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________________ २४६ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे वेउन्वियछ० भुज०-अप्प० अवहि० ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो'०, उ० चदुण्णं पि अणंतकालं । तिरिक्खाउ० भुज०-अप्प० ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो', उ० सागरोवमसदपुध० । अवहि० णाणा भंगो। तिरिक्ख०-तिरिक्खाणु० भुज०--अप्प० ज० ए०, उ० तेवहि०सा०सदं० । अवहि० णाणा भंगो । अवत्त० ज० अंतो०, उ० असंईज्जा लोगा। मणुस०--मणुसाणु०-उच्चा० भुज०-अप्प० -अवहि० ज० ए०, अवत्त० ज. अंतो०, उ० सव्वाणं असंखेंज्जा लोगा। चदुजा०--आदाव०-थावरादि०४ भुज०अप्प० ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो०, उ० पंचासीदिसागरोवमसदं । अवहिणाणा०भंगो । पंचि०-पर०-उस्सा०-तस०४ भुज०-अप्प० ज० ए०, उ० अंतो० । अवढि० णाणा भंगो । अवत्त० ज० अंतो०, उ० पंचासीदिसागरोवमसदं । ओरा० भुज०अप्प० ज० ए०, उ० तिरिण पलि० सादि० । अवहि० णाणा भंगो । अवत्त० ज० अंतो०, उ० अणंतका० । आहार०२ भुज०-अप्प०-अवहि० ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो०, उ. अद्धपोग्गल । समचदु०-पसत्थवि०-सुभग-सुस्सर-आदें तिएिण पदा के समान है। श्रवक्तव्यवन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो छियासठ सागरप्रमाण है। तीन आयु और वैक्रियिक छहके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और चारों ही पदोंका उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है। तिर्यञ्चायुके भुजगार और अल्पतरबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और तीनों ही पदोंका उत्कृष्ट अन्तर सौ सागरपृथक्त्वप्रमाण है। अवस्थितबन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । तिर्यश्चगति और तिर्यश्वगत्यानुपूर्वीके भुजगार और अल्पतरवन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर एकसौ ग्रेसठ सागरप्रमाण है। अवस्थितबन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है । मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, और उच्चगोत्रके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहर्त है और सब पदोंका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। चार जाति, भातप और स्थावर आदि चारके भुजगार और अल्पतरबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और सब पदोंका उत्कृष्ट अन्तर एकसौ पचासी सागर है । अवस्थितबन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । पश्वोन्द्रियजाति, परघात, उच्छ्वास और सचतुष्कके भुजगार और अल्पतरबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । अवस्थितबन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर एकसौ पचासी सागर है। औदारिकशरीरके भजगार और अल्पतरबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन पल्य है। अचूस्थितबन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है। आहारकद्विकके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और सब पदोंका उत्कृष्ठ अन्तर कुछ फम अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और मादेयके तीन पदोंका भङ्ग पञ्चन्द्रियजातिके समान है । अवक्तव्यबन्धका १. ता. प्रतौ अवत्त० अंतो० इति पाठः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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