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________________ ६६ बंधसण्णियासपरूवणा पसत्थ०४-अगु०-उप-तस०-बादर-पत्ते-णिमि० णि. अणंतगुणभ० । मणुसाणु० णि । तं तु० । एवं मणुसाणुः । ___२३२. देवगदि० ज० बं पंचणा०-णवदंस०-मिच्छ०-सोलसक०-भय०-दु०पंचत० णि० अणंतगुणब्भ० । सादासाद०-देवाउ० सिया० । तं तु० । इत्यि०-पुरिस०हस्स-रदि--अरदि--सोग० सिया० अणंतगुणब्भ० । उच्चा० णि । तं तु० । णाम सत्थाणभंगो । एवं देवाणु । २३३. एइंदि० ज० बं० पंचणा-णवदंस०-मिच्छ०-सोलसक०-णवूस०-भय०दु०-णीचा०-पंचंत. णि० अणंतगुणब्भ० । सादासाद०-तिरिक्खाउ० सिया० । तं तु० । हस्स-रदि-अरदि-सोग. सिया० अणंतगुणब्भ० । णाम. सत्थागभंगो। एवं बेई०तेई०-चदुरिं० हेटा उवरि एइंदियभंगो । णाम सत्थाणभंगो। औदारिकाङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, त्रस, बादर, प्रत्येक और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । मनुष्य. गत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार मनुष्यगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना च २३२. देवगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । सातावेदनीय, असातावेदनीय और देवायुका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है,तो वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति और शोकका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। उच्चगोत्रका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार देवगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। __२३३. एकेन्द्रिय जातिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, भय, जुगुप्सा, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, और तिर्यञ्चायुका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है,तो वह जवन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। हास्य, रति, अरति और शोकका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति और चतुरिन्द्रिय जातिकी मुख्यतासे नामकर्मसे पूर्वकी और बादकी प्रकृतियोंका सन्निकर्ष एकेन्द्रिय जातिके समान है तथा नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। १. ता० प्रती एवं मणुसाणु । णि तं तु एवं मणु [एतचिन्हान्तर्गतः पाठोऽधिकः प्रतीयते । देवगदि०, आ. प्रतौ एवं मणुसाणु०णि तं तु ए, मणुस० देवगदि० इति पाठः। २. श्रा० प्रती सोलसका गवंस० भयदु० णीचा. पंचंत. इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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