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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे २२६. देवाउ० ज० बं पंचणा०--णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक०-भय-दु०पंचिं०-वेउवि०-तेजा.-क०-वेवि०अंगो०-पसत्यापसत्थ०४-अगु०४-तस०४-णिमि०पंचंत० णिय० अणंतगुणब्भ० । सादा०--देवग०--समचदु०--देवाणु०--पसत्थवि०थिरादिछ०-उच्चा० णि । तं तु० । इत्थि०-पुरिस० सिया० अर्णतगुणब्भ० ।
- २३०. तिरिक्ख० ज० बं० पंचणा०--णवदंस०--सादा-मिच्छ०--सोलसक०पंचणोक०-पंचंत० णि. अणंतगुणब्भ० । णाम० सत्थाणभंगो। णीचा० । तं तु० । एवं तिरिक्खाणु०-णीचा०।
२३१. मणुस. ज. बं. पंचणा०-णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक०-भय-दु०पंचंत० णि. अणंतगुणब्भ० । सादासाद०-मणुसाउ०-छस्संठा०-छस्संघ०-दोविहा०अपज्ज०-थिरादिछयुग०-उच्चा० सिया० । तं तु०। सत्तणोक०-पर-उस्सा०-पज्ज०णीचा सिया० अणंतगुणभापंचिंदि०-ओरालि०-तेजा०-क०-ओरालि०अंगो-पसत्थाभी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है।
२२६. देवायुके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पश्चन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क, निर्माण और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । सातावेदनीय, देवगति, समचतुरस्रसंस्थान, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, स्थिर
आदि छह और उच्चगोत्रका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है।
२३०. तिर्यश्चगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। नीचगोत्रका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२३१. मनुष्यगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अंजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, मनुष्यायु, छह संस्थान, छह संहनन, दो विहायोगति, अपयोप्त, स्थिर आदि छह यगल और उच्चगोत्रका कदाचित बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। सात नोकषाय, परघात, उच्छ्वास, पर्याप्त और नीचगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। पञ्चन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर,
१. श्रा० प्रती सादासाद० इति पाठः ।
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