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________________ भुजगारबंधे अंतराणुगमो २४७ पं चिंदियजादिभंगो | अवत्त० ज० अंतो०, उ० बेळाव हिसा० सादि० तिरिण पलि० देस्र० । ओरालि० अंगो ० वज्जरि० भुज० - अप्प ० -अवद्वि० ओरालि० भंगो । अवत्त० ज० अंतो०, उ० तेत्तीस सा० सादि० । उज्जो० तिरिण पदा तिरिक्खगदिभंगो । अवत्त० ज० तो ० उ० तेवडि० सदं । तित्थ० भुज०-अप्प० ज० ए०, उ० अंतो० । अबहि० ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो०, उ० तेत्तीस सा० सादि० दो पुव्वकोडी श्रो दोहि वास धत्तेहि ऊणियाओ सादिरेयं । णीचा० भुज० -- अप्प० -- अवडि० णवुंसगभंगो | अवत० ज० तो ० उ० असंखेज्जा लोगा । । ܕ जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य अधिक दो छियासठ सागरप्रमाण है। श्रदारिक आङ्गोपाङ्ग और वार्षभनाराच संहननके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितबन्धका भङ्ग औदारिकशरीर के समान है । अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। उद्योतके तीन पदोंका भङ्ग तिर्यञ्चगतिके समान है । अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर एकसौ त्रेसठ सागर है। तीर्थङ्कर प्रकृति भुजगार और अल्पतरबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है, यवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर दोनों पदोंका दो वर्ष पृथक्त्व कम दो पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागर है । नीचगोत्र भुजगार, अल्पतर और अवस्थितबन्धका भङ्ग नपुंसकवेदके समान है । अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है । विशेषार्थ - श्रघसे सब प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतरबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कह आये हैं, इसलिए यहाँ पाँच ज्ञानावरणादिके भुजगार और अल्पतरबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। आगे जिन प्रकृतियोंके इन पदोंका यह अन्तर कहा है, वह इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए । यतः भुजगार और अल्पतरबन्धका जघन्य काल और जघन्य अन्तर एक समय कहा है | अतः अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय बन जाता है तथा अनुभागबन्धके योग्य कुल परिणाम असंख्यात लोकप्रमाण है। अतः अवस्थितबन्धका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण कहा है; क्योंकि सब परिणामोंके होनेके बाद अवस्थितबन्धके योग्य परिणाम अवश्य प्राप्त होते हैं, ऐसा नियम है। आगे जिन प्रकृतियोंके इस पदका यह अन्तर कहा है, वह इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए । जो दो बार उपशमश्रेणिपर चढ़कर दो बार इन प्रकृतियोंका अबन्धक होकर पुनः बन्ध करता है, उसके इन प्रकृतियों के अवक्तव्यबन्धका अन्तर प्राप्त होता है । किन्तु उपशमणि पर रो अन्तर्मुहूर्त के अन्तर से भी सम्भव है और कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन के अन्तरसे भी सम्भव अतः इन प्रकृतियों के अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण कहा है। स्त्यानगृद्धि तीन आदिका प्रकृतिबन्धसम्बन्धी उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छियासठ सागरप्रमाण है। इसलिए इन प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतरबन्धका उत्कृष्ट अन्तर उक्त प्रमाण कहा है, क्योंकि इतने काल तक इन प्रकृतियोंका बन्ध न होने से भुजगार आदि पद कैसे सम्भव हो सकते हैं ! तथा इनके अवस्थित और अवक्तव्यबन्धका अन्तर ज्ञानावरण के समान कहा है सो यहाँ अवक्तव्यबन्धका अन्तर अन्तर्मुहूर्त और कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन के अन्तर से दो बार सम्यक्त्वपूर्वक मिध्यात्वमें ले जाकर लाना चाहिए । सातावेदनीय आदि सब परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं और इनके प्रकृतिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। फिर भी यहाँ इनके अवक्तव्यबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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