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________________ २४८ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे Arrrrrrrrrrrn अन्तमुहूर्त कहनेका कारण यह प्रतीत होता है कि इनमेंसे किसी एक प्रकृतिका दो बार अबन्धपूर्वक बन्ध अन्तमुहूर्तके अन्तरसे ही होता है। आठ कषायोंके प्रकृतिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है, इसलिए यहाँ इनके भुजगार और अल्पतरबन्धका उत्कृष्ट अन्तर उक्तप्रमाण कहा है। इनके अवस्थित और अवक्तव्यबन्धका अन्तर ज्ञानावरणके समान कहा है सो अवक्तव्यबन्धका अन्तर लाते समय वह अन्तर्मुहूर्त और अर्धपुद्गल परावर्तन कालके अन्तरसे दो बार संयमासंयम और संयमपूर्वक असंयममें ले जाकर लाना चाहिए। स्त्रीवेदके अवक्तव्यबन्धके जघन्य अन्तरका खुलासा सातावेदनीयके समान कर लेना चाहिए तथा किसी जीवने स्त्रीवेदका अवक्तव्यबन्ध करके कुछ कम दो छियासठ सागर काल तक उसका बन्ध नहीं किया। पुन: मिथ्यात्वमें आकर उसका अवक्तव्यबन्ध किया यह सम्भव है, इसलिए इसके प्रवक्तव्यबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छियासठ सागर प्रमाण कहा है। नपुंसकवेद आदिका बन्ध कुछ कम तीन पल्य अधिक दो छियासठ सागर काल तक नहीं होता, इसलिए इनके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्यबन्धका उत्कृष्ट अन्तर उक्तकाल प्रमाण कहा है। पुरुषवेदका यदि निरन्तर बन्ध हो तो साधिक दोछियासठ सागर काल तक होता है। इसके बाद ऐसे जीवके मिथ्यादृष्टि होने पर अन्य वेदोंका भी बन्ध सम्भव है, अतः इसके अवक्तव्यबन्धका उत्कृष्ट अन्तर उक्त काल प्रमाण कहा है। यहाँ प्रारम्भमें और अन्तमें अवक्तव्यबन्ध कराकर यह अन्तर लाना चाहिए । जो निरन्तर एकेन्द्रिय पर्यायमें रहता है, उसके अनन्तकाल तक तीन आयु और वैक्रियिकषट्कका बन्ध नहीं होता, अतः इनके चारों पदोंका उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल प्रमाण कहा है । तियश्चायुका बन्ध अधिकसे अधिक सौ सागर पृथक्त्व काल तक नहीं होता, अतः इसके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्यबन्धका उत्कृष्ट अन्तर सो सागर पृथक्त्व काल तक कहा है। तियश्चगतिद्विकका बन्ध १६३ सागर तक नह होता, इसलिए इनके भुजगार और अल्पतरबन्धका उत्कृष्ट अन्तर एक सौ त्रेसठ सागर प्रमाण कहा है। तथा अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंके निरन्तर इन दो प्रकृतियोंका ही बन्ध होता है और इनकी कायस्थिति असंख्यात लोक प्रमाण है, अतः इनके प्रवक्तव्यबन्धका उत्कृष्ट अन्तर उक्त काल प्रमाण कहा है। मनुष्यगतिद्विक और उच्चगोत्रका बन्ध अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंके नहीं होता, अतः इनके चारों पदोका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। चार जाति अ बन्ध अधिकसे अधिक एक सौ पचासी सागर तक नहीं होता, अतः इनके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्यबन्धका उत्कृष्ट अन्तर एक सौ पचासी सागर प्रमाण कहा है। पश्चन्द्रियजाति आदिका निरन्तर बन्ध एक सौ पचासी सागर तक होता रहता है, अतः इनके अवक्तव्यबन्धका उत्कृष्ट अन्तर एक सौ पचासी सागर प्रमाण कहा है । औदारिकशरीरका साधिक तीन पल्यतक बन्ध नहीं होता, अत: इसके भुजगार और अल्पतरबन्धका उत्कृष्ट अन्तर उक्तकाल प्रमाण कहा है और एकेन्द्रियों में अनन्त काल तक निरन्तर इसीका बन्ध होता है, अतः इसके अवक्तव्यबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अमन्तकाल कहा है। आहारकद्विकका अर्धपुद्गल परिवर्तन काल तक बन्ध न हो यह सम्भव है,अतः इनके चारों पदोंका उत्कृष्ट अन्तर उक्त काल प्रमाण कहा है। समचतुरस्त्रसंस्थान आदिका निरन्तरबन्ध कुछ कम तीन पल्य अधिक दो छियासठ सागर काल तक होता रहता है, अतः इनके प्रवक्तव्यबन्धका उत्कृष्ट अन्तर उक्तकाल प्रमाण कहा है। औदारिकआङ्गोपाङ्ग आदिका निरन्तर बन्ध साधिक तेतीस सागर काल तक होता रहता है, अतः इसके अवक्तव्यबन्धका उत्कृष्ट अन्तर उक्तकाल प्रमाण कहा है। उद्योतका बन्ध एक सौ बेसठ सागर काल तक नहीं होता, इसलिए इसके प्रवक्तव्यबन्धका उत्कृष्ट अन्तर उक्तकाल प्रमाण कहा है। एक पर्यायमें अन्तमुहूर्तके अन्तरसे दो बार उपशमश्रेणीपर आरोहण करनेवालेके तीर्थङ्कर प्रकृतिके अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होनेसे उक्तप्रमाण कहा है और साधिक तेतीस सागरके अन्तरसे दो बार उपशमणिपर आरोहण करने वालेके श्रवक्तव्यबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर प्राप्त होनेसे उक्तप्रमाण कहा है। इसके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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