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________________ rrrrr ry १०४ महाबधे अणुभागबंधाहियारे थिरादिछयुग० सिया० । तं तु० । सत्तणोक० मणुसाउ०-दोसरीर-दोअंगो० सिया० अणंतगुणब्भहियं बंधदि । २५०. आदेसेण णिरएसु आभिणि. ज. बं० चदुणा०-छदसणा०-बारसक०-पंचणोक०-अप्पसत्थ०४-उप०-पंचंत० णि । तं तु० । साद०-मणुसग०पंचिंदि०--ओरालि०--तेजा०--क०--समचदु०--ओरालि०अंगो०-वज्जरि०-पसत्थ०-४मणुसाणु०--अगु०३-पसत्थवि०-तस०४-थिरादिछ०-णिमि०--उच्चा० णि० अणंतगुणब्भ० । तित्थ० सिया० अणंतगुणब्भ० । एवं आभिणिभंगो० तं तु० पदिदाणं सव्वाणं । २५१. णिद्दाणिदाए ज. बं० पंचणा०-छदंस०-साद०-बारसक०-पंचणोक०पंचिं०-ओरालि०-तेजा.-क०--समचदु०-ओरालि०अंगो०--वज्जरि०-पसत्यापसत्थ०४अगु०४-पसत्थवि०--तस०४-थिरादिछ०--णिमि०--पंचंत० णि० अणंतगु०। पचलापचला०-थीणगिद्धि-मिच्छ०-अणंताणु०४ णि० । तं तु० । तिरिक्ख०-तिरिक्खाणु०णीचा० सिया० । तं तु०। मणुस०-मणुसाणु०-उज्जो०-उच्चा० सिया० अणंतगुणब्भ। वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। सात नोकषाय, मनुष्यायु, दो शरीर और दो प्राङ्गोपाङ्गका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक अनुभागबन्ध करता है। २५०. आदेशसे नारकियोंमें आभिनिबोधिक ज्ञानावरणके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, पाँच नोकषाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। सातावेदनीय, मनुष्यगति, पञ्चन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराचसंहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति,सचतुष्क, स्थिर आदिछह, निर्माण और उच्चगोत्रका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। तीर्थङ्करका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार तंतुमतित सब प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष आभिनिबोधिक ज्ञानावरणके समान जानना चाहिए। २५१. निद्रानिद्राके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, बारह कषाय, पाँच नोकषाय, पञ्चन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराचसंहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। प्रत्रलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचारका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी. बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। तिर्यश्चगति, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है,तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। मनुष्यगति, मनुष्यगत्या १. श्रा० प्रतौ यीणगिद्धि०३ मिच्छा० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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