SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २ wwwwwwwwwwwwwwwww महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ८५. चद्ग०-चदुजादि-छस्संठा०-छस्संघ०-चदुआणु०-दोविहा०-थावरादि०४थिरादिछयुग० ओघं । पंचिंदि० ज० बं० णिरय०--हुंड०--अप्पसत्थ.४-णिरयाणु०उप०-अप्पसत्थ०-अथिरादिछ० णिय० अणंतगुणब्भ० । वेउवि०-तेजा०-क०-वेउन्वि० अंगो०-पसत्य०४--अगु०३-तस०४-णिमि० णि । तं तु० । एवमेदाओ ऍक्कमेकस्स । तं तु.। ८६. ओरालि० ज० बं० तिरिक्ख०-एइंदि०-तेजा०-क०-हुंड०-पसत्थापसत्य०४तिरिक्खाणु०-अगु०-उप०-थावरादि०४-अथिरादिपंच-णिमि०णिय. अणंतगुणब्भ०। ओरालि०अंगो० ज० बं० तिरिक्ख०--बेइंदि०--ओरालि०--तेजा०-हुंड०-असंप०पसत्यापसत्थ०४-तिरिक्खाणु०-अगु०-उप०-तस०-बादर--अपज्जा-पत्ते०-अथिरादिपंचणिमि० णिय० अणंतगुणब्भ। ८७. आदाव० ज० ब० तिरिक्व०-एइंदि०-ओरालि०-तेजा-क०-हुंड०-पसत्थापसत्थवण्ण०४-तिरिक्खाणु०-अगु०४-थावर-बादर-पज्जत्त-पत्ते०-अथिरादिपंच-णिमि० णि० अणंतगु०। एवं उज्जो० । अप्पसत्थ०४-उप० ओघं । एवं पंचिंदियतिरिक्ख०३। भागका भी बन्ध करता है। यदि आजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । इसी प्रकार शोककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। ८५. चार गति, चार जाति, छह संस्थान, छह संहनन, चार आनुपूर्वी, दो विहायोगति, स्थावर आदि चार और स्थिर आदि छह युगलका भङ्ग ओघके समान है। पश्चन्द्रिय जातिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव नरकगति, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, नरकगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति और अस्थिर आदि छहका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। वैक्रियिकशरीर. तेजसशरीर, कार्मणशरीर, वैक्रियिक प्राङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, त्रसचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतिल वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार इनका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु वह उसी प्रकार जानना चाहिए, जिस प्रकार पश्चन्द्रिय जातिकी मुख्यतासे कहा है। ८६. औदारिकशरीरके जघन्य अतुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कामणशरीर, हुण्डसंस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलबु, उपघात, स्थावर आदि चार, अस्थिर आदि पाँच और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। औदारिक प्राङ्गोपाङ्गके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यश्चगति, द्वीन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, त्रस, बादर, अपर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर आदि पाँच और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। ८७. आतपके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय जाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, स्थावर, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर आदि पाँच और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार उद्योतकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001392
Book TitleMahabandho Part 5
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages426
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy