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________________ ઉપર भुजगारे अंतराणुगमो ए०, उ० तेतीसं० दे०। थीणगि०३-मिच्छ०-अणंताणु०४-इत्थि०-णस०-पंचसंठा०-पंचसंघ०-अप्पसत्य०-दूभग--दुस्सर-अणादे०-णीचा. तिएिणप० ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो०, उ० एकत्तीसं० दे० । साददंडओ णिरयभंगो । पुरिस०-समचदु०-वजरि०-पसत्य०-सुभग-सुस्सर-आदे०-उच्चा. तिषिणपदा सादभंगो। अवत्त० ज० अंतो०, उ० एकत्तीसं० देसू० । दोश्राउ० णिरयभंगो। तिरिक्ख०-तिरिक्खाणु०उज्जो० तिएिणप० ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो०, उ. अहारस साग० सादि । मणुस०-मणुसाणु० तिएिणप० सादभंगो। अवत्त० ज० अंतो०, उ. अहारह. सादि। एइंदि०-आदाव-थावर० तिण्णिप० ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो०, उ० बेसाग० सादिः । पंचिं०-ओरा अंगो०-तस० तिण्णिप० सादभंगो। अवत्त० ज० अंतो०, उ. बेसाग० सादिः । तित्थ० तिण्णिप० णाणा भंगो । एवं सव्वदेवाणं अप्पप्पणोअंतरं णेदवं। ४६५. एइदिएमु सव्वाणं पगदीणं भुज-अप्प० ज० ए०, उ० अंतो। अवहि० ओघं। बादरे अंगुलस्स असं०, बादरपज्जत्ते संज्ज्जाणि वाससहस्साणि, मुहुमाणं असंखेज्जा लोगा । सव्वाणं अवत्त० ज० उ० अंतो। तिरिक्खाउ० अवहि. णाणा भंगो । संसपदा पगदिअंतरं । मणुसाउ० तिण्णिप० ज० ए०, अवत्त० ज० उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन,अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर,अनादेय और नीच. गोत्रके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है,अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। सातावेदनीयदण्डकका भङ्ग नारकियोंके समान है। पुरुषवेद,समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षभनाराचसंहनन,सुभग, प्रशस्त विहायोगति, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रके तीन पदोंका भङ्ग सातावेदनीयके समान है। अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। दो आयुओंका भङ्ग नारकियोंके समान है । तिर्यश्चगति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और उद्योतके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है। मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वी के तीन पदोंका अन्तर सातावेदनीयके समान है। अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है । एकेन्द्रियजाति, आतप और स्थावरके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर है। पञ्चन्द्रियजाति, औदारिक प्राङ्गोपान और असके तीन पदोंका अन्तर सातावेदनीयके समान है। अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूत है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर है। तीर्थक्कर प्रकृतिके तीन पदोंका अन्तर ज्ञानावरणके समान है। इसी प्रकार सब देवोंके अपना-अपना अन्तर जानना चाहिए। .. ४६५. एकेन्द्रियोंमें सब प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। अवस्थितपदका अन्तर श्रोधके समान है। अवस्थितपदका उत्कृष्ट अन्तर बादरोंमें अङ्गुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है, बादर पर्याप्तकोंमें संख्यात हजार वर्ष है और सूक्ष्मोंमें असंख्यात लोकप्रमाण है। तथा सब (परिवर्तमान) प्रकृतियोंके अबक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । तिर्यश्चायुके अवस्थितपदका अन्तर झानावरणके समान १. श्रा० प्रती मणुमाणु० इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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