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________________ वंधसणियासपरूवणा www ८०. मिच्छ० ज० बं० अणंताणु०४ णि० बं० । तं० तु.। बारसक०-पंच. णोक० णि. अणंतगुणब्भहियं० । एवं अणंताणु०४ । अपञ्चक्वा०कोध० ज० बं० ऍकारसक०-पंचणोक० णि० । तं तु० । एवमण्णमण्णस्स । तं तु० । इत्थि० ज० बं० मिच्छ०-सोलसक०-भय-दु० णिय० अणंतगुणब्भहि० । हस्स-रदि-अरदि-सोग० सिया० अणंतगुणब्भ० । एवं णवूस० । अरदि० ज० बं० बारसक०-पुरिस०-भय-दु०. णिय० अणंतगुणब्भ० । सोग० णि । तं तु० । एवं सोग० । ८१. तिरिक्ख०-तिरिक्वाणु० ओघं । मणुसग० मणुसाणु० ओघं । णवरि अपज्जतं वज्ज । पंचिंदि० ज० बं० तिरिक्व०-हुंड०-असंप०-अप्पसत्थ०४-तिरिक्वाणु०उप०-अप्पसत्थवि०-अथिरादिछ० णिय. अणंतगुणब्भ० । ओरालि०-तेजा०-क०ओरालि० अंगो०--पसत्थ०४-अगु०३-तस०४-णिमि० णिय० । तं तु० । उज्जो. और गोत्र कर्मका भङ्ग अोधके समान है। ८०. मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव अनन्तानुबन्धी चारका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। बारह कषाय और पाँच नोकषायका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी चारकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । अप्रत्याख्यानावरण क्रोधके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव ग्यारह कषाय और पाँच नोकषायका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । इसी प्रकार इन सब प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु इनमेंसे किसी एकके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव शेषका नियमसे बन्ध करता है जो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। स्त्रीवेदके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव मिथ्यात्व, सोलह कषाय,भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । हास्य, रति, अरति और शोकका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार नपुंसक वेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। अरतिके जघन्य अनुभागका वध करनेवाला जीव बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । शोकका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थानपतित वृद्धिरूप होता है । इसी प्रकार शोककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। ८१. तिर्यश्चगति.और तियश्चगत्यानुपूर्वीका भङ्ग ओघके समान है । तथा मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वी का भङ्ग श्रोधके समान है। इतनी विशेषता है कि अपर्याप्तको छोड़कर सन्निकर्ष कहना चाहिए। पञ्चन्द्रिय जातिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति, हुण्ड संस्थान, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, अप्रशस्त वर्णचतुष्क.तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी. उपघात. अप्रश विहायोगति और अस्थिर आदि छहका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, सचतुष्क, और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी १. ता० श्रा० प्रत्योः अणंताणु०४ णिमि. णि० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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