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महापंथे अणुभागधाहियारे अणु० संखेंजा।
३२१. एइंदिय--सव्ववणप्फदि--णियोदाणं तिरिक्खाउ० उ. असंखेजा। अणु० अणंता । मणुसाउ० ओघं । सेसाणं उक्क० अणु० अणंता । णवरि एइंदि०. उज्जो० ओघं।
३२२. पंचिं०-तस०२ सादं०-तिण्णिाउ०-देवगदि-पंचिं०-वेउ०-तेजा.-क०समचदु०-वेउ०अंगो०--पसत्थव०४-देवाणु०--अगु०३-पसत्थ०--तस०४-थिरादिछ०णिमि०-तित्थ०-उच्चा० उ० संखेजा। अणु० असंखेंजा। सेसाणं उ० अणु० असंखेजा। आहारदुर्ग ओघं। एवं एस भंगो पंचमण-पंचवचि०-इत्थि०-पुरिस-विभंग०-चक्खुदं०सण्णि ति । णवरि इत्थि० तित्थ. उक्क० अणु० संखेंजा। उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात हैं।
विशेषार्थ-अपराजित तक प्रत्येक स्थानमें देवोंका परिमाण असंख्यात है, इसलिए वहाँ तक जहाँ जितनी प्रकृतियोंका बन्ध होता है, उनकी अपेक्षा नारकियोंके समान भंग बननेमें कोई बाधा नहीं आती । शेष कथन स्पष्ट ही है।
३२१. एकेन्द्रिय, सब वनस्पति और निगोद जीवोंमें तिर्यञ्चायुके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं। अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव अनन्त हैं। मनुध्यायुका भङ्ग श्रोधके समान है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव अनन्त हैं। इतनी विशेषता है कि एकेन्द्रियजाति और उद्योतका भङ्ग ओघके समान है।।
विशेषार्थ-ये मार्गणाएँ अनन्त संख्यावाली होकर भी इनमें तिर्यश्चायुके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले सर्वविशुद्ध जीव होते हैं, जिनका प्रमाण असंख्यातसे अधिक नहीं होता; क्योंकि एकेन्द्रियोंके सिवा शेष तिर्यञ्च ही असंख्यात हैं। इसलिए इनमें तिर्यञ्चायके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यात हैं। इसी प्रकार मनुष्यायुके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले संख्यात जीवोंको कारण जानना चाहिए । एकेन्द्रियों में मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, उच्चगोत्र तथा अन्य प्रशस्त प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्वामित्वकी जो विशेषता कही है, उसके अनुसार यह प्रकरण दृष्टव्य है। स्वामित्व सम्बन्धी कुछ अन्य विशेषताएँ भी ध्यान देने योग्य हैं।
३२२. पञ्चन्द्रिय, पञ्चन्द्रियपर्याप्त, त्रस और सपर्याप्त जीवोंके सातावेदनीय, तीन आयु, देवगति, पश्चन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैकियिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण, तीर्थङ्कर और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात हैं। अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं । आहारकद्विकका भङ्ग श्रोधके समान है। इसी प्रकार यह भङ्ग पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, विभङ्गज्ञानी, चक्षुदर्शनी और संज्ञी जीवों के जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेदी जीवोंमें तीर्थङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात हैं।
विशेषार्थ-स्त्रीवेदी जीवोंमें तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध करनेवाले जीव मनुष्योंमें ही होते हैं, इसलिए इनमें उसके दोनों प्रकारके अनुभागके बन्धक जीव संख्यात कहे हैं । शेष कथन सुगम है।
१. ता० प्रा० प्रत्योः सादि० इति पाठः । २. श्रा० प्रतौ तित्थ० उ० इति पाठः ।
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