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________________ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे सिया० । तं तु० । एवं एदाओ ऍकमेक्कस्स । तं तु० । छस्संठा०-छस्संघ०-दोविहा०छयुगल०--तित्थय० ओघं । अप्पसत्थवण्ण० ज० बं० मणुस०-पंचिदि०-तिण्णिसरीरसमचदु०-ओरालि०अंगो०--वज्जरि०---पसत्थव०४-मणुसाणु०--अगु०३--पसत्य०तस०४-थिरादिछ०-णिमि० णिय० अणंतगुणब्भ० । अप्पसत्थगंध०३-उप० णिय० । तं तु० । एवं एदाओ ऍकमेक्कस्स । तं तु० । छसु उवरिमासु तिरिक्ख०-तिरिक्खाणु० मणुसगदिभंगो । सेसं णिरयोघं ।। ८२. सत्तमाए तिरिक्व०-तिरिक्वाणु० ओघं । मणुसग० ज० बं० पंचिंदि०ओरालि०-तेजा०-क०-समचदु०-ओरालि०अंगो०-वज्जरि०-पसत्थापसत्य०४-अगु०४पसत्य०--तस०४-अथिर-असुभ-सुभग-सुस्सर-आदें-अजस०--णिमि० णि अणंतगुणब्भ० । मणुसाणु० णि० । तं तु० । एवं मणुसाणु । पंचिंदियदंडओ णिरयोघं । बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभाग का बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरुप होता है। उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो जघन्य अनुभागका भी वन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थानपतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार इन प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए । किन्तु इनमेंसे किसी एक प्रकृतिका बन्ध करनेवाला जीव शेषके जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थानपतित वृद्धिरूप होता है। छह संस्थान, छह संहनन, दो विहायोगति, छह युगल और तीर्थकर प्रकृतिका भङ्ग ओघके समान है। अप्रशस्त वर्णके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव मनुष्यगति, पञ्चन्द्रियजाति, तीन शरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर आदि छह और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। अप्रशस्त गन्धत्रिक और उपघातका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धि रूप होता है। इसी प्रकार इन प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए । किन्तु इनमें से किसी एकका बन्ध करनेवाला जीव शेषका उसी प्रकार बन्ध करता है, जिस प्रकार अप्रशस्त वर्णकी मुख्यतासे कह आये हैं। ऊपरकी छह पृथिवियोंमें तिर्यश्चगति और तिर्यश्चगत्यानुपूर्वीका भङ्ग मनुष्यगतिके समान जानना चाहिए। शेष भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है। ५२. सातवीं पृथिवीमें तिर्यश्चगति और तिर्यश्वगत्यानुपूर्वीका भङ्ग ओघके समान है। मनुष्यगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, समुचतुरस्र संस्थान. औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, अयशःकीर्ति और निर्माणका नियमसे वन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। मनुष्यगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार मनुष्यंगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । पञ्चन्द्रियजाति दण्डकका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है। १ ता० प्रा० प्रत्योः तं तु० सिया० अणंतगु० एवं इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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