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________________ ६२ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे इत्थि०--अरदि--सोग-भय--दुगुं०--तिरिक्ख०-वामण०-खीलिय०--अप्पसत्थ०४-तिरिक्वाणु०-उप० अप्पसत्थवि०-अथिरादिछ०-णीचा०-पंचंत० णि । तं तु० । पंचिंदि०ओरालि०-तेजा०-क०--ओरालि अंगो०--पसत्थ०४-अगु०३-तस०४-णिमि० पी० अणंतगु०ही. । उज्जोवं सिया० अणंतगु० । एवं तं तु० पदिदाणं । २१३. साद० उ० बं० तिरिक्ख०-तिरिक्खाणु०-णीचा० सिया० अणंतगुं० । दोगदि-दोसरीर-दोअंगो०-वज्जरिस०-दोआणु०--उज्जो०-उच्चा० सिया० । तं तु० । पंचणाणावरणादिअप्पसत्थाणं णिय० अणंतगु० । पंचिंदियादिपसत्थाणं णि० । तं तु० । इत्थि०-पुरिस०--हस्स-रदि-तिण्णिआउ-तिण्णिसंठा०-तिण्णिसंघ०-उज्जो० ओघं । सेसाणं कम्माणं हेहा उवरिं सादभंगो । णाम० सत्थाणभंगो। २१४. सम्मामिच्छादिही० आभिणिभंगो। मिच्छादिट्टी० मदि०भंगो । ओरालि० उ० बं० तिरिक्ख०-तिरिक्खाणु०-णीचा. सिया० अणंतगुणही० । मणुसगदिकरनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, सोलह कषाय, स्त्रीवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यश्चगति, वामन संस्थान, कीलक संहनन, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, अस्थिर आदि छह, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। पश्चन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मणशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, सचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है । उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है । इसी प्रकार तं तु पतित प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। . २१३. सातावेदनीयके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है जो ता है। दो गति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराचसंहनन, दो आनुपूर्वी, उद्योत और उच्चगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है । पाँच ज्ञानावरणादि अप्रशस्त प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है जो अनुत्कृष्ट अनन्तगुणा हीन होता है । पञ्चन्द्रिय जाति आदि प्रशस्त प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह उत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अनुस्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित हानिरूप होता है। स्त्रीवेद. पुरुषवेद, हास्य, रति, तीन आयु, तीन संस्थान, तीन संहनन और उद्योतका भङ्ग ओघके समान है । शेष कर्मोके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीवके नामकर्मसे पूर्वकी और बादकी प्रकृतियोंका भङ्ग सातावेदनीयके समान है । नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। ..२१४. सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें आभिनिबोधिक ज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है । मिथ्यादृष्टि जीवों में मत्यज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है। किन्तु औदारिक शरीरके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका कदाचित् बन्ध करता १. श्रा० प्रतौ तिरिक्खाणु० अपंतगु० इति पाठः। २. ता. प्रा. प्रत्योः सेसाणं णामाणं हेहा इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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