________________
१०५
बंधसण्णियासपरूवणा एवं पचलापचला०-थीणगिद्धि-मिच्छ०-अणंताणु०४ ।
२५२. साद० ज. बं० पंचणा०-छदसणा०-बारसक०-भय०-दु०-पंचिंदि०ओरालि०-तेजा-क० - ओरालि०अंगो०-पसत्यापसत्थ०४-अगु०४-तस०४-णिमि०पंचंत. णि० अणंतगु० । थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणु०४-सत्तणोक०-तिरिक्ख०तिरिक्वाणु०-उज्जो०-तित्थ०-णीचा. सिया० अणंतगुणब्भ० । दोआउ०-मणुसग०छस्संठा०-छस्संघ०-मणुसाणु०-दोविहा--थिरादिछ०-उच्चा० सिया० । तं तु० । एवं सादभंगो असाद-थिराथिर-सुभासुभ-जस०-अजस० ।
२५३. इत्थि० ज० बं० पंचणा० - णवदंस०-मिच्छ०-सोलसक०-भय-दु०पंचिंदि०-ओरालि-तेजा-क०-ओरालि अंगो०-पसत्थापसत्य०४-अगु०४-पसत्यःतस०४-सुभग-सुस्सर-आदें-णिमि०-पंचंत० णि० अणंतगुणब्भ० । सादासाद०-चदुणोक०-दोगदि-तिण्णिसंठा-तिण्णिसंघ०-दोआणु०-उज्जो०-थिराथिर-सुभासुभ-जस०अजस०-दोगोद० सिया० अणंतगुणन्भ० । एवं णवंस० । णवरि पंचसंठा०-पंचसंघ० सिया० अणंतगुणब्भ०। नुपूर्वी, उद्योत और उच्चगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारकी मुख्यतासे जानना चाहिए।
२५२. सातावेदनीयके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क, निर्माण और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, सात नोकषाय, तिर्यश्चगति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, उद्योत, तीर्थङ्कर और नीचगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। दो आयु, मनुष्यगति, छह संस्थान, छह संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, दो विहायोगति, स्थिर आदि छह और उच्चगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है, तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार सातावेदनीयके समान असातावेदनीय, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति और अयश:कीर्तिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२५३. स्त्रीवेदके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चन्द्रिय जाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार नोकषाय, दो गति, तीन संस्थान, तीन संहनन, दो आनुपूर्वी, उद्योत, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति, अयशःकीर्ति और दो गोत्रका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार नपुंसकवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि यह पाँच संस्थान और पाँच संहननका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य
१४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org