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वंधसण्णियासपरूवणा
णवरि [ तिरिक्ख०- ] तिरिक्खाणु० परियत्तमाणियासु कादव्वं ।
८८. पंचिंदि०तिरिक्व० अपज्ज. पंचण्ण कम्माणं णिरयभंगो। णिहाणिदाए ज० बं० अहदं० णि० । तं तु० । एवमण्णमण्णस्स । तं तु०।
८६. मिच्छ० ज० बं० सोलसक-पंचणोक० णियः । तं तु० । एवमेदाओ ऍक्कमकस्स । तं तु० । सेसं णिरयभंगो।
६०. तिरिक्व० ज० बं० पंचजादि-छस्संठाण-छस्संघ०--दोविहा०-तस -थावरादिदसयुग० सिया० । तं तु०। ओरालि०--तेजा०-०-पसत्थापसत्थ०४-अगु०-. उप०-णिमि० अर्णतगुणब्भ० । ओरालि०अंगो०-पर०-उस्सा-आदाउज्जो० सिया० अणंतगुणब्भ० । तिरिक्वाणु० णिय० । तं तु० । एवं तिरिक्वाणु० । मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। अप्रशस्त वर्णचतुष्क और उपघातकी मुख्यतासे सन्निकर्ष श्रोघके समान जानना चाहिए। इसी प्रकार अर्थात् सामान्य तिर्यञ्चके समान पञ्चन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें तिर्यश्चगति और तिर्यश्चगत्यानुपूर्वीकी परिगणना परिवर्तमान प्रकृतियोंमें करनी चाहिए।
. पञ्चोन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें पाँच कर्मोंका भङ्ग नारकियोंके समान है। निद्रानिद्राके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव आठ दर्शनावरणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार इन सबका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए जो उसी प्रकार होता है, जैसा निद्रानिद्राकी मुख्यतासे कहा है।
८६. मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव सोलह कषाय और पाँच नोकपायका नियमसे वन्ध करता है। किन्तु यह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार इन सब प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु इनमेंसे किसी एकके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव शेषका नियमसे वन्ध करता है जो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है।
९. तिर्यञ्चगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच जाति, छह संस्थान, छह संहनन, दो विहायोगति. त्रस और स्थावर ग्रादि दस युगलका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है।
औदारिकशरीर, सैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। औदारिक आङ्गोपाङ, परघात, उच्छवास, आतप और उद्योतका पदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वीका नियमसे बंध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी यन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार तिर्यश्वगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
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