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वंधसण्णियासपरूवणा
१०६ २६०. तिरिक्खेसु आभिणि० ज० बं० चदुणा०-छदंस०-अहकसा०-पंचणोक०अप्पसत्थ०-४-उप०-पंचंत० णिय० । तं तु०। साद०-देवग०पसत्थसत्तावीसं-उच्चा० णि० अणंतगुणब्भः । एवं तं तु पदिदाओ अण्णमण्णस्स तं तु० । सेसं ओघं । णवरि अरदि० ज० बं० पंचणा०-छदंस०-अहक०-पुरिस०-भय-दु०-उच्चा०-पंचंत० णि अणंतगुणब्भ० । सेसं णामाणं णाणावरणभंगो। एवं पंचिंदिय०तिरि०३ । णवरि तिरिक्ख.. तिरिक्खाणु०-णीचा परियत्तमाणियाणं कादव्वं तिरिक्वेसु० । णवरि पंचिंदियजादीणं ओरालि०-ओरालि०अंगो०-उज्जो०-तिरिक्खगदिदुग० अप्पप्पणो सत्थाणं कादव्वं ।
२६१. पंचिंदि०तिरि०अपज्ज. आभिणि. ज. बं० चदुणा०-णवदंसणाoमिच्छ०-सोलसक०-पंचणोक०-अप्पसत्थ०४-उप०-पंचंत० णि । तं तु० । साद०मणुस-पंचिंदि०-तिण्णिसरीर-समचदु०--ओरालि०अंगो० - वज्जरि०-पसत्थ०४-मणुसाणु०-अगु०३-पसत्थवि०-तस४-थिरादिछ०-णिमि०-उच्चा० णि. अणंतगुणब्भ० । एवं तं तु० पदिदाओ अण्णोणं तं तु०।।
२६०. तिर्यञ्चोंमें आभिनिवोधिकज्ञानावरणके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, आठ कषाय, पाँच नोकषाय, अप्रशस्त, वर्णचतुष्क उपघात, और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धि रूप होता है। सातावेदनीय, देवगति आदि प्रशस्त सत्ताईस प्रकृतियों
और उच्चगोत्रका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार तं तु पतित जितनी प्रकृतियाँ हैं,उनकी मुख्यतासे परस्पर आभिनिबोधिकज्ञानावरणकी मुख्यतासे जिस प्रकार सन्निकर्ष कहा है उस प्रकार जानना चाहिए। शेष भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि अरतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, पाठ कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। शेष नामकर्मकी प्रकृतियोंका ज्ञानावरणके समान भङ्ग है । इसी प्रकार अर्थात् सामान्य तिर्यश्चोंके समान पश्चन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकके सब प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि तिर्यश्चोंमें तिर्यश्चगति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रको परिवर्तमान प्रकृतियों में करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पञ्चोन्द्रियजाति आदिमें औदारिकशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, उद्योत और तिर्यञ्चगतिद्विकका अपना-अपना स्वस्थान सन्निकर्ष कहना चाहिए।
२६१. पश्चन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें आभिनिबोधिकज्ञानावरणके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। सातावेदनीय, मनुष्य गति, पञ्चन्द्रियजाति, तीन शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराचसंहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण और उच्चगोत्रका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक
१. श्रा० प्रतौ चदुणोक० इति पाठः ।
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