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________________ कालपरूषणा २१३ ४०६. एईदिएमु तिरिक्खाउ०-उज्जो० उ० ज० ए०, उ० आवलि० असंखें। अणु० सव्वद्धा । मणुसाउ० ओघो। सेसाणं दोपदा सव्वदा । एवं बादरतिगाणं । किया गया है। उसमें भी ओघसे प्रत्येक प्रकृतिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट बन्धकाल कितना है, इसका सर्वप्रथम निर्देश किया गया है। कुल बन्ध प्रकृतियाँ १२० हैं। उनमेंसे पाँच ज्ञानावरणादिके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल किसीका एक समय और किसीका दो समय बतलाया है। अब यदि नाना जीव निरन्तर इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करें तो कितने काल तक करेंगे, इसीप्रश्नका यहाँ उत्तर दिया गया है। जैसा कि बन्धस्वामित्वके देखनेसे विदित होता है कि इन प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संज्ञी पञ्चन्द्रिय मिथ्यादृष्टि होते हैं और वे असंख्यात हैं, अतः यह भी सम्भव है कि नाना जीव एक समय तक इन प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करें और यह भी सम्भव है कि लगातार एकके बाद दूसरा निरन्तर उनका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करते रहें। इस प्रकार निरन्तर यदि बन्ध करें भी तो वह सब काल श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाणसे अधिक नहीं हो सकता। यही कारण है कि यहाँ इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धकोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। इनके अनुस्कृष्ट अनुभागके बन्धकोंका काल सर्वदा है, यह स्पष्ट ही है, क्योंकि ऐसा कोई समय नहीं है जब इन प्रकृतियोंके बन्धक जीव न हों अर्थात् वे सर्वदा पाये जाते हैं। दूसरे दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात हैं, अतः उनके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा कहा है। नरकायुके उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट बन्धकाल तो ज्ञानावरणके समान ही है। इसके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धकके काल में अन्तर है। बात यह है कि एक आय बन्धकाल अन्तमुहूर्त है। उसमें भी अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्धकाल कमसे कम एक समय है। यह सम्भव है कि नाना जीव एक समय तक अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध करके दूसरे समयमें उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करने लगे और उस दूसरे समयमें एक भी जीव अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध न करे, इसलिए तो नरकायुके अनुत्कृष्टं अनुभागके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय कहा है और निरन्तर अन्तमुहूर्त अन्तमुहूर्तके क्रमसे यदि नाना जीव नरकायुका बन्ध करते रहें, तो इस सब कालका योग पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण होगा। इसीलिए नरकायके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। अब रहीं मनुष्यायु और देवायु सो इनके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात हैं और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं। इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय तथा अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है । यहाँ अन्य जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं ,उनमें यह प्ररूपणा बन जाती है, इसलिए उनके कथनको ओघके समान कहा है। मात्र असंख्यात संख्यावाली राशियोंमें चार आयुओंके अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धकोंके कालके ओघसे अन्तर है। अतः उसे प्रकृतिबन्धके समान जानने की सूचना की है। सो प्रकृतिबन्धके अनुसार उसे समझ लेना चाहिए। ___४०६. एकेन्द्रियोंमें तिर्यश्चायु और उद्योतके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धकोंका काल सर्वदा है। मनुष्यायुका भङ्ग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंके दोनों पदोंके बन्धक १. ता. प्रतौ सव्वद्वा० (खा ) इति पाठः । ता. प्रतोऽग्रेऽप्येवमेव बहुलतया पाठो निबद्धः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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