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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे अणु० संखेजा।
३२५. संजदासंजदेसु सादादीणं उक्क० संखेंजा । अणु० असंखेंज्जा। तित्थ० मणुसि भंगो । सेसाणं उ० अणु० असंखेजा।
३२६. किण्ण०-णील. चदुआउ०-बउब्वियछ० ओघ । तित्थ० मणुसि भंगो। सेसाणं उक्क० असंखेजा। अणु० अणंता। एवं काऊए पि । णवरि तित्थ० उ० अणु० असंखेजा।
__३२७. तेऊए सादादीणं तिण्णिआउ० देवगदिपसत्थाणं तित्थ० उच्चा० उ० संखेंजा । अणु० असंखेजा । सेसाणं उ. अणु'० असंखजा०। एवं पम्माए । सुकाए जीवोंमें आहारकद्विक और तीर्थङ्करके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात हैं।
विशेषार्थ-गर्भज मनुष्य संख्यात हैं और इन्हीं में आहारकद्विकका बन्ध होता है, इसलिए आभिनिबोधिकज्ञानी आदिमें मनुष्यायु और आहारकद्विकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात कहे हैं। आगे अवधिदर्शनी आदि मार्गणाओंमें भी इन प्रकृतियोंके सम्बन्ध में इसी प्रकार जानना चाहिए । मात्र क्षायिकसम्यक्त्वका प्रारम्भ मनुष्य करते हैं और ये ही चारों गतियोंमें उत्पन्न होते हैं, इसलिए इनमें मनुष्यायुके समान देवायुके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात कहे हैं। तथा जो मनुष्य उपशमसम्यग्दृष्टि होते हैं या ऐसे जीव मर कर देव होते हैं, उनमेंसे ही तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध करनेवाले होते हैं ,अन्य उपशमसम्यग्दृष्टि नहीं। अतः इनमें आहारकद्विकके समान तीर्थङ्कर प्रकृति के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात कहे हैं। शेष कथन सुगम है।
३२५. संग्रतासंयत जीवोंमें सातावेदनीय आदिके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात हैं। अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं। तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग मनुष्यिनियोंके समान है। शेष प्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं।
विशेषार्थ-जो मनुष्य संयतासंयत होते हैं, उनमें ही कुछ तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध करते हैं, अतः यहाँ तीर्थक्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात कहे हैं। शेष कथन स्पष्ट ही है।
३२६. कृष्ण और नील लेश्यामें चार आयु और वैक्रियिक छहका भङ्ग ओघके समान है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका भंग मनुष्यनियोंके समान है। शेष प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव अनन्त हैं। इसी प्रकार कापोत लेश्यामें भी जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसमें तीर्थङ्कर प्रकृतिक उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात हैं।
विशेषार्थ-जो नारकी कृष्ण और नील लेश्यावाले होते हैं, उनमें नरकायु, देवायु और वैक्रियिक छहका बन्ध नहीं होता; इसलिए यह प्ररूपणा अोधके समान बन जाती है। तथा इन लेश्याओंमें नरकमें तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध नहीं होता, अतः यहाँ तीर्थङ्कर प्रकृतिका भंग मनुध्यिनियोंके समान कहा है। मात्र कापोत लेश्यामें नरकमें भी इसका बन्ध होता है, इसलिए इस लेश्यामें तीर्थङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात कहे हैं। शेष कथन सुगम है।
३२७. पीतलेश्यामें सातावेदनीय, तीन आयु, देवगति आदि प्रशस्त प्रकृतियाँ तीर्थङ्कर और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव संख्यात हैं। अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीव असंख्यात
१. ता० प्रती सेसाणं अणु• इति पाठः ।
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