________________
बंधसण्णियासपरूषणा
१०३
चदुणोक० सिया • अनंतगुणन्भ० । णाम० सत्थाणभंगो । एवं अपज्ज० - साधार० । णवरि
०
अपज्जते दोआउ० सिया० । तं तु० ।
२४७, थिर० ज० बं० पंचणा० छदंस० -- चंदुसंज० - भय०- ० दु० - पंचत० णि० अनंतगुणब्भ० | थीणगिद्धि ०३ - मिच्छ० - बारसक० -- -- सत्तणोक० -- तिरिक्ख- मणुसाउ०णीचा ० सिया० अनंतगु० । सादासाद० देवाउ० उच्चा० सिया० । तं तु० । णाम० सत्थाणभंगो । एवं सुभ-जस० ।
२४८. तित्थ० ज० बं० पंचणा० छंदंस०-असाद० - बारसक००- पुरिस०-अरदिसोग-भय-दु० - उच्चा० - पंचंत० णि० अनंतगुणग्भ० । णाम० सत्थाणभंगो ।
२४६. उच्चा० ज० बं० पंचणा०-- णवदंस०-मिच्छ० - सोलसक० - भय ०. [0-दु०पंचि ०- तेजा ० क ० --पसत्थापसत्थ०४- अगु०४-तस०४ - णिमि० - पंचंत० णि० अनंतगुणन्भहियं० । सादासाद० देवाउ ० छसंठा ० छस्संघ० - दोगदि-दो आणु० -- दोविहा०
घन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजयन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । चार नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है । इसी प्रकार अपर्याप्त और साधारण प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपर्याप्तके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव दो आयुओं का कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है, तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजधन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है ।
२४७. स्थिरके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, भय, जुगुप्सा और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, बारह कषाय, सात नोकषाय, तिर्यवायु, मनुव्यायु और नीचगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, देवायु और उच्चगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है, तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार शुभ और यशःकीर्तिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
२४८. तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, असातावेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियम से बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । नामकर्मका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है ।
२४६. उञ्चगोत्रके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिध्यात्व, सोलह कषाय, भय जुगुप्सा, पञ्च ेन्द्रिय जाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क, निर्माण और पाँच अन्तरायका नियम से बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, देवायु, छह संस्थान, छह संहनन, दो गति, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति और स्थिर आदि छह युगलका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है, तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है तो
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org