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________________ क्षेत्रपरूवणा भवसि ० - श्रब्भवसि ० - मिच्छा ० -- आहारए ति । तिरिक्खोघं ओरा० - ओरालियमिं०. णील००- फाउ० असण्णीसु च ओघं । णवरि तिरिक्ख ० - तिरिक्खाणु० - णीचा० ज० लो० ज० सव्वलो० । संखे ०, ३४४. एइंदिए पंचणा० - णवदंस० - मिच्छ०-सोलसक० णवणोक ० -तिरिक्ख ०ओरालि० गो ०. ०-- अप्पसत्थ०४ - तिरक्खाणु० - उप० - आदाउज्जो ० - [ अप्पसत्थवि०- ] णीचा ० - पंचत० ज० लो० संखें०, अज० सव्वलो० । सादासाद० - तिरिक्खाउ० १४७ और आहारक जीवों के जानना चाहिए। सामान्य तिर्यञ्च, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोनी, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले और असंज्ञी जीवों में भी ओधके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागप्रमाण है और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक है । विशेषार्थ- - प्रथम दण्डकमें कही गई पाँच ज्ञानावरणादि प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागवन्ध या तो गुणस्थानप्रतिपन्न जीव करते हैं और जिन स्त्यानगृद्धि तीन आदिका मिध्यादृष्टि जीव करते हैं वे सब संज्ञी पञ्चेन्द्रिय ही होते हैं और ऐसे जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, अतः यहाँ इन प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका क्षेत्र उक्त प्रमाण कहा है । तथा इनका अजघन्य अनुभागबन्ध एकेन्द्रिय आदि सब जीव करते हैं, अतः इनके अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंका सब लोक क्षेत्र कहा है । दूसरे दण्डकमें कही गई सातावेदनीय आदिका जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्ध एकेन्द्रिय आदि चारों गतिके जीव करते हैं, अतः इनके दोनों प्रकार के अनुभाग बन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक कहा है। शेष रही तीसरे दण्डकमें कही गई तीन आयु आदि प्रकृतियाँ सो इनमेंसे मनुष्यायुके सिवा शेष प्रकृतियोंका बन्ध यथायोग्य पञ्चेन्द्रिय जीव ही करते हैं और मनुष्यों का प्रमाण असंख्यात होनेसे मनुष्यायुका बन्ध करनेवाले जीव स्वल्प हैं, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवों का क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। यहाँ काययोगी आदि अन्य जितनी मार्गणाऐं गिनाई हैं उनमें यह घ प्ररूपणा अविकल घटित हो जाती है, इसलिए उनके कथनको ओधके समान कहा है । यद्यपि सामान्य तिर्य आदि मार्गेणाओं में भी यह श्रोघप्ररूपणा घटित हो जाती हैं और इसलिए उनकी प्ररूपणाको भी ओघ के समान जाननेकी सूचना की है पर उनमें तिर्यञ्चगति आदि तीन प्रकृतियों की अपेक्षा कुछ विशेषता है । बात यह हैं कि ओघ में और काययोगी आदि मार्गणाओं में तो तिर्यगति आदिका जघन्य अनुभागबन्ध सम्यक्त्व के अभिमुख हुआ सातवें नरकका नारकी जीव करता है और सामान्य तिर्यञ्च आदि मार्गणाओंमें बादर अग्निकायिक और बादर वायुकायिक जीव इन प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्ध करता है और बादर बायुकायिक जीवोंका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागप्रमाण हैं, इसलिए इन मार्गणाओं में उक्त तीन प्रकृतियोंके जघन्य अनुभाग बन्धक जीवों का क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागप्रमाण और अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक कहा है। I ३४४. एकेन्द्रियों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिध्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, तिर्यञ्चगति, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, श्रातप, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागप्रमाण है और अजघन्य अनुभाग के बन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक १. ता० प्रतौ तिरिक्खोधं श्रोरालियमि० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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