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________________ बंधसज्णियासपरूवणा २०७ मणुसाउ०भंगो। २५६. पंचिंदि० ज० बं० पंचणा०-णवदंसणा०-असादा.-मिच्छ०-सोलसक०णस०-अरदि-सोग-भय-दु०-णीचा०-पंचंत० णि० अणंतगुणब्भ० । णाम सत्याणभंगो । एवं पंचिंदियभंगो ओरालि०-तेजा०-क०-ओरालि०अंगो०-पसत्य०४-अगु०३उज्जो-तस०४-णिमि०। २५७. समचदु० ज० बं० पंचणा०-णवदसणा-मिच्छ०-सोलसक०-भय-दु०णि. अणंतगुणब्भ० । सादासाद०-दोआउ०-उच्चा० सिया० । तं तु० । सत्तणोक.. णीचा० सिया० अणंतगुणब्भ० । णाम सत्थाणभंगो। एवं समचदुर भंगो पंचसंठा०पंचसंघ०-दोविहा०-सुभादितिण्णियुग०।। २५८. तित्थ० ज० बं० पंचणा०-छदसणा०-असादा०-बारसक०-पुरिस०अरदि-सोग-भय-दु०-उच्चा०-पंचंत० णि० अणंतगुणभः । णाम० सत्थाणभंगो। २५६. उच्चा० ज० बं० पंचणा०-णवदेस०-मिच्छ०-सोलसक०--भय० दु०पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा-क०-ओरालि०अंगो-पसत्यापसत्य०४-अगु०४-तस०४'बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष मनुष्यायुके समान जानना चाहिए। ___२५६. पञ्चन्द्रिय जातिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार पञ्चन्द्रिय जातिके समान औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, उद्योत, सचतुष्क और निर्माणकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। २५७. समचतुरस्त्रसंस्थानके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। सातावेदनीय, अमातावेदनीय, दो आयु और उच्चगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। सात नोकषाय और नीचगोत्रका कदाचित बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार समचतुरस्त्रसंस्थानके समान पाँच संस्थान, पाँच संहनन, दो विहायोगति और शुभादि तीन युगलकी मुख्यतासे समिकर्ष जानना चाहिए। २५८. तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, असातावेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। २५६. उच्चगोत्रके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शना. वरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, १. आ. प्रतौ पसत्यापसत्य० ४ तस० ४ इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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