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________________ namanna રમર महाबंधे अणुभागबंधाहियारे उ० पुवकोडिपु० । देवग०-पंचिंदि०-वेउवि०-समचदु०-बेउवि अंगो०-देवाणु०-पर०. उस्सा०-पसत्य-तस०४-मुभग-मुस्सर-आदें-उच्चा० भुज०-अप्प०-अवहि० साद.. भंगो । अवत्त० ज० अंतो०, उ० पुव्वकोडी दे० । ४६२. पंचिंतिरिक्ख अप० सव्वाणं तिषिणपदा ज० ए०, उ० अंतो० । णवरि परियत्तमाणिगाणं अवत्त० ज० अंतो०, उ० अंतो० । एवं सव्वअपज्जत्तगाणं सव्वमुहुमपज्जत्तापज्जत्ताणं च । ४६३. मणुस०३ पंचिंदि०तिरिक्खभंगो। णवरि आहारदुगं तिण्णिपदा ज. ए०, अवत्त० ज० अंतो०, उ० पुवकोडिपु० । तित्थ० दोपदा ओघं । अवहि० ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो०, उ० पुव्वकोडी दे० । गवरि धुविगाणं अवत्त० ज० अंतो०, उ० पुवकोडिपुध० । ४६४. देवेमु धुविगाणं भुज०-अप्प० ज० ए०, उ० अंतो० । अवष्टि० ज० पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। देवगति, पञ्चन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर,समचतुरमसंस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, देवगत्यानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, मादेय और उचगोत्रके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितबन्धका भङ्ग सातावेदनीयके समान है। प्रवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है। विशेषार्थ-यहाँ स्त्यानगृद्धि आदिके अवस्थित बन्धका भङ्ग ज्ञानावरण के समान कहा है, अतः स्त्यानगृद्धि आदिके अवस्थितबन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान जानना चाहिए-यह इस कथनका तात्पर्य है। और इनके प्रवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर अवस्थितके उत्कृष्ट अन्तरके समान होता है। अतः इसको यहाँ अवस्थितके समान कहकर जघन्य की अपेक्षा विशेषता खोल दी है। इसी प्रकार यहाँ सातावेदनीय आदिके सब पद ओघके समान कहके अवस्थित पदको ज्ञानावरणके समान कहा है सो इसका यह तात्पर्य है कि सातावेदनीय मादिके शेष पदोंका जो अन्तर अोघमें कहा है,वह यहाँ जानना चाहिए । मात्र इनके अवस्थितपदका अन्तर जैसा यहाँ ज्ञानावरणके अवस्थित पदका कहा है, उस प्रकार जानना चाहिए। इसी प्रकार अन्य अन्तर घटित कर लेना चाहिए। ४६२. पञ्चन्द्रियतिर्यनअपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। इतनी विशेषता है कि परिवर्तमान प्रकृतियों के प्रवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। इसी प्रकार सब अपर्याप्त तथा सब सूक्ष्म और उनके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए। ४६३. मनुष्यत्रिकमें पञ्चन्द्रियतिर्यञ्चोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि आहारकद्विकके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके दो पदोंका अन्तर मोधके समान है । अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और दोनों पदोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है। इतनी विशे. षता है कि ध्रवबन्धवाली प्रकृतियोंके प्रवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। ४६४. देवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतरबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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