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बंधसण्णियासपरूवणा उज्जो सिया। तं तु'। ओरालि०अंगो०-वजरि० णि । तं तु०। सेसाओ पसत्थाओ णि० अणंतगु० । एवं ओरालिअंगो०-वजरि० ।
२१५. सण्णि० ओघं । असण्णी० तिरिक्खोघो। साददंडओ मदि०भंगो । आहार० ओघं । अणाहार० कम्मइगभंगो।।
एवं उक्कस्सं सम्मत्तं । २१६. जहण्णपरत्थाणसण्णियासे पगदं। दुवि०--ओघे० आदे० । ओघे. आभिणि० जह० अणुभागं बंधतो चदुणा०-चदुदंस०-पंचंत. णि० बं० जहण्णा । साद०-जस०-उच्चा० णि० बं० णि० अजहण्णं अणंतगुणब्भहियं बंधदि । एवं चदुणा०चदुदंस०-पंचंत० ।
२१७. णिहाणिदाए जहण्णं बं० पंचणा०-छदसणा०-सादा०-बारसक०-पुरिस०हस्स-रदि-भय-दुगुं०--देवगदि-पंचिंदि०-वेउवि०-तेजा-क०-समचदु०-वेउवि अंगो०पसत्थापसत्थ०४-देवाणु०-अगु०४-पसत्थवि०--तस०४-थिरादिछ०-णिमि०--उच्चाहै जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। मनुष्यगति और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है,तो वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है । औदारिक आङ्गोपाङ्ग और वज्रर्षभनाराच संहननका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। शेष प्रशस्त प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है। इसी प्रकार औदारिक आङ्गोपाङ्ग और वज्रर्षभनाराच संहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२१५. संज्ञियोंमें ओघके समान भङ्ग है । असंज्ञियों में सामान्य तिर्यञ्चोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि सातावेदनीयदण्डक मत्यज्ञानी जीवोंके समान है। आहारक जीवोंमें श्रोधके समान भङ्ग है । अनाहारक जीवों में कार्मणकाययोगी जीवोंके समान भङ्ग है।
___ इस प्रकार उत्कृष्ट सन्निकर्ष समाप्त हुआ। २१६. जघन्य परस्थान सन्निकर्षका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैओघ और आदेश । ओघसे आभिनिबोधिक ज्ञानावरणके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागका नियमसे बन्ध करता है । सातावेदनीय, यशःकीर्ति और उच्चगोत्रका नियमसे बन्ध करता है जो नियमसे अजघन्य अनन्तगुणे अधिक अनुभागका बन्ध करता है। इसी प्रकार चार ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२१७. निद्रानिद्राके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, बारह कपाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवगति, पञ्चन्द्रियजाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो
१. ता. प्रतौ उजोवं तं तु० इति पाठः। २. प्रा. प्रतौ णिमि० णि उच्चा० इति पाठः । Jain Education International
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