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________________ १३२ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे याणु० उक्क. अणु० असंखेंज्जा । दोआउ०-देवग०-[ वेउव्वि०-] वेउवि.अंगो०देवाणु०-तित्थ० उ० संखेजा। अणु० असंखेंज्जा । आहारदुगं उक्क० अणु० संखेंज्जा। एवं ओघभंगो कायजोगि-ओरालि०--णस०--कोधादि०४-मदि०--सुद०--असंज०अचक्खु०-भवसि०-अब्भवसि०-मिच्छा०-आहारग त्ति । णवरि ओरालि. तित्थ० उक्क० अणुक्क० संखेजा। ३१७. गेरइएमु मणुसाउ० उक्क० अणुक्क० कॅत्तिया ? संखेंज्जा। सेसाणं उक्क. अणुक्क० असंखेंज्जा । एवं सव्वणेरइगाणं ।। उच्चगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीव संख्यात हैं। छानुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीव अनन्त हैं । नरकायु, नरकगति और नरकगत्यानुपूर्वी के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग का बन्ध करनेवाले जीव असंख्यात हैं। दो आयु, देवगति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिक आंगोपांग, देवगत्यानुपूर्वी और तीर्थङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीव संख्यात हैं । अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यात हैं। आहारकद्विकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीव संख्यात हैं। इस प्रकार ओघके समान काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और आहारक जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि औदारिककाययोगी जीवोंमें तीर्थङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीव संख्यात हैं। विशेषार्थ-प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यात हैं और इनके अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीव अनन्त हैं, इसलिए यहाँ इनका परिमाण उक्त प्रमाण कहा है। सातावेदनीय आदि दूसरे दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीव संख्यात हैं और इनके अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीव अनन्त हैं, इसलिए इनका परिमाण उक्त प्रमाण कहा है । नरकायु आदि तीसरे दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यात हैं, इसलिए ये असंख्यात कहे हैं। तथा दो आयु आदि दण्डकमें कही गई प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीव संख्यात हैं और इनके अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यात हैं, अतएव इनका उक्तप्रमाण परिमाण कहा है । आहारकद्विकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीव संख्यात हैं, यह स्पष्ट ही है। यह सब संख्या उत्कृष्ट अनुभागका स्वामित्व और तत्तत् प्रकृतिके बन्धक जीवोंका विचार करके कही गई है। आगे ऐसी मार्गणाएँ गिनाई हैं, जिनमें यह शोधप्ररूपणा अविकल बन जाती है। उनमें एक मार्गणा औदारिककाययोग भी है। परन्तु इस मार्गणामें तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध पर्याप्त मनुष्य ही करते हैं और उनका परिमाण संख्यात है, इसलिए औदारिककाययोगी जीवोंमें तीर्थङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीव संख्यात कहे हैं। ३१७. नारकियोंमें मनुष्यायुके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। तथा शेष प्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीव असंख्यात हैं । इसी प्रकार सब नारकियोंके जानना चाहिए। विशेषार्थ-नारकी जीव यदि मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं,तो गर्भज मनुष्योंमें ही उत्पन्न होते हैं। अतः इनमें मनुष्यायुके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीव संख्यात कहे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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