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परिमाणपरूवणा
१३५ ३२३. ओरालियमि० दोआउ० एइंदियभंगो । देवगदिपंचग० २० अणु० संखेंज्जा । सेसाणं उ० अणु० ओघं । एवं कम्मइग०-अणाहार० । वेउन्वि० देवोघं । एवं चेव वेउव्वियमिस्स०। णवरि तित्थ० उक्क० अणु० संखेंजा। आहार-आहारमि० सव्वहभंगो । एवं अवगद०-मणपज्ज०-संजद-सामाइ०-छेदो०-परिहार०-सुहुम० ।
३२४. आभिणि-सुद-ओधि० पंचणा०-छदंसणा०--असादा०--बारसक०-सत्तणोक०-मणुस०-ओरा०-ओरा०अंगो०-वजरि०-अप्पसत्थ०४-मणुसाणु०-उप०-अथिरअमुभ०-अजस०-पंचंत० उ० अणु० असंखेजा। सेसाणं उ. संखेंज्जा। अणु० असंखेजा। णवरि मणुसाउ०-आहारदुर्ग उ. अणु० संखेज्जा। एवं ओघिदंस०सम्मादि०-खइग०--वेदगस०-उवसम० । णवरि सव्वाणं मणुसाउ० उ. अणु० संखेंज्जा । खइगस० दोआउ० उ० अणु० संखेंज्जा । उवसम० आहारदुगं तित्थ० उ०
३२३. औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें दो आयुओंका भङ्ग एकेन्द्रियोंके समान है। देवगतिपञ्चकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात हैं। शेष प्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव ओघके समान हैं। इसी प्रकार कार्मणकाययोगी
और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए। वैक्रियिककाययोगी जीवोंमें सामान्य देवोंके समान भङ्ग है। इसीप्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें तीर्थङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात हैं। आहारककाययोगी
और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें सर्वार्थसिद्धिके समान भङ्ग है। इसी प्रकार अपगतवेदी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदीपस्थापनासंयत, परिहार विशुद्धिसंयत और सूक्ष्मसाम्पराय संयत जीवोंके जानना चाहिए।
विशेषार्थ-जो सम्यग्दृष्टि देव और नारकी मर कर मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं, उनके अपर्याप्त अवस्थामें औदारिकमिश्रकाययोग होता है और ये जीव संख्यात होते हैं, इसलिए इस योगमें देवगतिपञ्चकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात कहे हैं। इसी प्रकार तीर्थङ्कर प्रकृतिका वन्ध करनेवाले जो मनुष्य देवों और नारकियोंमें उत्पन्न होते हैं, उन्हींके वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें तीर्थंकर प्रकृतिका वन्ध होता है और ये जीव संख्यात होते हैं, इसलिए इस योगमें तीर्थङ्कर प्रकृति के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात कहे हैं। शेष कथन स्पष्ट ही है।
३२४. आभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, असातावेदनीय, बारह कपाय, सात नोकषाय, मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिक अांगोपांग, वर्षभनराच संहनन, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, उपघात, अस्थिर, अशुभ, अयशाकीर्ति और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात हैं और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं। इतनी विशेषता है कि मनुष्यायु और आहारकद्विकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात हैं। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इन सबमें मनुष्यायुके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात हैं। भायिक सम्यग्दृष्टि जीवों में दो आयुओंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात हैं तथा उपशमसम्यग्दृष्टि
१. श्रा० प्रती दोबाउ० अणु० इति पाटः ।
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