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________________ १४८ महाबंधे अणुभागपंधाहियारे मणुस-पंचजादि--ओरालि०--तेजा--क०-छस्संठा-छस्संघ०--पसत्य०४-मणुसाणु०अगु०३-[पसत्यवि०-] तसथावरादिदसयुग०-णिमि०-उच्चा० ज० अज० सव्वलो० । मणुसाउ० ज० अज. ओघं । ३४५. बादरपज्जत-[ अपज्जत्त० ] पंचणा०-णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक०सत्तणोक०-तिरिक्ख०--अप्पसत्थ०४ -तिरिक्खाणु०-उप०-णीचा०--पंचंत. ज. लो. संखे०, अज. सव्वलो। सादासाद०-एइंदि०-ओरा-तेजा०-१०-हुंड०--पसत्यवण्ण:-अगु०३-थावर-मुहुम-पज्जा-अपज्ज.--प०-साधार०--थिराथिर-मुभासुभ भग-अणादें -अजस०-णिमि० ज० अज० सव्वलो०। इत्यि०-पुरिस०-तिरिक्खाउ०चदुजादि--पंचसंग--ओरा०अंगो०-छस्संघ०-आदाउज्जो०-दोविहा०-तस०-बादर०. है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, तिर्यञ्चायु, मनुष्यगति, पाँच जाति, औदारिकशरीर, तेजसशरीर, कामणशरीर, छह संस्थान, छह संहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, भगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, प्रस-स्थावर आदि दस युगल, निर्माण और उच्चगोत्रके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्र सघ लोक है। मनुष्यायुके जघन्य और भजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्र पोषके समान है। विशेषार्थ-एकेन्द्रियोंमें सब प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्ध बादर जीव करते हैं और इनका स्वस्थानकी अपेक्षा क्षेत्र लोकका संख्यातवां भागप्रमाण है और समुद्घातकी अपेक्षा सर्व लोक क्षेत्र है। इसी विशेषताको ध्यानमें रखकर यहाँ क्षेत्र कहा है। जिन प्रकृतियों का सर्वविशुद्ध और तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामोंसे जघन्य अनुभागबन्ध होता है। या तात्प्रायोग्य संक्लिष्ट परिणामोंसे जघन्य अनुभागबन्ध होकर भी जो प्रतिपक्ष प्रकृतियोंसे रहित हैं उनका जघन्य अनुभागबन्ध स्वस्थानमें होता है, इसलिए इनके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागप्रमाण कहा है और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक कहा है । मात्र परघात और उच्छवास इस नियमकी अपवाद प्रकृतियाँ हैं, क्योंकि उपघात अप्रशस्त प्रकृति है और ये प्रशस्त प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनका ग्रहण सातावेदनीय आदिके साथ होता है। अवरही शेष सातावेदनीय आदि उत्कृष्ट संक्लिष्ट या तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट परिणामों से बँधनेवाली प्रकृतियाँ सो इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका सब लोक क्षेत्र कहा है. क्योंकि इनक मारणान्तिक समुद्घातके समय भी जघन्य अनुभागबन्ध हो सकता है । मात्र दो आयुओंके विषय में स्वतन्त्ररूपसे विचार करना चाहिए । कारण स्पष्ट है । इसी प्रकार आगे भी स्वामित्वका विचार कर क्षेत्र घटित कर लेना चाहिए। २४५. बादर तथा उनके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, सात नोकषाय, तियश्चगति, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागप्रमाण है और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, एकेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्ड संस्थान, प्रशस्त वर्ण चतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक साधारण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशःकीर्ति और निर्माणके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका क्षेत्र सब लोक है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, तिर्यश्चायु, चार जाति, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, स, बादर, सुभग, दो स्वर, आदेय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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