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________________ २५. महाबंधे अणुभागवाहियारे ४६०. तिरिक्खेमु धुविगाणं भुज०-अप्प-अवहि० ओघ । थीणगिद्धि०३मिच्छ०--अणंताणु०४ भुज०-अप्प० ज० ए०, उ० तिएिणपलि० दे० । अवहि.. अवत्त० ओघ । साददंडओ ओघ । अप्पचक्खाण०४-वेउ०छ०--मणुस०-मणुसाणु०उखा० ओघं । इत्थि० अवत्त० ज० अंतो०, उ० तिएिणपलिदो० दे० । सेसपदा मिच्छत्तभंगो । गस०-चदुजा-पंचसंठा०-ओरालि०अंगो०-छस्संघ०-आदाउ०-अप्पसत्य०-थावरादि०४-भग-दुस्सर-अणादें भुज०-अप्पद० ज० ए०, उ० पुवकोडी देसू० । अवहि० ओघं । अवत्त० ज० अंतो०, उ० पुन्चकोडी दे० । पुरिस० तिएिणपदा सादभंगो । अवत्त० ज० अंतो०, उ० तिषिणप० दे। तिएिणआउ० तिएिणप० ज० ए०, अवत० ज० अंतो०, उ० पुव्वकोडितिभागा देसू० । तिरिक्खाउ० भुज०अप्प० ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो०. उ० पुव्वकोडी सादिः। अवटि तिरिक्खगदितिगं णqसगभंगो । अवत्तं ओघं। पंचिं०-समचदु०-पर०-उस्सा०-पसत्य०-तस०४न होनेसे इसके अन्तरका निषेध किया है। तथा प्रथमादि छह पृथिवियोंमें मनुष्यगतित्रिक का बन्धाबन्ध पुरुषवेदके समान है, अतः यहाँ इनके सब पदोंका अन्तर पुरुषवेदके समान कहा है। अवस्थित बन्धका उत्कृष्ट अन्तर भी यही है, क्योंकि तीर्थङ्कर प्रकृतिका उत्कृष्ट बन्धकाल इससे अधिक नहीं है। शेष कथन सुगम है। आगे आदेशसे भी जिस मार्गणामें अन्तरका विचार करना हो, उस मार्गणाके काल आदिको जान कर वह घटित कर लेना चाहिए। प्रन्थ विस्तार और पुनरक्त होनेके भयसे हम उस पर अलग-अलग विचार नहीं करेंगे। ४६०. तिर्यश्चोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों के भुजगार, अल्पतर और अवस्थितबन्धका भङ्ग ओषके समान है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारके भुजगार और अल्पतरबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्यप्रमाण है। अवस्थित और श्रवक्तव्यबन्धका अन्तर ओघके समान है। सातावेदनीयदण्डकका भङ्ग ओघके समान है। अप्रत्याख्यानावरण चार, वेक्रियिक छह, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्त और उच्चगोत्रका भङ्ग ओघके समान है। स्त्रीवेदके अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है। शेष पदोंका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। नपुंसकवेद, चार जाति, पाँच संस्थान, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर आदि चार, दुर्भग, दुःस्वर और अनादेयके भुजगार और अल्पतरबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है। अवस्थितबन्धका अन्तर ओघके समान है। तथा अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमहर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है । पुरुषवेदके तीन पदोंका भङ्ग सातावेदनीयके समान है। तथा अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्यप्रमाण है। तीन आयुओंके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है। श्रवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर छ और उक्त पदोंका उत्कृष्ट अन्तर एक पूर्वकोटिका कुछ कम विभागप्रमाण है। तिर्यश्चायुके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उक्त पदोंका उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक पूर्वकोटि प्रमाण है। तथा इसके अवस्थितबन्धका और तियश्चगतित्रिकका भङ्ग नपुंसकवेदके समान है। तथा तिर्यञ्चगतित्रिकके अवक्तव्यबन्धका भङ्ग पोषके समान है। पञ्चन्द्रियजाति, समचतुरस्मसंस्थान, परघात, उच्छवास, १. अवत्त० अवत्त० (१)ोघं इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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