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________________ वंधसण्णियासपरूवणा सिया० । तं तु० । एवं असाद०-अथिर-असुभ-अजस० । णवरि णिरयाणु-णिरयगदिदेवगदि-दोआणु० सिया० । तं तु० । देवाउ० वज्ज । २२०. अपञ्चक्खा० कोध० ज० बं० तिण्णि क० । तं तु० । सेसं णिदाए भंगो । णवरि अढकसायं भाणिदव्वं । एवं तिण्णं क० । २२१. पच्चक्रवाणकोध० ज० बं० तिण्णि क० णि । तं तु० । सेसं णिहाए भंगो । एवं तिणिं क०। २२२. कोधसंज० ज०बं० पंचणा०-चदुदंस०-सादा०-तिण्णिसंज०-जसगि०. उच्चा०-पंचंत०णि अणंतगुणब्भमाणसंज० ज० बं० दोसंज.णि० अणंतगुणब्भ०।सेसं० कोधभंगो। मायसंज० ज० बं लोभसंज० णि० अणंतगुणब्भ० । सेसं माणभंगो। लोभसंज० ज०० पंचणा०-चदुदंसणा०-सादा०जस०-उच्चा०-पंचंत० णि० अणंतगुणब्भ० । २२३. इत्थि. ज. बं० पंचणा०-णवदंस०-मिच्छ०-सोलसक०-भय-दु०असातावेदनीय, अस्थिर, अशुभ और अयश कीर्तिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि नरकायु, नरकगति, देवगति और दो आनुपूर्वीका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है, तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । मात्र देवायुको छोड़कर इन असातावेदनीय आदिकी मुख्यतासे यह सन्निकर्ष कहना चाहिए। २२०. अप्रत्याख्यानावरण क्रोधके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तीन कषायोंका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग निद्राके समान है । इतनी विशेषता है कि आठ कपाय कहलाना चाहिए । इसी प्रकार तीन कषायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। २२१. प्रत्याख्यानावरण क्रोधके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तीन कषायोंका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। शेष भङ्ग निद्राप्रकृतिके समान है। इसी प्रकार तीन कषायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। २२२. क्रोध संज्वलनके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, साता वेदनीय, तीन संज्वलन, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। मानसंज्वलनके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव दो संज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । शेष भङ्ग क्रोध संज्वलनके समान है। मायासंज्वलनके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव लोभ संज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। शेष भङ्ग मान संज्वलनके समान है। लोभ संज्वलनके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । २२३. स्त्रीवेदके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, १. ता. प्रतौ भणि दम्वं इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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