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________________ १३० महाबंधे अणुभागबंधाहियारे भागा । णवरि मणुसाउ० आहारभंगो। एवं सेसाणं पि ओघेण साधेदव्वं'। एवं ए असंखेंजजीविगा ते देवगदिभंगो। ए संखेंज्जजीविगा ते आहार०मंगो। एइंदियवणप्फदि०-णियोदेसु तिरिक्रवाई. ओघं । एइंदिए उज्जो० उ० अणंतभागा । अणु० अणंता भागा । सेसाणं णिरयभंगो। ३१५. जहण्णए पगदं । दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० पंचणा-णवदंस०मिच्छ०--सोलसक०--णवणोक०--तिरिक्व०-पंचिं०-ओरालि.-तेजा०-०-ओरालि०अंगो ०-पसत्थापसत्य०४-तिरिक्वाणु०-अगु०४-आदाउ०-तस०४-णिमि०-णीचा.. पंचंत० जह० अणुभा० सव्वजी० केव० १ अणंतभा० । अज० अणंता भा'. । सादासाद०-चदुआउ०-तिण्णिगदि-चदुजादि--छस्संठा०--छस्संघ०--तिण्णिआणु०--दोविहा०थावरादि४-थिरादिछयुग०--उच्चा०--वेव्वि०--वेउव्वि० अंगो०--तित्थ० ज० असंखेंजदिभा० । अज० असंखेंजा भागा । आहारदुर्ग उक्कस्सभंगो । एवं ओघभंगो तिरिक्खोघं कायजो०-ओरालि०-ओरालियमि० कम्मइ०-णस०-कोधादि०४-मदि०मुद०-असंज०--अचक्खु०--तिण्णिले०-भवसि०--अब्भवसि०---मिच्छादि०-असण्णि.. हैं। अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं। इतनी विशेषता है कि मनुघ्यायुका भङ्ग आहारकशरीरके समान है। इसी प्रकार शेष मार्गणाओंमें भी ओघके अनुसार साध लेना चाहिए। इसी प्रकार जो असंख्यात जीवोंवाली मार्गणाएँ हैं उनमें देवगतिके समान भङ्ग है और जो संख्यात जीवोंवाली मार्गणाएँ हैं, उनमें आहारकशरीरके समान भङ्ग है। एकेन्द्रिय, वनस्पतिकायिक और निगोद जीवोंमें तिर्यश्चायुका भङ्ग ओघके समान है। एकेन्द्रियोंमें उद्योतके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव अनन्तवें भागप्रमाण हैं और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव अनन्त बहुभागप्रमाण हैं। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग नारकियोंके समान है। ३१५. जघन्यका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और आदेश । ओघसे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकपाय, तिर्यश्चगति,पश्वोन्द्रियजाति, औदारिकशरीर,तैजसशरीर, कार्मणशरीर,औदारिक प्राङ्गापाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क,तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, आतप,उद्योत,त्रसचतुष्क, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागके बन्धक जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? अनन्तवें भागप्रमाण हैं। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीव अनन्त बहुभागप्रमाण हैं। सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार आयु, तीन गति, चार जाति, छह संस्थान, छह संहनन, तीन आनुपूर्वी, दो विहायोगति, स्थावर आदि चार, स्थिर आदि छह युगल, उच्चगोत्र, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग और तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य अनुभागके बन्धक जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । अजघन्य अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात बहुभाग प्रमाण हैं । आहारकद्विकका भंग उत्कृष्टके समान है। इसी प्रकार ओघके समान सामान्य तिर्यञ्च, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकायोगी नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए। १ श्रा. प्रतौ पि सादचं इति पाठः। २. श्रा. प्रतौ वणप्फदितिरिवखाउ० इति पाठः । ३. ता. श्रा. प्रत्योः अयंतभागा इति पाठ। ४ श्रा० प्रती पचि० ओरालि अंगो इति पाठः। ५. ता. श्रा० प्रस्योः अणंतभा• इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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