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________________ बंधसण्णियासपरूवणा १०१ २३६. समचदु० ज० ब० पंचणा०--णवदसणा०-मिच्छ०-सोलसक०-भय-दु०पंचंत० णि अणंतगुणब्भ० । सादासाद०-देवाउ०-उच्चा० सिया० । तं तु० । सत्तणोक०दोआउ०-णीचा० सिया० अणंतगुणब्भ० । णाम सत्थाणभंगो । एवं पसत्थवि०सुभग-सुस्सर-आदें। २४०. णग्गोद० ज० बं० पंचणा०-णवदंस०-मिच्छ०-सोलसक०-भय-दु०पंचंत० णिय० अणंतगुणब्भ० । सादासाद०-उच्चा० सिया० । तं तु० । सत्तणोक०दोआउ०-णीचा० सिया० अणंतगुणब्भ० । णाम० सत्थाणभंगो। एवं णग्गोद भंगो तिण्णिसंठा०-पंचसंघ० । २४१. हुंड० ज० बं० पंचणा०-णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक०-भय०-दु०-पंचंत० णि० अणंतगुणब्भ० । दोवेदणी०-तिण्णिआउ०-उच्चा० सिया० । तं तु० । सत्तणोक०णीचा० सिया० अणंतगुणब्भहियं० । णाम० सत्थाणभंगो। एवं हुंड भंगो भग-अणादें। . २३६. समचतुरस्त्र संस्थानके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, देवायु और उच्चगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है, तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। सात नोकपाय, दो आयु और नीचगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेयकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। २४०. न्यग्रोध संस्थानके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा और पाँच अन्तरायका नियमसे बन है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। सातावेदनीय, असातावेदनीय और उच्चगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है, तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है ,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। सात नोकषाय, दो आयु और नीचगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार न्यग्रोध संस्थानके समान तीन संस्थान और पाँच संहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। २४१. हुण्ड संस्थानके जघन्य अनुभागका वन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। दो वेदनीय, तीन आयु और उच्चगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है ,तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका वन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। सात नोकषाय और नीचगोत्र का कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार हुण्ड संस्थानके समान दुर्भग और अनादेयकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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