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________________ बंधसण्णियासपरूवणा ८३. समचदु० ज० बं० तिरिक्ख०-पंचिं०-ओरालि०-तेजा०-क०--ओरालि.. अंगो०---पसत्यापसत्य०४-तिरिक्वाणु०--अगु०४-तस०४--णिमि० णिय० अणंतगुणभ० । छस्संघ०-दोविहा०-थिरादिङयुग० सिया० । तं तु । उज्जो० सिया० अणतगुणब्भ० । एवं पंचसंठा०-छसंघ०-दोविहा०-मझिल्लाणि युगलाणि । थिर० ज० बं० तिरिक्ख०-मणुस०--दोआणु०--उज्जो० सिया० अणंतगुणब्भ०। पंचिंदियदंडओ णिय० अणंतगुणब्भ०। छस्संठा०-छस्संघ०-दोविहा०-सुभगादिपंचयुग० सिया०। तं तु० । एवं अथिर-सुभासुभ-जस०-अजस० । सेसाणं णिरयोघं । ८४. तिरिक्खेसु छण्णं कम्माणं णिरयोघभंगो। मोहणीयं ओघो। णवरि पञ्चक्खाणकोध० ज० बं० सत्तक०-पंचणोक० णिय० ! तं तु.। एवमण्णमण्णस्स । तं तु० । अरदि० ज० बं० अहक०-पुरिस-भय०-दु० णिय० अणंतगुणब्भ० । सोग णि । तं तु०। एवं सोग। ८३. समचतुरस्त्रसंस्थानके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति, पञ्चन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगणा अधिक होता है। छह संहनन, दो विहायोगति और स्थिर आदि छह युगलका कदाचित् बन्ध करता है। किन्तु यह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धि रूप होता है। उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। इसीप्रकार पाँच संस्थान, छह संहनन, दो विहायोगति और मध्यके तीन युगलोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। स्थिर प्रकृतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति, मनुष्यगति, दो आनुपूर्वी और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। पञ्चन्द्रियजातिदण्डकका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । छह संस्थान, छह संहनन, दो विहायोगति और सुभग आदि पाँच युगलका कदाचित् बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति और अयशःकीर्तिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है। ___८४. तिर्यञ्चोंमें छह कर्मोंका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है। मोहनीय कर्मका भङ्ग ओषके समान है । इतनी विशेषता है कि प्रत्याख्यानावरण क्रोधके जघन्य अनुभागका बन्ध करने वाला जीव सात कषाय और पाँच नोकषायका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार इन प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु इनमेंसे किसी एकके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव शेष प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है। जो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। अरतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव आठ कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है जो अनंतगुणा अधिक होता है। शोकका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य मनु ६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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