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________________ परिमाणपरुपला १३१ आहार०-अणाहारग ति । णवरि ओरालि०-ओरालियमि०-इत्थिवे-किण्ण--णील०उवसम० तित्थ० ज० अर्ज० आहार भंगो। ओरालियमि०-कम्मइ०--अणहार० देवगदिपंचगं उक्कस्सभंगो। सेसाणं णिरयादि योव सण्णि ति अप्पप्पणो उक्कस्सभंगो संखेंजजीविगाणं असंखेजजीविगाणं अणंतजीविगाणं च । णवरि एइंदिएम तिरिक्खगदितिगं ओघं । सेसं णिरयोघं । अवगद०-सुहुमसंप० ज० अज० आहार०भंगो। एवं भागाभागं समत्तं । १८ परिमाणपरूवणा ३१६. परिमाणं दुवि०-जह० उक्क । उक. पगदं। दुवि०-ओघे० आदे। ओघे० पंचणा०-णवदंस०-असादा०-मिच्छ०-सोलसक०-णवणोक०-दोगदि-चदुजादिओरालि०-पंचसंठा-ओरालि०अंगो०-छस्संघ०-अप्पसत्थ०४-दोआणु०-उप०-आदाव०अप्पसत्थवि० .. थावरादि४-अथिरादिछ० -- णीचा० -- पंचंत० उक्कस्सअणुभागबंधगा केत्तिया ? असंखेंज्जा । अणुक्क. अणुभा०बं० के० १ अणंता। साद०-तिरिक्खाउ०. पंचिंदि०-तेजा०-क०-समचदु०-पसत्थव०४-अगु०३-पसत्थवि०--तस०४-थिरादिछ०णिमि०-उच्चा० उक्स्स० संखेंजा० । अणु० अणंता । णिरयाउ०-णिरयगदि०-णिरइतनी विशेषता है कि औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, स्त्रीवेदी, कृष्णलेश्यावाले, नील लेश्यावाले और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका भंग आहारकशरीरके समान है । औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें देवगतिपञ्चकका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। शेष नरकगतिसे लेकर संज्ञी तककी संख्यात जीवोंवाली, असंख्यात जीवोंवाली और अनन्त जीवोंवाली मार्गणाओंमें अपने-अपने उत्कृष्ट के समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि एकेन्द्रियोंमें तिर्यञ्चगतित्रिकका भंग ओघके समान है। शेष सामान्य नारकियोंके समान है। अपगतवेदवाले और सूक्ष्मसाम्पराय संयत जीवोंमें जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका भंग आहारकशरीरके समान है। इस प्रकार भागाभाग समाप्त हुआ। १८ परिमाणप्ररूपणा ३१६. परिमाण दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्का प्रकरण है। निर्देश दो प्रकार का है-ओघ और आदेश । ओघसे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकपाय, दो गति, चार जाति, औदारिकशरीर, पाँच संस्थान, औदारिक आंगोपांग, छह संहनन, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, दो आनुपूर्वी, उपघात, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर आदि चार, अस्थिर आदि छह, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव कितने हैं ? अनन्त हैं । सातावेदनीय, तिर्यश्चायु, पञ्चन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर समचतुरस्त्रसंस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण और १. मा. प्रतौ तित्थ. अज० इति पठः । २. ता. प्रतौ एवं भागाभागं समत्तं इति पाठो नास्ति । ३. श्रा० प्रतौ श्रादाव० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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