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________________ भुजगारे अंतराणुगमो २५१ सुभग-सुस्सर-आदें तिएिणपदा० सादभंगों'। अवत्त० ज० अंतो०, उ० पुब्धकोडी दे० । ओरालि. तिगिणप० णqसगभंगो । अवत्त० ओघं । ४६१. पंचिं-तिरिक्ख०३ धुविगाणं भुज०-अप्प० ओघं । अवढि० ज० ए०, उ० तिणिपलि. पुबकोडिपु० । थीणगिद्धिदंडओ तिरिक्खोघं । अवढि णाणा०भंगो। एवं अवत्त। [णवरि ज. अंतो०] । सादासाद०-चदुणोक०-थिरादितिण्णियु० सव्वपदा ओघं । अवहि० णाणा भंगो। अपञ्चक्खाण०४ दोपदा ओघं । अवहि० सादभंगो । अवत्त० ज० अंतो०, उ० पुवकोडिपुधत्तं । इत्थि० मिच्छ०भंगो। णवरि अवत्त तिरिक्खोघं । [ पुरिस० अवत्त तिरिक्खोघं । ] सेसपदा सादभंगो । णस० तिण्णिग०-चदुजा०-ओरा०-पंचसंग-ओरा अंगो०-छस्संघ०-तिण्णिाणु०आदाउजो०-अप्पसत्य-थावरादि०४-भग-दुस्सर-अणादें-णीचागो० भुज०-अप्प. ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो०, उ० पुव्वकोडी० दे०। अवहि० ज० ए०, उ० पुवकोडिपुध० । चत्तारि आऊणि तिरिक्खोघं । णवरि तिरिक्खाउ० अवहि० ज० ए०, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर और आदेयके तीन पदोंका भङ्ग सातावेदनीयके समान है । अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है। औदारिकशरीरके तीन पदोंका भङ्ग नपुंसकवेदके समान है। तथा प्रवक्तव्यपदका भङ्ग ओषके समान है। .. ४६१. पञ्चन्द्रियतिर्यश्चत्रिकमें ध्रुषबन्धवाली प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतरबन्धका भङ्ग ओघके समान है। अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्यप्रमाण है। स्त्यानगृद्धिदण्डकका भङ्ग सामान्य तिर्यश्चोंके समान है। इतना विशेष है कि अवस्थितबन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। इसी प्रकार अवक्तव्यबन्धका अन्तर काल जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार नोकषाय और स्थिर आदि तीन युगलके सब पदोंका भङ्ग पोषके समान है। मात्र अवस्थितबन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। अप्रत्याख्यानावरण दो पदोंका भङ्ग ओघके समान है। अवस्थितबन्धका भङ्ग सातावेदनीयके समान है। अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। स्त्रीवेदका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। इतनी विशेषता है कि अवक्तव्यबन्धका भंग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। पुरुषवेदके अवक्तव्यबन्धका भंग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है, शेष पदोंका भंग सातावेदनीयके समान है। नपुंसकवेद, तीन गति, चार जाति, औदारिकशरीर, पाँच संस्थान, औदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, तीन आनुपूर्वी, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर आदि चार, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्रके भुजगार और अल्पतरबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है, प्रवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और तीनों पदोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है। तथा भवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथ-स्त्वप्रमाण है। चारों भायुओंका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। इतनी विशेषता है कि तियेचायुके अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ठ अन्तर १. ता. श्रा०प्रोतिषिपदा सादासादभंगो० इति पाठः। २. ता. प्रा. प्रत्योः प्रवत्त. इति पाठः। ३ ता. पा. प्रत्योः एवं अवडि. सादासोद. इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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