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________________ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे णिमि० णि. अणंतगुणभ० । सादासाद०--मणुसाउ०-छस्संठा०-छस्संघ०-दोविहा०थिरादिछयुग० सिया० । तं तु०। सत्तणोक० सिया० अणंतगुणन्भ० । मणुसगदिमणुसाणु० णि । तं तु० । एवं सत्तमाए पुढवीए । णवरि मणुस०-मणुसाणु०-उच्चा० तित्थयरभंगो। थीणगिदि०३-मिच्छ०-अणंताणु०४-इत्थि०--णवूस०-पंचसंठा-पंचसंघ०-अप्पसत्थ०-दूभग-दुस्सर-अणादें-णीचा० एदेसि तिरिक्खगदी धुवं कादव्वं । णवरि थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणु०४ ज० बं० तिरिक्ख०-तिरिक्रवाणु०-णीचा. णि । तं त०। एवमेदाओ अण्णोण्णस्स तं तु० । णवरि साद० ज० बं० दोगदिदोआणु०-उज्जो०-दोगो० सिया० अर्णतगुणब्भः। एवं असाद-थिरादितिण्णियुगलाणं। छसु उवरिमासु णिरयोघो । णवरि तिरिक्ख०--तिरिक्खाणु०-णीचा० परियत्तमाणियाणं कादव्वं'। थीणगिदि०३-मिच्छ०-अणंताणु०४-इत्थि-णqसगाणं मणुसगदिदुगं कादव्वं । कार्मणशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, मनुष्यायु, छह संस्थान, छह संहनन, दो विहायोगति और स्थिर आदि छह युगलका कदाचित बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है,तो वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। सात नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्ध रता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । इसी प्रकार सातवीं पृथिवीमें भी जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका भङ्ग तीर्थङ्कर प्रकृतिके समान है। तथा स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व. अनन्तानुबन्धी चार, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्र इनकी मुख्यतासे सन्निकर्ष कहते समय तिर्यश्चगतिको ध्रुव करना चाहिए । इतनी विशेषता है कि स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभाग का भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार इन प्रकृतियोंकी मुख्यतासे परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए । किन्तु वह स्त्यानगृद्धि तीन आदिकी मुख्यतासे कहे गये सन्निकर्षके समान ही जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सातावेदनीयके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव दो गति, दो आनुपूर्वी, उद्योत और दो गोत्रका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार असातावेदनीय और स्थिर आदि तीन युगलोंकी अपेक्षा जानना चाहिए। प्रारम्भकी छह पृथिवियोंमें सामान्य नारकियोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि तिर्यश्चगति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रको परिवर्तमान प्रकृतियोंमें करना चाहिए । तथा स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके मनुष्यगति द्विक करना चाहिए। १. ता. प्रतौ परियमाणि कादव्वं इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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