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बंधसण्णियासपरूवणा २२७. णिरयाउ० ज० बं० पंचणा०-णवदंस०-मिच्छ०-सोलसक०-पंचणोक०पंचि०-वेउव्वि०--तेजा०--क०--वेउवि०अंगो०--पसत्थापसत्थ०४-अगु०४-तस०४णिमि०-णीचा०-पंचंत० णि. अणंतगुणन्भ० । असाद०-णिरय०-हुंड-णिरयाणु०अप्पसत्यवि०-अथिरादिछ० णि । तं तु० । एवं णिरयगदि-णिरयाणु० ।
२२८. तिरिक्खाउ० ज० ब० पंचणा०-णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक०-णस०भय-दु०-तिरिक्ख०-ओरालि०--तेजा०-क०-पसत्यापसत्य०४-अगु०३-उप०-णिमि०णीचा०-पंचंत० णि अणंतगुणब्भ० सादासा०-चदुजादि-असंप०-थावर-सुहुम-साधार० सिया० । तं तु०। चदुणोक०-पंचिं०-ओरालि०अंगो०-तस०-वादर-पत्ते. सिया० अणंतगुणभ० । हुंड-अपज्जा-अथिरादिपंच० णि । तं तु० । मणुसाउ० ज० तिरिक्खाउ०मंगो । णवरि मणुस हुंड०-असंप०-मणुसाणु०-अपज्ज०-अथिरादिपंच णि । तं तु.।
___ २२७. नरकायुके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, पञ्चोन्द्रिय जाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, सचतुष्क, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। असातावेदनीय, नरकगति, हुण्डसंस्थान, नरकगत्यानुपूर्वी, अप्रशस्त विहायोगति और अस्थिर आदि छहका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार नरकगति और नरकगत्यानुपूर्वी की मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
२२८. तिर्यञ्चायुके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व. सोलह कषाय, नपुंसकवेद, भय, जुगुप्सा, तियेश्वगति औदारिकशरीर, तेजस शरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुजघुत्रिक, उपघात, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार जाति, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, स्थावर, सूक्ष्म और साधारणका कदाचित् बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। चार नोकषाय, पश्चन्द्रिय जाति, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, त्रस, बादर और प्रत्येकका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । हुण्ड संस्थान, अपर्याप्त और अस्थिर आदि पाँचका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। मनुष्यायुके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाले जीवका भङ्ग तिर्यश्चायुके समान है। इतनी विशेषता है कि मनुष्यगति, हुण्डसंथान, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अपर्याप्त और अस्थिर आदि पाँचका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका
१. श्रा० प्रती तस० णिमि० इति पाठः। २. श्रा० प्रतो पत्ते० अणंतगुणब्म० इति पाठः । ३. श्रा० प्रतो मणुसाउ० उ० तिरिक्खभंगो इति पाठः।
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