SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 103
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६४ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे पंचंत०-णि०० णि० अज० अणंतगु०। पचलापचला-थीणगिद्धि-मिच्छ०-अणंताणु०४ णि । तं तु० । छटाणपदिदं बं० अणंतभागब्भहियं वा ५। एवं पचलापचला०थीणगिद्धि०-मिच्छ०-अणंताणु०४ । २१८. णिहाए ज० ब० पंचणा०-चदुदंस०-सादा०-चदुसंज०-पंचणोक०-णामाणि णिद्दाणिदाए भंगो। उच्चा०-पंचंत० [णि.] अणंतगुणब्भ० । पचला. णि । तं तु. छहाणपदिदं० । आहारदुग-तित्थ० सिया० अणंतगुणब्भ० । एवं पचला। २१६.साद० ज० ब० पंचणा-छदसणाचदुसंज०-भय-दु०-तेजा-क०-पसत्थापसत्थ०४-अगु०--उप०--णिमि०--पंचंत० णिय. अणंतगुणब्भ० । थीणगिद्धि३मिच्छ०-बारसक०--सत्तणोक०-तिरिक्ख०-पंचिंदि०-दोसरीर-दोअंगो०-तिरिक्वाणु०पर०-उस्सा०-आदाउज्जो०-तस०४-तित्थ०-णीचा० सिया० अणंतगुणब्भ० । तिण्णिआउ-दोगदि-चदुजादि-छस्संठा०-छस्संघ०-दोआणु०-दोविहा०--थिरादिछयुग०-उच्चा० नियमसे अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप बन्ध करता है। अर्थात् या तो अनन्तभागवृद्धिरूप या असंख्यातभागवृद्धिरूप, संख्यातभागवृद्धिरूप, संख्यातगुणवृद्धिरूप, असंख्यातगुणवृद्धिरूप या अनन्तगुणवृद्धिरूप बन्ध करता है । इसी प्रकार प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, मिथ्यात्व, और अनन्तानुबन्धी चार की मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। २१८. निद्राके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाले जीवके पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातवेदनीय, चार संज्वलन, पाँच नोकषाय और नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग निद्रानिद्राके समान है। उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। प्रचलाका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। आहारकद्विक और तीर्थङ्करका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार प्रचलाप्रकृतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। २६. सातावेदनीयके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, बारह कषाय, सात नोकषाय, तिर्यश्चगति, पञ्चन्द्रिय जाति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, त्रसचतुष्क, तीर्थङ्कर और नीचगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। तीन आयु, दो गति, चार जाति, छह संस्थान, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति, स्थिर आदि छह युगल और उच्चगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । इसी प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy