. प्रत्योः देसू० इति स्थाने सादि० इति पाठः ।
३३
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महाबंधे अणुभागधाहियारे णवरि मिच्छ० अवत्त० णत्थि अंतरं । एवं वेउव्वियमि०-आहारमि० ।
४७१. वेउवि०-आहार० धुवियाणं तिण्णिप० ज० ए०, उ. अंतो० । सेसाणं मणजोगिभंगो । कम्मइ० सन्चपगदीणं सव्वप० णत्थि अंतरं । णवरि अवडि. ज० उ० ए०।
४७२. इत्थिवे. पंचणा०-चदुदंस०-चदुसंज०-पंचंत० भुज०-अप्प० ज० ए०, उ० अंतो० । अवहि० ज० ए०, उ० पलि०सदपु० । थीण०३-मिच्छ०-अवंताणु०४ भुज०-अप्प० ज० ए०, उ० पणवण्णं पलि० दे० । अवहि०-अवत्त० णाणाभंगो। णवर अवत्त ० ज० अंतो० । णिहा-पयला-भय-दु०-तेजाक०-वण्ण०४-अगु०-उप०. णिमि० तिण्णिप० णाणाभंगो। अवत्त० णत्थि अंतरं । सादादिदंडओ अढकसा०दंडओ सव्वपदा ओघं । णवरि कायहिदी भाणिदव्वा । इत्थि०-णवूस०-तिरिक्व०एइंदि०-पंचसंठा०--पंचसंघ०-तिरिक्वाणु०-आदाउज्जो०--अप्पसत्थ०--थावर०-दूभगदुस्सर-अणादें-णीचा. भुज०-अप्प० ज० ए०, अवत्त. ज. अंतो०, उ. पणवणं पलि० दे० । अवहि० णाणाभंगो। पुरिस-पंचिं०-समचदु०-पसत्थ०-तस०-सुभगजघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वके अवक्तव्यपदका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंके जानना चाहिए।
४७१. वैक्रियिककाययोगी और आहारककाययोगी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है। कार्मणकाययोगी जीवोंमें सब प्रकृतियोंके सब पदोंका अन्तरकाल नहीं है । इतनी विशेषता है कि अवस्थितपदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है।
४७२. स्त्रीवेदी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायके भजगार और अल्पतर पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर सौ पल्यपृथक्त्व प्रमाण है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारके भुजगार और अल्पतर पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पचपन पल्य है। अवस्थित और अवक्तव्यपदका भङ्ग ज्ञानावरण ( अवस्थितपद ) के समान है। इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है। निद्रा, प्रचला, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात और निर्माणके तीन पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । अवक्तव्यपदका अन्तरकाल नहीं है। सातावेदनीय आदि दण्डक और आठ कषायदण्डकके सब पदोंका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि कायस्थिति कहनी चाहिए । स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, तिर्यश्चगति, एकेन्द्रियजाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्रके भुजगार
और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और तीनोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पचपन पल्य है। अवस्थितपदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। पुरुषवेद, पश्चन्द्रियजाति, समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त विहायोगति, बस, सुभग,
१. ता. प्रतो भवत्त व्यायाध० अवडि० (१) भंगो गवरि इति पाठः ।
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भुजगारबंधे अंतराणुगमो
उ०
7
सुस्सर-आदें - उच्चा० भुज० - अप्प ० - अवडि० णाणा० भंगो । अवत्त० ज० अंतो०, पणवणं पलि० सू० । णिरयाउ० सव्वपदा मणुसभंगो । दोआउ० तिष्णिप० ज० ए०, अवत्त • ज० तो ० उ० कायहिदी० । देवाड० भुज० अप्प० -[ अवडि] ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो०, उ० अट्ठावण्णं पलि० पुव्वकोडिपुधत्ते ० । अवद्वि० कायद्विदी० । वेडव्वियछ० - तिणिजा ० - सुहुम० - अपज्ज० - साधार० भुज० - अप्प ० [ अवधि० ] ज० ए०, अवत्त० ज० तो ० उ० पणवण्णं पलि० सादि० । अवहि० काय हिदी० । मणुस ०ओरा ० - श्रोरा० अंगो ० वज्जरि०-- मणुसाणु० भुज० अप्प० ज० ए०, उ० तिष्णिपलि० दे० | अवद्वि० णाणा० भंगो । अवत० ज० अंतो०, उ० पणवण्णं पलि० दे० । णवरि ओरालि० ० अवत्त ० [३०] पणवण्णं पलि० सादि० | आहारदुगं सव्वपदा ज० ए०, अवत ज० तो ०, ० कायद्वि० । पर०-उस्सा ० - बादर - पज्जत - पत्ते तिष्णिपदा० णाणी०भंगो । अवत्त० ज० अंतो० उ० पणवण्णं पलि० सादि० । तित्थ० भुज ० - अप्प० उ० तो ० । अवद्वि० ज० ए०, उ० पुव्वकोडी दे० । अवत्त० णत्थि अंतरं । ४७३. पुरिसेसु पढमदंडओ पंचणाणावरणादी विदियदंडओ थीणगिद्धिआदी
"
ज० ए०,
सुस्वर, आदेय और उच्चगांत्रके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदका भङ्ग ज्ञानावरण के समान है । अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पचपन पल्य है । नरकायुके सब पदोंका भङ्ग मनुष्यों के समान है । दो आयुके तीन पदका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और सब पदोंका उत्कृष्ट अन्तर कार्यस्थितिप्रमाण है । देवायुके भुजगार अल्पतर और अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उक्त पदोंका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक अट्ठावन पल्य है । तथा अवस्थितपदका अन्तर कायस्थितिप्रमाण है । वैक्रियिक छह, तीन जाति, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणके भुजगार अल्पतर और अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय हैं, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और तीनका उत्कृष्ट अन्तर साधिक पचपन पल्य है तथा अवस्थितपदका उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण है। मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिकमांगोपांग, वज्रर्षभनाराचसंहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वीके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । अवस्थितपदका भंग ज्ञानावरणके समान है । अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त हैं और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पचपन पल्य है । इतनी विशेषता है कि औदारिकशरीर. अवक्तव्य पदका उत्कृष्ट अन्तर सांधिक पचपन पल्य है । आहारकद्विकके सब पदों का जघन्य अन्तर एक समय है, श्रवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर काय स्थितिप्रमाण है । परघात, उच्छ्वास, बादर, पर्याप्त और प्रत्येक के तीन पदोंका भंग ज्ञानावरण के समान है । अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त हैं और उत्कृष्ट अन्तर साधिक पचपन पल्य है | तीर्थङ्कर प्रकृति भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है । वक्तव्यपदका अन्तर काल नहीं है ।
४७३. पुरुषवेदी जीवों में पाँच ज्ञानावरणादि प्रथम दण्डक, स्त्यानगृद्धि आदि द्वितीय
१. ता० प्रा० प्रत्योः तिथिपलि० व्याया० इति पाठः ।
સદ
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महापंधे अणुभागबंधाहियारे तदियदंडो णिहादी चउत्थदंडओ सादादी पंचमदंडओ अटकसा० एदे इत्थिवेदभंगो । णवरि सव्वाणं पुरिसवेदहिदी णादव्वा। तदिए दंडए णिहादीणं' अवत्त० ज० अंता०, उ० सागरो सदपुध० । थीणगिदिदंडए भुज०-अप्प० ओघं । इत्थि० भुज०-अप्प० ज० ए०, उ० बेछावहि० दे०। अवहि० णाणा भंगो। अवत्त० ज० अंतो०, उ. हिदिभुजगारभंगो। णवुस-पंचसंठा-पंचसंघ०--अप्पसत्थ०--भग-दुस्सर-अणादे०णीचा. भुज०-अप्प० ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो०, उ० बेछावहि० सादि० तिण्णिपलि० देसू० अंतोमुहुत्तणाणि । पुरिस० तिण्णिप० णाणाभंगो। अवत्त० ज० अंतो०, उ० बेछावहि० दे० अंतोमुहुत्त। तिण्णिाउ० इत्थिभंगो । देवाउ० भुज०अप्प० ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो०, उ० तेत्तीसं० सादि० पुवकोडितिभागेण पुन्वकोडीए सादिरेयाणि । अवहि. णाणा भंगो। णिरयगदिदंडओ तिरिक्खगदिदंडओ दोपदी ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो०, उ० तेवहिसा०सदं । अवहि० णाणाभंगो। मणुसगदिपंचग० भुज०--अप्प० ज० ए०, उ० तिण्णिपलि. सादि० पुवकोडितिभागेण । अवहि० णाणाभंगो । अवत्त० ज० अंतो०, उ० तेत्तीसं०सादि० पुवकोडिसमऊणं सादि० । देवगदि०४ भुज-अप्प० ज० ए०, उ० तेत्तीसं० सादि० अंतो० । दण्डक, निद्रादि तृतीय दण्डक, सातावेदनीय आदि चतुर्थ दण्डक और पाठ कषायरूप पाँचवें दण्डकका भंग स्त्रीवेदी जीवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि सबके पुरुषवेदकी स्थिति जाननी चाहिए। निद्रादिकका जो तीसरा दण्डक है, उसके प्रवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर सौ सागरपृथक्त्व है। स्त्यानगृद्धिदण्डकके भुजगार और अल्पतर भंग ओवके समान है। स्त्रीवेदके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दोछियासठ सागरप्रमाण है। अवस्थित पदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । अवक्तव्यपदका जघन्य छान्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर स्थितिबन्धके भुजगारके समान है। नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्रके भुजगार और अल्पतर पदका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कम तीन पल्य अधिक दा छियासठ सागर है। पुरुषवेदके तीन पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूते है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूते कम दो छियासठ सागर है। तीन आयुओंका भङ्ग स्त्रीवेदी जीवोंके समान है। देवायुके भुजगार और अल्पतरपद का जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिका त्रिभाग और पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागर है। अवस्थितपदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। नरकगति. दण्डक और तिर्यश्चगतिदण्डकके दो पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर एकसौ संठ सागर है। अवस्थितपदका अन्तर ज्ञाना. वरणके समान है। मनुष्यगतिपञ्चकके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है
और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकाटिका त्रिभाग अधिक तीन पल्य है । अवस्थित पदका अन्तर ज्ञानावरण के समान है। अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर एक समय कम पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागर है। देवगतिचतुष्कके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर
१. ता. पा. प्रत्योः सदिए दंडो णिहाणं इति पाठः। २. प्रा०प्रसौ ब.ए. उ. इति पाठः । ३. प्रा० प्रतौ गिरयगदिदंडो दोपदा इति पाठः ।
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मुजगारबंधे अंतराणुगमो
२६१ अवहि० णाणा मंगो। अवत्त० ज० अंतो०, उ० तेतीसं० सादि० पुव्वकोडिसमऊणं सादिगं भवदि । पंचिंदियदंडओ हिदिभुजगारभंगो। आहारदुर्ग पंचिंदियभंगो। समचदु०-पसत्य०--सुभग--सुस्सर--आदें--उच्चा० तिण्णिपदा णाणाभंगो । अवत्त० ज. अंतो०, उ० बेछाव० सोदि० तिण्णिपलि. देसू०। [ तित्थ० ] भुज०-अप्प० ज० ए०, उ० अंतो० । अवढि० ज० ए०, उ० तेत्तीसं० सादि० दोहि पुचकोडीहि दोहि वासपुधत्तेहि ऊणिगाहि सादिरे० । अवत्त० ज० अंतो०, उ० पुव्वकोडि० दे० वासपुधत्तेतृणाणि ।
४७४. गqसगे पंचणाणावरणादिपढमदंडओ विदियदंडओ थीण गिद्धिआदी तदियदंडोणिदादी चउत्थदंडो सादादी इत्थिभंगो। णवरि सव्वाणं दंडगाणं अवहि.. अवत्त ओघं । थीणगिदिदंडए भुज०-[अप्प०] ज० ए०, उ० तेतीसं० दे० । अहक०तिण्णिआउ०-वेउब्बियछ०-मणुसगदितिगं आहारदुगं ओघं । इत्थि०-णस०-पंचसंठा०पंचसंघ०-उज्जो०-अप्पसत्थ०-दूभग-दुस्सर-आणादें भुज०--अप्प० ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो०, उ० तेत्तीसं० देसू० । अवहि० ओघं। पुरिस०-समचदु०-पसत्थवि०-सुभगसुस्सर-आदें तिण्णिपदा सादभंगो। अवत्त० ज० अंतो०, उ० तेत्तीसं० दे० । देवाउ० एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त अधिक तेतीस सागर है। अवस्थितबन्धका अन्तर ज्ञानावरणके समान है । प्रवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर एक समय कम पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागर है। पञ्चन्द्रियजातिदण्डकका भङ्ग स्थितिबन्धके भुजगार के समान है। आहारकद्विकका भङ्ग पञ्चन्द्रियोंके समान है । समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रके तीन पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य अधिक दोछियासठ सागर प्रमाण है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो वर्षपृथक्त्व कम दो पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागर है। प्रवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व कम एक पूर्वकोटि है।
४७४. नपुंसकवेदी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरणादि प्रथम दण्डक, स्त्यानगृद्धि आदि द्वितीय दण्डक, निद्रादि तृतीय दण्डक और सातावेदनीय आदि चतुर्थ दण्डकका भङ्ग स्त्रीवेदी जीवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि इन सब दण्डकोंके अवस्थित और अवक्तव्यपदका अन्तर ओघके समान है। स्त्यानगृद्धिदण्डकके भुजगार और अल्पतरबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। आठ कषाय, तीन आयु, वैक्रियिक छह, मनुय्यगतित्रिक और आहारकद्विकका भङ्ग ओघ के समान है। स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर और अनादेयके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अवस्थितपदका अन्तर ओघके समान है । पुरुषवेद, समचतुरस्त्रसंस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेयके तीन पदोंका भङ्ग सातावेदनीयके समान है। अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम
१. प्रा. प्रतौ पसत्य० सुत्सर इति पाठः।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे मणुसिभंगो । ओरा० दोपदा० ज० ए०, उ० पुवकोडी दे०। अवहि-अवत्त० ओघं । ओरालि अंगो०-वजरि० भुज०-अप्पद० ज० ए०, उ० पुचकोडी दे० ! अवहि. ओघं० । अवत्त० ज० अंतो०, उ० तेत्तीसं० सादि० अंतोमुहुत्तेण सादि०। णवरि० वज्जरि० अवत्त० तेतीसं० दे० । तित्थ. दोपदा० श्रोघं । अवहि० ज० एग०, उ. तिण्णिसा० सादि० । अवत्त० ज० अंतो०, उ० पुन्वकोडितिभागं देसू० ।
४७५. अवगद. सव्वाणं भुज०--अप्पद०--अवत्त. णत्थि अंतरं। कोधादि०४ धुविगाणं तिण्णिपदा० ज० ए०, उ. अंतो०। सेसाणं पगदीणं तिण्णिपदा० ज० ए०, उ. अंतो० । अवत्त० पत्थि० अंतरं । णवरि सादादीणं मणजोगिभंगो अवत्त०बंधगस्स।
४७६. मदि०-सुद० पंचणा०-णवदंस०-मिच्छ०-सोलसक०-भय-दु०-तेजा०-क०
तेतीस सागर है। देवायुका भङ्ग मनुष्यिनियोंके समान है। औदारिकशरीरके दो पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। अवस्थित और अवक्तव्यपदका भङ्ग ओघके समान है। औदारिक आङ्गोपाङ्ग और वर्षभनाराच संहननके भुजगार और अल्पतर पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। अवस्थित पदका भङ्ग ओघके समान है। अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त अधिक तेतीस सागर है। इतनी विशेषता है कि वर्षभनाराचसंहननके अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। तीर्थङ्कर प्रकृति के दो पदोंका भङ्ग ओघके समान है। अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन सागर है। अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर एक पूर्वकोटिका कुछ कम त्रिभागप्रमाण है।
विशेषार्थ-यहाँ तीर्थङ्कर प्रकृतिके अवक्तव्य बन्धका जो जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर कहा है,वह इस प्रकार घटित करना चाहिए। नरकायुके बन्धक एक नपुंसकवेदी मनुष्यने अन्तमुहूर्त आयु शेष रहने पर तीर्थङ्कर प्रकृतिके बन्धका प्रारम्भ किया और लघु अन्तमुहूते काल तक बन्ध करके मिथ्थादृष्टि हुआ और मर कर नारकी हो गया। पुनः पर्याप्त होकर सम्यग्दर्शन पूर्वक उसका बन्ध करने लगा। इस प्रकार तो तीर्थङ्कर प्रकृतिके अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त प्राप्त हो जाता है। और एक पूर्वकोटिके नपुंसकवेदी मनुष्यने त्रिभागमें आयु बन्ध किया । पुनः सम्यग्दृष्टि होकर तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध करने लगा। और अन्तमें मिथ्यादृष्टि होकर नरकमें गया
और अन्तमुहूर्त बाद पुनः उसका बन्ध करने लगा। इस प्रकार तीर्थङ्कर प्रकृतिके अवक्तव्यबन्धका उत्कृष्ट अन्तर एक पूर्वकोटिका कुछ कम विभाग प्रमाण प्राप्त होता है।
४७५. अपगतवेदी जीवोंमें सब प्रकृतियोंके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्यपदका अन्तर काल नहीं है। क्रोधादि चार कषायोंमें ध्रवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एफ समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्स है। शेष प्रकृतियोंके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। प्रवक्तव्यपदका अन्तरकाल नहीं है। इतनी विशेषता है कि सातावेदनीय आदिके प्रवक्तव्यपदका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है।
४७६. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिध्यात्व, १. प्रा. प्रतो म० उ० इति पाठः ।
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भुजगारबंधे अंतरानुगमो
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वण्ण०४ - अगु० -उप० - णिमि० पंचंत० भुज० - अप्प० ज० ए०, उ० अंतो० । अवहि० ज० ए०, उ० असंखैज्जा लोगा । सादासाद ० - इत्थि० - पुरिस०-हस्स-रदि-अरदि-सोगथिराथिर - सुभासुभ-जस० - अजस० भुज० -- अप्पदे० - अवद्वि० णाणा० भंगो । अवत्त० ज० उ० अंतो० । णवुंस० पंचसंठा०--ओरालि० अंगो० -- इस्संघ० - अप्पसत्थ० -- दूर्भाग-- दुस्सर--अणादें ● ० भुज० -- अप्पद० ज० ए०, अवत्त० ज० तो ० उ० तिण्णिपलि० दे० । अवद्वि० ओघ । [णवरि ओरालि० अंगो० अवत्त० उ० तेत्तीसं सादि० । ] चदुआउ०- वेडव्वियछ० - मणुसगदितिगं ओघं । तिरिक्ख० तिरिक्खाणु० भुज० अप्प० ज० ए०, उ० ऍक्कतीसं ० सादि० । अवद्वि० अवत्त ० श्रघं । चदुजादि आदाक्यावर ०४ भुज० अप्प० ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो०, उ० तेत्तीस • सादि० ! अवद्वि० ओघं । उ० तैंतीसं ० पंचि००- पर० - उस्सा ० -तस०४ तिष्णिप० णाणाभंगो । अवत्त० ज० तो ०, सादि० । ओरालि० भुज० - अप्प ० ज० ए०, उ० तिण्णि पलि० दे० । अवधि ०अवत्त० ओघं० । समचदु० -- पसत्थ० - सुभग- सुस्सर - आदें० तिष्णिप० सादभंगो । अवस० ज० अंतो०, उ० तिणिपलि० दे० । उज्जो० भुज० - अप्प० ज० ए०,
सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तराय भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर
तमुहूर्त है । अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति और अयशःकीर्ति के भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदका भङ्ग ज्ञानावरण के समान है । अवक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, औदारिकाङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुभंग, दुःस्वर और श्रनादेयके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और इनका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । अवस्थितपदका अन्तर काल
के समान है । इतनी विशेषता है कि औदारिक आङ्गोपाङ्गके अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। चार आयु, वैक्रियिक छह और मनुष्यगतित्रिकका भङ्ग ओघके समान है । तिर्यगति और तिर्यगत्यानुपूर्वीके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक इकतीस सागर है । अवस्थित और अवक्तव्यपदका अन्तरकाल के समान है । चार जाति आतप और स्थावर आदि चारके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। तथा इनका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । अवस्थितबन्धका अन्तर ओघ के समान है । पञ्चेन्द्रियजाति, परघात, उच्छ्वास और त्रसचतुष्कके तीन पदोंका भङ्ग ज्ञानावरण के समान है । अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। औदारिकशरीर के भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य
| अवस्थित और अवक्तव्यपदका अन्तरकाल ओघके समान है । समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और श्रदेयके तीन पदोंका भङ्ग सातावेदनीय समान है । अवक्तव्य पद का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पत्य है । उद्योतके भुजगार
१. आ० प्रतौ श्रजस० श्रप्पद० इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे अवत्त ० ज० अंतो०, उ० ऍक्तीसं० सादि० । अवहि० ओघं । णीचा० तिण्णिपदा० णबुंसगभंगो। अवत्त० ओघं।।
४७७. विभंगे पंचणा०--णवदंस -मिच्छ०--सोलसक०--भय-दु०-तेजा०-०वण्ण०४-अगु०-उप०-णिमि०-पंचंत० भुज-अप्प० ज० ए०, उ० अंतो० । अवहि. ज० ए०, उ० तेंतीसं० दे०। सादासाद०--सत्तणोक०-तिरिक्व०-पंचिं०-छस्संठा०
ओरा०अंगो०--छस्संघ०-तिरिक्खाणु०--उज्जो०-दोवि०--तसं०-थिरादिछयु०--णीचा. तिण्णिप० णाणाभंगो । अवत० ज० उ० अंतो०। [ओरा०] परं०-उस्सास-बादरपज्जा-पत्ते० तिण्णिपदा णाणाभंगो । अवत्त० णत्थि अंतरं । दोआउ०-वेउव्वि०छ०तिण्णिजादि-सुहुम०-अप०-साधा. मणभंगो । दोआउ० णिरयभंगो । मणुस०-मणुसाणु०-उच्चा० भुज-अप्प० ज० ए०, उ० अंतो० । अवहि० ज० ए०, उ० ऍकत्तीसं० दे। अवत्त० सादभंगो। एइंदि०-आदाव-थावर० भुज०-अप्प०-अवत्त० सादभंगो । अवहि० ज० ए०', उ० बेसाग० सादि।
और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है, प्रवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और तीनोंका उत्कृष्ट अन्तर साधिक इकतीस सागर है। अवस्थित पदका अन्तर ओघके समान है। नीचगोत्रके तीन पदोंका अन्तर नपुंसकवेदके समान है। अवक्तव्य पदका अन्तर ओषके समान है।
४७७. विभङ्गज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानाबरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, सात नोकषाय, तियश्चगति, पञ्चन्द्रियजाति, छह संस्थान, औदारिक आलोपाङ्ग. छह संहनन, तिर्यश्वगत्यानपर्वी. उद्योत. दो विहायोगति. त्रस. स्थिर आदि छह युगल और नीचगोत्रके तीन पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। अवक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। औदारिकशरीर, परघात, उच्छवास, बादर, पर्याप्त और प्रत्येकके तीन पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । अवक्तव्यपदका अन्तरकाल नहीं है। दो आयु, वैक्रियिक छह, तीन जाति, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है। दो आयुओंका भङ्ग नारकियोंके समान है। मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रके भुजगार और अल्पतर पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है । अवक्तव्यपदका अन्तर सातावेदनीयके समान है। एकेन्द्रियजाति, आतप और स्थावरके भजगार, अल्पतर और अवक्तव्यपदका अन्तर सातावेदनीयके समान है। अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर है ।
मत.
१. ता० श्रा० प्रत्योः अंतो० अवहि. ज. ए. अंतो० अवहि. ज.ए. उ. तेतीसं इति पाठः । २. श्रा० प्रती दो विपदा तस.इति पाठः। ३. ता.पा. प्रत्योः अंतो० मिन्छ० पर. इति पाठः। ४. श्रा. प्रतौ अवत्त. ज. ए.इति पाठः।
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सुजगारबंधे छातराणुगमो
•
?
४७८. आभिणि० -- सुद० -- श्रधि० पंचणा० छदंस० - चदुसंज० - पुरिस०-भयदु० - पंचिं ० -- तेजा ०. ०-- क० - समचदु० - वरण ०४ - - अगु०४ - पसत्थवि ० --तस०४ - सुभगसुस्सर - यादें - णिमि०[० उच्चा० - पंचंत० भुज ० - अप्पद० ज० ए०, उ० अंतो० । अवधि ० ज० ए०, उ० छाडि ० सादि० । अवत० ज० तो ० उ० छाबडि ० सादि० ! सादासाद० चदुणोक०-थिरादितिरिणयुग० तिष्णिपदा णाणा० भंगो । अवत्त० ज० उ० तो ० । अट्ठक० भुज० - अप्प० ओघं । अवद्वि० ज० ए०, उ० छावहि० सादि० । अवत्त० ज० अंतो०, उ० तैंतीसं ० सादि० | दोआउ० भुज० श्रप्प० ज० ए०, उ० तैंतीसं ० सादि० । अवद्वि० ज० ए०, उ० छावहि० सादि० । अवत्त० ज० अंतो०, उ० तैंतीसं० सादि० । णवरि देवाउ० अवद्वि० ज० ए०, उ० छावद्वि० दे० । मणुसगदिपंचग० भुज० - अप्प० ज० ए०, उ० पुव्वकोडी ० सादि ० अंतोमुडुत्ते णन्महि० । अवत ० ज० पलिदो ० सादि० वासपुधत्तेण सादि०, उ० तेत्तीसं० सादि० । अवद्वि० णाणा० भंगो | देवगदि ०४ - आहार०२ भुजे० -अप्प० ज० ए०, अक्त० ज० अंतो०, उ० तेत्तीस • सादि० । अवद्वि० णाणा० भंगो । तित्थ० ओघं । एवं अधिदं ० - सम्मा० ।
०
४७८. श्रभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, पञ्च ेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर आदेय, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक छियासठ सागर है । अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक छियासठ सागर है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार नोकषाय और स्थिर आदि तीन युगल के तीन पदों का भङ्ग ज्ञानावरण के समान है । अवक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर
तमुहूर्त है। आठ कषायोंके भुजगार और अल्पतरपदका भङ्ग ओघके समान है । अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिकछियासठ सागर है । अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । दो आयुओंके भुजगार और अल्पतर पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक छियासठ सागर है। अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । इतनी विशेषता है कि देवायुके अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छियासठ सागर है । मनुष्यगतिपञ्चकके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है। और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त अधिक एक पूर्वकोटि है । अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर वर्षपृथक्त्व अधिकाधिक एक पल्य है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । अवस्थितपदका अन्तर ज्ञानावरण के समान है । देवगतिचतुष्क और आहारकद्विकके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । अवस्थितपदका अन्तर ज्ञानावरणके समान है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग श्रधके समान है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी और सम्यग्दृष्टि जीवों के जानना चाहिए ।
१. ता० श्रा० प्रत्योः श्राहार० भुख० इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ४७६. मणपज० पंचणा०-छदंस०-चदुसंज०-पुरिस-भय-दु०-देवग०-पंचि०वेउव्वि०-तेजा०-क०-समचदु०-वेउव्वि०अंगो०-वण्ण०४-देवाणु०-अगु०४-पसत्थवि.. तस०४-सुभग-सुस्सर--आर्दै-णिमि०-तित्थ०-उच्चा०-पंचंत० भुज-अप्प० ज० ए०, उ० अंतो० । अवहि० ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो०, उ० दोण्हं पि पुव्वकोडी दे । सादासाद०-चदुणोक०-थिरादितिण्णियु० भुज०-अप्प०-अवहि' णाणाभंगो। अवत्त. ज० उ० अंतो० । एवं आहारदुगं । देवाउ० मणुसभंगो । एवं संजदा०।।
४८०. सामाइ०-छेदो० पंचणा०-चदुदंसणा०-लोभसंज०-उच्चा०-पंचत० भुज०अप्प० ज० ए०, उ० अंतो०। अवहि० ज० ए०, उ० पुव्वकोडी दे० णिहा-पचला०तिण्णिसंज०-पुरिस०-भय०-दु०--देवग०--पंचिं०-वेउन्वि०--तेजा.क०-समचदु०-वेउ०अंगो०-वण्ण०४-देवाणु०-अगु०४-पसत्यवि०-तस०४-सुभग-सुस्सर-आदे-णिमि०तित्थ० भुज०-अप्प०-अवहि० णाणाभंगो। अवत्त० णत्थि अंतरं । सादादिदंडओ देवाउ० मणपज्जवभंगो।। ___४८१. परिहार० धुवियाणं भुज०-अप्प०-अवहि० साददंडओ देवाउ०--तित्थ०
४७६. मनःपर्यययज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, देवगति, पञ्चन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थक्कर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके भुजगार और अल्पतर पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक स
पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और दोनों पदोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार नोकषाय और स्थिर आदि तीन युगलके भुजगार अल्पतर और अवस्थितपदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। तथा अवक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । इसी प्रकार आहारकद्विकका जानना चाहिए । देवायुका भङ्ग मनुष्योंके समान है । इसी प्रकार संयत जीवोंके जानना चाहिए।
४८०. सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शना. वरण, लोभसंज्वलन, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके भुजगार और अल्पतर पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है
और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। निद्रा, प्रचला, तीन संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, देवगति, पञ्चन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, वैक्रियिकाङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और तीर्थङ्कर प्रकृतिके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। अवक्तव्यपदका अन्तरकाल नहीं है। सातावेदनीय मादि दण्डक और देवायुका भङ्ग मनःपर्ययज्ञानी जीवोंके समान है।
४८१. परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदका भङ्ग, सातावेदनीय दण्डक, देवायु और तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग मनःपर्ययज्ञानी
१. श्रा० प्रती भुज० अघडि० इति पाठः । २. ता० श्रा० मत्योः वण्ण० देवाणु० इति पाठः ।
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भुजगारबंधे अंतराणुगमो मणपज्जव०मंगो। आहारदुगं भुज०-अप्पद० ज० ए०, उ० अंतो० । अवहि० ज० ए०, उ० पुवकोडी देसू० । अवत्त० ज० उ० अंतो०। णवरि तित्थ. पत्थि अंतरं । मुहुमसंप० सव्वपगदीणं भुज०--अप्प० णत्थि अंतरं। संजदासंजद० सव्वपगदीणं परिहार भंगो।
४८२. असंजदे धुवियाणं भुज०-अप्प० ज० ए०, उ० अंतो० । अवहि. ज. ए०, उ. असंखेंजा लोगा । थीणगिदिदंडओ सादादिदंडओ णqसगभंगो। इत्यिणस-पंचसंठा-पंचसंघ०-उज्जो०-अप्पसत्थ०-भग--दुस्सर-अणादें भुज०-अप्पद. ज० ए०, अवतं० [ज०] अंतो०, उ० तेत्तीसं० दे० । अवहि० ओघं । पुरिस०-समचदु०-वज्जरि०-पसत्थ०--सुभग--सुस्सर-आदें तिएिणप० गाणाभंगो । अवत्त० ज० अंतो०, उ० तेत्तीसं० देसू० । चदुआउ०-वेउछ०-मणुसर्ग०-मणुसाणु०-उच्चा० ओघ । चदुजादिदंडओ पंचिंदियदंडओ णqसगभंगो। तिरिक्ख०-तिरिक्खाणु०-णीचा० सगभंगो । ओरालि० भुज०-अप्प०-अवहि०-अवत्त० ओघं । ओरालि० अंगो-वजरि० तिएिणपदा० ओघं । अवत्त० ज० अंतो०, उ० तेत्तीसं० सादि० अंतोमुहुत्तेण । णवरि
जीवोंके समान है। आहारकद्विकके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। अवक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। इतनी विशेषता है कि तीर्थङ्कर प्रकृतिके प्रवक्तव्यपदका अन्तर नहीं है। सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवों में सब प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतरपदका अन्तरकाल नहीं है। संयतासंयत जीवोंमें सब प्रकृतियों का भंग परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंके समान है।
४८२. असंयतोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहर्त है। अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है
और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। स्त्यानगृद्धिदण्डक और सातावेदनीय आदि दण्डकका भङ्ग नपुंसकवेदी जीवोंके समान है। स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर और अनादेयके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अवस्थितपदका भङ्ग ओघके समान है। पुरुषवेद, समचतुरन संस्थान, वर्षभनाराचसंहनन, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेयके तीन पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। चार आयु, वैक्रियिक छह, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका भङ्ग ओषके समान है । चार जातिदण्डक और पश्चन्द्रियजाति दण्डकका भङ्ग नपुंसकोंके समान है। तिर्यश्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका भङ्ग नपुंसकोंके समान है । औदारिक शरीरके भुजगार, अल्पतर अवस्थित और अवक्तव्यपदका भङ्ग ओघके समान है। औदारिक
आङ्गोपाङ्ग और वर्षभनाराचसंहननके तीन पदोंका भङ्ग ओघके समान है। प्रवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागर है। इतनी
१. प्रा० प्रती ए. उ. अवत्तः इति पाठः । २. ता० प्रती घेउ० मणुसग इति पाठः।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे वजरि० अवत्त० ज० अंतो०, उ० तेत्तीसं० दे० । तित्य. तिगिणप. ओघं । अवत्त० ज. अंतो०, उ० पुव्वकोडितिभागं दे । चक्खुदं० तसपज्जत्तभंगो । अचक्खु० ओघं ।
४८३. किएणाए पंचणा०-छदंस०-बारसक०-भय-दु०-तेजा-क०-वएण०४अगु०-उप०-णिमि०-पंचंत. भुज०-[ अप्प० ] ज० ए०, उ. अंतो० । अवहि० ज० ए०, उ० तेत्तीसं० सादि० । थीणगि०३--मिच्छ०--अणंताणु०४--णस०-हुंड०-- अप्पस०--दूभग--दुस्सर-अणादें--णीचा० दोपदा ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो', उ० तेत्तीसं० दे०। अवढि० ज० ए०, उ० तेत्तीसं० सादि० दो अंतोमुहुत्तं सादि० पवेसणिक्खमणे। साद०-हस्स-रदि-थिर-सुभ-जस० भुज-अप्प० णाणा०भंगो। अवहि. ज० ए०, उ० तेत्तीसं० सादि• मुहुत्तं सादि० णीतस्स० । अवत्त० ज० उ० अंतो० । असाद-अरदि-सोग-अथिर-असुभ-अजस० सादभंगो। णवरि अवढि० तेत्तीसं सादि० दोहि मुहुत्तेहिं सादिरेयं पवेस-णिक्खमणे । इत्थि०-दोग०-चदुसंठा-पंचसंघ०-दोआणु०उच्चा० भुज०-अप्प०-अवत्त० णqसगभंगो । अवहि० ज० ए०, उ० तेत्तीसं० सादि० मुहुत्तेण णीतस्स । पुरिस०-समचदु०--वजरि०--पसत्थ०-सुभग-सुस्सर-आदें भुज०विशेषता है कि वर्षभनाराचसंहननके प्रवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके तीन पदोंका भङ्ग ओघके समान है। अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिका कुछ कम विभाग प्रमाण है। चक्षुदर्शनी जीवोंमें त्रस पर्याप्तकोंके समान भङ्ग है और अचक्षुदर्शनी जीवोंमें ओघके समान
४३. कृष्णलेश्यामें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, तेजस शरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है ।स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, नपुंसकवेद, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय
और नीचगोत्रके दो पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्त. मुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर प्रवेश और निष्क्रमणके दो अन्तमुहूर्त अधिक तेतीस सागर है। सातावेदनीय, हास्य, रति, स्थिर, शुभ और यश कीर्तिके भुजगार और अल्पतरपदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर निर्गमकी अपेक्षा एक अन्तमुहर्त अधिक तेतीस सागर है। प्रवक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्त अन्तमुहूर्त है । असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्तिका भङ्ग सातावेदनीयके समान है, किन्तु अवस्थित पदका उत्कृष्ट अन्तर प्रवेश और निष्क्रमणकी अपेक्षा दो अन्तमुहूर्त अधिक तेतीस सागर है। स्त्रीवेद, दो गति, चार संस्थान, पाँच संहनन, दो आनुपूर्वी
और उच्चगोत्रके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्यपदका भङ्ग नपुंसकों के समान है। अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर निर्गमनका एक अन्तमुहूर्त अधिक तेतीस
१. ता० श्रा० प्रत्योः ज० ज० अंतो० इति पाठः। २. श्रा० प्रतौ णाणाभंगो। अवधि ज० ए०, उ. तेत्तीस सादि.दोहि मुहत्तेहि इति पाठः।
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भुजगारबंधे अंतराणुगमो
२६६ अप्प० ज० ए०, उ० अंतो। अवहि० ज० ए०, उ० तेत्तीसं० सादि० ऍकमुहुत्तेण णीतस्स । अवत्त० गqसगभंगो। दोआउ०-दोगदि-चदुजादि-दोआणु०--आदाव०थावरादि ४ तिण्णिपदा ज० ए०, उ० अंतो० । अवत्त० गत्थि अंतरं । दोआउ० तिण्णिपदा ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो०, उ० सव्वेसि छम्मासं दे । पंचिं०-पर०उस्सा०-तस०४ दोपदा णाणा भंगो । अवहि० ज० ए०, उ० तेतीसं० सादि० दोहि मुहुत्तेहि णिक्खमण-पवेसणेहि। अवत्त० णत्थि अंतरं । ओरा०-ओरा०अंगो० भुज-अप्प० ज० ए०, उ० अंतो०। अवहि० ज० ए०, उ० तेत्तीसं० सादि० ऍक्केण मुहुत्तेण णीतस्स । अवत्त० णत्यि अंतरं। वेउवि०-वेउवि०अंगो० तिण्णिप० ज० ए०, उ० बावीसं० सादि० अंतोमुहुत्तेण पवेसंतस्स । अवत्त० ज० सत्तारस साग० सादि०, उ. बावीसं सा० सादि० । एवं णील-काऊणं । णवरि मणुसगदितिगं पुरिसभंगो। अप्पप्पणो हिदीओ भाणिदव्याओ। णीलाए वेउ०-वेउ अंगो० अवत्त० ज० सत्तसा. सादि०, उक्क० सत्तारस साग० सादि० । काऊए अवत्त० ज० दसवस्ससहस्साणि सादि०, उ० सत्तसाग० सादि। किण्ण-णीलाणं तित्थ. भुज०-अप्प०अवहि० ज० ए०, उ. अंतो० । काउए तित्थ० भुज०-अप्प० ज० ए०, उ० अंतोन
सागर है । पुरुषवेद, समचतुरस्त्रसंस्थान, वर्षभनाराचसंहनन, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर,
और आदेयके भुजगार और अल्पतर पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर निकलनेके एक अन्तमुहूर्त सहित तेतीस सागर है। अवक्तव्य पदका भङ्ग नपुंसकोंके समान है। दो आयु, दो गति, चार जाति, दो आनुपूर्वी, आतप और स्थावर आदि चारके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । अवक्तव्य पदका अन्तरकाल नहीं है। दो आयुओंके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छह महीना है। पंचेन्द्रियजाति,परघात, उच्छवास और त्रसचतुष्कके दो पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर निष्कमण और प्रवेशके दो अन्तर्मुहूतं सहित तेतीस सागर है। अवक्तव्यपदका अन्तरकाल नहीं है। औदारिकशरीर और औदारिकाङ्गोपाङ्गके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर निकलनेके एक अन्तमुहूर्त सहित तेतीस सागर है। अवक्तव्यपदका अन्तरकाल नहीं है। वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकाङ्गोपाङ्गके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर प्रवेशके एक अन्तमुहूर्त सहित बाईस सागर है। अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर साधिक सत्रह सागर है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक बाईस सागर है। इसी प्रकार नील और कापोत लेश्यामें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें मनुष्यगतित्रिकका भङ्ग पुरुषवेदके समान है। तथा अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए। नील लेश्यामें वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिक श्राङ्गोपाङ्गके प्रवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर साधिक सात सागर है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक सत्रह सागर है। कापोत लेश्यामें अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर साधिक दस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक सात सागर है। कृष्ण और नील लेश्यामें तीर्थकर प्रकृतिके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। कापोत
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे अवहि० ज० ए०, उ० तिण्णिसाग० सादि० । अवत्त० णत्यि अंतरं ।
४८४. तेऊए पंचणा०-छदसणा०--चदुसंज०--भय-दु०--तेजा.-क.--वण्ण०४अगु०४-बादर-पज्ज०-पत्ते-णिमि०-पंचंत. भुज०-अप्प० ज० ए०, उ. अंतो० । अवहि० ज० ए०, उ० बेसाग० सादि० । थीणगि०३-मिच्छ०-अणंताणु०४-इत्यि०णस०-तिरिक्व०-एइंदि०-पंचसंठा-पंचसंघ०-तिरिक्खाणु०-आदाउज्जो०-अप्पसत्य०थावर-भग-दुस्सर-अणादें-णीचा. तिण्णिप० ज० ए०, अवत्त० ज. अंतो०, उ. बेसाग० सादि० । सादासाद.--चदुणोक०--थिरादितिण्णियु० दोपदा णाणा भंगो। अवहि० ज० ए०, उ० बेसाग० सादि० । अवत्त० ज० उ० अंतो० । अहक०-ओरालि.. तित्थ० भुज० अप्प० ज० ए०, उ० अंतो० । अवहि० ज० ए०, उ० बेसाग० सादि। अवत्त० णत्थि अंतरं । पुरिस०-मणुस०--पंचिं०--समचदु०--ओरा०अंगो०-वज्जरि०मणुस०-पसत्थ०-तस०-सुभग-सुस्सर-आदें-उच्चा० भुज०-अप्प० ज० ए०, उ० अंतो। अवहि० ज० ए०', उ० बेसाग० सादि।अवत्त० ज० अंतो०, उ० बेसाग० सादि० । दोआउ० सोधम्मभंगो। देवाउ०--आहारदुगं तिषिणप० ज० ए०, उ. अंतो० । लेश्याम तीर्थङ्कर प्रकृतिके भुजगार और अल्पतर पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन सागर है। प्रवक्तव्यपदका अन्तरकाल नहीं है।
४८४. पीतलेश्यामें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, निर्माण और पाँच अन्तरायके भुजगार और अल्पतर पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर है। स्त्यानगृद्धि तीन,मिथ्यात्व, अनन्तानुवन्धी चार,स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, तिर्यश्चगति, एकेन्द्रियजाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्रके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है. अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार नोकषाय और स्थिर आदि तीन युगलके दो पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर है। अवक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। आठ कषाय, औदारिकशरीर और तीर्थकर प्रकृतिके भुजगार और अस्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय हैं और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर है । अवक्तव्यपदका अन्तरकाल नहीं है। पुरुषवेद, मनुष्यगति, पश्चन्द्रियजाति, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिकाङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराचसंहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रके भुजगार और अल्पतर पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर है। अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर है । दो आयुओंका भङ्ग सौधर्मकल्पके समान है । देवायु और अाहारकद्विकके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त
१. ता. श्रा. प्रत्योः अंतो० । अपचन०ए० इति पाठः।
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भुजगारबंधे अंतराणुगमो अवत्त पत्थि अंतरं । देवग०४ तिण्णिप० ज० ए०, उ० बेसाग० सादिः । अवत. पत्थि अंतरं । एवं पम्माए । णवरि सहस्सारभंगो। अहक०-ओरा०--ओरा०अंगोतित्थ० दोपदा ज० ए०, उ० अंतो० । अवढि० ज० ए०, उ० अहारससाग० सादि०। अवत्त० णत्थि अंतरं । देवग०४ तिण्णिप० ज० ए०, उ० अहारससा० सादि । अवत्त० णत्थि अंतरं । एइंदि०-आदाव-थावरं वज्ज । पंचिंदि०-तस० धुवभंगो।
४८५. मुक्काए पंचणा०--छदंस०-चदुक०--भय-दु०-पंचिं०-तेजा०-०वण्ण०४-अगु०४-तस०४-णिमि०--पंचंत. भुज०-अप्प० ज० ए०, उ० अंतो० । अवहि० ज० ए०, उ० तेत्तीसं० सादि० । अवत्त० पत्थि अंतरं । थीणगि०३- मिच्छ०अणंताणु०४-इत्थि०-णदुंस०-पंचसंठा०-पंचसंघ०-अप्पसत्य०--दूभग-दुस्सर--अणादेंणीचा० भुज०-अप्प०-अवहि० ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो०, उ० ऍक्कत्तीसं० दे। णवरि थीणगिद्धि०३-मिच्छ०--अणंताणुबं०४ अवहि० ज०ए०, उ० ऍकत्तीसं सा० सादि० अंतोमुहुत्तेण । सादासाद०-चदुणोक०--थिरादितिण्णियु. भुज०--अप्प० ज० ए०, उ० अंतो० ! अवहि० ज० ए०, उ० तैंतीसं० सादि० । अवत्त० ज० उ० अंतो। अहकसाईसु तिण्णिपदा णाणा भंगो। अवत्त० गत्थि अंतरं । पुरिस०-समचदु०है । अवक्तव्यपदका अन्तरकाल नहीं है। देवगतिचतुष्कके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर है। अवक्तव्यपदका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार पालेश्यामें भी जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसमें सहस्रारकल्पके समान भङ्ग है। आठ कषाय, औदारिकशरीर, औदारिकाङ्गोपाङ्ग और तीर्थङ्कर प्रकृतिके दो पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है । अवक्तव्यपदका अन्तरकाल नहीं है। देवगतिचारके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है। अवक्तव्यपदका अन्तरकाल नहीं है । एकेन्द्रियजाति, आतप और स्थावरको छोड़कर अन्तरकाल कहना चाहिए । तथा पश्चन्द्रियजाति और त्रस प्रकृतियोंका भङ्ग ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों के समान है।
४८५. शुक्ललेश्यामें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार कषाय, भय, जुगुप्सा, पंचेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क, निर्माण और पाँच अन्तरायके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। अवक्तव्यपदका अन्तरकाल नहीं है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्रके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। इतनी विशेषता है कि स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारके अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूते अधिक इकतीस सागर है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार नोकषाय और स्थिर आदि तीन युगलके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। अवक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। आठ कषायोंके तीन पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। अवक्तव्यपदका अन्तर
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महाणुभाग धाहियारे
पसत्थ०-[-सुभग-] सुस्सर-आदें- उच्चा० तिणिप० सादभंगो। अवत्त० ज० अंतो०, उ० ऍकतीसं ० दे० । मणुसाउ० देवभंगो । देवाउ० मणजोगिभंगो । मणुसग०--ओरा०ओरा० गो०- मसाणु० भुज० अप्प० ज० ए०, उ० अंतो० । अवडि० ज० ए०, उ० तेतीसं० दे० | अवत्त० णत्थि अंतरं । देवगदि०४ तिणिप० ज० ए०, उ० तेत्तीस • सादि० । अवत्त० ज० अट्ठारस० सादि०, उ० तेतीसं० सादि० । आहारदुगं भुज ० - अप्प ० -[ अवहि० ] ज० ए०, उ० अंतो० । अवत्त० ज० उ० अंतो ० । वज्जरि० भुज ०-अप्प ० ज० ए०, उ० अंतो० । अवद्वि० ज० ए०, उ० तेत्तीसं० दे० । अवत्त० ज० तो०, उ० ऍक्कत्तीस० दे० । तित्थ० तिणिप० णाणा० भंगो । अवत्त • त्थि अंतरं । [ भवसि० ओघं । ] अब्भवसि० मदि० भंगो ।
0
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४८६. खइग० पंचणा ० छदंस ० चदुसंज० - पुरिस०-भय-दु० पंचिं०-- तेजा० क ०समचदु०-० - वण्ण०४ - अगु०४ - पसत्थ० - तस४ - सुभगं - सुस्सर - आदे० - णिमि० - तित्थ ०उच्चा०-पंचंत० भुज०-अप्प० ज० ए०, उ० अंतो० । अवद्वि० ज० ए०, अवतं० ज०
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काल नहीं है । पुरुषवेद, समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रके तीन पदोंका भङ्ग सातावेदनीयके समान है । अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। मनुष्यायुका भङ्ग देवों के समान है । देवायुका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है। मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग और मनुष्यगत्यानुपूर्वीके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है । अवक्तव्यपदका अन्तरकाल नहीं है। देवगतिचतुष्कके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर साधिक अठारह सागर है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । आहारकद्विकके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्य पदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । वर्षभनाराच संहननके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय हैं और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। अवस्थित पदका जधन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है । अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके तीन पदोंका भङ्ग ज्ञानावरण के समान है । तथा अवक्तव्यपदका अन्तरकाल नहीं है । भव्यों में ओघ के समान भन है । अभव्यों में मत्यज्ञानी जीवों के समान भङ्ग है ।
४८६. क्षायिकसम्यक्त्वमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, पच ेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुager, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थङ्कर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य
१. श्रा० प्रतौ ज० ए० उ० तो ० इति पाठः । २. श्रा० प्रतौ पसस्थ० सुभग इति पाठः । ३. आ० प्रतौ ए० उ० श्रबच० इति पाठः ।
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भुजगारबंधे अंतराणुगमो
२७३ अंतो०, ७० तेत्तीसं० सादिः । एवं साददंडओ च । गवरि अवत्त० ज० उ० अंतो। अहक० दोपदा० ओघं । अवहि-अवत्त० णाणभंगो। मणुसाउ० देवभंगो । देवाउ० मणुसि०भंगो। मणुसगदिपंच० भुज०-अप्प० ज० ए०, उ. अंतो। अवहि० ज० एक, उ० तेत्तीसं० दे० । अवत्त० णत्थि० अंतरं । देवगदि०४-आहारदुगं तिण्णिप० ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो०, उ० तेतीसं० सादि।
४८७. वेदगस० पंचणा०-छदंस०-चदुसंज--पुरिस भय-दु०-पंचिं०-तेजा.. क०-समचदु०-वण्ण०४-अगु०४-पसत्थ०-तस०४-सुभग-मुस्सर-आदें-णिमि०-उच्चा०पंचंत. भुज०-अप्प० ज० ए०, उ० अंतो० । अवहि० ज० ए०, उ० छावहि० देसू०। साददंडओ णाणाभंगो । णवरि अवत्त० ज० उ० अंतो'। अहक० भुज०-अप्प० ज० ए०, उ० पुवकोडी दे० । अवहि० णाणा भंगो । अवत्त० ज० अंतो०, उ० तेत्तीसं० सादि। दोआउ० भुज०--अप्प० ज० ए०, अवत० ज० अंतो०, उ० तेत्तीसं० सादि०। अवहि० णाणाभंगो। मणुसगदिपंच० भुज०-अप्प० ज० ए०, उ० पुव्वकोडी सादि० अंतोमुहुत्तं । अवहि० ज० ए०, उ. छावहि० देसू० । अवत्त० ज० पलिदो० सादि०, अन्तर अन्तमुहूर्त है और दोनों पदोंका उत्कृष्ठ अन्तर साधिक तेतीस सागर है। इसी प्रकार सातावेदनीयदण्डकका भङ्ग जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि प्रवक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । आठ कषायोंके दो पदोंका भङ्ग ओघके समान है। अवस्थित और अवक्तव्यपदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। मनुष्यायुका भक्त देवों के समान है। देवायुका भङ्ग मनुष्यिनियों के समान है। मनुष्यगतिपश्चकके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमहत है। अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है
और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेनीस सागर है। अवक्तव्यपदका अन्तरकाल नहीं है। देवगतिचतुष्क और आहारकद्विकके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है।
४८७. वेदकसम्यक्त्वमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा,पश्चन्द्रियजाति, ते जसशरीर,कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्णचतुष्क,अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके भुजगार और अल्पतरपद का जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छियासठ सागर है। सातादण्डकका भङ्ग ज्ञानावरण के समान है। इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य पदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । अाठ कपायों के भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। अवस्थितपदका भङ ज्ञानावरणके समान है। अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । दो आयुओंके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। अवस्थितपदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। मनुष्यगतिपञ्चकके भुजगार और अस्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त अधिक एक पूर्वकोटि है। अवस्थितपदका जघन्य अन्तर
१. ता. श्रा० प्रत्योः णयरि अटक० ज० उ. अंतो०, ति पाठः। २. श्रा० प्री ए. ७० अक्त.
इति पाठः। 34
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२७४
महापंधे अणुभागबंधाहियारे उ० तेतीसं० सादि० । देवगदि०४ भुज०-अप्प० ज० ए०, उ० तेतीसं० सादिः । अवढि० णाणा मंगो। अवत्त० ज० पलिदो० सादि०, उ. तेत्तीसं० सादिः । आहारदुगं भुन० अप्प० ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो०, उ० तेतीसं० सादि० । अपहि० जाणो भंगो । तित्य० ओघं । णवरि अवतः पत्थि अंतरं ।
४८. उवसम० पंचणाo--छदसणा०-चदुसंज०--पुरिस०--भय-दु०--मणुस.. देवग-पंचिं०-चदुसरीर--समचदु०-दोअंगो०-वज्जरि०-वण्ण०४-दोआणु --अगु०४पसत्य-तस-४-सुभग-सुस्सर-आदें-णिमि०-तित्य०-उच्चा०-पंचंत. भुज०-अप्प०अवहि० ज० ए०, उ० अंतो। अवत्त० णत्थि अंतरं । सादासाद०-अहक०-चदुणोक०आहारदुग-थिरादितिण्णियु० तिण्णिपदा धुवियाणं भंगो। अवत्त० ज० उ० अंतो।
४८६. सासणे धुवियाणं तिण्णिपदा ज० ए०, उ० अंतो० । सेसाणं पि एसेव भंगो। णवरि अवत्त० पत्थि अंतरं । सम्मामि० धुविगाणं तिण्णिपदा० ज० ए०, उ. अंतो। एवं सादादीणं पि। गवरि अवत्त० ज०१० अंतो । मिच्छादि० मदि०भंगो।
४६०. सण्णी० पंचिंदियपजसमंगो। असण्णीम धुवियाणं भुज०-अप्प. ज. एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छियासठ सागर है। प्रवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर साधिक एक पल्य है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। देवगतिचतुष्कके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। अवस्थितपदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर साधिक एक पल्य है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। आहारकद्विकके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और तीनोंका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। अवस्थितपदका भा ज्ञानावरणके समान है। तीर्थकर प्रकृतिका भङ्ग ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि अवक्तव्यपदका अन्तरकाल नहीं है।
४८. उपशमसम्यक्त्वमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, देवगति, पश्चन्द्रियजाति, चार शरीर, समचतुरलसंस्थान, दो आङ्गोपाङ्ग, वजर्षभनाराचसंहनन, वर्णचतुष्क, दो आनुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थङ्करः, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके भुजगार, अल्पतर
और अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। अवक्तव्यपदका अन्तरकाल नहीं है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, आठ कषाय; चार नोकपाय, आहारकद्विक और स्थिर आदि तीन युगलके तीन पदोंका भङ्ग ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों के समान है। अवक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है।
४८६. सासादनसम्यक्त्वमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। शेष प्रकृतियोंका भी यही भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि अवक्तव्यपदका अन्तरकाल नहीं है। सम्यग्मिध्यादृष्टिमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। इसी प्रकार सातावेदनीय आदि प्रकृतियोंका भी जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अवक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूतं है। मिथ्याष्टियांका भङ्ग मत्यज्ञानी जीवोंके समान है।
४६०. संझी जीवोंमें पञ्चन्द्रिय पयप्तिकोंके समान भङ्ग है। असंज्ञी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली १. ता. प्रतौ दि० उ० उ० (१) तेत्तीसं इति पाठः। २. गस्थि अंतः । देवसम० इति पाठः ।
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भुजगारबंधे अंतराणुगमो
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ए०, उ० अंतो० । अवद्वि० ओघं० । दोवेदणी ० -- सत्तणोक ० -- पंचजा०-- बस्संठी०ओरालि० अंगो ० --- इस्संघ ० - पर० --- उस्सा ०० -- आदाउज्जो ०--दोविहा ० -- तसादिदसयु० तिष्णिप० णाणा० भंगो । अवत्त ० ज० उ० अंतो० । चदुआउ०- वेडव्वियछ ० - मणुस ० : तिरिक्खोघं । तिरिक्ख ०३ तिण्णिप० णाणा ०: ० भंगो | अवत्त० ओघं । ओरालि० तिष्णिप सादभंगो । अवत्त० ओघं ।
०३
1
1
४६१. आहारगेसु पंचणाणावरणादिदंडओ ओघं । णवरि अवद्वि० ज० ए०, अवत्त० ज० तो ०, दोन्हं पि [अ०] अंगुल० असंखे० । श्रीणागिद्धिदंडओ अवहि●अवत्त० णाणा० भंगो । सेसं ओघं । सादादिदंडओ ओघं । णवरि अवधि ० णाणा०भंगो । इत्थ० मिच्छ० भंगो० । णवरि तिष्णिपदा श्रघं । पुरिस० ओघं । अवहि ० णाणा० भंगो | णवंसगदंडओ ओघं । अवहि० णाणा० भंगो । तिण्णिचाउ ० -- वेड-व्वियछ० - मणुसगदितिग-- आहारदुगं तिष्णिपदा ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो०, उ० अंगुल० असंखें । तिरिक्खाउ० श्रघं । अवद्वि० णाणा० भंगो । तिरिक्खगदितिगं अवहि ० - अवत्त • णाणा० भंगो । दोपदा ओघं । एइंदियादिदंडओ ओघं । अवहि० णाणा० भंगो । पंचिंदियदंडओ अवधि ० णाणा० भंगो । सेसाणं ओघ । ओरालि० और अल्पतर पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तहै । अवस्थितपदका भङ्ग ओके समान है । दो वेदनीय, सात नोकषाय, पाँच जाति, छह संस्थान, श्रदारिकाङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, परघात, उच्छ्वास, श्रातप, उद्योत, दो विहायोगति और सादि दस युग के तीन पदोंका भङ्ग ज्ञानावरण के समान है । अवक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। चार आयु, वैक्रियिक छह और मनुष्यगतित्रिकका भङ्ग सामान्य तिर्यों के समान है । तिर्यञ्चगतित्रिक के तीन पदोंका भङ्ग ज्ञानावरण के समान है । अवक्तव्यपदका भङ्ग धके समान है। श्रदारिकशरीरके तीन पदोंका भङ्ग सातावेदनीयके समान है । अवक्तव्यपदका भङ्ग ओघ के समान है ।
प्रकृतियोंके भुजगार
४६१. आहारकों में पाँच ज्ञानावरणादि दण्डकका भङ्ग ओघ के समान है । इतनी विशेषता है कि अवस्थित पदका जधन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और दोनों का उत्कृष्ट अन्तर अङ्गुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है । स्त्यानगृद्धिदण्डक के अवस्थित और अवक्तव्य पदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। शेष भङ्ग ओघ के समान है । सातावेदनीय आदि दण्डकका भङ्ग श्रोघके समान है । इतनी विशेषता है कि अवस्थितपदका भङ्ग ज्ञानावरण के समान है। स्त्रीवेदका भङ्ग मिध्यात्व के समान है । इतनी विशेषता है कि तीन पद ओधके समान हैं । पुरुषवेदका भङ्ग ओके समान है । मात्र अवस्थितपदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । नपुंसक वेददण्डका भङ्ग श्रघ के समान है । मात्र अवस्थित पदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । तीन आयु, वैक्रियिक छह, मनुष्यगतित्रिक और आहारकद्विकके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जधन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर अङ्गुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है । तिर्यञ्च आयुका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि अवस्थित - पदका भङ्ग ज्ञानावरण के समान है । तिर्यगतित्रिक के अवस्थित और अवक्तव्यपदका भङ्ग ज्ञानावरके समान है । तथा दो पदोंका भंग ओघके समान है । एकेन्द्रियजाति आदि दण्डकका भंग श्रधके समान है । मात्र अवस्थितपदका भङ्ग ज्ञानावरण के समान है। पचन्द्रियजाति दण्डक के १. ० प्रतौ पंचया छस्संठा ० इति पाठः ।
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महाघे अणुमागवंघाहियारे अवहिल-अवत० णाणा भंगो । सेसं ओपं । समचदुदंडओ ओघ । भवहि० णाणा. भंगो । सेसं ओघं । अवहि० गाणाभंगो । अणाहार० कम्मइगभंगो ।
एवं अंतरं समत्त ।
पाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमो ४६२. गाणाजीवेहि भंगविचयाणु० दुवि०-ओघे० आदे०। प्रोघेण पंचणा०णवदंस-मिच्छ०-सोलसक०-भय-दु०-ओरालि०--तेजा०-क०-वण्ण०४-अगु०-उप०णिमि०-पंचंत. भुज०-अप्पद०--अवहिदबंधगा णियमा अस्थि । सिया एदे य अवत्तगे य। सिया एदे य अवत्तगा य । सादासाद०-सत्तणोक०--तिरिक्खाउ-दुगदि-पंचजादिछस्संठा०-ओरालि० अंगो०-छस्संघ०-दोआणु०--पर०-उस्सा०--आदाउज्जो दोविहा०तसादिदसयु०-दोगोद० भुज० अप्प० अवढि० अवत्तव्वबंधगा य णियमा अस्थि । तिण्णिभाउ० सव्वपदा भयणिज्जा। वेउब्वियछ०-आहारदुग-तित्य० मुज०--अप्प. णियमा अत्यि । अवहि०-अवत्त० भयणिज्जा । एवं ओघभंगो कायजोगि०-ओरालि.. अचक्खु०-भवसि०-आहारग ति ।
४६३. णिरएमुधुविगाणं भुज०-अप्पणिय० अत्थिः । सिया एदे य अवहिदगे अवस्थितपदका भङ्ग शानावरणके समान है। शेष पदोंका भङ्ग पोषके समान है । औदारिकशरीरके अवस्थित और प्रवक्तव्यपदका भा ज्ञानावरणके समान है। शेष पदोंका भङ्ग ओघके समा समचतुरस्त्रसंस्थानदण्डकका भङ्ग अोषके समान है। मात्र अवस्थितपदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। मात्र अवस्थितपदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है । मात्र अवस्थितपदका भंग ज्ञानावरणके समान है। अनाहारक जीवोंमें कार्मणकाययोगी नीवोंके समान भंग है।
इस प्रकार अन्तरकाल समाप्त हुआ।
नाना जीवोंकी अपेक्षा भजविचयानुगम ४६२. नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविषय दो प्रकारका है-श्रोष और आदेश । ओघसे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जगप्सा, औदारिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदके बन्धक जीव नियमसे हैं। कदाचित् ये अनेक जीव हैं और एक अवक्तव्यपदका बन्धक जीव है । कदाचित् ये अनेक जीव हैं और अनेक अवक्तव्यपदके बन्धक जीव हैं। सातावेदनीय, असातावेदनीय, सात नोकषाय, तिर्यञ्चायु, दो गति, पाँच जाति, छह संस्थान, औदारिक आंगोपांग, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, सादि दस युगल और दो गोत्र के भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और श्रवक्तव्यपदके बन्धक जीव नियमसे हैं। तीन आयुओं के सब पद भजनीय हैं। वैक्रियिक छह, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिके भुजगार और अल्पतरपदके बन्धक जीव नियमसे हैं। अवस्थित और अवक्तव्यपद भजनीय हैं । इस प्रकार अोधके समान काययोगी, औदारिककाययोगी, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवामें जानना चाहिए।
४६३. नारकियोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतरपदके बन्धक जीव
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भुजगारपंधे पाणाजीवेहि भंगविषयाणुगमो
२७० म। सिया एदे य अवहिदगा य । सेसाणं सव्वपगदीणं धुविगभंगो । णवरि भवहि-प्रवत्त० भयणिज्जा । दोण्हं आऊणं सव्वपदा भयणिज्जा । एवं सव्वणिरयसव्वपंचिंदियतिरि०-देव-विगलिंदि० --पंचिं०-तस० अपज्ज०--चादरपुढ०-आउ०--तेउ०वाउ०--बादरवण पत्ते०पज्जत्त--उँ०-इत्थि०--पुरिस०-विभंग०--सामाइ०-छेदो०-परिहार०-संजदासंज०-तेउ०-पम्म०-वेदगसम्मादिहि ति ।
४६४. तिरिक्खेमु धुविगाणं भुज०-अप्प०-अवहिणिय० अत्यि । सेसाणं ओघ । एवं ओरालियमि०--कम्मइ०--णस०-कोधादि०४-मदि०-मुद असंज०तिएिणले०-अब्भव०-मिच्छा०-असएिण-अणाहारगति । णवरि ओरालियमि०-कम्मइ०अणाहार० देवगदिपंचग० सव्वपदा भयणिज्जा।
४६५. मणुसेमु सबपगदीणं भुज०-अप्पणिय० अत्थि । सेसपदा भयणिज्जा। चदुआउ० सव्वपदा भयणिज्जा। एवं सव्वमणुसाणं पंचिं-तस०२-पंचमण-पंचवचि०आभिणि-सुद०-ओधि०-मणपज्ज०-संज०-चक्खु०-ओधिदं०-सुक्कले०-सम्मा०--खइग०सएिण ति ।
४६६. मणुसअपजसव्वपगदीणं सव्वपदा भयणिज्जा । एवं वेव्वियमि०आहार०-आहारमि०-अवगद-सुहुमसं०-उवसस०-सासण-सम्मामि० । नियमसे हैं। कदाचित् ये अनेक जीव हैं और एक अवस्थितपदका बन्धक जीव है। कदाचित् ये अनेक जीव हैं और अनेक अवस्थितपदके बन्धक जीव हैं। शेष सब प्रकृतियोंका भंग ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि अवस्थित और वक्तव्यपद भजनीय हैं । दोनों
आयुओंके सष पद भजनीय हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब पश्चन्द्रियतिर्यश्च, देव, विकलेन्द्रिय, पञ्चन्द्रिय अपर्याप्त, त्रसअपर्याप्त, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त, बादर बनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त, वैक्रियिककाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, विभंगज्ञानी, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयत्तासंयत, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए ।
४६४.तिर्यश्चोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदके बन्धक जीव नियमसे हैं। शेष प्रकृतियोंका भंग अोधके समान है। इसी प्रकार औदारिकमिश्रकाययोगी, कामणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, तीन लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें देवगतिपञ्चकके सब पद भजनीय हैं।
४६५. मनुष्योंमें सब प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतरपदके बन्धक जीव नियमसे हैं । शेष पद भजनीय हैं। चारों आयुओंके सब पद भजनीय हैं। इसी प्रकार सब मनुष्य, पञ्चोन्द्रिय, पश्चोन्द्रियपर्याप्त, प्रसद्विक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, श्राभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनापर्ययज्ञानी, संयत, चक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिए।
४६६. मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंके सब पद भजनीय हैं। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, श्राहारककाययोगी, आहारकमिश्नकाययोगी, अपगतवेदी, सूक्ष्मसाम्परायसंयत, उपशम
१. ता. प्रतौ पज्जत्तावे (व) इति पाठः । २. प्रा. प्रतो सबमणुसाणं पंचिं पंचिं इति पाठः।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ४६७. सव्वएइंदि० पुढ०--बादर०-बादर०अप० मणुसाउ० मोघं । सेसाणं सव्वपदा णिय० अत्थि। एवं आउ०--तेउ०--वाउ०--बादर-बादरअप० तेसिं चेव सव्वसुहुम०-सव्ववण-णिगोद०-बादरपत्ते अपज्ज० ।
एवं णाणाजीवेहि भंगविचयं समत्तं ।
भागाभागाणुगमो ४१८. भागाभागाणु० दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० पंचणा०-णवदंसणा०मिच्छ०--सोलसक०--भय-दु०-ओरालि०-तेजा.-क०--वएण०४-अगु०-उप०-णिमि०पंचत० भुजगारबंधगा सव्वजीवाणं केवडियो भागो ? दुभागो सादिरेगो। अप० दुभागो देसू०। अवहि सन्यजीवाणं असंखेंजदिभागो। अवत्त० सव्वजी० अणंतभा०। सादासाद०--सत्तणोक०--चदुआउ०-चदुगदि-पंचजादि--ओरा०--वेउचि०--छस्संठा०ओरा०-उ० अंगो०-छस्संघ०-चदुआणु०-पर०-उस्सा०--आदाउज्जो०-दोविहा०-तसादिदसयु०-तित्थ०-दोगो० भुज. सव्वजी० दुभा० सादि० । अप्प० दुभा० देसू० । अवहि०-अवत्त० असंखें०भा० । एवं आहारदुगं । णवरि अवहि-अवत्त० संखेंजदिभा० । एवं ओघभंगो तिरिक्खोघं कायजोगि०-ओरा०-ओरा०मि०-कम्मइ०-णqस०सम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिए।
४६७, सब एकेन्द्रिय और पृथिवीकायिक तथा इनके बादर और बादर अपर्याप्त जीवोंमें मनुष्यायुका भंग ओघके समान है । शेष प्रकृतियोंके सब पदवाले जीव नियमसे हैं। इसी प्रकार जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक तथा इनके बादर और बादर अपर्याप्त सथा सब सूक्ष्म, सब वनस्पतिकायिक, निगोद और बादर प्रत्येक वनस्पतिकायिक अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए। इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय समाप्त हुआ।
भागाभागानुगम ४६८. भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर, तैजस
र, वणेचतुष्क, अगुरुलघु, उपचात, निर्माण और पाँच अन्तरायके भुजगारपदके बन्धक जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? साधिक द्वितीय भागप्रमाण हैं। अल्पतरपदके बन्धक जीव कुछ कम द्वितीय भागप्रमाण हैं। अवस्थितपदके बन्धक जीव सब जीवोंके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सब जीवोंके अनन्तवें भागप्रमाण हैं। सातावेदनीय, असातावेदनीय, सात नोकषाय, चार आयु, चार गति, पाँच जाति, औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर, छह संस्थान, औदारिक आंगोपांग, वैक्रियिक प्रांगोपांग, छह संहनन, चार आनुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, त्रसादि दस युगल, तीर्थङ्कर और दो गोत्रके भुजगार पदके बन्धक जीव सब जीवों के साधिक द्वितीय भागप्रमाण हैं। अल्पतरपदके बन्धक जीव कुछ कम द्वितीय भागप्रमाण हैं । अवस्थित और प्रवक्तव्यपदके बन्धक जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। इसीप्रकार आहारकशरीरद्विकका भंग है । इतनी विशेषता है कि अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं। इसी प्रकार ओषके समान सामान्य तिर्यश्च, काययोगी, औदारिक
१. ता० प्रतौ कायजोगि० ओरालि० मि० इति पाठः ।
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भुजगारवंधे परिमाणाणुगमो
२७६ कोधादि०४ -मदि०--सुद०--असंज०--अचक्खु०--तिएिणले०-भवसि०-अब्भवसि०-- मिच्छादि०-असएिण-आहार०-अणाहारग त्ति । एदेसि किंचि. विसेसो णादव्वो। ओरालि. तित्थ० ओरालिमि०-कम्मइ०-अणाहारएसु देवगदिपंच० आहारसभंगो। अवत्त० णत्थि। सेसाणंणेरइगादीणं याव सणिण ति याओ असंखेंज-अणंतजीविगाओ पगदीनो ताओ ओघ सादभंगो। याव संखेंजजीविगाओ पगदीओ ताओ ओघं आहारसरीरभंगो।
एवं भागाभागं समतं ।
परिमाणाणुगमो ४६६. परिमाणाणु० दुवि०-ओघे० आदे। ओघे० पंचणा०-छदंस०-अहक०भय-दु०-तेमा०-क०-वएण०४-अगु०-उप-णिमि०-पंचंत० भुज०-अप्प०-अवहिबंधगा कत्तिया ? अयंता । अवत्त० के० ?संखेंज्जा ।थीणगि०३-मिच्छ०-अहक०-ओरालि. भुज-अप्प०-अवहि के ? अणंता। अवत्त० के ? असंखें। दोवेदणी०-सत्तणोक०तिरिक्खाउ०-दोगदि-पंचजा०--छस्संठा०-ओरालि०अंगो०--छस्संघ०-दोआणु०-पर०उस्सा०-आदाउज्जो०-दोविहा०-तसादिदसयुग०-दोगो० भुज०-अप्प०-अवहि-अवत्त. के०१ अणंता । तिएिणपाउ०-वेउ०छ० भुज-अप्प०-अवहि-अवत्त केत्ति ? असंकाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कपायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए। इन मार्गणाओं में जो कुछ विशेषता है वह जान लेनी चाहिए । औदारिककाययोगी जीवोंमें तीर्थङ्कर प्रकृतिका, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें देवगतिपञ्चकका भंग आहारकशरीरके समान है। तथा अवक्तव्यपद नहीं है। शेष नरक आदिसे लेकर संज्ञी तक जो असंख्यात और अनन्त जीवोंके बंधनेवाली प्रकृतियाँ हैं,उनका भङ्ग ओघसे सातावेदनीयके समान है। तथा जो संख्यात जीवोंके बंधनेवाली प्रकृतियाँ हैं,उनका भंग ओघसे आहारकशरीरके समान है।
इस प्रकार भागाभाग समाप्त हुआ।
परिमाणानुगम ४६६. परिमाणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, आठ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदके बन्धक जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। अवक्तव्यपदके बन्धक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, आठ कषाय और औदारिकशरीरके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदके बन्धक जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। प्रवक्तव्यपदके बन्धक नीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । दो वेदनीय, सात नोकषाय, तिर्यश्वायु, दो गति, पाँच जाति, छह संस्थान, औदारिकाङ्गो. पाङ्ग, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, सादि दस युगल और दे गोत्रके भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीव अनन्त हैं। तीन आयु और वैक्रियिक छहके भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीव
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२८.
महापंधे अणुभागबंधाहियारे बँजा । माहारदुर्ग भुज०-[अप्प०-]-अवहि-अवत० के०१ संखेंज्जा । तित्य० सुज.. अप्प०-अवहि० के १ असंखेंजा । अवत्त० के १ संखेंजा। एवं ओघभंगो कायजोगि-ओरालि०-[ णदुंस०-कोधादि०४-] अचक्खु०-भवसि-आहारए ति । गवरि ओरालि. तित्थ० संखेज्जा।
५००.णिरएसु मणुसाउ०सव्वपदा० तित्थय० अवत्त० के०१ संखेंज्जा । सैसाणं सव्वपदा के ? असंखें। एवं सव्वणिरय--सव्वदेवा याव अपराजिदा शि बेउ०वे०मि०--इत्थि०--पुरिस०--विभंग०-सासणसम्मादिहि ति । णवरि इत्थि० तित्थ. संखें]
५०१. तिरिक्खेमु धुविगाणं तिण्णिपदा के ? अणंता । सेसाणं ओघं। एवं तिरिक्खोघभंगो मदि०-सुद-असंज०-तिरिणले०-अब्भवसि०-मिच्छा०-असरणीम् । पंचिंदियतिरिक्ख०३ धुविगाणं तिएिणपदा के ? असंखें । सेसाणं परियत्तमाणियाणं चत्तारिपदा के ? असंखें। एवं सन्वअपज०-सव्वविगलिंदि०-पुढ०-आउ०. तेउ०-वाउ०-चादरपत्तेग ति ।
५०२. मणुसेस पंचणा०--णवदंस०--मिच्छ०--सोलसक०--भय-दु०--ओरालि.. तेजा-क०-वएण०४-अगु०-उप--णिमि०--पंचंत. तिण्णिप० असंखें । अवत्त कितने हैं ? असंख्यात हैं। श्राहारकद्विकके भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। तीर्थकर प्रकृतिके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदके बन्धक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। अवक्तव्यपदके बन्धक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। इसी प्रकार ओघके समान काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चारों कषायवाले, अचनुदर्शनी. भव्य और आहारक जीवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि औदारिककाययोगी जीवोंमें तीर्थङ्कर प्रकृतिके सब पदोंके बन्धक जीव संख्यात हैं।
५००. नारकियोंमें मनुष्यायुके सब पदोंके और तीर्थकर प्रकृतिके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव कितने हैं? संख्यात हैं। शेष प्रकृतियों के सब पदोंके बन्धक जीव कितने हैं। संस हैं। इसी प्रकार सब नारकी, देव, अपराजित विमान तकके सब देव, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिक. मिश्रकाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, विभंगज्ञानी और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेदी जीवोंमें तीर्थङ्कर प्रकृतिके सब पदोंके बन्धक जीव संख्यात हैं।
५०१. तिर्यञ्चोंके ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदोंके बन्धक जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। शेष प्रकृतियोंका भेग अोधके समान है। इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंके समान मत्यज्ञानी, ता. ज्ञानी, असंयत, तीन लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंमें जानना चाहिए । पञ्चन्द्रिय तिर्यश्चत्रिक ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदोंके बन्धक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। शेष परिवर्तमान प्रकृतियोंके चार पदोंके बन्धक नीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसी प्रकार सब अपर्याप्त, सब विकलेन्द्रिय, पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और चादर प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीवोंके जानना चाहिए।
५०२. मनुष्यों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलधु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायके तीन पदोंके बन्धक जीव असंख्यात हैं। अवक्तव्यपदके बन्धक जीव संख्यात हैं। दो
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भुजगारे परिमाणासुगमो
२८१ संखेंजा । दोआउ०--वेउवि०छ० -आहार०२-तित्य. चत्तारिपदा के ? संखेजा। सेसाणं चत्तारिपदा के १ असंखें । मणुसपज्जत-मणुसिणीच सव्वपगदीणं सव्वपदा कैतिया १ संखे । मणुसिभंगो सव्वदृ०--आहार-आहारमि०--अवगद०--मणपज्ज०संजद०-सामाइ०-छेदो०-परिहार०-सुहुम० ।
५०३. एइंदिएमु सव्वपगदीणं सव्वपदा के०१ अणंता । णवरि मणुसाउ० ओघं । एवं वणप्फदि-णियोद०।
५०४. पंचिंदिएम पंचणा०-छदंस०-अहक०-भय--दु०--तेजा-का-वएण०४अगु०-उप०-णिमि०--तित्थय०--पंचंत. तिण्णिप० के० ? असंखें । अवत्ता के ? संखें । आहारदुगं सव्वप० के ? संखें । सेसाणं चत्तारिपदा के ? असंखें । एवं पंचिंदियपज्ज---तस-तसपज्ज--पंचमण--पंचवचि०--चक्खु०-सण्णि ति । ओरा०मि० कम्मइ०-[अणाहार०] तिरिक्खोघं । णवरि देवगदिपंचग० सन्वपदा संखेजा।
____५०५. आभिणि०--सुद०--ओधि. पंचणा०-छदंस--अहक०-पुरिस०-भय-दु०देवग०-पंचिं०-वेउ०-तेजा.-क०--समचदु०-वेउ० अंगो०--वएण०४-देवाणु०-अगु०-पसस्थवि०-तस०४-सुभग-सुस्सर-आदें--णिमि-तिस्थ०--उच्चा०-पंचंत० तिएिणप० के० ? आयु, वैक्रियिक छह, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिके चारों पदोंके बन्धक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। शेष प्रकृतियोंके चारों पदोंके बन्धक जीव कितने हैं, असंख्यात हैं। मनुष्यपर्याप्त
और मनुष्यिनियोंमें सब प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। सर्वार्थसिद्धिके देव, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, मनापर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत और सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंमें मनुष्यिनियोंके समान भंग है।
५०३. एकेन्द्रियोंमें सब प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीव कितने हैं । अनन्त हैं। इतनी विशेषता है कि मनुष्यायुका भंग ओघके समान है। इसी प्रकार वनस्पतिकायिक और निगोद जीवोंमें जानना चाहिए।
५०४. पञ्चन्द्रियोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, आठ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपधात, निर्माण, तीर्थङ्कर और पाँच अन्तरायके तीन पदोंके बन्धक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। प्रवक्तव्यपदके बन्धक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। आहारकद्विकके सब पदोंके बन्धक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। शेष प्रकृतियोंके चारों पदोंके बन्धक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसीप्रकार पञ्चन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रसपर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, चक्षुदर्शनी और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिए। औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें सामान्य तिर्यञ्चों के समान भंग है। इतनी विशेषता है कि देवगतिपञ्चकके सब पदोंके बन्धक जीव संख्यात हैं।
५०५. श्राभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण,छह दर्शनावरण, आठ कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, देवगति, पञ्चन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कामणशरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, वैक्रियिकांगोपांग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूवी, अगुरुलघु, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थकर, उचगोत्र और पाँच अन्तरायके तीन पदोंके बन्धक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। अबक्तव्यपदके बन्धक जीव
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१२
महापंधे अणुभागबंधाहियारे असंखें। अवत्त० कॅत्ति ? संखें। सादासाद०--अपञ्चक्खाण०४-चदुणोक--- देवाउ०--मणुसगदिपंच०--थिरादितिरिणयु० चचारिप० के १ असंखें । मणुसाउ०
आहारदुगं सव्वप० के १ संखें। एवं ओधिदं०-सम्मादि०-वेदग०-सम्मामिच्छादिहि त्ति । णवरि वेदग०-सम्मामि० धुविगाणं अवच० गत्थि।
५०६. संजदासंज. धुविगाणं तिण्णिपदा परियत्तमाणियाणं चत्वारिपदा के ? असंखे० । तित्थ० सव्वप० के० १ संखे ।
५०७. किरण--णीलाणं तित्थ. तिएणप० के १ संखें । तेउ--पम्मासु धुविगाणं' तिएिणपदा के ? असंखें । पञ्चक्खा०४ --देवगदि०४--तित्थ० अवत्त० संखेजा। सेसपदा० असंखें। सेसाणं सव्वप० असंखें। मणुसाउ०-आहार०२ सव्वप० के० १ संखें। सुकाए पंचणा०-छदंस०-अहक०-भय-दु०-दोगदि-पंचजादिचदुसरीर-दोअंगो०-वण्ण०४-दोआणु०-अगु०४-पसत्यवि०-तस०४-णिमि०-तित्थ.. पंचंत० तिएिणप० के ? असं०। अवत्त० के १ संखें । दोआउ०-आहार०२ सव्वपदा के ? संखें । सेसाणं सव्वप० के ? असंखें ।
५०८. खइग० पंचणा०-छदंस०--बारसक०--पुरिस०-भय-दु०-दोगदि-पंचिं०कितने हैं ? संख्यात हैं। सातावेदनीय, असातावेदनीय, अप्रत्याख्यानावरण चार, चार नोकषाय, देवायु, मनुष्यगतिपञ्चक और स्थिर आदि तीन युगलके चार पदोंके बन्धक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। मनुष्याय और आहारकद्विकके सब पदोंके बन्धक जीव कितने हैं? संख्यात हैं। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि वेदकसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवोंमें ध्रुववन्धवाली प्रकृतियों का प्रवक्तव्यपद नहीं है।
५०६. संयतासंयत जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदोंके और परिवर्तमान प्रकृतियोंके चार पदोंके बन्धक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। तीर्थङ्कर प्रकृतिके सब पदोंके बन्धक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं।
५०७. कृष्ण और नील लेश्यामें तीर्थङ्कर प्रकृतिके तीन पदोंके बन्धक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। पीत और पद्मलेश्यामें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदोंके बन्धक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। प्रत्याख्यानावरण चार, देवगतिचतुष्क और तीर्थङ्कर प्रकृतिके प्रवक्तव्य पदके बन्धक जीव संख्यात हैं तथा शेष पदोंके बन्धक जीव असंख्यात हैं। शेष प्रकृतियों के सब पदोंके बन्धक जीव असंख्यात हैं। मनुष्यायु और आहारकद्विकके सब पदोंके बन्धक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। शुक्ललेश्यामें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, आठ कषाय, भय, जुगुप्सा, दो गति, पाँच जाति, चार शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, दो आनुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, निर्माण, तीर्थङ्कर और पाँच अन्तरायके तीन पदोंके बन्धक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। प्रवक्तव्यपदके बन्धक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। दो आयु और आहारकद्विकके सब पदोंके बन्धक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। शेष सब प्रकृतियोंके सव पदोंके बन्धक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं।
५०८. क्षायिकसम्यक्त्वमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय, १. श्रा० प्रती धुधिगाणं के० इति पाठः।
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भुजगारे खेत्ताणुगमो
२८३ चदुसरीर-समचदु०-दोअंगो०-वजरि०-वएण०४-दोआणु०-अगु०४--पसत्य०-सस०४सुभग-मुस्सर-आदें -गिमि०-तित्थ०-उच्चा०-पंचंत. तिण्णिप० के०१ असंखें। अवत्त. के ? संखें । दोवेदणी--चदुणोक०--थिरादितिण्णियु. सव्वपदा के १ असंखें। दोआउ०-आहारदुगं सव्वप० के ? संखें।
___ ५०६. उवसम पंचणा०-छदंस०-अहक०-पुरिस०-भय-दु०--दुगदि-पंचिं०-चदुसरीर-समचदु०-दोअंगो०--वजरि०--वएण०४-दोआणु०-अगु०४--पसत्थ०-तस०४-- सुभग सुस्सर-आदें-णिमि०-उच्चा०-पंचंत. तिएिणप० के० १ असंखें । अवत० के०? संखें। आहारदुर्ग तित्य. सधप० के १ संखेंजा। सेसाणं सव्वपदा के ? असंखेंजा।
एवं परिमाणं समत्तं ।
खेत्ताणुगमो ५१०. खेताणुगमेण दुवि०-ओघे० आदे। ओघे० पंचणाo--णवदंस.. मिच्छ०-सोलसक०-भय-दु०--ओरालि०--तेजा०-क०-वण्ण०४-अगु०-उप०-णिमि०पंचंत० भुज०-अप्प०-अवटि बंधगा केवडि खेते ? सव्वलोगे । अवत्त० के १ लोगस्स असंखेजदिभागे । सादासाद०-सत्तणोक-तिरिक्खाउ०--दोगदि०-पंचजा०-छस्संठाजुगुप्सा, दो गति, पश्चन्द्रियजाति, चार शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, दो प्रांगोपांग, वर्षभनाराच संहनन, वर्णचतुष्क, दो आनुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थङ्कर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके तीन पदोंके बन्धक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। प्रवक्तव्यपदके बन्धक जीव कितने हैं ? संख्यात है। दो वेदनीय, चार नोकषाय और स्थिर आदि तीन युगलके सब पदोंके बन्धक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। दो आयु और आहारकद्विकके सब पदोंके बन्धक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं।
५०६. उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, आठ कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, दो गति, पञ्चन्द्रियजाति, चार शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, दो प्रांगोपांग, वर्षभनाराच संहनन, वर्णचतुष्क, दो भानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, प्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, 'प्रादेय, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके तीन पदोंके बन्धक जीव कितने हैं। असंख्यात हैं । अवक्तव्यपदके बन्धक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। श्राहारकद्विक और तीर्थकरके सब पदोंके बन्धक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। शेष सब प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं।
इस प्रकार परिमाण समाप्त हुआ।
क्षेत्रानुगम ५१०. क्षेत्रानुगमको अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर, तेजस शरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदके बन्धक जीवोंका कितना क्षेत्र है ? सब लोक क्षेत्र है। प्रवक्तव्य पद के बन्धक जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है। सातावेदनीय,
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महाबंधे अणुभागवाहियारे जोस अंगो०-स्संघड०--दोआणु०-पर०--उस्सा०-आदाउज्जो०--दोविहा०--तसादिदसयु०-दोगो० चत्तारिप० के ? सव्वलोगे। तिण्णिआउ०-वेउव्वियछ०-आहार०२तित्थ० सव्वप० के० ? लो० असंखें । एवं ओघभंगो कायजोगि-ओरालि०-ओरा० मि०--कम्म०--णदुंस०--कोधादि०४-मदि०-सुद०--असंज०--अचक्खु०--तिएिणले०-- भवसि०-अब्भवसि०-मिच्छा० असएिण-आहार०-अणाहारए नि ।
____५११. एइंदि०-सव्वसुहुमएइंदि० धुक्गिाणं तिएिणपदा सव्वलो०। मणुसाउ० ओघं । सेसाणं सव्वपगदीणं सव्वपदा के ? सव्वलो० । एवं पुढ०--आउ०--तेउ०वाउ०--वणप्फदि०--णिगोद० तेसिं सव्वसुहुमाणं च । बादरएइंदिपज्ज०--अपज्ज० धुवियाणं तिएिणप० के ? सव्वलो० । सादासाद०--चदुणोक०--थिरादिदोषिणयु. सव्वप० के ? सव्वलो० । इत्थि०-पुरि०-तिरिक्खाउ०-चदुजा०-पंचसंठा०-ओरालि. अंगो०--छस्संघ०-आदा०--उज्जो०--दोविहा०--तस०-बादर०--सुभग० दोसर०-आदेंजस० चत्तारिप० के ? लो० संखें । णस०-एइंदि०-हुंड-पर०-उस्सा०-थावरसुहुम-पज्जत्तापज्ज०-पत्ते०-साधा०-दूभग-अणादें-अजस तिषिणप० के ? सव्वलो। अवत्त० के० ? लो० संखेज्ज० । मणुसाउ०-मणुसग०३ चत्तारिप० के १ लो० असातावेदनीय, सात नोकषाय, तिर्यञ्चायु, दो गति, पाँच जाति, छह संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, दो भानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, त्रसादि दस युगल और दो गोत्रके चार पदोंके बन्धक जीवों का कितना क्षेत्र है ? सब लोक क्षेत्र है। तीन आयु, वैक्रियिक छह, आहारकद्विक और तीर्थङ्करके सब पदोंके बन्धक जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है। इसी प्रकार ओघके समान काययोगी, औदारिककाययोगी,
औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्याष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए।
५११, एकेन्द्रिय और सब सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोंमें ध्रवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदोंके बन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक है। मनुष्यायुका भङ्ग पोषके समान है। शेष सब प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीवोंका कितना क्षेत्र है ? सब लोक क्षेत्र है। इसी प्रकार पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, निगोद और इन सबके सब सूक्ष्म जीवोंमें जानना चाहिए। बादर एकेन्द्रिय तथा उनके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवों में ध्रववन्धवाली प्रक्रतियोंके तीन पदोंके बन्धक जीवोंका कितना क्षेत्र है ? सब लोक क्षेत्र है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार नोकषाय और स्थिर आदि दो युगलों के सब पदोंके बन्धक जीवों का कितना क्षेत्र है ? सब लोक क्षेत्र है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, तिर्यञ्चायु, चार जाति, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, त्रस, बादर, सुभग, दोस्वर, आदेय और यशःकीर्तिके चार पदोंके बन्धक जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके संख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र है। नपुंसकवेद, एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, परघात, उच्छ्वास, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, दुर्भग, अनादेय, और अयश:कीर्तिके तीन पदोंके बन्धक जीवोंका कितना क्षेत्र है ? सब लोक क्षेत्र है। अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है। मनुष्यायु और मनुष्यगति
१. ता. प्रतौ छस्संघ० दोश्रावु० दोविहा० इति पाठः। २. पा. प्रतौ सादा० इति पाठः ।
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भुजगारे खेत्ताणुगमो
२८५ असंखें । तिरिक्ख०३ तिषिणप० केवडि० १ सव्वलो० । अवत्त० लो० असं०।
५१२. बादरपुढ० तस्सेव अपज्ज. पंचणा०-णवदंस०--मिच्छ०--सोलसक०भय०-दुगुं०-ओरा०-तेजा.-क०-वएण०४-अगु०-उप०-णिमि०-पंचंत० तिणिप के ? सबलो० । सादासाद०-चदुणांक ०-थिराथिर-सुभासुभ० चत्तारिप० सव्वलो। इत्यिकपुरिस०-दोआउ०-मणुसग०--चदुजा०-पंचसंठा--ओरा०अंगो०-छस्संघ-मणुसाणु०आदा७०-दोविहा०-तस-बादर--सुभग-दोसर-आदें-[जस०]-उच्चागो. चत्तारिप० लो. असं० । णस-तिरिक्व०-एइंदि०-हुंड०-तिरिक्खाणु० पर०--उस्सा०-थावर०-मुहुमपज्जत्तापज०-पत्ते-साधार०--दूभग०-अणा०-अजस०--णीचा० तिण्णिप० सव्वलो० । अवत्त० लो० असंखें । एवं बादरआउ०--तेउ०--वाउ० तेसिं चेव अपज्ज० बादर०पत्ते तस्सेव अपज्ज० । गवरि बादरवाउ० जम्हि लोग० असंखें तम्हि लो० संखें। सेसाणं णेरइगादीणं याव सण्णि ति संखेज--असंखेज्जजीविगाणं सव्वपदा के ? लो० असंखेंजदिभागे।
एवं खेतं समत्तं ।
त्रिकके चार पदोंके बन्धक जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र है। तिर्यश्चगतित्रिकके तीन पदोंके बन्धक जीवोंका कितना क्षेत्र है ? सब लोक क्षेत्र है। अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका लोक के असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है।
५१२. बादर पृथिवीकायिक और उसके अपर्याप्त जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्त्र, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायके तीन पदोंके बन्धक जीवोंका कितना क्षेत्र है ? सब लोक क्षेत्र है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार नोकषाय,स्थिर,अस्थिर, शुभ और अशुभके चार पदोंके बन्धक जीवोंका सब लोक क्षेत्र है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद, दो आयु, मनुष्यगति, चार जाति, पाँच संस्थान, औदारिक आंगोपांग, छह संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, त्रस, बादर, सुभग, दो स्वर, श्रादेच, यश:कीर्ति और उच्चगोत्रके चार पदोंके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है । नपुंसकवेद, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, दुभंग, अनादेय, अयशःकीर्ति और नीचगोत्रके तीन पदोंके बन्धक जीवोंका सब लोक क्षेत्र है। प्रवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है। इसी प्रकार बादर जल. कायिक, बादर अग्निकायिक, बादर वायुकायिक और उनके अपर्याप्त तथा बादर प्रत्येकशरीर और उनके अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि जहाँ पर लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है. वहाँ पर बादर वायुकायिक जीवोंमें लोकके संख्यातवें भागप्रमाण कहना चाहिए । शेष नारकीआदिसे लेकर संज्ञी तकके संख्यात और असंख्यात संख्याक जीवोंमें सब पदोंके बन्धक जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है।
इस प्रकार क्षेत्र समाप्त हुआ।
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महापंधे अणुभागवधाहियारे
फोसणाणुगमो ५१३. फोसणाणु० दुवि०-ओघे० प्रादे। ओघे० पंचणा०-छदंस०-अहक०भय-दु०-तेजा०-क०-वएण०४-अगु०-उप०-णिमि०-पंचंत० भुज०-अप्प०-अवहि०बंधगेहि केवडियं खेचे पोसिदं ? सव्वलो। अवल० लो० असंखें। थीणगिदि०३-अर्णताणु०४ तिएिणप० सव्वलो० । अवच० अहचों। सादासाद०-सत्तणोक-तिरिक्खाउ०-दोगदि-पंचजादि-छस्संठा०-ओरा० अंगो०-छस्संघ०-दोआणु०-पर-उस्सा०-आदाउज्जो०दोविहा०--तसादिदसयु०-दोगो० भुज०-अप्प०-अवहि०--अवत्त० के ? सव्वलो० । मिच्छ० तिषिणप० सव्वलो०। अवच. अह-बारह० । अपचक्खाण०४ तिएिणप० सव्वलो० । अवत्त० छच्चों । णिरय-देवाउ.-आहार०२ चत्तारिप० के १ लो. असं०। मणुसाउ० चत्तारिप० अहचों सव्वलो। णिरय-देवग०-दोआणु० तिएिणप० छच्चों। अवत्त० खेत० । ओरालि० तिएिणप० सव्वलो० । अवत्त० बारहों। वेउन्वि०-उन्वि०-अंगो० तिपिणाप० बारह० । अवत्त० खेत। तित्थयरं तिएिणप० अह । अवत्त० खेत।
स्पर्शनानुगम
५१३. स्पर्शानुगम दो प्रकारका है-श्रोध और आदेश। ओघसे पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, पाठ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदके वन्धक जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? सब लोकका स्पर्शन किया है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्यानगृद्धि तीन और अनन्तानुबन्धी चारके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने सब लोकका स्पर्शन किया है। प्रवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, सात नोकषाय, गिर्यश्चायु, दो गति, पाँच जाति, छह संस्थान, औदारिक आंगोपांग, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, परघात, उच्छवास, पातप, उद्योत, दो विहायोगति, सादि दस युगल और दो गोत्रके भुजगार, अल्पतर, अवस्थित
और अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? सब लोकका स्पर्शन किया है। मिथ्यात्वके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने सब लोकका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजुपमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अप्रत्याख्यानायरण चारके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने सब लोकका स्पर्शन किया है। प्रवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। नरकायु, देवायु और आहारकद्विकके चार पदोंके बन्धक जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ! लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका सर्शन किया है। मनुष्यायुके चार पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोकका स्पर्शन किया है। नरकगति, देवगति और दो आनुपूर्वी के तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। प्रवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। औदारिकशरीरके तीन पदों के बन्धक जीवोंने सब लोकका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिक आंगोपांगके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम बारह घटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। प्रवक्तव्य
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मुजगारे पोसणाणुगमो ५१४. णिरएमु धुविगाणं तिएिणप० छच्चों थीणगि०३-अर्णताणु०४-तिण्णिपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ पटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। भवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है।
विशेषार्थ-पाँच ज्ञानावरण आदिके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपद एकेन्द्रियादि सव जीवोंके होते हैं, इसलिए इनका सर्व लोकप्रमाण स्पर्शन कहा है। तथा उनका प्रवक्तव्य पद उपशमश्रेणिसे गिरनेवाले मनुष्य और मनुष्यनीके तथा ऐसे जीवके मरकर देव होने पर प्रथम समय में होता है, इसलिए इसका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। स्त्यानगृद्धि तीन और भनन्तानुबन्धी चारके भुजगार भादि तीन पदोंका स्वामित्व पाँच ज्ञानावरणके समान है, इसलिए इनके तीन पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन सर्व लोक कहा है। तथा इनका अवक्तव्यपद ऊपरके गुणस्थानोंसे गिरकर इनके बन्धके प्रथम समयमें होता है। ऐसे जीवोंका स्पर्शन देवोंकी मुख्यतासे कुछ कम आठ वटे चौदह राजुप्रमाण है, अतः वह उक्त प्रमाण कहा है। सातावेदनीय आदि कुछ परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं और कुछ अध्रुवबन्धिनी हैं। इनके भुजगार आदि पदोंका बन्ध एकेन्द्रिय आदि सब जीवोंके सम्भव है, अतः इनके सब पदोंके बन्धकोंका स्पर्शन सर्व लोक प्रमाण कहा है। मिथ्यात्वके सब पदोंका स्पर्शन स्त्यानगृद्धित्रिकके समान घटित कर लेना चाहिए । मात्र नीचे कुछ कम पाँच राजू और ऊपर कुछ कम सात राजूप्रमाण क्षेत्र में मारणान्तिक समुद्घातके समय भी इसका प्रवक्तव्यबन्ध सम्भव है, इसलिये इस पदकी अपेक्षा इसका स्पर्शन कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण भी कहा है । अप्रत्याख्यानावरण चारके तीन पद एकेन्द्रिय आदि सब जीवोंके सम्भव है, इसलिए इनकी अपेक्षा सर्वलोक प्रमाण स्पर्शन कहा है । तथा इनका प्रवक्तव्य पद ऊपर कुछ कम छह राजू प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन करनेवाले जीवोंके भी होता है, अतः यह उक्त प्रमाण कहा है। नरकायु और देवायुका बन्ध असंज्ञी आदि मारणान्तिक समुद्घात और उपपाद पदके बिना करते हैं और आहारकद्विकका संयत जीव करते हैं, अतः इनके चारों पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण कहा है। मनुष्यायुके चारों पद देवोंके विहारादिके समय और एकेन्द्रियोंके सम्भव हैं, अतः इसके चारों पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोक प्रमाण कहा है। जो तिर्यश्च और मनुष्य नारकियों और देवोंमें मारणान्तिक समुदघात करते हैं.उनके क्रमसे नरकगतिद्विक और देवगतिद्विकके भजगार आदि तीन पद सम्भव हैं, अतः इनके तीन पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। परन्तु मारणान्तिक समुद्घातके समय इनका अवक्तव्यपद सम्भव नहीं है, इसलिए इनके प्रवक्तव्यपदकी अपेक्षा स्पर्शन क्षेत्र के समान कहा है । औदारिकशरीरके तीन पदो की अपेक्षा स्पर्शन ज्ञानावरणके समान घटित कर लेना चाहिए। तथा नारकी और देव उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें औदारिक शरीरका अवक्तव्यबन्ध करते हैं, इसलिए इस पदकी अपेक्षा कुछ कम बारह नढे चौदह राजूप्रमाण स्पर्शन कहा है। तिर्यञ्चों और मनुष्योंके नारकियों और देवोंमें मारणान्तिक समुद्घात करते समय वैक्रियिक शरीरद्विकके तीन पद सम्भव हैं, इसलिए इनकी अपेक्षा कुछ कम बारह बटे चौदह राजू प्रमाण स्पर्शन कहा है,पर ऐसे मनुष्यों और तिर्यञ्चोंके इनका प्रवक्तव्यपद नहीं होता। इसलिए इसकी अपेक्षा स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है । विहारादिके समय देवों के तीर्थङ्कर प्रकृतिके तीन पद सम्भव हैं, इसलिए इनकी अपेक्षा स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजु प्रमाण कहा है। तथा तीर्थङ्कर प्रकृतिका अवक्तव्यपद एक तो मनुष्यों के होता है और तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध करनेवाले जो मनुष्य दूसरे और तीसरे नरकमें उत्पन्न होते हैं, उनके होता है। इन सबके स्पर्शनका यदि विचार करते हैं तो वह लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है, इसलिए यह क्षेत्र के समान कहा है।
५१४. नारकियोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह पढे
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महाबंधे अणुभागवाहिवारे वेद-तिरिक्व०-छस्संठा०-छस्संघ०-तिरिक्खाणु०-दोविहा०-तिषिणमझिल्लयुग०-णीचा. तिषिणप० छच्चों। अवत्त० खेत। सादासाद०-चदुणोक०-उज्जो०-थिरादितिएणयु. सव्वप० छच्चों । दोआउ०-मणुसगदितिय-तित्थ. सव्वपदा खेतं । मिच्छ० तिण्णिपदा छच्चों । अक्त्त० पंचचों । एवं सव्वणेरडगाणं अप्पप्पणो फोसणो णेदव्यो।
५१५. तिरिक्खेसु पंचणाo--छदस०-अहक०--भय-दु०-तेजा.-क०-वएण०४-- अगु०-उप०-णिमि०-पंचंत. तिण्णिप० सव्वलो० । थीणगिदि०३--अहक०-ओरा० तिण्णिप० सव्वलो० । अवच. खेत्त० । साददंडओ ओघो। दोआउ०-वेउब्धियछ.
चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्यानगृद्धि तीन, अनन्तानुबन्धी चतुष्क, तीन वेद, तिर्यश्चगति, छह संस्थान, छह संहनन, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, दो विहायोगति, मध्यके तीन युगल
और नीचगोत्रके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। प्रवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। सातावेदेनीय, असातावेदनीय, चार नोकषाय, उद्योत, और स्थिर आदि तीन युगलके सब पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो आयु, मनुष्यगतित्रिक और तीर्थङ्कर प्रकृतिके सब पदोंके बन्धक जीवो का स्पर्शन क्षेत्रके समान है। मिथ्यात्वके तीन पदों के बन्धक जीवों ने कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है और अवक्तव्यपदके वन्धक जीवों ने कुछ कम पाँच बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार सब नारकियों में अपना-अपना स्पर्शन जानना चाहिए।
विशेषार्थ-नारकियोंमें ध्रवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पद ही होते हैं। अन्यत्र भी जहाँ जो ध्रुव प्रकृतियाँ हैं, उनके यथासम्भव तीन पद ही होते हैं। और नारकियोंका स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजुप्रमाण है, इसलिए ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदोंकी अपेक्षा यह उक्तप्रमाण कहा है। स्त्यानगृद्धि आदि दूसरे दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंके तीन पदोंकी अपेक्षा और सातावेदनीय आदिक तीसरे दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंके सब पदोंकी अपेक्षा भी यही स्पर्शन प्राप्त होता है, क्योंकि इन प्रकृतियों के यथायोग्य पद नारकियोंके मारणान्तिक समुद्घातके समय और उपपाद पदके समय भी सम्भव हैं । मात्र दूसरे दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंके अवक्तव्यपदकी अपेक्षा स्पर्शन क्षेत्रके समान है, क्योंकि मारणान्तिक समुद्घातके समय या उपपादपदके समय इनमें से जो जहाँ बंधती हैं, उनका वहाँ अवक्तव्यबन्ध नहीं होता। मनुष्यगतित्रिक और तीर्थङ्कर प्रकृतिका मारणान्तिक समुद्घातके समय भी बन्ध होकर मनुष्योंमें मारणान्तिक समुद्घात करते समय ही होता है, इसलिए इन प्रकृतियोंके सब पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होनेसे वह क्षेत्रके समान कहा है। मिथ्यात्वका अवक्तव्यपद छठे नरक तकके नारकियों के मारणान्तिक समुद्घातके समय भी सम्भव है, अतः इस अपेक्षासे कुछ कम पाँच बटे चौदह राजूप्रमाण स्पर्शन कहा है । सब नारकियोंमें अपने-अपने स्पर्शनका विचारकर इसी प्रकार स्पर्शन घटित कर लेना चाहिए।
५१५. तिर्यश्चों में पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, आठ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायके तीन पदों के बन्धक जीवो ने सब लोकका स्पर्शन किया है। स्त्यानगृद्धित्रिक, आठ कषाय, और औदारिकशरीरके तीन पदो के बन्धक जीवों ने सब लोकका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान है। सातावेदनीय दण्डकका भङ्ग ओघके समान है। द
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भुजगारबंधे फोसणं ओघं । मिच्छ० तिण्णिप० ओघं । अवत्त० सत्तचों । मणुसाउ० चत्तारिप० लो. असंखे सव्वलो।
५१६. पंचिंदियतिरिक्ख ३ धुवियाणं तिष्णिपदा लो० असंखें सव्वलो । थीणगिद्धि०३-अट्ठक०-णस०-तिरिक्ख०-एइंदि०-ओरा०-हुंड-तिरिक्खाणु०-पर'०उस्सा-थावर०-सुहुम-पजत्तापज०-पत्ते-साधार०-दूभ०-अणादें-णीचा तिण्णिप० लो० असंखें० सव्वलो० । अवत्त ० खेत्त । सादासाद०-चदुणोक०-थिराथिर-सुभासुभ० चत्तारिप० लो० असं० सव्वलो०। मिच्छ०-अजस० तिण्णिप० लो० असं० सव्वलो० । अवत्त० सत्तचों । इत्थि० तिण्णिय० दिवड्डचौ। अवत्त० खेत्त० । पुरिस०-दोगदि-समआयु और वैक्रियिक छहका भङ्ग ओघके समान है। मिथ्यात्व के तीन पदोंका भङ्ग ओघके समान है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम सात बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। मनुष्यायुके चार पदोंके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
विशेषार्थ-तिर्यश्चों में पाँच ज्ञानावरणादि ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनके तीन पदोंकी अपेक्षा सब लोकप्रमाण स्पर्शन कहा है। स्त्यानगृद्धि आदिके तीन पद एकेन्द्रियादि सबके सम्भव हैं, इसलिए इनके तीन पदोंकी अपेक्षा भी सब लोकप्रमाण स्पर्शन कहा है। मात्र इनका अवक्तव्य पद जो गुणस्थानप्रतिपन्न तिर्यश्च इनके अबन्धक होकर पुनः नीचे आकर इनका बन्ध करते हैं उनके होता है। ऐसे तिर्यञ्चोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण होनेसे वह क्षेत्र के समान कहा है । यहाँ सातावेदनीय दण्डक, दो आयु और क्रियिक छहका भङ्ग ओघके समान है.यह स्पष्ट ही है। मिथ्यात्वके तीन पद एकेन्द्रियादि तियश्चोंके सम्भव है, इसलिए इनकी अपेक्षा स्पर्शन भी ओघके समान कहा है। मात्र मिथ्यात्वका अवक्तव्य पद सब तिर्यञ्चोंके सम्भव नहीं है, किन्तु जो गुणस्थानप्रतिपन्न तिर्यश्च मिथ्यात्व में आते हैं, उनके ही सम्भव है और सासादन से मारणान्तिक समुद्घात करते समय मिथ्यादृष्टि होकर ऊपर बादर एकेन्द्रियोंमें समुद्घात करते समय होता है। ऐसे जीवोंका स्पर्शन कुछ कम सात बटे चौदह राजुप्रमाण उपलब्ध होता है, इसलिए इस अपेक्षा से यह उक्त प्रमाण कहा. है । मनुष्यके चारों पदोंका बन्ध एकेन्द्रियादि जीवोंके सम्भव है, इसलिए इसके चारों पदोंकी अपेक्षा वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन सब लोकप्रमाण कहा है।
५१६. पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकका स्पर्शन किया है। स्त्यानगृद्धित्रिक, आठ कषाय, नपुंसकवेद, तियश्चगति, एकेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, हुण्डसंस्थान, तियश्चगत्यानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, दुर्भग, अनादेय और नीचगोत्रके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकका स्पर्शन किया है। क्तिव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार नोकषाय, स्थिर, अस्थिर, शुभ और अशुभके चार पदोंके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकका स्पर्शन किया है। मिथ्यात्व और अयश कीर्तिके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम सात बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्रीवेदके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम डेढ़ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया
१. आ प्रती हुंड० पर० इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे चदु०-दोआणु०-दोविहा०-सुभग-दोसर-आदे०-उच्चा०तिण्णिप० छच्चों। अवत्त० खेत्तः । चत्तारिआउ०-मणुसगदि-तिण्णिजा०-चदुसंठा-ओरा०अंगो०-छस्संघ०-मणुसाणु०आदाव० चत्तारिप० खेत्त० । पंचिं०-वेउ०-वेउ०अंगो-तस० तिण्णिप०' बारहों । अवत्त० खेत० । उजो०-जस० सव्वप० सत्तचों । बादर० तिण्णिप० तेरह० । अवत्त० खेत्तः। है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है। पुरुषवेद, दो गति, समचतुरस्रसंस्थान, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति, सुभग, दो स्वर, आदेय और उच्चगोत्रके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। चार आयु, मनुष्यगति, तीन जाति, चार संस्थान,
औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और आतपके चार पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। पञ्चेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग और त्रसके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम बारह बटे.चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। उद्योत और यश कीर्तिके सब पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम सात बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। बादरके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम तेरह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है।
विशेषार्थ-पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन सब लोकप्रमाण होनेसे इनमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा है। यहाँ ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियाँ ये हैं-पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण अन्तकी आठ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तराय । स्त्यानगृद्धि आदिके तीन पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन उक्त प्रकारसे ही घटित कर लेना चाहिए। तथा यहाँ स्त्यानगृद्धि आदि प्रकृतियोंका अवक्तव्यपद मारणान्तिक समुद्धातके समय और उपपाद पदके समय सम्भव न होनेसे इस पदकी अपेक्षा स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। सातावेदनीय आदिके चारों पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण है,यह स्पष्ट ही है। इसी प्रकार मिथ्यात्व आदि दो प्रकृतियोंके तीन पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन घटित कर लेना चाहिए। तथा इन दो प्रकृतियोंका अवक्तव्यपद जिस प्रकार सामान्य तिर्यश्चोंके मिथ्यात्व पदकी अपेक्षा बतला आये हैं, उस अवस्थामें ही सम्भव है। इसलिए इनके अवक्तव्यपदकी अपेक्षा स्पर्शन कुछ कम सात बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। देवियोंमें मारणान्तिक समुद्घातके समय भी स्त्रीवेदका बन्ध होता है, इसलिए इसके तीन पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन कुछ कम डेढ़ बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है, पर ऐसी अवस्थामें इसका अवक्तव्यपद नहीं होता; इसलिए इस अपेक्षासे स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। देवोंमें और नारकियोंमें मारणान्तिक समुद्धातके समय भी पुरुषवेद आदिका यथायोग्य बन्ध होता है, अतः इनके तीन पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है, पर ऐसी अवस्थामें इनका अवक्तव्यबन्ध नहीं होता। इसलिए इस पदकी अपेक्षा स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। चार आयु आदिके सब पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन क्षेत्रके समान है, यह स्पष्ट ही है, क्योंकि एक तो चार आयओंके सब पद और शेष प्रकृतियोंका अवक्तव्यपद मारणान्तिक समद्धातके समय नहीं होते। और शेष प्रकृतियोंके तीन पद मारणान्तिक समुद्घातके समय होकर भी स्पर्शन लोकके असंख्या
१. ता० आ० प्रत्योः तस०४ तिण्णिप० इति पाठः।
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भुजगारबंधे फोसणं
२९१ ५१७. पंचिं०तिरिक्ख०अपज० पंचणा०-णवदंस-मिच्छ०-सोलसक०-भय-दु०ओरा०-तेजा०-०-वण्ण०४-अगु०-उप०-णिमि-पंचंत० तिण्णिप०लो०असं० सव्वलो। सादासाद०-चदुणोक०-थिराथिर-सुभासुभ० चत्तारिप० लो० असंखें सव्वलो० । इथि०पुरिस०-दोआउ०-मणुस०-चदुजा०-पंचसंठा०-ओरा०अंगो०-छस्संघ०-मणुसाणु०आदाव०-दोविहा०-तस-सुभग-दोसर०-आर्दै०-उच्चा० सव्वप० लो० असं० । णस०तिरिक्ख०-एइंदि०-हुंड-तिरिक्खाणु०-पर०-उस्सा०-थावर०-सुहुम०-पजत्तापज्ज०-पत्ते०साधा०-दूभ०-अणा०-णीचा० तिण्णिप० लो० असं० सव्वलो० । अवत्त० खेत्तः । उज्जो०-जस० चत्तारिप० सत्तचों । पादर० तिण्णिप० सत्तचों । अवत्त० खेत्त० । अज० तिण्णिप० लो० असं० सव्वलो० । अवत्त० सत्तचों । एवं' सव्वअपज०-सव्वतवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है। देवोंमें और नारकियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करते समय भी पञ्चेन्द्रियजाति आदिके तीन पद सम्भव हैं, इसलिए इन पदोंकी अपेक्षा इनका स्पर्शन कुछ कम वारह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। पर ऐसे समयमें इनका अवक्तव्य पद नहीं होता, इसलिए इस अपेक्षासे स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। ऊपर बादर एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुदातके समय भी उद्योत और यश-कीर्तिके सब पद सम्भव हैं, इसलिए इनके सब पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन कुछ कम सात बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। ऊपर सात और नीचे छह इस प्रकार कुछ कम तेरह बटे चौदह राजूका स्पर्शन करते समय बादर प्रकृतिके तीन पद सम्भव होनेसे इसका तीन पदाको अपेक्षा स्पशन उक्तप्रमाण कहा है। पर ऐसी अवस्थामें इसका अवक्तव्य पद सम्भव नहीं है, इसलिए इस पदकी अपेक्षा स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है।
५१७. पञ्चेन्द्रियतिर्यश्चअपर्याप्तकोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कपाय, भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण
और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार नोकषाय, स्थिर, अस्थिर, शुभ और अशुभके चार पदोंके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण
और पाँच अन्तरायके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, दो आयु, मनुष्यगति , चार जाति, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, आतप, दो विहायोगति, त्रस, सुभग, दो स्वर, आदेय और उच्चगोत्रके सब पदोंके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यात भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। नपुंसकवेद, तिर्यश्चगति, एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, दुर्भग, अनादेय और नीचगोत्रके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। उद्योत आर यश-कीतिके चार पदाके बन्धक जीवान कुछ कम सात बट चादह राजूप्रमाण क्षेत्र का स्पर्शन किया है। बादरके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम सात बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अयश कीर्ति के तीन पदोंके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम सात बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार सब अपर्याप्त, सब विकलेन्द्रिय, बादर पृथिवीकायिक
१. ता० प्रतौ सव्वलो० । एवं इति पाठः।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे
विगलिंदि० - बादरपुढ० - आउ० तेउ०- वाउ० पञ्जत्ता ०३ [० बादरपत्ते ०पजत्तगाणं च । णवरि तेउवाऊणं मणुसगदिचदुक्कं वञ्ज । वाऊणं जम्हि लोग० असंखेज्ज० तम्हि लोग ० संखेज्ज० ।
२९२
५१८. मणुस ०३ पंचणा० णवदंस० - सोलसक' - बुंस ० -भय-दु० - तिरिक्ख ०-एईदि० -ओरा० -तेजा० क०- -हुंड ६० - वण्ण ०४ - तिरिक्खाणु० - अगु०४ - थावर ० - सुहुम ० -पञ्ज०अपज ०- - पत्ते० ०- साधार०-दुभ० - अणादे० - णिमि० णीचा० - पंचंत० तिष्णिप० लो० असं०
पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अनिकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त और बादर प्रत्येकशरीर पर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अभिकायिक और वायुकायिक जीवोंमें मनुष्यगतिचतुष्कको छोड़कर यह स्पर्शन कहना चाहिए। तथा जहाँ पर लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण स्पर्शन कहा है, वहाँ वायुकायिक जीवोंमें लोकके संख्यातवें भागप्रमाण स्पर्शन कहना चाहिए ।
विशेषार्थ – पञ्चेन्द्रियतिर्यश्व अपर्याप्तकोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सर्वलोकप्रमाण बतलाया है । इस सब स्पर्शनके समय इनके ज्ञानावरणादिके तीन पद और सातावेदनीय आदिके चार पद सम्भव होनेसे यह स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा है। पचेन्द्रियतिर्यचअपर्याप्त पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों में और मनुष्यों में जब मारणान्तिक समुद्घात करते हैं, तब भी स्त्रीवेद आदिका यथायोग्य बन्ध होता है, पर ऐसे जीवोंका स्पर्शन भी लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण होनेसे इनके स्त्रीवेद आदिके सब पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। यहाँ सब एकेन्द्रियों में यथायोग्य मारणान्तिक समुद्घात करते समय नपुंसकवेद आदिके तीन पद सम्भव हैं, इसलिए यहाँ इनके तीन पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण कहा है। पर ऐसे समय में इनके इन प्रकृतियोंका अवक्तव्यपद नहीं होता, इसलिए इसकी अपेक्षा स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। ऊपर बादर एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करते समय इनके उद्योत और यशःकीर्तिके चार पद सम्भव हैं, इसलिए इन दो प्रकृतियों के चार पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन कुछ कम सात बटें चौदह राजूप्रमाण कहा है। इसी प्रकार बादरके तीन पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन कुछ कम सात बटे चौदह राजूप्रमाण घटित कर लेना चाहिए | पर इसका अवक्तव्य पद मारणान्तिक समुद्घातके समय नहीं होता, अतः इसकी अपेक्षा स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है । जो पचेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त सब एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्घात करते हैं, उनके भी अयशःकीर्तिके तीन पद सम्भव हैं, अतः इस प्रकृतिके तीन पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण कहा है। यहाँ सब अपर्याप्त आदि अन्य जितनी मार्गणाएँ कही हैं, उनमें यह स्पर्शन बन जाता है। इसलिए उनमें यह स्पर्शन पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चअपर्याप्तकोंके समान जाननेकी सूचना की है । मात्र अनिकायिक और वायुकायिक जीवोंके मनुष्यगति आदि चारका बन्ध नहीं होता, इसलिए इनमें इनका स्पर्शन नहीं कहना चाहिए। तथा वायुकायिक पर्याप्त जीवोंका स्पर्शन लोकके संख्यातवें भागप्रमाणं होनेसे इनमें लोकके असंख्यातवें भाग के स्थान में उक्त स्पर्शन कहना चाहिए ।
५१८. मनुष्यत्रिमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान,
१. ता० प्रतौ पंचणा० णवदंस० मिच्छ० सोलसक०, आ०प्रतौ पंचणा० छदंस० मिच्छ० सोलसक० इति पाठः ।
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भुजगारबंधे फोसणं
२९३ सव्वलो० । अवत्त० खेत्त । सादादिदंडओ मिच्छत्तदंडओ पंधि०तिरि०भंगो । इत्थि०पुरि०-चदुआउ०-तिगदि-चदुजा०-वेउ०-आहार०-पंचसंठा०-तिण्णिअंगो०-छस्संघ-तिण्णिआणु०-आदाव०-दोविहा०-तस-सुभग-दोसर०-आर्दै-तित्थ० उच्चा० चत्तारिप० खेत्तभंगो। उजो०-जस० चत्तारिप० बादर० तिण्णिप० सत्तचों । अवत्त० खेतभंगो। __ ५१९. देवेसु धुविगाणं तिण्णिप० अह-णव० । थीणिगिद्धि०३-अणंताण०४णस०-तिरिक्ख०-एइंदि०-हुंड-तिरिक्खाणु०-थावर०-दूभग०-अणादें-णीचा० तिण्णिप० अह-णव० । अवत्त० अट्ठचों । सादासाद-मिच्छ०-चदुणोकसाय-उज्जो०-थिरादितिण्णियु० सव्वप० अट्ठ-णव० । इत्थि०-पुरिस०-दोआउ०-मणुसग०-पंचिं०-पंचसंठा०वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, दुर्भग, अनादेय, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। सातावेदनीय आदि दण्डक और मिथ्यात्वदण्डकका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चोंके समान है। सीवेद, पुरुषवेद, चार आयु, तीन गति, चार जाति, वैकियिकशरीर, आहारकशरीर, पाँच संस्थान, तीन आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, तीन आनुपूर्वी, आतप, दो विहायोगति, त्रस, सुभग, दो स्वर, आदेय, तीर्थङ्कर और उच्चगोत्रके चार पदोंके बन्धक जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान है। उद्योत और यश कीतिके चार पदोंके तथा बादरके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम सात बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है।
विशेषार्थ-मनुष्यत्रिकमें लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण स्पर्शन है। इनके पाँच ज्ञानावरणादिके तीन पदोंकी अपेक्षा यह स्पर्शन बन जानेसे यह उक्तप्रमाण कहा है। पर यहाँ इनका अवक्तव्य पद सब लोकप्रमाण स्पशनक समय सम्भव नहीं है, इसलिए इस अपेक्षासे स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। कारणका विचार कर कथन कर लेना चाहिए । सातावेदनीयदण्डक और मिथ्यात्वदण्डकका भङ्ग पश्चेन्द्रिय तिर्यश्चोंके समान है, यह स्पष्ट ही है । यहाँ सातादण्डकसे सातावेदनीय, असातावेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, स्थिर, अस्थिर, शुभ और अशुभका तथा मिथ्यात्वदण्डकसे मिथ्यात्व और अयशःकीतिका ग्रहण होता है। इनमें
वेद आदिके चारों पद यथायोग्य लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण स्पर्शनके समय ही होते हैं, इसलिए यह स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। ऊपर बादर एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करते समय भी इनके उद्योत और यशःकीर्तिके चार पद और बादरके तीन पद सम्भव हैं, अतः यहाँ इन प्रकृतियोंके उक्त पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन कुछ कम सात बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। पर ऐसी अवस्थामें बादर प्रकृतिका अवक्तव्यपद नहीं होता, अतः इस अपेक्षासे स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है।
५१९. देवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्यानगृद्धि तीन, अनन्तानुबन्धी चार, नपुंसकवेद, तिर्यश्चगति, एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, स्थावर, दुर्भग, अनादेय और नीचगोत्र के तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौ बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सातावेदनीय, असाता
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ओरा०अंगो०-छस्संघ०-मणुसाणु०-आदा०-दोविहा०-तस०-सुभग-दोसर०-आदें -उच्चा० सव्वप० अट्ठचौ । तित्थय. तिण्णिप० अट्टचों । एवं सव्वदेवाणं अप्पप्पणो फोसणं णेदव्वं ।
५२०. एइंदि०-पुढ०-आउ०'-तेउ०-वाउ० तेसिं चेव बादर-बादरपत्ते० तेसिं चेव अपज. सव्ववणप्फदि-णियोद० सबसुहुमाणं च खेत्तभंगो । णवरि मणसाउ० सव्वाणं तिरिक्खोघं । उजो०-जस० सव्वप० सत्तचों । एवं बादर० । णवरि अवत्त० खेतः । अजस० तिण्णिपदा सव्वलो० । अवत्त० सत्तचो। वेदनीय, मिथ्यात्व, चार नोकषाय, उद्योत और स्थिर आदि तीन युगलके सब पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौ बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, दो आयु, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रियजाति, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, आतप, दो विहायोगति, त्रस, सुभग, दो स्वर, आदेय
और उच्चगोत्रके सब पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तीर्थङ्कर प्रकृतिके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कस आठ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इसी प्रकार सब देवोंके अपना अपना स्पर्शन जानना चाहिये।
विशेषार्थ-देवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू व कुछ कस नौ बटे चौदह राजूप्रमाण है । ध्रुवबन्धवाली और स्त्यानगृद्धि आदिके तीन पदोंकी अपेक्षा तथा सातावेदनीय आदि के चार पदोंकी अपेक्षा यह स्पर्शन बन जाता है, अतः यह उक्त प्रमाण कहा है। मान स्त्यानगृद्धि आदिका अवक्तव्य पद एकेद्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घातके समय सम्भव न होनेसे इसकी अपेक्षा स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। यहाँ ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ ये हैं-पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, निर्माण और पाँच अन्तराय। स्त्रीवेद आदि के चारों पदोंकी अपेक्षा और तीर्थङ्कर प्रकृतिके तीन पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए । यहाँ जो अन्य
शेषता है,वह अलगसे जान लेनी चाहिए । सब देवोंका जो अलग-अलग स्पशेन है.उसे समझ कर तदनुसार उनमें भी यह स्पर्शन घटित कर लेना चाहिए ।
५२०. एकेन्द्रिय, पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक तथा इनके बादर, बादर प्रत्येक वनस्पतिकायिक और इन सबके अपर्याप्त, सव वनस्पतिकायिक, निगोद और सब सूक्ष्म जीवोंमें क्षेत्र के समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि इन सबमें मनुष्यायुका भङ्ग समान्य तिर्यञ्चोंके समान है। उद्योत और यश-कीर्ति के सब पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम सात बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार बादर प्रकृतिका जानना
। इतनी विशेषता है कि इसके अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका स्पशेन क्षेत्रके समान है। अयशःकीर्तिके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम सात बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
विशेषार्थ—यहाँ एकेन्द्रिय और पृथिवीकाय आदिके जितने प्रकार बतलाये हैं,उनमें सब प्रकृतियोंके सम्भव पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन और क्षेत्र में अन्तर नहीं होनेसे वह क्षेत्रकेसमान कहा है । मात्र मनुष्यायुके सब पदोंके बन्धक जीव थोड़े होते हैं। इसलिए यहाँ इसके सब पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन सामान्य तिर्यञ्चोंके समान कहा है । उद्योत और यशःकीर्तिके सब पद तथा बादर १. ता० आ प्रत्योः एइंदि० हुंड० आउ० इति पाठः ।
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भुजगारबंधे फोसणं ५२१. पंचिंदि०-तस०२ पंचणा-छदंस०-अट्ठक०-भय-दु०-तेजा०-क०-वण्ण०४अगु०४-पज०-पत्ते-णिमि०-पंचंत० तिण्णिप० अट्ठ० सव्वलो। अवत्त० खेत्त० । थीणगि०३-अणंताणु०४-णस०-तिरिक्ख०-एइंदि०-हुंड-तिरिक्खाणु०थावर०-दूभग०-अणादें-णीचा० तिण्णिप० लो० असं० अढ० सव्वलो० । अवत्त. अट्ट० । सादासाद०-चदुणोक०-थिराथिर-सुभासुभ० चत्तारिप० अट्ठ० सव्वलो । [मिच्छत्त० तिण्णिपदा० अट्ठचों सव्वलो । ] अवत्त० अट्ठ-बारह० । अपच्चक्खाण०४ तिण्णिप० अढ० सव्वलो० । अवत्त० छच्चों । इथि०-पुरिस-पंचिं-पंचसंठा'-ओरा अंगो०-चदुस्संघ०-दोविहा०-तस-सुभग-दोसर०-आदें तिण्णिप० अहबारह । अवत्त० अहचों । णिरय-देवाउ०२-तिण्णिजा-आहार०२ सव्वपदा खेत्तं । के तीन पद ऊपर बादर एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्भातके समय सम्भव होनेसे यह स्पर्शन कुछ कम सात बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। किन्तु बादरका अवक्तव्यपद ऐसे समयमें सम्भव नहीं है, इसलिए इस अपेक्षासे स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। अयशःकीर्तिके तीन पद उक्त जीवोंके सब अवस्थाओंमें सम्भव हैं, इसलिए इसके तीन पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन सर्व लोकप्रमाण कहा है। पर इसके अवक्तव्यपदका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही है । हाँ, ये जीव जब ऊपर बादर एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्बात करते हैं, तब भी इसका अवक्तव्यपद सम्भव है, इसलिए इस अपेक्षासे इसका भी स्पर्शन कुछ कम सात बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है।
५२१. पञ्चेन्द्रियद्विक और त्रसद्विक जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, आठ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, पर्याप्त, प्रत्येक, निर्माण और पाँच अन्तरायके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है। स्त्यानगृद्धि तीन, अनन्तानुबन्धी चार, नपुंसकवेद, तिर्यञ्चगति, एकन्द्रियजाति, हुण्ड संस्थान, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, स्थावर, दुर्भग, अनादेय और नीचगोत्रके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार नोकषाय, स्थिर, अस्थिर, शुभ और अशभके चार पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। मिथ्यात्वके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अप्रत्याख्यानावरण चारके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोकप्रमाण क्षेत्र का स्पर्शन किया है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजु प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद, पञ्चेन्द्रियजाति, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, दो विहायोगति, त्रस, सुभग, दो स्वर और आदेयके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। नरकायु, देवायु, तीन जाति और आहारकद्विकके सब पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके
१. आ० प्रतौ पुरिस० पंच० पंचसंठा० इति पाठः। २. आ० प्रतौ अवत्त० णिरयदेवाउइति पाठः ।
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महाबंचे अणुभागबंधाहियारे
दोआउ ० - मणुस ० - मणुसाणु ० - आदाव० - उच्चा० सव्वंपदा' अडच० । णिरय-देवगदिदोआणु ० तिष्णिप० छच्चों० । अवत्त० खैत ० । ओरालि० तिष्णिप० अ० सव्वलो० । अवत्त० बारह० । वेउव्वि० - वेउव्वि० अंगो० तिष्णिप० बारहचों० । अवत्त० खैत० । उज्जो० - जस सव्वप० अह-तेरह० । बादर० तिष्णिप० अह-तेरह० । अवत्त० खैत्त० । सुम० - अपज ०२ - साधा० तिष्णिप० लो० असं० सव्वलो० । अवत्त० खत्त० | अजस० तिणिप• अडच सव्वलो० । अवत्त० अह-तेरह० । तित्थ० तिणिप० अट्ठच । अवत्त० खेत्तं । एवं पंचिंदियभंगो पंचवचि ० - चक्खु ० -सण्णि त्ति । कायजोगिकोधादि०४ अचक्खु ०- भवसि ० - आहारए ति ओघभंगो ।
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समान है । दो आयु, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, आतप और उच्चगोत्रके सब पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । नरकगति, देवगति और दो आनुपूर्वीके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। औदारिक शरीरके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम बारह बंटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्र का स्पर्शन किया है। वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिक आङ्गोपाङ्गके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है । उद्योत और यशः कीर्तिके सब पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। बादरके तीन पदों के बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्र का स्पर्शन किया है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है । सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण तीन पदके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है । अयशः कीर्ति के तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तीर्थकर प्रकृतिके तीन पदके बन्धक जीवों ने कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रियोंके समान पाँचो मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, चक्षुदर्शनी और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिए। काययोगी, क्रोधादि चार कषायवाले, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है ।
विशेषार्थ —पञ्चेन्द्रियद्विक और सद्विक जीवोंका विहारादिकी अपेक्षा स्पर्शन कुछ आठ बटे चौदह राजू और मारणान्तिकपदकी अपेक्षा स्पर्शन सब लोकप्रमाण है, इसलिए इनमें पाँच ज्ञानावरणादिके तीन पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा है। मात्र इन प्रकृतियोंका अवक्तव्यपद इन मार्गणाओंमें ओघके समान होनेसे अवक्तव्यपदकी अपेक्षा स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। इन मार्गणाओंमें स्त्यानगृद्धि तीन आदिके तीन पदोंकी अपेक्षा वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, विहारादिकी अपेक्षा स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण और मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा स्पर्शन सर्वलोकप्रमाण प्राप्त होनेसे यह उक्त प्रमाण है।
१. आ० प्रतौ आदाव उज्जो० सव्वपदा इति पाठः । २ अ ० प्रतौ अहतेरह० अवत्त० अट्ठतेरह०
अपज० इति पाठः ।
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यहाँ इनका अवक्तव्यपद विहारादिके समय भी सम्भव है, इसलिए इस अपेक्षासे इनके अवक्तव्यपदकी अपेक्षा स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। सातावेदनीय आदिके चारों पद विहारादिके समय और मारणान्तिक समुद्घातके समय सम्भव होनेसे इनके चारों पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोकप्रमाण कहा है । अप्रत्याख्यानावरण चतुष्कके तीन पदोंकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण और सब लोकप्रमाण स्पर्शन पाँच ज्ञानावरणादिके समान घटित कर लेना चाहिये । तथा जो संयतासंयत आदि मर कर देवोंमें उत्पन्न होते हैं, उनके प्रथम समयमें इनका अवक्तव्यपद सम्भव है, इसलिए इस अपेक्षासे इनके अवक्तव्यपदका स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। देवोंमें विहारादिके समय और देवों व नारकियोंके मनुष्यों व तिर्यचोंमें मारणान्तिक समुद्घातके समय स्त्रीवेद आदिके तीन पद सम्भव हैं, इसलिए इनके तीन पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण और कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है । किन्तु मारणान्तिक समुद्घातके समय इनका अवक्तव्यपद सम्भव नहीं है, इसलिए इनके अवक्तव्यपदकी अपेक्षा स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। नरकायु आदिके सब पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन क्षेत्रके समान है, यह स्पष्ट ही है। शेष दो आयु और मनुष्यगति आदिके सब पदोंका बन्ध देवोंमें विहारादिके समय भी सम्भव होनेसे यह कुछ आठ बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। तिर्यञ्चों और मनुष्योंके नारकियोंमें मारणान्तिक समुद्घातके समय नरकगतिद्विकके
और देवोंमें मारणान्तिक समुद्घात करते समय देवगतिद्विकके तीन पद सम्भव हैं, इसलिए इनके तीन पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है। मात्र ऐसे समयमें इन प्रकृतियोंका अवक्तव्यपद नहीं होता, इसलिए इस पदकी अपेक्षा स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। देवोंमें विहारादिके समय और सब एकेन्द्रियोंमें औदारिकशरीरके तीन पद सम्भव हैं, इसलिए इसके तीन पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण और सर्वलोकप्रमाण कहा है। मात्र मुख्यतासे जो तिर्यंच और मनुष्य मर कर नारकियों और देवोंमें उत्पन्न होते हैं, उनके प्रथम समयमें इसका अवक्तव्यपद होता है। इसलिए इसके अवक्तव्यपदकी अपेक्षा स्पर्शन कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। मनुष्यों और तिर्यचोंके नारकियों और देवोंमें मारणान्तिक समुद्घातके समय भी वैक्रियिकद्विकके तीन पद सम्भव हैं, इसलिए इनके तीन पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। पर ऐसे समय में इनका अवक्तव्यपद सम्भव न होनेसे इस अपेक्षासे स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। उद्योत
और यश कीर्तिके सब पदोंका बन्ध विहारादिके समय और नीचे कुछ कम छह राजू व उपर कुछ कम सात राजूप्रमाण स्पर्शनके समय भी सम्भव होनेसे इनके सब पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। इसी प्रकार बादर प्रकृतिके तीन पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन घटित कर लेना चाहिए । मात्र ऐसे समयमें इसका अवक्तव्यपद सम्भव नहीं है, इसलिए इसके अवक्तव्यपदकी अपेक्षा स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। सूक्ष्मादिके तीन पदोंकी अपेक्षा वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन सर्व लोकप्रमाण होनेसे यह उक्तप्रमाण कहा है। तथा इनके अवक्तव्यपदकी अपेक्षा स्पर्शन क्षेत्रके समान है, यह स्पष्ट ही है। विहारादिके समय और सब एकेन्द्रियोंमें अयशःकीर्तिके तीन पद सम्भव होनेसे इसके तीन पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण और सर्वलोकप्रमाण कहा है। तथा इसके अवक्तव्यपदकी अपेक्षा स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजू यश कीर्तिके समान जान लेना चाहिए । तीर्थङ्कर प्रकृतिके तीन पद विहारादिके समय सम्भव होनेसे इसके तीन पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है । तथा ऐसे समयमें इसका अवक्तव्यपद सम्भव नहीं है, इसलिए इस अपेक्षासे स्पशेन क्षेत्रके समान कहा है । यहाँ
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महाबचे अणुभागबंधाहियारे ५२२. ओरालि. पंचणा०-णवदंस०-मिच्छ०-सोलसक०-भय-दु०-ओरा०-तेजा०क०- वण्ण०४-अगु०-उप-णिमि०-पंचंत. तिण्णिप० सव्वलो। अवत्त० खेत० । णवरि मिच्छत्तस्स अवत्त० सत्तचोद । सादादिदंडओ ओघं । सेसं तिरिक्खोघं । ओरालियमि० धुविगाणं तिण्णिप० सव्वलो । सादादिदंडओ ओघं । मणुसाउ० तिरिक्खोघं । देवगदिपंचगस्स सव्वपदा खेत्तभंगो। मिच्छ० तिण्णिप० णाणाभंगो। अवत्त० खेत० ।
५२३. वेउव्वियका० धुविगाणं तिणिप० अह-तेरह । थीणगि०३-अणंताणु० ४-णस०-तिरिक्ख०-हुंड-तिरिक्खाणु०-दूभ०-अणादें-णीचा. तिष्णिप० अहतेरह । अवत्त० अहचों । सादासाद०-चदुणोक -उज्जो०-थिरादितिष्णियु० सव्वप० अह-तेरह । मिच्छ० तिण्णिप० अह-तेरह । अवत्त०' अह-बारह० । इत्थि०-पुरिस०पाँच मनोयोगी आदि अन्य जितनी मार्गणाएँ हैं, उनमें यह स्पर्शन अविकल बन जाता है। इस लिए उनमें पंचेन्द्रियोंके समान स्पर्शन जाननेकी सूचना की है। तथा काययोगी आदि मागेणाओंमें ओघप्ररूपणा घटित हो जाती है, इसलिए उनमें ओघके समान जाननेकी सूचना की है। इसी प्रकार आगे भी मार्गणाओंमें अपने-अपने स्वामित्वको जानकर स्पर्शन घटित कर लेना चाहिए । जहाँ विशेषता होगी, उसका निर्देश करेंगे।
५२२, औदारिककाययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुला, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम सात बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सातावेदनीय आदि दण्डकका भङ्ग ओघके समान है। शेष भङ्ग सामान्य तियेोंके समान है। औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सातावेदनीय आदि दण्डकका भङ्ग ओषके समान है। मनुष्यायुका भङ्ग सामान्य तिर्यचोंके समान है। देवगतिपंचकके सब पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। मिथ्यात्वके तीन पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन ज्ञानावरणके समान है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। . ५२३. वैक्रियिककाययोगी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्यानगृद्धि तीन, अनन्तानुबन्धी चतुष्क, नपुंसकवेद, तिर्यश्चगति, हुण्डसंस्थान, तिर्यचगत्यानुपूर्वी, दुर्भग, अनादेय और नीचगोत्रके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार नोकषाय, उद्योत और स्थिर आदि तीन युगलके सब पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। मिथ्यात्वके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह 'बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। वीवेद,
१. ताः प्रतौ अहतेरह । अक्त० अढतेरह० । अवत्त० इति पाठः।
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२९९ पंचिं०-पंचसंठा०-ओरालि अंगो०-छस्संघ०-दोविहा०-तस-सुभग-दोसर-आदें० तिण्णिप० अह-बारह० । अवत्त० अडचों । दोआउ०-मणुस०-मणुसाणु०-आदा०-उच्चा० सव्वप० अहचों । एइंदि०-थावर० तिण्णिप० अह-णव० । अवत्त० अडचो। तित्थ० ओघं । वेउव्वियमि०-आहार-आहारमि० खेत्तभंगो।
५२४. कम्मइ० धुविगाणं तिण्णिप० सव्वलो० । सेसं ओरालियमि०भंगो । णवरि मिच्छ० अवत्त० ऍकारह।
५२५. इत्थिवे. पंचणा०-चदुदंसणा०-चदुसंज०-पंचंत. तिण्णिप० लो० असं० अहचों सव्वलो० । थीणगिद्धि०३-अणंताणु०४-णवंस०-तिरिक्ख०-एइंदि०-हुंड ०तिरिक्खाणु०-थावर-दूभग-अणादें-णीचा. तिण्णिप. अहचों सव्वलो० । अवत्त० अहो । णिद्दा-पयला-अहक०'-भय-दु०-तेजा०-क०-वण्ण०४-अगु०४-पजत्त-पत्तेणिमि० तिण्णिप० अट्टचों सव्वलो० । अवत्त० खेत्तः । [सादासाद०-चदुणोक०-थिरापुरुषवेद, पंचेन्द्रियजाति, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, दो विहायोगति, त्रस, सुभग, दो स्वर और आदेयके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो आयु, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, आतप और उच्चगोत्रके सब पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। एकेन्द्रियजाति और स्थावरके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके बन्धक जीवोंका भङ्ग ओघके समान है । वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंके सब पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है।
५२४. कार्मणकाययोगी जीवोंमें ध्रुववन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष भङ्ग औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम ग्यारह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
विशेषार्थ-नीचे पाँच राजू और ऊपर छह राजू इस प्रकार मिथ्यात्वके अवक्तव्यपदकी अपेक्षा कुछ कम ग्यारह बटे चौदह राजू स्पर्शन जानना चाहिए।
५२५. स्त्रीवेदी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, कुछ कम आठ बटे चौदह राजु और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्यानगृद्धित्रिक, अनन्तानुबन्धी चतुष्क, नपुंसकवेद, तिर्यंचगति, एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, तिर्यचगत्यानुपूर्वी, स्थावर, दुर्भग, अनादेय और नीचगोत्रके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बंटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। निद्रा, प्रचला, आठ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, पर्याप्त, प्रत्येक और निर्माणके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार नोकषाय, स्थिर, अस्थिर, १. ता. प्रतौ णिद्दा पयला य० (१) अडक०, आ प्रतौ णिद्दा पयला य अहक० इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे स्थिर सुभासुम० चत्तारिपदा० अट्टचों॰ सव्वलो०] मिच्छ० तिष्णिप० अढचों सव्वलो० । अवत्त० अह-णव० । दोआउ०-इत्थि०-पुरिस०-मणुस-पंचसंठा-ओरालि०अंगो०-छस्संघ०-मणुसाणु-आदाव-पसत्थ०-सुभग-सुस्सर-आदें-उच्चा० सव्वपदा अहचौ। दोआउ०-तिण्णिजा-आहार०२-तित्थ० सव्वप० खेत्तः । दोगदि-दोआणु० तिण्णिप० छच्चों । अवत्त० खेत्तः । पंचिं०-अप्पसत्य-तस-दूसर० तिण्णिप० अहबारह । अवत्त० अट्ठचौ० । ओरालि. तिण्णिप० अह० सव्वलो० । अवत्त० दिवङ्कचौ । विउवि०-वेउव्वि०अंगो० तिण्णिप० बारहों। अवत्त० खेत्त०] उजो०जस० सव्वप० अह-णव० । बादर० तिष्णिप० अह-तेरह । अवत्त० खेत । सुहुमअपज०-साधार० तिण्णिप० लो० असंखें. सव्वलो० । अवत्त० खेतः । [अजस० तिण्णिप० अहचा सव्वलो० । अवत्त० अह-णवचों] पुरिसेसु इत्थिभंगो । णवरि अपचक्खाण०४-ओरालि० अवत्त० लो० असं० छब्बों । तित्थ० ओघं। शुभ और अशुभके चारों पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। मिथ्यात्वके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो आयु, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, मनुष्यगति, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, आतप, प्रशस्त विहायगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रके सब पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो आय, तीन जाति, आहारकद्विक और तीर्थकरके सब पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। दो गति
और दो आनुपूर्वीके तीन:पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। पंचेन्द्रियजाति, मप्रशस्त विहायोगति, त्रस और दुःस्वरके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजु और कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तड़पदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बट चौदह राजप्रमाणक्षेत्रका स्पर्शन किया है। औदारिकशरीरके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम डेढ़ बटे चौदह राजप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिक आङ्गोपाङ्गके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम बारह बट चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्रव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। उद्योत और यश-कीर्तिके सब पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौ बट चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । बादरके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बट चौदह राजू और कुछ कम तेरह बट चौदह राजप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधा रणके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अयशःकीर्तिके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बट चौदह राजूप्रमाण और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बट चौदह राजू और कुछ कम नौ बटेचौदह राजप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पुरुषवेदी जीवोंमें स्त्रीवेदी जीवोंके समान भन है। इतनी विशेषता है कि अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क और औदारिकशरीरके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने लोकके भसंख्यातवें भागप्रमाण और कुछ कम छह बटे चौदह राजप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन
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५२६. बुंस० पंचणा० - चदुदंस ० - चंदु संज० - पंचंत० तिण्णिप० सव्वलो० । पंचदंस०० - बारसक० - भय - दु० - तेजा० - क - वण्ण ०४ - अगु० - उप० - णिमि० तिण्णिप० सव्वलो० ० । अवत्त० र खेत्त० । सादादिदंडओ ओघं । मिच्छ० तिष्णिप० सव्वलो० । अवत्त० बारह ० | दोआउ० - आहार ०२ - तित्थ • खेत्तभंगो० मणुसाउ० - वेउव्वियछ० तिरिक्खोघं । ओरालि० तिष्णिप० सव्वलो० । अवत्त० छच्चों० । अवगद ० सव्वपग० भुज० - अप्प ० - अवत्त० खेत्तभंगो ।
किया है । तथा तीर्थङ्कर प्रकृतिके बन्धक जीवोंका भङ्ग ओघके समान है ।
५२६. नपुंसकवेदी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । पाँच दर्शनावरण, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात और निर्माणके तीन पदोंके बन्धक जीवों ने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान है । सातावेदनीय आदि दण्डकका भङ्ग ओघके समान है । मिथ्यात्वके तीन पदों के बन्धक जीवों ने सब लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवों ने कुछ कम बारह बट े चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । दो आयु, आहारकद्विक और तीर्थङ्करके सुब पदों के बन्धक जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान है । मनुष्यायु और वैक्रियिक छहके सब पदों के बन्धक जीवों का स्पर्शन सामान्य तिर्यों के समान है । औदारिकशरीरके तीन पदों के बन्धक जीवों ने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवों ने कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अपगतवेदी जीवों में सब प्रकृतियों के भुजगार, अल्प और अवक्तव्य पदके बन्धक जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान है ।
विशेषार्थ — नीचे छठे नरक तक के नारकी मनुष्य व तिर्यों में मारणान्तिक समुद्घातके समय तथा तिर्यन और मनुष्य ऊपर बादर एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्घातके समय यदि मिथ्यात्वका अवक्तव्यबन्ध करें तो सब मिलाकर कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण इस पदकी अपेक्षा स्पर्शन प्राप्त होता है, यह देखकर यहाँ मिथ्यात्वके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवों का स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा है। पहले औदारिककाययोग में और वैक्रियिककाययोग में कुछ कमा चौदह राजूप्रमाण यह स्पर्शन कह आये हैं सो वहाँ भी ऊपर बादर एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समु द्वात करा कर ले आना चाहिए । पहले कार्मणकाययोग में यह स्पर्शन कुछ कम ग्यारह बटे चौदह राजूप्रमाण कह आये हैं। ऊपर सात राजू तो स्पष्ट हैं। नीचे जो पाँच राजू कहे हैं सो उसका अभिप्राय है कि जो सातवें नरकका नारकी सम्यक्त्व या सासादनसे मिथ्यात्वमें आता है, वह मरकर उसी समय कार्मणकाययोगी नहीं हो सकता । यह पात्रता छठे नरक तक ही सम्भव है । आशय यह है कि कार्मणकाययोगके प्राप्त होनेके पूर्व समय में सम्यग्दृष्टि या सासादनसम्यग्दृष्टि हो और कार्मणकाययोग में मिथ्यादृष्टि हो, यह पात्रता छठे नरक तक से मरनेवाले नारकी के ही हो सकती है। यही कारण है कि नीचे यह स्पर्शन कुछ कम पाँच बटे चौदह राजप्रमाण कहा है । यह तो स्पष्ट है कि सासादनसम्यग्दृष्टि जीव मर कर नरकके सिवा तीन गतिमे उत्पन्न होता है और इन गतियों में उत्पन्न होने पर क्रमसे दो में औदारिकमिश्रकाययोग और देवों में वैक्रिकिमि काययोग होता है। तथा इन योगों के रहते हुए ही मिथ्यात्व गुणस्थान प्राप्त होने पर प्रथम समय में मिथ्यात्वका अवक्तव्यबन्ध भी होता है। यही कारण है कि इन दोनों योगों में
१. ता० प्रतौ चदुसं ( दंस० ) चदुसंज० इति पाठः । २. ता० आ० प्रत्योः तिण्णिप० अडतेरह • अवत्त० इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ५२७. मदि०-सुद० धुविगाणं भुज-अप्प०-अवहि० सव्वलो । सेसं ओघं । णवरि देवगदि-देवाणु० तिणिप० पंचचों । अवत्त० खेत्त० । ओरालि. तिण्णिप० सव्वलो० । अवत्त० ऍकारह । वेउ०-वेउ अंगो० तिण्णिप० ऍकारह० । अवत्त. खेत्तः । विभंगे धुविगाणं तिण्णिप० अह० सव्वलो० । सेसं पंचिंदियभंगो । णवरि वेउ०छ० मदि०भंगो । ओरालि० अवत्त० खेत्त०।
५२८. आभिणि-सुद०-ओधि० पंचणा०-छदंस०-अहक०-पुरिस०-भयदु०-मणुस-पंचिंदि०-ओरा०--तेजा०-०-समचदु०-ओरा०अंगो०-बजरि०मिथ्यात्वके अवक्तव्यपदका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। आवश्यक समझकर यहाँ यह प्रासंगिक स्पष्टीकरण किया है।
५२७. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों के भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदके बन्धक जीवों ने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष भङ्ग ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि देवगति और देवगत्यानुपूर्वीके तीन पदों के बन्धक जीवों ने कुछ कम पाँच बटे चौदह राजप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान है। औदारिकशरीरके तीन पदो के बन्धक जीवों ने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवों ने कुछ कम ग्यारह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकआङ्गोपाङ्गके तीन पदों के बन्धक जीवों ने कुछ कम ग्यारह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान है। विभङ्गज्ञानी जीवों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों के तीन पदों के बन्धक जीवों ने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष भङ्ग पञ्चेन्द्रियों के समान है। इतनी विशेषता है कि वैक्रियिक छहका भङ्ग मत्यज्ञानी जीवों के समान है। तथा औदारिकशरीरके अवक्तव्यका भङ्ग क्षेत्रके समान है।
विशेषार्थ-जो तिर्यञ्च और मनुष्य देवों में मारणान्तिक समुद्घात करते हैं, उनके देवगतिद्विकका भुजगार, अल्पतर और अवस्थितबन्ध सम्भव है। किन्तु यह सहस्रार कल्प तक मारणान्तिक समुद्घात करनेवालेके ही होता है, आगेके देवों में यह समुद्घात करनेवालेके नहीं; क्योंकि आगेके देवों में ऐसे मनुष्य और तिर्यञ्च ही मारणान्तिक समुद्घात करते हैं जो विशुद्ध परिणामवाले होते हैं। अतः इनके इन पदों का स्पर्शन कुछ कम पाँच बटे चौदह राजप्रमाण कहा है। तथा देवों में मारणान्तिक समुद्घातके समय देवगतिद्विकका नियमसे बन्ध होता है, अतः इनके अवक्तव्य पदके बन्धक जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। सभी एकेन्द्रिय जीव औदारिकशरीरका नियमसे बन्ध करते हैं। अतः इसके तीन पदों के बन्धक जीवों का स्पर्शन सर्वलोकप्रमाण कहा है। जो तिर्यश्च और मनुष्य सासादनमें आकर मरते हैं
और विग्रहगतिमें औदारिकशरीरका अवक्तव्यबन्ध करते हैं, उनके अवक्तव्य बन्धका स्पर्शन कुछ कम ग्यारह बटे चौदह राजप्रमाण उपलब्ध होनेसे वह उक्तप्रमाण कहा है। देवगतिद्विकके समान वैक्रियिकशरीरद्विकका सब पदों की अपेक्षा स्पर्शन घटित कर लेना चाहिए। मात्र इसमें नारकियों में मारणान्तिक समुद्घात करनेवालों का तीन पदों की अपेक्षा कुछ कम छह राज स्पर्शन और मिला लेना चाहिए । इसी कारणसे यहाँ इनके तीन पदों की अपेक्षा स्पर्शन कुछ कम ग्यारह बट चौदह राजूप्रमाण कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है।
५२८. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवों में पाँच ज्ञानावरण, छह पर्शनावरण, आठ कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पश्चेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराच
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भुजगारबंचे फोसर्ण घण्ण०४-मणुसाणु०-अगु०४-पसत्थ०-तस० ४-सुभग-सुस्सर-आदें-णिमि०तित्थ०-उच्चा०-पंचंत० भुज०-अप्प०-अवहि. अहो । अवत्त० खेत्त० । णवरि मणुसगदिपंचग० अवत्त० छच्चों । सादासाद०-चदुणोक०-मणुसाउ०-थिरादितिष्णियु. चत्तारिपदा० अहचों'। अपञ्चक्खाण०४ तिण्णिप० अहचों । अवत्त० छचोंद । देवाउ०-आहार०२ ओघ । देवगदि०४ तिण्णिप० छच्चों । अवत्त० खेत । एवं ओधिदं०-सम्मादि०-वेदग० । मणपज्ज०-संजद० याव सुहुमसं० खेतभंगो।
५२९. संजदासंज. धुविगाणं सव्वप० छच्चों । देवाउ०-तित्थ० सव्वप० संहनन, वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थङ्कर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदके बन्धक जीवों ने कुछ कम आठ बट चौदह राजप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इतनी विशेषता है कि मनुष्यगतिपञ्चकके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बट चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार नोकषाय, मनुष्याय और स्थिर आदि तीन युगलके चारों' पदो के बन्धक जीवों ने कुछ कम आठ बट चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अप्रत्याख्यानावरण चारके तीन पदोंके बन्धक जीवो ने कुछ कम आठ बट चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बट चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। देवायु और आहारकद्विकका भङ्ग ओघके समान है। देवगतिचतुष्कके तीन पदो के बन्धक जीवों ने कुछ कम छह बटे चौदह राजप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवो के जानना चाहिए । मनःपर्ययज्ञानी और संयत जीवों से लेकर सूक्ष्मसाम्परायसंयत तकके जीवों का भङ्ग क्षेत्रके समान है।
विशेषार्थ—संयत मनुष्यों के तथा संयतासंयत और असंयतसम्यग्दृष्टि तिर्यञ्च और मनुष्यों के मर कर देवो में उत्पन्न होने पर मनुष्यगतिपञ्चकका अवक्तव्यबन्ध होता है। यतः इनका स्पर्शन कुछ कम छह बट चौदह राजूप्रमाण उपलब्ध होता है। अतः यहाँ मनुष्यगतिपञ्चकके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवों का स र्शन उक्त प्रमाण कहा है। असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्य मर कर प्रथम नरकमें भी जाते हैं और ऐसे जीवों के भी प्रथम समयमै उक्त प्रतियों का अवक्तव्य बन्ध होता है, पर इससे उक्त स्पर्शनमें कोई अन्तर नहीं आता; इतना यहाँ विशेष जानना चाहिये । संयत और संयतासंयत जीवों के मर कर देव होने पर अप्रत्याख्यानावरण चतुष्कका अवक्तव्यबन्ध होता है और इनका स्पर्शन भी कुछ कम छह बटे चौदह राजप्रमाण है। अतः इनके अवक्तव्यबन्धका स्पर्शन उक्तप्रमाण कहा है । यद्यपि संयत मनुष्योंके और संयतासंयत तियञ्च व मनुष्यों के असंयत सम्यग्दृष्टि होने पर भी अप्रत्याख्यानावरण चारका अवक्तव्य बन्ध होता है,पर यह स्पर्शन पूर्वोक्त स्पर्शनमें सम्मिलित है; इतना यहाँ विशेष जानना चाहिये । शेष कथन स्पष्ट ही है।
५२९. संयतासंयत जीवों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों के सब पदों के बन्धक जीवो ने कुछ कम छह बट चौदह राजप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। देवायु और तीर्थङ्करके सब
१. ता. प्रतौ चत्तारिस ( पदा). अहचो, आ० प्रतौ चत्तारिस अडचो० इति पाठः ।
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३०४
महाबचे अणुभागर्ववाहियारे
खेतभंगो । सेसाणं चत्तारिप ० छच्चों । असंजदेसु धुवियाणं तिष्णिप० सव्वलो० । से ओवं ।
५३०. किष्ण - गील- काऊणं धुवियाणं तिष्णिप० सव्वलो० । [मिच्छत्त • तिण्णिपदा० सव्वलो० ।] अवत्त० पं० - चत्तारि - वेचौ० । दोआउ० – देवगदिदुगं सव्वपदा To | मणुसाउ० तिरिक्खोघं । श्रीणगि ०३ - अनंताणु ०४ तिष्णिप० सव्वलो ० | अवत्त ० खेत ० ० । सादादिदंडओ ओघं । णिरय ० - वेउन्वि ० ' वेउव्वि० अंगो० - णिरयाणु ० तिष्णिप छच्चतारि-बेचो अवत्त० खैत ० । ओरालि० तिष्णिप० सव्वलो० । अवत्त ० छच्चत्तारि - बेचों० । तित्थ० तिष्णिप० खैत्त० । काऊए तित्थ • णिरयभंगो ।
०
०
पदों के बन्धक जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान है । शेष प्रकृतियों के चार पदों के बन्धक जीवो ने कुछ कम छह बट े चौदह राजप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। असंयतों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों के तीन पदों के बन्धक जीवों ने सब लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । शेष भङ्ग
ओके समान है ।
५३०. कृष्ण, नील और कापोत लेश्यामें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों के तीन पदों के बन्धक जीवों ने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। मिथ्यात्वके तीन पदों के बन्धक जीवों ने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवों ने कुछ कम पाँच बट े चौदह राजू, कुछ कम चार बट चौदह राजू और कुछ कम दो बट चौदह राजू प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । दो आयु और देवगतिद्विकके सब पदों का भङ्ग क्षेत्रके समान है । मनुष्यायुका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है । स्त्यानगृद्धि तीन और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके तीन पदोंके बन्धक जीवों ने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । सातावेदनीय आदि दण्डकका भङ्ग ओघके समान है । नरकगति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग और नरकगत्यानुपूर्वीके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू, कुछ कम चार बटे चौदह राजू और कुछ कम दो बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । औदारिकशरीरके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू, कुछ कम चार बटे चौदह राजू और कुछ कम दो बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तीर्थङ्करप्रकृतिके तीन पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है । कापोतलेश्यामें तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग नारकियोंके समान है ।
विशेषार्थ --- सातवें नरकका नारकी नियमसे मिथ्यात्व गुणस्थानमें ही मरण करता है । वहाँ से मरकर अन्य गतिमें उत्पन्न होते समय मिथ्यात्वका अवक्तव्यपद नहीं बन सकता । यही कारण है कि यहाँ कृष्णलेश्यामें मिथ्यात्वके अवक्तव्यपदका स्पर्शन कुछ कम पाँच बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। नील और कापोत लेश्यामें मिथ्यात्वके अवक्तव्यपदका स्पर्शन कुछ कम चौदह राजू और कुछ कम दो बटे चौदह राजू क्रमसे पाँचवें और तीसरे नरकसे मरकर और तिर्यों व मनुष्योंमें उत्पन्न होने पर मिथ्यात्वका अवक्तव्यबन्ध करनेवालोंकी अपेक्षा कहा है । इन लेश्याओंमें मिथ्यात्वके अवक्तव्यपदका इससे अधिक स्पर्शन अन्य प्रकार सम्भव नहीं है । इसी प्रकार औदारिकशरीरके अवक्तव्यपदका स्पर्शन उक्त लेश्याओंमें ले आना चाहिये | मात्र यह स्पर्शन तिर्यों और मनुष्योंके नरकमें उत्पन्न करा कर प्रथम समय में प्राप्त
१. आ० प्रतौ ओघं । वेउव्वि० इति पाठः । २. आ० प्रतौ अवन्त० खेत्त० ओरालि० तिष्णिप० सव्वलो० । अवत्त छच्चत्तारिबेचोद्द० । अवत० खेत० । ओरालिं० इति पाठः ।
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मुजगारबंधे कोसणं
३०५ ५३१. तेउ० धुवियाणं तिणिप० अह-णव०। थीणगि०३-अणताणु०४णस०-तिरिक्ख०-एइंदि०-हुंड-तिरिक्खाणु०-थावर-दूभग-अणादे०-णीचा० तिष्णिप० अह-णव० । अवत्त० अढचो० । सादासाद०-मिच्छ०-चदुणोक०-उजो०थिरादितिणियु. चत्तारिप० अह-णव० । अपचक्खाण०४-ओरालि० तिष्णिप० अह-णव० । अवत्त० दिवड्डचो० । इत्थि०-पुरिस०-दोआउ०-मणुस-पंचिं०-पंचसंठा०-ओरा०अंगो०-छस्संघ-मणुसाणु०-आदा०-दोविहा०-तस०-सुभग-दोसरआदे०-उच्चा० चत्तारिप० अहचो० । देवाउ०-आहार०२-तित्थ० ओघं । देवगदि० ४ तिण्णिप० दिवड्डचो० । अवत्त० खेत्त० । एवं पम्माए वि । णवरि अपञ्चक्खाण. ४-ओरा०-ओरा अंगो० अवत्त० पंचचो०। देवगदि०४ तिण्णिप० पंचचो० । करना चाहिये। तथा जो तिर्यश्च या मनुष्य मर कर सातवें नरकमें गमन करता है उसके भी यह स्पर्शन सम्भव है, अतः कृष्ण लेश्यामें यह कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। यद्यपि सामान्य नारकियोंमें तीर्थङ्कर प्रकृतिके सब पदोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है फिर भी यहाँ कृष्ण और नील लेश्यामें क्षेत्रके समान और कापोत लेश्यामें नारकियोंके समान कहने का कारण यह है कि कृष्ण और नीललेश्यामें नारकियोंके तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध नहीं होता। इन लेश्याओंमें केवल मनुष्योंके ही तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध होता है, इसलिए इन लेश्याओंमें तीर्थङ्कर प्रकृतिके सब पदोंक। जो क्षेत्र कहा है उसी प्रकार यहाँ स्पर्शन कहा है। तथा कापोत लेश्यामें नारकियोंके भी तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध होता है, इसलिए यह नारकियोंके समान कहा है। शेष कथन सुगम है।
५३१. पीतलेश्यामें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौ बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्यानगृद्धि तीन, अनन्तानुबन्धी चार, नपुंसकवेद, तिर्यश्चगति, एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, स्थावर, दुर्भग, अनादेय और नीचगोत्रके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौ बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, चार नोकषाय, उद्योत और स्थिर आदि तीन युगलके चार पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौ बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पशेन किया है। अप्रत्याख्यानावरण चार और औदारिकशरीरके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौ बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम डेढ़ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद, दो आयु, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रियजाति, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, आतप, दो विहायोगति, बस, सुभग, दो स्वर, आदेय और उच्चगोत्रके चार पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। देवायु, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग ओघके समान है। देवगतिचतुष्कके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने डेढ़ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इसी प्रकार पद्मलेश्यामें भी जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अप्रत्याख्यानावरण चार, औदारिकशरीर और
हारिक आङ्गोपाङ्गके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम पाँच बटे चौदह राजप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। देवगतिचतुष्कके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम पाँच बटे चौदह
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अवच० खेरा० । सेसाणं सव्वप० अट्ठचो० ।
५३२. सुक्काए पंचणा० - छदंस० - अडक० -भय- दु० देवग० – पंचिं० - तिष्णिसरीर - वेड ० अंगो० - वण्ण ०४ - देवाणु ० - अगु०४ -तस० ४ - णिमि० - तित्थ० - पंचत०
महाबंचे अणुभागबंधाहियारे
राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । शेष प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
विशेषार्थ — जो पीतलेश्यावाले जीव ऊपर देवोंमें मारणान्तिक समुद्धात करते हैं, उनके उस समय स्त्यानगृद्धि तीन आदिका अवक्तव्यबन्ध नहीं होता, इसलिए इन प्रकृतियोंके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। मात्र सातावेदनीय, असातावेदनीय और मिथ्यात्व आदिका अवक्तव्यबन्ध एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घातके समय भी होता है, इसलिए इन प्रकृतियोंके अवक्तव्यबन्धका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौ बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है। यहाँ एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्घात करते समय अनन्तानुबन्धीका अवक्तव्यबन्ध नहीं कराया है और मिथ्यात्वका भवक्तव्यबन्ध कराया है । इससे स्पष्ट है कि सासादन गुणस्थानवाला जीव सासादनको प्राप्त करते समय प्रारम्भिक कालमें एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्धात नहीं करता और इसलिए वह मर कर एकेन्द्रियोंमें जन्म भी नहीं लेता । किन्तु ऐसा जीव मिथ्यादृष्टि होकर प्रथम समयमें ही एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्धात कर सकता है - यह मिथ्यात्वके अवक्तव्यबन्धके स्पर्शनसे ही स्पष्ट है । पीतलेश्याके साथ तिर्यश्च और मनुष्य यदि देवोंमें मारणान्तिक समुद्धात करें तो कुल स्पर्शन कुछ कम डेढ़ बटे चौदह राजूप्रमाण होता है । इसीसे अप्रत्याख्यानावरण चारके अवक्तव्यपदका स्पर्शन कुछ कम डेढ़ बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। यहाँ संयत मनुष्योंको और संयतासंयत तिर्यों और मनुष्योंको मारणान्तिक समुद्धात करनेके प्रथम समयमें असंयत कराके यह स्पर्शन लाना चाहिए । किन्तु ऐसे तिर्यों और मनुष्योंके मारणान्तिक समुद्धातके समय देवगतिचतुष्कका अवक्तव्यबन्ध नहीं होता, इसलिए इनके अवक्तव्यबन्धका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है, क्योंकि जो देवोंमें मारणान्तिक समुद्धात करते हैं, उनके पहलेसे ही इन प्रकृतियोंका बन्ध होता रहता है । पद्मलेश्यामें कुछ कम नौ बटे चौदह राजूप्रमाण स्पर्शन नहीं होता, क्योंकि इस लेश्यावाले जीव एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्धात नहीं करते, इसलिए कुछ प्रकृतियोंको छोड़कर इस लेश्यामें शेष सब प्रकृतियोंके सम्भव पदोंके बन्धकै जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है। जिन प्रकृतियोंके सम्बन्धमें विशेषता है, उसका खुलासा इस प्रकार है - अप्रत्याख्यानावरणका बन्ध नहीं करनेवाले तिर्यश्च और मनुष्य देवोंमें मारणान्तिक समुद्घात करनेके प्रथम समयमें असंयत होकर इनका बन्ध करें, यह सम्भव है और ऐसे जीवोंका स्पर्शन कुछ कम पाँच बढे चौदह राजुप्रमाण है, अतः यहाँ इनके अवक्तव्य पदके बन्धक जीवों का स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा है। तिर्यन और मनुष्य देवों में जन्म लेनेके प्रथम समयमें औदारिकद्विकका नियमसे अवक्तव्यबन्ध करते हैं और पद्मलेश्यामें ऐसे जीवों का भी स्पर्शन कुछ कम पाँच राजुप्रमाण होता है, अतः यह भी उक्त प्रमाण कहा है। देवगतिचतुष्कके अवक्तव्यबन्धके लिए जो युक्ति पीत लेश्यामें दी है वही यहाँ भी जान लेनी चाहिए। तदनुसार इनके अवक्तव्यबन्धका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है ।
५३२. शुकुलेश्यामें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, आठ कषाय, भय, जुगुप्सा, देवगति, पञ्चेन्द्रियजाति, तीन शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, सचतुष्क, निर्माण, तीर्थङ्कर और पाँच अन्तरायके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ
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भुजगारबंधे फोसणं
३०७ तिष्णिप० छच्चों । अवत्त० खेत्तभंगो। देवाउ०-आहार०२ सव्वपदा ओघं । सेसाणं सव्वपदा छच्चों ।
५३३. अब्भवसि० मदि॰भंगो । णवरि मिच्छत्तं अवत्तव्वं गत्थि ।।
५३४. खइग०-उवसम० ओधि भंगो । णवरि अपञ्चक्खाण०४ अवत्त० खेत्तभंगो' । देवगदि०४-आहार०२ सव्वप० खेत । मणुसगदिपंचगस्स य अवत्त० खेतभंगो । उवसमे तित्थकरं सव्वपदा खेत्तं ।। कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। देवायु और आहारकद्विकके सब पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
विशेषार्थ-यहाँ प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंमें से चार प्रत्याख्यानावरणको व देवगतिचतुष्कको छोड़कर शेष सब प्रकृतियोंका अवक्तव्यपद उपशमश्रेणिमें प्राप्त होता है, प्रत्याख्यानावरण चारका अवक्तव्यपद संयत मनुष्यके संयतासंयत होने पर प्राप्त होता है और देवगतिचतुष्कका अवक्तव्यपद संज्ञी तिर्यश्च और मनुष्य जीवोंके प्राप्त होता है, अतः इस पदकी अपेक्षा स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। यद्यपि संज्ञी जीवोंका स्पर्शन अधिक है, परन्तु इनके देवगतिचतुष्कका अवक्तव्यपद स्वस्थानमें ही बनता है और इस अपेक्षासे इनका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही है। अतः यह भी क्षेत्रके समान कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है।
५३३. अभव्योंमें मत्यज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि इनके मिथ्यात्वका अवक्तव्यपद नहीं है।
विशेषार्थ-मिथ्यात्वका अवक्तव्यपद उन जीवोंके होता है जो ऊपरके गुणस्थानोंसे उतरकर मिथ्यात्वमें आते हैं । किन्तु अभव्य सदा मिथ्यादृष्टि ही होते हैं, अतः इनके मिथ्यात्वके अवक्तव्यपदका निषेध किया है।
५३४. क्षायिकसम्यक्त्व और उपशमसम्यक्त्वमें अवधिज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि इनमें अप्रत्याख्यानावरण चारके अवक्तव्यपदका भङ्ग क्षेत्रके समान है। देवगतिचतुष्क और आहारकद्विकके सब पदोंका भङ्ग क्षेत्रके समान है। मनुष्यगतिपञ्चकके अवक्तव्यपदका भङ्ग क्षेत्र समान है । तथा उपशमसम्यक्वमें तीर्थङ्कर प्रकृतिके सब पदोंका भङ्ग क्षेत्रके समान है।
विशेषार्थ-उक्त दोनों सम्यक्त्वोंमें अप्रत्याख्यानावरण चारका अवक्तव्यपद उन्हीं जीवों के होता है जो ऊपरके गुणस्थानवाले मनुष्य अविरतसम्यग्दृष्टि होते हैं। अतः इनके अवक्तव्यपदका भङ्ग क्षेत्रके समान कहा है। क्षायिकसम्यग्दृष्टि मनुष्यों या तिर्यञ्चोंके देव होने पर प्रथम समयमें मनुष्यगति पञ्चकका अवक्तव्यपद होता है और उपशमश्रेणिसे मरकर देव होने पर उपशमसम्यग्दृष्टि देवोंके प्रथम समयमें मनुष्यगतिपञ्चकका अवक्तव्यपद होता है। यतः इन जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अतः इन दोनों सम्यक्त्वोंमें मनुष्यगति पञ्चकके अवक्तव्यपदका भङ्ग क्षेत्रके समान कहा है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध करनेवाले उपशमसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातसे अधिक नहीं होते। अतः इसके सब पदोंका भङ्ग भी क्षेत्रके समान कहा है। शेष कथन सुगम है।
१. आ० प्रतौ अपञ्चकवाण०४ खेत्तभंगो इति पाठः ।
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महाबथै भणुभागचंघाहियारे ५३५. सासणे धुविगाणं तिणिप० अह-बारह । दोआउ०-मणुसग०-मणुसाणु० उच्चा० सव्वप० अहो । देवाउ० ओघं। देवगदि०४ तिण्णिप० पंचचों । अवत्त० खेत । सेसं सव्वपदा अह-बारह । णवरि इत्थिल-पुरिस०-पंचसंठा-पंचसंघ०दोविहा०-सुभग-दूभ० दोसर-आर्दै०-अणादे०-णीचा० अवत्त० अहचों । ओरा०ओरालि अंगो० अवत्त० पंचचा ।
५३६. सम्मामि० धुविगाणं तिण्णिप० अह० । देवगदि०४ तिष्णिप० खेत्तः । सेसाणं सव्वपदा अहः ।
५३५. सासादनसम्यक्त्वमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन.पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो आयु, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रके सब पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। देवायुका भङ्ग ओघके समान है। देवगतिचतुष्कके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम पाँच बटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। शेष प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद, पुरुषवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, दो विहायोगति, सुभग, दुर्भग, दो स्वर, आदेय, अनादेय और नीचगोत्रके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा औदारिकशरीर
और औदारिक आङ्गोपाङ्गके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम पाँच बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
विशेषार्थ-आयुका बन्ध मारणान्तिक समुद्घातके समय नहीं होता। तथा सासादनसम्यग्दृष्टि जीव मर कर नरकमें नहीं जाता और सासादन सम्यग्दृष्टियोंके एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करते समय मनुष्यगतिद्विक व उच्चगोत्रका बन्ध नहीं होता, इसलिए यहाँ इन सब प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। मनुष्यों और तिर्यञ्चोंके देवोंमें मारणान्तिक समुद्घात करते समय देवगतिचतुष्कके तीन पदोंका ही बन्ध होता है। उसमें भी सासादनसम्यग्दृष्टि तियश्च सहस्रार कल्प तक ही मर कर उत्पन्न होते हैं। अतः यहाँ देवगतिचतुष्कके तीन पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम पाँच बटे चौदह राजूप्रमाण और अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। यद्यपि सासादनसम्यग्दृष्टि मनुष्य सहस्रार कल्पसे आगे भी उत्पन्न होते हैं पर इनका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही है, अतः तीन पदोंकी अपेक्षा कहे गये उक्त स्पर्शनमें इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता। तथा स्त्रीवेद आदिका यहाँ मारणान्तिक समुद्घातके समय या-उपपाद के समय अवक्तव्यबन्ध नहीं होता, अतः इनके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है।
५३६. सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। देवगतिचतुष्कके तीन पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। शेष प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
विशेपार्थ-सभ्यग्मिथ्यादृष्टि जीव न तो मरते ही हैं और न ही इनमें मारणान्तिक
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भुजगारबंचे कालानुगमो
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५३७. मिच्छा० मदि० भंगो। णवरि मिच्छत्तं अवत्तव्वं णत्थि । असन्णीसु धुविगाणं तिष्णप० सव्वलो० । सादादिदंडओ ओघं । दोआउ ० - वेड ०छ०० - ओरा ० अंगो खेत • ० । मणुसाउ० तिरिक्खोघं । अणाहार० कम्मइगभंगो ।
एवं फोसणं समत्तं कालागमो ।
०-अडक०
भुज ०-अप्प०
५३८. कालानुगमेण दुवि० - ओघे० आदे० । ओघेण पंचणा० - छदंस०भय - दु० – तेजा ० - क० - वण्ण ०४ - अगु० - उप० - णिमि० – पंचत० ras oबंधगा bafचिरं कालादो होदि ? सव्वद्धा । अवत० केव० १ ज० ए०, उ० संखेज सम० । थीणगि ०३ - मिच्छ० - अट्ठक० - ओरा० तिष्णिप० सव्वद्धा । अवत्त० ज० ए०, उ० आवलि० असंखें । दोवेदणीय-सत्तणोक ० - तिरिक्खाउ ० - दोगदि - पंचजा०
0
समुद्घात होता है, इसलिए इनमें देवगतिचतुष्कको छोड़कर शेष सब प्रकृतियोंके अपने-अपने पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ वटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। देवगतिचतुष्कका बन्ध तिर्य और मनुष्य करते हैं और यहाँ इनका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अतः देवगतिचतुष्कके तीन पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है ।
५३७. मिथ्यादृष्टि जीवोंमें मत्यज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वका अवक्तव्यपढ़ नहीं है। असंज्ञियोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सातावेदनीय आदि दण्डकका भङ्ग ओघके समान है । दो आयु, वैक्रियिकषटक और औदारिक आङ्गोपाङ्गका भङ्ग क्षेत्रके समान है । मनुष्यायुका भङ्ग सामान्य तिर्यखों के समान है । अनाहारकोंमें कार्मणकाययोगी जीवोंके समान भङ्ग है।
विशेषार्थ – असंज्ञियों में पचेन्द्रिय असंज्ञी जीव ही नरकायु, देवायु और वैक्रियिकषट्कका बन्ध करते हैं और नारकियोंमें व देवोंमें मारणान्तिक समुद्घात करते समय भी इनका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसलिए तो इन आठ प्रकृतियोंके सब पदोंका भङ्ग क्षेत्रके समान कहा है और औदारिक आङ्गोपाङ्गका सब पदोंकी अपेक्षा क्षेत्र ही सब लोक है, इसलिए स्पर्शन तो उतना होगा ही । यह देखकर इसके सब पदोंका भङ्ग भी क्षेत्रके समान कहा है । शेष कथन सुगम है ।
इस प्रकार स्पर्शन समाप्त हुआ ।
कालानुगम ।
५३८. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, आठ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदके बन्धक जीवोंका कितना काल है ? सर्वदा काल है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, आठ कषाय और औदारिकशरीरके तीन पदोंके बन्धक जीवोंका सर्वदा काल है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। दो वेदनीय, सात नोकषाय, तिर्यवायु, दो गति, पाँच जाति, छह संस्थान, औदारिक मान
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे छस्संठा०-ओरा०अंगो०-छस्संघ०-दोआणु०-पर०-उस्सा०-आदाउओ०-दोविहा०तसादिदसयु०-दोगो० चत्तारिपदा सव्वद्धा । तिण्णिआउ० भुज०-अप्प० ज० ए०, उ० पलिदो० असंखें । अवहि-अवत्त० ज० ए०, उ. आवलि० असंखें। वेउ०छ. भुज०-अप्प० सव्वद्धा। अवहि०-अवत्त० ज० ए०, उ० आवलि० असं । एवं तित्थ० । णवरि अवत्त ० ज० ए०, उ० संखेंजस । आहार०२ भुज०-अप्प० सव्वद्धा । अवढि०-अवत्त० ज० ए०, उ० संखेंजस० । एवं ओघभंगो कायजोगि-ओरा०-णस०कोधादि०४-अचक्खु०-भवसि०-आहारए त्ति । पाङ्ग, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, सादिदस युगल और दो गोत्रके चार पदोंके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है। तीन आयुओंके भुजगार और अल्पतर पदके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। वैक्रियिक छहके भुजगार और अल्पतरपदकें बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है। अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार तीर्थङ्कर प्रकृतिकी अपेक्षा काल जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । आहारकद्विकके भुजगार और अल्पतरपदके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है । अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। इसी प्रकार
ओघके समान काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, अचक्षदर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिए।
विशेषार्थ—प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंके प्रारम्भके तीन पदोंका बन्ध एकेन्द्रियादि सब जीव करते हैं, इसलिए इनका सब काल कहा है। मात्र इनका अवक्तव्यपद उपशमश्रेणिसे उतरते समय होता है या उपशमश्रेणिमें मरण कर देव होने पर प्रथम समयमें होता है, इसलिए इनके अवक्तव्यपदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है। यदि एक समयमें नाना जीव उपशमणि पर आरोहण करके एक साथ अवक्तव्यपदके पात्र होते हैं तो एक समय होता है और क्रमसे संख्यात समय तक उपशमणि पर आरोहण कर उसी क्रमसे अवक्तव्यबन्धके पात्र होते है तो संख्यात समय होता है। मात्र इन प्रकृतियोंमें प्रत्याख्यानावरण चार भी हैं सो इनके अवक्तव्यबन्धका काल विरत जीवोंको नीचे लाकर प्राप्त करना चाहिए । आगे जिन प्रकृतियोंके जिन पदोंका सर्वदा काल कहा है, उसका कहीं तो पूर्वोक्त कारण है और कहीं उनका किसी न किसीके निरन्तर बन्ध होना कारण है। इसलिए यह उस प्रकृतिके बन्ध स्वामीका विचार कर ले आना चाहिए। जिन प्रकृतियोंके जिन पदोंका काल न्यूनाधिक है उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-पहले स्त्यानगृद्धि आदिके अवक्तव्यपदका काल एक जीवकी अपेक्षा एक समय बतला आये हैं। यदि नाना जीव इन प्रकृतियोंका अवक्तव्यपद करें तो कमसे कम एक समय तक करते हैं, क्योंकि सासादनसे लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानकी राशि पल्यके असंख्यावें भागप्रमाण है। उसमेंसे कुछ जीव यदि मिथ्यात्व आदि गुणस्थानोंमें आते हैं तो एक समयमें आकर अन्तर भी पड़ सकता है, इसलिए तो इन प्रकृतियोंके अवक्तव्यपदका जघन्य काल एक समय कहा है और यदि निरन्तर मिथ्यात्व आदि गुणस्थानको प्राप्त होते रहें तो आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक ही होंगे। इसलिए इन प्रकृतियोंके अवक्तव्य पदका उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। प्रत्येक
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मुजगारवघे काठाणुगमो ५३९. तिरिक्खेसु धुविगाणं तिणिप० सव्वद्धा । सेसं ओघ । एवं ओरालि मि०. कम्मइ०-मदि०-सुद०-असंज०-तिष्णिले०-अब्भवसि०-मिच्छा०-असण्णि-अणाहारए त्ति। गवरि ओरालियमि०-कम्मइ०-अणाहारएसु देवगदिपंचग० सुज-अप्प० ज० ए०, उ० अंतो० । अवढि० ज० ए०, उ० संखेंजस० ।
५४०. अवगद०-सुहुमसंप० सव्वपग० भुज०-अप्प० ज० ए०, उ० अंतोः । आयुका बन्ध काल अन्तर्मुहूर्त है और इसमें भुजगार आदि तीन पदोंका जघन्य काल एक समय है। साथ ही नारकी, मनुष्य और देवोंका प्रमाण असंख्यात है। यह सब देखकर नरकायु, मनुष्यायु और देवायुके दो पदोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण तथा इनके अवस्थित और अवक्तव्यपदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके अन्य तीन पदोंका काल तो इसी प्रकार है, पर अवक्तव्यपदके उत्कृष्ट कालमें कुछ विशेषता है। बात यह है कि जो तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध करनेवाले मनुष्य नरकमें उत्पन्न होते हैं या उपशमश्रेणि पर चढ़ते हैं उन्हींके तीर्थकर प्रकृतिका अवक्तव्य बन्ध होता है। किन्तु ये कुल संख्यातसे अधिक नहीं हो सकते, अतः तीर्थकर प्रकृतिके अवक्तव्यबन्धका उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है। यही युक्ति आहारकद्विकके अवस्थित और अवक्तव्यपदके कालके विषयमें जाननी चाहिए। यहाँ अन्य जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें यह प्ररूपणा अविकल घटित हो जाती है, इसलिए उनके कथनको ओघके समान कहा है।
५३९. तिर्यश्चोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदोंके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है । शेष भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, तीन लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें देवगतिपञ्चकके भुजगार और अल्पतरपदके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है ओर उत्कृष्ट काल संख्यात समय है।
विशेषार्थ-इन मार्गणाओंमें उपशमश्रेणि नहीं होती, इसलिए इनमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा कहा है। जो सम्यग्दृष्टि तिर्यश्च और मनुष्य औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी और अनाहारक होते हैं उन्हींके देवगतिपञ्चकका इन मार्गणाओंमें बन्ध होता है, इसलिये इनमें भुजगार और अल्पतर पदके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। एक साथ नाना जीव इन मार्गणाओंको प्राप्त हुए और उन्होंने एक समय तक भुजगार और अल्पतरपदका बन्ध किया तो जघन्य काल एक समय बनता है तथा निरन्तर क्रमसे यदि नाना जीव इन मार्गणाओं को प्राप्त होते रहते हैं तो इन पदों का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त बनता है। परन्तु ऐसे जीव कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक संख्यात समय तक ही मार्गणाओं को प्राप्त होते हैं। अतः इन मार्गणाओं में उक्त प्रकृतियों के अवस्थित और अवक्तव्यपदका जघन्य काल एक समय
और उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि कार्मणकाययोगमें और अनाहारक मार्गणामें दो-दो समयके फरकसे जीवोंको प्राप्त करा कर भुजगार और अल्पतर पदका उत्कृष्ट काल लाना चाहिये; अन्यथा उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होना सम्भव नहीं है। शेष कथन सुगम है।
५४०. अपगतवेदी और सूक्ष्मसाम्यरायसंयत जीवों में सब प्रकतियों के भुजगार और
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महायचे मजुभागवाहियारे अवगद० अवत्त०' ज० ए०, उ० संखेजासः ।
५४१. सव्वएइंदि०-पुढ०-आउ०-तेउ०-वाउ० तेसिं च सव्वसुहुमाणं बादरपुढ०. आउ०-तेउ०-वाउ० तेसिं चेव अपञ्ज. सव्ववणफदि०-णियोद०-बादरपत्ते० तस्सेव अपज मणुसाउ० तिरिक्खोघं । सेसाणं सव्वपदा सव्वद्धा। सेसाणं णिरयादि याव सण्णि त्ति जासिं णाणाजीवेहि भंगविचए भयणिज्जा तासिं अप्पप्पणो द्विदिभुजगारभंगो। अवढि ०-अवत्त० भयणिज्जा सेसपदाण] भयणिज्जा याओ ताओ ओघं णिरयभंगो। एसिं अवत्त० संखेजा तासिं ओघं तित्थयरभंगो। यासि सव्वपदा संखेजा आहारसरीरभंगो।
8 एवं कालं समत्तं
अंतराणुगमो। ___ ५४२. अंतराणुगमेण दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० पंचणा-छदंस० चदुसंज०भय-दु०-तेजा०-क०-वण्ण०४-अगु०-उप०-णिमि०-पंचंत० भुज०-अप्प०-अवढि०बंधगंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णत्यि अंतरं । अवत्त० ज० ए०, उ० वासपुधत्तं । थीणअल्पतरपदके बन्धक जीवों का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अपगतवेदी जीवोंमें अवक्तव्यपदका जघन्य काल एक समय है और उत्कष्टकाल संख्यात समय है।
विशेषार्थ-इन मार्गणाओं को कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक संख्यात समय तक जीव प्राप्त होते हैं, इसलिये इनमें सब प्रकतियों के अवस्थित और अवक्तव्यपदका जघन्य काल एक समय और उत्कष्ट काल संख्यात समय कहा है। शेष कथन सुगम है।
___५४१. सब एकेन्द्रिय, पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और इन प्रथिवी आदि चारोंके सब सक्षम, बादर प्रथिवीकायिक, बादर जलकायिक, बादर अग्निक बादर वायुकायिक तथा इन चारोंके अपर्याप्त, सब वनस्पतिकायिक, निगोद, बादर प्रत्येक वनस्पतिकायिक और बादर प्रत्येक वनस्पतिकायिक अपर्याप्त जीवोंमें मनुष्यायुका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। शेष सब प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है। नरकगतिसे लेकर संज्ञी तक शेष मार्गणाओंमें जिनका नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचय भजनीय है, उनका अपने-अपने स्थितिबन्धके भुजगारके समान काल है। जिनके अवस्थित और अवक्तव्यपद भजनीय हैं तथा शेष पद भजनीय नहीं हैं, उनका ओघसे नरकगतिके समान भङ्ग है। तथा जिनके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव संख्यात हैं, उनका ओघसे तीर्थक्कर प्रकृतिके समान भङ्ग है और जिनके सब पदोंके बन्धक जीव संख्यात हैं, उनका ओघसे आहारकशरीरके समान भङ्ग है।
इस प्रकार काल समाप्त हुआ।
अन्तरानुगम ५४२. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, भय, जगप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायके भुजगार अल्पतर और अवस्थितपदके बन्धक जीवोंका अन्तरकाल कितना है ? अन्तरकाल नहीं है। अवक्तव्यपदके बन्धक
१. आ० प्रतौ अतो० । अवहि० अवत्त० इति पाठः।
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भुजगारवंचे अंतरं
३१३ गिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणु०४ तिण्णिप० णत्थि अंतरं । अवत्त० ज० ए०, उ० सत्त रादिदियाणि । सादासाद०-सत्तणोक०-तिरिक्खाउ०-दोगदि-पंचजा०-छसंठा०ओरालि अंगो०-छस्संघ०-दोआणु०-पर०-उस्सा०-आदाउजो०-दोविहा०-तसादिदसयु०. दोगो० चत्तारिप णत्थि अंतरं । अपञ्चक्खाण०४ तिण्णिप० णत्थि अंतरं । अवत्त० ज० ए०, उ० चॉइस रादिदियाणि । एवं पचक्खाण०४ । णवरि अवत्त० ज० ए०, उ० पण्णारस रादिदि० । तिण्णिआउ० भुज०-अप्प०-अवत्त० ज० ए०, उ० चदुवीर्स मुहुत्तं । अवढि० ज० ए०, उ० असंखेंजा लोगा। वेउ०छ० भुज-अप्प० णत्थि अंतरं । अवढि० ज० ए०, उ० असंखेंजा लोगा। अवत्त० ज० ए०, उ० अंतो० । एवं आहार०२। तित्थ० भुज०-अप्प०-अवढि० देवगदिभंगो। अवत्त० ज० ए०, उ. वासपुधत्तं । ओरालि० अवत्त० ज० ए०, उ० अंतो० । सेसपदाणं णत्थि अंतरं । एवं ओघभंगो कायजोगि-ओरा०-णस०-कोधादि०४-अचक्खु०-भवसि०-आहारए त्ति । जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर काल वर्षपृथक्त्वप्रमाण है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारके तीन पदोंके बन्धक जीवोंका अन्तरकाल नहीं है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर सात दिन रात है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, सात नोकषाय, तिर्यञ्चायु, दो गति, पाँच जाति, छह संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, सादि दस युगल और दो गोत्रके चारों पदोंके बन्धक जीवोंका अन्तरकाल नहीं है। अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कके तीन पदोंके बन्धक जीवोंका अन्तरकाल नहीं है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर चौदह दिन रात है। इसी प्रकार प्रत्याख्यानावरणचतुष्कके विषयमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पन्द्रह दिन रात है। तीन आयुओंके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर चौबीस मुहूर्त है। अवस्थितपदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। वैक्रियिकषट्कके भुजगार और अल्पतर पदके बन्धक जीवोंका अन्तरकाल नहीं है। अवस्थितपदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमहत है। इसी प्रकार आहारकद्विकके विषय में जानना चाहिये। तीर्थङ्कर प्रकतिके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदका भङ्ग देवगतिके समान है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण है। औदारिकशरीरके अपक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। शेष पदोंके बन्धक जीवोंका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार ओघके समान काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिये।
विशेषार्थ-प्रथम दण्डकमें और दूसरे दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंके वीन पदोंका निरन्तर बन्ध एकेन्द्रियादि जीवोंके पाया जाता है, इसलिये इन पदोंके अन्तर कालका निषेध
किया है। मात्र उपशमश्रेणिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वJain Education Internation 80
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महायचे अणुभागवाहियारे ५४३. णिरएसु तित्थ० ओषं । अथवा अवत्त० ज० ए०, उ० पलिदो. असंखे । सेसाणं भुज०-अप्प० णत्थि अंतरं । अवढि० ज० ए०, उ० असंखेंजा लोगा।
प्रमाण है, इसलिये इनके अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण कहा है। उपशमसम्यक्त्वमार्गणाका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर सात दिन-रात है। तदनुसार सम्यक्त्वसे च्युत होकर मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाले जीवोंका भी इतना ही अन्तर है। अतः स्त्यानगृद्धि तीन आदिके अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर सात दिन-रात कहा है। सातावेदनीय आदिके चारों पदोंका एकेन्द्रिय आदि जीव बन्ध करते हैं, अतः इनके चारों पदोंके अन्तरकालका निषेध किया है। अप्रत्याख्यानावरण चार और प्रत्याख्यानावरण चारके तीन पदोंके अन्तरका निषेध ज्ञानावरणके समान जानना चाहिये । तथा प्रथमोपशमसम्यक्त्वके साथ संयतासंयत गुणस्थानका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर चौदह दिन-रात है। तदनुसार पाँचवें आदि ऊपरके गुणस्थानोंसे च्युत होकर जीव इतने ही काल तक अविरत अवस्थाको नहीं प्राप्त होता। अतः अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कके अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर चौदह दिनरातप्रमाण कहा है। इसी प्रकार उपशमसम्यक्त्वके साथ विरत जीवका जघन्य भन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पन्द्रह दिनरात है। इसका अभिप्राय इतना है कि विरत जीव इतने ही काल तक विरताविरत गुणस्थानको नहीं प्राप्त होता, इसलिए प्रत्याख्यानावरणके अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पन्द्रह दिन-रात है। नरक, मनुष्य और देवगतिमें यदि कोई भी जीव उत्पन्न न हो तो कमसे कम एक समय तक और अधिक से अधिक चौबीस मुहूर्त तक नहीं उत्पन्न होता । इसके अनुसार इन आयुओंके बन्धमें भी इतना अन्तर पड़ सकता है, इसलिए इन तीन आयुओंके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर चौबीस मुहूर्त कहा है । मात्र इनके अवस्थितपदका परिणामोंके अनुसार अन्तर होता है, इसलिए वह जघन्यरूपसे एक समय और उत्कृष्टरूपसे असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। वैक्रियिकषट्कके भुजगार और अल्पतरपदका बन्ध नाना जीव करते ही रहते हैं, इसलिए इनके उक्त दो पदोंके अन्तरकालका निषेध किया है। इसी प्रकार तीर्थङ्कर और औदारिकशरीरके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदके अन्तरकालका निषेध घटित कर लेना चाहिए । तथा वैक्रियिकषटकके अवस्थितपदके अन्तरकालको तीन आयुओंके समान घटित कर लेना चाहिए । वैक्रियिकपटक और औदारिकशरीर परिवर्तमान प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनके अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। तथा तीर्थङ्कर प्रकृतिका भवक्तव्यपद उपशमश्रेणिमें व दूसरे-तीसरे नरकमें होता है। उसमें भी उपशमश्रेणिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्सप्रमाण है, इसलिए इसके अवकव्यपदका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण कहा है। यहाँ गिनाई गई काययोगी आदि मार्गणाओंमें यह प्ररूपणा अविकल घटित हो जाती है, इसलिए उनके कथनको भोषके समान कहा है।
५४३. नारकियोंमें तीर्थदर प्रकृतिका भङ्ग ओघके समान है। अथवा अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। शेष प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतर पदके बन्धक जीवोंका अन्तरकाल नहीं है। अवस्थितपदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है।
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भुजगारवंचे अंतरं अवत्त० ज० ए०, उ० अंतो० । थीणगिद्धिदंडओ ओघभंगो। सत्तमाए दोगदि-दोआणु०-दोगो० थीणगिद्धिभंगो।
५४४. तिरिक्खेसु धुविगाणं भुज०-अप्प०-अवष्टि. णत्थि अंतरं । सेसं ओघं ओरालियमि०-कम्मइ०-मदि०-सुद०-असंज०-तिष्णिले०-अब्भवसि०-मिच्छा०-असण्णि०अणाहारए त्ति । णवरि ओरालिमि०-कम्मइ०-अणाहारएसु देवगदिपंचग० भुज.. अप्प० ज० ए०, उ० मासपुध० । अवढि० ज० ए०, उ० असंखें. लो। गवरि तित्थ० भुज-अप्प० ज० ए०, उ० वासपुधः । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। स्त्यानगृद्धिदण्डकका भङ्ग ओघके समान है। मात्र सातवीं पृथिवीमें दो गति, दो आनुपूर्वी और दो गोत्रका भङ्ग स्त्यानगृद्धिके समान है।
विशेषार्थ—हम पहले ही बतला आये हैं कि तीर्थङ्कर प्रकृतिका अवक्तव्यपद नरकमें भी सम्भव है, इसलिए यहाँ ओघ प्ररूपणा बन जाती है। किन्तु एक उपदेश ऐसा भी है कि तीर्थक्कर प्रकृतिका बन्ध करनेवाला जीव दूसरे और तीसरे नरकमें अधिकसे अधिक पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक नहीं उत्पन्न होता, इसलिए इस उपदेशके अनुसार तीर्थङ्कर प्रकृतिके अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। शेष प्रकृतियोंका बन्ध यहाँ निरन्तर होता है, इसलिए उनके भुजगार और अल्पतर पदके अन्तरका निषेध किया है और अवस्थितपदका अन्तर परिणामोंके अनुसार कहा है। तथा परावर्तमान या अध्रुवबन्धिनी प्रकृतियोंके अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है । सातवें नरकमें तिर्यश्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका बन्ध मिथ्यादृष्टिके तथा मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका बन्ध सम्यग्दृष्टिके होता है, इसलिए स्त्यानगृद्धिके समान भङ्ग बन जाता है।
५४४. तिर्यलोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदके बन्धक जीवोंका अन्तरकाल नहीं है। शेष भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार औदारिकमि योगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, तीन लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्याष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें देवगतिपञ्चकके भुजगार और अल्पतर पदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर मासपृथक्त्वप्रमाण है। अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक प्रमाण है। इतनी विशेषता है कि तीर्थङ्करप्रकृतिके भुजगार और अल्पतर पदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण है।
विशेषार्थ—सम्यग्दृष्टि नारकी, मनुष्य और देव मर कर औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी और अनाहारकोंमें यदि अन्तरसे उत्पन्न हों तो कमसे कम एक समयके अन्तरसे और अधिकसे अधिक मासपृथक्त्वके अन्तरसे उत्पन्न होते हैं, इसलिए इन मार्गणाओंमें देवगतिचतुष्कके भुजगार और अल्पतरपदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर मासपृथक्त्वप्रमाण कहा है। तथा तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध करनेवाले नारकी और देव उक्त तीन मार्गणाओंमें यदि अन्तरसे उत्पन्न होते हैं तो कमसे कम एक समयके अन्तरसे और अधिकसे अधिक वर्षपृथक्त्वके अन्तरसे उत्पन्न होते हैं, अतः इन मार्गणाओंमें तीर्थङ्कर प्रकृतिके भुजगार और अल्पतर पदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ५४५. अवगद०-सुहमसं० अप्पसत्थाणं भुज०-अवत्त० ज० ए०, उ० वासपुधः । अप्प० ज० ए०, उ० छम्मासं० । पसत्थाणं भुज० ज० ए०, उ० छम्मासं० । अप्प०अवत्त० ज० ए०, उ. वासपुध० । सुहुमसं० अवत्त० णत्थि अंतरं।
५४६. आभिणि-सुद०-ओधि० मणुसगदिपंचग०-देवगदि०४ भुज०-अप्प० गस्थि अंतरं । अवडि० ज० ए०, उ० असंखेंजा लोगा। अवत्त० ज० ए०, उ० मासपुध० । णवरि ओघिणा० ज० ए०, उ० वासपुधः । एवं ओधिदं०-सुक्कले०-सम्मा० खइग०-वेदग० । उवसम० एदाओ पगदीओ ज० ए०, उ० वासपुधः। सेसाणं
वर्षपृथक्त्वप्रमाण कहा है। इसका यह अभिप्राय है कि वर्षपृथक्त्वके अन्तरसे कोई न कोई जीव तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध करनेवाला देव और नरक पर्यायसे आकर इस भूमण्डलको सुशोभित करता है । विदेहोंमें निरन्तर तीर्थङ्कर होते हैं, इसलिए यह असम्भव भी नहीं है। फिर भी यहाँ यह पृथक्त्व शब्द ७ और ८ का वाची न होकर बहुत्व अर्थको व्यक्त करनेवाला है,ऐसा हमें प्रतीत होता है। शेष कथन सुगम है। - ५४५. अपगतवेदी और सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंमें अप्रशस्त प्रकृतियोंके भुजगार और अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण है। अल्पतरपदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। प्रशस्त प्रकृतियोंके भुजगार पदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कष्ट अन्तर छह महीना है। अल्पतर और अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण है। मात्र सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंमें धवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका अन्तरकाल नहीं है।
विशेषार्थ-यहाँ पर अप्रशस्त प्रकृतियोंका भुजगार और अवक्तव्यबन्ध उपशमश्रेणिमें उतरते समय होता है, इसलिए इनके भुजगार और अल्पतर पदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण कहा है। तथा क्षपकश्रेणिमें इनका अल्पतरबन्ध होता है इसलिए इस पदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना कहा है। यद्यपि उपशमश्रेणिपर चढ़ते समय इन प्रकृतियोंका अल्पतर बन्ध होता है पर उपशमश्रेणिसे क्षपकश्रेणिका अन्तरकाल कम है, इसलिए यह अन्तर :क्षपकश्रेणिकी अपेक्षा लिया है। प्रशस्त प्रकृतियोंका अन्तर इससे भिन्न प्रकारसे लाना चाहिए । अर्थात् क्षपकश्रेणिकी अपेक्षा प्रशस्त प्रकृतियोंके भुजगारबन्धका और उपशमश्रेणिकी अपेक्षा इनके अल्पतर
और अवक्तव्यपदका अन्तर लाना चाहिए । कारण स्पष्ट है। मात्र सूक्ष्मसाम्परायमें किसी भी प्रकतिका अवक्तव्यबन्ध नहीं होता।
५४६. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें मनुष्यगतिपश्चक और देवगतिचतुष्कके भुजगार और अल्पतर पदके बन्धक जीवोंका अन्तरकाल नहीं है। अवस्थित पदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर मासपृथक्त्वप्रमाण है। इतनी विशेषता है कि अवधिज्ञानी जीवोंमें जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दा क्षायिकसम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें जानना चाहिए। उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें इन प्रकतियोंके अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण है।
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भुजगारबंधे भावाणुगंमो णिरयादि याव सण्णि ति अवत्त० अप्पप्पणो द्विदिभुजगारअवत्तव्वभंगो कादव्यो। सेसपदा कालेण साधेदव्वं । तेऊए देवगदि०४ अवत्त० ज० ए०, उ. मासपुधः । ओरालि० अवत्त० ज० ए०, उ० अडदालीसं मूहुत्तं । एवं पम्माए वि। णवरि ओरालि०-ओरा०अंगो०' अवत्त० ज० ए०, उ० पक्खं० ।
___ एवमंतरं समत्तं ।
भावाणगमो ५४७. भावाणुगमेण दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० सव्वपगदीणं भुज-अप्प०नरकगतिसे लेकर संज्ञी तक शेष मार्गणाओंमें अवक्तव्यपदका भङ्ग अपने-अपने स्थितिबंधके भुजगारके अवक्तव्य भङ्गके समान कहना चाहिए। शेष पदोंको कालके अनुसार साध लेना चाहिए। पीतलेश्यामें देवगतिचतुष्कके अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर मासपृथक्त्वप्रमाण है। औदारिकशरीरके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है. और उत्कृष्ट अन्तर अड़तालीस मुहूर्त है। इसी प्रकार पनलेश्यामें भी जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि औदारिकशरीर और औदारिक आङ्गोपाणके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर एक पक्षप्रमाण है।
विशेषार्थ-आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें मनुष्यगतिपञ्चकके अवक्तव्यपदकी प्राप्ति दो प्रकारसे होती है। प्रथम तो उपशमश्रेणिसे मरकर देव होने पर और दूसरे चतुर्थ गुणस्थानसे मरकर नारकी होने पर या चतुर्थादि किसी भी गुणस्थानसे मरकर देव होने पर । इसका अभिप्राय यह है कि चतुर्थगुणस्थानमें वैक्रियिकमिश्रकायप्रयोगका जो अन्तर है वही यहाँ मनुष्यगतिपश्चकके अवक्तव्यपदका अन्तर है। जीवस्थान अन्तर प्ररूपणामें यह जघन्य रूपसे एक समय और उत्कृष्ट रूपसे मासपृथक्त्वप्रमाण बतलाया है। इसलिए यहाँ इन प्रकृतियोंके अवक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर उक्त प्रमाण लिया गया है। पहले औदारिकमिश्रकाययोगमें देवगतिचतुष्कके अवक्तव्यपदका अन्तर बतला ही आये हैं। वही यहाँ घटित कर लेना चाहिए। मात्र अवधिज्ञानी जीवोंमें मनुष्यगतिपञ्चक और देवगतिचतुष्कका यह उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण प्राप्त होता है, क्योंकि कोई अवधिज्ञानी अधिकसे अधिक इतने काल तक वैक्रियिकमिश्रकाययोगी और औदारिकमिश्रकाययोगी न हो यह संभव है। अवधिज्ञानीके समान ही उपशमसम्यग्दृष्टिमें यह अन्तर जानना चाहिए। पीतलेश्यामें देवगतिचतुष्कके अवक्तव्य पदका अन्तर औदारिकमिश्रकाययोगोके समान ही घटित कर लेना चाहिए। परन्तु पीतलेश्यामें वैक्रियिकमिश्रकाययोगका उत्कृष्ट अन्तर अड़तालीस मुहूर्त है, इसलिए यहाँ औदारिकशरीरके अवक्तव्य पदका उत्कृष्ट अन्तर अड़तालीस मुहूर्त कहा है और पनलेश्यामें वैक्रियिकमिश्रकाययोगका उत्कृष्ट अन्तर एक पक्षप्रमाण है, इसलिए पद्मलेश्यामें औदारिकद्विकके अवक्तव्य पदका उत्कृष्ट अन्तर एक पक्षप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है।
इस प्रकार अन्तर समाप्त हुआ।
भावानुगम ५४७. भावानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे सब
१. ता. प्रतौ णवरि ओरालि० अङ्गो० इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे अवहि-अवत्त०बंधगा त्ति को भावो ? ओदइगो भावो । एवं याव अणाहारए ति ।
___ एवं भावं समत्तं ।
अप्पाबहुआणुगमो ५४८. अप्पाबहुगं दुवि०–ओवे० आदे० । ओघे० पंचणा०-णवदंस०-मिच्छ०सोलसक०-भय-दु०-ओरालि०-तेजाक०-वण्ण:-अगु०-उप०-णिमि०-पंचंत० सव्वस्थोवा अवत्त । अवढि० अणंतगु० । अप्प० असंखेंजगु० । भुज० विसे । सादासाद०-सत्तणोक०-तिणिक्खाउ०-दोगदि-पंचजा०-छस्संठा०-ओरा अंगो०- छस्संघ०-दोआणु०-पर-उस्सा०-आदाउञ्जो०-दोविहा०-तसादिदसयु०-दोगो० सव्वत्थोवा अवढि०। अवत्त० असंखेंजगुणा। अप्प० असं०गु०। भुज० विसे० । एवं तिण्णिआउ०-वेउवियछ । आहार०२ सव्वत्थोवा अवढि० । अवत्त० संखेज गु० । अप्प० संखेंगु० । भुज० विसे । तित्थ० सव्वत्थोवा अवत्त । अवढि० असंखेंजगु० । अप्प० असं० गु० । भुज० विसे० । एवं ओघभंगो कायजोगि-ओरालि०, गवरि ओरालिए तित्थकरं आहारसरीरभंगो, अचक्खु -भवसि०-आहारए त्ति । प्रकृतियोंके भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका कौनसा भाव है ? औदयिक भाव है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए ।
इस प्रकार भाव समाप्त हुआ।
__ अल्पबहुत्वानुगम . ५४८. अल्पबहुत्व दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे अवस्थितपदके बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं। इनसे अल्पतरपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे भुजगार पदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। सातावेदनीय, असातावेदनीय, सात नोकषाय, तिर्यञ्चायु, दो गति, पाँच जाति, छह संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, परघात, उच्छास, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, सादि दस युगल और दो गोत्रके अवस्थित पदके बन्धक जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अवक्तव्यपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अल्पतरपदके बन्धक जीव असंख्यातगणे हैं। इनसे भुजगारपदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। इसी प्रकार तीन आयु और वैक्रियिकषटककी अपेक्षा जानना चाहिए। आहारकद्विकके अवस्थितपदके बन्धक जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अवक्तव्यपदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अल्पतरपदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे भुजगारपदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। तीर्थङ्कर प्रकृतिके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अवस्थितपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अल्पतरपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे भुजगारपदके मन्धक जीव विशेष अधिक हैं। इसी प्रकार ओघके समान काययोगी और औदारिककाययोगी जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि औदारिककाययोगी जीवोंमें तीर्थङ्करप्रकृतिका भङ्ग आहारकशरीरके समान है। तथा ओघके समान ही अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंमें जानना चाहिए।
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भुजगारबंधे अप्पाबहुअं ५४९. णिरएसु धुवियाणं सव्वत्थोवा अवढि० । अप्प० असंखेंगु० । भुज. विसे । थीणगिद्धिदंडओ ओघं । णवरि अवढि० असंखेंअगु० । मणुसाउ० आहारसरीरभंगो। सेसाणं पगदीणं ओघं सादभंगो। एवं सत्तसु पुढवीसु । णवरि सत्तमाए दोगदि-दोआणु०-दोगो० थीणगिद्धिभंगो।
५५०. तिरिक्खेसु धुविगाणं सव्बत्थोवा अवढि० । अप्प० असंगु०॥ भुज विसे । सेसं ओषं । पंचिंदियतिरिक्ख० धुविगाणं तिरिक्खोघं । सेसाणं पि एवमेव । णवरि अवढि० जम्हि अणंतगुणं तम्हि असं०गुणं कादव्वं । पंचिंतिरि०पज्जत्त-जोणिणीसु ओरालि. सादमंगो। पंचिंतिरि०अपज्ज. धुविगाणं णेरइगभंगो । सेसाणं सव्वत्थोवा अवढि० । अवत्त० असं०गु० । [ अप्प. असंगु०।] भुज० विसे । एवं सव्वअपज्ज०एइंदि०-विगलिं०-पंच कायाणं च ।
५५१. मणुसेसु पंचणा०-णवदंस०-मिच्छ०-सोलसक०-भय-दु०-ओरा-तेजा-क०वण्ण०४-अगु०-उप०-णिमि०-पंचंत. सव्वत्थोवा अवत्तः। अवहि० असं०गु० । अप्प० असंगु० । भुज० विसे० । दोआउ०-वेउव्वियछ०-आहार०२-तित्थ० आहार
___५४६. नारकियोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके अवस्थितपदके बन्धक जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अल्पतरपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे भुजगार पदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। स्त्यानगृद्धिदण्डकका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि यहाँ अवक्तव्य पदके बन्धक जीवोंसे अवस्थितपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। मनुष्यायुका भङ्ग आहारकशरीरके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके सातावेदनीयके समान है। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सातवीं पृथिवीमें दो गति, दो आनुपूर्वी और दो गोत्रका भङ्ग स्त्यानगृद्धिके समान है।
- विशेषार्थ यहाँ स्त्यानगृद्धिदण्डकसे स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्क, ये आठ प्रकृतियाँ ली गई हैं। ___५५०. तिर्यश्चोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके अवस्थितपदके बन्धक जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अल्पतरपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे भुजगारपदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। शेष भङ्ग ओघके समान है। पञ्चन्द्रियतिर्यश्चोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग भी इसी प्रकार है। इतनी विशेषता है कि जहाँ अवस्थितपदके बन्धक जीव अनन्तगुणे कहे हैं, वहाँ असंख्यातगुणे कहना चाहिए। पञ्चेन्द्रियतिर्यश्च पर्याप्त और पश्चेन्द्रिय तियश्च योनिनियोंमें औदारिकशरीरका भङ्ग सातावेदनीयके समान है। पञ्चन्द्रियतियचअपर्याप्तकोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका भङ्ग नारकियोंके समान है। शेष प्रकृतियोंके अवस्थितपदके बन्धक जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अवक्तव्यपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अल्पतरपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे भुजगारपदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। इसी प्रकार सब अपर्याप्त, एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और पाँच स्थापरकायिक जीवोंके जानना चाहिए ।
. ५५१. मनुष्योंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अवस्थितपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे अल्पतरपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे भुजगारपदके
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महाबंचे अणुभागबंधाहियारे
५५२. पंचिंदि०
स॰भंगो । साददंडओ ओघं । एवं मणुसपञ्ज० - मणुसिणीसु । णवरि संखे कादव्वं । एवं सव्वड ० । णवरि धुवियाणं अंवत्त० णत्थि । सेसाणं' देवाणं णेरइगभंगो । पंचणा०-णवदंस०-मिच्छ०-सोलसक० -भय-दु० -ओरा० - तेजा०क० वण्ण०४ - अगु० - उप० - णिमि० - तित्थ० - पंचंत० सव्वत्थोवा अवत० । अवहि० असंखेजगु० । अप्प० असंखेजगु० । भुज० विसे० । सेसाणं ओघं । पंचिंदियपञ्जत्तरसु वि सेव । वरि ओरालि० सादभंगो । एवं तस० - तसपञ्ज० ।
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1
५५३. पंचमण० - तिण्णिवचि० पंचणा०-णवदंस० - मिच्छ० - सोलसक०-भय-दु०देव०-ओरा०-वेउ०-तेजा०-क० उ० अंगो० वण्ण०४- देवाणु० -अगु०४- बादर- पञ० पत्ते ०णिमि० - तित्थ० - पंचंत० सव्वत्थोवा अवत्त ० । अवद्वि० असं० गु० । अप्प० असं० गु० । भुज० विसे० । सेसाणं ओघं । दोवचि० तसपञ्जत्तभंगो । ओरालि०मि० पंचिं० तिरि अपज०भंगो । 'णवरि मिच्छ० अवत्त० ओघं० । देवगदि-पंचिंदि० सव्वत्थो ० अवद्वि० । अप्प० संर्खेज्जगु० । भुज० विसे० । एवं कम्मइ० -अणाहार० । उव्वि० का ० देवभंगो। णवरि तित्थ० णिरयभंगो । एवं वेउ०- मि० । आहार०बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। दो आयु, वैक्रियिकषट्क, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृति भङ्ग ओघसे आहारकशरीरके समान है । सातावेदनीयदण्डकका भङ्ग ओघके समान है । इसी प्रकार मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि संख्यात करना चाहिए । इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यहाँ ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका अवक्तव्यपद नहीं है । शेष देवोंका भङ्ग नारकियोंके समान है ।
५५२. पञ्चेन्द्रियोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, तीर्थङ्कर और पाँच अन्तरायके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे अल्पतरपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे भुजगारपदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है । पचेन्द्रियपर्याप्त जीवों में भी यही भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि औदारिकशरीरका भङ्ग सातावेदनीयके समान है । इसी प्रकार त्रस और सपर्याप्त जीवोंमें जानना चाहिए ।
५५३. पाँचों मनोयोगी और तीन वचनयोगी जीवों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, देवगति, औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, निर्माण, तीर्थङ्कर और पाँच अन्तरायके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे अवस्थितपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे अल्पतरपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे भुजगारपदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओके समान है । दो वचनयोगी जीवों में सपर्याप्त जीवों के समान भङ्ग है । औदारिकमिश्रकाययोगी जीवों में पचेन्द्रिय तिर्यन अपर्याप्तको के समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वके अवक्तव्यपदका भङ्ग ओघके समान है । तथा देवगति और पचेन्द्रियजाति के अवस्थितपदके बन्धक जीव सबसे थोड़े हैं इनसे अल्पतर पदके बन्धक जीव संख्यातगुणे इनसे भुजगारपदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं । इसी प्रकार कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवों में वैक्रियिककाययोगी
।
1
जानना
चाहिए ।
१. ता० प्रतौ णत्थि अंतरं । सेसाणं इति पाठः । 1
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भुजगारबंधे अप्पाबहुअं
३२१ आहारमि० सव्वभंगो । णवरि देवाउ०-तित्य० मणुसि भंगो।
५५४- इथिवे० पंचणा०-चदुदंस०-चदुसंज०-पंचंत० सव्वत्थो० अवट्टि । अप्प०' असं०गु० । भुज० विसे० । पंचदंस-मिच्छ०-बारसक०-भय०-दु०-तेजा०-क०-वण्ण४-अगु०४-बादर-पज्जत्त-पत्ते-णिमि० सव्वत्थो० अवत्त० । अवट्ठि. असं०गु० । अप्प० असं०गु० । भुज. विसे० । सेसाणं सव्वत्थो० अवहि० । अवत्त० असं०गु० । अप्प० असं०गु० । भुज० विसे० । आहारदुगं तित्थ० मणुसिभंगो । एवं पुरिस० । णवरि तित्थ० ओघं । __ ५५५. णqसगे पंचणा०-चदुदंस०-चदुसंज-पंचंत० इत्थिभंगो। पंचदंस०-मिच्छ०बारसक०-भय-दु०-ओरालि०-तेजा-क०-वण्ण४-अगु०-उप०-णिमि० सव्वत्थो० अवत्त । अवडि० अणंतगु० । अप्प० असं०गु० । भुज० विसे० । सेसाणं ओघं । अवगद० अप्पसत्थाणं सव्वत्थो० अवत्त० । भुज० संखेजगु० । अप्प० संखेजगु० । जीवों में देवों के समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि तीर्थक्कर प्रकृतिका भङ्ग नारकियों के समान है। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवो' में जानना चाहिए । आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवों में सर्वार्थसिद्धिके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि देवायु और तीर्थकर प्रकृतिका भङ्ग मनुष्यिनियों के समान है।
५५४. स्त्रीवेदी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायके अवस्थितपदके बन्धक जीब सबसे थोड़े हैं। इनसे अल्पतरपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे भुजगारपदके यन्धक जीय विशेष अधिक हैं । पाँच दर्शनावरण, मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक और निर्माणके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अवस्थितपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अल्पतरपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे भुजगारपदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। शेष प्रकृतियोंके अवस्थितपदके बन्धक जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अवक्तव्यपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अल्पतरपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे भुजगारपदके बन्धक जीव विशेष अधिक है। आहारकद्विक और तीर्थकर प्रकृतिका भङ्ग मनुष्यनियोंके समान है। इसी प्रकार पुरुषवेदी जीवोंमें जानना चाहिए । इतनो विशेषता है कि तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग ओघके समान है।
५५५. नपुंसकवेदी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायका भङ्ग स्त्रीवेदी जीवोंके समान है। पाँच दर्शनावरण, मिथ्यात्व, बारह कपाय, भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात और निर्माणके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अवस्थितपदके बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं । इनसे भल्पतरपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे भुजगारपदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओवके समान है। अपगतवेदी जीवोंमें अप्रशस्त प्रकृतियोंके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे भुजगारपदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अल्पतरपदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। प्रशस्त प्रकृतियोंमें अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अल्पतरपदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे भुजगार
१. ता. प्रतौ सव्वत्थो० [ अवत्त० ] । अववि० अप्प० इति पाठः ।
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महाधे अणुभागधाहिया रे
पसत्थाणं सव्वत्थो० अवत्त ० । अप्प० संजगु ० | भुज० संखें ० गु० । एवं सुहुमसं० । वरि अवत्त० णत्थि ।
O
५५६. कोधे णवुंसगभंगो । माणे पंचणा० चदुदंस० - तिण्णिसंज० - पंचंत० सव्वत्थो ० अवट्ठि ० | अप्पद० असं० गु० । भुज० विसे० | पंचदंस० - मिच्छ० - तेरसक० - भय० - दु०ओरा०-तेजा० क० - वण्ण ०४ - अगु० - उप० - णिमि० सव्वत्थो० अवत्त० । अवद्वि० अनंतगु० । अप्प० असं० गु० । भुज० विसे० | सेसं ओघं । एवं मायाए वि । वरि पढमदंडओ पंचणा० - चदुदंस ० दोसंज ० - पंचंत० । बिदियदंडओ पंचदंस० - मिच्छ०पोइसक० भयदु० - ओरा०- तेजा० क० वण्ण ०४- अगु० - उप० णिमि० लोभे एवं चेव । णवरि पढमदंडओ पंचणा० चदुदंस० पंचत० सव्वत्थो० अवहि० । भुज०
।
3
अप्प०
असं० गु० ।
विसे० ० । विदियदंडओ पंचदंस०-मिच्छ० सोलसक० -भय-दु० । उवरि ओघं ।
५५७. मदि-सुदेसु धुत्रियाणं सव्वत्थो० अवद्वि० । अप्प०४ असं० गु० । भुज०
पदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि यहाँ अवक्तव्यपद नहीं है ।
५५६. क्रोधकषायमें नपुंसकवेदी जीवोंके समान भङ्ग है। मानकषाय में पाँच ज्ञानावरण, र दर्शनावरण, तीन संज्वलन और पाँच अन्तरायके अवस्थित पदके बन्धक जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे अल्पतरपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे भुजगारपदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं । पाँच दर्शनावरण, मिथ्यात्व, तेरह कषाय, भय, जुगुप्सा औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात और निर्माणके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे अवस्थितपदके बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं । इनसे अल्पतरपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे भुजगारपदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं । शेष भङ्ग ओघ के समान है । इसी प्रकार मायाकषायमें भी जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि प्रथम दण्डक पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, दो संज्वलन और पाँच अन्तराय रूप है । दूसरा दण्डक पाँच दर्शनावरण, मिथ्यात्व, चौदह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात और निर्माणरूप है । लोभकषायमें भी इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि प्रथम दण्डक पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायके अवस्थितपदके बन्धक जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे अल्पतरपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे भुजगारपदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं । दूसरा दण्डक पाँच दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्सा रूप होकर आगे यह ओघके समान है ।
५५७. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके अवस्थित पदके बन्धक जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे अल्पतरपदके बन्धक जोव असंख्यातगुणे हैं । इनसे
१. ता. प्रतौ सव्वत्थ० [अवत्त०] । अवहि० अप्प० इति पाठः । २. ता प्रतौ विदियदंडओ | ओघं पंचदंस०, आ. प्रतौ विदियदंडओ ओघं । पंचदंस० इति पाठः । ३. ता प्रतौ सव्वत्थो० [ अवत्त०] | अवहिं० | अप्प० इति पाठः । ४. ता० प्रतौ सव्वत्थो० [ अवत्त०] । अवट्टि० अप्प० इति पाठः ।
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भुजगारबंधे अप्पाबहुअं
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विसे० | मिच्छ० ओरालि० सेसाणं च ओघं । विभंगे धुविगाणं मदि० भंगो । मिच्छ०देव० - ओरालि० - वेउ०- वेउ० अंगो०- देवाणु० - पर० - उस्सा० चादर-पत्र ०-पत्ते० सव्वत्थो ० अवत्त० । अवहि० असं० गु० । अप्प० असं० गु० । भुज० विसे० । सेसं ओघं ।
0
५५८. आभिणि० - सुद० -अधि० पंचणा०छदंस० - बारसक० पुरि०-भय-दु० - दोगदिपंचिं ० - चदुसरीर - समचदु० - दोअंगो० - वञ्जरि ० - वण्ण ०४ - दोआणु ० - अगु०४ - पसत्थ०तस ०४ - सुभग- सुस्सर - आदें ० - णिमि० - तित्थ ० - उच्चा० - पंचंत० सव्वत्थो० अवत्त० । अवद्वि० असं०गु० । अप्प असं० गु० | भुज० विसे० । सादासाद० चदुणोक ०. देवाउ० - थिरादितिष्णियु० ओघं । मणुसाउ० - आहार०२ मणुसि० भंगो । एवं ओधिदं० सम्मा०- खड्ग ०-वेदग० - उवसम० । णवरि खड्गस० दोआउ० आहारसरीरभंगो । उवसम० आहार ०२ - तित्थ० मणुसि० भंगो | मणपञ्जव • ओधिभंगो । वरि संखेज कादव्वं । एवं संजद ० । ५५९. सामाइ० - छेदो० पंचणा० - चदुदंस० - लोभसंज० उच्चा० - पंचत० सव्वत्थो ० अव●ि | अप्प० संजगु० । भुज० विसे० । सेसं दोदंस० - तिण्णिसंज० - पुरिस०भय-दु० सव्वत्थो० अवत्त० । उवरि मणपञ्जवभंगो । एवं परिहार० । णवरि धुविगाणं भुजगारपदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं । मिथ्यात्व और औदारिकशरीर तथा शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है । विभङ्गज्ञानी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका भङ्ग मत्यज्ञानी जीवोंके समान है । मिथ्यात्व, देवगति, औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर, बैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, देवगत्यानुपूर्वी, परघात, उच्छास, बादर, पर्याप्त और प्रत्येकके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे अवस्थितपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अल्पतरपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे भुजगारपदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। शेष भङ्ग ओके समान है ।
५५८. आभिनिबधिक ज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवों पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, दो गति, पञ्चेन्द्रियजाति, चार शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, दो आंगोपाल, वज्रर्षभनाराच संहनन, वर्णचतुष्क, दो आनुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थङ्कर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे अवस्थितपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अल्पतरपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे भुजगारपदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं । सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार नोकषाय, देवायु और स्थिर आदि तीन युगलका भङ्ग ओघके समान है । मनुष्यायु और आहारकद्विकका भङ्ग मनुष्य नियोंके समान है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवों के जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवों में दो आयुका भङ्ग आहारकशरीरके समान है तथा उपशमसम्यग्दृष्टियों में आहारकद्विक और तीर्थकर प्रकृतिका भङ्ग मनुष्यिनियोंके समान है । मन:पर्ययज्ञानियोंमें अवधिज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणेके स्थान में संख्यातगुणा करना चाहिए। इसी प्रकार संयत जीवोंके जानना चाहिए ।
५५९. सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, लोभसंज्वलन, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके अवस्थितपदके बन्धक जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे अल्पतरपदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे भुजगारपदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं । शेष दो दर्शनावरण, तीन संज्वलन, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे थोड़े हैं। आगे मन:पर्ययज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है । इसी प्रकार परिहार
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे अवत्त० णत्थि । संजदासंज०१ अणुदिसभंगो । देवाउ० ओघ । तित्थ० मणुसि भंगो। असंजदे धुविगाणं तिरिक्खोघं । सेसाणं ओघं । चक्खु० तसपज्जत्तभंगो ।
५६०. किण्ण-णील-काऊणं असंजदभंगो। किण्ण०-णील. तित्थ० वेउवि०मि० भंगो । काउ० णिरयभंगो तित्थग० । तेउ० देवभंगो। णवरि थीणगि०३-मिच्छ०-बारसक०-देवग०-ओरालि०-वेउ०-वेउ०अंगो०-देवाणु०-तित्थ० सव्वत्थोवा अवत्त० । अवहि० असं०गु० । अप्प० असं०गु० । भुज. विसे० । दोआउ० ओघं । मणुसाउ० देवभंगो । आहारदुर्ग ओघं । एवं पम्माए वि । णवरि ओरा अंगो० देवगदिभंगो।
५६१. सुक्काए पंचणा०-णवदंस-मिच्छ०-सोलसक०-भय-दु०-दोगदि-पंचिं०-चदुसरीर-दोअंगो०-वण्ण४-दोआणु०-अगु०४-तस०-४-णिमि०-तित्थ०-पंचंत० सव्वत्थो० अवत्त । अवहि० असं०गु० । अप्प० असं०गु० । भुज० विसे० । दोआउ०विशुद्धिसंयत जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका अवक्तव्यपद नहीं है। संयतासंयत जीवोंमें अनुदिशके समान भङ्ग है। मात्र देवायुका भङ्ग ओघके समान है। तथा तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग मनुष्यनियोंके समान है। असंयतोंमें ध्रवबन्ध वाली प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। चक्षुदर्शनवाले जीवोंमें त्रसपर्याप्त जीवोंके समान भङ्ग है।
विशेषार्थ—यहाँ सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयतमें शेष दो दर्शनावरण आदि दण्डकमें जुगुप्सा तक प्रकृतियाँ गिनाई हैं, शेष नहीं गिनाई हैं। वे ये हैं-देवगति, पञ्चेन्द्रियजाति, तीन शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और तीर्थङ्कर । इस प्रकार दो दर्शनावरणसे लेकर तीर्थकर तक इन प्रकृतियोंके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे थोड़े हैं। तथा इन प्रकृतियोंके शेष पदोंका तथा अन्य सातावेदनीय आदि प्रतियोंका भङ्ग मनःपर्ययज्ञानी जीवोंके समान है। यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
५६०. कृष्ण, नील और कापोत लेश्यामें असंयतोंके समान भङ्ग है। मात्र कृष्ण और नीललेश्यामें तीर्थङ्करप्रकृतिका भङ्ग वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंके समान है और कापोतलेश्यामें तीर्थङ्करप्रकृतिका भङ्ग नारकियोंके समान है। पीतलेश्यामें देवोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, बारह कषाय, देवगति, औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, देवगत्यानुपूर्वी और तीर्थकर प्रकृतिके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे अवस्थितपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अल्पतरपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे भुजगारपदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं । दो आयुओंका भङ्ग ओघके समान है। मनुष्यायुका भङ्ग देवोंके समान है। आहारकद्विकका भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार पद्मलेश्यामें भी जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि औदारिकाङ्गोपांगका भङ्ग देवगतिके समान है।
५६१. शुक्ललेश्यामें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, दो गति, पञ्चेन्द्रियजाति, चार शरीर, दो आङ्गोपांग, वर्णचतुष्क, दो आनुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क, निर्माण, तीर्थङ्कर और पाँच अन्तरायके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे अवस्थितपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे अल्पतर पदके बन्धक
१. ता. प्रतौ णस्थि अंत० । संजदासंज० इति पाठः।
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पदणिक्खेवे सामित्तं
आहार - २ मणुसि० भंगो । सेसाणं आणदभंगो ।
५६२. अब्भवसि० मदि० भंगो | णवरि मिच्छ० अवत्त० णत्थि । एवं मिच्छा०अणि ति । सासण० - सम्मामि० देवभंगो । णवरि अप्पप्पणो धुवपगदीओ परियत्तियाओ च णादव्वाओ भवंति । सण्णी० मण०भंगो | एवं अप्पाबहुगं समत्तं । एवं भुजगारबंधो समतो पदणिक्खेवो समुक्कित्तणा
५६३. एत्तो पदणिक्खेवे त्ति तत्थ इमाणि तिण्णि अणियोगद्दाराणि । तं जहासमुत्तिणा सामित्तं अप्पाबहुगे त्ति । समुक्कित्तणा दुविधा - जह० उक्क० । उक्क० पदं । दुवि० - ओघे० आदे० | ओघे० सव्वपगदीणं अत्थि उकस्सिया वड्डी उक० हाणी उक्कस्सगमवद्वाणं । एवं याव अणाहारए त्ति णेदव्वं । णवरि अवगद ० -सुहुमसंप० अत्थि उक्क० वड्ढी उक० हाणी । एवं जहण्णगं पि ।
एवं समुत्तिणा समत्ता सामित्तं
५६४. सामित्तं दुवि०. [० जह० – उक्क० । उक्क० पगदं पंचणा०-णवदंस० - असाद० - मिच्छ० सोलसक०
३२५
। दुवि० - ओघे० आदे० । स ० - अरदि- सोग - भय-दु०
ओषे०
जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे भुजगारपदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। दो आयु और आहारकद्विकका भङ्ग मनुष्यिनियोंके समान है । शेष प्रकृतियोंका भंग आनतकल्पके समान है । ५६२. अभव्यों में मत्यज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वका अवक्तव्यपद नहीं है । इसी प्रकार मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंके जानना चाहिए। सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों में देवोंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि अपनीअपनी ध्रुवप्रकृतियाँ और परिवर्तमान प्रकृतियाँ जाननी चाहिए। संज्ञी जीवोंमें मनोयोगी जीवोंके समान भङ्ग है ।
इस प्रकार अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । इस प्रकार भुजगारबन्ध समाप्त हुआ ।
पदनिक्षेप समुत्कीर्तना
५६३. आगे पदनिक्षेपका प्रकरण है । उसमें ये तीन अनुयोगद्वार होते हैं। यथासमुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व । समुत्कीर्तना दो प्रकारकी है - जघन्य और उत्कृष्ट | उष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अपगतवेदी और सूक्ष्मसाम्परायिक संयत जीवोंमें उत्कृष्ट वृद्धि और उत्कृष्ट हानि है । इसी प्रकार जघन्य समुत्कीर्तना जानना चाहिए ।
I
इस प्रकार समुत्कीर्तना समाप्त हुई ।
स्वामित्व
५६४. स्वामित्व दो प्रकारका है— जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे तिरिक्ख०-एइंदि०-हुंड ०-अप्पसत्थव० ४-तिरिक्खाणु ०-उप०-थावर०-अथिरादिपंचणीचा०-पंचंत० उक्कस्सिया वड्डी कस्स ? अण्णदरस्स यो चदुट्ठाणिययवमज्झस्स उवरि अंतोकोडाकोडिहिदिवंधमाणो अंतोमुहुत्तं अणंतगुणाए सेढीए वड्डिदण उक्कस्ससंकिलेसेण उकस्सदाहं गदो तदो उक्कस्सयं अणुभागबंधो तस्स । उक्कसिया हाणी कस्स ? यो उकस्सयं अणुभागं बंधमाणो मदो एइंदियो जादो तदो तप्पाओग्गजहण्णए पडिदो तस्स उक्कस्सिया हाणी । उक्कस्सयमवहाणं कस्स ? यो उक्कसगं अणुभागं बंधमाणो सागारक्खएण पडिभग्गो तप्पाओग्गजहण्णए पडिदो तस्स उक्कस्सगमवहाणं । एवं हस्स-रदीणं । णवरि तप्पाऑग्गसंकिलिट्ठो त्ति भाणिदव्वा । साद०-जस०-उच्चा० उक्क० वड्डी० कस्स० ? अण्ण० खवगस्स सुहुमसं० चरिमे उक्कस्सगे अणुभागबंधे वट्टमाणगस्स तस्स उक्क० वड्डी । उक० हाणी कस्स ? यो उवसामयो से काले अकसाई होहिदि त्ति मदो देवो जादो तप्पाऑग्गजहण्णए पदिदो तस्स उक्क० हाणी। उक्क० अवठ्ठाणं कस्स ? अण्ण० अप्पमत्तसंजदस्स अक्खवग-अणुवसमगस्स सव्वविसुद्धस्स अणंतदुगुणेण वड्डिदूण अवहिदस्स उक्कस्समवहाणं । इत्थि०-पुरिस०-तिण्णिजादि-चदुसंठा०-चदुसंघ०-सुहुम-अपज०-साधार० उक्क० वड्डी क० ? अण्ण० यो चदुहाव्यव० उवरिं अंतोकोडाकोडिहिदि बंधगाणो अंतोमुहुत्तं अणंतगुणाए सेढीए वड्डिदूण तदो तप्पाओग्गवेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वणेचतुष्क, तियश्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, स्थावर, अस्थिर आदि पाँच, नीच गोत्र और पाँच अन्तरायको उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? चतुःस्थानिक यवमध्यके ऊपर अन्तःकोड़ाकोड़ी स्थितिका बन्ध करनेवाला जो जीव अन्तर्मुहूर्त काल तक अनन्तगुणी श्रेणिरूपसे वृद्धिको प्राप्त होकर उत्कृष्ट संक्लेशके द्वारा उत्कृष्ट दाहको प्राप्त हुआ है और तब उकृष्ट अनुभागबन्ध किया है, ऐसा अन्यतर जीव उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट दृद्धिका स्वामी है। उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जो जीव मरकर एकेन्द्रिय हो गया और वहाँ तत्प्रायोग्य जघन्य अनुभागवन्धको प्राप्त हुआ वह उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट हानिका स्वामीहै । उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी कौन है ? उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जो अन्यतर जीव साकार उपयोगसे निवृत्त होकर तत्प्रायोग्य जघन्य अनुभागबन्ध करने लगा है वह उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी है। इसी प्रकार हास्य और रतिका स्वामित्व कहना चाहिए । इतनी विशेषता है कि यहाँ तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट ऐसा कहना चाहिए। सातावेदनीय, यश-कीर्ति और उञ्चगोत्रको उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? जो अन्यतर क्षपक सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानके अन्तमें उत्कृष्ट अनुभागबन्ध कर रहा है वह उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है। उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? जो उपशामक अनन्तर समयमें अकषायी होगा कि इसी बीच मर कर देव हो गया और तत्प्रायोग्य जघन्य अनुभागबन्ध करने लगा वह उत्कृष्ट हानिका स्वामी है। उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी कौन है ? अक्षपक और अनुपशामक अन्यतर जो अप्रमत्तसंयत सर्वविशुद्धि जीव अनन्तगुणी वृद्धि के साथ अवस्थित है वह उक्त प्रकतियोंके उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, तीन जाति, चार संस्थान, चार संहनन, सूक्ष्म, अपर्याप्त
और साधारणकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? अन्यतर जो चतुःस्थानिक यवमध्यके ऊपर अन्तःकोड़ाकोड़ी स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव अन्तर्मुहूर्त काल तक अनन्तगुणी श्रेणिरूपसे
१. ता० आ० प्रत्योः अप्पसत्थवि० ४ तिरिक्खाणु० इति पाठः।
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पदणिक्खेवे सामित्तं
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०
संकिलेसेण तप्पाऔगउक्कस्सं गदो तप्पाओगउकस्सगं अणुभागं पबंधो तस्स उक्क० बड्डी । उक्क० हाणी कस्स ? यो तप्पा ओंगउक्कस्सगं अणुभागं बंधमाणो सागारक्खएण पडिभग्गो तप्पा ओंग्गजहण्णए पदिदो तस्स उक्क० हाणी । तस्सेव से काले उक्क० अवडाणं । णिरयाउग० उक्क० वड्डी कस्स ? यो तप्पाऔग्गजहण्णगादो संकिलेसादो तप्पाअग्गउकस्ससंकिलेसं गदो तदो उक्क • अणुभागं पबंधो तस्स उ० वड्डी । उक्क० हाणी क० १ यो उक्क० अणुभा० बंधमाणो सागारक्खरण पडिभग्गो तप्पाऔग्गजहण्णए पदिदो तस्स उ० हाणी । तस्सेव से काले उक्क० अवहाणं । तिण्णिआउ०- आदा० उ० वड्डी' क० १ यो तप्पाऔग्गजहणगादो विसोधीदो उक्कस्सविसोधिं गदो तदो तप्पा ओंगउक्क० अणुभागं पबंधो तस्स उक्क० वड्डी । उ० हा० क० ? यो तप्पाऔग्गउकस्सगं अणुभागं बंधमाणो सागारक्खण पडिभग्गो तप्पाऔग्गजहण्णए पदिदो तस्स उ० हाणी । तस्सेव से काले उक्क० अवद्वाणं । णिरयग० - असंप० - णिरयाणु० - अप्पस ०बड्डी क० ? यो चट्ठा० यवमज्झ० उवरिं अंतोकोडा० बंधमाणो उकस्ससंकिलेसेण उक्कस्सयं दाहं गदो तदो उक्कस्सअणुभागबंधो तस्स उक्क० वड्डी । उ० हाणी कस्स यो उक्क० अणुभागं बंधमाणो सागारक्खएण पडिभग्गो तप्पाऔग्गजहणए पदिदो तस्स उक्क० हाणी । तस्सेव से काले उक्क० अवडाणं । मणुसगदि
- दुस्स०
उक्क०
वृद्धिको प्राप्त होकर तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामोंके द्वारा तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संशरूप परिणामोंको प्राप्त होकर तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करता है, वह उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है । उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जो जीव साकार उपयोगके क्षय होनेसे निवृत्त होकर तत्प्रायोग्य जघन्य अनुभागबन्ध करता है वह उत्कृष्ट हानिका स्वामी है । तथा उसीके तदनन्तर समय में उत्कृष्ट अवस्थान होता है । नरकायुकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? जो तत्प्रायोग्य जघन्य संक्केशसे तत्त्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होकर उत्कृष्ट अनुभागबन्ध कर रहा है वह नरकायुकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है । उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? जो उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला साकार उपयोगका क्षय होनेसे प्रतिभग्न होकर तत्प्रायोग्य जघन्य अनुभागबन्ध कर रहा है वह उत्कृष्ट हानिका स्वामी है तथा उसीके तदनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है । तीन आयु और आतपकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? जो तत्प्रायोग्य जघन्य विशुद्धि से तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट विशुद्धिको प्राप्त होकर उत्कृष्ट अनुभागबन्ध कर रहा है वह उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है । उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करनेवाला जो जीव साकार उपयोगका क्षय होनेसे प्रतिभग्न होकर तत्प्रायोग्य जघन्यको प्राप्त हुआ है वह उत्कृष्ट हानिका स्वामी है । तथा उसीके तदनन्तर समय में उत्कृष्ट अवस्थान होता है । नरकगति, असम्प्राप्तासृपाटिकासंहनन, नरकगत्यानुपूर्वी, अप्रशस्त विहायोगति और दुःस्वरकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? जो चतु:स्थानिक यवमध्यके ऊपर अन्तःकोड़ाकोडीप्रमाण स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव उत्कृष्ट संक्लेशके द्वारा उत्कृष्ट दाहको प्राप्त होकर उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करता है वह उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है । उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? जो उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव साकार उपयोगका क्षय होनेसे प्रतिभग्न होकर तत्प्रायोग्य जघन्यको प्राप्त हुआ है वह उत्कृष्ट हानिका स्वामी है | तथा उसीके तदनन्तर समय में उत्कृष्ट अवस्थान होता है । मनुष्यगतिपञ्चककी उत्कृष्ट १. ता० प्रतौ श्रदाउजो० उ० वड्डी, आ० प्रतौ प्रादाउजो० वड्डी इति पाठः ।
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३२८
महाबंधेअणुभागबंधाहियारे पंचग० उक्क० वड्डी कस्स ? यो जहण्णगादो विसोधीदो उकस्सगं विसोधिं गदो तदो उक्क० अणु० पबंधो तस्स उक्क० वड्डी । उक्क० हाणी कस्स ? यो उक्कस्सं अणुभा० बंधमाणो सागारक्खएण पडिभग्गो तप्पाओग्गजह० पडिदो तस्स उक्क० हाणो । तस्सेव से काले उक्क० अवहाणं । देवग०-उ०-आहार-वेउ०-आहार० अंगो०-देवाणु० उक्क० वड्डी क० ? अण्ण. खवग० अपुव्वकरणपरभवियणामाणं बंधचरिमे वट्टमाणगस्स तस्स उक० वड्डी । उक० हाणी कस्स ? उवसामयस्स परिवदमाणयस्स परभवियणामाणं दुसमय०बंधगस्स उक्क० हाणी । उ० अवहा० क० ? अण्ण० अप्पमत्त० अखवग० अणुवसामयस्स सागार-जागार० सव्वविसुद्धस्स अंतोमुहुत्तं अणंतगुणाए सेढीए वड्डिदूण अवहिदस्स तस्स उक्क० अवट्ठाणं । पंचिं०-तेजा०-क०समच०-पसत्थ०४-अगु०३-पसत्थ०-तस०४-थिरादिपंच०-णिमि०-तित्थ० उक० बड्डी कस्स ? अण्ण० खवग० अपुव्वकर० परभवियणामाणं बंधचरिमे वट्टमाणसम्म तस्स उक० वड्डी । उक्क० हाणी कस्स ? यो उवसामाणं से काले परभवियणाण अबंधगो होहिदि ति तदो तप्पाओग्गजहण्णए पदिदो तस्स उक्क० हाणी । उक० अवट्ठाणं सादभंगो। उजो० उक्क० वड्डी क० ? अण्ण० सत्तमाए पुढवीए णेरइगस्स मिच्छादिहिस्स सव्वाहि पजत्तीहि पजत्तगदस्स सागार-जा० सव्वविसु० अणियट्टिकरणे वट्टमाणगस्स से काले सम्मत्तं पडिवजिहिदि ति तस्स उक्क. वड्डी । उक्क०
वृद्धिका स्वामी कौन है ? जो जघन्य विशुद्धिसे उत्कृष्ट विशुद्धिको प्राप्त होकर उत्कृष्ट अनुभागबन्ध कर रहा है वह उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है। उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? जो उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव साकार उपयोगका क्षय होनेसे प्रतिभन्न होकर तत्प्रायोग्य जघन्यको प्राप्त हुआ है वह उत्कृष्ट हानिका स्वामी है। तथा उसीके तदनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है । देवगति, वैक्रियिकशरीर, आहारकशरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, आहारकभाङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वीकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? अन्यतर जो क्षपक अपूर्वकरणमें परभवसम्बन्धी नामकर्मकी प्रकृतियोंके बन्धके अन्तिम समयमें अवस्थित है वह उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है। उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है? गिरनेवाला जो उपशामक परभवसम्बन्धी नामकर्मकी प्रकृतियोंके बन्धके द्वितीय समयमें स्थित है वह उत्कृट हानिका स्वामी है । उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी कौन है ? अक्षपक और अनुपशामक तथा साकार-जागृत और सर्वविशुद्ध अन्यतर जो अप्रमत्तसंयत जीव अन्तर्मुहूर्त काल तक अनन्तगुणी श्रेणिरूपसे वृद्धिको प्राप्त होकर अवस्थित है वह उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी है । पञ्चेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि पाँच, निर्माण और तीर्थङ्करकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? जो अन्यतर क्षपक जीव अपूर्वकरणमें नामकर्मकी परभवसम्बन्धी प्रकृतियोंके बन्धके अन्तिम समयमें अवस्थित है वह उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है। उत्कृट हानिका स्वामी कौन है ? जो उपशामक अनन्तर समयमें नामकर्मकी परभवसम्बन्धी प्रकृतियोंका अबन्धक होगा कि इसी बीच में तत्प्रायोग्य जघन्यको प्राप्त हुआ है वह उत्कृष्ट हानिका स्वामी है। उत्कृष्ट अवस्थानका भंग सातावेदनीयके समान है। उद्योतकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? मिथ्यादृष्टि, सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त, साकार-जागृत और सर्वविशुद्ध जो अन्यतर सातवीं पृथिवीका नारकी जीव
अनिवृत्तिकरणमें रहते हुए तदनन्तर समयमें सम्यक्वको प्राप्त होनेवाला है वह उत्कृष्ट वृद्धिका
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पदणिक्खेवे सामित्तं
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हाणी कस्स ? अण्ण० सत्तमाए पुढवीए णेरइगस्स मिच्छादिट्ठिस्स सव्वाहि पज० पजत्तग० तप्पाऔग्गउक्कस्सिगादो विसोधीदो पडिभग्गो तप्पाऔग्गजहण्णए पदिदो तस्स उक्क० हाणी । तस्सेव से काले उकस्सगमवट्ठाणं ।
५६५. आदेसेण णेरइएसु पंचणा० - णवदंस० - असाद० - मिच्छ० - सोलसक०पंचणोक०-तिरिक्ख ०-हुंड० - असंपत्त ० - अप्पसत्थवण्ण०४ - तिरिक्खाणु० - उप० - अप्प - सत्थ०-अथिरादिछ०-णीचा ० - पंचंत० उक० वड्डी क० ? यो चदुट्ठा०यवमज्झस्स उवरिं अंतोकोडा कोडिट्ठिदिं बंधमाणो अंतोमुहुत्तं अनंतगुणाए सेढीए वडिदूण उक्कस्सगं दाहं गदो तदो उक्क० अणुभागं पबंधो तस्स उक्क० वड्ढी । उक्क० हाणी कस्स ? यो उक० अणु० बंधमाणो सागारक्खएण पडिभग्गो तप्पा० जहण्णए पदिदो तस्स उक्क० हाणी । तस्सेव से काले उक्क० अवट्ठाणं । साद० - मणुस ० - पंचिंदि० - ओरा० -तेजा०समच० - ओरा० अंगो० – वजरि० - पसत्थ ०४ - मणुसाणु ० - अगु०३ -- पसत्थ ० --तस०४थिरादिछ०-णिमि०-तित्थ० उच्चा० उक्क० वड्डी हाणी अवट्ठाणं च ओघं मणुसगदिभंगो । इत्थ० - पुरिस०-दो आउ० चदुसंठा० - चंदुसंघ० -उजो० ओघभंगो । हस्स -रदि० इत्थवेदभंगो । [ एवं ] सत्तमाए । उवरिमासु छसु उजो० तिरिक्खाउ भंगो । सेसमेसेव' ।
०-क०
स्वामी है । उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? मिथ्यादृष्टि और सब पर्याप्तियों से पर्याप्त जो अन्यतर सातवीं पृथिवीका नारकी जीव तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट विशुद्धिसे प्रतिभग्न होकर तत्प्रायोग्य जघन्य विशुद्धिको प्राप्त हुआ है वह उत्कृष्ट हानिका स्वामी है और वही तदनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी है ।
-
५६५. आदेशसे नारकियोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, तिर्यञ्चगति, हुण्डसंस्थान, असम्प्राप्तासृपाटिकासंहनन, अप्रशस्तवर्णचतुष्क, तिर्यचगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, अस्थिर आदि छह, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? चतुःस्थानिक यवमध्यके ऊपर अन्तःकोड़ाकोड़ी प्रमाण स्थितिका बन्ध करनेवाला जो जीव अन्तर्मुहूर्त तक अनन्तगुणित श्रेणिक्रमसे वृद्धिको प्राप्त होता हुआ उत्कृष्ट दाइको प्राप्त होकर उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है वह उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है । उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जो जीव साकार उपयोगका क्षय होनेसे प्रतिभग्न होकर तत्प्रायोग्य जघन्यको प्राप्त हुआ है वह उत्कृष्ट हानिका स्वामी है। तथा वही अनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी है । सातावेदनीय, मनुष्यगति, पचेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्र संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण, तीर्थङ्कर और उच्चगोत्रकी उत्कृष्ट वृद्धि, हानि और अवस्थानके स्वामीका भङ्ग ओघसे मनुष्यगतिके समान है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद, दो आयु, चार संस्थान, चार संहनन और उद्योतका भङ्ग ओघके समान है । हास्य और रतिका भङ्ग स्त्रीवेद के समान है। इसी प्रकार सातवीं पृथिवीमें जानना चाहिए । पहलेकी छह पृथिवियों में उद्योतका भङ्ग तिर्यश्वायुके समान है । शेष पूर्वोक्त प्रकार ही है ।
१. श्र० प्रतौ सेसमेवमेव इति पाठः ।
४२
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ५६६. तिरिक्वेसु पंचणा०-णवदंस०-असादा०-मिच्छ०-सोलसक०-पंचणोक०णिरय०-हुंड०-अप्पसत्थ०४-णिरयाणु०-उप०-अप्पसत्थ०-अथिरादिछ०-णीचा०-पंचंत. तिण्णि वि णेरइयभंगो। सादा०-देवग०-पसत्थसत्तावीसं उच्चा० तिणि वि ओरइयसादभंगो । इत्थि०-पुरिस-हस्स-रदि-तिरिक्ख०-चदुजादि-चदुसंठा०-पंचसं०-तिरिक्खाणु०थावरादि०४ ओघं इत्थिभंगो। चदुआउ०-आदावं ओघं। मणुसगदिपंचग-उजो० तिरिक्खाउभंगो। अथवा बादरतेउ०-वाउ० उजो० उक्क० वड्डि-हाणि-अवहाणं यदि कीरदि तेसिं सादभंगो तिण्णि वि । एवं पंचिंदियतिरिक्ख०३ । णवरि' उजो० तिरिक्खाउभंगो।
५६७. पंचिंदि तिरि०अप० पंचणा०-णवदंस०-असादा-मिच्छ०-सोलसक०पंचणोक०-तिरिक्ख०- एइंदि०-हुंड०-अप्पसत्थ०४-तिरिक्खाणु०-उप०-थावर०४अथिरादिपंच-णीचा०-पंचंत० उक्क० वड्डी क. ? यो तप्पाओग्गजह०संकिलेसादो उक्क० संकिलेसं गदो तदो उक्क० अणुभा० बंधो तस्स उक्क० वड्डी । उक्क० हाणी कस्स० ? यो उक्क० अणुभा० बंधमाणो सागारक्खएण पडिभग्गो तस्स उक्क. हाणी। तस्सेव से काले उक्क० अवट्ठाणं । सादा०-मणुस-पंचिं०-ओरा०-तेजा०-क०-समचदु०-ओरा० अंगो०-वजरि०-पसत्थ०४-मणुसाणु०-अगु०३-पसत्य-तस०४-थिरादिछ०-णिमि०-उच्चा०
५६६. तिर्यञ्चोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, नरकगति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, नरकगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, अस्थिर आदि छह, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके तीनों ही पदोंका भङ्ग नारकियोंके समान है। सातावेदनीय एक, देवगति आदि प्रशस्त सत्ताईस प्रकृतियाँ और उच्चगोत्रके तीनों ही पदोंका भङ्ग नारकियोंके सातावेदनीयके समान है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, तिर्यश्चगति, चार जाति, चार संस्थान, पाँच संहनन, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी और स्थावर आदि चारका भङ्ग ओघसे स्त्रीवेदके समान है। चार आयु और आतपका भङ्ग ओघके समान है। मनुष्यगतिपश्चक और उद्योतका भङ्ग तिर्यश्चायुके समान है। अथवा बादर अनिकायिक और बादर वायुकायिक जीव उद्योतकी उत्कृष्ट वृद्धि, हानि और अवस्थानको यदि करता है,तो इनके तीनों ही पदोंका भङ्ग सातावेदनीयके समान है। इसी प्रकार पश्चन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें उद्योतका भङ्ग तिर्यश्चायुके समान है।
५६७. पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, हुण्ड संस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी, उपघात, स्थावर चतुष्क, अस्थिर आदि पाँच, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? जो तत्प्रायोग्य जघन्य संक्लेशसे उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होकर उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करता है वह उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है। उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जो जीव साकार उपयोगका क्षय होनेसे प्रतिभान हुआ है वह उत्कृष्ट हानिका स्वामी है। तथा वही अनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी है । सातावेदनीय, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराचसंहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क,
१. ता० प्रतौ यदि किरे ( कोर) दि तेसि पि सादभंगो। तिण्णि वि एवं पंचिंदियतिरिख । ३णवरि इति पाटः।
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पदणिक्खेवे सामित्तं
३३१
उक०
उक्क० वड्डी कस्स ? यो जह० विसोधीदो उक्क० विसोधिं गदो तदो उक्क० अणु० पबंधो तस्स वड्डी । उक्क० हाणी क० ? यो उक्क० अणुभा० बंधमाणो सागारक्खएण पडिभग्गो तप्पाॲग्गजह० पदिदो तस्स उक्क० हाणी । तस्सेव से काले उक्क० अवट्ठाणं । इथि० - पुरिस० - हस्स-रदि- तिण्णिजा ० चदुसंठा० - पंचसंघ० - अप्पसत्थ० - दुस्सर० तिष्णि वि णाणावरणभंगो। णवरि तप्पाऑगसंकिलिडो कादव्वो । दोआउ० - आदाव० ओघं । उजो० तिरिक्खाउभंगो । एवं सव्वअपजत्तगाणं एइंदि० - विगलिं० पंचकायाणं च । वरि एइंदिए तेउ वाउकाइएस उज्जो० सादभंगो ।
५६८. मणुस ० ३ खवियाणं वड्डि-अवहाणं ओघं देवगदिभंगो । सेसं पंचिंदि ० तिरि०भंगो ।
५६९. देवेसु पंचणा०—णवदंस० - असादा० - मिच्छ० - [ सोलसक० - ] पंचणोक०तिरिक्ख० - एइंदि० - हुंड० - असंप ०० - अप्पसत्थ०४ - तिरिक्खाणु० उप० - अप्पसत्थ ० -थावर ०अथिरादिछ० - णीचा० - पंचंत० पोरइगभंगो । सेसाणं पि रहगभंगो । णवरि आदाउ जो० तिरिक्खाउभंगो । भवण ० - वाणवें ० - जोदिसि ० -सोधम्मी० पंचणा० णवदंस० - असादा०मिच्छ०-सोलसक० - पंचणोक० - तिरि० - एइंदि० - हुंड ० - अप्पसत्थ ०४ - तिरिक्खाणु० - उप०थावर - अथिरादिछ०-णीचा ० - पंचत० तिष्णि वि देवोघं । सेसाणं पि देवभंगो | णवरि
O
मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण और उच्चगोत्रकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? जो जघन्य विशुद्धि से उत्कृष्ट विशुद्धिको प्राप्त होकर उत्कृष्ट अनुभागबन्ध कर रहा है वह उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है । उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जो जीव साकार उपयोगका क्षय होनेसे प्रतिभग्न होकर तत्प्रायोग्य जघन्यको प्राप्त हुआ है वह उत्कृष्ट हानिका स्वामी है। तथा वही अनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, तीन जाति, चार संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति और दुःस्वरके तीनों ही पदोंका भंग ज्ञानावरणके समान है । इतनी विशेषता है कि तत्प्रायोग्य संक्लिष्टके कहना चाहिए। दो आयु और आतपका भंग ओघके समान है । उद्योतका भंग तिर्यवायुके समान है। इसी प्रकार सब अपर्याप्त, एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और पाँच स्थावरकायिक जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि एकेन्द्रिय, अभिकायिक और वायुकायिक जीवोंमें उद्योतका भंग सातावेदनीयके समान है ।
५६८. मनुष्यत्रिमें क्षपक प्रकृतियोंकी वृद्धि और अवस्थानका भंग ओघसे देवगतिके समान है । शेष भंग पन्द्रिय तिर्योंके समान है ।
५६९. देवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, असम्प्राप्तासृपाटिकासंहनन, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, अस्थिर आदि छह, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका भंग नारकियोंके समान है। शेष प्रकृतियोंका भंग भी नारकियोंके समान है । इतनी विशेषता है कि आतप और उद्योतका भंग तिर्यखायुके समान है । भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और सौधर्म - ऐशान कल्पके देवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यगत्यानुपूर्वी, उपघात, स्थावर, अस्थिर आदि छह, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके तीनों ही पदोंका भंग सामान्य देवोंके समान है।
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महायंघे अणुभागबंधाहियारे असं०-अप्पसत्थ०-दुस्स० इत्थिभंगो । सणक्कुमार याव सहस्सार त्ति पढमपुढविभंगो। आणद याव उवरिमगेवजा त्ति पंचणा०-णवदंसणा०-असादा०-मिच्छ०-सोलसक०पंचणोक०-हुंड०-असंप०-अप्पसत्थ०४-उप०-अप्पसत्थ०-अथिरादिछ०-णीचा०पंचंत० उक्क० वड्डी कस्स० ? यो तप्पाओग्गजहण्णगादो संकिलेसादो उक्क. संकिलेसं गदो तदो उक्क० अणु० पबंधो तस्स उक्क० वड्डी । उक्क० हाणी क० १ यो उक० अणुभा०बंधमाणो सागारक्खएण पडिभग्गो तप्पाऑग्गजह० पडिदो तस्स उक. हाणी । तस्सेव से काले उक्क० अवट्ठाणं । साददंडओ णिरयभंगो। इत्थिवेददंडओ पंचिंतिरि०अपज भंगो। [मणुसाउ० देवोघं । ] अणुदिस याव सव्वट्ठ ति पंचणा०-छदंस०-असादा०-बारसक०-पुरिस०-अरदि-सोग-भय-दु०-अप्पसत्थवण्ण०४उप०-अथिर-असुभ-अजस०-पंचंत० उक्क० वड्डी कस्स ? यो जह० संकि० उक० संकिलेसं गदो तदो उक्क० अणु० पबंधो तस्स उक्क० वड्डी। उक्क० हा० क० ? यो उक० अणु० बंधमाणो सायारक्खएण पडिभग्गो तप्पाऑग्गजह० पदिदो तस्स उक्क० हाणी । तस्सेव से काले उक्क० अवहाणं । साददंडओ देवोघं । हस्स-रदि० उक्क. वड्डी क० १ यो तप्पाऑग्गजह० अणुभागं बंधमाणो तप्पाओ० जह० संकिलेसादो तप्पा० उक्क. संकिलेसं गदो तप्पाओ० उक्क० अणुभागबंधो तस्स उक० वड्डी ।
शेष प्रकृतियोंका भंग भी समान्य देवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, अप्रशस्त विहायोगति और दुःस्वरका भंग स्त्रीवेदके समान है। सनत्कुमारसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देवोंमें प्रथम पृथिवीके समान भंग है। आनतकल्पसे लेकर उपरिम अवेयक तकके देवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, हुण्डसंस्थान, असम्प्राप्तामृपाटिकासंहनन, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, अस्थिर आदि छह, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? जो तत्प्रायोग्य जघन्य संक्लेशसे उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होकर उत्कृष्ट अनुभागबन्ध कर रहा है वह उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है। उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जो जीव साकार उपयोगका क्षय होनेसे प्रतिभन्न होकर तत्प्रायोग्य जघन्यको प्राप्त हुआ है वह उत्कृष्ट हानिका स्वामी है। तथा वही अनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी है। सातावेदनीयदण्डकका भंग नारकियोंके समान है। स्त्रीवेददण्डकका भंग तिर्यत्र अपर्याप्तकोंके समान है। मनुष्यायुका भंग सामान्य देवोंके समान है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, असातावेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, अस्थिर, अशुभ, अयश:कीर्ति और पाँच अन्तरायको उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? जो जघन्य संक्लेशसे उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होकर उत्कृष्ट अनुभागबन्ध कर रहा है वह उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है। उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जो साकार उपयोगका क्षय होनेसे प्रतिभन्न होकर तत्प्रायोग्य जघन्यको प्राप्त हुआ है वह उत्कृष्ट हानिका स्वामी है तथा वही अनन्तर समयमें उकृष्ट अवस्थानका स्वामी है। सातावेदनीय दण्डकका भंग सामान्य देवोंके समान है। हास्य और रतिकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? तत्प्रायोग्य जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जो जीव तत्प्रायोग्य जघन्य संक्लेशसे तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होकर
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पदणिक्खेवे सामितं
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उ० हा० क० ? यो तप्पा० उक्क० अणु० बंधमाणो सागारक्णएण पडिभग्गो तप्पा० जह० पदिदो तस्स उक्क० हाणी । तस्सेव से काले उक्क० अवद्वाणं । मणुसाउ • ओघं ।
५७०. पंचि ० -तस०२ ओघभंगो । णवरि पंचणा० दंडओ उक्क० वड्डी ओघं० । हाणी अवद्वाणं सागरक्खएण पडिभग्गो ति भाणिदव्वं । पंचमण० - पंचवचि० खविगाणं पगदीणं मणुसिभंगो | सेसं पंचिं० भंगो । कायजोगि० ओघं । ओरालि० मणुसभंगो । वरि उज• तिरिक्ख० भंगो । ओरालियमि० पंचणाणावरणादिसंकिलिट्ठपगदीणं उक्क० बड्डी क० १ यो से काले सरीरपत्ती जाहिदि ति जहण्णगादो संकिलेसादो उकस्सगं संकिलेस गदो तदो उक्क० अणु० पबंधो तस्स उ० वड्डी । उ० हा० क० १ यो उ० अणु० बंधमाणो दुसमयसरीरपञ्जत्तिं जाहिदि ति सागारक्खएण पडिभग्गो तस्स उ० हाणी । तस्सेव से काले उक्क० अवद्वाणं । सादादीणं सव्वविसुद्धाणं उक्क० वड्ढी क० ? यो जहण्णगादो विसोधीदो उक्क० विसोधिं गदो तदो से काले सरीरपति जाहिदि ति उक्क० अणु पबंधो तस्स उक्क ० वड्ढी । एवं सेसाणं पि तप्पाऑगसंकिलठाणं तप्पाऔग्गाविसुद्धाणं च एसेव आलावो कादव्वो । एवं वेउव्वियमि०आहारमिस्साणं पि । णवरि अप्पप्पणो पगदीओ कादव्वाओ । वेउव्वि० देवोघं ।
तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट अनुभागबन्ध कर रहा है, वह उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है । उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करनेवाला जो जीव साकार उपयोगका क्षय होनेसे प्रतिभग्न होकर तत्प्रायोग्य जघन्यको प्राप्त हुआ है वह उत्कृष्ट हानिका स्वामी है तथा वही अनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी है । मनुष्यायुका भंग ओघके समान है ।
५७०. पचेन्द्रियद्विक और सद्विक जीवोंमें ओघके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि पाँच ज्ञानावरणदण्डककी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी ओघके समान है । हानि और अवस्थान जो साकार उपयोगसे प्रतिभग्न हुआ है उसके कहना चाहिए । पाँचों मनोयोगी और पाँचों वचनयोगी जीवोंमें क्षपक प्रकृतियोंका भंग मनुष्यनियोंके समान है। शेष भंग पचेन्द्रियों के समान है। काययोगी जीवोंमें ओघके समान भंग है । औदारिककाययोगी जीवोंमें मनुष्यिनियोंके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि उद्योतका भंग तिर्यखोंके समान है । औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरणादि संक्लिष्ट प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? जो तद्नन्तर समयमें शरीर पर्याप्तिको प्राप्त होगा कि इसके पूर्व समयमें जघन्य संक्लेशसे उत्कृष्ट को प्राप्त होकर उत्कृष्ट अनुभागबन्ध कर रहा है वह उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है । उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? उत्कष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जो जीव दो समय में शरीर पर्याप्तिको प्राप्त होगा कि शरीर पर्याप्तिके समयसे दो समय पूर्व साकार उपयोगका क्षय होनेसे प्रतिभग्न हुआ है वह उत्कृष्ट हानिका स्वामी है तथा वही अनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी है । सातावेदनीय आदि सर्वविशुद्ध प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? जो जघन्य विशुद्धिसे उत्कृष्ट विशुद्धिको प्राप्त होकर अगले समयमें शरीरपर्याप्तिको प्राप्त होगा कि. शरीरपर्याप्ति समयसे पूर्व समयमें उत्कृष्ट अनुभागबन्ध कर रहा है वह उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है । इसी प्रकार शेष प्रकृतियोंका भी तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट और तत्प्रायोग्य विशुद्ध जीवोंके यही आलाप करना चाहिए। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंके भी जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी प्रकृतियाँ करनी चाहिए । वैक्रियिक
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे णवरि उजो० सत्तमभंगो । आहार० सव्वट्ठभंगो ।
५७१. कम्मइ० पंचणा०-णवदं०-असादा'.-मिच्छ०-सोलसक०-पंचणोक० तिरिक्ख'०-एइंदि०-हुंड०-असंप०-अप्पसत्थवण्ण०४-तिरिक्खाणु०-उप०-अप्पसत्य०थावरादि०४-अथिरादिछ०-णीचा०-पंचंत० उक्क० वड्ढी क० ? यो जहण्णगादो संकिलेसादो उक० संकिलेसं गदो तदो उक० अणुभा० पबंधो तस्स उक्क० वड्ढी । उक्क० हा० क० ? यो उक्क० अणुबंधमाणो सागारक्खएण पडिभग्गो तस्स उक्क० हाणी। उक्क० अवट्ठाणं क० ? अण्ण० बादरएइंदियस्स उक्कस्सिया हाणि कादण अवट्ठिदस्स तस्स उ० अवट्ठाणं । सादादीणं पसत्थाणं पगदीणं मणुसगदिपंचग० उक्कस्सवढि-हाणी देवोघं । उक्क० अवट्ठाणं णाणावरणभंगो। देवगदिपंचग० अवट्ठाणं णत्थि । सेसाणं तप्पाऑग्गसंकिलिट्ठाणं तप्पाओग्गविसुद्धाणं च एसेव आलावो कादव्यो। णवरि तप्पाऑग्यसंकिलिट्ठ-तप्पाओग्गविसुद्ध त्ति भाणिदव्वं । एवं अणाहार ।
५७२. इत्थिवेदे पंचणा०-णवदंस०-असादा०-मिच्छ०-सोलसक०-पंचणोक०णिरय-तिरिक्ख०-एइंदि०-हुंड-अप्पस०४-दोआणु उप०-अप्पसत्थ०-थावर०अथिरादिछ०-णीचा०-पंचंत० उक्क० वड्ढी हाणी अवहाणं ओघं णिरयगदिभंगो। सादा०-जस०-उच्चा० उक्क० वड्ढी क० ? अण्ण० खवग० अणियट्टिबादरसांपराइगस्स काययोगी जीवोंमें सामान्य देवोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि उद्योतका भंग सातवीं पृथिवीके समान है। आहारककाययोगी जीवोंका भंग सर्वार्थसिद्धिके समान है।
५७५. कार्मणकाययोगी जीवोंमें पाच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, तियश्चगति, एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, असम्प्राप्तासृपाटिकासंहनन, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर आदि चार, अस्थिर आदि छह, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? जो जघन्य संक्लेशसे उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होकर उत्कृष्ट अनुभागबन्ध कर रहा है वह उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है। उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जो जीव साकार उपयोगका क्षय होनेसे प्रतिभग्न हुआ है वह उत्कृष्ट हानिका स्वामी है। उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी कौन है ? जो अन्यतर बादर एकेन्द्रिय जीव उत्कृष्ट हानि करके अवस्थित है वह उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी है। सातावेदनीय आदि प्रशस्त प्रकृतियोंके और मनुष्यगतिपञ्चककी उत्कृष्ट वृद्धि और हानिका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। उत्कृष्ट अवस्थानका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। देवगतिपश्चकका अवस्थानपद नहीं है। शेष प्रकृतियोंका तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट और तत्प्रायोग्य विशुद्ध जीवोंके यही आलाप करना चाहिए । इतनी विशेषता है कि तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट और तत्प्रायोग्य विशुद्ध ऐसा कहना चाहिए। इसी प्रकार अनाहारक जीवोंमें जानना चाहिए ।
५७२. स्त्रीवेदी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौदर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, नरकगति, तिर्यश्चगति, एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, दो आनुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, अस्थिर आदि छह, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायकी उत्कृष्ट वृद्धि, हानि और अवस्थानका भङ्ग ओघसे नरकगतिके समान है । सातावेदनीय, यशःकीर्ति और उच्चगोत्रकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? जो अन्यतर क्षपक जीव
१. ता. प्रतौ णवदंस० सादा० इति पाठः । २. श्रा. प्रतौ सोलसक० तिरिक्ख० इति पाठः ।
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पदणिक्खेवे सामित्तं
चरिमे उक्कस्सए अणुभागबंधे वट्टमाणगस्स तस्स उक्क० वड्ढी । उक्क० हाणी क.? अण्ण० उवसाम० परिवद० अणियट्टिबादर०दुसमयं बंध० उ० हा० । अवट्ठाणं ओघं । सेसाणं पि खविगाणं मणुसि भंगो। सेसाणं पगदीणं पंचिंतिरि०भंगो। उज्जो० आदावभंगो।
५७३. पुरिसेसु साद०-जस०-उच्चा० उक्क० वड्ढी अवट्ठा० इत्थिभंगो । उ० हा० क० ? यो उवसम अणियट्टी से काले अबंधगो होहिदि ति मदो देवो जादो तस्स उ० हाणी । सेसं पंचिंदियपज्जत्तभंगो । णवरि तिरिक्खाउभंगो।
५७४. गqसगे पंचणा०-णवदंस०-असादा०-मिच्छ०-सोलसक०-पंचणोक०णिरयग०-तिरिक्ख०-हुंड०-असंप०-अप्पसत्थ०४-दोआणु०-उप०-अप्पसत्थ०-अथिरादिछ०-णीचा०-पंचंत० तिण्णिपदा ओघं णिरयगदिभंगो। खविगाणं इत्विभंगो। इत्थिवेददंडओ चदुजादीए घेप्पदि । उजो० ओघं । सेसं इत्थिभंगो।
५७५. अवगद० अप्पसत्थाणं उक्क० वड्ढी क० ? अण्ण उवसा० परिवद० अणिय० दुचरिमे' बंधादो चरिमे अणुभागबंधे वट्टमाणस्स से काले सवेदो होहिदि ति तस्स उ० वड्ढी । उक० हा० क० ? अण्ण खवग० अणिय० पढमादो अणुभागवंधादो विदिए अणुभा० वट्टमा० तस्स० उ० हाणी। साद०-जस०-उच्चा० उक्क० भनिवृत्ति बादरसाम्परायके अन्तिम उत्कृष्ट अनुभागबन्धमें अवस्थित है वह उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है। उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? जो गिरनेवाला अन्यतर उपशामक जीव अनिवृत्तिकरण बादर साम्परायके द्वितीय समयमें बन्ध कर रहा है वह उत्कृष्ट हानिका स्वामी है। उत्कृष्ट अवस्थानका भङ्ग ओघके समान है। शेष क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग भी मनुष्यिनियोंके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तियश्चोंके समान है। उद्योतका भङ्ग आतपके समान है।
५७३. पुरुषवेदी जीवोंमें सातावेदनीय, यशःकीर्ति और उच्चगोत्रको उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थानका भङ्ग स्त्रीवेदी जीवोंके समान है। उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? जो उपशामक अनिवृत्तिकरण जीव अनन्तर समयमें अबन्धक होगा कि अबन्धक होनेके पूर्व समयमें मरकर देव हो गया वह उत्कृष्ट हानिका स्वामी है। शेष भङ्ग पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि तिर्यश्चायुके समान भङ्ग है।
५७४. नपुंसकवेदी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, नरकगति, तिर्यश्चगति, हुण्डसंस्थान, असंम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, दो आनुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, अस्थिर आदि छह, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके तीन पदोंका भङ्ग ओघसे नरकगतिके समान है। क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग स्त्रीवेदी जीवोंके समान है । स्त्रीवेददण्डकको चार जातियोंके साथ ग्रहण करना चाहिए । उद्योतका भङ्ग ओघके समान है। शेष भङ्ग स्त्रीवेदी जीवोंके समान है।
५७५. अपगतवेदी जीवोंमें अप्रशस्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? जो गिरनेवाला अन्यतर उपशामक अनिवृत्तिकरण जीव द्विचरम समयमें होनेवाले बन्धसे अन्तिम समयमें होनेवाले अनुभागबन्धमें अवस्थित है और जो अगले समयमें सवेदी होगा वह उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है । उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? जो अन्यतर अनिवृत्तिकरण क्षपक प्रथम अनुभागबन्धसे द्वितीय अनुभागबन्धमें विद्यमान है वह उत्कृष्ट हानिका स्वामी है। साता
१. श्रा. प्रतौ परिवद० दुचरिमे इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे वड्ढी ओघं । उ० हा० क० १ अण्ण० उवसाम० परिवद० सुहुमसं० दुसमयबंधगस्स तस्स उ० हा० । एवं सुहुमसंपराइ ।।
५७६. कोधादि०४ ओघं । णवरि सादा०-जस०-उच्चा० उक० वड्ढी अवहाणंओषं । उ० हा० क० ? अण्ण० यो उवसाम० कोधसंजलणाए से काले अबंधगो होहिदि त्ति मदो देवो जादो तप्पाऑग्गजह० पदिदो तस्स उक्क० हाणी । एवं माणे मायाए । लोमे ओघं।
५७७. मदि-सुदे पढमदंडओ हस्स-रदिदंडओ ओघं । सादा० देवगदिपसत्यसत्तावीसं उचा० उक्क० वड्ढी क० ? अण्ण० मणुसस्स सागार-जागार० सव्वविसुद्ध० संजमाभिमुहस्स चरिमे समए उक्कस्सगे अणुभागबंधे वट्टमाणस्स तस्स उ० वड्ढी । उ० हाणी क० १ अण्णदरस्स संजमादो परिवदमाणगस्स दुसमयबंधगस्स तस्स उक्क० हाणी । उक्क० अवट्ठाणं क० १ यो तप्पाऑग्गउक्क० विसोधीदो सागारक्खएण पडिभग्गो तप्पाओ० जह० पदिदो तस्स उक्क० अवहाणं । एवं संजमाभिमुहाणं । मणुसगदिपंच० उक्क० वड्ढी क० १ सम्मत्ताभिमुहस्स उक्क० वड्ढी । उक्क० हाणी क० ? सम्मत्तादो परिवद० दुसमयबंध० तस्स उ० हाणी । अवट्ठाणं सादभंगो। सेसं
वेदनीय, यशःकीर्ति और उच्चगोत्रकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी ओघके समान है। उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? गिरनेवाले जिस अन्यतर उपशामकने सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें दूसरे समयमें बन्ध किया है वह उत्कृष्ट हानिका स्वामी है। इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्परायसंयतके जानना चाहिए।
५७६. क्रोधादि चार कषायवाले जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि सातावेदनीय, यश-कीर्ति और उच्चगोत्रकी उत्कष्ट वृद्धि और अवस्थानका भङ्ग ओघके समान है। उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? जो अन्यतर उपशामक क्रोधसंज्वलनके बन्धसे अनन्तर समयमें अबन्धक होगा कि मरा और देव होकर तत्प्रायोग्य जघन्यको प्राप्त हुआ वह उत्कृष्ट हानिका स्वामी है। इसी प्रकार मान और मायाकषायवाले जीवोंमें जानना चाहिए । लोभकषायवाले जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है।
५७७. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें प्रथम दण्डक और हास्य-रतिदण्डक ओघके समान है। सातावेदनीय, देवगति आदि प्रशस्त सत्ताईस प्रकृतियाँ और उच्चगोत्रकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? जो अन्यतर मनुष्य साकार-जागृत, सर्वविशुद्ध संयमके अभिमुख और उत्कृष्ट अनुभागबन्धमें अवस्थित है वह उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है। उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है? संयमसे गिरनेवाले जिस अन्यतर जीवने दो समय तक बन्ध किया है वह उत्कृष्ट हानिका स्वामी है । उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी कौन है ? जो तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट विशुद्धिसे साकार उपयोगका क्षय होनेसे प्रतिभन्न होकर जघन्यको प्राप्त हुआ है वह उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी है। इस प्रकार संयतके अभिमुख होकर उत्कृष्ट वृद्धिको प्राप्त होनेवाली प्रकृतियोंका स्वामित्व जानना चाहिए । मनुष्यगतिपञ्चककी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? सम्यक्त्वके अभिमुख हुआ जीव उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है। उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? सम्यक्त्वसे च्युत होकर जिसने दो समय तक बन्ध किया है वह उकृष्ट हानिका स्वामी है । अवस्थानका भङ्ग सातावेदनीयके
१. आ. प्रतौ कोषसंजलणा वि से इति पाठः ।
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पदणिक्खेवे सामित्तं ओघं । विभंगे पसत्थाणं मदिभंगो। सेसाणं पंचिंदियभंगो।
५७८. आभिणि-सुद०-ओधि० पंचणा०-छदंस०-असाद०-बारसक०-पुरिस० - अरदि-सोग-भय-दु०-अप्पसत्थ०४-उप०-अथिर-असुभ-अजस०-पंचंत० उक्क० वड्ढी क० १ अण्ण. असंज. सागार-जा० णियमा उक्क०संकिलिहस्स मिच्छत्ताभिमुहर चरिमे उक्क० अणुभा० वट्टमा० तस्स उक्क० वड्ढी । उक्क० हाणी क० ? यो तप्पा
ऑग्गउक्कस्सगादो संकिलेसादो पडिभग्गो तप्पाओग्गजह० पदिदो तस्स उ० हा० । तस्सेव से काले उक्क० अवट्ठाणं । हस्स-रदीणं सत्थाणे तिण्णि वि कादव्वाणि । सेसाणं
ओघं । मणपज्जवे पढमदंडओ ओधिणाणिभंगो' । णवरि असंजमाभिमुह० । एवं हस्सरदीणं पि । सेसं ओघं । एवं संजद-सामाइ०-छेदो० । णवरि सामा०-छेदो० साद०जस०-उच्चा० उक्क० वड्ढी अवहाणं ओघं । उक्क. हाणी क० १ अण्ण. उवसाम० परिवद० विदियसमयअणियट्टि०संजदाणं । सव्वाणं हाणी मणुसिभंगो । परिहार० पढमदंडओ मणपज्जवभंगो । णवरि वड्ढी सामाइय-च्छेदोवद्वावणाभिमुहस्स । सेसाणं सत्थाणं कादव्वं । संजदासंजदे पढमदंड० वड्ढी ओधि भंगो । हाणी अवहाणं सत्थाणे । साददंडओ वड्ढी संजमाभिमुह । हाणी अवट्ठाणं सत्थाणे । असंजदे समान है। शेष ओघके समान है। विभङ्गज्ञानी, जीवोंमें प्रशस्त प्रकृतियोंका भङ्ग मत्यज्ञानी जीवोंके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग पञ्चेन्द्रियोंके समान है।
५५८. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, असातावेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, अस्थिर, अशुभ, अयश कीर्ति और पाँच अन्तरायकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? जो अन्यतर असंयतसम्यग्दृष्टि साकार-जागृत है, नियमसे उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला हे और मिथ्यात्वके अभिमुख होकर अन्तिम उत्कृष्ट अनुभागबन्धमें अवस्थित है वह उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है। उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है? जो तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्शसे प्रतिभग्न होकर तत्प्रायोग्य जघन्यको प्राप्त हुआ है वह उत्कृष्ट हानिका स्वामी है। तथा वही अनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी है । हास्य और रतिके तीनों ही पद स्वस्थानमें करने चाहिए । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। मनःपर्ययज्ञानी जीवामें प्रथम दण्डकका भङ्ग अवांधज्ञा जीवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि असंयमके अभिमुख जीवके उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामित्व कहना चाहिए । इसी प्रकार हास्य और रतिका भी कहना चाहिए । शेष भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार संयत, सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंमें सातावेदनीय, यशःकीर्ति और उच्चगोत्रकी उत्कृष्ट वृद्धि और उत्कष्ट अवस्थानका भङ्ग ओघके समान है। उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है?जिस गिरनेवाले उपशामकने अनिवृत्तिकरणमें दो समय तक बन्ध किया है वह उत्कृष्ट हानिका स्वामी है। यहाँ सब प्रकृतियोंकी हानिका भङ्ग मनुष्यिनियोंके समान है। परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंमें प्रथम दण्डकका भङ्ग मनःपर्ययज्ञानी जीवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि वृद्धि सामायिक और छेदोपस्थापनासंयतके अभिमुख हुए जीवके होती है। शेष प्रक तियोंका भङ्ग स्वस्थानमें करना चाहिए । संयतासंयत जीवोंमें प्रथम दण्डककी वृद्धिका भङ्ग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है। इसकी हानि और अवस्थान स्वस्थानमें होते हैं। सातावेद
१. ता. आ. प्रत्योः ओधिविभंगो इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे पढमदंडओ ओघ । साददंडओ मदि०भंगो । णवरि असंजदसम्मादिहिस्स कादव्वा । सेसं ओघं ।
५७९. चक्खुदं० तसपजत्तभंगो। अचक्खु० ओघं । ओधिदं०-सम्मा०-खइग. ओधि भंगो । णवरि खइगे पढमदंडए वड्ढी सत्थाणे कादव्वा ।
५८०. किण्णाए पढमदंडओ णqसगभंगो। साददंडओ णिरयभंगो। इत्थि - पुरिस-हस्स-रदि-चदुजादि-पंचसंठा०-पंचसंघ०-थावरादि०४ णqसगभंगो । देवगदिपंच० उक्क० वड्डी क० ? यो तप्पा-जह विसोधिंगदो उक्क० अणु० पबंधो तस्स उक्क०वड्डी । उक० हा० क० १ यो तप्पा०उक्क०अणुभा० बंधमाणो सागारक्खएण पडिभग्गो तप्पाओ० ज. पडिदो तस्स उक्क हा० । तस्सेव से काले उक्क० अवहाणं। सेसं ओघादो साधेदव्वं ।
५८१. णील-काऊणं पढमदंडओ साददंडओ इत्थि०-पुरिस०-हस्स-रदि-चदुसंठा० चदुसंघ० णिरयभंगो। णिरय०-चदुजादि-णिरयाणु०-थावरादि०४ उक्क० वड्डी कस्स ? यो तप्पाॲग्गजह०संकिलेसादो उक्क०संकिलेसं गदो तदो उ० अणुभा० पबंधो तस्स उक्क० बड्डी । उ० हा० क० ? यो उक्क० अणुभा० बंधमाणो सागारक्खएण पडिभग्गो तप्पा० नीयदण्डककी दृद्धिका स्वामी संयमके अभिमुख हुआ जीव है। हानि और अवस्थान स्वस्थानमें होते हैं। असंयत जीवोंमें प्रथम दण्डक ओधके समान है। सातावेदनीयदण्डकका भा मत्यज्ञानी जीवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि असंयतसम्यग्दृष्टिके कहना चाहिए। शेष भङ्ग ओघके समान है। __५७९. चक्षुदर्शनवाले जीवोंमें सपर्याप्त जीवोंके समान भङ्ग है। अचक्षुदर्शनवाले जीवों में ओघके समान भङ्ग है । अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवामें अवधिज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें प्रथम दण्डकमें वृद्धि स्वस्थानमें कहनी चाहिए।
५८०. कृष्णलेश्यामें प्रथम दण्डकका भङ्ग नपंसकोंके समान है। सातावेदनीयदण्डकका भंग नारकियोंके समान है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, चार जाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन और स्थावर आदि चारका भङ्ग नपुंसकोंके समान है। देवगतिपश्चककी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? जिसने तत्प्रायोग्य विशुद्धिको प्राप्त होकर उत्कृष्ट अनुभागबन्ध किया है वह उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है। उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जो जीव साकार उपयोगका क्षय होनेसे प्रतिभग्न होकर तत्प्रायोग्य जघन्यको प्राप्त हुआ है वह उत्कृष्ट हानिका स्वामी है। तथा वही अनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी है। शेष सब ओघके अनुसार साध लेना चाहिए।
५८१. नील और कापोत लेश्यामें प्रथम दण्डक, साता दण्डक तथा स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, चार संस्थान और चार संहननका भङ्ग नारकियोंके समान है। नरकगति, चार जाति, नरकगत्यानुपूर्वी और स्थावर आदि चारकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? जिसने तत्यायोग्य जघन्य संक्लेशसे उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होकर तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट अनुभागबन्ध किया है वह उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है । उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जो
१. आ. प्रतौ संजदासजदे पढमदंडओ ओघं इति पाठः । २. ता.आ. प्रत्योः खइग० वेदग० ओधि० भंगो इति पाठः। ३. ता. प्रती णिरयभंगो। देवगदिपंच० उक्क० इथि० इति पाठः । ४. ता. प्रतौ णबुंसकभंगो। वड्डी क० इति पाठः । ५. आ. प्रतौ ओघेण इति पाठः ।
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पदणिक्खेवे सामित्तं
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जह० पदिदो तस्स उक० हाणी । तस्सेव से काले उक्क० अवद्वाणं । देवगदि ०५ किण्णभंगो । णवरि काऊए तित्थयरं णिरयभंगो । सेसं आउगादीणं ओघादो सादव्वं ।
५८२. तेऊए पढमदंडओ सोधम्मभंगो । साद० उक्क० वड्डी कस्स ? यो तप्पा ०जहणगादो विसोधीदो उक्कस्सगं विसोधिं गदो तदो उक्क० अणु० पबंधो तस्स उक्क० वड्डी । उ० हाणी क० ? यो उक्क० अणुभा० मदो देवो जादो तदो तप्पा ओग्गजह • पडिदो तस्स उक्क हाणी । अवद्वाणं ओघं । पंचिं० तेजा० क० समचदु० -पसत्थव ०४अगु०३ - पसत्थ०-तस०४ - थिरादिछ० - णिमि० - तित्थ० उच्चा० सादभंगो | देवग दि०उक्क० परिहारभंगो । सेसं सोधम्मभंगो । एवं पम्माए वि । णवरि पढमदंडओ सहस्सारभंगो । उज्जो० तिरिक्खाउभंगो । सुक्काए खविगाणं ओघं । पढमदंडगादि ० आणदभंगो ।
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५८३. भवसि० ओघं । अब्भवसि ० पढमदंडओ ओघं । साददंडओ णिरयभंगो । पसत्थाणं कादव्वं । णवरि चदुगदि० सव्वविद्धो ति । उज्जो० सादभंगो । से ओघं ।
जीव साकार उपयोगका क्षय होनेसे प्रतिभग्न होकर तत्प्रायोग्य जघन्यको प्राप्त हुआ है वह उत्कृष्ट हानिका स्वामी है। तथा वही अनन्तर समय में उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी है । देवगतिपञ्चकका भङ्गः कृष्णलेश्या के समान है । इतनी विशेषता है कि कापोतलेश्यामें तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग नारकियोंके समान है । शेष आयु आदिका भङ्ग ओघके अनुसार साध लेना चाहिए ।
५८२. पीतलेश्यामें प्रथम दण्डक सौधर्मकल्पके समान है । सातावेदनीयकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? जिसने तत्प्रायोग्य जघन्य विशुद्धि से उत्कृष्ट विशुद्धिको प्राप्त होकर उत्कृष्ट अनुभागबन्ध किया है वह उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है । उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जो जीव मर कर देव हुआ और तत्प्रायोग्य जघन्यको प्राप्त हुआ वह उत्कृष्ट हानिका स्वामी है । अवस्थानका भङ्ग ओघके समान है । पवेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण, तीर्थङ्कर और उच्चगोत्रका भङ्ग सातावेदनीयके समान है । देवगतिकी उत्कृष्ट वृद्धिका भङ्ग परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंके समान है। शेष भङ्ग सौधर्मकल्पके समान है । इसी प्रकार पद्मलेश्यामें भी जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि प्रथम दण्डक सहस्रारकल्पके समान है। तथा उद्योतका भङ्ग तिर्यश्वायुके समान है । शुक्ललेश्या में क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। प्रथम दण्डक आदिका भङ्ग आनतकल्पके समान है।
५८३. भव्योंमें ओघके समान भङ्ग है । अभव्यों में प्रथम दण्डक ओघके समान है । सातावेदनीयदण्डकका भङ्ग नारकियोंके समान है । इसी प्रकार सब प्रशस्त प्रकृतियोंका कहना चाहिए | इतनी विशेषता है कि चारगतिके सर्वविशुद्ध जीवके कहना चाहिए । उद्योतका भंग सातावेदनीयके समान है। शेष भंग ओघके समान है ।
१. आ. प्रतौ देवगदि ०५ णवरि इति पाठः । २ . प्रतौ णिरयभंगो । किण्णभंगो । सेसं इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ५८४. वेदग० साददंडओतेउभंगो । सेसं ओधि भंगो । उक्सम ओघि भंगो। णवरि सादा०-जस०-उच्चा० उक्क० वड्डी क० ? अण्ण० सुहुमसंप० उवसाम० चरिमे उक्क० अणु० वट्ट० तस्स उक० वड्डी । एवं सव्वाणं उवसामगाणं सादादीणं पसत्थाणं । सासणे पढमदंडओ सव्वसंकिलिट्ठस्स। साददंडओ सव्वविसुद्धस्स । पुरिसदंडओ तप्पाओ०संकि० । तिणि आऊणि ओघ । सम्मामि० पढमदंडओ उक्क. वड्डी क० ? मिच्छत्ताभिमुह० तस्स उक्क० वड्डी । उ० हा० क० ? सम्मत्ताभिमुह० चरिमसमयबंधगस्स तस्स उक्क. हा० । अवट्ठाणं सहाणे । साददंडओ उक्क० वड्डी क.? सम्मत्ताभिमुह० तस्स उक० वड्डी । उक्कस्सिया हाणी अवठ्ठाणं सत्थाणे । मिच्छादिही० मदि०भंगो।
५८५. असण्णीसु अब्भव०भंगो। णवरि पढमदंडए उक्क० वड्डी क० १ यो तप्पाओग्गजह० संकि० उक०संकिलेसं गदो तदो उक्क० अणु० पबंधो तस्स उक्क० वड्ढी । उ० हाणी अवहाणं सागारक्खएण पडिभग्गो । आहार० ओघ ।
एवं उक्कस्ससामित्तं समत्तं ५८६. जहण्णए पगदं । एत्तो जहण्णपदणिक्खेवसामित्तस्स साधणहूं अट्ठपदभूदसमासलक्खणं वत्तइस्सामो। तं जहा–मिच्छादिट्ठिस्स या अणंतभागफद्दग
५८४. वेदक सम्यक्त्वमें सातावेदनीय दण्डकका भंग पीतलेश्याके समान है। शेष भंग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है। उपशमसम्यक्त्वमें अवधिज्ञानी जीवोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि सातावेदनीय, यशःकीर्ति और उच्चगोत्रकी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी की है? जो अन्यतर सूक्ष्मसाम्परायिक उपशामक जीव अन्तिम अनुभागबन्धमें विद्यमान है वह उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है। इसी प्रकार सब उपशामकोंके सातावेदनीय आदि प्रशस्त प्रकृतियोंका कहना चाहिए। सासादन सम्यक्त्वमें प्रथम दण्डक सर्वसंक्लिष्टके, सातावेदनीयदण्डक सर्वविशुद्धके और पुरुषवेददण्डक तत्प्रायोग्य संक्लिष्टके कहना चाहिए । तीन आयुका भंग ओघके समान है। सम्यग्मिथ्यात्वमें प्रथम दण्डककी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है? जो मिथ्यात्वके अभिमुख है वह उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है। उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? जो सम्यक्त्वके अभिमुख होकर अन्तिम समयमें बन्ध कर रहा है वह उत्कृष्ट हानिका स्वामी है। उत्कृष्ट अवस्थान स्वस्थानमें होता है। सातावेदनीयदण्डककी उकृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? जो सम्यक्त्वके अभिमुख है वह उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है । उत्कृष्ट हानि और अवस्थान स्वस्थानमें होते हैं । मिथ्याष्टि जीवोंमें मत्यज्ञानी जीवोंके समान भंग है।
५८५. असंज्ञियोंमें अभव्योंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि प्रथम दण्डककी उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? जिसने तत्प्रायोग्य जवन्य संक्लेशसे उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होकर उत्कृष्ट अनुभागबन्ध किया है वह उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है। उत्कृष्ट हानि और भवस्थानका स्वामी साकार उपयोगके क्षय होनेसे प्रतिभन्न हुआ जीव होता है। आहारकोंमें ओघके समान भंग है।
इस प्रकार उकृष्ट स्वामित्व समाप्त हुआ । ५८६. जघन्यका प्रकरण है। यहाँ जघन्यपदनिक्षेपके स्वामित्वका साधन करनेके लिए अर्थपदको संक्षेपमें बतलाते हैं । यथा-मिथ्यादृष्टिकी जो अनन्तभागस्पर्द्धकवृद्धि है, संयतकी
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पदणिक्खेवे सामित्तं
३४१ परिवड्डी संजदस्स या अणंतभागफद्दगपरिवड्डी मिच्छादिद्विस्स या अणंतभागपरिवड्डी सा अणंतगुणा । एदेण अट्ठपदभूदसमासलक्खणेण दुवि० । ओघे० पंचणा०-चदुदंस०पंचंत० जहण्णिगा वड्डी कस्स ? अण्णदरस्स उवसा० परिवद० दुसमयसुहुमसं० तस्स जह० वड्डी । जह० हा० क० ? अण्ण० सुहुमसंप० खवगचरिमे जह० अणु० वट्ट० तस्स जह० हाणी। जह० अवहा० क० ? अण्ण० अप्पमत्तसं० अक्खवग० अणुवसमग० सागार-जा० सव्वविसुद्धस्स उक्कस्सविसोधीदो पडिभग्गस्स अणंतभागेण वड्विदण अवढिदस्स जह० अवट्ठाणं । णिहाणिद्दा-पचलापचला-थीणागि०-मिच्छ०अणंताणु० जह० वड्ढी क० ? अण्ण संजमादो वा संजमासंजमादो वा सम्मत्तादो वा परिवदमाणगस्स दुसमयमिच्छादिहिस्स तस्स जह० वड्ढी। ज. हा० क० १ अण्ण मणुसस्स वा मणुसीए वा मिच्छादिट्टि० सव्वाहि पज्जत्तीहि पजत्तगदस्स सागार-जा० सव्वविसु० से काले संजमं पडिवजिहिदि त्ति तस्स ज० हा०। ज० अवट्ठा० क० ? अण्ण० पंचिंदियस्स मिच्छाद्विस्स सव्वाहि पजत्तीहि पञ्जत्तगदस्स सागार-जा० तप्पाओग्गउक्कस्सगादो विसोधीदो पडिभग्गस्स अणंतभागेण वड्डिदूण अवढिदस्स तस्स जह० अवठ्ठा० । णिद्दा-पयलाणं जह० वड्डी अवट्ठाणं णाणावरणभंगो । जह० हा० क० ? अण्ण० खवग० अपुवकरणस्स णिद्दा-पयलाणं बंधचरिमे वट्टमा० तस्स जह० हाणी । सादासाद०-थिराथिर-सुभासुभ-जस०-अजस० जह. वड्ढी कस्स ? अण्ण० सम्मादिहिस्स वा मिच्छादिहिस्स वा परियत्तमाणमज्झिमजो अनन्तभाग स्पर्धकवृद्धि है तथा मिथ्यादृष्टिकी जो अनन्तभागवृद्धि है वह अनन्तगुणी है। संक्षपमें कहे गये इस अर्थपदके अनुसार निदेश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे
नावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है? जिस गिरनेवाले अन्यतर उपशामकने सूक्ष्म साम्परायमें दो समय तक बन्ध किया है वह जघन्य वृद्धिका स्वामी है। जघन्य हानिका स्वामी कौन है ? जो अन्यतर सूक्ष्मसाम्पराय क्षपक जीव अन्तिम अनुभागबन्धमें अवस्थित है वह जघन्य हानिका स्वामी है। जघन्य अवस्थानका स्वामी कौन है ? जो अन्यतर अक्षपक और अतुपशामक अप्रमत्तसंयत जीव साकार-जागृत है, सर्वविशुद्धि है, उत्कृष्ट विशुद्धसे प्रतिभन्न हुआ है और अनन्तभागवृद्धिके साथ अवस्थित है वह जघन्य अवस्थानका स्वामी है। निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? जो अन्यतर जीव संयमसे, संयमासंयमसे और सम्यक्त्वसे गिर कर दो समयवर्ती मिथ्यादृष्टि है वह जघन्य वृद्धिका स्वामी है। जघन्य हानिका स्वामी कौन है ? मिथ्या दृष्टि, सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त, साकार जागृत और सर्वविशुद्ध जो अन्यतर मनुष्य या मनुष्यनी जीव अनन्तर समयमें संयमको प्राप्त करेगा वह जघन्य हानिका स्वामी है। जघन्य अवस्थानका स्वामी कौन है? सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त और साकारजागृत जो अन्यतर पञ्चेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीव तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट विशुद्धिसे प्रतिभन्न होकर अनन्तभागवृद्धिके साथ अवस्थित है वह जघन्य अवस्थानका स्वामी है। निद्रा और प्रचलाकी जघन्य वृद्धि और अवस्थानका स्वामी ज्ञानावरणके समान है। जघन्य हानिका स्वामी कौन है ? जो अन्यतर अपूर्वकरण क्षपक जीव निद्रा और प्रचलाके बन्धके अन्तिम समयमें विद्यमान है वह जघन्य हानिका स्वामी है । सातावेदनीय, असातावेदनोय, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति और अयशःकीर्तिकी जघन्य वृद्धि [हानि और अवस्थान ] का स्वामी कौन है ?
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महाबंधे अणुभागबंधाहिवारे परिणामस्स अणंतभागेण वड्डिदूण वड्डी हाइदूण हाणी एकदरत्थमवहाणं । अपच्चक्खाण०४ ज० वड्डी क० १ अण्ण० संजमादो वा संजमासंजमादो वा परिवदमाणस्स' दुसमयअसंजदसम्मादिहिस्स तस्स जह० वड्ढी । ज० हा० क० १ अण्ण. असंज० सव्वाहि पञ्जत्तीहि पञ्जत्तगदस्स सागार-जा० सव्वविसु० से काले संजमं पडिवजिहिदि ति तस्स [ज.] हाणी। ज. अवट्ठा० क.? अण्ण. असंज० सव्वाहि पज्जत्तीहि पञ्ज. सागा. सव्वविसु० उक्क विसोधीदो पडिभग्गस्स अणंतभागेण वड्विदूण अवद्विदस्स तस्स ज. अवहाणं । पञ्चक्खाण०४ ज० वड्ढी क० ? अण्ण० संजमादो परिवदमाणस्स दुसमयसंजदासंजदस्स ज० वड्ढी । ज. हा० क० ? अण्ण० संजदासंजदस्स सागार-जा० सव्वविसु० से काले संजमं पडिवजिहिदि तस्स ज० हा० । ज. अवहा० के० ? अण्ण. सागार-जा. तप्पाङग्गउक्क० विसोधीदो पडिभग्गस्स अणंतभागेण वड्ढिदूण अवहिदस्स तस्स ज० अवट्ठाणं । चदुसंज०-पुरिस०हस्स-रदि-भय-दु०-अप्पसत्थ०४-उप० जव्वड्ढी अवहाणं णाणावरणभंगो। ज० हा० क० १ अण्ण० खवग० अपुव्वक० अणियट्टिस्स । णवरि अप्पप्पणो पाओग्गं णादव्वं । इत्थि०-णस० ज० वड्ढी क० ? अण्ण० चदुगदियस्स पंचिं० सण्णि० मिच्छा० सव्वाहि० सागार-जा० तप्पाओ'• विसु० अणंतभागेण वड्डिदूण वडढी हाइदूण हाणी जो परिवर्तमान मध्यम परिणामवाला अन्यतर सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि जीव है वह अनन्तभाग वृद्धिरूपसे वृद्धि अनन्तभागहानिरूपसे हानि और इनमेंसे किसी एक जगह अवस्थानका स्वामी है। अप्रत्याख्यानावरणचतुष्ककी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? संयमसे और संयमासंयमसे गिरनेवाला जो अन्यतर दो समयवर्ती असंयतसम्यग्दृष्टि जीव है वह जघन्य वृद्धिका स्वामी है। जघन्य हानिका स्वामी कौन है? सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त, साकार-जागृत और सर्व विशद्ध जो अन्यतर असंयतसम्यग्दृष्टि जीव अनन्तर समयमें संयमको प्राप्त होगा वह जघन्य हानिका स्वामी है। जघन्य अवस्थानका स्वामी कौन है ? सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त, साकार-जागृत और सर्वविशुद्ध जो अन्यतर असंयतसम्यग्दृष्टि जीव उत्कृष्ट विशुद्धिसे प्रतिभग्न होकर अनन्तभागवृद्धिके साथ अवस्थित है वह जघन्य अवस्थानका स्वामी है। प्रत्याख्यानावरणचतुष्ककी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? संयमसे गिरनेवाला जो दो समयवर्ती संयतासंयत जीव है वह जघन्य वृद्धिका स्वामी है। जघन्य हानिका स्वामी कौन है ? साकार-जागृत और सर्वविशुद्ध जो अन्यतर संयतासंयत जीव अनन्तर समयमें संयमको प्राप्त होगा वह जघन्य हानिका स्वामी है। जघन्य अवस्थानका स्वामी कौन है ? साकार-जागृत जो अन्यतर जीव तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट विशुद्धिसे प्रतिभग्न होकर अनन्तभागवृद्धिके साथ अवस्थित ह वह जघन्य अवस्थानका स्वामी है। चार संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, अप्रशस्त वर्णचतुष्क और उपघातकी जघन्य वृद्धि और अवस्थानका स्वामी ज्ञानावरणके समान है । जघन्य हानिका स्वामी कौन है ? अन्यतर अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण क्षपक जीव जघन्य हानिका स्वामी है । इतनी विशेषता है कि अपने-अपने प्रायोग्य जानना चाहिए । स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? जो सब पर्याप्तियों से पर्याप्त, साकार-जागृत और तत्प्रायोग्य विशुद्ध अन्यतर चार गतिका पश्चेन्द्रिय संज्ञी और मिथ्यादृष्टि जीव है वह अनन्तभागवृद्धिके द्वारा वृद्धि, अनन्तभागहानिके द्वारा हानि
१. श्रा० प्रतौ संजमादो परिवदमाणस्स इति पाठः । २. ता० प्रतौ वडिदूण उ) अ) वहिदस्स, आ. प्रती वडिदूण उवहिदस्स इति पाठः। ३. ता० प्रा०:प्रत्योः सागारजा कसाओ० इति पाठः ।
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पदणिक्खेवे सामित्तं
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एक्कदरत्थमवहाणं । अरदि-सोग० ज० वड्ढी क० ? अण्ण० पमत्त० संज० सागा० तप्पा० विसु० अणंतभागेण वड्ढिदूण वड्ढी हाइद्ण हाणी एकदरत्थमवद्वाणं । णिरय- देवाउ० ज० वड्ढी क० ? अण्ण० तिरिक्ख० मणुस ० जहण्णिगाए पञ्जगत्तणिव्वत्तीए णिव्वत्तमाणगस्स मज्झिमपरिणामस्स अनंतभागेण वड्ढिदूण चड्ढी हाइदूण हाणी एक० अवट्ठाणं । तिरिक्ख - मणुसाऊणं ज० वड्डी क० ? अण्ण० तिरिक्ख० मणुस० जहणियाए अपजत्तगणिव्वत्तीए णिव्वत्तमाणगस्स मज्झिम० अनंतभागेण वड्ढिदूण वड्ढी हाइदूण हाणी एक्क० अवद्वा० । णिरयग० देवग०ज० वड्ढी क० १ अण्ण० तिरिक्ख० मणुस ० परियत्तमाणमज्झिम० अणंतभागेण वड्ढिदूण वड्डी हाइदूण हाणी एक० अवद्वा० । एवं तिण्णजादि - दोआणु ० - सुहुम० - अपज० साधार० । मणुस ० ' - छस्संठा० छस्संघ ०- मणु०साणु ० दोविहा० सुभग- दूभग- सुस्सर- दुस्सर-आदें० - अणादे० - उच्चा० ज० वड्ढी क० १ अण्ण० चदुगदि० मिच्छादि० परिय० मज्झिम० अनंतभागेण वड्ढिदूण वड्डी हाइदूण हाणी एक० अवट्ठा० । तिरिक्ख० तिरिक्खाणु० -णीचा० ज० वड्डी क० ? अण्ण० सत्तमा पुढवीए रइगस्स मिच्छादि० सव्वाहि पज० सागारजा० तप्पा उक्क०विसोधीदो परिभग्गो अनंतभागेण वड्ढिदूण बड्डी । तस्सेव से काले ज० अवट्ठा० । ज० हा० क० ? अण्ण० सत्तमाए पुढवीए मिच्छादि ० सव्वाहि पज० सागा० सव्वऔर इनमें से किसी एक स्थान पर अवस्थानका स्वामी है। अरति और शोककी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? साकार - जागृत और तत्प्रायोग्य विशुद्ध जो अन्यतर प्रमत्तसंयत जीव है वह अनन्त भागवृद्धि के द्वारा वृद्धि, अनन्तभागहानिके द्वारा हानि और इनमेंसे किसी एक स्थानपर अवस्थानका स्वामी है । नरकायु और देवायुकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? जघन्य पर्याप्त निवृत्तिसे निवृत्तिमान और मध्यम परिणामवाला ऐसा अन्यतर जो तिर्यश्च और मनुष्य है वह अनन्तभागवृद्धि के द्वारा वृद्धि, अनन्तभागहानिके द्वारा हानि और इनमेंसे किसी एक स्थान पर अवस्थानका स्वामी है । तिर्यवायु और मनुष्यायुकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? जघन्य अपर्याप्त वृत्ि निवृत्तमान और मध्यम परिणामवाला जो अन्यतर तिर्यश्व और मनुष्य है वह अनन्तभागवृद्धिके द्वारा वृद्धि, अनन्तभागहानिके द्वारा हानि और इनमेंसे किसी एक स्थानपर अवस्थानका स्वामी है । नरकगति और देवगतिको जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? परिवर्तमान मध्यम परिणामवाला अन्यतर तिर्यन और मनुष्य अनन्तभागवृद्धि के द्वारा वृद्धि, अनन्तभागहानिके द्वारा हानि और इनमेंसे किसी एक स्थान पर अवस्थानका स्वामी है। इसी प्रकार तीन जाति, दो आनुपूर्वी, सूक्ष्म अपर्याप्त और साधारणकी अपेक्षा स्वामित्व जानना चाहिए। मनुष्यगति, छह संस्थान, छह संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, दो विहायोगति, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुःखर, आदेय, अनादेय और उच्चगोत्रकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? अन्यतर चार गतिका परिवर्तमान मध्यम परिणामवाला मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तभागवृद्धिके द्वारा वृद्धि, अनन्तभागहानिके द्वारा हानि और इनमें से किसी एक स्थान पर अवस्थानका स्वामी है । तिर्यञ्चगति, तिर्यगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? सब पर्याप्तियों से पर्याप्त और साकार-जागृत ऐसा अन्यतर सातवीं पृथिवीका मिथ्यादृष्टि नारकी तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट विशुद्ध प्रतिभग्न होकर अनन्तभागवृद्धि करता हुआ जघन्य वृद्धिका स्वामी है । तथा वही अनन्तर समय में जघन्य अवस्थानका स्वामी है । जघन्य हानिका स्वामी कौन है ? सव पर्याप्तियोंसे पर्याप्त, साकारजागृत और सर्वविशुद्ध जो अन्यतर सातवीं पृथिवीका मिथ्यादृष्टि नारकी अनिवृत्तिकरण के १. ता० प्रतौ साद० मणुस० इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे
विसु० अणियट्टिकरणे चरिमे ज० अणु० वट्ट० तस्स ज० हा० । एइंदि० थावर० ज० वड्डी क ? अण्ण० तिगदि० परिय० मज्झि० अनंतभागेण वडिदूण वड्ढी हाइदूण हाणी एक० अट्ठाणं | पंचिं० तेजा० क० - पसत्थ४- अगु० ३ -तस०४- णिमि० ज० वड्ढी क० ? अण्ण० चद्गदि० पंचिं० सण्णि० मिच्छा० सव्वाहि प० सागा० णियमा उक्कस्ससंकिलिट्ठस्स अभागेण वड्डिण वड्ढी हाइदूण हाणी एकद० अवट्ठाणं । ओरालि०-ओरालि०अंगो०-उजो० ज० वड्ढी क० १ अण्ण० णेरइ० वा देवस्स वा मिच्छादिट्ठिस्स सव्वाहि प० सागा० णिय० उक्क० संकि० अनंतभागेण वड्डिण वड्ढी हाइदूण हाणी एक्क० अवड्डा० । वेउ०-वेउ० अंगो० ज० वड्ढी क० ? अण्ण० मणुस० पंचिं० तिरिक्ख०जोणीयस्स वा सण० मिच्छादि० सव्वाहि पज्ज० सागा० णियमा उक्क० संकि० अनंतभागेण वड्डिण वड्ढी हाइदूण हाणी एक० अवट्ठाणं । आहार०२ ज० वड्ढी क० १ अण्ण० अप्पमत्तसं० पमत्ताभिमुह० सागार० सव्वसंकि० अणंतभागेण वड्डिदूण वड्ढी हाइदूण हाणी एक० अवद्वाणं । आदा० ज० वड्ढी क० १ अण्ण० ईसातप्प देवस्स मिच्छा० सव्वाहि पजतीहि पञ्ज० सागार-जा० णिय० उक्क०संकलि० अणंतभागेण वड्डिण वड्ढी हाइदूण हाणी एक० अवट्ठाणं । तित्थ० ज० वड्ढी क० ? अण्ण० मणुसस्स वा मणुसीए वा असंजदसम्मादिडिस्स सव्वाहि पज० अन्तिम समय में जघन्य अनुभागबन्ध करता है वह जघन्य हानिका स्वामी है । एकेन्द्रिय जाति और स्थावरकी जघन्य वृद्धि किसके होती है ? जो अन्यतर तीन गतिका परिवर्तमान मध्यम परिणामवाला जीव है वह अनन्तभागवृद्धिके द्वारा वृद्धि, अनन्तभागहानिके द्वारा हानि और इनमेंसे किसी एक स्थानमें अवस्थानका स्वामी होता है । पचेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, त्रसचतुष्क और निर्माणकी जघन्य वृद्धि का स्वामी कौन है ? सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त साकार - जागृत और नियमसे उत्कृष्ट संकेशयुक्त अन्यतर चार गतिका पश्चेन्द्रिय संज्ञी मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तभागवृद्धिके द्वारा वृद्धि, अनन्तभागहानिके द्वारा हानि और इनमेंसे किसी एक स्थान पर अवस्थानका स्वामी है । औदारिकशरीर, औदारिक आंगोपांग और उद्योतकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त, साकार - जागृत और नियमसे उत्कृष्ट संकेशयुक्त अन्यतर मिथ्यादृष्टि देव और नारकी अनन्तभागवृद्धि के द्वारा वृद्धि, अनन्तभागहानि द्वारा हानि और इनमें से किसी एक स्थानपर अवस्थानका स्वामी है। वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकआंगोपांगकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त साकार जागृत और नियमसे उत्कृष्ट संक्लेशयुक्त अन्तर मनुष्य और पचेन्द्रिय तिर्यनयोनि संज्ञी मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तभागवृद्धिद्वारा जघन्य वृद्धि का, अनन्तभागहानिद्वारा जघन्य हानिका और इनमेंसे किसी एक स्थानपर जघन्य अवस्थानका स्वामी है । आहारकद्विककी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? साकार जागृत और सर्व संक्लेशयुक्त प्रमत्तसंयतके अभिमुख अन्यतर अप्रमत्तसंयत जीव अनन्तभागवृद्धिद्वारा जघन्य वृद्धिका, अनन्तभागहानिके द्वारा जघन्य हानिका और इनमेंसे किसी एक स्थान पर जघन्य अवस्थानका स्वामी है। आतपकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त, साकार-जागृत और नियमसे उत्कृष्ट संक्लेशयुक्त अन्यतर ऐशानकल्प तकका मिथ्यादृष्टि देव अनन्तभागवृद्धिके द्वारा जघन्य वृद्धिका, अनन्तभागहानिके द्वारा जघन्य हानिका और इनमें से किसी एक स्थान पर जघन्य अवस्थानका स्वामी है। तीर्थङ्करप्रकृतिकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? सब पर्याप्तियोंसे साकार जागृत और उत्कृष्ट संक्लेशसे प्रतिभग्न हुआ
पर्याप्त
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पदणिक्खेवे सामित्तं
३४५ सागा-जा० उक्कस्ससंकिलेसादो पडिभग्गस्स अणंतभागेण वड्डिदण वड्ढी । तस्सेव से काले ज० अवट्ठा० । ज० हा० क. ? अण्ण. असंजदसम्मादिहिस्स सव्वाहि पज० सागा. तप्पा०संकिलि० मिच्छत्ताभिमु० चरिमसमयअसंज.' तस्स ज० हाणी। ___५८७. आदेसेण णेरइएसु पंचणा०-छदंसणा०-बारसक०-पंचणोक०-अप्पसत्य. [४-उप०-पंचंत०] ज० वड्ढी' क० ? अण्ण० असंजद० सव्वाहि पन्ज. सागार० सव्वविसु० अणंत भागेण वड्डिदृण वड्ढी हाइदूण हाणी एक्क० अवट्ठाणं । थीणगि०३मिच्छ०-अणंताणुवं०४ ज० वड्ढी क० १ अण्ण ० सम्मत्तादो परिवदमा० दुसमयमिच्छा० तस्स ज० वड्ढी । ज० हा० क ? अण्ण० मिच्छा० सव्वाहि प० सागा० सव्ववि० से काले सम्मत्तं पडिवजिहिदि त्ति तस्स ज० हा० । ज० अवहा० क. ? अण्ण० मिच्छा० सागा० तप्पा० उक्कस्सिगादो विसोधिं गदो अणंतभागेण वड्डिदण अवद्विदस्स तस्स ज० अवट्ठा० । सादासाद०-थिरादितिण्णियु० ओघं । इत्थि०-णस० ज० तिणि विक.? अण्ण० मिच्छादि० ओघभंगो। अरदि-सोग० ज० क.? अण्ण सम्मादिहिस्स तिण्णि वि० । तिरिक्ख०-मणुसाऊणं ज० वड्ढी क० ? अण्ण० मिच्छा० जहण्णिगाए पजत्तणिव्व० णिव्वत्तमा० अणंतभागेण वड्ढिदूण वड्ढी हाइदूण हाणी अन्यतर असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्य और मनुष्यनी अनन्तभागवृद्धिके द्वारा जघन्य वृद्धिका स्वामी है तथा वही अनन्तर समयमें जघन्य अवस्थानका स्वामी है। जघन्य हानिका स्वामी कौन है ? सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त, साकार-जागृत, तत्प्रायोग्य संक्लेशयुक्त और मिथ्यात्वके अभिमुख अन्यतर असंयतसम्यग्दृष्टि जीव अन्तिम समयमें जघन्य हानिका स्वामी है।
५८७. आदेशसे नारकियोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, पाँच नोकषाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त, साकार-जागृत और सर्वविशुद्ध अन्यतर असंयतसम्यग्दृष्टि जीव अनन्तभागवृद्धिद्वारा जघन्य वृद्धिका, अनन्तभागहानिद्वारा जघन्य हानिका और इनसे किसी एक स्थानपर जघन्य अवस्थानका स्वामी है। स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कको जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? सम्यक्त्वसे गिरकर जिसे मिथ्यात्वमें दो समय हुए हैं,ऐसा अन्यतर जीव जघन्य वृद्धिका स्वामी है । जघन्य हानिका स्वामी कौन है ? सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त, साकार-जागृत और सर्वविशुद्ध जो अन्यतर मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तर समयमें सम्यक्त्वको प्राप्त करेगा वह जघन्य हानिका स्वामी है । जघन्य अवस्थानका स्वामी कौन है ? साकार-जागृत जो अन्यतर मिथ्यादृष्टि जीव तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट विशुद्धिको प्राप्त होकर अनन्तभागवृद्धिके साथ अवस्थित है वह जघन्य अवस्थानका स्वामी है। सातावेदनीय, असातावेदनीय और स्थिर आदि तीन युगलका भंग ओघके समान है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके जघन्य तीनों ही पदोंका स्वामी कौन है ? अन्यतर मिथ्यादृष्टिके ओघके समान भंग है। अरति और शोकके तीनों पदोंका स्वामी कौन है? अन्यतर सम्यग्दृष्टि तीनों ही पदोंका स्वामी है। तिर्यञ्चाय और मनुष्यायकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? जघन्य पर्याप्ति निवृत्तिसे निवृत्तमान अन्यतर मिथ्यादृष्टि अनन्तभागवृद्धिके द्वारा जघन्य वृद्धिका, अनन्तभागहानिके द्वारा जघन्य हानिका और इनमेंसे किसी
१. ता० प्रतौ चरिमे समयं असंज० इति पाठः । २. ता० आ० प्रत्योः अप्पसत्थ....." इति पाठः।
Jain Education Internation४४
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे
एक० अवट्ठाणं । तिरिक्ख ० ३ ओघं । मणुसग दिदंडओ ओघं । पंचिं० -ओरा० तेजा० क० - ओरा० अंगो ० ' - पसत्थ ०४ - अगु०३ -तस०४ - णिमि० ज० वड्ढी क० ? अण्ण० मिच्छा० सव्वाहि पज्ज० सागा०जा० सव्वसंकि० अनंतभागेण वड्डिण वड्ढी हाइदूण हाणी एक० अवट्ठाणं । एवं उजो० । तित्थ० ज० वड्ढी क० १ अण्ण० असंज० सागा० सव्वसंकि० अनंतभागेण वड्डिण वड्ढी हाइदूण हाणी एक अवट्ठाणं । एवं छसु पुढवीसु । णवरि तिरिक्ख ०३ मणुसगदिभंगो । सत्तमाए मणुसग०-मणुसाणु ० -उच्चा० ज० वड्ढी क० १ अण्ण० असंजद० सागार-जा० तप्पाऔग्गउकस्ससंकिलेसादो पडिभग्गो अनंतभागेण वड्डिण वड्ढी । तस्सेव से काले ज० अवट्ठाणं । ज० हा० क० ? अण्ण० असंज • मिच्छत्ताभिमु० तस्स ज० हाणी ।
०
०
५८८. तिरिक्खे पंचणा० उदंसणा० अट्ठक० - पंचणो०-अप्पसत्थ०४- उप० - पंचंत० ज० वड्ढी क० ? अण्ण० संजदासंज • सागार-जा० सव्वविसु० अणंतभागेण वड्डिदूण वड्ढी हाइदूण हाणी एक० अवट्ठाणं । थीणगिद्धिदंडओ ओघं । साददंडओ ओ । इत्थ० - वंस० ओघं । अरदि-सोग० ज० वड्ढी हाणी अट्ठा क० ? अण्ण०
एक स्थानमें जघन्य अवस्थानका स्वामी है । तिर्यञ्चगतित्रिकका भङ्ग ओघके समान है । मनुष्यगतिदण्डकका भङ्ग ओघके समान है । पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, त्रसचतुष्क और निर्माणकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त साकार जागृत और सर्व संक्लेशयुक्त अन्यतर मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तभागवृद्धिके द्वारा जघन्य वृद्धिका, अनन्तभागहानिके द्वारा जघन्य हानिका और इनमें से किसी एक स्थानमें जघन्य अवस्थानका स्वामी है । इसी प्रकार उद्योतका स्वामित्व जानना चाहिए। तीर्थङ्करप्रकृतिकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? साकारजागृत और सर्वसंक्लेशयुक्त अन्यतर असंयतसम्यग्दृष्टि जीव अनन्तभागवृद्धि के द्वारा जघन्य वृद्धिका, अनन्तभागहानिके द्वारा जघन्य हानिका और इनमेंसे किसी एक स्थानमें जघन्य अवस्थानका स्वामी है। इसी प्रकार छहों पृथिवियों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्चगतित्रिकका भङ्ग मनुष्यगतिके समान है । सातवीं पृथिवीमें मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? साकार जागृत और तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेश से प्रतिभग्न हुआ अन्यतर असंयतसम्यग्दृष्टि जीव अनन्तभागवृद्धि के द्वारा जघन्य वृद्धिका स्वामी है तथा वही अनन्तर समय में जघन्य अवस्थानका स्वामी है । जघन्य हानिका स्वामी कौन है ? मिथ्यात्वके अभिमुख हुआ अन्यतर असंयतसम्यग्दृष्टि जीव जघन्य हानिका स्वामी है ।
५८८. तिर्यञ्चोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, आठ कपाय, पाँच नोकषाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? साकारजागृत और सर्वविशुद्ध अन्यतर संयतासंयत सम्यग्दृष्टि जीव अनन्तभागवृद्धिके द्वारा जघन्य वृद्धिका, अनन्तभागहानिके द्वारा जघन्य हानिका और इनमेंसे किसी एक स्थानमें जघन्य अवस्थानका स्वामी है । स्त्यानगृद्धिदण्डकका भङ्ग ओघके समान है । सातावेदनीयदण्डकका भङ्ग ओघके समान है । स्त्रीवेद और नपुंसक वेदका भङ्ग ओघके समान है । अरति और शोककी
१. आ० प्रतौ ओरा० ओरा० गो० इति पाठः ।
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पदणिक्खेवे सामित्तं
३४७ संजदासंज० । अपचक्खाण०४ तिण्णि वि ओषं । णवरि हाणी संजमासंजमं पडिवजंतस्स । चदुआउ -तिण्णिगदि-चदुजा०-छस्संठा०-छस्संघ०-तिण्णिआणु०-दोविहा०थावरादि४-मज्झिल्लयुगलाणि तिणि उच्चा० ज० वड्ढी क० १ अण्ण० मिच्छादि० परिय०मज्झिम० अणंतभागेण तिण्णि वि० ।तिरिक्ख०-तिरिक्खाणु०'-णीचा० ज० वड्ढी क० ? अण्ण० बादरतेउ०-वाउ०जीवस्स सव्वाहि प० अणंतभागेण तिण्णि वि । पंचिं०वेउव्वि०-तेजा०-क०-वेउव्वि० अंगो०-पसत्थ०४-अगु०३-तस०४-णिमि० ज० वड्ढी क० ? अण्ण. पंचिं० सण्णि. मिच्छा. सागा० सव्वसंकि० अणंतभागेण वड्डिदण वड्ढी हाइदूण हाणी एक्कदर० अवहाणं । ओरालि०-ओरालि०अंगो०-आदाउज्जो० ज० वड्ढी क० ? अण्ण० पंचिं० सण्णि० मिच्छा० सागा० तप्पा०संकि० अणंतभागेण वड्डिदूण वड्ढी हाइदूण हाणी एकद० अवहाणं । एवं पंचिंतिरिक्ख०३ । णवरि तिरिक्ख०-तिरिक्खाणु०-णीचा० णिरयभंगो।
५८९. पंचिंतिरि०अपज. पंचणा०-णवदंस०-मिच्छ०-सोलसक०-पंचणोक०अप्पसत्थ०४-उप०-पंचंत० ज० वड्ढी क० १ अण्ण० सण्णिस्स सव्वविसु० अणंतजघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थानका स्वामी कौन है ? अन्यतर संयतासंयत जीव उक्त तीनों पदोंका स्वामी है। अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कके तीनों ही पदोंका भङ्ग ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि संयमासंयमको प्राप्त होनेवाला जीव जघन्य हानिका स्वामी है। चार आयु, तीन गति, चार जाति, छह संस्थान, छह संहनन, तीन आनुपूर्वी, दो विहायो गति, स्थावर आदि चार, मध्यके तीन युगल और उच्चगोत्रकी जघन्य बृद्धिका स्वामी कौन है ? अन्यतर मिथ्यादृष्टि परिवर्तमान मध्यम परिणामवाला जीव अनन्तभागवृद्धि, अनन्तभागहानि और अवस्थानके द्वारा तीनों ही पदोंका स्वामी है। तिर्यञ्चगति, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुआ अन्यतर बादर अग्निकायिक और बादर वायुकायिक जीव अनन्तभागवृद्धि, अनन्तभागहानि और अवस्थानके द्वारा तीनों ही पदोंका स्वामी है। पञ्चेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वैक्रियिकआङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, त्रसचतुष्क और निर्माणकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? साकार-जागृत और सर्व संक्लेशयुक्त अन्यतर पञ्चेन्द्रिय संज्ञी मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तभागवृद्धिरूपसे जघन्य वृद्धिका, अनन्तभागहानिरूपसे जघन्य हानिका और इनमेंसे किसी एक स्थानमें जघन्य अवस्थानका स्वामी है। औदारिकशरीर, औदारिकआङ्गोपाङ्ग, आतप और उद्योतकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? साकार-जागृत और तत्प्रायोग्य संक्लेशयुक्त अन्यतर पञ्चेन्द्रिय संज्ञी मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तभागवृद्धिरूपसे जघन्य वृद्धिका, अनन्तभागहानिरूपसे जघन्य हानिका और इनमेंसे किसी एक स्थानमें जघन्य अवस्थानका स्वामी है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि तिर्यश्चगति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है।
५८९. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? अन्यतर संज्ञी सर्वविशुद्ध जीव भनन्तभागवृद्धिरूपसे जघन्य वृद्धिका,
१. ता० प्रतौ तिण्णिवि० । तिरिक्खाणु० इति पाठः। २. ता. प्रतौ वड्डी क० ? पंचिं. इति पाठः।
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महाबंचे अणुभागबंधाहियारे
भागेण वड्डिण वड्ढी हाइदूण हाणी एकद० अवट्ठा० । सादासाद० - दोगदि-पंचजा०छस्संठा० - छस्संघ० - दोआणु ० दोविहा० - तसादिदसयुग ० - दोगो० ज० वड्ढी क० ? अण्ण० परिय० मज्झिम० अनंतभागेण वड्ढिदूण वड्ढी हाइदूण हाणी एक० अवट्ठाणं । इत्थि ०-० - अरदि- सोग० ज० वड्ढी क० १ अण्ण० सण्णि० सागा० तप्पा० विसु० अभागेण वडिदू वड्ढी हाइदुण हाणी एक० अवद्वाणं । दोआउ० ओघं । ओरा०तेजा ० क ० -[ ओरालि० अंगो० - ] पसत्थ०४- अगु० - णिमि० ज० वड्ढी क० ? अण्ण पंचिं० सण्णि० सागा० णिय० उक्क० संकि० अणंतभागेण वड्ढिदूण वड्डी हाइदूण हाणी एक्क० अवट्ठा० । पर०-उस्सा० आदाउजो० ज० वड्ढी क० ? अण्ण० सण्णि० सागा० ० संकि० अनंतभागेण तिष्णव । एवं सव्वअपज ० - [ सव्व एइंदि० - ] सव्वविगलिं० - पंचकायाणं च । णवरि एइंदिएसु तिरिक्ख० - तिरिक्खाणु ० -णीचा० तिरिक्खोघं । तेउ-वाऊणं पि तिरिक्खगदितिगं णाणा० भंगो ।
तप्पा०
।
५९०. मणुस ० ३ खविगाणं ओघं । सेसं पंचिं० तिरि०भंगो । तित्थ० ओघं० । ५९१. देवेसु पढमदंडओ थीणगिद्धिदंडओ साददंडओ इत्थि० णवुंस ० -अरदिसोग० - [ दो ] आउ० णिरयभंगो । दोगदि एइंदि० छस्संठा० छस्संघ ० दोआणु० - दोविहा०
अनन्तभागहानिरूपसे जघन्य हानिका और इनमेंसे किसी एक स्थानमें जघन्य अवस्थानका स्वामी है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, दो गति, पाँच जाति, छह संस्थान, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति, त्रसादि दस युगल और दो गोत्रकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? अन्यतर परिवर्तमान मध्यम परिणामवाला जीव अनन्तभागवृद्धिरूपसे जघन्य वृद्धि का, अनन्तभागहानिरूपसे जघन्य हानिका और इनमें से किसी एक स्थानमें जघ य अवस्थानका स्वामी है । स्त्रीवेद, नपुंसक वेद, अरति और शोककी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? अन्यतर संज्ञी, साकार - जागृत और तत्प्रायोग्य विशुद्ध जीव अनन्तभागवृद्धिरूपसे जघन्यवृद्धिका, अनन्तभागहानिरूपसे जघन्य हानिका और इनमेंसे किसी एक अवस्थित स्थानमें जघन्य अवस्थानका स्वामी है । दो आयुओंका भङ्ग ओघके समान है । औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिकआङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु और निर्माणकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? अन्यतरसंज्ञी पचेन्द्रिय, साकार जागृत और नियमसे उत्कृष्ट संक्लेशयुक्त जीव अनन्तभागवृद्धिरूपसे जघन्य वृद्धिका, अनन्तभागहानिरूपसे जघन्य हानिका और इनमें से किसी एक अवस्थित स्थानमें जघन्य अवस्थानका स्वामी है। परघात, उच्छ्रास, आतप और उद्योतकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? अन्यतर संज्ञी, साकार जागृत और तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट जीव क्रमसे अनन्तभागवृद्धि, अनन्तभागहानि और अवस्थितरूपसे तीनों ही पदोंका स्वामी है । इसी प्रकार सब अपर्याप्त, सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय और पाँच स्थावरकायिक जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि एकेन्द्रियोंमें तिर्यञ्चगति, तिर्यचगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका भङ्ग सामान्य तिर्यों के समान है। अग्निकायिक और वायुकायिक जीवों में भी तिर्यश्वगतित्रिकका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है ।
५९०. मनुष्यत्रिकमें क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। शेष भंग पचेन्द्रिय तिर्यञ्चके समान है । तीर्थङ्कर प्रकृतिका भंग ओघके समान है ।
५९१. देवोंमें प्रथम दण्डक, स्त्यानगृद्धिदण्डक, सातावेदनीयदण्डक, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, अरति, शोक और दो आयुओंका भंग नारकियोंके समान है । दो गति, एकेन्द्रियजाति, छह
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थावर ० - तिष्णियुग ० - दोगो० ज० वड्डी क० ? अण्ण० परियत्तमाणमज्झिम० अनंतभागेण तिणि वि० । पंचिं ० - ओरा ० अंगो० -तस० ज० वड्डी क० ? अण्ण० सणकुमार याव उवरिमदेवस्स मिच्छा० सागा० सव्वसंकि० अनंतभागेण तिण्णि वि० । ओरा०तेजा ० क ० - पसत्थ ०४ - अगु०३ - बादर-पञ्जत्त - पत्ते ० - णिमि० ज० वड्डी क० ? अण्ण० मिच्छा० सागा० णिय० उक्क० संकि० अनंतभागेण तिण्णि वि० । आदा० ज० वड्ढी क० ? अण्ण० मिच्छादि० ईसाणंतदेव० सागा० सव्वसंकि० अनंतभागेण तिणि वि० । उज्जो० ज० वड्डी क० ? अण्ण० मिच्छादि० सागा० सव्वसंकि० अनंतभागेण तिण्णि वि० । तित्थ० णिरयभंगो । भवण० वाण० - जोदिसि० सोधम्मीसा० देवोधं । णवरि पंचिं ० -तस० परि०मज्झि० अनंतभागेण तिष्णि वि० । ओरालि - सरीर अंगोवंग ० तप्पाऔग्गसंकिलिट्ठस्स तिण्णि वि० ।
५९२. सणकुमार याव सहस्सार ति पढमपुढविभंगो । आणद याव णवगेवजा ति पढमदंडओ थीणगिद्धिदंडओ साददंडओ इत्थि० - णवुंस० - अरदि-सोग०- मणुसाउ० देवोघं । मणुस ० - पंचिं ० -ओरा० -तेजा० - क० - ओरालि० अंगो० - पसत्थ०४ - मणुसाणु ०अगु०३ -तस०४ - णिमि० ज० वडढी क० १ अण्ण० मिच्छादि० सागा० सव्वसं०
संस्थान, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति, स्थावर, तीन युगल और दो गोत्रकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? अन्यतर परिवर्तमान मध्यम परिणामवाला जीव क्रमसे अनन्तभागरूप वृद्धि, हानि और अवस्थान रूपसे तीनों ही पदोंका स्वामी है । पचेन्द्रियजाति, औदारिकआङ्गोपाङ्ग और त्रसकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? साकार जागृत और सर्व संक्लिष्ट अन्यतर सनत्कुमारसे लेकर उपरिम ग्रैवेयकतकका मिथ्यादृष्टि देव क्रमसे अनन्तभागवृद्धि, हानि और अवस्थानरूपसे तीनों ही पदोंका स्वामी है । औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक और निर्माणकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? अन्यतर मिथ्यादृष्टि, साकार जागृत और नियमसे उत्कृष्ट संक्लेशयुक्त जीव क्रमसे अनन्तभाग वृद्धि, हानि और अवस्थानद्वारा तीनों ही पदोंका स्वामी है। आतपकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? साकार जागृत और सर्वसंक्लेशयुक्त अन्यतर ऐशान कल्प तकका मिथ्यादृष्टि देव क्रमसे अनन्तभागवृद्धि, हानि और अवस्थानरूपसे तीनों ही पदोंका स्वामी है । उद्योतकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? अन्यतर मिथ्यादृष्टि, साकार - जागृत और सर्वसंक्लेशयुक्त देव क्रमसे अनन्तभाग वृद्धि, हानि और अवस्थानरूपसे तीनों ही पदोंका स्वामी है | तीर्थङ्करप्रकृतिका भङ्ग नारकियोंके समान है । भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और सौधर्म ऐशानकल्पके देवों में सामान्य देवोंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि पवेन्द्रियजाति और त्रसके तीनों ही पदोंका स्वामी परिवर्तमान मध्यम परिणामवाला देव क्रमसे अनन्तभागवृद्धि, हानि और अवस्थानरूपसे होता है । औदारिकशरीर आङ्गोपांगके तीनों ही पदोंका स्वामी तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट देव होता है ।
५९२. सनत्कुमारसे लेकर सहस्रार कल्पतक प्रथम पृथिवीके समान भङ्ग है। आनतकल्पसे लेकर नौवें ग्रैवेयकतकके देवोंमें प्रथम दण्डक, स्त्यानगृद्धिदण्डक, सातावेदनीयद्ण्डक, स्त्रीवेद, नपुंसक वेद, अरति शोक और मनुष्यायुका भंग सामान्य देवोंके समान है । मनुष्यगति, पचेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिक अंगोपांग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, त्रसचतुष्क और निर्माणकी जघन्य वृद्धिका
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महाबंधे अणुभागवंधाहियारे अणंतभागेण तिण्णि वि० । छस्संठा-छस्संघ०-दोविहा० मज्झिमाणि तिष्णियुगलाणि दोगोदस्स च ज० वड्ढी कस्स ? अण्ण० मिच्छा० परिय०मज्झिम० अणंतभागेण तिण्णि वि० [तित्थ० देवोघं ।]
५९३. अणुदिस याव सव्वढ० त्ति पढमदंडओ साददंडओ अरदि-सोगमणुसाउ० देवोघं । मणुस-पंचिं०-ओरा०-तेजा०-क०-समचदु०-ओरा०अंगो०वजरि०-पसत्थ०४-मणुसाणु०-अगु०३-पसत्थ०-तस०४-सुभग-सुस्सर-आदें-णिमितित्थ०-उच्चा० ज० वड्डी क० ? अण्ण० सागा० सव्वसंकि० अणंतभागेण तिण्णि वि० ।
५९४. पंचिं०-तस०२-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि० ओघं । ओरालि० ओघं । णवरि तिरिक्खगदितिगं तिरिक्खोघं । ओरालि०मि० पढमदंडओ सम्मादिहिस्स । थीणगिद्धिदंडओ पंचिं० सण्णि० सव्वविसु० । तिरिक्खगदितिगं तिरिक्खोघं । एवं सेसा०
ओघभंगो। णवरि से काले सरीरपज्जत्ति' जाहिदि ति भाणिदव्वं । वेउव्वि० देवोघं । णवरि तिरिक्खगदितिगं ओघं । वेउब्वियमि० पढमदंडओ सम्मादिहिस्स। थीणगिद्धिदंडओ मिच्छादि० सागा० सव्वविसु० से काले सरीरपजत्तिं जाहिदि त्ति अणतस्वामी कौन है ? अन्यतर मिथ्यादृष्टि, साकार-जागृत और सर्व संक्लेशयुक्त अन्यतर देव क्रमसे अनन्तभाग वृद्धि, हानि और अवस्थानरूपसे तीनों ही पदोंका स्वामी है। छह संस्थान, छह संहनन, दो विहायोगति, मध्यके तीन युगल और दो गोत्रकी जघन्य दृद्धिका स्वामी कौन है ? अन्यतर मिथ्यादृष्टि परिवर्तमान मध्यम परिणामवाला देव क्रमसे अनन्तभाग वृद्धि, हानि और अवस्थानरूपसे तीनों ही पदोंका स्वामी है। तीर्थङ्करप्रकृतिका भंग सामान्य देवोंके समान है।
५९३. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवा में प्रथम दण्डक, सातावेदनीय दण्डक, अरति, शोक और मनुष्यायुका भंग सामान्य देवोंके समान है। मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरार, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिकआंगोपांग, वर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थङ्कर और उच्चगोत्रकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? अन्यतर साकार-जागृत और सर्व संक्लेशयुक्त देव क्रमसे अनन्तभागवृद्धि, हानि और अवस्थानरूपसे तीनों ही पदोंका स्वामी है।
५९४. पञ्चेन्द्रियद्विक, त्रसद्विक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी और काययोगी जीवोंमें ओघके समान भंग है। औदारिककाययोगी जीवोंमें औषके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि तिर्यश्चगतित्रिकका भंग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें प्रथम दण्डकका स्वामी सम्यग्दृष्टि जीव है। स्त्यानगृद्धिदण्डकका स्वामी पञ्चेन्द्रिय संज्ञी और सर्वविशुद्ध जीव है। तिर्यश्चगतित्रिकका भंग तिर्यश्चोंके समान है। इसी प्रकार शेष प्रकृतियोंका भंग भोघके समान है। इतनी विशेषता है कि जो अनन्तर समयमें शरीर पर्याप्तिको प्राप्त होगा वह स्वामी है ऐसा कहना चाहिए । वैक्रियिककाययोगी जीवोंमें सामान्य देवोंके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्चगतित्रिकका भंग ओघके समान है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें प्रथम दण्डकका स्वामी सम्यग्दृष्टि जीव है। जो मिथ्यादृष्टि, साकार-जागृत और सर्वविशुद्धि जीव अनन्तर
१. ता• प्रतौ सेसा० । अोधि० श्रोघं णवरि सेस (से ) काल (ले) सरीरपजत्ति, आ० प्रतौ सेसा. श्रोधिभंगो । णवरि से काले सरीरपजत्तिं इति पाठः ।
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पदणिक्खेवे सामित्तं
३५१ भागेण तिणि वि० । सेसं देवोधभंगो। आहार०-आहारमि० सव्वट्ठभंगो । कम्मइ० पढमदंडओ ज० वड्डी क० ? अण्ण० चदुगदि० सम्मादि० । सेसाणं देवभंगो । एवं अणाहारए ति ।
५९५. इत्थिवेदे पढमदंडओ अणियट्टिखवग० । थीणगिद्धिदंडओ ओघ । साददंडओ तिगदियस्स । अट्ठक० ओघ । इत्थि०-णस० तिगदि० । अरदि-सोगं ओघं । चदुआउ-दोगदि-तिण्णिजा०-दोआणु०-थावरादि०४–आहार२-तित्थ० ओघं० । दोगदि-एइंदि०-छस्संठाण-[छस्संघ०-दोआणु०-] दोविहा०—मज्झिल्ल तिष्णियु०दोगो० तिगदि० । पंचिं०-वेउवि०-वेउवि अंगो-तस० ज० वड्डी क० ? अण्ण. दुगदिय० सव्वसंकि० । ओरा०-[ओरालि अंगो०-] आदाउजो० ज० वड्डी क० ? अण्ण० देवीए संकिलिट्ठ० । तेजा०-क०-पसत्थ०४-अगु०३-बादर-पजत्त-पत्ते०णिमि० ज० वड्डी क० ? अण्ण तिगदिय० तप्पा०संकिलिः । [सेसं ओघ । पुरिसेसु पढमदंडओ इस्थिवेदभंगो। सेसं पंचिंदियभंगो। णवरि तिरिक्खगदितिगं मणुसिभंगो।
५९६. णqसगे पढमदंडओ इत्थिभंगो । दोगदि-चदुजादि-दोआणु०-थावरादि४
समयमें शरीरपर्याप्तिको प्राप्त होगा वह अनन्तभाग वृद्धि, हानि और अनन्तर अवस्थानरूपसे स्त्यानगृद्धिदण्डकके तीनों ही पदोंका स्वामी है । शेष भंग सामान्य देवोंके समान है। आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें सर्वार्थसिद्धिके समान भंग है। कार्मणकाययोगी जीवोंमें प्रथम दण्डककी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? अन्यतर चार गतिका सम्यग्दृष्टि जीव स्वामी है। शेष प्रकृतियोंका भंग देवोंके समान है। इसी प्रकार अनाहारक जीवोके जानना चाहिए।
५९५. स्त्रीवेदी जीवोंमें प्रथम दण्डकका स्वामी अनिवृत्तिकरण क्षपक जीव है। स्त्यानगृद्धिदण्डकका भङ्ग ओघके समान है। सातावेदनीयदण्डकका स्वामी तीन गतिका जीव है। आठ कषायोंका भङ्ग ओघके समान है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका स्वामी तीन गतिका जीव है। अरति और शोकका भङ्ग ओघके समान है। चार आयु, दो गति, तीन जाति, दो आनुपूर्वी, स्थावर आदि चार, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग ओघके समान है। दो गति, एकेन्द्रियजाति, छह संस्थान, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति, मध्यके तीन युगल और दो गोत्रके तीनों पदोंका स्वामी तीनों गतिका जीव है। पञ्चेद्रियजाति वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिकआङ्गोपाङ्ग और त्रसकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? सर्वसंक्लिष्ट अन्यतरदो गतिका जीव तीनों पदोंका स्वामी है। औदारिकशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, आतप और उद्योतकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? सर्वसंक्लिष्ट अन्यतर देवी तीनों पदोंकी स्वामी है। तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक और निर्माणकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है? तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट अन्यतर तीन गतिक तीनों पदोंका स्वामी है। शेष भङ्ग ओघके समान है । पुरुषवेदी जीवोंमें प्रथम दण्डकका भङ्ग स्त्रीवेदी जीवोंके समान है। शेष भंग पञ्चेन्द्रियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि तिर्यश्चगतित्रिकका भंग मनुष्यिनियोंके समान है।
५९६. नपुंसकवेदी जीवोंमें प्रथमदण्डकका भंग स्त्रीवेदी जीवोंके समान है। दो गति, चार जाति, दो आनुपूर्वी और स्थावर आदि चारके तीनों पदोंके स्वामी परिबर्तमान मध्यम
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे दुगदिय० तिरिक्ख० मणुस० परिय०मज्झिम'। मणुसगदिदंडओ तिगदियः । तिरिक्ख०३ ओघ । पंचिं०-तेजा०-क०-पसत्थ०४-अगु०३-तस४-णिमि० तिगदियस्स सव्वसंकि० । ओरालि०-ओरा०अंगो० उजो० णेरइग. सव्वसंकि० । वेउ०-वेउ० अंगो० ओघं । आदावं दुगदिय० । सेसं ओघं ।
५९७. अवगदवेदे पढमदंडओ ओघं । साद०-जस०२-उच्चा० ज० वड्डी क.? अण्ण० विदियसमयअवगदवेदे० । ज० हा० क० ? अप्प० उपसाम० परिवद. दुसमय सुहुमसंप० । एवं सुहुमसंप० । कोधादि०४ पढमदंडओ इत्थिभंगो। सेसं ओघं ।
५९८. मदि०-सुद० पढमदंडओ ज० वड्डी क० १ अण्ण० मणुसस्स संजमादो परिवदमाणस्स दुसमयबंधस्स तस्स ज० वड्डी । ज० हा० क० ? अण्ण० मणुसस्स सागा० सव्वविसु० संजमाभिमु० चरिमे अणु० वट्ट० तस्स ज० हाणी । ज० अवट्ठा० कस्स० ? अण्ण० पंचिं० सण्णि० सव्वाहि प० तप्पा०उक्क० विसोधीदो परिभग्गस्स अणंतभागेण वड्डिदृण अवट्ठिदस्स तस्स ज० अवडा० । सादादिदंडओ ओघं चदुगदियस्स । सेसाणं पि ओघं । एवं विभंग ।
परिणामवाले दो गतिके तिर्यश्च और मनुष्य हैं । मनुष्यगतिदण्डकके तीनों पदोंका स्वामी तीन गतिका जीव है। तिर्यश्चगतित्रिकका भंग ओघके समान है। पञ्चेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, त्रसचतुष्क और निर्माणके तीनों पदोंका स्वामी सर्वसंक्लिष्ट तीनों गतिका जीव है । औदारिकशरीर, औदारिक आंगोपांग और उद्योतके तीनों पदोंका स्वामी सर्वसंक्लिष्ट नारकी है। वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकआंगोपांगका भंग ओघके समान है । आतपके तीनों पदोंका स्वामी दो गतिका जीव है। शेष भङ्ग ओघके समान है।
५९७. अपगतवेदी जीवोंमें प्रथम दण्डक ओघके समान है। सातावेदनीया, यश कीर्ति और उच्चगोत्रकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? अन्यतर द्वितीय समयवर्ती अपगतवेदी जीव जघन्य वृद्धिका स्वामी है । जघन्य हानिका स्वामी कौन है ? अन्यतर उपशमश्रेणिसे गिरनेवाला द्वितीय समयवर्ती सूक्ष्मसाम्पराय उपशामक जीव जघन्य हानिका स्वामी है। इसी प्रकार सूक्ष्मसांपरायसंयत जीवोंके जानना चाहिए। क्रोध आदि चार कषायवाले जीवोंमें प्रथम दण्डकका भङ्ग स्त्रीवेदी जीवोंके समान है। शेष भङ्ग ओघके समान है।
५९८. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें प्रथम दण्डककी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है? संयमसे गिर कर द्वितीय समयमें बन्ध करनेवाला अन्यतर मनुष्य जघन्य वृद्धिका स्वामी है। जघन्य हानिका स्वामी कौन है ? साकार-जागृत सर्वविशुद्ध और संयमके अभिमुख होकर अन्तिम समयमें अनुभागबन्ध करनेवाला अन्यतर मनुष्य जघन्य हानिका स्वामी है । जघन्य अवस्थानका स्वामी कौन है ? सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त और तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट विशुद्धिसे प्रतिभग्न हुआ जो अन्यतर पञ्चेन्द्रिय संज्ञी जीव अनन्तभागवृद्धिके साथ अवस्थित है वह जघन्य अवस्थानका स्वामी है। सातावेदनीय आदि दण्डकका भङ्ग चार गतिके जीवके ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग भी ओघके प्रकतियोंका भङ भी ओघके समान है। इसी प्रकार विभङ्गज्ञानी जीवों में जानना चाहिए।
१. ता० प्रा० प्रत्योः मणुस० ३ परियमज्झिम० इति पाठः। २. ता० श्रा०-प्रत्योः ओघं । सुद. जस० इति पाटः । ३ श्रा०प्रतौ अण्ण. उवसमपढम० दुसमय० इति पाठः।
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पदणिक्खेवे सामित्तं
१५३ ५९९. आभिणि-सुद०-ओधिः पढमदंड ओ ओघं । सादासाद-थिरादितिण्णियु० चदुगदि० । सेसाणं पि संजमाभिमुहाणं ओघं । मणुसगदिपंचग० ज० वड्डी क० ? अण्ण. देव० रइ० सागा० तप्पा० उक्कस्ससंकिलेसादो पउिभग्गस्स अणंतभागेण वड्डिदूण अवढिदस्स । तस्सेव से काले ज० अवहाणं । ज० हा० क. ? अण्ण० सागा० उक०संकि० मिच्छत्ताभिमु० चरिमे अणु० वट्ट० तस्सेव ज० हाणी । मणुसाउ० ज० वड्ढी क० ? अण्ण० देव-णेरइ० जहणियाए पजत्तणिवत्तीए ज. परिय०मज्झिम० [अणंतभागेण वविद्ण वड्डी ] हाइदण हाणी एकद. अवट्ठाणं । देवाउ० ज० वड्ढी क० ? अण्ण तिरिक्ख० मणुस० ज० पजत्तणिव्व० ज० परिय०मज्झिम० । देवगदि०४ ज० वडढी क० ? अण्ण तिरिक्ख० मणुसस्स मणुस गदिभंगो। पंचिं०-तेजा०-क०-समचदु०-पसत्थ०४-अगु०३-पसत्थ०-तस०४-सुभगसुस्सर-आदें-णिमि०-उच्चा० ज० वड्ढी क० ? अण्ण० चदुगदि० तिण्णि वि मणुसगदिभंगो । एवं ओधिदंसणि-सम्मादि०-खइग०-वेदग०-उवसम०-सम्मामिच्छादिहि त्ति । णवरि खइगे पसत्था० सत्थाणे ज० वड्डी क० ? अण्ण० सव्वसंकि० अणंतभागेण तिण्णि वि० । मणपजव० खविगाणं ओघं । सेसाणं ओधिभंगो । एवं संजद-सामाइ०
५९९. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें प्रथम दण्डकका भङ्ग ओघके समान है। सातावेदनीय, असातावेदनीय और स्थिर आदि तीन युगलके तीनों पदोंका स्वामी चारों गतिका जीव है। शेष संयमके अभिमुख प्रकृतियोंका भी भङ्ग ओघके समान है। मनुष्यगतिपञ्चककी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? साकार-जागृत और तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेशसे प्रतिभन्न हुआ अन्यतर देव और नारकी जीव अनन्तभागवृद्धिरूपसे जघन्य वृद्धिका स्वामी है। तथा वही अनन्तर समयमें जघन्य अवस्थानका स्वामी है। जघन्य हानिका स्वामी कौन है ? साकार-जागृत, उत्कृष्ट संक्लेशयुक्त और मिथ्यात्वके अभिमुख हुआ जो अन्यतर जीव अन्तिम अनुभागबन्धमें अवस्थित है वह जघन्य हानिका स्वामी है। मनुष्यायुकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? जघन्य पर्याप्त निवृत्तिसे निवृत्तमान तथा परिवर्तमान मध्यम परिणामवाला अन्यतर देव और नारकी अनन्तभागवृद्धि के साथ जघन्य वृद्धिका स्वामी है, अनन्तभागहानिके साथ जघन्य हानिका स्वामी है तथा इनमेंसे किसी एक स्थानमें जघन्य अवस्थानका स्वामी है। देवायुकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? जघन्य पर्याप्त निवृत्तिसे निवृत्तमान और जघन्य परिवर्तमान मध्यम परिणामवाला अन्यतर तिर्यश्च और मनुष्य यथायोग्य तीनों पदोंका स्वामी है। देवगतिचतुष्ककी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? अन्यतर तियश्च और मनुष्यके मनुष्यगतिके समान भङ्ग है। पञ्चेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और उच्चगोत्रकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? अन्यतर चारों गतिका जीव तीनों ही पदोंका स्वामी है जो मनुष्यगतिके समान भङ्ग है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि क्षायिकसम्यक्त्वमें प्रशस्त प्रकृतियोंकी स्वस्थानमें जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? अन्यतर सर्वसंक्लिष्ट जीव अनन्तभाग वृद्धि, हानि और तदनन्तर अवस्थानरूपसे तीनों ही पदोंका स्वामी है। मनःपर्ययज्ञानी जीवोंमें क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग अवधिज्ञानी जीवोंके समान
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे छेदो०-परिहार०-संजदासंज० । णवरि किंचि विसेसो णादव्यो ।
६००. असंजदेसु पढमदंडओ मणुसस्स असंजदसम्मादिहिस्स । सेसं मदिभंगो ओपो व । चक्खु. तसपञ्जत्तभंगो । अचक्खु० ओघं । ___६०१. किण्णाए पढमदंडओ णिरयोघं । एवं विदियदंडओ । सादादिदंडओ तिगदिय० । इत्थि०-णवूस० तिगदिय० । अरदि-सोग० णेरइगस्स सम्मादि० । चदु०आउ० ओघं। दोगदि-चदुजा०-दोआणु०-थावरादि०४दंडओ णqसगभंगो । तिरिक्खगदितियं ओघं । मणुसगदिदंडओ तिगदियस्स । पंचिं०दंडओ तिगदियस्स संकिलेसं० । ओरा०-ओरा०अंगो०-उजो० रइ० मिच्छादि० सव्वसंकि० । वेउ.वेउ अंगो० दुगदियस्स मिच्छा० उक्क०संकि० । आदावं दुगदिय० तप्पा०संकि० । तित्थ० ओघं । णील-काऊणं किण्णभंगो। णवरि तिरिक्खगदितिय० एइंदियभंगो। पंचिंदियदंडओ णिरयभंगो। वेउवि०-वेउव्वि०अंगो०-आदाव० ज. दुगदिय० तप्पा०संकि०। दोगदि-चदुजादि-दोआणु०-थावर०४-णqसग-मणुसगदिदंडओ तिगदियस्स कादव्वं ।
६०२. तेउले० पढमदंडओ परिहारभंगो। विदियदंडगादिसंजमाभिमुहाणं है। इसी प्रकार संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत और संयतासंयत जीवोंके जानना चाहिए । किन्तु इनमें जो कुछ विशेषता है वह जान लेनी चाहिए।
६००. असंयतोंमें प्रथम दण्डकके तीनों पदोंका स्वामी असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्य है। शेष भङ्ग मत्यज्ञानी जीवों और ओघके समान है। चक्षुदर्शनवाले जीवोंमें त्रसपर्याप्त जीवोंके समान भङ्ग है । अचक्षुदर्शनवाले जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है।
६०१. कृष्ण लेश्यामें प्रथम दण्डकका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है। इसी प्रकार दसरे दण्डकका भङ्ग जानना चाहिए। सातावेदनीय आदि दण्डकके तीनों पदोंका स्वामी तीन गतिका जीव है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके तीनों पदोंका स्वामी तीनों गतिका जीव है। अरति और शोकके तीनों पदोंका स्वामी सम्यग्दृष्टि नारकी है । चारों आयुओंका भङ्ग ओघके समान है। दो गति, चार जाति, दो आनुपूर्वी और स्थावर आदि चार दण्डकका भङ्ग नपुंसकवेदी जीवोंके समान है। तिर्यश्वगतित्रिकका भङ्ग ओघके समान है। मनुष्यगतिदण्डकके तीनों पदोंका स्वामी तीन गतिका जीव है । पञ्चन्द्रियजातिदण्डकके तीनों पदोंका स्वामी संक्लिष्ट तीनों गतिका जीव है। औदारिकशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग और उद्योतके तीनों पदोंका स्वामी सर्वसंच्छिष्ट मिथ्यादृष्टि नारकी है। वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकाङ्गोपाङ्गके तीनों पदोंका स्वामी उत्कृष्ट संकेशयुक्त मिथ्यादृष्टि दो गतिका जीव है। आतपके तीनों पदोंका स्वामी तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट दो गतिका जीव हैं। तीर्थकर प्रकृतिका भङ्ग ओघके समान है। नील और कापोत लेश्यामें कृष्णलेश्याके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि तिर्यश्चगतित्रिकका भङ्ग एकेन्द्रियोंके समान है। पश्चेन्द्रियजातिदण्डकका भंग नारकियोंके समान है। वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकआंगोपांग और आतपके तीनों पदोंका स्वामी तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट दो गतिका जीव
। दो गति, चार जाति, दो आनुपूर्वी, स्थावर चतुष्क, नपुंसकवेददण्डक और मनुष्यगतिदण्डकके तीनों पदोंका स्वामित्व तीन गतिके जीवोंके कहना चाहिए ।
६०२. पीतलेश्यामें प्रथम दण्डकका भङ्ग परिहारविशुद्धिसंयतोंके समान है। द्वितीय
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पदणिक्खेवे सामित्तं
३५५
ओघं । साददंडओ तिगदिय० । इत्थि० णवुंस० देव० तप्पा० विसु० तिष्णि वि । अरदि- सोग० ओघं' । दोगदि - दोजादि - छस्संठा० - छस्संघ० - दोआणु ० दोविहा० -तसथावरादितिष्णियु० देवस्स । देवगदि०४ ज० वड्ढी क० १ अण्ण० तिरिक्ख० मणुस ० सव्वसं० । ओरालि० याव णिमि० त्ति सोधम्मभंगोर । ओरा० अंगो० देवस्तस तप्पा० संकिलि० । तित्थ० देवस्स । एवं पम्मा वि । णवरि पंचिंदियदंडओ सहस्सारभंगो ।
६०३. सुक्काए खविगाणं संजमाभिमुहाणं च ओघं । साददंडओ तिगदिय० । सेसाणं पि आणदभंगो। देवगदि ०४ पम्मभंगो ।
६०४. भवसि० ओघं । अब्भवसि ० पढमदंडओ ज० क० १ अण्ण० चदुग० सव्ववि० । सेसाणं ओघं । सासणे पढमदंडओ चदुग० सव्वविसु० । सादादिदंडओ चदुग० | पंचिं ० -ओरा० दंडओ चदुग० सव्वसंकि० । तिरिक्खगदितियं सत्तमाए सव्वविसु० | मिच्छादि० मदि० भंगो । असण्णी० पढमदंडओ सव्वविसु० । सेसं ओघं । आहार • ओघं । एवं जहण्णयं समत्तं ।
एवं सामित्तं समत्तं ।
दण्डक आदि संयम अभिमुख प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है । सातावेदनीयदण्डकके तीनों पदोंका स्वामी तीन गतिका जीव है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके तीनों ही पदोंका स्वामी तत्प्रायोग्य विशुद्ध देव है । अरति और शोकका भङ्ग ओघके समान है । दो गति, दो जाति, छह संस्थान, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति और त्रस व स्थावर आदि तीनों युगलोंके तीनों पदों का स्वामी देव है । देवगतिचतुष्क की जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? अन्यतर सर्वसंक्लिष्ट तिर्यन और मनुष्य यथायोग्य तीनों पदोंका स्वामी है । औदारिकशरीरसे लेकर निर्माण तककी प्रकृतियोंका भंग सौधर्म कल्पके समान है । औदारिक आंगोपांगके तीनों पदोंका स्वामी यथायोग्य तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट देव है । तीर्थङ्करप्रकृतिका स्वामी देव है । इसी प्रकार पद्मलेश्या में भी जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि पचेन्द्रियजातिदण्डकका भंग सहस्रार कल्पके समान है । ६०३. शुक्ललेश्यामें क्षपक और संयमके अमिमुख प्रकृतियोंका भंग ओघके समान है । सातावेदनीय दण्डकके तीनों पदोंका स्वामी तीन गतिका जीव है। शेष प्रकृतियोंका भी भंग आनत कल्पके समान है । देवगतिचतुष्कका भंग पद्मलेश्याके समान है ।
६०४. भव्योंमें ओघके समान भंग है । अभव्योंमें प्रथम दण्डकके तीनों जघन्य पदोंका स्वामी कौन है ? सर्वविशुद्ध अन्यतर चार गतिका जीव स्वामी है। शेष प्रकृतियोंका भंग ओघके समान है । सासादनसम्यक्व में प्रथम दण्डकके तीनों पदोंका स्वामी सर्वविशुद्ध चारों गतिका जीव है । सातावेदनीय आदि दण्डकके तीनों पदोंका स्वामी चारों गतिका जीव है । पचेन्द्रियजाति और औदारिकशरीरदण्डकके तीनों पदोंका स्वामी सर्व संक्लिष्ट चारों गतिका जीव है । तिर्यचगतित्रिकके तीनों पदोंका स्वामी सातवीं पृथिवीको सर्वविशुद्ध नारकी है । मिथ्यादृष्टि जीवोंमें मत्यज्ञानी जीवोंके समान भंग है । असंज्ञी जीवोंमें प्रथम दण्डकके तीनों पदोंका स्वामी सर्वविशुद्ध जीव है। शेष भंग ओघके समान है । आहारक जीवोंमें ओघके समान भंग है । इस प्रकार जघन्य स्वामित्व समाप्त हुआ ।
इस प्रकार स्वामित्व समाप्त हुआ ।
१. ० प्रतौ तिणि वि श्रोषं इति पाठः । २. आ. प्रतौ णिमि० इत्थि० सोधम्मभंगो इति पाठः ।
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महाबंचे अणुभागबंधाहियारे
अप्पाबहुअं
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६०५. अप्पाबहुगं दुवि० जह० उक्क० । उक्क० पगदं । दुवि० - ओघे० आदे० । ओषे० पंचणा० - णवदंसणा ० - असादा० - मिच्छ० – सोलसक० - सत्तणोक ० - तिरिक्ख ० एदि ० - हुंड - अप्पसत्थ ०४ - तिरिक्खाणु ० - उप० - थावर - अथिरादिपंच ० - णीचा० - पंचत० सव्वत्थोवा उक्क० वड्ढी । उक्क० अवद्वा० विसेसाधिया । उक्क० हाणी विसे० | सादा० देवग०- पंचिं ० - वेडव्वि ० - आहार० - तेजा ० - ० - समचदु ० - दोअंगो० - पसत्थ ०४ - देवाणु ०अगु० ३ - पसत्थवि ० -तस०४ - थिरादिछ० - णिमि० - तित्थ० - उच्चा० सव्वत्थो ० उक्क० अवट्ठा० । उक्क० हाणी अनंतगु० । उक्क० वढी अनंतगु० । इत्थि० - पुरिस० - चदुआउ०- दोगदि - तिण्णिजादि - ओरालियसरीर-चदुसंठा० - - ओरालि० अंगो० -छस्संघ ०दोआणु ० -आदा० - अप्पसत्थ० -सुहुम' ० - अपज ० - साधार० - दुस्सर० सव्वत्थोवा उक० बड्डी । उ० हाणी अवट्ठाणं च दो वि तुल्लाणि विसेसा० । उज्जो० उक्क० हाणी अट्ठा० दो वि तुल्लाणि थोवाणि । उ० वड्डी अनंतगु० ।
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६०६. णेरइएसु सव्वपगदीणं सव्वत्थोवा उ० बड्डी । उ० हा० अवट्ठाणं च दो वितुल्लाणि विसे० । उज्जो० ओघं । एवं सत्तमाए । उवरिमासु छसु उज्जोवं इत्थिभंगो ! सेसा एवमेव । सव्वतिरिक्ख सव्वअपज ० - सव्वदेवस्स एइंदि० - विगलिं०-पंचकायाणं ओरालियम ० - उ०- आहार' ० - आहारमि० - पंचले ० - अन्भव ० - सासण०
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अल्पबहुत्व
६०५. अल्पबहुत्व दो प्रकारका है- जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघसे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, सात नोकषाय, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यच गत्यानुपूर्वी, उपघात, स्थावर, अस्थिर आदि पाँच, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायकी उत्कृष्ट वृद्धि सबसे स्तोक है । इससे उत्कृष्ट अवस्थान विशेष अधिक है । इससे उत्कृष्ट हानि विशेष अधिक है । सातावेदनीय, देवगति, पचेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, आहारकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, दो आंगोपांग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण, तीर्थङ्कर और उच्चगोत्रका उत्कृष्ट अवस्थान सबसे स्तोक है । इससे उत्कृष्ट हानि अनन्तगुणी है। इससे उत्कृष्ट वृद्धि अनन्तगुणी है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद, चार आयु, दो गति, तीन जाति, औदारिकशरीर, चार संस्थान, औदारिक अंगोपांग, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, आप, अप्रशस्त विहायोगति, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण और दुःस्वरकी उत्कृष्ट वृद्धि सबसे स्तोक है । इससे उत्कृष्ट हानि और अवस्थान दोनों ही तुल्य होकर विशेष अधिक हैं । उद्योतकी उत्कृष्ट हानि और अवस्थान दोनों ही तुल्य होकर सबसे थोड़े हैं । इनसे उत्कृष्ट वृद्धि अनन्तगुणी है । ६०६. नारकियोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट वृद्धि सबसे थोड़ी है । इससे उत्कृष्ट हानि और अवस्थान दोनों ही तुल्य होकर विशेष अधिक हैं । उद्योतका भंग के है T इसी प्रकार सातवीं पृथिवीमें जानना चाहिए। पहलेकी छह पृथिवियोंमें उद्योतका भंग स्त्रीवेदके समान है । शेष प्रकृतियोंका भंग भी इसी प्रकार है । सब तिर्यञ्च, सब अपर्याप्त, सब देव एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, पाँचों स्थावरकाय, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिककाय
१. आ० प्रतौ अप्पसत्य०४ सुहुम० इति पाठः । २ ता० प्रतौ पंचकायाणं च । ओरालियमि० बेड० वेउ०मि० आहार० इति पाठः ।
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पदणिक्खेवे अप्पाबहुअं
३५७ असण्णि० णेरइगभंगो। णवरि दोण्हं मिस्साणं आउ० ओघं । सेसाणं सव्वत्थो० उ० हाणी अवट्ठाणं च । उक्क० वड्डी अणंतगुः । एवं वेउब्वियमि० । एदेसिं उज्जोवं जाणिदव्वं ।
६०७, मणुस०३-पंचिं०-तस०२-पंचमण०-पंचवचि०-ओरा -इत्थि०-पुरिस०णस०-चक्खुदं०-सुक्क०-सण्णि. खविगाणं ओघ । सेसाणं णिरयभंगो। उज्जो०
ओघं । णवरि मणुस-[३] इत्थि०-पुरिस वजेसु । कायजोगि-कोधादि०४-मदि०-सुद०विभंग०-असंज०-अचक्खु-भवसि०-मिच्छादि०-आहारए ति ओघभंगो। कम्मइ० देवगदिपंचग० सव्वत्थो० वड्डी । हाणी विसे । सेसाणं पगदीणं सव्वत्थो० अवट्ठा० । बड्डी अणंतगु० । हाणी विसेसाधिया । अवगद० सव्वाणं सव्वत्थो० उ० हाणी । उ० बड्डी अणंतगु० । एवं सुहुमसं०। आभिणि-सुद०-ओधि० मिच्छत्ताभिमुहाणं सव्वत्थो० उ० हाणी अवहाणं च । उ० वडढी अणंतगु० । खविगाणं ओघं । एवं मणपज्जव०-संज०-सामा०-छेदो०-परिहार०-संजदासंज०-ओधिदं०-सम्मा०-खइग०वेदग०-उवसम०-सम्मामि० । णवरि खइगे अप्पसत्थ० ओघं इत्थिवेदभंगो।
एवं उक्कस्सं समत्तं । योगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, पाँच लेश्यावाले, अभव्य, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंज्ञी जीवोंमें नारकियोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि दो मिश्रयोगोंमें आयुका भङ्ग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट हानि और अवस्थान दोनों ही तुल्य होकर सबसे स्तोक हैं। इनसे उत्कृष्ट वृद्धि अनन्तगुगी है। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें जानना चाहिए । इनके उद्योत भी जानना चाहिए।
६०७. मनुष्यत्रिक, पञ्चेन्द्रियद्विक, त्रसद्विक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, औदारिककाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी, चक्षुदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले और संज्ञी जीवोंमें क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग नारकियोंके समान है। उद्योतका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि मनुष्यत्रिक, स्त्रीवेदो और पुरुषवेदी जीवोंको छोड़कर कहना चाहिए । काययोगी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभङ्गज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, भव्य, मिथ्यादृष्टि और आहारक जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है। कार्मणकाययोगी जीवोंमें देवगतिपश्चककी उत्कृष्ट वृद्धि सबसे स्तोक है। इससे उत्कृष्ट हानि विशेष अधिक है। शेष प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अवस्थान सबसे स्तोक है। इससे उत्कृष्ट वृद्धि अनन्तगुणी है। इससे उत्कृष्ट हानि विशेष अधिक है। अपगतवेदी जीवोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट हानि सबसे स्तोक है । इससे उत्कृष्ट वृद्धि अनन्तगुणी है । इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्परायिकसंयत जीवोंमें जानना चाहिए। आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें मिथ्यात्वके अभिमुख प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट हानि और अवस्थान सबसे स्तोक हैं । इनसे उत्कृष्ट वृद्धि अनन्तगुणी है । क्षपक प्रतियोंका भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें अप्रशस्त प्रकृतियोंका भङ्ग ओघसे स्त्रीवेदके समान है।
इस प्रकार उत्कृष्ट अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। १. आ० प्रतौ पंचमण० ओरा० इति पाठः । २. ता. प्रतौ ओघं । मणपज० इति पाठः ।
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३५८
महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ६०८. जह० पगदं । दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० पंचणाo-णवदंस-मिच्छ०सोलसक०-पुरिस०-हस्स-रदि-भय-दु०-अप्पसत्थव०४-उप०-पंचंत० सव्वत्थो० ज० हा०। ज० वड्ढी' अणंतगु० । सादासाद०-चदुणोक०-चदुआउ०-तिगदि-पंचजा०पंचसरीर-छस्संठा०-तिण्णिअंगो०-छस्संघ०-पसत्थ०४-तिण्णिआणु०-अगुरु०३-आदाउज्जो०-दोविहा०-तसादिदसयु [णिमि० ] उच्चा'० ज० वडढी हाणी अवट्ठाणं च तिणि वि तुल्लाणि । तिरिक्खगदितिगं तित्थ० सव्वत्थो० ज० हाणी। वड्डी अवट्ठाणं च दो वि तु० अणंतगु० । एवं ओघभंगो मणुस०३-पंचिं०-तस०२-पंचमण-पंचवचि०कायजोगि०-ओरा०-इत्थि०-पुरिस०.णस०-कोधादि४-मदि०-सुद०-असंज०-चक्खु०अचक्खु -भवसि०-मिच्छा०-सण्णि-आहारए ति । णवरि मणुस०३-ओरा०-इत्थि०पुरिस० तिरिक्खगदितिग० सादभंगो।
६०९. णिरएसु थीणागिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणु०४-तिरिक्ख०३ ओघं । सेसाणं तिण्णि वि तुल्लाणि । एवं सत्तमाए । एवमेव छसु उवरिमासु । तिरिक्ख०३ सादभंगो। तिरिक्खेसु णिरयभंगो। अपञ्चक्खाण०४ ओघ । सव्वदेव०-वेउवि०-वेउवि०मि० णिरयभंगो। सव्वअपज०-एइंदि०-विगलिं०-पंचकायाणं च तिणि वि तु० । ओरा०
६०८. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, अप्रशस्त वर्णचतुष्क,. उपघात और पाँच अन्तरायकी जघन्य हानि सबसे स्तोक है। इससे जघन्य वृद्धि अनन्तगुणो है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार नोकपाय, चार आयु, तीन गति, पाँच जाति, पाँच शरीर, छह संस्थान, तीन आंगोपांग, छह संहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, तीन आनुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, सादि दस युगल, निर्माण और उच्चगोत्रकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान तीनों ही तुल्य हैं । तिर्यश्चगतित्रिक
और तीर्थङ्करकी जघन्य हानि सबसे स्तोक है । जघन्य वृद्धि व अवस्थान दोनों ही तुल्य होकर उससे अनन्तगुणे है। इस प्रकार ओघके समान मनुष्यत्रिक, पश्चन्द्रियद्विक, त्रसद्विक, पाँची मनोयोगो, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, भव्य, मिथ्यादृष्टि, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि मनुष्यत्रिक, औदारिककाययोगी, स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीवोंमें तिर्यश्चगतित्रिकका भंग सातावेदनीयके समान है।
६०९. नारकियोंमें स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क और तिर्यश्चगतित्रिकका भंग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंके तीनों ही पद तुल्य हैं। इसी प्रकार सातवीं पृथिवीमें जानना चाहिए । इसी प्रकार पहलेकी छह पृथिवियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि तिर्यश्चगतित्रिकका भंग सातावेदनीयके समान है। तिर्यश्चोंमें नारकियोंके समान भंग है। अप्रत्याख्यानावरण चारका भंग ओघके समान है । सब देव, वैक्रियिककाययोगी और वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें नारकियोंके समान भंग है। सब अपर्याप्त, एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और पाँच स्थावरकायिक जीवोंमें सब प्रकृतियोंके तीनों ही
१ ता० प्रतौ ज० हा० । वड्डी इति पाठः । २. ता० आ० प्रत्योः तसादिदोण्णियु० उच्चा० इति पाठः ।
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वड्ढीए समुक्त्तिणा
३५९ मि०-आहार-आहारमि०तिणि वि० तु०। कम्मइ०-अब्भव' ०-सासण०-असण्णिअणाहारए ति णिरयभंगो।।
६१०. आभिणि-सुद०-ओधि० पढमदंडओ ओघ । मणुस० सव्वत्थो० ज० हाणी । वड्डी अवट्ठाणं दो वि तु० अणंतगु० । एवं सव्वसंकिलिट्ठाणं पगदीणं । एवं मणप०-संज०-सामा०-छेदो०-परिहार०-संजदासंज-ओघिदं०-सम्मा०-खइग-वेदग०उवसम-सम्मामि०। अवगदवे० सुहुमसं० सव्वत्थो० ज० हाणी । [ज० ] वड्डी अणंतगु० । परिहार०-तेउ०-पम्म० अप्पसत्थाणं पगदीणं सव्वत्थो० ज० हाणी । वड्डी अवट्ठाणं अणंतगु०।
एवं पदणिक्खेवे त्ति समत्तं ।
वड्ढी समुकित्तणा ६११. वड्डिबंधे त्ति तत्थ इमाणि अणियोगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति । तं जहा-समुकित्तणा याव अप्पाबहुगेत्ति । समुकित्तणा दुवि०-ओघे० आदे। ओघे० सव्वपगदीणं अत्थि छवड्डि• छहाणि० अवहि० अवत्तव्वबंधगा य । एवं ओघभंगो मणुस०३-पंचिं०-तस० २-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि-ओरा०-आभिणि-सुद-ओधि०-मणपज०-संज०-चक्खु०पद तुल्य हैं। औदारिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें सब प्रकृतियोंके तीनों ही पद तुल्य हैं। कामेणकाययोगी, अभव्य, सासादनसम्यग्दृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंमें नारकियोंके समान भंग है।
६१०. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें प्रथम दण्डक ओघके समान है। मनुष्यगतिकी जघन्य हानि सबसे स्तोक है। इससे वृद्धि और अवस्थान दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे हैं। इसी प्रकार संक्लेशसे जघन्य अनुभागबन्धको प्राप्त होनेवाली सब प्रकृतियोंके विषयमें जानना चाहिए। इसी प्रकार मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। अपगतवेदी और सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंमें जघन्य हानि सबसे स्तोक है। इससे जघन्य वृद्धि अनन्तगुणी है। परिहारविशुद्धिसंयत, पीतलेश्या और पद्मलेश्यामें अप्रशस्त प्रकृतियोंकी जघन्य हानि सबसे स्तोक है। इससे जघन्य बृद्धि और अवस्थान अनन्तगुणे हैं।
इस प्रकार पदनिक्षेप समाप्त हुआ।
वृद्धि समुत्कीर्तना ६११. वृद्धिबन्धका प्रकरण है । उसमें ये अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं। यथा-समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्व तक । समुत्कीर्तना दो प्रकारको है-ओघ और आदेश । ओघसे सब प्रकृतियोंकी छह वृद्धि, छह हानि, अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीव हैं। इसी प्रकार ओघके समान मनुष्यत्रिक, पञ्चेन्द्रियद्विक, त्रसद्विक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककायोगी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, चक्षु
१. ता प्रतौ आहारमि० कम्मइ० तिण्णि वि० तु. अब्भव०. आ० प्रतौ आहारमि० कम्मइ० तिण्णि वि० । अन्भव० इति पाठः । २. ता० प्रतौ सुहुमसं० ज० (स) व्वत्थो० हा०. आ० प्रतौ सुहुमसं० सव्वत्यो हाणी इति पाठः।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे अचक्खु०-ओधिदं०-सुक्कले०-भवसि०-सम्मा०-खइग०-उवसम०-सण्णि-आहारए ति ।
६१२. णिरएसु धुविगाणं अत्थि छवडि० छहाणि अवहि० । सेसं ओघमंगो। णवरि पढमाए तित्थ० अवत्त० णस्थि । एवं सव्वणेरइय-पंचिं०तिरि०अपज०-देवा०, तित्थ० धुवभंगो, सव्वएइंदि०-विगलिं०-पंचका०-ओरा०मि०-वेउ०-वेउ०मि०
आहार'-आहारमि०-कम्मइ०-मदि०-सुद०-विभंग-परिहा.-संजदासंज०-असंज०. पंचले -अब्भव०-सासण-सम्मामि०-असण्णि-अणाहारि त्ति । ओरालि मि०-कम्मई'.अणाहार० देवगदिपंचग० अवत्त० णत्थि १३ । वेउव्वियमि०-किण्ण. -णील. तित्थय० १३ अवत्त० णत्थि ।
६१३. इत्थि०-पुरिस०-णस०-कोघे पंचणा०-चदुदं०-चदुसंज०-पंचंत० अत्थि० छवड्डि. छहाणि० अवहि० । सेसाणं ओघं । माणे तिण्णिसंज० मायाए दोसंज० लोमे पंचणा०- चदुदंस०-पंचंत० अत्थि छवड्डि• छहाणि० अवढि० । सेसं ओषं । अवगदवेदे सव्वाणं अत्थि अणंतगुणवड्ढि० हाणि० अवत्तव्वबंधगा य । एवं सुहुमसंप० । णवरि दर्शनी, अचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ललेइयावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिए ।
६१२. नारकियोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी छह वृद्धि, छह हानि और अवस्थितपदके बन्धक जीव हैं। शेष भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि पहली पृथिवीमें तीर्थक्कर प्रकृतिका अवक्तव्य पद नहीं है। इसी प्रकार सब नारकी, पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त और देवोंमें जानना चाहिये ।, मात्र देवोंमें तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके समान है। तथा इसी प्रकार सब एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, पाँचों स्थावरकाय, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभङ्गज्ञानी, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, असंयत, पाँच लेश्यावाले, अभव्य, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए। मात्र औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें देवगतिपञ्चकका अवक्तव्यपद नहीं है, तेरह पद हैं। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कृष्णलेश्या और नीललेश्यामें तीर्थङ्कर प्रकृतिके तेरह पद हैं, अवक्तव्यपद नहीं है।
६१३. स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी और क्रोध कषायमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायकी छह वृद्धि, छह हानि और अवस्थितपदके बन्धक जीव हैं। शेष भङ्ग ओघके समान है । मानकषायमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, तीन संज्वलन और पाँच अन्तरायकी, माया कषायमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, दो संज्वलन और पाँच अन्तरायकी तथा लोभकषायमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायकी छह वृद्धि, छह हानि और अवस्थितपदके बन्धक जीव हैं। शेष भङ्ग ओघके समान है। अपगतवेदी जीवोंमें सब प्रकृतियोंकी अनन्तगुणवृद्धि. अनन्तगुणहानि और अवक्तव्यपदके बन्धक जीव हैं। इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता
१. ता. प्रतौ ओरा० वेउब्वियका. वेउव्विय. आहार० इति पाठः। २. श्रा० प्रतौ ओरालि. कम्मइ० इति पाठः। ३. आ० प्रतौ वेउब्विय० किण्ण० इति पाठः। ४. ता. प्रतौ अवगदवेदेवेद (१) सव्वाणं इति पाठः।
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वड्ढीए कालो अवत्त० णत्थि । सामाइ०-छेदो० पंचणा०-चदुदंस'०-लोभसंज०-उच्चा०-पंचंत० अस्थि छवड्डि० छहाणि० अवढि० बंधगा य ।
एवं समुक्त्तिणा समत्ता
सामित्तं ६१४. सामित्ताणुगमेण दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० पंचणा-छदंस०-चदुसंज०भय-दु०-तेजा०-क०-वण्ण० ४-अगु-उप०-णिमि०-पंचंत० छवड्डि० छहाणि० अवढि० क० ? अण्ण० । अवत्त० क० ? अण्ण० उवसा० परिवद० मणुसस्स वा मणुसीए वा पढमसमयदेवस्स वा । एदेण कमेण भुजगारसामित्तभंगो अवसेसाणं सव्वाणं । एवं याव अणाहारए ति णादव्वं ।
कालो ६१५. कालाणुगमेण दुवि० । ओघे० सव्यपगदीणं पंचवड्डि० पंचहाणिबंधगा केवचिरं कालादो होदि ? ज० ए०, उ० आवलि० असंखें भागो। अणंतगुणवड्विहाणि० ज० ए०, उ० अंतो० । अवहि० ज० ए०, उ० सत्तट्ट सम० । अवत्त० ज० [उ०] ए. । एवं याव अणाहारए ति णेदव्वं । है कि इनमें अवक्तव्यपद नहीं है। सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवों में पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, लोभ संज्वलन, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायकी छह वृद्धि, छह हानि और अवस्थितपदके बन्धक जीव हैं । शेष भङ्ग ओघके समान है।
इस प्रकार समुत्कीतना समाप्त हुई।
स्वामित्व ६१४. स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुम्लघ, उपघात, निर्माण और पांच अन्तरायकी छह वृद्धि, छह हानि और अवस्थितपदके बन्धक जीव कौन है ? अन्यतर जीव बन्धक है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीव कौन हैं? उपशमश्रेणिसे गिरनेवाला अन्यतर मनुष्य, मनुष्यनी और प्रथम समयवर्ती देव अवक्तव्यपदका बन्धक है। शेष सबका इसी क्रमसे भुजगारानुगमके स्वामित्वके समान भङ्ग है। अनाहारक तक इसी प्रकार जान लेना चाहिए।
काल ६१५. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओबसे सब प्रक्रतियोकी पाँच द्धि और पाँच हानिके बन्धक जीवोंका कितना काल है? जघन्य काल एक समय है, और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनन्तगुणद्धि और अनन्तगुणहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुद्रत है। अवस्थितपदके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सात-आठ समय है। अवक्तव्यपदके बन्धक जावाका जघन्य आर उत्कृष्ट काल एक समय है। इसी प्रकार अनाहारक मागणा तक जानना चाहिए।
१. आ० प्रती पंचणा. पंचदंस• इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे
अंतरं ६१६. अंतराणुगमेण दुवि० । ओषेण पंचणा-छदंस०-चदुसंज०-भय-दु०-तेजा०क०-वण्ण० ४-अगु०-उप०-णिमि०-पंचंत. पंचवड्ढि०-हाणिबंधंतरं केवचिरं कालादो ? ज० ए०, उ० असंखेंजा' लोगा। [ अवडि० एसेव भंगो।] अणंतगुणवड्डि- हाणिबंधतरं ज० ए०, उ० अंतो। अवत्त० ज० अंतो०, उ० अद्धपोग्गल । तित्थय०२ पंचवड्डि-हाणि-अवढि० ज० ए०, उ० तेत्तीसं० सादि० । एवं अवत्त । णवरि जह. अंतोमु० । अणंतगुणवड्डि-हाणि० ज० ए०, उ० अंतो० । एदेण कमेण भुजगारभंगो कादव्यो । एवं याव अणाहारए त्ति णेदव्वं ।
विशेषार्थ-यहाँ जितने पद कहे हैं उन सबका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। तथा प्रारम्भकी पाँच वृद्धि और पाँच हानिका उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवं भागप्रमाण, शेष दो वृद्धि-हानियाका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूत, अवस्थितपदका उत्कृष्ट काल सात-आठ समय और अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट काल एक समय होनेसे उक्तप्रमाण कहा है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक यथायोग्य एक जीवकी अपेक्षा काल घटित कर लेना चाहिए।
अन्तर ६१६. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायकी पाँच वृद्धि और पाँच हानिबन्धका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। अवस्थितपदका यही भङ्ग है। अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानि बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण है । तीर्थङ्कर प्रकृतिकी पाँच वृद्धि, पाँच हानि और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। इसी प्रकार अवक्तव्य बन्धका भी अन्तरकाल जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है.। अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। उसी क्रमसे भुजगारप्ररूपणाके समान अन्तरकाल करना चाहिए । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए ।
विशेषार्थ-यह सम्भव है कि पाँच ज्ञानावरणादिकी पाँच वृद्धि और पाँच हानि एक समक्के अन्तरसे हों और अनुभागबन्धके परिणामोंके अनुसार असंख्यात लोकप्रमाण कालके अन्तरसे हों, इसलिए इन वृद्धियों और हानियोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानिका एक समय अन्तर तो स्पष्ट है पर उत्कृष्ट अन्तर जो अन्तर्मुहूर्तप्रमाण कहा है, उसका कारण यह है कि ये दोनों यदि नहीं होती हैं तो अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्त कालतक ही नहीं होती,
१. ता. प्रतौ पंचंत०।उक्क० हाणि अवन्त बंधतरं केवचिरं कालादो होदि ? जद्द० एग उक्क.] असंखेजा, आ० प्रतौ पंचंत० उक्क० हाणी बंधतरं केवचिरं कालादो १ ज० ए०, उ० असंखेजा इति पाठः।
२. ता. आ० प्रत्योः अद्धपोग्गलः । एवं पंचवड़ि-हाणि अबडि• एसेव भंगो तित्थ० इति पाठः ।
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वड्ढीए भागाभागो णाणाजीवेहि भंगविचओ
६१७. णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमेण दुवि० । ओघेण पंचणा० -णवदंसणा ०मिच्छ०-सोलसक०-भय-दु० -ओरालिय० – तेजा ० - क ० - वष्ण०४ - अगु० - उप० - णिमि०पंचत० छवड्डि-छहाणि अवट्ठि० णियमा अत्थि । सिया एदेय अवत्तगे य । सिया एदे य अवत्तव्वगाय । तिण्णि आउ • सव्वपदा भयणिजा । वेउव्वियछ० - आहार दुगं तित्थय०' अणंतगुणवड्ढि - हाणि० णिय० अत्थि । सेसपदा भयणिञ्जा | सेसाणं सव्वपगदीणं सव्वपदा भणिज्जा । एवं भुजगारभंगो कादव्वो । एवं अणाहारए त्ति दव्वं । भागाभागो
६१८. भागाभागानुगमेण दुवि० | ओघेण पंचणा० णवदंस०-मिच्छ०-सोलसक०भय-दु०-ओरा०-तेजा०-क० वण्ण ०४- अगु० - उप० णिमि० - पंचत० पंचवड्डि- हाणि-अवहि ०
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अन्तर्मुहूर्तकालके बाद ये नियमसे होती हैं । इन प्रकृतियोंका अवक्तव्यपद उपशमश्रेण उतरते समय या उतरते समय मर कर देव होनेपर होता है । किन्तु यहाँ जघन्य अन्तर प्राप्त करना है, इसलिए अन्तर्मुहूर्तके अन्तरसे दो बार उपशमश्रेणि पर आरोहण कराके इनका ब करानेसे जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त ले आये । तथा उपशमश्रेणिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण होनेसे इनके अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुदल परिवर्तनप्रमाण कहा है। इनके अवस्थितपदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर पाँच वृद्धियों और पाँचहानियोंके ही समान है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका उत्कृष्ट बन्धकाल साधिक तेतीस सागर होनेसे यहाँ इसकी पाँच वृद्धि, पाँच हानि, अवस्थित और अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर उक्त प्रमाण कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है ।
नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचय
६१७. नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचयानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायकी छह वृद्धि, छह हानि और अवस्थितपदके बन्धक जीव नियमसे हैं । कदाचित् ये होते हैं और एक अवक्तव्य पदका बन्धक जीव होता है । कदाचित् ये होते हैं और अनेक अवक्तव्य पदके बन्धक जीव होते हैं। तीन आयुओंके सब पद भजनीय हैं। वैक्रियिक छह, आहारकद्विक और तीर्थङ्करप्रकृतिकी अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानिके बन्धक जीव नियमसे हैं। शेष पद भजनीय हैं। शेष सब प्रकृतियोंके सब पद् भजनीय हैं । इस प्रकार भुजगारके समान भङ्ग करना चाहिए । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए ।
भागाभाग
६१८. भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश | ओमसे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायकी पाँच वृद्धि, पाँच हानि और अवस्थितपदके बन्धक जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ?
१. ता० प्रतौ भवणिजा । आहार० २ तित्थ इति पाठः ।
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महाबँधे अणुभागबं धाहियारे
सव्वजीवाणं के० ? असंखें० । अनंतगुणवड्डि० दुभागो सादिरे० । अनंतगुणहा० दुभागो देसू० । अवत्त० अनंतभागो । सेसाणं पगदीणं एसेव भंगी । णवरि अवत्तव्व० असंखे० भा० । आहार०२ पंचवड्डि ' - पंचहाणि अवहि ० - अवत्त० संखैज ० । अनंतगुणवड्डिहाणी ० • णाणा० भंगो । एवं भुजगारभंगो कादव्वो । एवं याव अणाहारए ति दव्वं ।
परिमाणं
६१९. परिमाणं दुवि० । ओघेण पंचणा० छदंसणा० - अहक०-भय-दु०-तेजा०क०वण्ण४- अगु० - उप०- णिमि०-पंचंत० छवड्डि-छहाणि अवट्ठि ० कँत्तिया ? अनंता । अवत्त कतिया ? संखेखा । श्रीणगि ०३ - मिच्छ० अट्ठक० ओरालि० एवं चैव । णवरि अवत्त० असंखे० । तिणिआउ०- वेउब्वियछ० छवड्डि-छहाणि - अवट्ठि ०केंत्तिया ? असंखे० । आहार०२ सव्वपदी के० ९ संखेजा । तित्थय० तेरसपदा के० ? असंखेजा । अवत्त ० के० ? संखे० । सेसाणं सादादीणं चोद्दसपदा' केति ० १ अनंता । एवं भुजगारभंगो काव्यो । एवं याव अणाहारए त्ति दव्वं ।
१०- अवत्त ०
।
असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । अनन्तगुणवृद्धिके बन्धक जीव सब जीवोंके साधिक द्वितीय भागप्रमाण हैं । अनन्तगुणहानिके बन्धक जीव सब जीवोंके कुछ कम द्वितीय भागप्रमाण हैं । अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सब जीवोंके अनन्तवें भागप्रमाण हैं। शेष प्रकृतियों का यही भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सब जीवोंके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । आहारकद्विककी पाँच वृद्धि, पाँच हानि, अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सब जीवोंके संख्यातवें भागप्रमाण हैं । अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानिके बन्धक जीवोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। इस प्रकार भुजगारभंगके समान करना चाहिए। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए ।
परिमाण
६१९. परिमाण दो प्रकारका है— ओघ और आदेश । ओघसे पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, आठ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायको छह वृद्धि, छह हानि और अवस्थितपदके बन्धक जीव कितने हैं ? अनन्त हैं । अवक्तव्यपदके बन्धक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, आठ कषाय और औदारिकशरीरके बन्धक जीवोंका यही भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि अवक्तव्यपदके बन्धक जीव संख्यात हैं। तीन आयु और वैक्रियिक छहकी छह वृद्धि, छह हानि, अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । आहारकद्विकके सब पदोंके बन्धक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । तीर्थङ्करप्रकृतिके तेरह पदके बन्धक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । अवक्तव्यपदके बन्धक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। शेष सातावेदनीय आदि प्रकृतियोंके चौदह पदोंके बन्धक जीव कितने हैं ? अनन्त हैं । इस प्रकार भुजगारभङ्गके समान करना चाहिए । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए ।
१. आ० प्रतौ आहार पंचवट्टि इति पाठः । २. ता० प्रती मेसाणं नोहा इति पाठः । ३. ता० प्रतौ भुजगारभंगो नाव इति पाठः ।
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वड्ढीए फोसणं
३६५ खेतं ६२०. खेत्ताणुगमेण दुवि० । ओघे० पंचणा०-णवदंस-मिच्छ०-सोलसक०-भयदु०-ओरालि०-तेजा०क०-वण्ण० ४-अगु०-उप०-णिमि०-पंचंत० छवाड्वि-छहाणि-अवढि० केवडि खेत्ते ? सव्वलोगे। अवत्त० केव० ? लो० असंखें । तिण्णिआउ०-वेउब्वियछ०-आहारदुग-तित्थ० छवड्वि-छहाणि-अवहि-अवत्त० केव० ? लो० असंखें । सेसाणं चोदसपदा के० ? सव्वलोगे । एवं भुजगारभंगो याव अणाहारए त्ति णेदव्वं ।
फोसणं ६२१. फोसणाणुगमेण दुवि० । ओघे० पंचणा०-छदंस०-अहक०-भय-दु०-तेजा०क०-वण्ण०४-अगु०-उप०-णिमि०-पंचंत० छववि-छहाणि-अवट्ठि. केवडि खेतं फोसिदं ? सव्वलोगो। अवत्त० के० खेतं फोसिदं ? लो० असंखें। थीणगिद्धि०३. अणंताणु०४-तेरसपदा सव्वलो० । अवत्त० अढचों । मिच्छत्त० तेरसपदा णाणा०भंगो। •अवत्त० अह-बारह। अपच्चक्खाण. ४ तेरसपदा सव्वलो० अवत्त० छच्चों । दोआउ०-आहारदुर्ग चौदसपदा लोग. असंखें । मणुसाउ० चोट्सपदा
क्षेत्र ६२०. क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायकी छह वृद्धि, छह हानि और अवस्थितपदके बन्धक जीवोंका कितना क्षेत्र है ? सब लोक क्षेत्र है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है। तीन आयु, वैक्रियिक छह, आहारकद्विक और तीर्थङ्करकी छह वृद्धि, छह हानि, अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यानवें भागप्रमाण क्षेत्र है। शेष प्रकृतियोंके चौदह पदोंके बन्धक जीवोंका कितना क्षेत्र है ? सब लोकप्रमाण क्षेत्र है। इस प्रकार भुजगारभङ्गके समान अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए।
स्पर्शन ६२१. स्पर्शनानुगमको अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, आठ कपाय भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुगलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायकी छह वृद्धि, छह हानि और अवस्थित पदके बन्धक जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्यानगृद्धित्रिक और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके तेरह पदोंके बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। मिथ्यात्वके तेरह पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अप्रत्याख्यानावरण चारके तेरह पदोंके बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह वटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो आयु और आहारकद्विकके चौदह पदोंके
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३६६
महाबंधे अणुभागबंधाहियारे अहचों सव्वलो० । दोगदि-दोआणु० तेरसपदा छच्चों । अवत्त० खेत्त० । ओरा० तेरसपदा णाणा०भंगो। अवत्त० बारह० । वेउव्वि०-वेउ०अंगो० तेरसपदा बारह । अवत्त० खेत । तित्थ० तेरसपदा० अहचों । अवत्त० खेत्तभंगो । सेसाणं सादादीणं चोदेसपदा सव्वलो० । एवं भुजगारभंगो याव अणाहारए त्ति णेदव्यं ।
बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । मनुष्यायुके चौदह पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो गति और दो आनुपूर्वीके तेरह पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। औदारिकशरीरके तेरह पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिक आङ्गोपाङ्गके तेरह पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके तेरह पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। शेष सातावेदनीय आदि प्रकृतियोंके चौदह पदोंके बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक भुजगार भङ्गके समान जानना चाहिए।
विशेषार्थ-पाँच ज्ञानावरणादिके तेरह पदोंका बन्ध एकेन्द्रियादि सब जीव करते हैं । इसलिए उक्त पदोंकी अपेक्षा सब लोकप्रमाण स्पर्शन कहा है। इसी प्रकार स्त्यानगृद्धिदण्डक, मिथ्यात्व, अप्रत्याख्यानावरण चार और औदारिकशरीरकी अपेक्षा उक्त तेरह पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन जानना चाहिए। पाँच ज्ञानावरणादिका अवक्तव्यपद उपशमश्रेणिमें गिरते समय होता है, तथा प्रत्याख्यानावरणचतुष्कका अवक्तव्यपद विरतसे विरताविरत या अविरत होते समय होता है, इसलिए इस पदकी अपेक्षा स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। चारों गतियोंमें सम्यग्दृष्टि जीवोंके सासादन गुणस्थानके प्राप्त होनेपर स्त्यानगृद्धि आदिका अवक्तव्यपद होता है। यतः यह स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण है, क्योंकि इसमें देवोंके विहारवत्स्वस्थान स्पर्शनकी प्रधानता है। इसलिए यह उक्त प्रमाण कहा है। विरत या विरताविरत जीव मर कर उपपादके समय भी अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कका अवक्तव्य पद करते हैं
और इनका स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण है, अतः उक्त प्रकृतियोंके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पशन उक्त प्रमाण कहा है। सासादन जीवोंका स्पशन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण है और इनका मारणान्तिक समुद्धातके समय मिथ्यात्वको प्राप्त होकर मिथ्यात्वका अवक्तव्यबन्ध सम्भव है, अतः मिथ्यात्वके अवक्तव्यपदका स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा है। नरकायु और देवायुका बन्ध स्वस्थानमें असंज्ञी आदि और आहारकद्विकका बन्ध अप्रमत्तसंयत जीव करते हैं, अतः इन प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। मनुष्यायुका बन्ध स्वस्थानमें एकेन्द्रियादि जीव और विहारवत्स्वस्थानमें देव करते हैं, इसलिए इसके सब पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और सब लोकप्रमाण कहा है । मात्र अग्निकायिक और वायुकायिक जीव मनुष्यायुका बन्ध नहीं करते, इतना विशेष जानना चाहिए। नरकगति और नरकगत्यानुपूर्वोका नारकियोंमें मारणान्तिक समुद्बात करनेवाले जीव भी बन्ध करते हैं,
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वढी कालो
कालो
0
६२२. कालानुगमेण दुवि० । ओघे० पंचणा० छदंस ० -अडक० -भय-दु० - तेजा० क० - वण्ण०४- अगु० - उप० - णिमि० - पंचंत० छवड्डि - छहाणि - अवट्ठिदबंधगा केवचिरं कलादो त ? सव्वद्धा । अवत्त० ज० ए०, उ० संर्खेज० | थीणगि ०३ - मिच्छ०अट्ठक० - ओरा ० तेरसपदा सव्वद्धा । अवत० ज० ए०, उ० आवलि० असंखें० । सादादिदंडयस्स चोइसपदा सव्वद्धा । तिण्णिआउ० पंचवड्डि- पंचहाणि-अवहि ० -अवत्त ० ज० ए०, उ० आवलि० असंखे । अनंतगुणवड्डि-हाणि० ज० ए०, उ० पलि० असं० । वेउव्वियछ० बारसपदा ज० ए०, उ० आवलि० असं० । अणंतगुणवड्डि
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अतः इन प्रकृतियोंके तेरह पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है । मात्र ऐसी अवस्थामें इनका अवक्तव्यबन्ध नहीं होता, अतः इनके अवक्तव्ये पदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। मनुष्यों और तिर्यनोंके देवों और नारकियोंमें उत्पन्न होनेपर प्रथम समय में औदारिकशरीरका अवक्तव्यबन्ध होता है और यह स्पर्शन कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण होनेसे इसके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा है। नारकियों और देवोंमें मारणान्तिक समुद्धात करनेवाले जीवोंके वैक्रियिकद्विकका नियमसे बन्ध होता है, अतः इनके तेरह पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। मात्र ऐसे समयमें इनका अवक्तव्यबन्ध नहीं होता, इसलिए इस अपेक्षासे स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है । स्वस्थानविहार के समय देवोंके तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध सम्भव है, अतः इसके तेरह पदोंकी मुख्यतासे स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। तथा इसका अवक्तव्यपद जो दूसरे और तीसरे नरकमें उत्पन्न होकर इसका बन्ध करने लगते हैं उनके, या उपशमश्रेणिसे गिरते समय या ऐसे मनुष्योंके इसके बन्धके समय मर कर देव होनेपर होता है । यतः ऐसे जीव संख्यात हैं, अतः इसके अवक्तव्यपदकी अपेक्षा स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। शेष सातावेदनीय आदि प्रकृतियोंके चौदह पदोंका बन्ध एकेन्द्रिय आदि सब जीव करते हैं, अतः इन प्रकृतियोंके सब पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन सब लोकप्रमाण कहा है । शेष कथन भुजगार अनुयोगद्वारको लक्ष्य में रखकर घटित कर लेना चाहिए ।
काल
६२२. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, आठ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायकी छह वृद्धि, छह हानि और अवftraपदके बन्धक जीवोंका कितना काल है ? सर्व काल है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, आठ कषाय और औदारिकशरीर के तेरह पदोंके बन्धक जीवका सब काल है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । सातावेदनीय आदि दण्डकके चौदह पदोंके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है । तीन आयुओंकी पाँच वृद्धि, पाँच हानि, अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानिके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। वैक्रियिक छहके बारह पदोंके बन्धक जीवोंका जघन्य
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे हाणि सव्वद्धा । एवं तित्थय । णवरि अवत्त० ज० ए०, उ० संखेंज। आहार०२ पंचवड्डि-पंचहा० ज० ए०, उ० आवलि० असंखें । अणंतगुणवड्डि-हाणि० सव्वद्धा । अवढि०-अवत्त० ज० ए०, उ० संखेजः । एवं भुजगारभंगो याव अणाहारए ति णेदव्वं । काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानिके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है। इसी प्रकार तीर्थङ्करकी अपेक्षासे भी काल जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। आहारकद्विककी पाँच वृद्धि और पाँच हानिके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानिके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है । अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। इसी प्रकार भुजगारके समान अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए।
विशेषार्थ-पाँच ज्ञानावरणादिका एकेन्द्रियादि सब जीव तेरह पदोंके साथ बन्ध करते हैं, इसलिए इन प्रकृतियोंके उक्त पदोंकी अपेक्षा सर्वदा काल कहा है। आगे जिन प्रकृतियोंके जिन पदोंका काल सर्वदा कहा है,वहाँ भी यही समझना चाहिए कि उन प्रकृतियोंके विवक्षित पदोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वदा बन्ध होता रहता है। अतः यहाँ इस कालको छोड़कर शेष कालका खुलासा करते हैं-पाँच ज्ञानावरणादिका अवक्तव्यबन्ध उपशमश्रेणिसे गिरते समय होता है और प्रत्याख्यानावरण चारका अवक्तव्यबन्ध विरतसे विरताविरत या अविरत होते समय होता है। ऐसे जीव कमसे कम एक समय तक या लगातार संख्यात समय तक ही यह क्रिया करते हैं, इसलिए इनके अवक्तव्यपदकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है। स्त्यानगृद्धि आदि आठ प्रकृतियोंका अवक्तव्यपद गुणस्थान प्रतिपन्न जीव नीचे उतरते समय यथायोग्य करते है और औदारिकशरीरका अवक्तव्यपद असंज्ञी आदि जीव करते हैं। ये असंख्यात होते हैं, इसलिए यह भी सम्भव है कि इन प्रकृतियोंका अवक्तव्यपद एक समय तक करें और दूसरे समयमें कोई भी जीव अवक्तव्यपद करनेवाले न हों और यह भी सम्भव है कि असंख्यात समय तक क्रमसे नाना जीव इस पदको प्राप्त होते रहें। यही कारण है कि इन प्रकृतियोंके अवक्तव्य पदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असख्यातवं भागप्रमाण कहा है। किन्तु अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानिका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है और क्रमसे व्यवधान रहित होकर अन्तर्मुहूर्तके बाद निरन्तर नाना जीव इन पदोंको असंख्यात बार प्राप्त हो सकते हैं, इसलिए इन दोनों पदोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। वैक्रियिकछहके बारह पदोंका जघन्य काल एक समय तो स्पष्ट ही है, क्योकि प्रत्येक पद एक समय तक होकर दूसरे समयमै न हो। किन्तु इनका उत्कृष्ट काल जो आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है सो उसका कारण यह है कि अवक्तव्यपदका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट काल तो एक ही समय है और अवस्थितपदका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट काल सात-आठ समय है, इसलिए लगातार असंख्यात समय तक भी इन पदोंके होने पर उस सब कालका जोड़ आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होगा, परन्तु शेष दस पदों में से प्रत्येक पढ़का एक जीव की अपेक्षा उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है और यहाँ नाना जीवोंकी अपेक्षा भी यह काल उतना ही कहा है सो इसका भाव यही है कि आवलिके असंख्यातवें भागको भी असंख्यातसे गुणा करने पर जो उत्कृष्ट काल प्राप्त होता है वह भी आवलिके असंख्यातवें
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वड्ढी अन्तरं
अंतरं
६२३. अंतराणुगमेण दुवि० । ओघे० पंचणा० छदंस० - चंदु संज० -भय-दु० ० -तेजा०क०-वण्ण०४-अगु० - उप० - णिमि० - पंचंत० छवड्डि-छहाणि-अवट्ठिदबंधंतरं णत्थि अंतरं । अवत्त० ज० ए०, उ० वासपुधत्तं ० । श्रीणगिद्धि ०३ - मिच्छ० - अणंताणु०४ तेरसपदा० त्थ अंतरं । [ अवत० ] ज० ए०, उ० सत्तरादिंदियाणि । सादादीणं चोदसपदा ० णत्थि अंतरं । अपचक्खाण०४ तेरसपदा णत्थि अंतरं । अवत्त० ज० ए०, उ० चौसरादिदियाणि । एवं पच्चक्खाण०४ । णवरि अवत्त० ज० ए०, उ० पण्णारसरादिदियाणि । तिण्णि आउ० पंचवड्डि- पंचहाणि अवट्ठि० ज० ए०, उ० असंखेजा लोगा । गुणवड्डि-हाण-अवत्त ज० ए०, उ० चदुवीसं मुहुत्तं । वेउ व्वियछ०आहार ०२ पंचवड्डि-पंचहाणि - अवट्ठि ० ज० ए०, उ० असंखेंज्जा लोगा । अनंतगुण
०
भागप्रमाण ही है । इसीसे इन पदोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। तोर्थङ्कर प्रकृतिका सब पदोंका वैक्रियिकपटकके समान होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। मात्र इसका अवक्तव्यपद करनेवाले जीव संख्यात ही होते हैं, अतः इसके अवक्तव्यपदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है । आहारकद्विककी पाँच वृद्धि और पाँच हानि लगातार संख्यात बार ही सम्भव हैं, इसलिए इन पदोंका उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है, क्योंकि एक आवलिके असंख्यातवे भागको संख्यातसे गुणित करने पर भी आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण ही काल उपलब्ध होता है । इनका जघन्य काल एक समय है यह स्पष्ट ही है। तथा इनका अवक्तव्य और अवस्थित पद अधिक से अधिक संख्यात बार होगा, इसलिए इन दोनों पदोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है। इसी प्रकार भुजगार अनुयोगद्वारको ध्यानमें रखकर मार्गणाओंमें भी यह काल समझ लेना चाहिए ।
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अन्तर
६२३. अन्तरानुगमको अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायकी छह वृद्धि, छह हानि और अवस्थितबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व प्रमाण है । स्त्यानगृद्धि तीन मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारके तेरह पदोंका अन्तरकाल नहीं है । अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर सात दिन रात है । सातावेदनीय आदिके चौदह पदोंका अन्तरकाल नहीं है । 'अप्रत्याख्यानावरण चारके तेरह पदोंका अन्तरकाल नहीं है । अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर एक समय है र उत्कृष्ट अन्तर चौदह दिन रात है। इसी प्रकार प्रत्याख्यानावरण चारके सब पदों का अन्तरकाल जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनके अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पन्द्रह दिन रात है। तीन आयुओंकी पाँच वृद्धि, पाँच और अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है । अनन्तगुणवृद्धि, अनन्तगुणहानि और अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कष्ट अन्तर चौबीस मुहूर्त है। वैक्रियिक छह और आहारिकद्विककी पाँच वृद्धि, पाँच हानि और भवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक प्रमाण है ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे वड़ि-हाणि णत्थि अंतरं । अवत्त० ज० ए०, उ० अंतोः । एवं तित्थय । णवरि अवत्त ० ज० ए०, उ० वासपुध० । एवं भुजगारभंगो याव अणाहारए त्ति णेदव्वं ।
अनन्तगणवृद्धि और अनन्तगणहानिका अन्तरकाल नहीं है। अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार तीर्थङ्कर प्रकृतिके सब पदीका अन्तरकाल जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसके अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्ष पृथक्त्वप्रमाण है। इसी प्रकार भुजगारके समान अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए।
विशेषार्थ—यहाँ जिन प्रकृतियोंके जिन पदोंका अन्तर काल नहीं कहा है। इसका भाव इतना ही है कि उन प्रकृतियोंके उन पदोंके बन्धक जीव सर्वदा उपलब्ध होते हैं। तथा जिन प्रकृतियोंके जिन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय कहा है उसका भाव यह है कि उन प्रकृतियोंके उन पदोंका एक समयके अन्तरसे भी बन्ध सम्भव है। मात्र विचार उन प्रकृतियोंके उन पदोंके उत्कृष्ट अन्तरका करना है जो अलग-अलग कहा है। उपशमश्रेणिका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व प्रमाण है, इसलिए यहाँ पाँच ज्ञानावरणादिके अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व प्रमाण कहा है। उपशमसम्यक्त्वका उत्कृष्ट अन्तर सात दिन-रात है, इसलिए स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व व अनन्तानुबन्धी चारके अवक्तव्य पदका उत्कृष्ट अन्तर सात दिन-रात कहा है। तात्पर्य यह है कि कदाचित् सात दिन-रात तक कोई भी तीसरे आदि गुणस्थानवाला जीव सासादन और मिथ्यात्व गुणस्थानको नहीं प्राप्त होता, इसलिए यह अन्तर बन जाता है। प्रथमोपशमसम्यक्त्वके साथ विरताविरत गुणस्थानको प्राप्त न होनेका अन्तर चौदह दिन-रात और विरत अवस्थाको प्राप्त न होने का उत्कृष्ट अन्तर पन्द्रह दिनरात है। इसके अनुसार कोई विरताविरत अविरत अवस्थाको चौदह दिनरात तक और कोई विरत विरताविरत अवस्थाको पन्द्रह दिनरात तक नहीं प्राप्त होता,यह सिद्ध होता है; क्योंकि आयके अनुसार ही व्यय होता है-ऐसा नियम है। अतः अप्रत्याख्यानावरण चारके अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर चौदह दिनरात और प्रत्याख्यानावरण चारके अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर पन्द्रह दिनरात कहा है। नरकायु, मनुष्यायु और देवायुकी पाँच वृद्धि, पाँच हानि और अवस्थितपदका उत्कृष्ट अन्तर परिणामोंको ध्यानमें रख कर असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। तथा इन गतियोंमें यदि कोई उत्पन्न न हो तो अधिकसे अधिक चौबीस मुहूर्तका अन्तर पड़ता है। तदनुसार इन आयुओका बन्ध भी इतने काल तक नहीं होता, इसलिए अनन्तगुणवृद्धि, अनन्तगुणहानि और अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर चौबीस दिनरात कहा है। वैक्रियिक छह और आहारकद्विककी पाँच वृद्धि, पाँच हानि और अवस्थित पदका उत्कृष्ट अन्तर भी बन्धपरिणामोंके अनुसार असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। परन्तु अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्तके अन्तरसे कोई न कोई जीव इनका अवश्य ही बन्ध प्रारम्भ करता है, इसलिए इनके अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कुल विचार उक्त प्रकृतियोंके ही समान है। मात्र इसके अवक्तव्यपदके उत्कृष्ट अन्तरमें अन्तर है। बात यह है कि तीर्थकर प्रकृतिका अवक्तव्यबन्ध इतने प्रकारसे प्राप्त होता है कोई सम्यग्दृष्टि मनुष्य तीर्थङ्कर प्रकृतिके बन्धका प्रारम्भ करे, उपशमश्रेणि पर आरोहण करनेवाला जीव उतरते समय या मर कर देव होकर पुनः बन्ध प्रारम्भ करे और तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध करनेवाला अविरतसम्यग्दृष्टि मनुष्य मिथ्यादृष्टि होकर व मर कर दूसरे व तीसरे नरकमें उत्पन्न होकर अन्तर्महर्तमें सम्यग्दृष्टि हो, पुनः बन्ध प्रारम्भ करे । इन सबका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण होनेसे इसके अवक्तव्यपद का उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है।
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वड्ढी अप्पा बहुअं
भावो
ओघे० सव्वपगदीणं सव्वपदाणं बंधगा त्ति को अणाहारए ति णेदव्वं । अप्पाबहुअं
६२५. अप्पा बहुगं दुवि० । ओघे० पंचणा०-णवदंस०-मिच्छ० - सोलसक०भय-दु० - ओरालि० -तेजा० ० - क० - वण्ण ०४ - अगु० - उप० - णिमि ० - पंचंत० सव्वत्थो ० अवत्त० | 'अट्टि० अनंत० । अनंतभागवड्डि-हा० दो वि० तु० असं० गु० । असंखेजभागवड्डि-हा० दो वि तु० असं० गु० | संखेजभागवड्ढि - हाणि ० दो वि० तु० असं०गु० | संखैज्ञगुणवड्डि-हाणि० दो वि तु० असं० गु० । असंखैअगुणवड्डि- हाणि० दो वि तु० असंखें ० गु० । अनंतगुणहाणि० असं० गु० । अनंतगुणवड्ढी विसे० । एवं तित्थय० । णवरि अवट्ठि० असं ० गु० । आहार०२ सव्वत्थो० अवट्ठि० । अणंतभागवड्डि-हाणि० दो वि तु० संजगु० । असंखैअभागवड्डि-हाणि० दो वि तु० सं०गु० | संखॆजभागवड्डि-हाणि ० दो वि तु० संखैअगु० | संखैअगुणवड्डि- हाणि० दो वि संखें० गु० । असंखेजगुणवड्डि-हाणि० दो वि तु० संखे गु० ।
६२४. भावानुगमेण दुवि० । भावो ? ओदइगो भावो । एवं याव
तु०
भाव
६२४. भावानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ व आदेश । ओघसे सब प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीवोंका कौनसा भाव है ? ओदयिक भाव है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए ।
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अल्पबहुत्व
६२५. अल्पबहुत्व दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं । इनसे अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानिके बन्धक जीव दोनों ही पदवाले तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं । इनसे असंख्यात भागवृद्धि और असंख्यात भागहानिके बन्धक जीव दोनों ही पदवाले तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहांनिके बन्धक जीव दोनों ही पदवाले तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही पदवाले तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं । इनसे असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही पदवाले तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं । इनसे अनन्तगुणहानिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे अनन्तगुणवृद्धिके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं । इसी प्रकार तीर्थङ्कर प्रकृतिकी अपेक्षासे अल्पबहुत्व जानना चाहिए। इतनी विशेपता है कि यहाँ पर अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंसे अवस्थितपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। आहारकद्विकके अवस्थितपदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर संख्यातगुणे हैं । इनसे असंख्यात - भागवृद्धि और असंख्यात भागहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर संख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिके बन्धक जीव दोनों हो तुल्य होकर संख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर संख्यात
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३७२
महाबंधे अणुभागबंधाहियारे अवत्त० संखेजगुः । अणंतगुणहा० संखेंजगु० । अणंतगुणवड्ढी विसे० । सेसाणं सादादीणं सव्वत्थो० अवहिः । अणंतभागवड्डि-हा० दो वि० तु. असं०गु० । असंखेजभागवड्डि-हा० दो वि तु० असं०गु० । संखेजभागवड्डि-हाणि दो वि तु० असं०गु० । संखेंजगुणवड्डि-हा० दो वि तु० असं०गु० । असंखेजगुण वड्डि-हाणि• दो वि तु० असं०गु० । अवत्त० असं०गु० । अणंतगुणहा'. असं०गु० । अणंतगुणवड्डी० विसे । णेरइ० धुविगाणं सव्वत्थो० अवढि० । उवरि मूलोघं । [थीणगिद्धिदंडओ] तित्थ० सव्वत्थो० अवत्त । अवढि० असंग० । सेसाणं ओघं । एवं सत्तसु पुढवीसु । णवरि सत्तमाए दोगदिदोआणु०-दोगो० थीणगिद्धिभंगो एदेण कमेण भुजगारभंगो याव अणाहारए त्ति णेदव्वं ।
एवं वड्डिबंधे त्ति समत्तमणियोगद्दाराणि ।
अज्झवसाणसमदाहारो ६२६. अज्झवसाणसमुदाहारे त्ति तत्थ इमाणि तिण्णि अणियोगद्दाराणि-पगदिसमुदाहारो हिदिसमुदाहारो तिव्वमंददा त्ति । गुणे हैं । इनसे असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर संख्यातगुणे हैं। इनसे अवक्तव्यपदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अनन्तगुणहानिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अनन्तगुणवृद्धिके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। शेष सातावेदनीय आदिके अवस्थितपदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानिके बन्धक जीव दोनों ही पदोंके तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिके बन्धक जीव दोनों ही पदोंके तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिके बन्धक जीव दोनों ही पदोंके तल्य होकर असंख्यातगुणे है। इनसे संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगणहानिके बन्धक जीव दोनों ही पदोंके तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं। इनसे अवक्तव्यपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे अनन्तगुणहानिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अनन्तगुणवृद्धिके बन्धक जीव विशेष अधिक है। नारकियोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके अवस्थितपदके वन्धक जीव सबसे थोड़े हैं। आगे मूलोधके समान भङ्ग है। स्त्यानगृद्धिदण्डक और तीर्थकरप्रकृतिके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे स्तोक है। इनसे अवस्थितपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे शेष पदों व शेष प्रकृतियोंके सब पदोंका भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि सातवीं पृथिवीमें दो गति, दो आनुपूर्वी और दो गोत्रका भङ्ग स्त्यानगृद्धिके समान है। इसी क्रमसे अनाहारक मार्गणा तक भुजगार भङ्गके समान जानना चाहिए।
इस प्रकार वृद्धिबन्ध अनुयोगद्वार समाप्त हुआ।
अध्यवसानसमुदाहार ६२६. अध्यवसानसमुदाहारमें ये तीन अनुयोगद्वार होते हैं-प्रकृतिसमुदाहार, स्थितिसमुदाहार और तीव्रमन्दता।
१. श्रा०प्रतौ संखेजगुणवडि-हा. दो वि तु. असं० गु० । अणंतगुणहा० इति पाटः । २. ता. प्रतौ अवहि० । उवरि मूलोघं ।..."तित्थ०, प्रा० प्रतौ अवहि । मूलोघं ।".."तित्थ० इति पाठः।
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पयडिसमुदाहारो
३७३ पयडिसमुदाहारो पमाणाणुगमो ६२७. पगदिसमुदाहारे त्ति तत्थ इमाणि दुवे अणियोगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति'-पमाणाणुगमो अप्पाबहुगे त्ति । पमाणाणुगमेण पंचणाणावरणीयाणं केवडियाणि अणुभागबंधज्झवसाणट्ठाणााणि ? असंखेजा लोगा अणुभागबंधज्झवसाणहाणाणि । एवं सव्वपगदीणं । एवं याव अणाहारए ति णेदव्वं । णवरि अवगद०सुहुमसंप०एगेगं परिणामहाणं ।
एवं पमाणाणुगमो समत्तो
अप्पाबहुअं ६२८. अप्पाबहुगं दुवि०-सत्थाणअप्पाबहुगं चेव परत्थाणप्पाबहुगं चेव । सत्थाणप्पाबहुगे पगदं । दुवि० । ओघे० सव्वबहूणि केवलणाणावरणीयस्स अणुभाणगबंधज्झव साणट्ठाणाणि । आभिणि० अणुभागबंध० असंखेजगुणहीणाणि । सुदणाणा० अणुभागबंध० असं०गुणही० । ओधिणाणा० अणुभा० असं०गुव्ही । मणपञ्ज'. अणुभागबंध० असं०गुणही।
६२९. सव्वबहूणि केवलदंस० अणुभागबंध० । चक्खु० अणुभागबंध० असं०गुणही० । अचक्खु ० अणुभा० असं०गुणही० । ओधिदं० अणुभागबंध० असं०गुणही । थीणगिद्धि ० असं०गुणही० । णिद्दाणिद्दा० अणुभा० असं०गुणही। पयलापयला.
प्रकृतिसमुदाहार प्रमाणानुगम ६२७. प्रकृतिसमुदाहारमें ये दो अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं-प्रमाणानुगम और अल्पबहुत्व । प्रमाणानुगमसे पाँच ज्ञानावरणीयके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान कितने है ? असंख्यात लोकप्रमाण अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान हैं। इसी प्रकार सब प्रकृतियोंके विषयमें जानना चाहिए। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपगतवेदी और सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंमें एव एक परिणामस्थान होता है।
इस प्रकार प्रमाणानुगम समाप्त हुआ।
अल्पबहुत्व ६२८. अल्पबहुत्व दो प्रकारका है-स्वस्थान अल्पबहुत्व और परस्थान अल्पबहुत्व । स्वस्थान अल्पबहुत्वका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे केवलज्ञानावरणीयके अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान सबसे बहुत है। इनसे आभिनिबोधिकज्ञानावरणके अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे श्रतज्ञानावरणके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे अवधिज्ञानावरणके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे मनःपर्ययज्ञानावरणके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं।
६२९. केवलदर्शनावरणके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान सबसे बहुत हैं। इनसे चक्षुदर्शनावरणके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे होन हैं। इनसे अचक्षुदर्शनावरणके अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे अवधिदर्शनावरणके अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे स्त्यानगृद्धिके अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे निद्रानिद्राके अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हीन
१. ता० प्रतौ इमाणि दव्वाणि भवंति इति पाठः । २. श्रा० प्रतौ केवडियाणि अणुभागबंधज्झवसाण
डाणाणि ! एवं इति पाठः । ३. आ. प्रतौ सुदणाणा भणभागबंध० असं०गुणही। मणपन० इति पाठः।
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३७४
महाबंचे अणुभागबंधाहियारे
अणु० असं ० गुणही ० । णिद्दा० असं ० गुणही ० । पयला० असं० गु०ही ।
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६३०. सव्वबहूणि' सादस्स अणुभागबंध० । असादा० अणुभा० असं ० गुणही० । ६३१. सव्वबहूणि मिच्छ० अणुभागबं० । अणंताणुबं० लोमे अणुभा० असं०गुणही ० । माया० विसे० । कोधे बिसे० । माणे विसे० । संजलणलोमे असं ० गुणही ० । माया० विसे० । कोघे विसे० | माणे विसे० । पच्चक्खाण० लोभे अणु० असं०गुणही ० | माया ० विसे० । कोधे विसे० । माणे विसे० । अपच्चक्खाणलोभे अणु ० असं० गुणही ० । माया ० विसे० । कोधे० विसे० | माणे विसे० । णवुंस० असं० गु० | अरदि० असंखें ० गु० । सोग० असं० गु० । भय० असं० गु० । दुगुं० असं० गु० । इथि० असं० गु० | पुरिस० असं ० गु० । रदि० असं० गु० | हस्स० असं० गु० ।
हैं । इनसे प्रचलाप्रचलाके अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे निद्रा के अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे प्रचलाके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं ।
६३०. सातावेदनीयके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान सबसे बहुत हैं । इनसे असातावेदनीयके अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हीन हैं ।
६३१. मिथ्यात्वके अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान सबसे बहुत हैं । इनसे अनन्तानुबन्धी लोभके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे अनन्तानुबन्धी मायामें विशेष हीन हैं । इनसे अनन्तानुबन्धी क्रोधमें विशेष हीन हैं। इनसे अनन्तानुबन्धी मानमें विशेष हीन हैं । इनसे संज्वलन लोभमें अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे संज्वलनमाया में अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान विशेष हीन हैं । इनसे संज्वलन क्रोधमें अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन हैं। इनसे संज्वलनमानमें अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन हैं । इनसे प्रत्याख्यानावरण लोभमें अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे होन हैं । इनसे प्रत्याख्यानावरण मायाके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन हैं । इनसे प्रत्याख्यानावरण क्रोधके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन हैं। इनसे प्रत्याख्यानावरणमानके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष होन हैं । इनसे अप्रत्याख्यानावरण लोभके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे अप्रत्याख्यानावरण मायाके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन हैं। इनसे अप्रत्याख्यानावरण क्रोधके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष होन हैं। इनसे अप्रत्याख्यानावरण मानके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन हैं। इनसे नपुंसकवेदके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान भसंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे अरतिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे शोकके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे भयके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे जुगुप्साके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे स्त्रीवेदके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे पुरुषवेदके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे रतिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है । इनसे हास्यके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है ।
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१. आ. प्रतौ णिद्दा० असं ० गुणही ० । सव्वबहूणि इति पाठः ।
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३७५
पयडिसमुदाहारो ६३२. सव्वबहूणि देवाउ० अणुभाग० । णिरयाउ० अणुभा० असं०गुणही० । मणुसाउ० असं०गुणही० । तिरिक्खाउ० असं०गुणही० ।
६३३. सव्वबहूणि देवग० अणुभा० । मणुस० असं०गुणही० । णिरय० असं०गुणही। तिरिक्खग० असं०गुणही० । सव्वबहूणि पंचिंदि० अणुभा० । एइंदि० असं०गुणही० । बीइंदि० असं०गुणही० । तीइंदि० असं०गुणही० । चदुरि० असं०गुणही । सव्वबहूणि कम्मइ० अणुभा० । तेजा. असं०गुणही । आहार० असं० गुणही। वेउवि० असं०गुणही। ओरा० असं०गुणहो । सव्वबहूणि समचदु० अणुभा० । हुंड० असं०गुणही० । णग्गोद० असं०गुणही० । सादि'. असं०गुणही । खुज० असं०गुणही० । वामण. असं०गुणही। सव्वबहूणि आहार०अंगो. अणुभा० । वेउव्वि० अंगो० असं०गुणही० । [ओरालियअंगो० असं०गुव्ही. 1] संघडणाणं संठाणभंगो । सव्वबहूणि पसत्थवण्ण०४ अणुभा० । अप्पसत्थव०४ असं०
६३२. देवायुके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान सबसे बहुत है । इनसे नरकायुके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे मनुष्यायुके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है । इनसे तिर्यश्चायुके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है।
६३३. देवगतिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान सबसे बहुत है। इनसे मनुष्यगतिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे नरकगतिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे तिर्यश्चगतिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। पंचेन्द्रियजातिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान सबसे बहुत है। इनसे एकेन्द्रियजातिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुण होन है। इनसे द्वीन्द्रिय जातिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे त्रीन्द्रियजातिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे चतुरिन्द्रियजातिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। कार्मणशरीरके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान सबसे बहुत है । इनसे तैजसशरीरके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे आहारकशरीरके अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे वैक्रियिकशरीरके अनुभागबन्धाध वसानस्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे औदारिकशरीरके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है । समचतुरस्रसंस्थानके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान सबसे बहुत है। इनसे हुण्डसंस्थानके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थानके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे स्वातिसंस्थानके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे कुब्जक संस्थानके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे वामन संस्थानके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। आहारक आङ्गोपाङ्गके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान सबसे बहुत है। इनसे वैक्रियिक आङ्गोपाङ्गके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे औदारिक आङ्गोपाङ्ग के अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। संहननोंका भङ्ग संस्थानोंके समान है। प्रशस्त वर्णचतुष्कके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान सबसे बह हैं। इनसे अप्रशस्त वर्णचतुष्कके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं।
१. ता. प्रतौ सादा० इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे गुणही० । गदिभंगो आणुपुव्वी । एत्तो सव्वयुगलाणं सव्वबहूणि पसत्थाणं अणुभा० । तप्पडिपक्खाणं अणुभा० असं०गुणही।
६३४. सव्वबहूणि विरियंतरा० अणुभा० । हेट्ठा० दाण. असं गुणही' । एवं ओघभंगो-पंचिं०-तस०२-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि-इत्थि०-पुरिस०-णस०कोधादि०४-मदि०-सुद०-विभंग०-असंज०-चक्खु०-अचक्खु०-तिण्णिले०-भवसि०अब्भवसि०-मिच्छा०-सण्णि-आहारए त्ति ।
६३५. णिरएसु यत्तियाओ पगदीओ अत्थि तासिं मूलोपं । एवं सत्तसु पुढवीसु० । तिरिक्खेसु सव्वबहूणि णिरयाउ० अणुभा० । देवाउ० असं०गुणही । मणुसाउ० असं०गुणही० । तिरिक्खाउ० असं०गुणही। सव्वबहूणि देवगदि० अणुभा० । णिरयग० असं०गुणही । तिरिक्ख० असं०गुणही० । मणुसग० असं०गुणही० । सेसाणं मूलोघं । एवं सव्वतिरिक्खाणं सव्वअपज०-एइंदि०-विगलिं० पंचकायाणं च । मणुस०३ गदीओ तिरिक्खगदिभंगो। सेसं मूलोघं । देवाणं मूलोघं ।
ओरालि० मणुसभंगो। ओरा०मि० तिरिक्खगदिभंगो। वेउ०-वेउ०मि० देवगदिभंगो। आहार-आहार०मि० सव्वट्ठभंगो। कम्मइ० ओरालिमिस्सभंगो। एवं चार आनुपूर्वियोंका भङ्ग चार गतियोंके समान है। सब युगलोंमें सब प्रशस्त प्रकृतियोंके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान सबसे बहुत हैं। इनसे उनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है।
६३४. वीर्यान्तरायके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान सबसे बहुत है । पीछे दानान्तराय तक प्रतिलोम क्रमसे प्रत्येकके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन असंख्यातगुणे हीन है। इस प्रकार ओघके समान पञ्चेन्द्रियद्विक, त्रसद्विक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभङ्गज्ञानी, असंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिए। ६३५. नारकियोंमें जितनी प्रकृतियाँ हैं उनका भङ्ग मूलोघके समान है। इसी प्रकार
चाहिए । तियेश्वोंमें नरकायुके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान सबसे बहत हैं। उनसे देवायुके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। उनसे मनुष्यायुके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है । उनसे तिर्यश्चायुके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । देवगतिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान सबसे बहुत हैं। इनसे नरकगतिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे तिर्यश्चगतिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे मनुष्यगतिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग मूलोघके समान है । इसी प्रकार सब तिर्यञ्च, सब अपर्याप्त, एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और पाँच स्थावरकायिक जीवोंके जानना चाहिए । मनुष्यत्रिकमें चार गतियोंका भङ्ग तिर्यश्चगतिके समान है। तथा शेष भङ्ग मूलोघके समान है। देवोंमें मूलोधके समान भङ्ग है। औदारिककाययोगी जीवोंमें मनुष्योंके समान भङ्ग है।
औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें तियश्चोंके समान भङ्ग है। वैक्रियिककाययोगी और वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें देवगतिके समान भङ्ग है। आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाय
१. ता. आ. प्रत्योः हेट्ठा हुंड० असं०गुणही० इति पाठः ।
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पडसमुदाहारो
अणाहारए ति । अवगद ० ओघं । एवं सुहुमसंप० । आभिणि सुद- अधि०-मणपञ्ज०संज० - सामा० - छेदो०- ओधिदं ० -सुक्क० सम्मा० - खड्ग ० - उवसम० ओघं । णवरि अप्पपण पगदीओ णादव्वाओ । परिहार० - संजदासंज० - वेदग० सव्वहभंगो ।
६३६. णील - काऊणं सव्वबहूणि देवग० । मणुसग० असं० गुणही ० । णिरयग० असं० गुणहीणाणि । [ तिरिक्खग० | असं० गु० ] | एवं आणु० । तेउले ० देवभंगो । एवं पम्मा वि । मदि० - सुद० - विभंग० - असंज० - अब्भवसि ० - मिच्छा० - असण्णि० सव्वपयाड - अणुभागबंध ज्झवसाणाणाणि तिरिक्खगदिभंगो' । सासणे णिरयभंगो । सम्मामि० वेदग० भंगो | एवं सव्वपगदीणं याव अणाहारए त्ति दव्वं । चदुवीसमणियोगद्दाराणि अप्पा बहुगेण साधेदूण कादव्वं । णवरि जम्हि अनंतगुणहीणाणि तम्हि अणुभागबंधज्झवसाणाणाणि असंखेजगुणहीणाणि कादव्वाणि । एदेण बीजेण सत्थाणप्पाबहुगं । एवं अणाहारए त्तिणेदव्वं ।
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एवं सत्थाणप्पाबहुगं समत्तं ।
६३७. परत्थाणप्पाबहुगं पगदं । दुवि० । ओघेण एतो चदुसट्ठिपडिगो दंडगोयोगी जीवोंमें सर्वार्थसिद्धिके समान भङ्ग है । कार्मणकाययोगी जीवों में औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंके समान भङ्ग है । इसी प्रकार अनाहारक जीवोंमें जानना चाहिए। अपगतवेदी जीवों में ओघ के समान भङ्ग है। इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंमें जानना चाहिए। आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, अवधिदर्शनी, शुकुलेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवों में ओघके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी प्रकृतियाँ जाननी चाहिए । परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें सर्वार्थसिद्धिके समान भङ्ग है ।
६३६. नील और कापोतलेश्यामें देवगतिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान सबसे बहुत हैं । इनसे मनुष्यगतिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे नरकगतिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे तिर्यञ्चगतिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इसी प्रकार आनुपूर्वियोंकी अपेक्षा अल्पबहुत्व जानना चाहिए। पीतलेश्यामें देवोंके समान भङ्ग है । इसी प्रकार पद्मलेश्यामें भी जानना चाहिए । मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभङ्गज्ञानी, असंयत, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंमें सब प्रकृतियोंके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान तिर्यञ्चगतिके समान है । सासादनसम्यग्दृष्टियों में नारकियोंके समान भङ्ग है । सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंमें वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके समान भङ्ग है । इसी प्रकार सब प्रकृतियोंका अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए । चौबीस अनुयोगद्वार अल्पबहुत्वके अनुसार साध कर करने चाहिए। इतनी विशेषता है कि जहाँ पर अनन्तगुणे हीन है, वहाँ पर अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन करने चाहिए। इस बीजसे स्वस्थान अल्पबहुत्व है । इस प्रकार अनाहारक तक जानना चाहिए ।
इस प्रकार स्वस्थान अल्पबहुत्व समाप्त हुआ ।
६३७. परस्थान अल्पबहुत्वका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है१. ता. प्रतौ असण्ण० 'णि तिरिक्खगदिभंगो, आ. प्रतौ असण्णि०
'तिरिक्खगदि
भंगो इति पाठः ।
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महावंचे अणुभागबंधाहियारे सव्वबहूणि अणुभागबंधझवसाणट्ठाणाणि साद० । जस०-उच्चा० अणुभागबंध० असं०गुणहीणाणि । देवगदि० अणुभा० असं०गुणही० । कम्म० असं०गुणही० । तेजा० असं०गुणही । आहार० असं०गुणही । वेउव्वि० असं गुणही । मणुस० असं०गुणही० । ओरा० असं०गु० । मिच्छ० असं०गु० । केवलणा०-केवलदं०-विरियंत० तिणि वि तु० असं०गु० । असादा० विसेसहीणाणि । अणंताणुवं०लोभे असं०गु० । माया० विसे० । कोघे० विसे० । माणे० विसे० । संजलणलोभे० असंगु० । माया. विसे । कोधे विसे० । माणे० विसे० । पञ्चक्खाण लोभे० असं०गु० । माया० विसे० । कोघे० विसे० । माणे० विसे० । अपञ्चक्खाणलोभे० असं०गु० । माया० विसे० । कोधे० विसे० । माणे० विसे० । आभिणि-परिभो० दो वि तु० असं०गु० । चक्खु० असं०गु० । सुद०-अचक्खु०-भोगंत० तिष्णि वि तु० असं०गु० । ओधिणा० ओघ और आदेश । ओघसे यहाँ चौंसठ पदिक दण्डक है। यथा-सातावेदनीयके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान सबसे बहुत है। इससे यशकीर्ति और उच्चगोत्रके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे देवगतिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे कार्मणशरीरके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे तैजसशरीरके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे आहारकशरीरके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे वैक्रियिकशरीरके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे मनुष्यगतिके अनुभागबन्ध्यावसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे औदारिकशरीरके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे मिथ्यात्वके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण और वीर्यान्तरायके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान तीनों ही प्रकृतियोंके परस्पर तुल्य होकर असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे असातावेदनीयके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन हैं। इनसे अनन्तानुबन्धी लोभके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे अनन्तानुबन्धी मायाके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन हैं। इनसे अनन्तानुबन्धी क्रोधके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन हैं। इनसे अनन्तानुबन्धी मानके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन है । इनसे संज्वलन लोभके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यालगुणे हीन है। इनसे संज्वलन मायाके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन हैं। इनसे संज्वलन क्रोधके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन है। इनसे संज्वलन मानके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन है । इनसे प्रत्याख्यानावरण लोभके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे प्रत्याख्यानावरण मायाके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन हैं। इनसे प्रत्याख्यानावरण क्रोधके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन हैं। इनसे प्रत्याख्यानावरण मानके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन है। इनसे अप्रत्याख्यानावरण लोभके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे अप्रत्याख्यानावरण 'मायाके अनुभागबन्धाध्ययसान स्थान विशेष होन है। इनसे अप्रत्याख्यानावरण क्रोधके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन है । इनसे अप्रत्याख्यानावरण मानके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन है। इनसे आभिनिबोधिक ज्ञानावरण और परिभोगान्तरायके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान दोनों ही तुल्य होकर असंख्यातगुणे हीन है। इनसे चक्षुदर्शनावरणके अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे श्रुतज्ञानावरण, अचक्षुदर्शनावरण और भोगान्तरायके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान तीनों ही तुल्य होकर असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे अवधिज्ञानावरण, अवधिदर्शना
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पयडिसमुदाहारो ओधिदं०-लाभंत० तिणि वि तु० असं०गु० । मणपज.दाणंत० दो वि तु० असं०गु० । थीणगि० विसे । णवूस० असं०गु० । इत्थि० असं०गु० । पुरिस० असं०गु० । अरदि० असं०गु० । सोग० असं०गु० । भय० असं०गु० । दुगुं० असं०गु० । णिद्दाणिद्दा० असं०गु० । पयलापयला० असं०गु० । णिद्दा० असं०गु०। पयला० असं०गु० । णीचा. असं०गु०। अजस० विसेसही। णिरयग० असं०गु० । तिरिक्खग० असं०गु० । रदि० असं०गु० । हस्स० असं०गु० । देवाउ० असं०गु० । णिरयाउ० असं०गु० । मणुसाउ० असं०गु० । तिरिक्खाउ० असं गुः । एवं ओघमंगो पंचिं०-तस०२-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि-इत्थि०-पुरिस०-णवंस०-कोधादि०४-चक्खु०-अचक्खु०-भवसि०-सण्णि-आहारए त्ति ।
६३८. आदेसेण णिरयगदीए सव्वबहूणि साद० । जस०- उच्चा० असं०गु० । मणुस. असं०गु० । कम्म० असं०गु० । तेजा० असं०गु० । ओरा० असं०गु० ।
वरण और लाभान्तरायके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान तीनों ही तुल्य होकर असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे मनःपर्ययज्ञानावरण और दानान्तरायके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे स्त्यानगृद्धिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे नपुंसकवेदके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे स्त्रीवेदके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे पुरुषवेदके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे अरतिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे शोकके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे भयके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है । इनसे जुगुप्साके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे निद्रानिद्राके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे प्रचलाप्रचलाके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे निद्राके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे प्रचलाके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे नीचगोत्रके अनुभागवन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे अयशःकीर्तिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन हैं। इनसे नरकगतिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे तिर्यञ्चगतिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे रतिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे हास्यके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगणे हीन हैं। इनसे देवायुके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे नरकायुके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे मनुष्यायुके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे तिर्यञ्चायुके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इसी प्रकार ओघके समान पञ्चेन्द्रियद्विक, त्रसद्विक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार करायवाले, चक्षदर्शनी, अचक्षदर्शनी, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिए ।
६३८. आदेशसे नरकगतिमें सातावेदनीयके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान सबसे बहुत हैं। इनसे यशःकीर्ति और उच्चगोत्रके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे मनुष्यगतिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है । इनसे कार्मणशरीरके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे तैजसशरीरके अनुभागबन्धा
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे मिच्छ० असं०गु० । केवलणा०-केवलदं०-विरियंत० तिण्णि वि तु० असं०गु० । असादा० विसे० । अणंताणु लोभे० असं०गु० । माया. विसे । कोधे० विसे० । माणे० विसे० । संजलणलोमे० असं गु० । माया० विसे० । कोधे विसे० । माणे० विसे० । पञ्चक्खाणलोभे० असं०गु०। माया. विसे । कोधे० विसे । माणे० विसे । अपचक्खाणलोभे० असंगु० । माया० विसे । कोधे० विसे० । माणे. विसे । आभिणि-परिभो० असं०गु० । चक्खु. असं०गु० । सुद०-अचक्खु०-भोगंत० असं०गु० । ओधिणा०-ओधिदं० लाभंत० असं०गु० । मणपज०-दाणंत० असं०गु० । थीणगि० विसे० । णवंस० असं०गु० । इत्थि० असं०गु० । पुरिस० असं०गु० । अरदि० असं०गु० । सोग० असं०गु० । भय० असं०गु० । दुगु० असं०गु० । णिद्दा
यवसान स्थान असंख्यातगणे हीन है । इनसे औदारिकशरीरके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगणे हीन है। इनसे मिथ्यात्वके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण और वीर्यान्तरायके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान तीनों ही तुल्य होकर असंख्यातगुणे हीन है। इनसे असातावेदनीयके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन है। इनसे अनन्तानुबन्धी लोभके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे अनन्तानुबन्धी मायाके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन है । इनसे अनन्तानुबन्धी क्रोधके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन है। इनसे अनन्तानबन्धी मानके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन है। इनसे संज्वलन लोभके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे संज्वलन मायाके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन हैं। इनसे संज्वलन क्रोधके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन है। इनसे संज्वलन मानके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन है। इनसे प्रत्याख्यानावरण लोभके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है । इनसे प्रत्याख्यानावरण मायाके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन है। इनसे प्रत्याख्यानावरण क्रोधके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन है। इनसे प्रत्याख्यानावरण मानके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन हैं। इनसे अप्रत्याख्यानावरण लोभके अनुभागबन्धा ध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है । इनसे अप्रत्याख्यानावरण मायाके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन है। इनसे अप्रत्याख्यानावरण क्रोधके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन है। इनसे अप्रत्याख्यानावरण मानके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन हैं। इनसे आभिनिवोधिकज्ञानावरण और परिभोगान्तरायके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान दोनोंके तुल्य होकर असंख्यातगुणे हीन है। इनसे चक्षुदर्शनावरणके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे श्रुतज्ञानावरण, अचक्ष दर्शनावरण और भोगान्तरायके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे अवधिज्ञानावरण, अवधिदर्शनावरण और लाभान्तरायके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान परस्पर तुल्य होकर असंख्यातगुणे हीन है। इनसे मनःपर्ययज्ञानावरण और दानान्तरायके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान परस्पर तुल्य होकर असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे स्त्यानगृद्धिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन है । इनसे नपुंसकवेदके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे स्त्रीवेदके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगणे हीन है। इनसे पुरुषवेदके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे अरतिके अनुभागबन्धाभ्यवसान स्थान असंख्यात
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पडसमुदाहारो णिद्दा० असं०गु० । पयलापयला० असं० गु० । णिद्दा० असं० गु० । पयला० असं० गु० । णीचा० असं० गु० । अजस० विसे० । तिरिक्ख० असं ० गु० । रदि० असं० गु० । हस्स० असं० गु० । मणुसाउ० असं० गु० । तिरिक्खाउ० असं० गु० । एवं सत्तमा पुढवीए । णवरि मणुसाउ० णत्थि । सेसासु पुढवीसु णीचा० - अजस० तुल्लाणि णादव्वाणि । यथा पढमपुढवीए तथा देवगदीए सव्वेसु वि कप्पेसु । एवं बेव्वियमि० ० । णवरि णीचा० - अजस० णिरयोघं । वेउव्वियमि० आउ० णत्थि ।
६३९. तिरिक्खेसु सव्वबहूणि अणुभा० साद० । जस० उच्चा० असं० गु० । देवग० असं ० गु० । कम्म० असं० गु० । तेजा० असं० गु० । वेउव्वि० असं० गु० । मिच्छ० असं० गु० । केवलणा० - केवल दंस० - विरियंत० असं० गु० । असादा० विसे० । अताणु • लोमे० असं ० गु० । माया० विसे० । कोधे० विसे० । माणे० विसे० ।
०
गुणे हीन हैं । इनसे शोकके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे भयके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे जुगुप्साके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे निद्रानिद्रा के अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे प्रचलाप्रचलाके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे निद्राके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे प्रचलाके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे नीचगोत्रके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे अयशः कीर्ति के अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे तिर्यगतिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे रतिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे हास्य के अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे होन हैं । इनसे मनुष्यायुके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे तिर्यवायुके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इसी प्रकार सातवीं पृथिवीमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मनुष्यायुका भङ्ग नहीं है। शेष पृथिवियों में नीचगोत्र और अयशः कीर्तिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान तुल्य जानने चाहिए। जिस प्रकार प्रथम पृथिवीमें है, उसी प्रकार देवगतिमें तथा सब कल्पोंमें भी जानना चाहिए। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें जानना चाहिए | इतनी विशेषता है कि नीचगोत्र और अयशः कीर्तिका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है तथा वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें आयुका भङ्ग नहीं है ।
६३९. तिर्यवों में सातावेदनीयके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान सबसे बहुत हैं । इनसे यश कीर्ति और उच्चगोत्रके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे देवगतिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे कार्मणशरीरके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे तैजसशरीर के अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे वैक्रियिकशरीरके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे मिथ्यात्वके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण और वीर्यान्तरायके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान तीनों ही तुल्य होकर असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे असातावेदनीयके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन हैं। इनसे अनन्तानुबन्धी लोभके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे भनन्तानुबन्धी मायाके अनुभागबन्धाभ्यवमान स्थान विशेष हीन हैं ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे संजलणलोमे० असं गु० । माया० विसे । कोघे० विसे । माणे० विसे । पञ्चक्खा०लोभे० असं०गु० । माया० विसे । कोधे० विसे० । माणे० विसे । एवं अपचक्खाण०४ । आभिणि-परिभो० असं०गु०। चक्खु० असं०गु० । सुद०. अचक्खु०-भोगत. असं०गु०। ओधिणा०-ओधिदं०-लाभंत. असं०। मणपज०दाणंत० असं० । थीण विसे० । णवंस० असं० । इथि० असं० । पुरिस० असं० । अरदि० असं । सोग० असं। भय० असं० । दुगुं. असं० । णिहाणिद्दा० असं० । पयलापयला० असं० । णिद्दा० असं० । पयला० असं० । णीचा० असं० । अजस० विसे । णिरय० असं० । तिरिक्ख० असं० । रदि० असं० । हस्स० असं० ।
इनसे अनन्तानुबन्धी क्रोधके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन हैं। इनसे अनन्तानुबन्धी मानके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन हैं । इनसे संज्वलन लोभके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे संज्वलनमायाके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन हैं। इनसे संज्वलन क्रोधके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन हैं। इनसे संज्वलन मानके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन हैं। इनसे प्रत्याख्यानावरण लोभके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे प्रत्याख्यानावरण मायाके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन हैं । इनसे प्रत्याख्यानावरण क्रोधके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन हैं। इनसे प्रत्याख्यानावरण मानके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन हैं । इसी प्रकार अप्रत्याख्यानावरण चतुष्कके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थानोंका अल्पबहुत्व है। आगे आभिनिबोधिकज्ञानावरण और परिभोगान्तरायके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे चक्षुदर्शनावरणके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे श्रुतज्ञानावरण, अचक्षुदर्शनावरण और भोगान्तरायके अनुभागबन्धाध्यवसॉन स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे अवधिज्ञानावरण, अवधिदर्शनावरण और लाभान्तरायके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे मनःपर्ययज्ञानावरण और दानान्तरायके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे स्त्यानगृद्धिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन हैं । इनसे नपुंसकवेदके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे स्त्रीवेदके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे पुरुषवेदके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे अरतिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे शोकके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे भयके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे जुगुप्साके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे निद्रानिद्राके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे प्रचलाप्रचलाके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे निद्राके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे प्रचलाके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है । इनसे नीचगोत्रके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे अयश कीर्तिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे होन हैं। इनसे नरकगतिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे तिर्यश्चगतिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है । इनसे रतिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है । इनसे हास्यके अनुभागवन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है । इनसे नरकायुके अनुभागबन्धाध्यव
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पयडिसमुदाहारो णिरयाउ० असं० । देवाउ० असं० । मणुस० असं० । ओरा. असं० । मणुसाउ० असं० । तिरिक्खाउ० असं० । एवं सव्यतिरिक्खाणं। णवरि पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीसु णाणत्तं । अजस०-णीचा० सरिसाणि । एदं णाणत्तं । यथा जोणिणीसु तथा मणुस-मणुसपञ्जत्त-मणुसिणीसु च । णवरि णाणत्तं । देवाउ० अणुभा० बहूणि । णिरयाउ० थोवाणि ।
६४०. पंचिं०तिरि०अपज. सव्वबहूणि अणुभाग० मिच्छ० । सादा० असं० । जस०-उच्चा० असं० । केवलणा०-केवलदं०-विरियंत० असं० । असादा० विसे । अणंताणु०लोमे० असं० । माया. विसे । कोधे० विसे० । माणे० विसे० । एवं संजलण०४-पचक्खाण०४-अपच्चक्खाण०४ । आभिणि०-परिभो० असं०। चक्खु० असं० । सुद०-अचक्खु०-भोगंत० असं० । ओधिणा०-ओधिदं०-लाभंत. असं० । मणप०-दाणंत'. असं० । थीण विसे० । णवूस० असं० । इस्थि० असं० । पुरिस० वसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे देवायुके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है । इनसे मनुष्यगतिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे औदारिकशरीरके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे मनुष्यायुके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे तिर्यञ्चायुके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इसी प्रकार सब तिर्यश्चोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च योनिनी जीवोंमें नानात्व है। अयश कीर्ति और नीचगोत्रके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान समान है। यही नानात्व है। जिस प्रकार योनिनी तिर्यञ्चोंमें अल्पबहुत्व है, उसी प्रकार मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें जानना चाहिए। किन्नु इतना नानात्व है कि देवायुके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान बहुत हैं और नरकायुके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान थोड़े है।।
६४०. पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्वके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान सबसे बहुत है । इनसे सातावेदनीयके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगणे हीन है। इनसे यशःकीर्ति और उच्चगोत्रके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण और वीर्यान्तरायके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान तीनोंके ही तुल्य होकर असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे असातावेदनीयके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन है। इनसे अनन्तानुबन्धी लोभके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है । इनसे अनन्तानुबन्धी मायाके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन है। इनसे अनन्तानुबन्धी क्रोधके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन है। इनसे अनन्तानुबन्धी मानके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन है। इसी प्रकार संज्वलन चतुष्क, प्रत्याख्यानावरणचतुष्क और अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कके विषयमें जानना चाहिए । आगे आभिनिबोधिकज्ञानावरण और परिभोगान्तरायके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान दोनोंके समान होकर असंख्यातगुणे हीन है। इनसे चक्षुदर्शनावरणके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे श्रुतज्ञानावरण, अचक्षुदर्शनावरण और भोगान्तरायके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान तीनोंके परस्पर समान होकर असंख्यातगुणे हीन है। इनसे अवधिज्ञानावरण, अवधिदर्शनावरण और लाभान्तरायके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान तीनोंके तुल्य होकर असंख्यातगुणे हीन है। इनसे मनःपर्ययज्ञानावरण और दानान्तरायके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान दोनोंके
१. आ० प्रतौ असं० । मणुस० दाणंत० इति पाठः ।
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महाबंधे भणुभागबंधाहियारे असं० । अरदि० असं० । सोग० असं० । भय० असं० । दुगुं. असं० । णिद्दाणिद्दा० असं० । पयलापयला० असं० । णिहा० असं० । पयला. असं० । अजस०-णीचा० दो वि तु० असं० । तिरिक्ख० असं० । रदि० असं० । हस्स० असं० । मणुसग० असं० । ओरा० असं० । मणुसाउ० असं० । तिरिक्खाउ० असं० । एवं मणुसअपजत्तसन्चएइंदि०-सव्वविगलिं० -पंचिं०-तस०अपज०-पंचकायणं च । णवरि एइंदिए तेउ०वाउ० णाणत्तं । णीचा. बहुगाणि । अजस० विसेसही० । एवं णाणत्तं ।
६४१. ओरालियका० मणुसगदिमंगो। ओरा०मि० सव्यबहूणि साद० । जस०उच्चा० असं० । देवग० असं० । कम्म० असं० । तेजा. असं० । वेउवि० असं० । मिच्छ० असं० । सेसासु० णवरि पंचिंदियतिरिक्खभंगो । एत्तियाओ अस्थि ।
परस्पर तुल्य होकर असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे स्त्यानागृद्धिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन हैं। इनसे नपुंसकवेदके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे स्त्रीवेदके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे पुरुषवेदके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे अरतिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगणे हीन हैं। इनसे शोकके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगणे हीन है। इनसे भयके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे जुगुप्साके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे निद्रानिद्राके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे प्रचलाप्रचलाके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे निद्राके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे प्रचलाके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे अयशःकीर्ति और नीचगोत्रके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान दोनों ही परस्पर तुल्य होकर असंख्यातगुणे हीन है। इनसे तिर्यश्चगतिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे रतिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे हास्यके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे मनुष्यगतिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे औदारिकशरीरके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे मनुष्यायुके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुण हीन है। इनसे तिर्यश्चायुके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त, बस अपर्याप्त और पाँच स्थावरकायिक जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि एकेन्द्रिय, अग्निकायिक और वायकायिक जीवोंमें नानात्व है। अर्थात् इनमें नीचगोत्रके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान बहुत है। इनसे अयशःकीर्तिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन है । इस प्रकार नानात्व है।
६४१. औदारिककायोगी जीवोंमें मनुष्योंके समान भङ्ग है। औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें सातावेदनीयके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान सबसे बहुत है। इनसे यशःकीर्ति और उच्चगोत्रके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे देवगतिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे कार्मणशरीरके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थोन असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे तैजसशरीरके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे वैक्रियिकशरीरके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे मिथ्यात्वके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। आगे शेष प्रकृतियोंका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है। इस प्रकार अल्पबहुत्व है।
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पयडिसमुदाहारो ६४२. वेउव्वियका० णिरयभंगो। आहार'०-आहार मि० सव्वबहूणि साद० । जस०-उच्चा० असं० । देवग० असं० । कम्म० असं० । तेज० असं० । वेउ० असं० । केवलणा०-केवलदं०-विरियंत. असं० । असादा० विसें। संजलणलोमे० असं० । माया० विसे । कोधे० विसे० । माणे० विसे० । आभिणि०-परिभोग० असं० । चक्खु. असं० । सुद०-अचक्खु०-भोगंत० असं० । ओधिणा०-ओधिदं०लाभंत. असं० । मणपज०-दाणंत० असं० । पुरिस० असं० । अरदि० असं० । सोग० असं० । भय० असं० । दुगु० असं० । णिद्दा० असं० । पयला० असं० । अजस० असं । रदि० असं० । हस्स० असं० । देवाउ० असं० । एवं मणपज०-संज-सामाइ०छेदो०-परिहार० । एदेसु आहारसरीरं अत्थि । संजदासंज० परिहार भंगो। णवरि
६४२. वैक्रियिककाययोगी जीवोंमें नारकियोंके समान भङ्ग है। आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें सातावेदनीयके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान सबसे बहत है। इनसे यशःकीर्ति और उञ्चगोत्रके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे देवगतिके अनुभागवन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है । इनसे कार्मणशरीरके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे तैजसशरीरके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे वैक्रियिकशरीरके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है । इनसे केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण और वीर्यान्तरायके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है । इनसे असातावेदनीयके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे संज्वलन लोभके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे संज्वलन मायाके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन है। इनसे संज्वलन क्रोधके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन है। इनसे संज्वलन मानके अनुभागबन्धा ध्यवसान स्थान विशेष हीन है। इनसे आभिनिबोधिकज्ञानावरण और परिभोगान्तरायके अनुभागबन्धाध्यवसानः स्थान असंख्यातगुणे हीन है । इनसे चक्षदर्शनावरणके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे श्रुतज्ञानावरण, अचक्षुदर्शनावरण और भोगान्तरायके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे अवधिज्ञानावरण, अवधिदर्शनावरण और लाभान्तरायके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे मनःपर्ययज्ञानावरण और दानान्तरायके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे पुरुषवेदके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातंगुणे हीन है। इनसे अरतिके अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हीन है। इनसे शोकके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे भयके अनुभागवन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे जुगुप्साके अनुभागवन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीना हैं । इनसे निद्राके अनुभागवन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे प्रचलाके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे अयशःकीर्तिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असं यातगुणे हीन हैं। इनसे रतिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे हास्यके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे देवायुके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इसी प्रकार मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत छेदोपस्थापनासंयत और परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है
१. ता० आ० प्रत्योः णिरयभंगो। एवं वेउव्वियमि० । आहार० इति पाठः । २. ता. प्रतौ संजलणं लोभे इति पाठः।
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पच्चक्खाण ०४ अत्थि ।
६४३. कम्म० ओघं । णवरि चदुआउ० - आहार ० - णिरयगदिं वज सेसं कादव्वं । एवं अणाहार० । अवगद० ओघं । एवं सुहुमसं० । मदि० सुद० असंज ० - अब्भव ०मिच्छा० ओघं । एवं विभंग० । आभिणि० सुद० अधि०-सम्मा०- खइग०-वेदग ०. उवसम० - सासण० -सम्मामि० ओघं । णवरि अप्पप्पणो पगदिविसेसो णादव्वो ।
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महाबंचे अणुभागबंधाहियारे
६४४. किष्ण - पोल-काऊणं ओघं । तेउ० ओवं । णिरयाउ ० - णिरयगदिं वज । एवं पम्माए वि । सुक्काए' ओघो । दोआउ०- णिरय ० - तिरिक्खगदि वज । असण्णीसु सव्वबट्टणि मिच्छ० । सादा० असं० । जस०- उच्चार असं० गुणही ० | देवग० असं०गुणही ० । कम्म० असं ० गुणही ० | तेजा० असं ० गुणही ० | वेड व्वि० असं० गुणही ० । उवरि तिरिक्खोधं । एवं परत्थाणप्पा बहुगं समत्तं ।
एवं पगदिसमुदाहारो समत्तो ।
कि इनमें आहारकशरीर है । संयतासंयत जीवोंका भङ्ग परिहारविशुद्धिसंयतोंके समान है । इतनी विशेषता है कि इनके प्रत्याख्यानावरणचतुष्क हैं ।
६४३. कार्मणकाययोगी जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि चार आयु, आहारकशरीर और नरकगतिको छोड़ कर शेषका अल्पबहुत्व कहना चाहिए । इसी प्रकार अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए । अपगतवेदी जीवों में ओघके समान भङ्ग है । इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंके जानना चाहिए । मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अभव्य और मिथ्यादृष्टि जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है । इसी प्रकार विभङ्गज्ञानी जीवोंके जानना चाहिए | आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यदृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि अपनी अपनी प्रकृतिविशेष जाननी चाहिए।
६४४. कृष्ण, नील और कापोतलेश्यामें ओघके समान भङ्ग है । पीतलेश्यामें ओघके समान भङ्ग है। मात्र नरकायु और नरकगतिको छोड़कर यह अल्पबहुत्व कहना चाहिए । इसी प्रकार पद्मलेश्यामें भी जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार शुकुलेश्यामें जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि दो आयु, नरकगति और तिर्यञ्चगतिको छोड़कर यह अल्पबहुत्व कहना चाहिए । असंज्ञियों में मिथ्यात्वके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान सबसे बहुत हैं। इनसे सातावेदनीयके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे यशःकीर्ति और उच्चगोत्रके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे होन हैं । इनसे देवगतिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे कार्मणशरीरके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे तैजसशरीरके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे वैक्रियिकशरीरके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है । इससे आगे सामान्य तिर्यखों के समान भङ्ग है। इस प्रकार परस्थान अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । इस प्रकार प्रकृतिसमुदाहार समाप्त हुआ ।
१. आ० प्रतौ वि । णवरि सुक्काए इति पाठः । २. ता० प्रतौ साद० अ [ज] स० उच्चा० इति पाठः ।
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द्विदिसमुदाहारो
डिदिसमुदाहारो पमाणाणुगमो ६४५. हिदिसमुदाहारे ति तत्थ इमाणि दुवे अणियोगद्दाराणि-पमाणाणुगमो सेढिपरूवणाणुगमो त्ति । पमाणाणुगमो दुवि० । ओघे० मदियावरणस्स जहणियाए हिदीए असंखेजा लोगा अणुभागबंधज्झवसाणट्ठाणाणि । विदियाए द्विदीए असंखेजा लोगा अणुभाग० । तदियाए हिदीए असंखेजा लोगा अणुभा० । एवं असंखेज्जा लोगा असंखेजा लोगा एवं याव उक्कस्सियाए द्विदि त्ति । एवं अप्पसत्थाणं । पसत्थाणं पगदीणं विवरीदं णेदव्वं । एवं याव अणाहारए ति णेदव्वं ।
एवं पमाणाणुगमं समत्तं
सेढिपरूवणा ६४६. सेढिपरूवणाणुगमो दुविहो-अणंतरोवणिधा परंपरोवणिधा च । अणंतरोवणिधाए दुवि० । ओधे० पंचणा०-णवदंस०-असादा०-मिच्छ०-सोलसक०-णवणोक०णिरय-तिरिक्ख०-चदुजादि-पंचसंठा०-पंचसंघ०-अप्पसत्थ०४-दोआणु०-उप०'-अप्पसत्थ०-थावर०-सुहुम०-अपज०-साधार०२-अथिरादिछ०-णीचा०-पंचंत० एदेसिं सव्वत्थोवा जहण्णियाए द्विदीए अणुभा० । विदियाए द्विदीए अणुभा० विसे । तदीए हिदीए अणुभा० विसे । एवं विसेसाधियाणि विसेसाधियाणि याव उक्कस्सियाए
स्थितिसमुदाहार ६४५. स्थितिसमुदाहारका प्रकरण है। उसके विषयमें ये दो अनुयोगद्वार होते है - प्रमाणानुगम और श्रेणिप्ररूपणानुगम। प्रमाणानुगम दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मतिज्ञानावरणकी जघन्य स्थितिके असंख्यात लोकप्रमाण अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते है। द्वितीय स्थितिके असंख्यात लोकप्रमाण अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते है। तृतीय स्थितिके असंख्यात लोकप्रमाण अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते है। इसी प्रकार उत्कृष्ट स्थिति पर्यन्त प्रत्येक स्थितिके असंख्यात लोकप्रमाण असंख्यात लोकप्रमाण अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते है । इस प्रकार अप्रशस्त प्रकृतियोंके विषयमें जानना चाहिये । तथा प्रशस्त प्रकृतियों के विषयमें विपरीत क्रमसे ले जाना चाहिए । इस प्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए।
इस प्रकार प्रमाणानुगम समाप्त हुआ।
श्रेणिप्ररूपणा ६४६. श्रेणिप्ररूपणानुगम दो प्रकारका है-अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा। अनन्तरोपनिधाकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, नरकगति, तिर्यश्चगति, चार जाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, दो आनुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायं गति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर आदि छह, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनकी जघन्य स्थितिमें अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान सबसे स्तोक है। इनसे दूसरी स्थितिमें अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष अधिक है। इनसे तीसरी स्थितिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष अधिक है। इस प्रकार उत्कृष्ट स्थिति तक विशेष अधिक
१. आ० प्रतौ अप्पसत्थ०४ आदाउजो० उप० इति पाठः । २. ता. प्रतौ सादा० इति पाठः।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे हिदि ति । सादा०-मणुसग०-देवग०-पंचिं०-पंचसरीर-समचदु०-तिण्णिअंगो०-वञ्जरि०पसत्थ०४-दोआणु०-अगु०-पर०-उस्सा०-आदाउञ्जो०-पसत्थ०-तस०४-थिरादिछ'णिमि०-तित्थ०-उच्चा० सव्वत्थोवा उक्कस्सियाए द्विदीए अणुभागबंधज्झवसाण । समऊणाए हिदीए अणुभा० विसे । विसमऊणाए द्विदीए अणुभा० विसे० । तिसमऊणाए द्विदीए अणुभा० विसे । एवं विसेसाधियाणि विसेसाधियाणि याव जहणियाए हिदि त्ति । चदुण्णं आउगाणं सव्वत्थोवा जहणियाए हिदीए अणुभा० । विदियाए द्विदीए अणुभा० असंखेजगुणाणि । तदियाए द्विदीए अणुभा० असंखेजगुणाणि । एवं असं०गु० असं०गु० याव उक्कस्सिया हिदि त्ति । एवं एदेण बीजेण याव अणाहारए त्ति णेदव्वं ।।
एवं अणंतरोवणिधा समत्ता । ६४७. परंपरोवणिधाए मदियावरणस्स जहणियाए हिदीए अणुभागबंधज्झवसाणहाणेहितो तदो पलिदोव० असंखेजदिभागं गंतूण दुगुणवड्डिदा । ए [वं दुगुणवड्डिदा] दुगुणवड्डिदा याव उक्कस्सियाए हिदि त्ति । एगहिदिअणुभाग बंधज्झवसाणदुगुणवड्डि-हाणिहाणंतराणि असंखेजाणि पलिदोवमवग्गमूलाणि । णाणाट्ठिदिअणुभागबंधज्झवसाणदुगुणवड्डि-हाणिट्ठाणंतराणि अंगुलवग्गमूलच्छेदणयस्स असंखेजदिभागो। णाणाडिदिअणुभा०विशेष अधिक अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते है । सातावेदनीय, मनुष्यगति, देवगति, पञ्चेन्द्रियजाति, पाँच शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, तीन आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनराच संहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, दो आनुपूर्वी, अगुरुलघु, परघात, उच्छास, आतप, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण, तीर्थङ्कर और उच्चगोत्रकी उत्कृष्ट स्थितिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान सबसे स्तोक है। इनसे एक समय कम स्थितिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष अधिक है। इनसे तो समय कम स्थितिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष अधिक है। इनसे तीन समय कम स्थितिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष अधिक है। प्रकार जघन्य स्थितिके प्राप्त होने तक विशेष अधिक विशेष अधिक अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान हैं। चार आयुओंकी जघन्य स्थितिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान सबसे स्तोक है। इनसे दूसरी स्थितिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हैं । इनसे तीसरी स्थितिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे है। इस प्रकार उत्कृष्ट स्थिति तक असंख्यातगुणे असंख्यातगुणे अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान है। इस प्रकार इस बीजपदके अनुसार अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिए।
इस प्रकार अनन्तरोपनिधा समाप्त हुई। ६४७. परम्परोपनिधाकी अपेक्षा मतिज्ञानावरणको जघन्य स्थितिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थानोंसे लेकर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिविकल्प जाने पर वे दूने होते हैं। इस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिके प्राप्त होने तक दूने दूने अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान जान चाहिए। एकस्थितिअनुभागबन्धाध्यवसानाद्वगुणवृद्धि-द्विगुणहानिस्थानान्तर पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूल प्रमाण हैं । नानास्थितिअनुभागबन्धाध्यवसानद्विगुणवृद्धि-द्विगुणहानि स्थानान्तर अङ्गुलके प्रथम वर्गमूलके अर्धच्छेदोंके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । नानास्थिति
१. ता. आ. प्रत्योः पसत्थ०४ तस०४ थिरा दिछ० इति पाटः । २. आ० प्रती एगठिदि ति अणुभाग- इति पाठः।
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द्विदिसमुदाहारो
दु गुणवड्डि- हाणि थोवाणि । एगट्ठिदिअणुभागबंधज्झवसाणदु गुणवड्डि-हाणिट्ठाणंतराणि असंखेज्जगुणाणि । एवं आउगवजाणं सव्वअप्पसत्यपगदीणं सो चेव भंगो ।
६४८. सादस्स उक्कस्सियाए द्विदीए अणुभागबंधज्झवसाणेहिंतो तदो पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो ओसकिंदृण दुगुणवड्डिदा । एवं दुगुणवड्डिदा दुगुण० याव जहणियाट्ठिदिति । एगहिदिअणुभाग ० दुगुणवड्ढि हाणिट्ठाणंतराणि असंखे आणि पलिदोवमवग्गमूलाणि' । णाणाडिदिअणुभा० दुगुणवड्डि- हाणिट्ठाणंतराणि अंगुलवग्गमूलच्छेदणयस्स असंखेज्जदिभागो । ाणादिअणुभागबंध • दुगुणवड्डि-हाणिट्ठाणंतराणि थोवाणि । एयट्ठिदिअणुभा० दुगुणवड्डि- हाणिट्ठाणंतरं असंखेज्जगुणं । एवं आउगवजाणं सव्वपसत्थपगदीणं सो चेव भंगो । एदेण बीजेण एवं अणाहारए त्ति णेदव्वं । एवं परंपरोवणिधा समत्ता | अणभागबंधज्झवसाणहाणाणि
३८९
६४९. याणि चैव अणुभागबंधज्झवसाणट्ठाणाणि ताणि चैव अणुभागबंधद्वाणाणि । अण्णाणि पुणो परिणामट्ठाणाणि ताणि चेव कसाउदयद्वाणाणि ति भणति । मदियावरणस्स जहण्णिगे कसाउदयट्ठाणे असंखेज्जा लोगा अणुभागबंधज्झवअनुभागबन्धाध्यवसानद्विगुणवृद्धि द्विगुणहानिस्थानान्तर स्तोक हैं । इनसे एकस्थितिअनुभागबन्धाध्यवसान द्विगुणवृद्धि - द्विगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणे हैं। इस प्रकार आयुके सिवा सब अप्रशस्त प्रकृतियोंका वही भङ्ग है ।
६४८. सातावेदनीयकी उत्कृष्ट स्थितिके अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानों से पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिविकल्प पीछे जाने पर वे दूने होते हैं । इस प्रकार जघन्य स्थितिके प्राप्त होने तक' वे दूने - दूने होते जाते हैं । एकस्थितिअनुभागवन्धाध्यवसानद्विगुणवृद्धि- द्विगुणहानिस्थानान्तर पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण हैं । नानास्थितिअनुभागबन्धाध्यवसान द्विगुणवृद्धि -द्विगुणहानिस्थानान्तर अङ्गुलके प्रथम वर्गमूलके अर्धच्छेदों के असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । नानास्थितिअनुभागबन्धाध्यवसा नद्विगुणवृद्धि द्विगुणहानिस्थानान्तर स्तोक हैं । इनसे एकस्थितिअनुभागबन्धाध्यवसानद्विगुणवृद्धि द्विगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणे हैं। इस प्रकार आयुओंके सिवा सब प्रशस्त प्रकृतियोंका वही भङ्ग है । इस बीज पदके अनुसार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए ।
विशेषार्थ — यहाँ सब प्रकृतियोंकी जघन्यादि या उत्कृष्टादि किस स्थिति में रहनेवाले अनुभागबन्धके कितने अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान हैं और वे किस स्थान पर जाकर दूने या आधे होते हैं, इस बातका प्रशस्त और अप्रशस्त प्रकृतियोंकी अपेक्षा विचार किया गया है । इसे परम्परोपनिधा कहते हैं; क्योंकि इसमें एकके बाद दूसरी स्थिति के अनुभागअध्यवसानस्थानोंका विचार न कर परम्परया इस बातका विचार किया गया है। शेष कथन सुगम है । इस प्रकार परम्परोपनिधा समाप्त हुई ।
अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान
६४९. जो अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान हैं वे ही अनुभागबन्धस्थान हैं । तथा अन्य जो परिणामस्थान हैं वे ही कषायउदयस्थान कहे जाते हैं । मतिज्ञानावरणके जघन्य कषायउदयस्थानमें असंख्यात लोकप्रमाण अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान होते हैं । दूसरे कषाय उद्य१. ता० प्रतौ द्वाणंतराणि पलिदोवमवग्गमूलाणि इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे
साणट्टाणाणि । विदियाए कसाउदयद्वाणे असंखैज्जा' लोगा अणुभागबंधज्झवसाणाणाणि । तदिए कसाउदयद्वाणे असंखेजा लोगा अणुभागबंधज्झवसाणट्ठाणाणि । एवं असंखेजा लोगा असंखैजा लोगा याव उक्कस्सिया कसाउदयट्ठाणं ति । एवं अप्पसत्थाणं सव्वपगदीणं । सादस्स उक्कस्सए कसाउदयट्ठाणे असंखेजार लोगा अणुभाग० । समऊणाए कसाउदट्ठाणे असंखेजा लोगा अणुभा० । विसमऊणाए साउदट्ठाणे असंखेजा लोग़ा अणुभा० । तिसमऊणाए कसाउदयड्डाणे असंखेजा लोगा अणुभा० । एवं असंखेजा लोगा असंखेज्जा लोगा याव जहण्णियं कसाउदयद्वाणं ति । एवं सव्वासिं पसत्थाणं पगदीणं । एवं एदेण बीजेण कसाउदयट्ठाणाणि याव अणाहार दिव्वं ।
६५०. तेसिं दुविधा परूवणा - अणंतरोवणिधा परंपरोवणिधा च । अणंतरोवणिधाए सव्वासिं [ अ ] पसत्थपगदीणं णिरयाउगवजाणं सव्वत्थोवा जहण्णियाए द्विदीए जहण कसाउदाणे अणुभागबंधज्झवसाणडागाणि । जह० द्विदीए विदियकसाउदय ० ३ विसेसाधियाणि । जह० ट्ठिदीए तदिए कसाउदय ० विसेसाधियाणि । एवं विसे ०. विसे० याव जहण्णिया० द्विदीए उकस्सयं कसाउदयद्वाणं ति । एवं याव उक्कस्सियाए हिदीए उक्कस्सियं कसाउदयद्वाणं ति । सव्वपसत्थाणं पगदीणं तिष्णि
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स्थानमें असंख्यात लोकप्रमाण अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान होते हैं। तीसरे कषाय उदयस्थानमें असंख्यात लोकप्रमाण अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान होते हैं । इस प्रकार उत्कृष्ट कषाय उदयस्थानके प्राप्त होने तक प्रत्येक स्थानमें असंख्यात लोकप्रमाण असंख्यात लोकप्रमाण अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान होते हैं । इस प्रकार सब अप्रशस्त प्रकृतियोंके जानना चाहिए । सातावेदनीयके उत्कृष्ट कषायउदयस्थान में असंख्यात लोकप्रमाण अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान होते है । एक समय कम कषाय उदयस्थानमें असंख्यात लोकप्रमाण अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान होते हैं । दो समय कम कषाय उदयस्थानमें असंख्यात लोकप्रमाण अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान होते हैं। तीन समय कम कषाय उदयस्थानमें असंख्यात लोकप्रमाण अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान होते हैं। इस प्रकार जघन्य कषाय उदयस्थानके प्राप्त होने तक प्रत्येक स्थानमें असंख्यात लोकप्रमाण अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं । इसी प्रकार सब प्रशस्त प्रकृतियोंके विषयमें जानना चाहिए । इस प्रकार इस बीजपदके अनुसार अनाहारकमार्गणा तक कषायउदयस्थान जानने चाहिए ।
६५०. इनकी प्ररूपणा दो प्रकारकी है-अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा । अनन्तरोपनिधाकी अपेक्षा नरकायुको छोड़कर सब अप्रशस्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके जघन्य कषाय उदयस्थानमें अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान सबसे थोड़े होते हैं । इनसे जघन्य स्थितिके दूसरे कषाय उदयस्थानमें वे विशेष अधिक होते हैं । इनसे जघन्य स्थिति के तीसरे काय उदयस्थानमें वे विशेष अधिक होते हैं । इस प्रकार जघन्य स्थितिके उत्कृष्ट कषाय उदयस्थानके प्राप्त होने तक वे विशेष अधिक विशेष अधिक होते हैं। इसी प्रकार उत्कृष्ट स्थितिके उत्कृष्ट कषाय उदयस्थानके प्राप्त होने तक जानना चाहिए। तीन आयुओंको छोड़ कर सव प्रशस्त
१. ता० प्रतौ विदियाएं उक्कस्सट्ठाणे असंखेजा इति पाठः । २. ता० प्रतौ कसा उदयट्ठाणाणि असंखेजा इति पाठः । ३. आ० प्रतौ जह० विदियकसाउदय० इति पाठः ।
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हिदिसमुदाहारो
३९१ आउगवजाणं सव्वत्थोवा उक्कस्सियाए हिदीए उक्कस्सिए कसाउदयट्ठाणे अणुभागबंधज्झवसाण । उक्क० विदीए समऊणे कसाउद० विसे । उक० द्विदी• विसमऊणे कसाउ० विसे० । उक्क० द्विदी० तिसमऊ. विसे० । एवं विसे० विसे० याव जहण्णयं कसाउदयट्ठाणं ति । एवं याव जहणियाए हिदीए जहण्णय कसाउदयट्ठाणं ति।।
६५१. णिरयाउ० कसाउदयट्ठाणे अणुभागवंधज्झवसाणट्ठाणाणि थोवाणि । विदिए कसाउद० अणुभाग ज्झवसा० असं गु० । तदिए कसाउदयट्ठाणे अणुभा० असंगु० । एवं असंखेंजगुणाणि असंखेंगु० याव उक्क०द्विदि त्ति । तिण्णं आउगाणं उक्कस्सियाए कसाउदयट्ठाणे अणुभागबंधज्झवसाणट्ठाणाणि थोवाणि । समऊणे कसाउद० अणुभा० [अ] संखेंजगुणाणि । विसमऊ. कसाउद० अणुभा० असं०गु०। तिसमऊ. कसाउ० अणुभा० असं०गु० । एवमसंखेंजगुणाणि असं०गु० याव जहण्णयं कसाउदयट्ठाणं ति । एवं एदेण बीजेण याव अणाहारए त्ति णेदव्वं ।।
६५२. परंपरोवणिधाए दुवि०। ओघे मदियावरणादणं णिरयाउगवजाणं सव्वअप्पसत्थपगदीणं जहणियाए हिदीए जहण्णए कसाउदयट्ठाणे जहण्णगं अणुभागबंधज्यवसाणहाणेहिंतो तदो असंखेंजा लोगं गंतूण दुगुणवड्डिदा । एवं दुगुणवड्डिदा दुगुणवड्डिदा याव उक्कस्सिया हिदीए उक्कस्सिए कसाउदयट्ठाणे त्ति । सादादीणं
प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके उत्कृष्ट कषाय उदयस्थानमें अनुभागबन्धाध्यक्सानस्थान सबसे थोड़े होते हैं। उनसे उत्कृष्ट स्थितिके एक समय कम कषाय उदयस्थानमें वे विशेष हीन होते है। उनसे उत्कृष्ट स्थितिके दो समय कम कषाय उदयस्थानमें वे विशेष हीन होते हैं। उनसे उत्कृष्ट स्थितिके तीन समय कम कषाय उदयस्थानमें वे विशेष हीन होते है। इस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिके जघन्य कषाय उदयस्थानके प्राप्त होने तक वे विशेष हीन विशेष हीन होते हैं। इसी प्रकार जघन्य स्थितिके जघन्य कषाय उदयस्थानके प्राप्त होने तक जानना चाहिए।
___६५१. नरकायुके जघन्य कषाय उदयस्थानमें अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान स्तोक है। इनसे दूसरे कषाय उदयस्थानमें अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं। इनसे तीसरे कषाय उदयस्थानमें अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं । इस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिके प्राप्त होने तक वे असंख्यातगुणे असंख्यातगुणे हैं। तीन आयुओंके उत्कृष्ट कषाय उदयस्थानमें अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान थोड़े है। उनसे एक समय कम कषाय उदयस्थानमें अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं। उनसे दो समय कम कषाय उदयस्थानमें अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान. असंख्यातगुणे हैं। उनसे तीन समय कम कषाय उदयस्थानमें अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे है। इस प्रकार जघन्य कषाय उदयस्थानके प्राप्त होने तक असंख्यातगुणे असंख्यातगुणे अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान है। इस प्रकार इस बीज पदके अनुसार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए ।
६५२. परम्परोपनिधाकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे नरकायुके सिवा मतिज्ञानावरण आदि सब अप्रशस्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके जघन्य कषाय उदयस्थानमें जघन्य अनुभागबन्धाध्यवसान स्थानोंसे लेकर असंख्यात लोकप्रमाण स्थान जाकर द्विगुणी वृद्धि होती है। इस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिके उत्कृष्ट कषाय उदयस्थानके प्राप्त होने तक द्विगुणी द्विगुणी वृद्धि होती है। तीन आयुओंके सिवा सातावेदनीय आदि सब प्रशस्त प्रक
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे तिणं' आउगवजाणं सव्वपसत्थपगदीणं उक्कस्सियाए द्विदीए उक्कस्सए कसाउदयट्ठाणे अणुभा०हिंतो तदो असंखेंजा लोगं गंतूण दुगुणवड्डिः । एवं दुगुणवड्डिदा याव , जहणियाए द्विदीए जह• कसाउदयट्ठाणे त्ति । एगअणुभागबंधज्झवसाणदुगुणवड्डिहाणिट्ठाणंतरं असंखेंजा लोगा। णाणाअणुभा०दुगुणवड्डि-हाणिट्ठाणंतराणि आवलि० असंखेजदिभागो। णाणा०अणुभा०दुगुणवड्डि-हाणिट्ठाणंतराणि थोवाणि | एगअणुभा० दुगुणवड्डि-हाणिहाणंतरं असंखेंजगुणं । एवं आउगवजाणं पगदीणं एदेण बीजेण याव अणाहारए त्ति णेदव्वं । एवं परंपरोवणिधा समत्ता ।
एवं द्विदिसमुदाहारो सभत्तो।
तिब्वमंददाए अणुकड्डी ६५३. एत्तो तिव्वमंददाए पुव्वं गमणिशं अणुकड्डिं वत्तइस्सामो। तं जहासण्णीहि पगदं । अब्भवसिद्धियपाओग्गं जहण्णगे बंधगे मदियावरणस्स जहण्णट्ठिदिबंधमाणस्स याणि अणुभागबंधज्झवसागट्ठाणाणि विदियाए द्विदीए तदेगदेसो वा अण्णाणि च । तदियाए हिदीए तदेगदेसो वा अण्णाणि च । एवं पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो तदेगदेसो वा अण्णाणि च । एवं जहणियाए हिदीए अणुक्कड्डी । जम्हि जहणियाए हिदीए अणुक्कड्डी णिढिदा तदो से काले विदियाए हिदीए अणुकड्डी णिट्ठियदि । जह्मि विदियाए हिदीए अणुक्कड्डी णिविदा तदो से काले 'तदियाए द्विदीए तियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके उत्कृष्ट उदयस्थानमें अनुभाग अध्यवसान स्थानोंसे लेकर असंख्यात लोकप्रमाण स्थान जाकर द्विगुणी वृद्धि होती है। इस प्रकार जघन्य स्थितिके जघन्य कषाय उदयस्थानके प्राप्त होने तक द्विगुणी द्विगुणी वृद्धि होती है । एक अनुभागबन्धाध्यवसानद्विगुणवृद्धि-हानिस्थानान्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। नानाअनुभागवन्धाध्यवसानद्विगुणवृद्धि-हानिस्थानान्तर आवलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। नाना अनुभागबन्धाध्यवसानद्विगुणवृद्धि-हानिस्थानान्तर स्तोक है। इनसे एकअनुभागबन्धाध्यवसानद्विगुणवृद्धि-हानिस्थानान्तर असंख्यातगुणा है। इस प्रकार आयुके सिवा सब प्रकृतियोंका इस बीजपदके अनुसार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए ।
इस प्रकार परम्परोपनिधा समाप्त हुई।
इस प्रकार स्थितिसमुदाहार समाप्त हुआ। ६५३. आगे तीव्रमन्दका पहले विचार करना है। उसमें अनुकृष्टिको बतलाते हैं। यथा-संज्ञी जीव प्रकृत हैं। अभव्योंके योग्य जघन्य बन्धकमें मतिज्ञानावरणकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवके जो अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं, द्वितीय स्थितिमें उनका एकदेश और अन्य . अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते है। तीसरी स्थितिमें उनका एकदेश और अन्य अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते है। इस प्रकार पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थिति विकल्पोंके प्राप्त होने तक उनका एकदेश और अन्य अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते है। इस प्रकार जघन्य स्थितिमें अनुकृष्टि जाननी चाहिए। जघन्य स्थितिमें जहाँ अनुकृष्टि समाप्त होती है, उससे अनन्तर समयमें द्वितीय स्थितिमें अनुकृष्टि समाप्त होती है। जहाँ दूसरी स्थितिमें अनुकृष्टि समाप्त होती है, उससे अनन्तरसमयमें तीसरी स्थितिमें
१. ता. प्रतौ ति स्सादीणं ( ? ) तिण्णं इति पाठः ।
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ट्ठिदिसमुदाहारो
३९३ अणुक्कड्डी णिट्ठियदि । एवं याव उक्कस्सिया हिदि त्ति । यथा मदियावरणस्स तथाइमासिं । तं जहा—पंचणा० णवदंस० मोहणीयस्स छब्बीसं अप्पसत्थव०४ उप० पंचंत० । एस अणुकड्डेि बंध०।
६५४. एत्तो सादस्स अणुक्कडिं वत्तइस्सामो। तं जहा—सादस्स उक्कस्सयं हिदि बंधमाणस्स याणि अणुभागबंधज्झवसाणहाणाणि तदो समऊणाए ट्ठिदीए ताणि च अण्णाणि च । विसमऊणाए' हिदीए ताणि च अण्णाणि च । तिसमऊणाए हिदीए ताणि च अण्णाणि च । एवं जाव जहण्णयं असादबंधपाओग्गसमाणं ति ताव ताणि च अण्णाणि च । तदो जहण्णयादो असादबंधट्ठाणादो याव समऊणा द्विदी तिस्से जाणि अणुभागबंधज्झवसाणहाणाणि ताणि उवरिल्लाणि हिदीणं अणुभागबंधज्झवसाणहाणेहिंतो तदेगदेसो च अण्णाणि च । तदो समऊणाए हिदीए तदेगदेसो च अण्णाणि च । तदो दुसमऊणाए हिदीए तदेगदेसो च अण्णाणि च । तिसमऊणाए हिदीए तदेगदेसो च अण्णाणि च । एवं पलिदोवमस्स असंखेंजदिभागो तदेगदेसो च अण्णाणि च । तदो जहणियादोअसादबंधसमऊणादो जा समऊणा हिदी तिस्से हिदीए अणुक्कड्डी झीणा। तदो से काले समऊणाए द्विदीए अणुक्कड्डी झीयदि। जम्हि समऊणाए हिदीए अणुक्कड्डी झीणा तदो से काले दुसमऊणाए हिदीए अणुक्कड्डी झीयदि । यम्हि विसमऊणाए हिदीए अनुकृष्टि समाप्त होती है। इस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिके प्राप्त होने तक जानना चाहिए । यहाँ जिस प्रकार मतिज्ञानावरणकी अनुकृष्टि कही है, उसी प्रकार इन प्रकृतियोंकी जाननी चाहिए। यथा-पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मोहनीयकी छब्बीस प्रकृतियाँ, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तराय । यह अनुकृष्टिका बन्ध करनेवालेके कहना चाहिए।
६५४. आगे सातावेदनीयकी अनुकृष्टिको बतलाते हैं। यथा-सातावेदनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवके जो अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं, उससे एक समय कम स्थितिके वे और दूसरे अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं । दो समय कम स्थितिके वे और दूसरे अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं। तीन समय कम स्थितिके वे और दूसरे अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं। इस प्रकार जघन्य असातावेदनीयके बन्धके योग्य स्थानोंके समान स्थानोंके प्राप्त होने तक वे और दूसरे स्थान होते हैं। आगे जघन्य असातावेदनीयबन्धस्थानके समान स्थितिबन्धसे एक समय कम स्थितिके प्राप्त होने तक उसके जो अनुभाग
हैं वे ऊपरकी स्थितियोंके अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानोंसे एकदेश रूप होते हैं और अन्य होते हैं। आगे एक समय कम स्थितिमें उनका एकदेश और दूसरे अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं। इसके आगे दो समय कम स्थितिमें उनका एकदेश और अन्य अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं। तीन समय कम स्थितिमें उनका एकदेश और अन्य अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते है। इस प्रकार पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थिति विकल्पों तक प्रत्येक स्थितिविकल्पमें पूर्व पूर्वका एकदेश और अन्य अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं। अनन्तर एक समय कम जघन्य असातावेदनीयके समान बन्धसे जो एक समय कम स्थिति है उस स्थितिकी अन कृष्टि क्षीण हो जाती है। आगे अनन्तर समयमें एक समय कम स्थितिकी अनुकृष्टि क्षीण हो जाती है। जहाँ एक समय कम स्थितिकी अनुकृष्टि क्षीण होती है,उससे अनन्तर समयमें दो समय कम स्थितिकी अनुकृष्टि क्षीण होती है। जहाँ दो समय
१. ता. प्रतौ ताणि च विसमऊणाए इति पाठः।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे अणुक्कड्डी झीणा तदो से काले तिसमऊणाए हिदीए अणुक्कड्डी झीयदि । एवं याव सादस्स जहणियाए हिदि त्ति । एवं यथा सादस्स' तथा मणुस०-देवग०-समचदु०वजरि०-मणुस०-देवग०तप्पाऑग्गाणु०-पसत्थवि०-थिर-सुभ-सुभग-सुस्सर-आदें-जस०उच्चा० एस भंगो १५।
६५५. एत्तो असादस्स अणुकडिं वत्तइस्सामो । तं जहा–असादस्स जहणिया हिदी बंधमाणो' जाणि अणुभागबंधज्झवसाणहाणाणि विदियाए हिदीए ताणि च अण्णाणि च । एवं याव सागरोवमसदपुधत्तं ताणि च अण्णाणि च । एसा परूवणा कदमासिं ? असादबंधहिदीणं इमासिं एसा परूवणा । तं जहा -याओ हिदीओ बंधमाणो असादस्स जहण्णयं अणुभागं बंधदि तासिं हिदीणं एसा परूवणा । एदेसिं हिदीणं या उक्कस्सिया हिदी तिस्से याणि अणुभागबंधज्झवसाणहाणाणि तदो समउत्तराए हिदीए तदेगदेसो च अण्णाणि च । एवं विसमउत्तराए हिदीए तदेगदेसो च अण्णाणि च । एवं पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो तदेगदेसो च अण्णाणि च । तदो असादस्स जह० अणुभागबंधपाऑग्गाणं द्विदीणं याव उक्कसिया हिदी तिस्से हिदीए अणुक्कड्डी झीयदि । यम्हि असादस्स जहण्णयं अणुभागबंधपाओंग्गाणं डिदीणं उक्कस्सियाए हिदीए अणुक्कड्डी झीणा तदो से काले समउत्तराए हिदीए कम स्थितिकी अनुकृष्टि क्षीण होती है, उससे अनन्तर समयमें तीन समय कम स्थितिकी अनुकृष्टि क्षीण होती है। इस प्रकार सातावेदनीयकी जघन्य स्थिति प्राप्त होने तक कथन करना चाहिए । यहाँ जिस प्रकार सातावेदनीयकी अनुकृष्टि कही है, उसी प्रकार मनुष्यगति, देवगति, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षभनाराचसंहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशःकीर्ति और उच्चगोत्रका यही भङ्ग जानना चाहिए।
६५५. आगे असातावेदनीयकी अनुकृष्टिको बतलाते हैं। यथा-असातावेदनीयकी जघन्य स्थितिको बाँधनेवाले जीवके जो जघन्य अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं, दूसरी स्थितिको बाँधनेवाले जीवके वे और अन्य अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं। इस प्रकार सौ सागरप्रमाण स्थितिके प्राप्त होने तक वे और अन्य अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं । यह प्ररूपणा किन स्थितियोंकी है? इन असातावेदनीय बन्ध स्थितियों की यह प्ररूपणा है। यथा-जिन स्थितियोंको बाँधते हुए असातावेदनीयका जघन्य अनुभाग बाँधता है उन स्थितियोंकी यह प्ररूपणा है। तथा इन स्थितियोंमें जो उत्कृष्ट स्थिति है उसके जो अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं, उससे एक समय अधिक स्थितिके उनका एकदेश और अन्य अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं । इसी प्रकार दो समय अधिक स्थितिके उनका एकदेश और अन्य अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं। इस प्रकार पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिविकल्पोंके प्राप्त होने तक प्रत्येकके पूर्व-पूर्व अनुभागबन्धाध्यवसान स्थानोंका एकदेश और अन्य अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं । अनन्तर असातावेदनीयकी जो जघन्य अनुभागबन्धप्रायोग्य स्थितियोंमें उत्कृष्ट स्थिति होती है, उस स्थितिकी अनुकृष्टि क्षीण हो जाती है। जहाँ असातावेदनीयकी जघन्य अनुभागबन्धप्रायोग्य स्थितियोंमें उत्कृष्ट स्थितिकी अनुकृष्टि क्षीण होती है, उससे अगले समयमें एक समय अधिक स्थितिकी अनुकृष्टि क्षीण होती है। जहाँ एक समय
१. ता० प्रतौ यथा सुदस्स तथा इति पाठः। २. ता० प्रतौ जहणियाए हिदिबंधमाणो इति पाठः। २. ता० प्रती एसपरूवणा कदमासि इति पाठः । ३. ता. प्रतौ एसपरूवणा कदमासि इति पाटः। ४. ता० प्रतौ तं जहा इति स्थाने प्रायः सर्वत्र तं यथा इति पाठः । ५. ता० प्रतौ हिदीए इति पाठो नास्ति । ६. ता० प्री-पाओग्गाणं हिदीए इति पाटः।
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हिदिसमुदाहारो अणुक्कड्डी झीयदि । यम्हि समउत्तराए हिदीए अणुक्कड्डी झीणा तदो से काले विसमउत्तराए अणुक्कड्डी झीयदि । यम्हि विसमउत्तराए ट्ठिदीए अणुक्कड्डी झीणा तदो से काले तिसमउत्तराए हिदीए अणुक्कड्डी झीयदि । एवं याव असादस्स उक्कसिया हिदि त्ति । णिरय०एइंदि०-बीइं०-तीइं०-चदुरिं०-पंचसंठा०-पंचसंघ०-णिरयाणु०-अप्पसत्थ० -थावर०सुहुम-अपज०-साधार०-अथिर-असुभ-दूभग-दुस्सर-अणादे-अजस० एवं असादभंगो।
६५६. एत्तो तिरिक्खगदिणामाए अणुकडिं वत्तइस्सामो। तं जहा-सत्तमाए पुढवीए णेरइगस्स सव्वजहणियं हिदि बंधमाणयस्स याणि अणुभागवंधज्झवसाणहाणाणि तदो विदियाए हिदीए तदेगदेसो च अण्णाणि च । तदो तदियाए हिदीए तदेगदेसो च अण्णाणि च । एवं पलिदोवमस्स असंखेंजदिभागो' तदेगदेसो च अण्णाणि च । तदो जहणियाए द्विदीए अणुक्कड्डी छिज्जदि । जम्हि जहणियाए द्विदीए अणुक्कड्डी च्छिण्णा तदो से काले समउत्तराए द्विदीए अणुक्कड्डी छिजदि। जम्हि समउत्तराए हिदीए अणुक्कड्डी छिण्णा तदो से काले विसमउत्तराए द्विदीए अणुक्कड्डी छिजदि । एवं याव अब्भवसिद्धिपाऑग्गजहण्णहिदिचरिभसमयं अपत्ता ति । तदो अब्भवसिद्धियपाओग्गजहण्णयं हिदि बंधमाणस्स याणि अणुभागबंधज्झवसाणाणि विदियाए द्विदीए ताणि च अण्णाणि च । तदियाए हिदीए ताणि च अण्णाणि अधिक स्थितिकी अनुकृष्टि क्षीण होती है , उससे अनन्तर समयमें दो समय अधिक स्थितिकी अनुकृष्टि क्षीण होती है। जहाँ दो समय अधिक स्थितिकी अनुकृष्टि क्षीण होती है उससे अगले समयमें तीन समय अधिक स्थितिकी अनुकृष्टि क्षीण होती है। इसी प्रकार असातावेदनीय की उत्कृष्ट स्थितिके प्राप्त होने तक जानना चाहिए। नरकगति, एकेन्द्रियजाति, द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, नरकगत्यानुपूर्वी, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और अयशःकीतिका भङ्ग इसी प्रकार असातावेदनीयके समान है।
६५६. आगे तिर्यश्चगतिनामकर्मकी अनुकृष्टि बतलाते हैं । यथा-सातवीं पृथिवीमें सबसे जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले नारकीके जो अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं, उनसे द्वितीय स्थितिमें उनका एकदेश और अन्य अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं। इनसे तीसरी स्थितिमें उनका एकदेश और अन्य अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं। इस प्रकार पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थितिविकल्पोंके प्राप्त होने तक प्रत्येक स्थितिमें। अनुभागबन्धाध्यवसान स्थानोंका एकदेश और अन्य अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान प्राप्त होते हैं। तब जाकर जघन्य स्थितिकी अनुकृष्टि क्षीण होती है। जहाँ जघन्य स्थितिकी अनुष्टि क्षीण होती है, उससे अगले समयमें एक समय अधिक स्थितिकी अनुकृष्टि क्षीण होती है। जहाँ एक समय अधिक स्थितिकी अनुकृष्टि क्षीण होती है, उससे अगले समयमें दो समय अधिक स्थितिकी अनुकृष्टि क्षीण होती है । इस प्रकार अभव्य प्रायोग्य जघन्य स्थितिका अन्तिम समय जब तक न प्राप्त होतब तक जानना चाहिए । अनन्तर अभव्यप्रायोग्य जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवके जो अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं, उनसे द्वितीय स्थिति में वे और अन्य अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते है। तीसरी स्थितिमें वे और अन्य अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं। इस प्रकार सौ सागर पृथक्त्व प्रमाण स्थिति विकल्पोंके प्राप्त होने तक प्रत्येकमें वे और अन्य
१. ता० प्रतौ असंखेजादेभागे इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे
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च । एवं याव सागरोवमसदपुधत्तं ताव ताणि च अण्णाणि च । एसा परूवणा कदमासिं ? तिरिक्खगदिणामाए यासिं बंधट्ठिदीणं' इमासिं एसा परूवणा । तं जहायाओ हिदीओ बंधमाणो तिरिक्खगदिणामाए जहण्णयं अणुभागं बंधदि तासिं हिदीगं एसा परूवणा । एदासिं ट्ठिदीणं या उक्कस्सिया ट्ठिदी तिस्से याणि अणुभागबंधज्झवसाणाणि तदो समउत्तराए द्विदीए तदेगदेसो च अण्णाणि च । विसम उत्तराए द्विदीए तदेगदेसो च अण्णाणि च । एवं पलिदो ० असंखैज्जदिभागो तदेगदेसो च अण्णाणि च । तदो अब्भवसिद्धि पाओग्गजह० अणुभाग० जह० बंधुकस्सियाए हिदीए अणुकड्डी झीयादि । जहि अब्भवसि० जह० अणुक्कड्डी झीणा तदो जा समउत्तरा हिदी तिस्से अणुक्कड्डी झीयदि । यम्हि समउत्तराए हिदीए अणुक्कड्डी झीणा तदो से काले विसमउत्तराए हिदी अणुक्कड्डी झीयदि । यहि विसमउत्तराए हिदीए अणुक्कड्डी झीणा तदो से काले तिसमउत्तराए ट्ठिदीए अणुकड्डी झीयदि । एवं याव तिरिक्खर्गादिणामा उक्कस्सियाए हिदीए ति । तिरिक्खाणु० - णीचागो० तिरिक्खगदिभंगो ।
६५७. एत्तो ओरालियसरीरणामाए अणुक्कडिं वत्तइस्साम । तं जहा - ओरालियसरीरणामा उक्कस्सियं द्विदिं बंधमाणस्स याणि अणुभागबं० तदो सयऊणाए दिए तदेगदेसो च अण्णाणि च । विसमऊणाए द्विदीए तदेगदेसो च अण्णाणि च । तिसमऊणाए द्विदीए तदेगदेसो च अण्णाणि च । एवं पलिदो ० असंखेज दिभागो अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं । यह प्ररूपणा किन स्थितियोंकी है ? तिर्यञ्चगतिनामकर्म - की इन बन्धस्थितियोंकी यह प्ररूपणा है । यथा - जिन स्थितियोंको बाँधते हुए तिर्यगति नामकर्मके जघन्य अनुभागका बन्ध करता है, उन स्थितियोंकी यह प्ररूपणा है । इन स्थितियोंमें जो उत्कृष्ट स्थिति है उसके जो अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान हैं, उससे एक समय अधिक स्थितिके उनका एकदेश और अन्य अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं। दो समय अधिक स्थितिके उनका एकदेश और अन्य अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं। इस प्रकार पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितियोंमेंसे प्रत्येक स्थितिके पूर्व - पूर्वका एकदेश और अन्य अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं । अनन्तर अभव्यप्रायोग्य जघन्य अनुभागबन्धाध्यवसान युक्त जघन्य बन्धोत्कृष्ट स्थितिकी अनुकृष्टि क्षीण होती है। जिस स्थानमें अभव्यसिद्धप्रायोग्य जघन्य स्थितिकी अनुकृष्टि क्षीण होती है, उसके बाद जो एक समय अधिक स्थिति है उसकी अनुकृष्टि क्षीण होती है । जहाँ एक समय अधिक स्थितिकी अनुकृष्टि क्षीण हुई है, उससे अगले समयमें दो समय अधिक स्थितिकी अनुकृष्टि क्षीण होती है । जहाँ दो समय अधिक स्थितिकी अनुकृष्टि क्षीण हुई है, उससे अगले समयमें तीन समय अधिक स्थितिकी अनुकृष्टि क्षीण होती है। इस प्रकार तिर्यगति नामकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिके प्राप्त होने तक जानना चाहिए। तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका भङ्ग तिर्यञ्चगतिके समान है ।
६५७. आगे औदारिकशरीर नामकर्मकी अनुकृष्टिको बतलाते हैं । यथा — औदारिक शरीरकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवके जो अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं, उससे एक समय कम स्थितिके उनका एकदेश और अन्य अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं । दो समय कम स्थिति के उनका एकदेश और अन्य अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं। तीन समय कम स्थिति उनका एकदेश और अन्य अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं। इस प्रकार १. ता० आ० प्रत्योः यादि बंधहि दीणं इति पाठ: ।
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हिदिसमुदाहारो
३९७ तदेगदेसो च अण्णाणि च । तदो उक्कस्सियाए द्विदीए अणुक्कड्डी बोच्छिादि' । जम्हि उक्कस्सिए द्विदीए अणुक्कड्डी वोच्छिण्णा तदो से काले समऊणाए द्विदीए अणुक्कड्डी वोच्छिादि । यम्हि समऊणाए द्विदीए अणुक्कड्डी वोच्छिण्णा तदो से काले विसमऊणाए द्विदीए अणुक्कड्डी वोच्छिादि । जम्हि विसमऊणाए द्विदीए अणुक्कड्डी वोच्छिण्णा तदो से काले तिसमऊ० अणुक्कड्डी वोच्छिादि । एवं याव ओरालियसरीरस्स जहणियाए हिदि त्ति । पंचण्णं सरीराणं तिण्णमंगोवंगाणं पसत्थ०४ अगु० पर० उस्सा० आदाउजो० णिमि० तित्थयरस्स च ओरालियसभंगो।।
६५८. एत्तो पंचिंदियणामाए अणुक्कडिं वत्तइस्सामो। तं जहा—पंचिंदियणामाए उक्कस्सियं हिदि बंधमाणस्स याणि अणुभागबंधज्झवसाणाणि तदो समऊणाए द्विदीए तदेगदेसो च अण्णाणि च । तदो विसमऊणाए द्विदीए तदेगदेसो च अण्णाणि च। तदो तिसमऊणाए' हिदीए तदेगदेसो च अण्णाणि च । एवं पलि. असंखेंजदिभागो तदेगदेसो च अण्णाणि च । तदो उक्कस्सियाए हिदीए अणुक्कड्डी गिट्ठायदि । यम्हि उक्कस्सियाए हिदीए अणुक्कड्डी णिढिदा तदो से काले समऊणाए हिदीए अणुकही गिट्ठायदि । यम्हि समऊणाए हिदीए अणुक्कड्डी णिट्टिदा तदो से काले विसमऊणाए हिदीए अणुक्कड्डी गिट्ठायदि । यम्हि विसमऊणाए हिदीए अणुक्कड्डी णिहिदा पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितियोंमेंसे प्रत्येक स्थितिके पूर्व- पूर्व अनुभागबन्धाध्यवसान स्थानोंका एकदेश और अन्य अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं । तब जाकर उत्कृष्ट स्थितिकी अनुकृष्टि व्युच्छिन्न होती है । जहाँ उत्कृष्ट स्थितिकी अनुकृष्ट व्युच्छिन्न हुई है, उससे अगले समयमें एक समय कम स्थितिकी अनुकृष्टि व्युच्छिन्न होती है । जहाँ एक समय कम स्थितिकी अनुकृष्टि व्युच्छिन्न हुई है,उससे अगले समयमें दो समय कम स्थितिकी अनुकृष्टि व्युच्छिन्न होती है। जहाँ दो समय कम स्थितिकी अनुकृष्टि व्युच्छिन्न हुई है,उससे अगले समयमें तीन समय
थतिकी अनुकृष्टि व्यच्छिन्न होती है। इस प्रकार औदारिकशरीरकी जघन्य स्थितिके प्राप्त होने तक जानना चाहिए । पाँच शरीर, तीन आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, परघात, उच्छ्रास, आतप, उद्योत, निर्माण और तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग औदारिकशरीरके समान है।
६५८. आगे पञ्चेन्द्रियजातिकी अनुकृष्टिको बतलाते हैं । यथा-पञ्चेन्द्रियजातिकी उत्कृष्ट स्थितिको बाँधनेवालेके जो अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं, उनसे एक समय कम स्थितिके उनका एकदेश और अन्य अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान होते हैं। उनसे दो समय कम स्थितिके उनका एकदेश और अन्य अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं। उनसे तीन समय कम स्थितिके उनका एकदेश और अन्य अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं। इस प्रकार पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कम स्थितिके प्राप्त होने तक प्रत्येक स्थितिके पूर्व-पूर्वका एकदेश और अन्य अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं। तब जाकर उत्कृष्ट स्थितिकी अनुकृष्टि समाप्त होती है। जहाँ उत्कृष्ट स्थितिकी अनुकृष्टि समाप्त हुई है, उससे अगले समयमें एक समय कम स्थितिकी अनुकृष्टि समाप्त होती है। जहाँ एक समय कम स्थितिकी अनुकृष्टि समाप्त हुई है, उससे अगले समयमें दो समय कम स्थितिकी अनुकृष्टि समाप्त होती है। जहाँ दो समय कम स्थितिकी अनुकृष्टि समाप्त हुई है,उससे अगले समयमें तीन समय कम स्थितिकी
१. ता. प्रतौ अणुकड्डी वा छिजदि इति पाठः। २. ता० प्रतौ तदो समऊणाए इति पाठः। है. ता० प्रती याम्ही इति पाठः ।
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३६८
महाबंचे अणुभागबंधाहियारे
दो से काले तिसमऊणाए द्विदीए अणुकड्डी पिट्ठायदि । एवं याव अट्ठारससागरोवमकोडाकोडीओ समउत्तराओ त्ति । तदो अट्ठारससागरोवमकोडाकोडीओ पडिपुण्णं बंधमाणस्स याणि अणुभागवं वज्झवसाणाणि तदो समऊणाए हिदीए ताणि य अाणि । विसमऊणाए द्विदीए ताणि य अणाणि य । तदो तिसमऊणाए द्विदीए ताण अण्णाणि य । एवं यात्र परिपक्खणामपाओग्गजहणगो हिदिबंधो ताव ताण अण्णाणि य । तदो पडिपक्खणामाए जहण्णगादो विदिबंधादो समऊणाए fighter याणि अणुभाग० उवरिल्लाणं अणुभागबंध ० तदेगदेसो य अण्णाणि य । तदो विसमऊणा० हिदी० तदेगदेसो च अण्णाणि च । तदो तिसमऊणा० ट्ठिदी० तढ़ेगदेसो च अण्णाणि च । एवं पलि० असं० भागो तदेगदेसो च अण्णाणि च । तदो अन्भवसिद्धियपाओग्गजहं० द्विदी० अणुकड्डी झोयदि । जम्हि पडिपक्खणामपाओग्गजह० हिदी० अणुकडी झीणा तदो से काले समऊणाए द्विदीए अणुक्कड्डी झीयदि । जहि समऊणा द्विदीए अणुक्कड्डी झीणा तदो से काले विसमऊणा० हिदी० अणुकड्डी झीयदि । जहि विसमऊ० द्विदी० अणुक्क० झीणा तदो से काले तिसमऊणा ० हिदी० अणुक० झीयदि । एवं याव पंचिंदियणामाए जहण्णिया डिदि ति । एवं तस - बादर-पजत्त- पत्तेय०
10
एवं अणुक्कड्डी समत्ता |
अनुकृष्टि समाप्त होती है। इस प्रकार एक समय अधिक अठारह कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण स्थितिबन्ध होने तक जानना चाहिए । अनन्तर पूरे अठारह कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण बाँधनेवालेके जो अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान प्राप्त होते हैं, उनसे एक समय कम स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवके वे और अन्य अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं । दो समय कम स्थितिका बन्ध करनेवालेके वे और अन्य अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं। आगे तीन समय कम स्थितिका बन्ध करनेवालेके वे और अन्य अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते । इस प्रकार प्रतिपक्ष नामप्रायोग्य जघन्य स्थितिबन्धके प्राप्त होने तक वे और अन्य अनुभागवन्धाध्यवसान स्थान होते हैं। आगे प्रतिपक्ष नामके जघन्य स्थितिबन्धसे एक समय कम स्थितिके जो ऊपरकी स्थितियों के अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान हैं, उनका एकदेश और अन्य अनुभागवन्धाध्यवसान स्थान होते हैं। आगे दो समय कम स्थिति उनका एकदेश और अन्य अनुभागवन्धाध्यवसान स्थान होते हैं। आगे तीन समय कम स्थिति उनका एकदेश और अन्य अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं। इस प्रकार पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थितियोंके प्राप्त होने तक प्रत्येक स्थिति पूर्व-पूर्वके अनुभाग अध्यवसान स्थानोंका एकदेश और अन्य अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान होते हैं । तब जाकर अभव्यप्रायोग्य जघन्य स्थितिकी अनुकृष्टि क्षीण होती है । जहाँ प्रतिपक्ष नामप्रायोग्य जघन्य स्थितिकी अनुकृष्टि क्षीण हुई है, उससे अगले समय में एक समय कम स्थितिकी अनुकृष्टि क्षीण होती है । जहाँ एक समय कम स्थितिको अनुॠष्टि क्षीण हुई है, उससे अगले समय में दो समय कम स्थितिकी अनुकृष्टि क्षोण होती है । जहाँ दो समय कम स्थितिकी अनुकृष्टि क्षीण हुई है, उससे अगले समय में तीन समय कम स्थितिकी अनुकृष्टि क्षीण होती है । इस प्रकार पचेन्द्रियजाति नामकर्म की जघन्य स्थितिके प्राप्त होने तक जानना चाहिए । इस प्रकार स, बादर, पर्याप्त और प्रत्येक प्रकृतिके विषय में जानना चाहिए ।
इस प्रकार अनुकृष्टि समाप्त हुई ।
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द्विदिसमुदाहारो
३९९ तिन्वमंदो ६५९. एतो तिव्वमंदं वत्तइस्सामो । तं जहा-मदियावरणस्स जहणियाए द्विदीए जहण्णपदे जहण्णाणुभागो थोवो । विदियाए द्विदीए जहण्णाणुभागो अणंतगुणो । तदियाए द्विदीए जहण्णाणुभागो अणंतगुणो। एवं पलि० असं० जहण्णाणुभागो अणंतगुणो । तदो जह० द्विदी० उक्कस्सपदे उक्क० अणुभा० अणंतगु० । तदो यम्हि द्विदा जहण्णा तदो समउत्तराए द्विदीए जह० अणंतगुणो। विदि० उक्क० अणु० अणंतगुणो । इतरत्थ जहण्णाणु० अणंतगु० । तदियाए हिदी० उक्क ० अणु० अणंतगु० । इतरत्थ जह० अणु० अणंतगु० एवं णेदव्वं साव उक्कस्सियाए हिदीए जहण्णपदे जहण्णाणुभागो अणंतगुणो। तदो उक्कस्सियाए द्विदीए पलिदोवमस्स असंखें भागं ओसक्किदूण जम्हि द्विदो उक्कस्सो' तदो समउत्तराए विदीए उक० अणुभागो अणंतगुणो । विसमउ० हिदी० उक्क० अणु० अणंतगु० । नदो तिसमउ० हिदी० उक्क० अणु० अणंतगु० । एवं अणुबंध० उक्क० अणंतगु० । एवं याच मदियावरणस्स उक्क० द्विदी० उक्कस्सपदे उक्क० अणु० अणंतगु०। पंचणा०-णवदंस०-मोहणीयछब्बीस-अप्प०सत्थ०४उप०-पंचंत० एदेसि मदियावरणभंगो।।
तीव्र-मन्द ६५९. आगे तीव्रमन्दको बतलाते हैं। यथा-मतिज्ञानावरणकी जघन्य स्थितिके जघन्य पदमें जघन्य अनुभाग सबसे स्तोक है। इससे दूसरी स्थितिमें जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। इससे तीसरी स्थितिमें जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। इस प्रकार पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितियों के प्राप्त होने तक प्रत्येक स्थितिमें जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। इससे जघन्य स्थितिके उत्कृष्ट पदमें उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है। इससे पहले अन्तकी जिस स्थिति में जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा कह आये हैं उससे एक समय अधिक स्थितिमें जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। इससे प्रारम्भका द्वितीय स्थितिमें उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है। इससे आगेकी दूसरी स्थितिमें जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। इससे प्रारम्भकी तीसरी स्थितिमें उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है। इससे आगेकी तीसरी स्थितिमें जघन्य अनुभाग अनन्तगणा है। इस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिके जघन्य पदमें जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है-इस स्थानके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए । आगे उत्कृष्ट स्थितिसे पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण पीछे जाकर जिस स्थितिमें उत्कृष्ट अनुभाग स्थित है, उससे एक समय अधिक स्थितिमें उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है। इससे दो समय अधिक स्थितिमें उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है। इससे तीन समय अधिक स्थितिम उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है। इस प्रकार मतिज्ञानावरणकी उत्कृष्ट स्थितिके उत्कृष्ट पदमें उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है-इस स्थानके प्राप्त होने तक जानना चाहिए । पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, छब्बीस मोहनीय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तराय इनका भङ्ग मतिज्ञानावरणके समान है।
विशेषार्थ---यहाँ मतिज्ञानावरणकी जघन्य स्थितिबन्धसे लेकर उत्कृष्ट स्थितिबन्धके प्राप्त होने तक प्रत्येक स्थितिमें जघन्य और उत्कृष्ट अनुभाग कितना होता है, इसका विचार किया गया है। विचार करते हुए यहाँ जो कुछ बतलाया गया है उसका भाव यह है कि प्रथमसे दूसरीमें और दूसरीसे तीसरोमें, इस प्रकार पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण
१. ता. प्रतौ जम्हि हिदी उक्कस्सो इति पाट ।
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महाबँधे अणुभागबंधाहियारे
I
६६०. एत्तो सादस्स तिव्वमंदं वत्तहस्सामा । तं जहा - सादस्स उक्कस्स० हिदीए जहणपदे जहण्णाणुभागो थोवो । समऊणार ट्ठिदीए जह० अणु० तत्तियो चैव । बिसमऊ० दीए जह० अणु० तत्तियो चैव । तिसमऊ० द्विदी० जहण्णाणु० तत्तियो चेव । एवं याव जहण्णगो असादबंध समाणो ति ताव तत्तियो चेव । तदो जहण्णगादो असादधादो या समऊणा ट्ठिदी तिस्से द्विदीए जहण्णाणुभागो अनंतगु० । विसमऊ०
४००
० जह० अ० अनंतगु० । तिसमऊ ० हिदी० जह० अणु० अनंतगु० । एदेण कमेण जहणगा असादबंधसमाणसादबंधगाणं आदि काढूण असंखेंज्जाओ द्विदीओ णिव्वग्गणकंडयस्स असंखेज्जदिभागो एत्तियमेत्तीओ ट्ठिदीओ तासिं जहण्णाणुभागो अतगुणा सेढी दव्वा । तदो णियत्तिदव्वं सादस्स उक्कस्सियाए द्विदीए उक्कस्सपदे उक्क० अणुभा० अनंतगुणो । समऊ० ट्ठिदी० उक्क० अणु० अनंतगु० । विसमऊ ० हिदी • उक्क० अणु० अनंतगु० । तिसमऊ० ट्ठिदी० उक० अणु० अणंतगु० । एवं णिरंतरं उक्कसयं आदि काढूण असंखेज्जाओ द्विदीओ ऍत्तियमेंत्तं णिव्वग्गणकंडयं तत्तिय
०
स्थितियों में जघन्य अनुभाग उत्तरोत्तर अनन्तगुणा है । फिर पल्यके असंख्यातवें भागके अन्तमें जो स्थिति विकल्प है, उसके जघन्य अनुभागसे जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है । फिर इससे पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितियोंके आगेकी स्थितिमें जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है । फिर इससे जघन्य स्थितिसे आगेकी द्वितीय स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा । फिर इससे पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितियोंके आगेकी दूसरी स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है । फिर इससे जघन्य स्थिति से आगेकी तीसरी स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है। फिर इससे पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितियोंसे आगेकी तीसरी स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है । इस प्रकार इसी क्रमसे उत्कृष्ट स्थिति तक अनुभागका क्रम जानना चाहिए। मात्र जहाँ उत्कृष्ट स्थितिमें जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा प्राप्त होता है, वहाँ इससे पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण पूर्वकी स्थितिमें उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा होता है और आगे पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितियोंमें पूर्व - पूर्व स्थितिके उत्कृष्ट अनुभागसे आगे-आगेकी स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा होता है ।
६६०. आगे सातावेदनीयके तीव्र-मन्दको बतलाते हैं । यथा - सातावेदनीय की उत्कृष्ट स्थितिके जघन्य पदमें जघन्य अनुभाग स्तोक है। एक समय कम स्थितिका जघन्य अनुभाग उतना ही है । दो समय कम स्थितिका जघन्य अनुभाग उतना ही है। तीन समय कम स्थितिका जघन्य अनुभाग उतना ही है। इस प्रकार जघन्य असातावेदनीयके बन्धके समान स्थिति प्राप्त होने तक उतना ही अनुभाग है । अनन्तर जघन्य असातावेदनीयके बन्धसे जो एक समय कम स्थिति है, उस स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है । इससे दो समय कम स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। इससे तीन समय कम स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा । इस क्रमसे असातावेदनीयके बन्धके समान सातावेदनीयके बन्धकोंसे लेकर असंख्यात स्थितियाँ, जो कि निर्वर्गणाकाण्डकके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं, इतनीमात्र उन स्थितियोंका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणित श्रेणिरूपसे ले जाना चाहिए। इसके बाद लौटकर सातावेदनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट पदमें उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है । इससे एक समय कम स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है । इससे दो समय कम स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है । इससे तीन समय कम स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है। इस प्रकार निरन्तर उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर निर्वर्गणा काण्डक
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तिव्वमंदपरूवणा
४०१
तणं दणं या उकस्सअणु० अणंतगुणो अनंतगुणाए सेटीए णेदव्वं । तदो जाहिंतो द्विदीहिंतो एयंतसादपाओग्गजहण्णगं अणुभागं भाणिदूण णियत्तिदा उकस्सियाए fate उकस्सियमणुभागस्स तदो ऍतो द्विदीदो णियत्तो तदो द्विदीदो या समऊ १०
तसे दिए जह० अणु० अनंतगु० । तदो पुण उक्कस्सियादो हिदीदो णिव्वग्गणकंडीओ हिदीओ ओसक्किदूण जा हिदी तिस्से ट्ठिदीए उक्क० अणु० अनंतगु० । तदो पुणणिव्वग्गणकंडयमेत्तीणं उक्क० अणु० अनंतगु० अनंतगुणाए सेढीए णिरंतरं दव्वं । तदो पुण हेट्ठादो ऍकिस्से द्विदीए जह० अणु० अणंतगु० । तदो पुण उकस्सगादो दुगुणणिव्वग्गणकंडय मेंत्तीओ हिदीओ ओसकिदूण या हिदी तिस्से द्विदीए उक्क० अणु० अणंतगु० । तदो णिव्वग्गणकंडयमेत्तीणं उक्क० अणु० अनंतगुणा सेढीए णिरंतरं णेदव्वं । तदो पुण एकिस्से द्विदीए जह० अणु० अनंतगु० । तदो पुण उक्क० द्विदीदो तिगुणणिव्वग्गणकंडयमेंत्तीओ हिदीओ ओसकिदूण जाहिदी तिस्से दिए उक्क० अणु० अनंतगु० । तदो णिव्वग्गणकंडयमेंत्तीणं द्विदीणं उ० अणु अनंतगु० अणंतगुणाए सेडीए निरंतरं दव्वं । एवं हेट्ठादो एकिस्से दिए जहणाणुभागस्स उवरिमाणं द्विदीणं असंखेजाणं उक्कस्सगा अणुभागा । एवं ओघसिजमाणा हेट्ठिमहिदीणं जहण्णाणुभागेहि उवरिमाणं द्विदीणं उकस्साणुभागेहि ताव आगदं याव असादस्स समाणं जहण्णयं द्विदिबंधं णिव्वग्गणकंडगेण अपत्ता त्ति । तदो
०
माए हिदी० जह० अणु० अनंतगु० । तदो उवरिमाणं द्विदीणं जम्हि द्विदीदो प्रमाण असंख्यात स्थितियोंका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है जो उत्तरोत्तर अनन्तगुणित श्रेणिरूपसे ले जाना चाहिए। अनन्तर जिस स्थितिसे एकान्त सातावेदनीयप्रायोग्य जघन्य अनुभागको कहकर और लौटकर उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग कहा था, उस स्थितिसे एक समय कम जो स्थिति है, उसका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है । फिर उत्कृष्ट स्थितिसे निर्वर्गणाकाण्डकमात्र स्थितियों हटकर जो स्थिति है, उस स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग पूर्वोक्त जघन्य अनुभागवाली स्थितिसे अनन्तगुणा है । फिर आगे निर्वर्गणाकाण्डकमात्र स्थितियों का 'उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणित श्रेणिरूपसे उत्तरोत्तर अनन्तगुणा- अनन्तगुणा है । तदनन्तर अधस्तन एक स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है । अनन्तर उत्कृष्ट स्थितिसे द्विगुणे निर्वर्गणाकाण्डकप्रमाण स्थितियाँ हटकर जो स्थिति है, उस स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे आगे निर्वर्गणाकाण्डक प्रमाण स्थितियोंका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणित श्रेणिरूपसे ले जाना चाहिए। तदनन्तर अधस्तन एक स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है । अनन्तर उत्कृष्ट स्थितिसे तिगुणे निर्वर्गणाकाण्डकमात्र स्थितियाँ हटकर जो स्थिति है, उस स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है । उससे निर्वर्गणाकाण्डकमात्र स्थितियोंका उत्कृष्ट अनुभाग निरन्तर अनन्तगुणित श्रेणिरूपसे जाना चाहिए । इस प्रकार अवस्तन एक स्थितिका जवन्य अनुभाग और उपरिम असंख्यात स्थितियोंके उत्कृष्ट अनुभाग हैं। इस प्रकार क्रम-क्रम से घटाते हुए अधस्तन स्थितियोंके जघन्य अनुभागों और उपरिम स्थितियोंके उत्कृष्ट अनुभागोंसे तब तक आये हैं, जब तक असाताके समान जघन्य स्थितिबन्धको एक निर्वर्गेणाकाण्डकके द्वारा नहीं प्राप्त हुए हैं। उससे अधस्तन स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे उपरिम स्थितियोंके जिस स्थान में उत्कृष्ट अनु१. ता० आ० प्रत्यो० य समऊ० इति पाठः । २. अनंतगुणो सेटीए इति पाठः । ३. ता० आ० प्रत्योः अट्ठादो इति पाठः । ४. ता० आ० प्रत्योः द्विदिबंधणिव्वग्गणकंडगेण इति पाठः ।
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महाबंचे अणुभागबंधाहियारे
O
०
उक्कस्सो तदो समऊणाए हिदी० उक्क० अणु० अनंतगु० । तदो विसमऊ ० हिदी० उ० अणु० अनंतगु० । ताव अनंतगुणाय सेडीए णिरंतरं आगदं याव असादस्स जहण्णगो दबंध । तदो जहण्णगादो असाद० ट्ठिदिबंधादो उक्क० 'अणुभागेहिंतो जहण्णगादो असाद० णिव्वग्गणकंडयमेंतीओ हिदीओ ओसकिदूण या हिदी तिस्से द्विदीए ज० अणु अनंतगु० । तदो जह० दो असाद० ट्ठिदीदो सयऊ० हिदी० उ० अणु० अनंतगु० । तेण परं हेट्टिमाए द्विदीए जहण्णगो अणुभागो उवरिमाए हिदीए उकस्सओ अणुभागो एगेगा ओगसिदा जहण्णादो असाद० दो समाणं आढत्ता ताव णीदं याव सादस्स जह० ट्ठिदी ० जह० पढ़े ज० अणु० अनंतगु० । तदो सादस्स जह० द्विदो णिव्वग्गणकंडयमेंत्तीओ द्विदीओ अन्भुस्सरिण जम्हि द्विदो उक्क० तदो समऊ० डिदी० उ० अणु० अनंतगु० । दुसमऊ० ट्ठिदी० उ० अणु अनंतगु० । तिसमऊ० द्विदी० उ० अणु० अनंतगु० । एवं उक्क० अणु० अतगुणाए सेडीए निरंतरं णेदव्वं याव सादस्स जहण्णगो द्विदिबंधी त्ति । एवं यथा सादस्स तथा मणुसग ०- देवग० - समचदु ० - वजरि० - दोआणु ० ० - पसत्थ० - थिर - सुभसुभग- सुस्सर-आज ० -जस०-उच्चा० ।
०
भाग स्थित है, उससे एक समय कम स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे दो समयकम स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है । इस प्रकार असातावेदनीयके जघन्य स्थितिबन्धके प्राप्त होने तक अनन्तगुणित श्रेणिरूपसे निरन्तर आया है । अनन्तर जघन्य असातावेदनीयके समान स्थितिबन्धके उत्कृष्ट अनुभागसे जघन्य असातावेदनीयके समान स्थितिबन्धसे निर्वर्गणकण्डकमात्र स्थितियाँ हटकर जो स्थिति है, उस स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे जघन्य असातावेदनीयके समान स्थितिबन्धसे एक समय कम स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे अधस्तन स्थितिका जघन्य अनुभाग और उपरिम स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग इस प्रकार एक-एक कम होता हुआ जघन्य असाताके समान स्थितिबन्ध से लेकर सातावेदनीयके जघन्य स्थितिबन्ध तक जघन्य पदमें जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है- इस स्थानके प्राप्त होने तक कहना चाहिए । अनन्तर सातावेदनीयका जघन्य अनुभाग जहाँ स्थित है, उससे निर्वणाकाण्डकमात्र स्थितियाँ ऊपर जाकर जहाँ उत्कृष्ट अनुभाग स्थित है, उससे एक समय कम स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे दो समय कम स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है । उससे तीन समय कम स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है। इस प्रकार सातावेदनीयके जघन्य स्थितिबन्धके प्राप्त होने तक उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणित श्रेणिरूपसे निरन्तर ले जाना चाहिए । यहाँ जिस प्रकार सातावेदनीयका तीव्रमन्द कहा है, उसी प्रकार मनुष्यगति, देवगति, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षभनाराचसंहनन, दो आनुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशः कीर्ति और उच्चगोत्रका जानना चाहिए ।
विशेषार्थ — सातावेदनीय प्रशस्त प्रकृति है, इसलिए इसकी उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे लेकर जघन्य स्थितिबन्ध तक अनुभाग उत्तरोत्तर यथाविधि अधिक प्राप्त होता है । खुलासा इस प्रकार हैसातावेदनीयकी उत्कृष्ट स्थितिमें जघन्य अनुभाग सबसे स्तोक है । एक समय कम उत्कृष्ट स्थिति में जघन्य अनुभोग उतना ही है । दो समय कम उत्कृष्ट स्थितिमें जघन्य अनुभाग उतना ही है । तीन
१. आ० प्रतौ हिदिबंधो उक्क० इति पाठः । २. आ० प्रतौ एगेगा ओघसिद्धा । ३. ता० प्रतौ ० दो समाणं श्रदत्ता तावणिदं याव, ग्रा० प्रतौ प्रसाद०दो समाणा श्रादत्ता ताव णिद्द याव इति पाठः ।
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तिव्वमंदपरूवणा
६६१. ऍतो असादस्स तिव्वमंदं वत्तइस्सामो । तं जहा - असादस्स जहण्णियाए द्विदीए जह० पदे जह० अणु० थोवो। विदियाए ट्ठि० जह० अणुभा० तत्तियो चेव । तदियाए डि० जह० अणु० तत्तियो चेव । एवं याव सागरोवमसदपुधत्तं ताव जह० अणु० तत्तियो चेव । तदो याओ द्विदीओ बंधमाणो असादस्स जह० अणु० बंदि तासि द्विदी ० या उक्कस्सिया हिंदी तिस्से समउत्तराए द्विदीए जह० अणु० अनंत
समय कम उत्कृष्ट स्थितिमें जघन्य अनुभाग उतना ही है । इस प्रकार असातावेदनीयके जघन्य स्थितिबन्ध समान सातावेदनीयका स्थितिबन्ध प्राप्त होने तक जितने स्थितिविकल्प हैं, उन सबका जघन्य अनुभागबन्ध समान है । फिर इससे आगे निर्वर्गणाकाण्डक प्रमाण स्थितियोंके असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थितियोंका जघन्य अनुभाग उत्तरोत्तर अनन्तगुणा है । फिर यहाँ अन्तकी स्थिति में जो जघन्य अनुभाग प्राप्त हुआ है, उससे उत्कृष्ट स्थितिमें उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिमें उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है । इस प्रकार उत्कृष्ट स्थिति से लेकर निर्वर्गणाकाण्डक प्रमाण स्थितियों में उत्तरोत्तर उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा - अनन्तगुणा है । फिर जहाँ जघन्य अनुभाग छोड़ा था, उससे एक समय कम स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है । फिर इससे उत्कृष्ट स्थितिसे एक निर्वर्गणाकाण्डक प्रमाण स्थितियोंके बाद दूसरे निर्वर्गेणाकाण्डक प्रमाण स्थितियोंका उत्कृष्ट अनुभाग उत्तरोत्तर अनन्तगुणा है । इस प्रकार अधस्तन एक स्थितिका जघन्य अनुभाग और उपरितन निर्वर्गणाकाण्डक प्रमाण स्थितियोंका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा - अनन्तगुणा तब तक कहना चाहिए, जब तक असातावेदनीयके जघन्य बन्धके समान सातावेदनीयके बन्धमें एक निर्वर्गणाकाण्डक प्रमाण स्थिति शेष रह जाय । अधस्तन एक स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है और उससे उपरितन निर्वर्गणा arush प्रमाण स्थितियोंका उत्कृष्ट अनुभाग उत्तरोत्तर अनन्तगुणा होकर यहाँ अन्तमें उत्कृष्ट अनुभागसे असातावेदनीयके जघन्य बन्धके समान सातावेदनीयका स्थितिबन्ध प्राप्त हो जाता है । फिर यहाँ असातावेदनीयके जघन्य बन्धके समान सातावेदीयका जो स्थितिबन्ध प्राप्त हुआ है, उसकी स्थिति से निर्वर्गणाकाण्डकप्रमाण स्थिति हटकर जो अधस्तन स्थिति है,उसका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है और इससे असातावेदनीयके जघन्य स्थितिबन्ध के समान सातावेदनीयके स्थितिबन्ध में एक समय कम करके प्राप्त हुए स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है । फिर अधस्तन एक-एक स्थितिका जघन्य अनुभाग और उपरिम एक-एक स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा - अनन्तगुणा कहते हुए वहाँ तक जाना चाहिए, जब जाकर सातावेदनीयकी जघन्य स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा प्राप्त हो जावे । पुनः इससे एक निर्वर्गणाकाण्डकप्रमाण स्थितियाँ ऊपर जाकर वहाँ स्थित स्थितिमें उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा कहना चाहिए । पुनः एक-एक स्थिति कम करते हुए जघन्य स्थितिके प्राप्त होने तक प्रत्येक स्थिति का उत्कृष्ट अनुभाग उत्तरोत्तर अनन्तगुणा कहना चाहिए । यह सातावेदनीयका तीश्रमन्द है । इसी प्रकार यहाँ मूलमें गिनाई गई अन्य प्रकृतियों का जानना चाहिए ।
६६१. इससे आगे असातावेदनीयका तीव्रमन्द बतलाते हैं । यथा - असातावेदनीयकी जघन्य स्थिति जघन्य पदमें जघन्य अनुभाग सबसे स्तोक है । द्वितीय स्थितिका जघन्य अनुभाग उतना ही है। तीसरी स्थितिका जघन्य अनुभाग उतना ही है । इस प्रकार सौ सागरपृथक्त्व प्रमाण स्थितियोंके प्राप्त होने तक जघन्य अनुभाग उतना ही है। इससे आगे जिन स्थितियोंको बाँधता हुआ असातावेदनीयके जघन्य अनुभागका बन्ध करता है उन स्थितियोंमें जो उत्कृष्ट स्थिति है, उससे एक समय अधिक स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे
० | दो विदियदी० [ जह० ] अणु० अनंतगु० । तदो तदियहि० जह० अणु० अनंतगु० । एवं पलिदो० असंखे० भाग मेंत्तीओ हिदीओ णिव्वग्गणकंडयस्स असंखेंजभागतीणं जह० अणु० भाणिदृण तदो णियत्तिदव्वं । असादस्स जह० द्वि० उ० पदे उ० अणु० अनंतगु० । एवं णिव्वग्गणकंडयमैत्तीणं द्विदीणं उ० अणु० अनंतगुणाए सेडीए निरंतरं दव्वं । तदो उवरिमाए हिदीए जिस्से जह० अणुभागे भाणिदूण जियत्तेतॄण हेहिमाणं उक्क० अणुभा० भाणिदा तिस्से हिंदीए या समउत्तरा हिदी तिस्से हिदीए जहण्णाणुभा० अनंतगु० । तदो पुण हेडिमादो णिव्वग्गणकंडयमेत्तीणं द्विदीणं जासिं उक्क० अणु० अनंतगुणाए सेटीए णेदव्वं । तदो पुण उकस्से हिंदी ० ज० अणु० अनंतगु० । तदो हेडिमाणं णिव्वग्गणकंडयमेत्तीणं द्विदीर्ण उक्क० अणु० अनंतगु० सेडीए णेदव्वं । एदेण कमेण उवरिमाए हिदीए ऍकिस्से ० जह० अणु० हेडिमाणं असंखेजाणं द्विदीणं उक्क० अणुभा० पदव्वा ताव याव ओघ - जहणाणुभागियाणं उक० हिदी० उक्क०' अणुभागं पत्तो त्ति । ओघजहण्णाणुभागिया णाम कस्स सण्णा ? याओ हिदीओ बंधमाणो असादस्स जहण्णअणुभागे बंधदि तदो एसा हिदी ओघजहण्णाणुभागिया णाम सण्णा । तीए ट्ठिदीए ओघजहण्णाणुभागण्णा या ओघजहण्णाणुभागियाणं चरिमाए हिदीए उ० अणु० अनंतगु० ता ओघं जह० अणु०याणं उवरि णिव्वग्गणकंडयमेत्तीणं हिदीणं जह० अणुभागा भणिदा होंति । ऍत्तो पाए उवरिमाणं अभणिदाणं द्विदीणं जह० हिंदी ० जह० अणु०
है | उससे दूसरी स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे तीसरी स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है । इस प्रकार पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितियाँ जो कि निर्वगणाकाण्डकके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं, उनका जघन्य अनुभाग कह कर वहाँ अन्तमें जो स्थिति प्राप्त हो, उसके जघन्य अनुभागसे लौटकर असातावेदनीयकी जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट पदमें उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है । इस प्रकार निर्वर्गणाकाण्डक मात्र स्थितियोंका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणित श्रेणिरूप से निरन्तर ले जाना चाहिए । अनन्तर आगेकी जिस स्थितिका जघन्य अनुभाग कहकर और लौटकर अधस्तन स्थितियोंका उत्कृष्ट अनुभाग कहा है, उस स्थितिसे जो एक समय अधिकवाली स्थिति है, उस स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणो है । इससे अधस्तन निर्वर्गेणाकाण्डकमात्र स्थितियोंका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणित श्रेणिरूपसे ले जाना चाहिए। इससे उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है । इससे अधस्तन निर्वर्गणाकाण्डकमात्र स्थितियों का उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणित श्रेणिरूप से ले जाना चाहिए । इस क्रमसे उपरिम एक स्थितिका जघन्य अनुभाग और अधस्तन असंख्यात · स्थितियोंका उत्कृष्ट अनुभाग ओघ जघन्य अनुभागवाली स्थितियोंमेंसे उत्कृष्ट स्थितिके उत्कृष्ट अनुभाग प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए। ओघ जघन्य अनुभागवाली स्थिति यह किसकी संज्ञा है ? जिन स्थितियोंका बन्ध करनेवाला जीव असातावेदनीय के जघन्य अनुभागका बन्ध करता है, अतः उस स्थितिकी ओघ जघन्य अनुभागवाली यह संज्ञा है । ओघ जघन्य अनुभाग संज्ञावाली उस स्थितिके जिस स्थानमें ओघ जघन्य अनुभागवाली स्थितियोंमें से अन्तिम स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है, वहाँ ओघ जघन्य अनुभागवाली उपस्मि निर्वगणाकाण्डमात्र स्थितियोंका जघन्य अनुभाग कहा गया है। इससे आगे नहीं कही गई उपरिम स्थितियोंमें से १. ता० प्रतौ श्रोघजहण्णाणुभागियाणं उक्क० इति पाठः ।
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तिश्वमंदपरूवणा अणंतगु० । हेट्ठिमाणं ऍकिस्से द्विदीए उक्क० अणुभा० अणंतगु० । एदेण कमेण एक्कका द्विदी ओगसिदा आगदं' याव असादस्स उक्क० हिदीए जहण्णपदै जह. अणु० अणंतगु० ताधे असादबंध० हिदी० गिट्ठावणियाणि णिव्वग्गणकंडयमेंतीणं हिदीणं उक्क० अणु० ण भाणिदव्वा । सेसाणं सव्वासि हिदीणं उक्क० अणु० भणिदा । तदो यासिं हिदीणं उक्कस्सअणुभा० ण भणिदा तासिं हिदीणं जहणिया हिदी तिस्से हिंदीए उक्क० अणु० अणंतगु० । तदो समउत्तराए हिदीए उक. अणु० अणंतगु० । विसमउत्तराए हिदीए उक्क० अणु० अणंतगु० । तिसमउ० ट्ठि० उ० अणु० अणंतगु० । एवं अणुबंध० उक्क० अणु० अणंतगु० ताव याव उक्क० हि० उ० पदे उ० अणु० अणंतगु० । णिरयगदि-चदुजादि-पंचसंठा०-पंचसंघ०-णिरयाणु०-अप्पसत्थ०-थावर-सुहुम-अपज. साधार०-अथिर-असुभ-दूभग-दुस्सर-अणादें-अजस० एवं [अ] सादभंगो २८ । जघन्य स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है । इससे अधस्तन स्थितियों में से एक स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है । इस क्रमसे एक-एक स्थिति कम होती हुई जब असातावेदनीय की उत्कृष्ट स्थितिके जघन्य पदमें जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है, यह स्थान प्राप्त होता है तब जाकर असातावेदनीयकी बन्धस्थितियों द्वारा निष्ठापित निवर्गणाकाण्डकमात्र स्थितियोंका उत्कृष्ट अनुभाग नहीं कहा गया है। शेष सब स्थितियोंका उत्कृष्ट अनुभाग कहा गया है। इसलिए जिन स्थितियोंका उत्कृष्ट अनुभाग नहीं कहा गया है, उन स्थितियों में जो जघन्य स्थिति है उस स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे एक समय अधिकवाली स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे दो समय अधिकवाली स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगणा है। उससे तीन समय अधिकवाली स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है। इस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिके उत्कृष्ट पदमें उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है,इस स्थानके प्राप्त होने तक अनुभागबन्धकी अपेक्षा उत्तरोत्तर प्रत्येक स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा जानना चाहिए। इस प्रकार असातावेदनीयके समान नरकगात, चार जाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, नरकगत्यानुपूर्वी, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण अस्थिर, अशुभ दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और अयशःकीर्तिका तीब्रमन्द जानना चाहिए।
विशेषार्थ—यहाँ पहले असातावेदनीयकी जघन्य स्थितिसे लेकर सौ सागरपृथक्त्वप्रमाण स्थितियोंका जघन्य अनुभाग समान कहा है। इससे भागे निर्वर्गणाकाण्डककी असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितियोंका जघन्य अनुभाग प्रत्येक स्थितिकी अपेक्षा अनन्तगुणा कहा है। फिर यहाँ अन्तमें प्राप्त हुई स्थितिके जघन्य अनुभागसे जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा कहा है। फिर इस जघन्य स्थितिके आगे निर्वर्गणाकाण्डक प्रमाण स्थितियों में प्रत्येक स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा-अनन्तगुणा कहा है। इस प्रकार जघन्य स्थितिसे लेकर निर्वर्गणाकाण्डक प्रमाण स्थितियोंका उत्कृष्ट अनुभाग कहकर यहाँ अन्तकी स्थितिके उत्कृष्ट अनुभागसे जिस स्थितिके जघन्य अनुभागसे लौटकर जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा कहा थ अगली स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है । पुनःइससे अधस्तन दूसरे निर्वर्गणाकाण्डक प्रमाण स्थितियोंका उत्कृष्ट अनुभाग उत्तरोत्तर अनन्तगुणा है । पुनः इससे उपरिम एक स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। इस प्रकार उपरिम एक स्थितिका जघन्य अनुभाग और अधस्तन निर्वगणाकाण्डक प्रमाण स्थितियोंका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा होता हुआ ओघ जघन्य अनु
१. आ० प्रतौ ओघसिद्धा आगदं इति पाठः ।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ६६२. ऍत्तो तिरिक्खगदिणामाए तिव्वमंदं वत्तइस्सामो। तं जहा–सत्तमाए पुढवीए णेरइगस्स तिरिक्खगदिणामाए सव्वजहण्णयं हिदि बंधमाणस्स जह० वि० ज० पदे' जह० अणु० थोवा । विदिया० हिदी० जह० अणु० अणंतगु० । एवं जह० अणु० अणंतगुणाए सेडीए गदा याव ताव णिव्वग्गणकंडयमेत्तीओ हिदीओ। तदो ज० ट्ठि० उ० पदे० उक्क० अणु० अणंतगुः । तदो यदो णियत्तो तदो समउत्तराए हिदी. जह० अणु० अणंतगु० । विदिया० हिदी० उक्क० अणु० अणंतगु० । एवं णिव्वग्गणकंडयमेत्तेण अणंतरेण उवरिमाए हिदीए जह० अणुभा० हेहिमाए हिदीए उक्क० अणु० । एवं णीदं याव ताव अब्भव० पाओग्गजहण्णयस्स हिदिबंधस्स हेढादो समऊणाए हिदि त्ति । तदो अब्भव०पाओग्गजहण्णहिदिबंधस्स हेट्ठा णिव्वग्गणकंडयमेंत्तीणं द्वि० उक्क० अणु० ण भणिदा। सेसं सव्वं भणिदं । हेहिमाणं द्विदीणं एदाओ च हेहिमा० विदीओ ण सव्वाओ णिरंतराओ संपत्तीदो। णवरि परूवणाए दु णिरंतराणि भणिदं संपत्तीदो। अब्भव०पाओग्ग० हेटा याणि हिदिबंधटाणाणि ताणि भागवाली स्थितियों में से उत्कृष्ट स्थितिके उत्कृष्ट अनुभागके प्राप्त होने तक गया है। पुनः आगे जिस स्थिति तक जघन्य अनुभाग कहा गया है,उससे अगली स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है । तथा इससे अधस्तन जिन स्थितियोंका उत्कृष्ट अनुभाग कहा गया है, उससे अगली स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है । इस प्रकार असातावेदनीय की उत्कृष्ट स्थितिके जघन्य अनुभागके अनन्तगुणे प्राप्त होने तक जानना चाहिए । यहाँ सब स्थितियोंका जघन्य अनुभाग तो कहा जा चुका है,पर अन्तकी निर्वगेणाकाण्डक प्रमाण स्थितियोंका उत्कृष्ट अनुभाग नहीं कहा गया है, इसलिए उत्कृष्ट स्थितिके जघन्य अनुभागसे जिन स्थितियोंका उत्कृष्ट अनुभाग नहीं कहा गया है, उन स्थितियों में से जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा कहना चाहिए । पुनः इससे आगेकी स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा कहना चाहिए। इस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिके उत्कृष्ट अनुभागके प्राप्त होने तक यही क्रम जानना चाहिए। इस प्रकार असातावेदनीयकी अपेक्षा तीव्रमन्दका विचार किया। इसी प्रकार मूलमें गिनाई नरकगति आदि अन्य प्रकृतियोंकी अपेक्षा तीव्रमन्दका विचार होनेसे उनका कथन असातावेदनीयके समान जाननेकी सूचना की है।
६६२. आगे तिर्यञ्चगति नाम कर्मके तीवमन्दको बतलाते हैं। यथा-सातवीं पृथिवीमें तिर्यश्चगति नामकर्मकी सबसे जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले नारकीके जघन्य स्थितिके जघन्य पदमें जघन्य अनुभाग सबसे स्तोक हैं। उससे दूसरी स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है । इस प्रकार निर्वर्गणाकाण्डकमात्र स्थितियों के प्राप्त होने तक जघन्य अनुभाग अनन्तगुणित श्रेणिरूपसे गया है। उससे जघन्य स्थितिके उत्कृष्ट पदमें उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे जहाँसे लौटे है,उससं एक समय आंधक स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे दूसरी स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है । इस प्रकार अभव्य प्रायोग्य जघन्य स्थितिबन्धके पूर्व एक समय कम स्थितिके प्राप्त होने तक निर्वगणाकाण्डकमात्रके अन्तरालसे उपरिम स्थितिका जघन्य अनुभाग और अधस्तन स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग इसी क्रमसे ले जाना चाहिए। यहाँ अभव्यप्रायोग्य जघन्य स्थितिबन्धके पूर्वको निर्वर्गणाकाण्डकमात्र स्थितियोंका उत्कृष्ट अनुभाग नहीं कहा गया है, शेष सब कहा गया है। अधस्तन स्थितियोंमेंसे ये सब अधस्तन स्थितियाँ निरन्तर नहीं प्राप्त होती हैं । इतनी विशेषता है कि प्ररूपणामें इनकी निरन्तर प्राप्ति कही गई
१. आ० प्रतौ जह• हि० पदे इति पाठः ।
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तिव्वमंदपरूवणा
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पलि० असं०भा० सेवियं पुण परूवणं कादण' णिरंतरं याव अब्भव०पाओग्गज. ट्ठि० बं० समऊणे ति । तदो अब्भव०पाओजहण्णादो द्विदिबं०णिव्वग्गणकंडयमेत्तीओ द्विदीओ ओसकिदूण या हिंदी तिस्से ट्ठि. उक्क० अणुभागेहितो अब्भव०पाऑग्गजह० द्वि० जह० अणु० अणंतगु० । तदो समउत्तराए डिदीए जह० अणु० तत्तिया चेव । विसमउ० हि० ज० अणु० तत्तिया चेव । तिसमउत्तराए द्विदीए तत्तिया चेव । एवं सागरोवमसदपुधत्तमत्तीणं तुल्लो जह० अणु० बं०। तदो यासि हिदीणं तुल्लो जह० तासिं णाम सण्णा परियत्तमाणजहण्णाणुभागबंधपाओग्गं णाम । तदो परियत्तमाणजह० बं० पाओग्गा० उक० हिदीदो जह० अणुभागेहिंतो समउ० हि० ज० अणु० अणंतगु० । विसमउ० ज० अणु० अणंतगु० । तिसम० हि० जह० अणंतगु० । एवं असंखेंजहिदि० णिव्वग्गणकंडयस्स असंखेंजदिभागो एत्तियमेत्तीणं द्विदीणं यासिं जह० अणंतगु० सेडीए णेदव्वा । तदो णियत्तिदव्वं अब्भव०पाओग्गजहण्णं हिदिबंधस्स हेट्ठादो णिव्वग्गणकंडय० तासिं जा ज० द्विदी तिस्से उ० अणुभा० अणंतगु० । तदो समउ० ट्ठि० उ० अणंतगु० । दुसमउ० हि० उ० अणुभा० अणंतगु० । तिसमउ० ट्ठि० उ० अणु० अणंतगु० । एवं णीदं याव ताव अब्भव०पाओं. ज. द्वि. समऊणा त्ति । तदो अब्भव०पाओं ज० बंध
हैं । अभव्यप्रायोग्य स्थितिबन्धसे अधस्तन जो स्थितिबन्धस्थान हैं, वे पल्यके असंख्यातवें भाग
। अभव्यप्रायोग्य जघन्य स्थितिबन्धसे एक समय कम स्थितिके प्राप्त होने तक निरन्तर रूपसे प्ररूपणा की है।फिर अभव्यप्रायोग्य जघन्य स्थितिबन्धसे निर्वगणाकाण्डकमात्र स्थितियाँ पीछे जाकर जो स्थिति है, उस स्थितिके उत्कृष्ट अनुभागसे अभव्यप्रायोग्य जघन्य स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है । उससे एक समय अधिक स्थितिका जघन्य अनुभाग उतना ही है। दो समय अधिक स्थितिका जघन्य अनुभाग उतना ही है। तीन समय अधिक स्थितिका जघन्य अनुभाग उतना ही है। इस प्रकार सौ सागर पृथक्त्वप्रमाण स्थितियोंका
पन्य अनुभागबन्ध तुल्य है। यहाँ जिन स्थितियांका जघन्य अनुभाग तुल्य है उनकी परिवर्तमान जघन्यानुभागबन्धप्रायोग्य संज्ञा है। फिर परिवर्तमान जघन्य अनुभागबन्धप्रायोग्य स्थितियोंमें से उत्कृष्ट स्थितिके अनुभागसे एक समय अधिक स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। दो समय अधिक स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। तीन समय अधिक स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। इस प्रकार असंख्यात स्थितियों तक जानना चाहिए। ये असंख्यात स्थितियाँ निर्वर्गणाकाण्डकके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। इतनी मात्र स्थितियोंका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणित श्रेणिरूपसे ले जाना चाहिए। फिर लौटकर अभव्यप्रायोग्य जघन्य स्थिति बन्धसे अधस्तन जो निर्वर्गणाकाण्डकमात्र स्थितियाँ हैं उनमेंसे जो जघन्य स्थिति है, उसका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है । उससे एक समय अधिक स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे दो समय अधिक स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे तीन समय अधिक स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है। इस प्रकार अभव्यप्रायोग्य जघन्य स्थितिसे एक समय कम स्थितिके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए। फिर अभव्यप्रायोग्य जघन्य स्थितिबन्धसे एक
१. ता० प्रतौ पुणं पमाणं कादूण इति पाठः । २. ता० प्रतौ हिबं[धा]दो णिव्वग्गण- इति पाठः। ३. ता० प्रतौ विसमऊ० हि० इति पाठः। ४. श्रा० प्रतौ तुल्ला इति पाठः।
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे समऊणादो उक्कस्सए हि अणुभागेहिंतो यदो ढि० ज० भणिदण णियत्तो तत्तो समउ० जह० अणंतगु० । तदो पुण जहण्णाणुभागबंधपाओग्गाणं ज० उ० अणु० अणंतगु० । समउ०' उ० अगु० अणंत० । विसमउ० उ० अणु० अणंतगु० । तिसमउ० उ० अणु० अणंतगु० । एवं णिव्वग्गणकंडयमॆत्तीणं द्विदीणं उ० अणु० अणंतगु० सेडीए णेदव्वं । तदो पुणो जिस्से टि० ज० अणु० भणिदृण णियत्ता तदो समउ० ज० अणंतगु० । तदो परियत्तमाण [ जहण्णाणुभाग] बंधपाओग्गाणं द्विदीणं णिव्वग्गणकंडयमेतं अब्भुस्सरिद्रण या द्विदी तिस्से द्विदीए उ० अणु० अणंतगु०। तदो णिव्वग्गणकंडयमेतीणं उ० अणु० अणंतगु० सेडीए णेदव्वा । एदेण कमेण उवरिमाणं द्विदीर्ण ऍकिस्से वि० ज० बंपाऑग्गाणं च द्विदीणं णिव्वग्गण मेत्तीणं द्विदीणं उक्क० अणु० अणंतगु० सेडीए णेदव्या याव ज० अणु० बंधपाओग्गाणं उक्कस्सियं हिदि पत्तो त्ति । एदेण कमेण ज० अणु० ०पाओं० द्वि० उवरि याओ द्विदीओ तासिं द्विदीणं णिवग्गण मेत्तीणं ज० भणिदाणं पुण ... 'भणदि । तदो ज० अणु० बं०पाओग्गाणं उक्कस्सगे यत्तो द्विदीदो उक्कस्सगेहि अणुभागेहिंतो उवरि यासिं द्विदीणं जह० ण भणिदा तासिं द्विदीणं या सबज० द्विदी तिस्से ट्ठि० ज० अणु० अणंतगु० । हेट्टदो ऍकिस्से टि. उ० अणु० अणंतगु० । तदो जम्हि हिदो जह० तदो समउ ० ज० अणंतगु० । हेट्ठादो
समय कम स्थितिके उत्कृष्ट अनुभागसे, जिस स्थितिका जघन्य अनुभाग कहकर लौटे थे, उससे एक समय अधिक स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे जघन्य अनुभागबन्धप्रायोग्य स्थितियों में जो जघन्य स्थिति है, उसका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे एक समय अधिक स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे दो समय अधिक स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे तीन समय अधिक स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है। इस प्रकार निर्वगणाकाण्डकमात्र स्थितियोंका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगणित श्रेणिरूपसे ले जाना चाहिए। फिर जिस स्थितिका जघन्य अनुभाग कहकर लौटे थे, उससे एक समय अधिक स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। फिर परिवर्तमान जघन्य अनुभागबन्धप्रायोग्य स्थितियोंमेंसे निर्वर्गणाकाण्डकमात्र स्थितियाँ आगे जाकर जिस स्थितिका उत्कृष्ट अनु भाग अनन्तगुणा कहा था, उससे आगेकी निवगणाकाण्डकमात्र स्थितियोंका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणित श्रेणिरूपसे ले जाना चाहिए । इस क्रमसे जघन्य बन्धप्रायोग्य स्थितियोंमें उत्कृष्ट स्थितिके प्राप्त होने तक उपरिम स्थितियोंमेंसे एक स्थितिका जघन्य अनुभाग और जघन्य बन्धप्रायोग्य स्थितियोंमेंसे निर्वर्गणाकाण्डकमात्र स्थितियोंका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणित श्रेणिरूपसे ले जाना चाहिए । इस क्रमसे जघन्य बन्धप्रायोग्य स्थितियोंसे जो उपरिम स्थितियाँ हैं, उन स्थितियोंमें से निर्वर्गणाकाण्डकमात्र स्थितियोंका जघन्य अनुभाग कहा है,परन्तु उत्कृष्ट अनुभाग नहीं कहा है। इसलिए जघन्य अनुभागबन्धप्रायोग्य स्थितियोंमें जो उत्कृष्ट स्थिति है उस स्थितिके उत्कृष्ट अनुभागसे, आगे जिन स्थितियोंका जघन्य अनुभाग नहीं कहा है, उन स्थितियोंमें जो सबसे जघन्य स्थिति है उस स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे अधस्तन एक स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है । उससे जिस स्थितिमें जघन्य अनुभाग स्थित है,उससे एक
१. ता० श्रा. प्रत्योः समउ० इति स्थाने समऊ० इति पाठः । अग्रेऽपि 'उ' स्थाने 'अ' दृश्यते । २. ता० प्रतौ परियत्तमाणबंधपाओग्गाणं, आ. प्रतौ परियत्तमाण..."बंधपाओग्गाणं इति पाठ।।
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तिव्वमंदपरूवणा
४०९ ऍक्किस्से द्वि० उ० अणु० अणंतगु० । इतरत्थ' ज. अणंत । हेट्ठादो ऍकिस्से ट्ठि० उ० अणंतगु० । एवं णीदं याव तिरिक्खगदिणामाए उक्क० हिदीए ज० अणु० अणंतगु० । तदो पलि० असं भाग;ओसकिदूण जम्हि द्विदा उक्कस्सा तदो समउत्तराए हि० उ० अणु० अणंतगु० । विसम० उ० अणु० अणंतगु० । एवं अणुभागबंध० अणंत० याव तिरिक्खगदिणामाए उक्कस्सियाए हि० उक्क०पदे उक्क० अणु० अणंतगु० । एवं तिरिक्खाणु०-णीचा०।
६६३. एत्तो ओरालिय० तिव्वमंदं वत्तइस्सामो। तं जहा-ओरालियसरीरणामाए उक्कस्सियाए ट्ठि० ज० द्विदी० ज० अणु० थोवा । समऊ० ज० अणु० अणंतगु० । विसमऊ० ज० अणु० अणंतगु० । एवं पलि० असं० ज० अणंतगु० । तदो उक्कस्सियाए द्विदी० उ० अणु० अणंत । तदो जम्हि द्विदा ज० ट्ठि० ज० अणु० तदो समऊ. अणंत०। उक्कस्सियादो द्वि० समऊ. डि. उक्क० अणु० अणंतगु० । तदो हेहादो ऍकिस्से हि० ज० अणंत । तदो उक्कस्सियादो विसम० उ० हि० उक० अणु० अणंत । एवं हेहदो ऍकिस्से जह० उवरिमाए ऍकिस्से हि० उ० अणु० समय अधिक स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे अधस्तन एक स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे उपरिम एक स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे अधस्तन एक स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे उपरिम एक स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। इस प्रकार तिर्यश्चगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है,इस स्थानके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए। पुनः यहाँसे पल्यके असंख्यातवे भाग प्रमाण पीछे हटकर जिस स्थितिमें उत्कृष्ट अनुभाग स्थित है, उससे एक समय अधिक स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे दो समय अधिक स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है। इस प्रकार तिर्यश्चगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट पदमें उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है-इस स्थानके प्राप्त होने तक उत्तरोत्तर प्रत्येक स्थितिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध अनन्तगुणा है। इसी प्रकार तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रकी अपेक्षासे जानना चाहिए।
विशेषार्थ-यहाँ मूलमें किस स्थितिका जघन्य और किस स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग कितना है, इसका खुलासा किया ही है । तथा पहले हम मतिज्ञानावरणादि प्रकृतियोंके समय ही खुलासा कर आये हैं, अतः यहाँ विशेष नहीं लिख रहे हैं । इसी प्रकार आगे भी जान लेना चाहिए।
६६३. आगे औदारिकशरीरका तीव्रमन्द बतलाते हैं। यथा-औदारिकशरीरकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य पदमें जघन्य अनुभाग सबसे स्तोक है। उससे एक समय कम स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है । उससे दो समय कम स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। इस प्रकार पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितियों तक उत्तरोत्तर एक-एक समय कम स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। इस प्रकार यहाँ अन्तमें जो स्थिति प्राप्त हो, उसके जघन्य अनुभागसे उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे जिस स्थितिमें जघन्य अनुभाग स्थित है.उससे एक समय कम स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे उत्कृष्ट स्थितिसे एक समय कम स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे अधस्तन एक स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है । उससे उत्कृष्ट स्थितिसे दो समय कम स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है। इस प्रकार अधस्तन एक स्थितिका जघन्य अनुभाग और उपरिम एक स्थितिका उत्कृष्ट
१. ता. प्रतौ इतरथा इति पाठः । २. आ० प्रतौ तिरिक्खाणु० एन्तो इति पाठः। Jain Education Internatiog
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे एगेगे वा सिज्झमाणा गदा ताव याव ओरालि० जहणियाए ढि० जहण्ण० अणु० अणंत। तदो जहण्णादो हिदीदो पलि० असंमत्तीओ हिदी० अब्भुस्सरिदूण यम्हि हिदा उक्कस्सं तदो समऊ. हि० उ० अणु० अणंत । विसमऊ० ढि० उक्क० अणु० अणंत । तिसमऊ० ढि० उ० अणंत । एवं ताव णीदं याव ओरालि. जहण्णिायाए हि० उ० पदे उ० अणु० अणंत । एवं पंचसरीर-तिण्णंअंगो०-पसत्थ०४अगु०३-आदाउजो०-णिमि०-तित्थ० ओरा०भंगो०'।
६६४. एत्तो पंचिं० तिव्वमंदं वत्तइस्सामो। तं जहा-यथा वीसंसागरोवमकोडाकोडीओ बंधमाणस्स उक्क० द्विदी० जहण्णपदे जह० अणु० थोवा । समऊ. हि. ज. अणंत० । बिसम० ज० अणंत० । तिसम० ज० अणंत । एवं णिव्वग्गणकंडयमत्तीणं हि० ज० अणु० अणंत० सेडीए णेदव्वा । तदो उक्कस्सियाए द्वि० उ० पदे उक्क० अणु० [अणंत०] । तदो णिव्वग्गणकंडयमत्तीओ हिदीओ ओसकिदूण जम्हि द्विदा जह तदो समऊ. जह० अणु० अणंत । तदो उक्कस्सियादो हि० समऊ. हि० उक्क० अणु० अणंत । तदो हेहादो ऍक्किस्से हि० ज० अणंत । तदो उक्कस्सियाए हिदी०
अनुभाग एक-एक स्थितिमें प्राप्त होता हुआ औदारिकशरीरकी जघन्य स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है-इस स्थानके प्राप्त होने तक गया है। फिर जघन्य स्थितिसे पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थितियाँ उपर जाकर जिस स्थित्तिमें उत्कृष्ट अनुभाग स्थित है,उससे एक समय कम स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे दो समय कम स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे तीन समय कम स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है। इस प्रकार औदारिकशरीरकी जघन्य स्थितिके उत्कृष्ट पदमें उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है-इस स्थानके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए । इस प्रकार पाँच शरीर, तीन आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, आतप, उद्योत, निर्माण और तीर्थङ्कर प्रकृतिका तीव्रमन्द औदारिकशरीरके समान जानना चाहिए।
विशेषार्थ—यहाँ औदारिकशरीरका तीव्र-मन्द बतलाया है। यह प्रशस्त प्रकृति है, इसलिए उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य पदकी अपेक्षा जघन्य अनुभाग सबसे स्तोक बतलाया है। आगे जिस क्रमसे जिस स्थितिमें जघन्य और उत्कृष्ट अनुभाग प्राप्त होता है, उसका स्पष्टीकरण मूलमें किया ही है।
६६४. आगे पश्चेन्द्रियजातिके तीव्रमन्दको बतलाते हैं । यथा-बीस कोडाकोड़ी सागरप्रमाण स्थितिका बन्ध करनेवालेके उत्कृष्ट स्थितिके जघन्य पदमें जघन्य अनुभाग सबसे स्तोक है। उससे एक समय कम स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे दो समय कम स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे तीन समय कम स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। इस प्रकार निवर्गणाकाण्डकप्रमाण स्थितियोंका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणित श्रेणिरूपसे ले जाना चाहिए । इस प्रकार निर्वर्गणाकाण्डकप्रमाण स्थितियोंमेंसे अन्तिम स्थितिका जो जघन्य अनुभाग प्राप्त हुआ है,उससे उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट पदमें उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे निर्वगणाकाण्डकप्रमाण स्थितियाँ नीचे जाकर जिस स्थितिमें जघन्य अनुभाग स्थित है, उससे एक समय कम स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे उत्कृष्ट स्थितिसे एक समय कम स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है । उससे नीचेकी एक स्थितिका
१. ता. प्रतो तित्थ० ओरा। एत्तो इति पाठः।
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तिव्वमंदपरूवणा
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दुसमऊ ० उ० अणु० अनंत । तदो हेडदो एकिस्से द्वि० ज० अणु० अनंत । तदो उक्कस्सियादो तिसमऊ ० डि० उक्क० अणु० अनंत । एवं हेट्ठदो ऍकिस्से डि० ज० अनंत । उवरि ऍकिस्से डि० उ० अनंत । एवं ओघसिजमाणं ताव गदा याव अट्ठारससागरोवमकोड कोडीओ समउत्तरा त्ति । अट्ठारसण्णं सागरोवमकोडाकोडीणं उवरि समउत्तरा ट्ठिदि आदि काढूण णिव्वग्गण० मेंत्तीणं हिदीणं उक्कस्सा अणुभागा ण भणिदा । उवरि सेसं सव्वं भणिदं । तदो अट्ठारसणं साग० पडिपुण्णं ज० ज० अणु० अनंत । तदो समऊ० ज० अणु० तत्तिया चेव । विसम० ज० तत्तिया चेव । तिसम० ज० तत्तिया चैत्र । एवं याव जहण्णियाए एइंदियणामाए द्विदिबंधो ताव तत्तिया चेव । तदो परियत्तमाणजहण्णाणुभागबंधपाओग्गाणं जहण्णियाए हिदी० जह० अणुभागेहिंतो तदो समऊ० द्विदीए ज० अणु० अणं० । विसम० ज० अणंत० । तिसम० ज० अनंत । एवं असंखैजाओ ट्टि० णिव्वित्तेदूण णिव्वग्गणकंडयस्स असंखेज दिभागो तत्तियमेत्तीणं हिदीणं ज० अनंत सेडीए णेदव्वा । तदो अट्ठारसणं सागरो० उवरि यासिं हिदीणं उक्कस्सिया अणुभागा ण भणिदा तासिं सव्वुकस्सिया हिदीए उ० अणु० अणंत० । समऊ उक्क० अणु० अणंत० । विसमऊ ० उक्क० अणु० अनंत । तिसमऊ उक्क ० अणु० अनंत । एवं याव अट्ठारसकोडाकोडी समउत्तरादोत्ति ताव उक्क० अणु० अणंत० सेडीए णेदव्वं । तदो अट्ठारस
जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है । उससे उत्कृष्ट स्थिति से दो समय कम स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है । उससे नीचेकी एक स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे उत्कृष्ट स्थिति से तीन समय कम स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है। इस प्रकार नीचेकी एक स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है और ऊपरकी एक स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है । इस प्रकार ओके अनुसार सिद्ध होता हुआ एक समय अधिक अठारह कोड़ाकोड़ीसागरप्रमाण स्थिति प्राप्त होने तक अनुभाग गया है। यहाँ एक समय अधिक अठारह कोड़ा कोड़ी सागरप्रमाण स्थितियोंसे लेकर ऊपरकी निर्वर्गणाकाण्डक प्रमाण स्थितियोंका उत्कृष्ट अनुभाग नहीं कहा है; ऊपरका शेष सब अनुभाग कहा है। आगे पूरे अठारह कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण अन्तिम स्थितिके जघन्य पदमें जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे एक समय कम स्थितिका जघन्य अनुभाग उतना ही है । उससे दो समय कम स्थितिका जघन्य अनुभाग उतना ही है। उससे तीन समय कम स्थितिका जघन्य अनुभाग उतना ही है। इस प्रकार एकेन्द्रियजाति नामकर्मके जघन्य स्थितिबन्धके समान स्थितिबंधके प्राप्त होने तक जघन्य अनुभाग उतना ही है। आगे परिवर्तमान जघन्य अनुभागबन्ध योग्य प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबन्धके जघन्य अनुभागसे एक समय कम स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे दो समय कम स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है । उससे तीन समय कम स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है । इस प्रकार निर्वर्गणाकाण्डकके असंख्यातवें भागप्रमाण असंख्यात स्थितियोंका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणित श्रेणिरूपसे ले जाना चाहिए। उससे अठारह कोड़ाकोड़ी सागरके ऊपर जिन स्थितियोंका उत्कृष्ट अनुभाग नहीं कहा गया है, उनमें से सर्वोत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे दो समय कम उत्कृष्ट कम उत्कृष्ट स्थितिका स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है । उससे तीन समय उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है। इस प्रकार एक समय अधिक अठारह कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण
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महाबंचे अणुभागबंधाहियारे
कोडाकोडीणं समउत्तराए द्वि० उकस्सएहि अणुभागेहिंतो परियत्तमाणजहण्णाणुभागबंधपागाणं द्विदीणं हेट्ठादो याओ द्विदीओ जहण्णाणुभागो भणिदल्लोगाओ तसं या जहणिया हिदी तिस्से हेहिमाणंतराए ज० अणु० अणंत० । तदो अट्ठारससाग० कोडाकोडी ० उ० अणु० अणंत० । तदो पुण णिव्वग्गण० मेंत्तीणं उ० अणु० अनंतगु० सेडीए णिरंतरं दव्वं । तदो पुण हेट्ठदो ऍकिस्से ट्ठि० ज० अनंत० । उवरि णिव्वग्ग० मेंत्तीणं द्वि० उ० अणु० अनंत० । एदेण कमेण हेट्ठादो ऍकिस्से ट्ठि० ज० अणुभा० उवरिमाणं णिव्वग्गण०मैत्तीणं उक्क० अणुभा० अनंतगु० । एवं ताव याव परियत्तमाणजहण्णाणुभागपाऔग्गा० जहण्णियाए द्वि० उक ० पदे उ० अणु० अणंत० । ताघे तिस्से द्विदीए हेट्ठादो याओ हिदीओ तासिं णिव्वग्ग० मेंत्तीणं जहण्णाणुभागा भणिदा होंति । उक्कस्सगे' अणुभागेहिंतो एइंदियणामाए जहण्णादो हिदिबंधादो णिव्वग्गणकंड मेंत्तीओ ओसक्किदूण या हिदी तिस्से ट्ठिदीए ज० पदे ज० अणु० अनंत० । तदो एइंदियणामाए जहण्णगादो हिदिबंधादो समऊणाए हिदीए उ० अणु० अनंत० । ते परं हेट्टिमाए ट्ठ० जहण्णाणुभा० उवरिमा० डि० उ० अणु एगेगं ओघसिज्झमाणएइंदियणामाए जहण्णगादो ङिदीदो आढत्ता ताव णीदं याव पंचिंदियणामा० जहणियाए द्वि० पदे जह० अणु० अनंत । तदो णिव्वग्ग० कंडय मेंत्तीओ हि० स्थितियों में अन्तिम स्थितिके प्राप्त होने तक उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणित श्रेणिरूप से ले जाना जाहिए । फिर एक समय अधिक अठारह कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थितियोंमें से अन्तिम स्थितिके उत्कृष्ट अनुभागसे परिवर्तमान जघन्य अनुभागबन्धके प्रायोग्य स्थितियोंके नीचे जिनं स्थितियोंका जघन्य अनुभाग कहा है, उनमें जो जघन्य स्थिति है, उससे नीचेकी अनन्तर स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे अठारह कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण अन्तिम स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है । फिर उससे निर्वर्गणा काण्डक प्रमाण स्थितियोंका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणित श्रेणिरूपसे ले जाना चाहिए। उससे पुनः नीचेकी एक स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे ऊपरकी निर्वर्गणाकाण्डक प्रमाण स्थितियोंका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है । इस क्रमसे नीचेकी एक स्थितिका और ऊपरकी निर्वर्गणाकाण्डक प्रमाण स्थितियोंका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है । इस प्रकार परिवर्तमान 'जघन्य अनुभागबंधप्रायोग्य जघन्य स्थितिके उत्कृष्ट पदमें उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है - इस स्थान के प्राप्त होने तक जानना चाहिए। फिर इस स्थितिसे नीचे जो स्थितियाँ हैं, उनमेंसे निर्वर्गेणाकाण्डकप्रमाण स्थितियोंका जघन्य अनुभाग कहा गया है । पुनः जिसका अन्तमें उत्कृष्ट अनुभाग कहा है, उससे एकेन्द्रियजाति नामकर्मके जघन्य स्थितिबन्धसे निर्वर्गणाकाण्डकप्रमाण स्थितियाँ हटकर जो स्थिति है, उस स्थितिका जघन्य पदमें जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है । उससे एकेन्द्रिय जातिनामकर्मके जघन्य स्थितिबन्धसे एक समय कम स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है । उससे आगे नीचेकी स्थितिका जघन्य अनुभाग और ऊपरकी स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग इस प्रकार एक-एक स्थितिका ओघके अनुसार सिद्ध होता हुआ एकेन्द्रियजाति नामकर्म की जघन्य स्थितिबंधसे लेकर पञ्चेन्द्रियजाति नामकर्मकी जघन्य स्थितिका जघन्य पदमें जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है - इस स्थान के प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए। फिर निर्वर्गणाकाण्डकप्रमाण
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१. ता० प्रतौ होंति ट्उिदीए तदा एइंदियणामाए जहण्णगादो ट्रिट्ठदिबंधादो उक्कस्सगे, आ० प्रत होंति हिदीए एइंदियणामाए जहण्णगादो ट्रिट्ठदिबंधादो उक्कसगे इति पाठः ।
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जीवसमुदाहा
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अस्सरिदूण जम्हि ट्ठिदा उ० तदो समऊणाए द्वि० उ० अणु० अनंत० । विसम ० उ० अणु० अनंत० । तिसम० उ० अणु० अनंतः । एवं याव पंचिंदियणामाए जहणियाए द्विदीए उ० अणु० अणंतगुणो ति । यथा पंचिं० णामाए तथा बादरपञ्जत्त- पत्ते०-तस० तिब्बमंददा कादव्वा । एवं तिव्वमंददा त्ति समत्तमणियोगद्दारं । एवं अज्झवसाणसमुदाहारो समत्तो जीवसमुदाहारो
६६५. जीवसमुदाहारेति तत्थ इमाणि अट्ठ अणियोगद्दाराणि - एगट्टाणजीव पमाणाणुगमो निरंतरट्ठाणजीवपमाणाणुगमो सांतरट्ठाणजीवपमाणाणुगमो णाणाजीवकलपमाणागमो वड्डपरूवणा यवमज्झपरूवणा फोसणपरूवणा अप्पाबहुगे त्ति ।
६६६. एयट्ठाणजीवपमाणाणुगमेण ऍक्ककम्हि द्वाणम्हि जीवा केंत्तिया ? अनंता । निरंतरद्वाणजीवषमाणानुगमेण जीवेहि अविरहिदाणि द्वाणाणि । सांतरट्ठाणजीवपमाणाणुगमेण जीवेहि णिरंतरट्ठाणाणि । णाणाजीवकालपमाणाणुगमेण ऍक्केम्हि द्वाणम्हि णाणा जीवा केवचिरं कालादो होंति ? सव्वद्धा ।
६६७. वड्डिपरूवणदाए तत्थ इमाणि दुवे अणुयोगद्दाराणि - अणंतरोवणिधा परंपरोवणिधा चेदि । अणंतरोवणिधाए जहण्णए अज्झवसाणट्ठाणे जीवा थोवा । विदिए अज्झवसाणट्ठाणे जीवा विसेसाधिया । तदिए अज्झवसाणट्ठाणे जीवा विसेसाधिया । एवं
स्थितियाँ ऊपर जाकर जिस स्थितिमें उत्कृष्ट अनुभाग स्थित है, उससे एक समय कम स्थिति का उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे दो समय कम स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे तीन समय कम स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है । इस प्रकार पचेन्द्रिय जाति नामकर्मकी जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है- इस स्थानके प्राप्त होने तक जानना चाहिए । यहाँ जिस प्रकार पचेन्द्रियजाति नामकर्मका कथन किया है, उसी प्रकार बादर, पर्याप्त, प्रत्येक और त्रस नामकर्मकी तीव्र-मन्दताका कथन करना चाहिए ।
इस प्रकार तीव्रमन्दता नामक अनुयोगद्वार समाप्त हुआ ।
इस प्रकार अध्यवसानसमुदाहार नामक अनुयोगद्वार समाप्त हुआ । जीवसमुदाहार
६६५. जीवसमुदाहारका प्रकरण है । उसमें ये आठ अनुयोगद्वार होते हैं- - एकस्थानजीवप्रमाणानुगम, निरन्तरस्थानजीवप्रमाणानुगम, सान्तरस्थानजीवप्रमाणानुगम, नानाजीवकालप्रमाणानुगम, वृद्धिप्ररूपणा, यवमध्यप्ररूपणा, स्पर्शनप्ररूपणा और अल्पबहुत्व |
६६६. एकस्थानजीवप्रमाणानुगमकी अपेक्षा एक-एक स्थानमें जीव कितने हैं ? अनन्त हैं । निरन्तरस्थान जीवप्रमाणानुगमकी अपेक्षा जीवोंके विरहसे रहित सब स्थान हैं । सान्तरस्थानजीवप्रमाणानुगमकी अपेक्षा जीवोंके अन्तरसे रहित सब स्थान हैं । नानाजीवकालप्रमाणानुगमकी अपेक्षा एक-एक स्थानमें नाना जीवोंका कितना काल है ? सर्वदा है ।
६६७. वृद्धिप्ररूपणाकी अपेक्षा उसमें ये दो अनुयोगद्वार होते हैं - अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा । अनन्तरोपनिधाकी अपेक्षा जघन्य अध्यवसानस्थानमें जीव सबसे स्तोक हैं । द्वितीय अध्यवसानस्थान में जीव विशेष अधिक हैं। तृतीय अध्यवसानस्थानमें जीव विशेष अधिक हैं। इस प्रकार यवमध्यके प्राप्त होने तक प्रत्येक स्थानमें जीव विशेष अधिक, विशेष
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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे विसेसाधिया विसेसाधिया याव यवमज्झ त्ति । तेण परं विसेसहीणा विसेसहीणा याव उक्कस्सिए अज्झवसाणट्ठाणे त्ति ।
६६८. परंपरोवणिधाए जहण्णए अज्झवसाणट्ठाणे जीवेहिंतो तदो असंखेंजा लोगा गंतूण दुगुणवड्डिदा । एवं दुगुणवड्डिदा दुगुणवड्डिदा याव यवमझं । तेण परं असंखेंजा लोगं गंतूण दुगुणहीणा । एवं दुगुणहीणा दुगुणहीणा याव उक्कस्सअज्झवसाणट्ठाणं ति।
६६९. एयजीवअज्झवसाणदुगुणवड्डि-हाणिहाणंतरं असंखेंजा लोगा। णाणाजीवअज्झवसाणदुगुणवड्डि-हाणिहाणंतराणि आवलि. असंखें। णाणाजीवेहि दुगुणवत्रिहाणि थोवाणि । एयजीवअज्झवसाणदुगुणवड्डि-हाणिहाणंतराणि असंखेंजगुणाणि ।
६७०. यवमज्झपरूवणदाए द्वाणाणं असंखेजदिभागे यवमझं । यवमज्झस्स हेट्ठादो हाणाणि थोवाणि । उवरि हाणाणि असंखेंजगुणाणि।
६७१. फोसणपरूवणदाए तीदे काले एयजीवेण उक्कस्सए अज्झवसाणट्ठाणे फोसणकालो थोवो। जहण्णए अज्झवसाणहाणे फोसणकालो असंखेजगुणं । कंडयस्स फोसणकालो तत्तियो चेव । यवमज्झे फोसणकालो असंखेंजगुणं । कंडयस्स उवरिं फोसणकालो असंखेंजगुणं । यवमज्झस्स उवरिं कंडयस्स हेहदो फोसणकालो असंखेंजगुणं । कंडयस्स उवरिं यवमज्झस्स हेहदो फोसणकालो तत्तियो चेव । यवमज्झस्सुवरि फोसणकालो विसेसाधिओ। कंड यस्स हेट्ठदो फोसणकालो विसेसाधियो। कंडयस्सुवरिं फोसणकालो विसेसाधियो । सव्वेसु वि ठाणेसु फोसणकालो विसेसाधिओ। अधिक हैं । इससे आगे उत्कृष्ट अध्यवसानस्थानके प्राप्त होने तक जीव विशेष हीन, विशेष हीन हैं।
६६८. परम्परोपनिधाकी अपेक्षा जघन्य अध्यवसानस्थानमें जो जीव हैं,उससे असंख्यात लोकप्रमाण स्थान जाने पर वे दूने होते हैं। इस प्रकार यवमध्यके प्राप्त होने तक दूने-दूने जीव होते हैं । उससे असंख्यात लोकप्रमाण स्थान जाकर वे द्विगुणहीन होते हैं। इस प्रकार उत्कृष्ट अध्यवसानस्थानके प्राप्त होने तक वे द्विगुणहीन द्विगुणहीन होते हैं।
६६९. एकजीवअध्यवसानद्विगुणवृद्धि-हानिस्थानान्तर असंख्यात लोकप्रमाण हैं। नानाजीवअध्यवसानद्विगुणवृद्धि-हानिस्थानान्तर आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। नानाजीवअध्यवसानस्थानद्विगुणवृद्धि-हानिस्थानान्तर स्तोक हैं । इनसे एकजीवअध्यवसानद्विगुणवृद्धिहानिस्थानान्तर प्रत्येक असंख्यात
६७७. यवमध्यप्ररूपणाकी अपेक्षा स्थानोंके असंख्यातवें भाग जाकर यवमध्य होता है। यवमध्यके अधस्तन स्थान स्तोक हैं और उपरिम स्थान असंख्यातगुणे हैं।
६७१. स्पर्शनप्ररूपणाकी अपेक्षा अतीत कालमें एक जीवका उत्कृष्ट अध्यवसानस्थानमें स्पर्शनकाल स्तोक है। इससे जघन्य अध्यवसानस्थानमें स्पर्शनकाल असंख्यातगुणा है । काण्डक का स्पर्शनकाल उतना ही है। इससे यवमध्यमें स्पर्शनकाल असंख्यातगुणा है । इससे काण्डकके ऊपर स्पर्शनकाल असंख्यातगुणा है। इससे यवमध्यके ऊपर और काण्डकसे नीचे स्पर्शनकाल असंख्यातगुणा है। इससे काण्डकके ऊपर और यवमध्यसे नीचे स्पर्शनकाल उतना ही है । इससे यवमध्यके ऊपर स्पर्शनकाल विशेष अधिक है । इससे काण्डकके नीचे स्पर्शनकाल विशेष अधिक है। इससे काण्डकके ऊपर स्पर्शनकाल विशेष अधिक है। इससे सब स्थानोंमें स्पर्शन काल विशेष अधिक है।
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जीवमुदाहा
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६७२. अप्पाबहुगे त्ति उक्कस्सए अज्झवसाणट्ठाणे जीवा थोवा । जहण्णए अज्झव - साड्डाणे जीवा असंखेजगुणा । कंडयजीवा तत्तिया चेव । यवमज्झे जीवा असंखेजगुणा । कंडयस्सुवरि जीवा असंखेज्जगुणा । यवमज्झस्सुवरिं कंडयस्स हेट्ठदो जीवा असंखेजगुणा । कंडयस्सुवरिं यवमज्झस्स हेडदो जीवा तत्तिया चेव । यवमज्झस्सुवरिं जीवा विसेसा० । कंडयस्स हेट्ठदो जीवा विसे० । कंडयस्सुवरि जीवा विसे० । सव्वेसु जीवा विसेसाधिया । एवं जीवसमुदाहारे त्ति समत्तमणियोगद्दाराणि । एवं उत्तरपगदिअणुभागबंधो समत्तो एवं अणुभागबंध समत्तो
६७२. अल्पबहुत्वकी अपेक्षा उत्कृष्ट अध्यवसानस्थानमें जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे जघन्य अध्यवसानस्थानमें जीव असंख्यातगुणे हैं । काण्डकके जीव उतने ही हैं। इनसे यवमध्यमें जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे काण्डकके ऊपर जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे यवमध्यके ऊपर और काण्डकसे नीचे जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे काण्डकके ऊपर और यवमध्यके नीचे जीव उतने ही हैं । इनसे यवमध्यके ऊपर जीव विशेष अधिक हैं । इनसे काण्डक नीचे जीव विशेष अधिक हैं । इनसे काण्डकके ऊपर जीव विशेष अधिक है । इनसे सब स्थानों में जीव विशेष अधिक हैं ।
इस प्रकार जीवसमुदाहार नामक अनुयोगद्वार समाप्त हुआ । इस प्रकार उत्तरप्रकृतिअनुभागबन्ध समाप्त हुआ । इस प्रकार अनुभागबन्ध समाप्त हुआ ।
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