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________________ परिमाणपलवणा १३३ ३१८. तिरिक्खेसु णिरयाउ०-वेउव्वियछ० उक० अणु० असंखेंज्जा । तिण्णिआउ० [ ओघं । ] सेसाणं उ० असंखेंज्जा । अणु० अर्णता । पंचिं०तिरि०३ तिण्णि आउ० उ० संखेंजा । अणु० असंखेंज्जा । सेसाणं उ. अणु० असंखेंजा । पंचिं०. तिरि०अपज्ज० मणुसाउ० उ० संखेंजा । अणु० असंखेंजा । सेसाणं उक्क० अणुक्क. के० [अ०-] संखेंजा। एवं सव्वअपज्जत्ताणं [पंचिंदिय०-]तसाणं सव्वविगलिंदियाणं सव्वपुढवि०-आउ०-तेउ०-वाउ०--बादरपत्तेगसरीराणं च । णवरि तेउ-वाऊणं मणुसगदिचदुक्कं णत्थि । ३१६. मणुसेसु दोआउ०--वेउव्वियछ०--आहारदु०--तित्थ० उक्क० अणुक्क संखेंज्जा । सेसाणं उ० संखेंजा। अणु० असंखेंजा। मणुसप०-मणुसिणीसु सव्वपगदीणं [ उक्क० ] अणु० संखेंजा। ३२०. देवाणं णिरयभंगो याव अपराजिता ति । सव्व सव्वपगदीणं उ० हैं। शेष कथन सुगम है। ३१८. तियश्चोंमें नरकायु और वैक्रियिक छहके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यात हैं । तीन आयुअोंका भङ्ग श्रोधके समान है और शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यात हैं तथा अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीव अनन्त हैं। पञ्चन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें तीन आयुओंके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात हैं और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं। शेष प्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं। पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें मनुष्यायुके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात हैं और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसी प्रकार सब अपर्याप्त, पञ्चन्द्रिय अपर्याप्त, त्रस अपर्याप्त, सय विकलेन्द्रिय, सब पृथिवीकायिक, सब जलकायिक, सब अग्निकायिक, सब वायुकायिक और सब बादर प्रत्येकशरीर जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंके मनुष्यगतिचतुष्कका बन्ध नहीं होता। विशेषार्थ-ओघसे देवगतिचतुष्कके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध क्षपकौणिमें होता है। किन्तु तिर्यश्चोंके वह संयतासंयतके होगा और इनका परिणाम असंख्यात हैं, इसलिए यहाँ तिर्यञ्चोंमें नरकायु आदिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात कहे हैं। शेष कथन स्पष्ट ही है। ३१६. मनुष्योंमें दो आयु, वैक्रियिक छह, आहारकद्विक और तीर्थङ्करके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात हैं। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात हैं और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्ध जीव असंख्यात हैं। मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियों में सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात हैं। विशेषार्थ-मनुष्योंमें नरकायु, देवायु, वैक्रियिक छह, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध अपर्याप्त मनुष्य नहीं करते, इसलिए इनका दोनों प्रकारका परिमाण संख्यात कहा है । शेष कथन स्पष्ट ही है। ३२०. देवोंमें अपराजित तक नारकियोंके समान भङ्ग है। सर्वार्थसिद्धि में सब प्रकृतियोंके १. श्रा० तौ संखेजा इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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