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महापंधे अणुभागबंधाहियारे २४२. ओरालि०अंगोज० ब० हेहाउरि ओरालियभंगो।णाम सत्थाणभंगो।
२४३. असंप० ज० बं० पंचणा०-णवदंस०-मिच्छ०-सोलसक०-भय०-दुगुं०पंचंत०णि अणंतगुणब्भ० दोवेदणी०-तिरिक्व०-मणुसाउ०-उच्चा० सिया। तंतु० । सत्तणोक०-णीचा० सिया० अणंतगुणब्भ० । णाम० सत्थाणभंगो।
२४४. आदाउज्जो० ज० बं० पंचणा०-णवदंस०-असादा०-मिच्छ०-सोलसक०पंचणोक०-णीचा०-पंचंत० णि० अणंतगुणब्भ० । णाम सत्थाणभंगो।
२४५. अप्पसत्थवि० ज० बं० पंचणा०-णवदंस०--मिच्छ०-सोलसक०-भय०दु०-पंचंत० णि० अणंतगुणब्भ० । सादासाद०-णिरयाउ०-उच्चा० सिया० । तं तु० । सत्तणोक०-दोआउ०--णीचा० सिया० अणतगुणब्भ० । णाम सत्थाणभंगो । एवं दुस्सर०।
२४६. सुहुम० ज० बं० पंचणा०-णवदंस०-मिच्छ०-सोलसक०-णqस०-भय०दु०-णीचा०-पंचंत० णि० अणंतगुणब्भ० । सादासाद०-तिरिक्खाउ० सिया०।तंतु० ।
___ २४२. औदारिक आङ्गोपाङ्गके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाले जीवके नामकर्मसे पूर्वकी और बादकी प्रकृतियोंका भंग औदारिकशरीरके समान है। तथा नामकर्मका भंग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है।
२४३. असम्प्राप्तामृपाटिका संहननके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। दो वेदनीय, तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु और उच्चगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है, तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। सात नोकषाय और नीचगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । नामकर्मका भंग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है।
२४४. आतप और उद्योतके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। नामकर्मका भंग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है।
२४५. अप्रशस्त विहायोगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, नरकायु और उच्चगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है, तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । सात नोकषाय, दो आयु और नीचगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। नामकर्मका भंग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार दुःस्वर प्रकृतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२४६. सूक्ष्मके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व. सोलह कषाय, नपुसकवेद, भय, जुगुप्सा, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। सातावेदनीय, असातावेदनीय और तियंञ्चायुका कदाचित् बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अज
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