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________________ १०० महाबंधे अणुभागबंधाहियारे २३४. पंचिंदि० ज० बं० पंचणा०-णवदंसणा०-असाद०-मिच्छ०-सोलसक०पंचणोक०-णीचा-पंचंत० णि. अणंतगुणब्भ० । णाम सत्थाणभंगो । एवं तस० । २३५. ओरालि० ज० बं० पंचणा०-णवदसणा०-असादा०-मिच्छ०-सोलसक०पंचणोक०-णीचा०-पंचंत० णि. अणंतगुणब्भ० । णाम. सत्थाणभंगो । एवं उज्जो० । ___ २३६. वेउन्वि० ज० बं० रेडा उवरिं पंचिंदियभंगो। णाम० सत्थाणभंगो । एवं वेउव्वि०अंगो०। २३७. आहार० ज० बं० पंचणा०-छदंस०-सादा०-चदुसंज०-पंचणोक०-देवगदिपसत्यहावीसं-उच्चा०-पंचंत० णि. अणंतमुणब्भ० । आहार अंगों'. णितं तु० । तित्थ० सिया० अणंतगुणब्भः । एवं आहारंगोवंग० । २३८. तेजाक० हेहा उवरिं पंचिंदियभंगो। णाम० सत्याणभंगो । एवं तेजइगभंगो कम्मइ०-पसत्थवण्ण४-अगु०३-बादर-पज्जत्त-पत्ते-णिमि० । २३४. पश्यन्द्रिय जातिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार त्रस प्रकृतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। ___२३५. औदारिकशरीरके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार उद्योतकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। २३६. वैक्रियिकशरीरके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाले जीवके नामकर्मसे पूर्वकी और बादकी प्रकृतियोंका भङ्ग पञ्चन्द्रिय जातिके समान है। नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है । इसी प्रकार वैक्रियिक आङ्गोपाङ्गकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। २३७. आहारकशरीरके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, चार संज्वलन, पाँच नोकषाय, देवगति आदि प्रशस्त अट्ठाईस प्रकृतियाँ, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। आहारक आङ्गोपाङ्गका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार आहारक आङ्गोपाङ्गकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। २३८. तेजसशरीरके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाले जीवके नामकर्मसे पूर्वकी और बादकी प्रकृतियोंका भङ्ग पञ्चन्द्रिय जातिके समान है। नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार तैजसशरीरके समान कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक और निर्माणकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। १. ता० श्रा• प्रत्योः श्राहारभंगो• इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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