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________________ मुजगारे अंतराणुगमो २४६ ४५६. णिरएमु धुविगाणं भुज०-अप्प० ज० ए०, उ० अंतो । अवहि० ज० ए०, उ० तेत्तीसं० दे० । थीणगि०३-मिच्छ० -अणंताणु०४-इत्थि०-णवंस०-दोगदिपंचसंठा-पंचसंघ०-दोआणु०-उज्जो०-अप्पस०-दूभग-दुस्सर-अणादें--दोगो० भुज०अप्प०-अवहि० ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो०, उ० तेत्तीसं० दे० । दोवेदणी०-चदुणोक-थिरादितिण्णियु० भुज-अप्प० ज० ए०, उ० अंतो० । अवहि० ज० ए०, उ० तेत्तीसं० देसू० । अवत्त० जहण्णु० अंतो० । पुरिस०-समच०-वज्जरि०-पसत्य०सुभग-सुस्सर-आर्दै भुज०-अप्प०-अवहि० साद भंगो । अवत्त० ज० अंतो०, उ० तेत्तीसं० देसू० । दोआयु० तिषिणपदा ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो०, उ० छम्मास दे० । तित्थ० भुज-अप्पद० ज० ए०, उ० अंतो० । अवहि० ज० ए०, उ० तिण्णिसाग० सादि० । अवत्त० पत्थि अंतरं। एवं सत्तमाए। छसु उवरिमासु मणुस०-मणुसाणु०-उच्चा० पुरिसभंगो। अवस्थितबन्धका उत्कृष्ट अन्तर भी यही है, क्योंकि तीर्थङ्कर प्रकृतिका उत्कृष्ट बन्धकाल इससे अधिक नहीं है । शेष कथन सुगम है । आगे आदेशसे भी जिस मार्गणामें अन्तरका विचार करना हो, उस मार्गणाके काल आदिको जानकर वह घटित कर लेना चाहिए। प्रन्यविस्तार और पुनरुक्त होनेके भयसे हम उस पर अलग-अलग विचार नहीं करेंगे। ४५६. नारकियोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतरबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, दो गति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, दो आनुपूर्षी, उद्योत, अप्रशस्त विहायो. गति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और दो गोत्रके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। दो वेदनीय, चार नोकषाय और स्थिर आदि तीन युगलके भुजगार और अल्पतरबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहर्त है। अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है । अवक्तव्यबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। पुरुषवेद, समचतुरस्रसंस्थान, वर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेयके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित. बन्धका भङ्ग सातावेदनीयके समान है। अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। दो श्रायुओंके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छह महीना है। तीर्थकरके भुजगार और अल्पतरबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन सागर है। प्रवक्तव्यबन्धका अन्तर काल नहीं है। इसी प्रकार सातवीं पृथिवीमें जानना चाहिए । प्रारम्भकी छह पृथिवियोंमें मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका भङ्ग पुरुषवेदके समान है। विशेषार्थ-जो तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध करनेवाला मनुष्य मिथ्यादृष्टि होकर नारकियोंमें उत्पन्न होता है, उसके इसका प्रवक्तव्यबन्ध तो होता है, पर दूसरी बार अवक्तव्यबन्ध सम्भव - १. आ० प्रती अहि. ज० ए० उ० अवत्त इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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